विशेष टिप्पणी

लॉकडाउन के खोलने की दरपेश चुनौतियां

कैलाश बनवासी

21 दिनों के अनिवार्य किन्तु अकस्मात घोषित लॉक डाउन के पश्चात् लाख टके का सवाल यह है कि आगे चार दिनों के बाद होगा क्या? लॉक डाउन जारी रहेगा, या इसमें कुछ छूट मिलेगी? ओडिशा सरकार ने दो दिन पहले ही अपने राज्य का लॉक डाउन 30 अप्रैल तक बढ़ा दिया है.और विभिन्न चैनलों में इस बात की चर्चा है कि विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री—छत्तीसगढ़ समेत—इसके बढाए जाने के पक्ष में हैं. इस पर अभी विचारमंथन का दौर जारी है,जो कि सर्वाधिक उचित भी है कि ऐसे बेहद गंभीर,नाजुक और संवेदनशील मसले पर काफी गहराई से सोच-विचार कर ही निर्णय लिया जाए. इसे आनन-फानन में किसी देशभक्ति उत्सव या इवेंट में बदलने के विचार से कोसों दूर हटकर.

सूनी-सूनी गलियां और सड़कें,सन्नाटा,निर्जनता...यह सब देखते-देखते लॉक डाउन का एक लम्बा समय बीत जाने के बाद,सबके मन में  इससे जितनी जल्द हो उबर पाने की,और जीवन के पटरी पर लौट आने की बहुत स्वाभाविक इच्छा बनी हुई है. लेकिन दूसरी तरफ,इस समस्या की विकरालता और प्रकृति तत्काल भयभीत करती है. इस महामारी ने पूरे विश्व को,हमारे जन-जीवन को गहरे प्रभावित किया है. मरनेवालों की संख्या देश-विदेशों के मिलाकर एक लाख से ऊपर आ जाना इसकी भयावहता को बताने के लिए काफी है. इस पूरे दौर में बहुत अभावों के बीच भी जिस तरह से स्वास्थ्यकर्मी,पुलिस, प्रशासन, सेवाभावी एजेंसियां और संगठन इसका मुकाबला युद्धस्तर पर कर रहे हैं,देश-प्रदेश के लिए यह अत्यंत गौरव और गर्व का विषय है. ऐसे समय में इनके कर्तव्यनिष्ठता और सहयोग के लिए जितनी भी प्रसंशा की जाय,वह कम है. खासकर स्वास्थ्य विभाग जो कई तरह के अभावों,असुविधा के बाद इसमें जिस लगन और प्रतिबद्धता से,अपनी बीमारी का जोखिम लेकर भी डटा-जुटा हुआ है,उसे सलाम! ऐसी मिसाल संभवतः युद्धकाल में ही देखने को मिलती है.

अभी तक लॉक डाउन के अनतर्गत ज्यादातर लोगों को भी इसके खतरों की गंभीरता का,साथ ही इस दरमियान--मजबूरी में ही सही--उन्हें अपनी जिम्मेदारी का कुछ-कुछ अहसास हो गया है. यह अलग बात है कि कई लोग अभी भी इसे उस रूप में नहीं देख और समझ पा रहे हैं,जिसके कारण पुलिसिया/कानूनी  दबावों की जरूरत पेश आती है.सच्चाई यह भी है कि देश में विषम परिस्थितियों में लागू यह सर्वथा नए किस्म का जनता कर्फ्यू है,जिसकी व्यापक समझ नहीं बन सकी है. ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की अवधारणा भी उनके लिए नयी है.इसलिए,लॉक डाउन में अगर रिलेक्सेशन मिलती है,तो यह सभी विभागों और प्रशासन के लिए जिम्मेदारी को और बढ़ानेवाला  काम होगा. इस छूट का मतलब दिनचर्या का फिर से पुराने ढर्रे पर लौट आने का तो कतई-कतई नहीं होगा. वहीं, इस लॉक डाउन से आज नही तो कल,बाहर आना ही है. तब प्रश्न है कि क्या, बहुत सतर्कता और जिम्मेदारी बरतते हुए विभिन्न राज्य सरकारें इसमें रिलेक्सेशन की तरफ बढ़ सकती हैं? जैसे हालात हैं उसमें फिर से उसी पटरी पर जीवन का कुछ हफ़्तों तो छोड़िये,महीनों में भी आ पाना असम्भव है ! देश की आर्थिक गति पर इससे सबसे बड़ा धक्का लगा है,जिसका आंकलन विषय विशेषग्य खरबों में कर रहे हैं. रेल,कल कारख़ाने बंद,ट्रक,टैक्सीयों,से लेकर इ-रिक्से सब बंद हैं. हैं, छोटे-मोटे उद्योग धंधे और निर्माण कार्य सब बंद हैं.जिसकी सबसे बड़ी मार दिहाड़ी मजदूरों पर पड़ी है. बेरोजगारी में इन कामगारों की हालत बदतर हो गयी है. फिर कृषि में भी कम संकट और पीड़ा नहीं है.मजदूरों के अभाव में कटाई को तैयार फसल चौपट हुई जा रही है. अपनी फसलों को जानवरों के लिए चरने को छोड़ने के लिए किसानों/मालिकों को विवश होना पड़ रहा है.देश पर आ पड़े इस आर्थिक सुनामी से उबर पाना आसान नहीं होगा. असंगठित मजदूर,जो कुल मजदूरों की संख्या का 90 प्रतिशत हैं,जिनकी अनुमानित संख्या 35-40 करोड़ है, रास्ट्रीय स्तर पर इन्हें देखें तो इनमें से लाखों जीविकोपार्जन की अनिश्चिंतता के कारण अपने गाँव-घरों की ओर लौट गए हैं. इसलिए छोटे-मोटे दुकानों,व्यापारियों से लेकर उद्योग-धंधों को भी सँभालने में लंबा वक्त लगेगा. देश की सोयी आर्थिक स्थिति में कुछ बदलाव लाने.जन-जीवन को फिर गति देने  के लिए आवश्यकता अनुरूप  और सावधानीपूर्वक शुरुआत की जा सकती है.इन्हें दुबारा उनका जीवन लौटाना है,लेकिन उनका जीवन ले लेने की शर्त पर तो बिलकुल नहीं. इसलिए एक दीर्घकालिक सुनियोजित कार्यप्रणाली और व्यवस्था बनाने के बाद, क्रमशः छोटे-छोटे पॉकेट्स में ही इन्हें छूट दी जा सकती है.

अपने राज्य छत्तीसगढ़ में देखें, तो अभी दर्ज हुए कटघोरा के नए सात केस के अलावा बड़े पैमाने पर इससे संक्रमण की सूचना नहीं है.और कोरोना पॉजिटिव मरीजों के स्वस्थ होने की प्रगति शानदार है,जिसके लिए निश्चय ही मुख्यमंत्री सहित पूरा अमला ढेरों बधाई का हक़दार है. एहतियातन ऐसे  चिन्हित गहरे संवेदनशील क्षेत्रों को पूरी तरह सील किया जाकर अप्रभावित क्षेत्रों में सावधानीपूर्वक,नजर रखते हुए छूट दी जा सकती है.जैसे गांवों में अभी मनरेगा कार्य चलाये जा रहे हैं.यह भी सुनिश्चित करना होगा कि बेघरबार,या कहीं फंसे हुए मजदूरों या काम न होने की स्थिति में उनके भोजन-राशन की व्यवस्था वैसे ही बरकरार रहे,वे आश्वस्त रहें, जिससे किसी किस्म की अफरा-तफरी ना मचे. और यहीं दानदाताओं,सेवाभावी लोगों,संगठनों से इस सम्बन्ध में यह कहना उचित लगता है,कि उनकी मदद की जरूरत ऐसे जरूरतमंद लोगों को अभी आगे बहुत लम्बे समय तक पड़ने वाली है.इसलिए केवल इसी फेस में उनकी उत्साही सहायता कर लेने से समस्या समाप्त नहीं होने वाली है.इस जज्बे को लम्बे समय तक निरंतर बरकरार रखने की जरूरत है. शासन सहित ऐसे सभी समाज सेवी संगठनों को इनके मदद की एक दीर्घकालिक योजना बनानी होगी, क्योंकि उनकी असली समस्या तो लॉक डाउन के इन फेसेज़ से बाहर आने के बाद शुरू होगी.आवश्यक सेवाओं के लिए ही सरकारी कार्यालय खोले जाएँ,जिसमें लॉक डाउन जैसी स्थिति निरंतर बनाकर रखी जाए. अप्रभावित क्षेत्रों,जिलों में इसमें किश्तों में धीरे-धीरे छूट दे देने से,और इनसे हासिल अनुभवों के आधार पर, आगे बड़े दायरे को छूट देने की ठोस रणनीति बनाने में मदद मिलेगी.

सबको जन-जीवन सामान्य होने का इन्तजार है.और उस दिशा में कदम बढ़ें,तो स्वभाविक है,सबको ख़ुशी होगी. ऐसे में महाकवि निराला की ये काव्य-पक्तियां कितनी प्रासंगिक हैं—

  अभी न होगा मेरा अंत

  पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं

  अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूंगा मैं

  द्वार दिखा दूंगा फिर उनको

  हैं मेरे वे जहां अनंत

  अभी न होगा मेरा अंत

 

 - लेखक का संपर्क नंबर- 9827993920   

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मसीही समाज के पागल !

राजकुमार सोनी

लॉकडाउन के दौरान जब दो लेख-एक पागल लड़का...एक पागल लड़की और दुर्ग शहर के पागल में गरीबों की मदद करने वालों को मैंने पागल कहकर संबोधित किया तो ज्यादातर लोगों ने यह माना कि जनता के बीच... जनता के लिए पूरी सुरक्षा और संवेदना के साथ काम करने वाला पागलपन बेहद जानदार है.

बहुत से लोगों ने पागलों के साथ काम करने की इच्छा जताई तो कुछेक लोगों की यह शिकायत भी थी कि मैं पागलपन की आड़ लेकर टकले पर दीया जलाने वाले भक्तों पर हमले कर रहा हूं. कतिपय भक्तगणों का कहना था कि मैं अब निष्पक्ष नहीं रहा. ( हालांकि भक्तों के प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं है ) फिर भी यह साफ कर देना चाहता हूं कि अब मैं उस तरह की मीडिया का हिस्सा नहीं हूं जिसे लोग सुबह-शाम गंदी-गंदी गाली देते है. कोई चैनल वालों को गाली बकता है तो कोई अखबार वालों को. हर रोज दलाल... फलाल... हलाल जैसे शब्द इधर-उधर विचरण करते हुए मिल जाते हैं. जो लोग निष्पक्ष पत्रकारिता का दावा करते हैं उन्हें एक बार यह बताना मेरा काम है कि मीडिया से जुड़े ज्यादातर घराने सबसे बड़े फेंकू की ब्रांडिग को ही पत्रकारिता मान बैठे हैं. इसलिए हे जगत के पालनहारों...आप लोगों को भी कथित तौर पर निष्पक्ष दिखने वाली पवित्रता का पाखंड बंद कर देना चाहिए. गंगाजल से नहा-धोकर तिलक-चंदन चुपड़कर ज्ञान बघारने की प्रवृति पर जितनी जल्दी विराम लग जाय उतना हम सबके लिए अच्छा है. फेंकूराम के समर्थकों को तो लोग अंधभक्त...और भी न जाने कौन-कौन सी उपाधियों से नवाजते हैं, लेकिन मीडिया को गोदी मीडिया क्यों कहा जाने लगा है इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है.

बहरहाल आज हम बात करने जा रहे हैं मसीही समाज से जुड़े पागलों की. छत्तीसगढ़ में क्रिश्यन फोरम नाम का एक संगठन है. इस फोरम के अध्यक्ष अरुण पन्नालाल और महासचिव अंकुश बरियेकर को कई सालों से जानता हूं. पिछले 22 मार्च को जब पूरे देश को लॉकडाउन में तब्दील कर देने की घोषणा हुई तो मुझे उनकी याद आई. मैं इस बात के लिए आश्वस्त था कि चाहे जो हो... सेवा कार्य में जुटा क्रिश्यन फोरम इधर-उधर फंसे हुए गरीबों और मजदूरों की मदद अवश्य करेगा. मेरा सोचना सही था. लॉकडाउन के दूसरे दिन यानी 23 मार्च को मुझे यह संदेश मिला कि फोरम से जुड़े रविन्द्र सिंह, अतुल आर्थर, राजू गोसाला, कुसुम, शीतल, चित्रलेखा और निर्मला, रामू यादव, त्रिलोचन बाघ, सुभाष महानंद, राकेश जयराज, दयानंद, सतीश गंगराड़े, एल्विन, रवि सोनकर, सुमीर राव, संजय महालिंगे, मनोहर साहू, केशव जगत, लाकेश्वर, दीनू बाघ, शिवकुमार, जयप्रकाश, पूरनलाल, प्रदीप तांडेकर युद्ध स्तर पर सक्रिय हो गए हैं. ( इतने सारे नाम यहां इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि कोई अखबार इन नामों को छापने की जहमत नहीं उठाएगा. ये सारे लोग विज्ञापनदाता नहीं है और सेलिब्रिटी तो बिल्कुल भी नहीं है. )

फोरम को यह सूचना मिली थी कि लॉकडाउन के दौरान 17 मजदूर भूखे-प्यासे मजदूर मंदिर हसौद के पास मौजूद है और अपना हौसला खो चुके हैं. सदस्यों ने वहां पहुंचकर सबसे पहले पुलिस को सूचना दी और फिर उनके भोजन का प्रबंध किया. मुंगेली और जांजगीर जिले के करीब 22 मजदूर फरीदाबाद में फंस गए थे. इस बात की सूचना अतुल आर्थर को मिली तो वे फरीदाबाद का संपर्क सूत्र निकाल लेने में कामयाब हो गए. जैसे-तैसे वहां के एक पार्षद नरेश को भोजन आदि की व्यवस्था के लिए तैयार कर लिया. फोरम ने अब तक कोरबा, बिलासपुर और रायपुर के सैकड़ों मजदूरों को राहत पहुंचाई है. फोरम के सदस्य अब भी रायपुर की झुग्गी बस्तियों में रहने वाले बूढ़े, विकलांग और कमजोर लोगों को गरम भोजन मुहैय्या करवा रहे हैं. अभी तीन रोज फोरम को यह सूचना मिली थी कि मारवाड़ी श्मशान घाट के पीछे झुग्गियों में रहने वाले कई लोग भूखे-प्यासे बैठे हैं. फोरम के इस नेक काम के लिए छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध अधिवक्ता फैजल रिजवी और अशरफ ने भरपूर सहयोग दिया.

अब एक बार फिर सोच रहा हूं कि आखिर छत्तीसगढ़ क्रिश्यन फोरम को यह सब करने की जरूरत क्या है ? घर में बैठकर... मनमोहन देसाई की अमर-अकबर-अंथोनी जैसी कोई चालू फिल्म देख सकते थे. प्रभु ईशु आया... मेरा जीवन बदला.... यहां पाप नहीं नहीं वहां पुण्य नहीं जैसा कोई गीत कोरस में गा सकते थे. घर में बैठकर कांगो-बांगो ड्रम और गिटार बजा सकते थे. जो मजदूर भोजन-पानी लेकर बिहार- झारखंड चले गए हैं क्या उन सारे मजदूरों को अरुण पन्नालाल और उनके साथियों ने यह कहते हुए अपना विजिटिंग कार्ड दिया होगा कि भाइयों जैसे ही लॉकडाउन खुल जाएगा... हमको फोन करना... हम तुम्हें प्रभु के चरणों में श्रेष्ठ स्थान दिलवा देंगे.

आखिर मसीह समाज से जुड़े इन पागलों को यह सब करके क्या मिल रहा है ? दर्द को महसूस करने के लिए दर्द से गुजरना पड़ता है. घर में बैठकर गजल लिखने से बात नहीं बनने वाली है. एक दर्द ही है जो हर संवेदनशील इंसान को परेशान करता है. ताली-थाली-घंटी-घंटा और शंख बजाने लोग शायद यह कभी नहीं समझ पाएंगे कि देश का गरीब किस दर्द से गुजर रहा है? गरीब की आंख के नीचे आंसुओं की पपड़ी क्यों बन गई है. पता नहीं क्यों यह लगता है कि एक न एक दिन जमी हुई पपड़ी पिघल जाएगी. जिस रोज भी पिघलेगी उस रोज जलजला आ जाएगा. ( तब भी शायद मसीह समाज के लोग कहेंगे- हे प्रभु इन्हें माफ कर देना... ये नहीं जानते थे कि अन्जाने में क्या कर रहे थे ? )  

मेरे पास फिलहाल फोरम के अध्यक्ष अरुण पन्नालाल का ही नंबर है. अगर आप चाहे तो उनसे बात कर सकते हैं. उन्हें और उनकी पागल टीम को बधाई दे सकते हैं-  9893290025

 

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दुर्ग शहर के पागल !

राजकुमार सोनी

कोरबा जिले के कटघोरा में कोरोना से सात लोग प्रभावित पाए गए हैं. ऐसे समय जबकि छत्तीसगढ़ से मरीजों का स्वस्थ होकर घर लौटना जारी था तब एकाएक नए कोरोना प्रभावितों के मिल जाने से हलचल मच गई है. सबसे ज्यादा हलचल उन लोगों में देखी जा रही है जो यह मान बैठे हैं कि इस देश को बरबाद करने में मुसलमानों का सबसे बड़ा हाथ है.  मुसलमानों से बड़ा कोई वायरस नहीं है. सारी बेचैन आत्माएं एक साथ निकल पड़ी है और फेसबुक... वाट्सअप- सोशल मीडिया में चिल्ला रही है- देखिए... जमातियों ने मरवा दिया. इनको  बाहर निकालों. दो-चार दिन समझाओ... नहीं तो सीधे गोली मार दो. मूर्ख जमाती. मूर्ख बाराती और भी न जाने क्या- क्या ? यह तो हुई सोशल मीडिया की बात...। वैसे कल का अखबार भी देखिएगा... सारे अखबार के प्रथम पेज पर यहीं खबर होगी और खबर के भीतर का पूरा मजबूत स्वर यहीं होगा कि जमातियों के कारण छत्तीसगढ़ बरबादी के कगार पर आ खड़ा हुआ है. आदि-आदि... अनादि. ( कल सभी अखबार की हैडिंग देखिएगा और समझने की कोशिश करिएगा. ) मीडिया की बांछे खिल गई है साहब.

यह बड़ा खौफनाक समय है. इस खौफनाक समय में यह तय करना बड़ा मुश्किल हो गया है कि कौन अपना है और कौन पराया. कौन है जो देश के लिए सोच रहा है... और सोच भी रहा है तो क्या सोच रहा है ? एक सीधा सा सवाल है कि क्या कोरोना को देश में जमाती लेकर आए थे. देश में कोरोना से अब तक जितने लोगों की मौत हुई है क्या वे सारे जमाती थे ? लोग यह बात क्यों समझ नहीं पा रहे है कि कोरोना...हिन्दू, मुस्लिम-सिक्ख और ईसाई धर्म को देखकर प्रवेश नहीं करता है. यह बहुत साफ है कि जो कोई भी लापरवाही बरतेगा...कोरोना उसे अपनी चपेट में ले लेगा. जिन लोगों ने कोरोना को लेकर गंभीरता नहीं दिखाई है उन पर तो कार्रवाई होनी चाहिए... लेकिन अभी क्या कोरोना प्रभावित सारे लोगों को जेल में ठूंस देना चाहिए ताकि जेल में बंद कैदियों की मौत हो जाय.क्या बेहद अमानवीय होकर उनको गोली मार देना चाहिए ताकि फिर मामूली सी सर्दी-खांसी पर भी दनादन गोलियां बरसाने का खेल चलता रहे. जब छत्तीसगढ़ में नौ मरीज ठीक हो सकते हैं तो वे लोग क्यों ठीक नहीं हो सकते हैं जो आपकी नजर में जमाती  है. अभी जरूरत ज्यादा एहतियात बरतने की है.

बहरहाल... यह सब मैं क्यों लिख रहा हूं और मुझे क्यों लिखना चाहिए. मैं शायद इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मेरे भीतर कट्टरता ने अपना टीला नहीं बनाया है. लेकिन जिनके भीतर कट्टरता बैठी है वे भी तो लिख रहे हैं और पूरी कट्टरता के साथ लिख रहे हैं. कट्टर लोग अपना काम करते रहे तो मुझे भी अपना काम इसलिए जारी रखना चाहिए क्योंकि देश के पढ़े-लिखे और उदार लोगों ने बचपन में ही यह समझा दिया था कि कट्टरता का साथ देते ही आप जाहिलों की पंक्ति में शामिल हो जाते हैं. भला मुझे जाहिलों की कतार में क्यों शामिल होना चाहिए ?

चलिए...अब बात करते हैं दुर्ग शहर के कुछ पागलों के बारे में. इस शहर में रहने वाले अजहर जमील कट्टर नहीं है. उनके दोस्त फजल फारुखी भी कट्टर नहीं है. इन दोनों के साथ वाट्सअप ग्रुप रक्षक से जुड़े राजू खान, असलम कुरैशी, रिजवान खान, आबिद, अंसार भी कट्टर नहीं है. अब आप सोच में पड़ गए होंगे कि अरे... ये तो पूरे के पूरे वहीं लोग है. दाढ़ी रखने वाले. टोपी पहनने वाले.

जी नहीं... इस ग्रुप में राजेश सराफ, अजय गुप्ता, रमेश पटेल, डाक्टर संतोष राय, ज्ञानेश्वर ताम्रकार, आनंद बोथरा, सुनील, राधे और सूरज आसवानी जैसे लोग भी जुड़े है. ये सब लोग भी अपने-अपने ढंग से पूजा- इबादत करते हैं मगर कट्टर नहीं है. ऐसा भी नहीं है कि इस वाट्सग्रुप में देश-दुनिया के बदलते हालात को लेकर बहस नहीं होती है. खूब बहस होती है और जमकर होती है. कई बार कुछ लोग ग्रुप छोड़कर भी चले जाते हैं मगर फिर अजहर उन्हें यह कहकर मना लेते हैं कि मामू क्या हम लोग हंसी-मजाक भी नहीं कर सकते ? अरे लड़ना- झगड़ना तो चलते रहता है. ऐसे ही हमसे रूठकर चले जाओगे क्या मामू.

इस ग्रुप से जुड़े सभी लोग गत 15 दिनों से साढ़े तीन सौ लोगों को भोजन का वितरण कर रहे हैं. ग्रुप के सदस्यों ने इसके लिए बकायदा नगर निगम से अनुमति ली और भोजन बनाने के लिए कार्यशाला भी खोली है. हर सुबह ग्रुप के सदस्य पूरे एहतियात और सुरक्षा के साथ चावल-दाल- सब्जी, मसाले के जुगाड़ में लग जाते हैं और दोपहर तक गरम भोजन पैक कर चिन्हित जगहों पर पहुंच दिया जाता है. इस ग्रुप ने अब तक 124 परिवारों को एक महीने का राशन भी वितरित किया है.

एक बार फिर सोच रहा हूं कि आखिर इस वाट्सअप ग्रुप रक्षक को क्या जरूरत है यह सब करने की ? मस्त पड़े रहते. दिनभर मोदी-फोदी का मैसेज फारवर्ड करते रहते हैं. गंदे चुटकुलों और टिकटॉक में लगे रहते. क्या मिल रहा है इन पागलों को ?

अगर आप जानते हैं कि इन पागलों को कुछ हासिल हो रहा है तो मुझे अवश्य बताइएगा. मेरी समझ तो यहीं कहती है कि ये पागल दिनभर खुश रहते हैं. मुस्कुराते रहते हैं. यह तो तय है कि ये पागल कभी उस पागलखाने में तो नहीं जाएंगे जहां मोदी ने आपको भेजने की तैयारी कर रखी है.

दुर्ग शहर के इन पागलों को आप भी फोन करके बधाई दे सकते हैं. याद रखिए...हौसला-आफजाई से पागलों की संख्या में बढ़ोतरी होती है. अभी हमें ढ़ेर सारे पागलों की जरूरत है. हमें वैसे पागल तो बिल्कुल भी नहीं चाहिए जो टकले पर दीया जलाकर गो-कोरोना-गो के मंत्रोच्चार को ही अपने जीवन का कर्म मान बैठे हैं. )

अजहर जमील- 9329009549

फजल फारुखी- 9826165494

 

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एक पागल लड़का.. एक पागल लड़की और पागल कुछ लोग!

राजकुमार सोनी

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में  एक पागल लड़का रहता है. एक पागल लड़की भी रहती है. दोनों पागल एक साथ रहते हैं क्योंकि दोनों ने तय कर लिया है कि साथ-साथ रहना है. पागल लड़के का नाम है अनुज और लड़की का नाम प्रियंका है. दोनों ने अब से एक बरस पहले संविधान की शपथ लेकर साथ-साथ रहना मंजूर कर लिया था. उनकी इस शादी का एक घराती-बाराती मैं भी था. दोनों पागलों ने तय किया था कि उनकी बारात एक रिक्शे में ही निकलेगी. बारात रिक्शे में निकली तो शहर के शरीफ लोगों ने कहा- क्या पागलपंथी है. सब पागल है. बहरहाल इन दो पागलों के साथ कुछ और लोग भी बिलासपुर में रहते हैं जो पागल है. जिन पागलों का जिक्र यहां कर रहा हूं उनमें नीलोत्पल शुक्ला, कपूर वासनिक, नंद कश्यप, राजिक, नुरुल हुदा, कुलदीप सिंह, राधा श्रीवास, असीम तिवारी, अप्पू नवरंग, शाहिद कुरैशी, आशिफ हुसैन और पीयूष का नाम शामिल है. ( हो सकता है कुछ नाम छूट गए हो. )

ये सारे लोग इस लिहाज से पागल है कि इन्होंने कोरोना के भीषण संकट काल में कोविड- 19 हेल्प ग्रुप खोल रखा है. इस ग्रुप से जुड़े हुए सारे लोग ने तय कर रखा है कि हर हाल में गरीबों की मदद करनी है. किसी को भोजन देना है, किसी को राशन तो किसी को उनके घर पहुंचाना है. पिछले कुछ समय से इस ग्रुप की ओर से आने वाली सूचनाओं को पढ़ रहा हूं. कभी कोई किसी अधिकारी का नंबर मांगता है तो कोई कहता है- भैय्या... फलां जगह तुरंत पहुंचिए... झारखंड के मजदूर फंस गए हैं. ग्रुप से जुड़े हुए सभी पागल अपनी छोटी-छोटी कोशिशों के जरिए युद्ध स्तर पर सक्रिय है.

जब ये सोचता हूं कि ये लोग ऐसा क्यों कर रहे हैं तो पाता हूं कि इंसानी मोहब्बत में बड़ी ताकत होती है. जो इंसान मोहब्बत करता है उसका दिल और दिमाग अपने आप विशाल हो जाता है. जिसका दिल और दिमाग साफ रहता है वह ताली-थाली नहीं बजाता. शंख भी नहीं फूंकता. दीया-बत्ती और टार्च भी नहीं जलाता. तबलीगी-फबलीगी तो बिल्कुल भी नहीं करता. हर बार कहीं-कहीं बोलते रहता हूं. एक बार फिर से कहता हूं- जो लोग प्यार करते हैं... वहीं लोग क्रांति भी कर सकते हैं. धर्म से पहले इंसान से मोहब्बत करना सीखिए. बल्कि इंसानी मोहब्बत को ही अपना धर्म बना लीजिए.

अगर आपके घर के आसपास. आपके शहर में ऐसे थोड़े-बहुत पागल लोग रहते हैं तो उनकी मदद करिए. दिल और दिमाग से खूबसूरत पागलों की संख्या में इजाफा तो होना ही चाहिए. मैं तो इन पागलों के साथ हूं ही. बिलासपुर के इन पागलों के अलावा दुर्ग में भी रक्षक नाम का एक वाट्सग्रुप यहीं पागलपंथी कर रहा है. इस ग्रुप से जुड़े हुए पागलों के बारे में कल आपको जानकारी दूंगा.

अगर आप अभी तक  पागल नहीं हुए हैं तो पागल हो जाना चाहिए. इससे पहले कि मोदी  आपको घर बिठाकर सीधे पागलखाने जाने लायक बनाकर छोड़े आपका पागल हो जाना ठीक है.

प्रियंका और अनुज का नंबर यहां दे रहा हूं. आप इन पागलों की हौसला-आफजाई तो कर ही सकते हैं-

प्रियंका-08871067410

अनुज 9752319680

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कोरोना काल और टोटका

कोरोना काल में अंधविश्वास बुरी तरह से बढ़ गया है. साहित्यिक पत्रिका समय के साखी की संपादक आरती इसी बात को लेकर चितिंत है. अपने इस लेख में वे कहती है- हमारे और आपके सोचने-समझने से क्या होगा.देश के प्रधान सेवक को अपने इवेंट पर पूरा भरोसा है.

राज्य के अलग-अलग गांव कस्बों से तरह-तरह की अफवाहें आ रही हैं. कहीं कोई शीतला माता की पूजा कर रहा है, कहीं दरवाजे पर चौक पूरा जा रहा है, कहीं हल्दी के छापे लगाए जा रहे हैं. गाय को रोटी खिलाने से लेकर कुत्ते को तेल पिलाने तक की अफवाहें, अनेक तरह के अंधविश्वास चल पड़े हैं.

ज्ञान की जिज्ञासा जिस समाज से जितनी दूर रहती है या उसे दूर रखने के लिए जितने तरह के प्रयास जो समाज करता है. जैसे कि स्त्रियों को, दलितों को विभिन्न ज्ञान माध्यमों से दूर रखने के लिए मनुस्मृति जैसे फर्जी किस्म के ग्रंथ और उनसे जुड़ी नीतियां और परंपराएं बनाई गई, वह समाज उस स्वत: खोदी हुई खाई को कभी पाट नहीं पाता. वह समाज वैसे भी अंधविश्वास की जकड़न में गहरे जकड़ा हुआ समाज होता है. कहीं थोड़ा कम कही थोड़ा ज्यादा.

आजादी के बाद लोगों के भीतर नई शिक्षा नीतियों और विज्ञान के प्रवेश ने एक आशा जताई थी कि हम परंपराओं और विज्ञान के बीच की दूरी को धीरे-धीरे कम कर सकेंगे. वह लंबी दूरी हमने थोड़ा कम की भी थी. लेकिन इतनी नहीं जितनी होनी चाहिए थी.

किसी घटना की प्रतिक्रियाओं को देखते हुए कई प्रश्न उठते हैं कि क्या इस समाज की बुनावट ही ऐसी है? अंधविश्वासों को पैदा करने में सुकून महसूस करता है? क्या उसके पास कोई ऐसी खिडकी नहीं जो यह सच देख सके या उसे महसूस कर सकें.   इसमें समाज का नहीं, इसके आदि व्यवस्थापकौ का ही दोष है. व्यवस्था से जुड़े हुए और सच की खोज करने वाले तमाम आदि ऋषि  पुरुषों ने खुद लोगों और सत्ता के बीच में एक बड़ी  दीवार बना दी थी ताकि वह जन हमेशा भ्रांति में रहा आए. इसलिए समाज की संरचना अभी भी उतनी नहीं बदली कि वह महानायक की अवधारणा से हटकर किसी और सत्य को देख सके. 

इस कोरोना टाइम में,जब दुनिया को विज्ञान ही एकमात्र सहारा है, जब दुनिया के सारे देश वैक्सीन खोजने के लिए दिन रात एक कर रहे हैं, जब संकट से निपटने के लिए अधिक से अधिक चिकित्सीय आपदा प्रबंध में लगे हुए हैं, तब हमारे देश का प्रधानमंत्री हर 3 दिन में एक टोटका लेकर आता है और 130 करोड़ लोगों को झुनझुने की तरह पकड़ा कर चला जाता है. और लोग उसे प्रसाद की तरह सिर माथे पर लगा लेते हैं. 

जो लोग कहते हैं कि सकारात्मकता खोजी जाए, वे भी सकारात्मक बिंदुओं को सामने नहीं रख पा रहे.

क्या ऐसा नहीं लगता कि इस समय देश के प्रमुख को, स्वास्थ्य मंत्री को, स्वास्थ्य विभाग से जुड़े  एक्सपर्ट को लोगों को भरोसा दिलाना चाहिए था कि हम ऐसी तैयारी कर रहे हैं कि मुसीबत कितनी भी बड़ी हो जाएगी हम उससे निपट लेंगे... लोगों में डर है, घर के भीतर छुपे हुए भी उस बीमारी के अदृश्य  दुश्मन से, वे मुस्कुराते हुए भी घबराए हुए हैं....

हम सब जानना चाहते हैं कि हमारा देश इस महामारी से निपटने के लिए कैसी तैयारी कर रहा है? हम जानना चाहते हैं डॉक्टरों की सुरक्षा, सफाई कर्मियों की सुरक्षा, टेस्टिंग किट, वेंटीलेटर आदि के बारे में जानना चाहते हैं.. हम जानना चाहते हैं उन लोगों के बारे में जो हजारों की संख्या में बेघर महानगरों के किसी कोने में बैठा दिए गए हैं, जो खैरात के भोजन पर निर्भर हैं.. हम जानना चाहते हैं उन लोगों के बारे में जो 800 किलोमीटर का सफर तय करके अपने घर पहुंचने के रास्ते के बीच में अभी भी हैं.. और भी बहुत सी चीजें हैं जानने के लिए. उनकी व्यवस्थाओं के बारे में जानने के लिए.

लेकिन आपके चाहने से होगा क्या? हमारे देश के प्रमुख को अपने इवेंट पर पूरा भरोसा है... उन्हें पता है इवेंट मैनेजिंग कैसे करनी है.... 

 

 

 

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वैश्विक महामारी एक नई दुनिया का प्रवेश द्वारः अंरुधति रॉय

मशहूर लेखिका और बुकर पुरस्कार विजेता अरुंधति रॉय के इस लेख का अनुवाद शैलेश ने किया है. कोरोना काल में यह लेख कई सवाल खड़े करता है.

अंग्रेजी में “वायरल होना” (किसी वीडियो, संदेश आदि का फैलना) शब्द को सुनते ही अब किसको थोड़ी सिहरन नहीं होगी? दरवाजे के हैंडल, गत्ते का डिब्बा या सब्जी का थैला देखते ही किसकी कल्पना में उन अदृश्य छींटों के झुंड साकार नहीं हो उठेंगे जो न जीवित ही हैं, न मृत ही हैं और जो अपने चिपकने वाले चूषक पंजों के साथ हमारे फेफड़ों में कब्जा जमाने का इंतज़ार कर रहे हैं। एक अजनबी को चूमने, बस में घुसने या अपने बच्चे को स्कूल भेजने के पहले कौन भयभीत नहीं हो उठेगा?

अपनी रोजमर्रा की खुशियों से पहले उनके जोखिम का आकलन कौन नहीं करने लगेगा? अब हममें से कौन है जो एक झोलाछाप महामारी-विशेषज्ञ, विषाणु-विज्ञानी, सांख्यिकी विद और भविष्यवक्ता नहीं बन चुका है? कौन वैज्ञानिक या डॉक्टर मन ही मन में किसी चमत्कार के लिए प्रार्थना नहीं कर रहा है? कौन पुजारी है जो मन ही मन में विज्ञान के आगे समर्पण नहीं कर चुका है? और विषाणुओं के इस प्रसार के दौरान भी कौन है जो पक्षियों के गीतों से भर उठे शहरों, चौराहों पर नृत्य करने लगे मयूरों और आकाश की नीरवता पर रोमांचित नहीं है?

दुनिया भर में संक्रमित लोगों की संख्या इस सप्ताह 10 लाख तक पहुंच गई जिनमें से 50 हजार लोग मर चुके हैं। आशंकाओं के हिसाब से यह संख्या लाखों, या और भी ज्यादा तक जाएगी। यह विषाणु खुद तो व्यापार और अंतरराष्ट्रीय पूंजी के मार्ग पर मुक्त भ्रमण करता रहा है लेकिन इसके द्वारा लाई गई भयावह बीमारी ने इंसानों को उनके देशों, शहरों और घरों में बंद कर दिया है। परंतु पूंजी के प्रवाह के विपरीत इस विषाणु को प्रसार तो चाहिए, लेकिन मुनाफा नहीं चाहिए, और इसलिए, अनजाने में ही कुछ हद तक इसने इस प्रवाह की दिशा को उलट दिया है।

इसने आव्रजन नियंत्रणों, बायोमेट्रिक्स (लोगों की शिनाख्त करने वाली प्रणालियों), डिजिटल निगरानी और अन्य हर तरह के डेटा विश्लेषण करने वाली प्रणालियों का मजाक उड़ाया है, और इस तरह से दुनिया के सबसे अमीर, सबसे शक्तिशाली देशों को, जहां पूंजीवाद का इंजन हिचकोले खाते हुए रुक गया है, इसने जबर्दस्त चोट पहुंचाया है। शायद अस्थायी रुप से ही, फिर भी इसने हमें यह मौक़ा तो दिया ही है कि हम इसके पुर्जों का निरीक्षण कर सकें और निर्णय ले सकें कि इसे फिर से ठोंक -ठाक कर चलाना है अथवा हमें इससे बेहतर इंजन खोजने की जरूरत है।

इस महामारी के प्रबंधन में लगे दिग्गज ‘युद्ध-युद्ध’ चिल्ला रहे हैं। वे युद्ध शब्द का इस्तेमाल जुमले के तौर पर नहीं, बल्कि सचमुच के युद्ध के लिए ही कर रहे हैं। लेकिन अगर वास्तव में यह युद्ध ही होता तो इसके लिए अमरीका से ज्यादा बेहतर तैयारी किसकी होती? अगर अगले मोर्चे पर लड़ रहे सिपाहियों के लिए मास्कों और दस्तानों की जगह बंदूकों, स्मार्ट बमों, बंकर-ध्वंसकों, पनडुब्बियों, लड़ाकू विमानों और परमाणु बमों की जरूरत होती तो क्या उनका अभाव होता? 

न्यूयार्क कोरोना का नया हॉटस्पाट बन गया है

दुनिया भर में हम में से कुछ लोग रात-दर-रात न्यूयॉर्क के गवर्नर के प्रेस बयानों को ऐसी उत्सुकता के साथ देखते हैं जिसकी व्याख्या करना मुश्किल है। हम आंकड़े देखते हैं और उन अमरीकी अस्पतालों की कहानियां सुन रहे हैं जो रोगियों से पटे हुए हैं, जहां कम वेतन और बहुत ज्यादा काम से त्रस्त नर्सें कूड़ेदानों में इस्तेमाल होने वाले कपड़ों और पुराने रेनकोटों से मास्क बनाने को मजबूर हैं ताकि हर तरह के जोखिम उठा कर भी रोगियों को कुछ राहत दे सकें, जहां राज्य वेंटिलेटरों की खरीद के लिए एक दूसरे के खिलाफ बोली लगा रहे हैं, जहां डॉक्टर इस दुविधा में हैं कि किस रोगी की जान बचाएं और किसे मरने के लिए छोड़ दें! और फिर हम सोचने लगते हैं, “हे भगवान! यही अमरीका है!”

यह एक तात्कालिक, वास्तविक और विराट त्रासदी है जो हमारी आंखों के सामने घटित हो रही है। लेकिन यह नई नहीं है। यह उसी ट्रेन का मलबा है जो वर्षों से पटरी से उतर चुकी है और घिसट रही है। “रोगियों को बाहर फेंक देने” वाली वे वीडियो क्लिपें किसे याद नहीं हैं जिनमें अस्पताल के गाउन में ही रोगियों को, जिनके नितंब तक उघाड़ थे, अस्पतालों ने चुपके से कूड़े की तरह सड़कों पर फेंक दिया था। कम सौभाग्यशाली अमरीकी नागरिकों के लिए अस्पतालों के दरवाज़े ज्यादातर बंद ही रहे हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कितने बीमार हैं, या उन्होंने कितना दुःख झेला है।

कम से कम अब तक नहीं फर्क पड़ता रहा है, क्योंकि अब, इस विषाणु के दौर में एक ग़रीब इंसान की बीमारी एक अमीर समाज के स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर सकती है। और अभी भी, सीनेटर बर्नी सैंडर्स, जो सबके लिए स्वास्थ्य के पक्ष में अनवरत अभियान चलाते रहे हैं, उन्हें व्हाइट हाउस के लिए प्रत्याशी बनाने के मामले में उनकी अपनी पार्टी ही पराया मान रही है।

और मेरे देश की हालत क्या है? मेरा ग़रीब अमीर देश भारत, जो सामंतवाद और धार्मिक कट्टरवाद, जातिवाद और पूंजीवाद के बीच कहीं झूल रहा है और जिस पर अति दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादियों का शासन है, उसकी हालत क्या है? दिसंबर में, जब चीन वुहान में इस विषाणु के विस्फोट से जूझ रहा था, उस समय भारत सरकार अपने उन लाखों नागरिकों के व्यापक विद्रोह से निपट रही थी जो उसके द्वारा हाल ही में संसद में पारित किए गए बेशर्मी पूर्वक भेदभाव करने वाले मुस्लिम-विरोधी नागरिकता क़ानून के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे।

गुजरात के मोटेरा स्टेडियम में ट्रंप का स्वागत करते मोदी

भारत में कोविड-19 का पहला मामला 30 जनवरी को आया था, भारतीय गणतंत्र दिवस की परेड के सम्माननीय मुख्य अतिथि, अमेजन के वन-भक्षक और कोविड के अस्तित्व को नकारने वाले जायर बोल्सोनारो के दिल्ली छोड़ने के कुछ ही दिनों बाद। लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी की समय-सारिणी में ऐसा बहुत कुछ था जो इस विषाणु से निपटने से ज्यादा जरूरी था। फरवरी के अंतिम सप्ताह में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की सरकारी यात्रा तय थी। उन्हें गुजरात के एक स्टेडियम में एक लाख लोगों को जुटाने का प्रलोभन दिया गया था। इस सब में काफी धन और समय जाया हुआ।

फिर दिल्ली विधानसभा चुनाव भी थे, जिसमें भारतीय जनता पार्टी अगर अपना खेल नहीं खेलती तो हारना निश्चित था, अतः उसने खेला। उसने एक बिना किसी रोक-टोक वाला कुटिल हिंदू राष्ट्रवादी अभियान छेड़ दिया, जो शारीरिक हिंसा और “गद्दारों” को गोली मारने की धमकियों से भरा था।

खैर पार्टी वैसे भी चुनाव हार गई। तो फिर इस अपमान के लिए जिम्मेदार ठहराए गए दिल्ली के मुसलमानों के लिए एक सजा तय की गई थी। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंदू उपद्रवियों के हथियारबंद गिरोहों ने पुलिस के संरक्षण में अपने पास-पड़ोस के मुस्लिम-बहुल मजदूर-वर्ग के घरों पर हमला बोल दिया। मकानें, दुकानें, मस्ज़िदें और स्कूल जला दिए गए। जिन मुसलमानों को इस हमले की आशंका थी, उन्होंने मुकाबला किया। 50 से ज्यादा लोग, मुसलमान और कुछ हिंदू मारे गए।

हजारों लोग स्थानीय कब्रिस्तानों में स्थित शरणार्थी शिविरों में चले गए। जिस समय सरकारी अधिकारियों ने कोविड-19 पर अपनी पहली बैठक की और अधिकांश भारतीयों ने जब पहली बार हैंड सैनिटाइज जैसी किसी चीज के अस्तित्व के बारे में सुना तब भी गंदे, बदबूदार नालों से विकृत लाशें निकाली जा रही थीं।

दिल्ली दंगे के दौरान अपने मृत पिता के पास एक बच्चा

मार्च का महीना भी व्यस्तता भरा था। शुरुआती दो हफ्ते तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिराने और उसकी जगह भाजपा की सरकार बनाने में समर्पित कर दिए गए। 11 मार्च को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने घोषित किया कि कोविड-19 एक वैश्विक महामारी है। इसके दो दिन बाद भी 13 मार्च को स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि कोरोना “कोई आपातकालीन स्वास्थ्य खतरा नहीं है।”

आखिरकार 19 मार्च को भारतीय प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को संबोधित किया। उन्होंने ज्यादा होमवर्क नहीं किया था। उन्होंने फ्रांस और इटली से कार्य योजना उधार ले लिया था। उन्होंने हमें “सोशल डिस्टेंसिंग” की जरूरत के बारे में बताया (जाति-व्यवस्था में इतनी गहराई तक फंसे हुए एक समाज के लिए यह समझना काफी आसान था), और 22 मार्च को एक दिन के “जनता कर्फ्यू” का आह्वान किया। संकट के इस समय में सरकार क्या करने जा रही है इसके बारे में उन्होंने कुछ नहीं बताया। लेकिन उन्होंने स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को सलामी देने के लिए लोगों को अपनी बालकनियों में आकर ताली, थाली और घंटी वगैरह बजाने का आह्वान किया।

उन्होंने यह उल्लेख नहीं किया कि भारतीय स्वास्थ्य कर्मचारियों और अस्पतालों के लिए आवश्यक सुरक्षात्मक उपकरण और श्वसन उपकरण बचा कर रखने की जगह भारत उस समय भी इन चीजों का निर्यात कर रहा था।

पीएम मोदी का राष्ट्र के नाम संबोधन

आश्चर्य की बात नहीं कि नरेंद्र मोदी के अनुरोध को बहुत उत्साह के साथ पूरा किया गया। थाली बजाते हुए, जुलूस निकाले गए, सामुदायिक नृत्य और फेरियां निकाली गईं। कोई सोशल डिस्टेंसिंग नहीं। बाद के दिनों में लोगों ने गोबर भरी टंकियों में छलांग लगाई और भाजपा समर्थकों ने गोमूत्र पीने की पार्टियां आयोजित कीं। कई मुस्लिम संगठन भी इसमें पीछे नहीं रहे, उन्होंने घोषणा किया कि इस विषाणु का जवाब है सर्वशक्तिमान अल्लाह और उन्होंने आस्थावान लोगों को बड़ी संख्या में मस्ज़िदों में इकट्ठा होने का आह्वान किया। 24 मार्च को  रात 8 बजे  मोदी टीवी पर फिर से यह घोषणा करने के लिए दिखाई दिए कि  आधी रात से पूरे भारत में लॉक डाउन होगा। बाजार बंद हो जाएंगे। सार्वजनिक और निजी सभी परिवहन बंद कर दिए जाएंगे।

उन्होंने कहा कि यह फैसला वे सिर्फ एक प्रधानमंत्री के रूप में नहीं, बल्कि हमारे परिवार के बुजुर्ग के रूप में ले रहे हैं। राज्य सरकारों से सलाह लिए बिना, जिन्हें इस फैसले के नतीजों से निपटना था, दूसरा कौन यह फैसला कर सकता है कि 138 करोड़ लोगों को, बिना किसी तैयारी के, महज चार घंटे के नोटिस के साथ लॉक डाउन कर दिया जाए? उनके तरीके निश्चित रूप से यह धारणा देते हैं कि भारत के प्रधान मंत्री नागरिकों को शत्रुतापूर्ण शक्ति के रूप में देखते हैं, जिन पर घात लगा कर हमला करने, उन्हें हैरत में डाल देने की जरूरत है, लेकिन कभी भी उन्हें विश्वास में लेने की जरूरत नहीं है।

लॉकडाउन में हम थे। अनेक स्वास्थ्य पेशेवरों और महामारी विज्ञानियों ने इस कदम की सराहना की है। शायद वे सिद्धांततः सही हैं। लेकिन निश्चित रूप से उनमें से कोई भी उस अनर्थकारी योजना-हीनता और किसी तैयारी के अभाव का समर्थन नहीं कर सकता जिसने दुनिया के सबसे बड़े, सबसे दंडात्मक लॉक डाउन को इसके मकसद के बिल्कुल खिलाफ बना दिया।

जैसा कि दुनिया ने स्तब्ध होकर देखा, भारत ने अपनी सारी शर्म के बीच अपनी क्रूर, संरचनात्मक, सामाजिक और आर्थिक असमानता और पीड़ा के प्रति अपनी निष्ठुर उदासीनता को प्रकट कर दिया।

लॉक डाउन ने एक रासायनिक प्रयोग की तरह काम किया जिसने अचानक छिपी चीजों को रोशन कर दिया। जैसे ही दुकानें, रेस्तरां , कारखाने और निर्माण उद्योग बंद हुए, जैसे ही धनी और मध्यम वर्गों ने खुद को सुरक्षित कॉलोनियों में बंद कर लिया, हमारे शहरों और महानगरों ने अपने कामकाजी वर्ग के नागरिकों – अपने प्रवासी श्रमिकों – को बिल्कुल अवांछित उत्पाद की तरह बाहर निकालना शुरू कर दिया।

अपने नियोक्ताओं और मकान मालिकों द्वारा बाहर निकाल दिए गए ढेरों लोग, लाखों गरीब, भूखे, प्यासे लोग, युवा और बूढ़े, पुरुष, महिलाएं, बच्चे, बीमार लोग, अंधे लोग, विकलांग लोग, जिनके पास जाने के लिए कोई ठिकाना नहीं था, कोई सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध नहीं था, उन्होंने सुदूर अपने गाँवों के लिए पैदल ही चलना शुरू कर दिया। वे सैकड़ों किलोमीटर दूर बदायूं, आगरा, आज़मगढ़, अलीगढ़, लखनऊ, गोरखपुर के लिए कई-कई दिनों तक चलते रहे। कुछ ने तो रास्ते में ही दम तोड़ दिया।

उन्हें पता था कि वे अपनी भुखमरी की गति को धीमी करने की संभावना में अपने घर की ओर जा रहे हैं। वे यह भी जानते थे कि शायद वे अपने साथ यह विषाणु भी ले जा रहे हों, और घर पर अपने परिवारों, अपने माता-पिता और दादा-दादी को संक्रमित भी कर दें, फिर भी, उन्हें रत्ती भर ही सही, परिचित माहौल, आश्रय और गरिमा के साथ ही प्यार न सही भोजन की सख्त जरूरत थी।

पलायन कर गाँवों की ओर जाते लोग

जब उन्होंने चलना शुरू किया तो काफी लोगों को पुलिस ने बेरहमी से पीटा और अपमानित किया क्योंकि पुलिस पर कर्फ्यू को सख्ती से लागू करने की जिम्मेदारी थी। युवकों को राजमार्गों पर झुकने और मेढक की तरह उछल कर चलने को मजबूर किया गया। बरेली शहर के बाहर एक समूह को झुंड में बैठा कर उन पर कीटनाशक का छिड़काव किया गया।

कुछ दिनों बाद, इस चिंता में कि पलायन कर रहे लोग गांवों में भी विषाणु फैला देंगे, सरकार ने पैदल चलने वालों के लिए भी राज्यों की सीमाओं को सील करा दिया। कई दिनों से पैदल चल रहे लोगों को रोक कर वापस उन्हीं शहरों के शिविरों में लौटने को मजबूर कर दिया गया जहां से तुरंत ही उन्हें निकलने को मजबूर किया गया था।

पुराने लोगों के लिए 1947 के विस्थापन की स्मृतियां ताजा हो गईं जब भारत विभाजित हुआ था और पाकिस्तान का जन्म हुआ था। इतनी तुलना के अलावा यह निष्कासन वर्ग-विभाजन से संचालित था, धर्म से नहीं। इस सबके बावजूद भी ये भारत के सबसे गरीब लोग नहीं थे। ये वे लोग थे, जिनके पास (कम से कम अब तक) शहरों में काम था और लौटने के लिए घर थे। बेरोजगार लोग, बेघर लोग और निराश लोग शहरों और देहात में जहाँ थे वहीं पड़े हुए थे, जहां इस त्रासदी से काफी पहले से गहरा संकट बढ़ रहा था। इन भयावह दिनों के दौरान भी गृह मंत्री अमित शाह सार्वजनिक परिदृश्य से अनुपस्थित रहे।

जब दिल्ली से पलायन शुरू हुआ तो मैंने एक पत्रिका, जिसके लिए मैं अक्सर लिखती हूं, उसके प्रेस पास का इस्तेमाल करके मैं गाजीपुर गई, जो दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सीमा पर है।

विराट जन सैलाब था। जैसा कि बाइबिल में वर्णित है। या शायद नहीं, क्योंकि बाइबिल ऐसी संख्याओं को नहीं जान सकती थी। शारीरिक दूरी बनाने के मकसद से लागू किया गया लॉकडाउन अपने विपरीत में बदल चुका था। अकल्पनीय पैमाने की शारीरिक नजदीकी थी। भारत के शहरों और क़स्बों का भी सच यही है। मुख्य सड़कें हो सकता है खाली हों लेकिन गरीब लोग मलिन बस्तियों और झोपड़पट्टियों की तंग कोठरियों में ठुंसे पड़े हैं।

वहां जिससे भी मैंने बात की सभी विषाणु से चिंतित थे। फिर भी उनके जीवन पर मंडरा रही बेरोजगारी, भुखमरी और पुलिस की हिंसा की तुलना में यह कम वास्तविक था, और कम मौजूद था। उस दिन मैंने जितने लोगों से बात की थी, उनमें मुस्लिम दर्जियों का एक समूह भी शामिल था, जो कुछ सप्ताह पहले ही मुस्लिम विरोधी हमलों से बच गया था, उनमें से एक व्यक्ति के शब्दों ने मुझे विशेष रूप से परेशान कर दिया। वह राम जीत नाम का एक बढ़ई था, जिसने नेपाल की सीमा के पास गोरखपुर तक पैदल जाने की योजना बनाई थी।

उसने कहा, “शायद जब मोदी जी ने ऐसा करने का फैसला किया, तो किसी ने उन्हें हमारे बारे में नहीं बताया होगा। शायद वह हमारे बारे में न जानते हों।” “हम” का अर्थ है लगभग 46 करोड़ लोग।

इस संकट में भारत की राज्य सरकारों ने (अमेरिका की ही तरह) बड़ा दिल और समझ दिखाई है। ट्रेड यूनियनें, निजी तौर पर नागरिक और अन्य समूह भोजन और आपातकालीन राशन वितरित कर रहे हैं। केंद्र सरकार राहत के लिए उनकी बेकरार अपीलों का जवाब देने में धीमी रही है। यह पता चला है कि प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय राहत कोष में कोई नकदी उपलब्ध नहीं है। इसकी बजाय, शुभचिंतकों का पैसा कुछ हद तक रहस्यमय नए पीएम-केयर फंड में डाला जा रहा है। मोदी के चेहरे वाले भोजन के पैकेट दिखने शुरू हो गए हैं।

इसके अलावा प्रधानमंत्री ने अपनी योग-निद्रा की वीडियो क्लिपें शेयर की हैं, जिनमें बदले रूप में ऐनिमेटेड मोदी एक स्वप्न शरीर के साथ योगासन करके दिखा रहे हैं ताकि लोग स्व-अलगाव के दौरान अपने तनावों को कम कर सकें। यह आत्ममोह बहुत परेशान करने वाला है। संभवतः उनमें एक आसन अनुरोध-आसन भी हो सकता था जिसमें मोदी फ्रांस के प्रधान मंत्री से अनुरोध करते कि हमें उस तकलीफ देह राफेल लड़ाकू विमान सौदे से बाहर निकलने की अनुमति दें ताकि 78 लाख यूरो की उस रक़म को हम अति आवश्यक आपातकालीन उपायों में इस्तेमाल कर सकें जिससे कई लाख भूखे लोगों की मदद की जा सके। निश्चित रूप से फ्रांस इसे समझेगा।

लॉक डाउन के दूसरे सप्ताह में पहुंचने तक सप्लाई चेनें टूट चुकी हैं, दवाओं और आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति कमजोर पड़ चुकी है। हजारों ट्रक ड्राइवर राजमार्गों पर अब भी असहाय फंसे हुए हैं, जिनके पास न खाना है न पानी है। कटाई के लिए तैयार खड़ी फसलें धीरे-धीरे खराब होने लगी हैं। 

आर्थिक संकट है ही। राजनीतिक संकट भी जारी है। मुख्यधारा के मीडिया ने अपने 24/7 चलने वाले जहरीले मुस्लिम विरोधी अभियान में कोविड की कहानी को भी शामिल कर लिया है। तबलीगी जमात नामक एक संगठन, जिसने लॉक डाउन की घोषणा से पहले दिल्ली में एक बैठक आयोजित की थी, एक “सुपर स्प्रेडर” निकला है। इसका उपयोग मुसलमानों को कलंकित करने और उन्हें बदनाम करने के लिए किया जा रहा है। समग्र स्वर ऐसा है जैसे कि मुसलमानों ने ही इस विषाणु का आविष्कार किया और इसे जानबूझकर जिहाद के रूप में फैलाया है।

निज़ामुद्दीन में तब्लीगी जमात से जुड़े लोग

अभी कोविड का संकट आना बाकी है, या नहीं, हम नहीं जानते। यदि और जब ऐसा होता है, तो हम सुनिश्चित हो सकते हैं कि धर्म, जाति और वर्ग के सभी प्रचलित पूर्वाग्रहों के साथ ही इससे निपटा जा सकेगा।

आज 2 अप्रैल तक भारत में लगभग 2000 संक्रमणों की पुष्टि हो चुकी है और 58 मौतें हो चुकी हैं। खेदजनक ढंग से बहुत कम परीक्षणों के कारण इन संख्याओं पर विश्वास नहीं किया जा सकता। विशेषज्ञों की राय में आपस में बहुत अंतर है। कुछ लाखों मामलों की भविष्यवाणी करते हैं। तो दूसरों को लगता है कि इसका असर काफी कम होगा। हम इस संकट के वास्तविक रूप को कभी नहीं जान पाएंगे, भले ही हम भी इसकी चपेट में आ जाएं। हम सभी जानते हैं कि अस्पतालों पर अभी तक काम शुरू नहीं हुआ है।

भारत के सार्वजनिक अस्पतालों और क्लिनिकों में हर साल 10 लाख बच्चों को डायरिया, कुपोषण और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं से बचाने की क्षमता नहीं है, जिसके कारण वे मर जाते हैं। यहां लाखों टीबी के मरीज (विश्व का एक चौथाई) हैं। यहां भारी संख्या में लोग रक्ताल्पता और कुपोषण से ग्रस्त हैं जिसके कारण कोई भी मामूली बीमारी उनके लिए प्राणघातक साबित हो जाती है। जिस तरह के विषाणु संकट से अमरीका और यूरोप जूझ रहे हैं, उस पैमाने के संकट को संभालने की कूवत हमारे सार्वजनिक क्षेत्र के अस्पतालों और क्लिनिकों में नहीं है।

चूंकि अस्पताल कोरोना से निपटने में लगा दिए गए हैं, अतः इस समय कमोबेश सभी स्वास्थ्य-सेवाएं स्थगित कर दी गई हैं। दिल्ली में एम्स (AIIMS) का प्रसिद्ध ट्रॉमा सेंटर बंद कर दिया गया है। सैकड़ों कैंसर रोगी, जिन्हें कैंसर शरणार्थी कहा जाता है, और जो उस विशाल अस्पताल के बाहर की सड़कों पर ही रहते हैं, उन्हें मवेशियों की तरह खदेड़ दिया गया है।

लोग बीमार पड़ जाएंगे और घर पर ही मर जाएंगे। हम उनकी कहानियों को कभी जान भी नहीं पाएंगे। हो सकता है कि वे आंकड़ों में भी कभी न आ पाएं। हम केवल यह आशा कर सकते हैं कि इस विषाणु को ठंडा मौसम पसंद है, ऐसे अध्ययन सही हों (हालांकि अन्य शोधकर्ताओं ने इस पर संदेह व्यक्त किया है)। भारतीय लोगों ने इससे पहले कभी इतने अतार्किक ढंग से और इतनी तीव्र लालसा के साथ भारत के जला डालने वाले और परेशान कर देने वाले गर्मी के मौसम का इंतजार नहीं किया है। 

हमारे साथ यह क्या घटित हुआ है? यह एक विषाणु है। हां है, तो? इतनी सी बात में तो कोई नैतिक ज्ञान नहीं निहित है। लेकिन निश्चित रूप से यह विषाणु से कुछ ज्यादा है। कुछ लोगों का मानना है कि यह हमें होश में लाने का ईश्वर का तरीक़ा है। दूसरों का कहना है कि यह दुनिया पर क़ब्जा करने का चीन का षड्यंत्र है। चाहे जो हो, कोरोना विषाणु ने शक्तिशाली को घुटने टेकने को मजबूर कर दिया है और दुनिया को एक ऐसे ठहराव पर ला खड़ा किया है जैसा इससे पहले कोई चीज नहीं कर सकी थी। 

हमारे मस्तिष्क अभी भी आगे-पीछे दौड़ लगा रहे हैं और “सामान्य स्थिति” में आने के लिए लालायित हैं, और भविष्य को अतीत के साथ रफू करने की कोशिश में लगे हैं ताकि बीच की दरार का संज्ञान लेने से अस्वीकार कर दें। लेकिन यह दरार अस्तित्वमान है। और इस घोर हताशा के बीच ही यह हमें एक अवसर मुहैय्या कराती है कि हमने अपने लिए जो यह विनाशकारी मशीन बनाई है, उस पर पुनर्विचार कर सकें। सामान्य स्थिति में लौटने से ज्यादा बुरा कुछ और नहीं हो सकता।

ऐतिहासिक रूप से, वैश्विक महामारियों ने इंसानों को हमेशा अतीत से विच्छेद करने और अपने लिए एक बिल्कुल नई दुनिया की कल्पना करने को बाध्य किया है। यह महामारी भी वैसी ही है। यह एक दुनिया और अगली दुनिया के बीच का मार्ग है, प्रवेश-द्वार है। हम चाहें तो अपने पूर्वाग्रहों और नफरतों, अपनी लोलुपता, अपने डेटा बैंकों और मृत विचारों, अपनी मृत नदियों और धुंआ-भरे आसमानों की लाशों को अपने पीछे-पीछे घसीटते हुए इसमें प्रवेश कर सकते हैं। या हम हल्के-फुल्के अंदाज से बिना अतीत का कोई बोझ ढोए एक नई दुनिया की कल्पना और उसके लिए संघर्ष की तैयारी कर सकते हैं।

 

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कैसे और क्यों बनी भारतीय जनता पार्टी...यह तो जानना ही चाहिए आपको ?

प्रेमकुमार मणि 

6 अप्रैल भारतीय जनता पार्टी का स्थापना दिवस है. वर्ष 1980 में इसी रोज इसकी स्थापना की गयी थी. दरअसल भारतीय जनता पार्टी एक पुरानी दक्षिणपंथी पार्टी भारतीय जनसंघ का पुनरावतार है . दूसरी दफा जन्मी हुई पार्टी . इस रूप में यह शब्दशः द्विज (ट्वाइस बोर्न ) पार्टी  है  . 

पहले  मातृ - पार्टी के उद्भव की परिस्थितियों और मिजाज को जान लेना चाहिए . उससे पुत्री पार्टी का मिजाज जानने में सहूलियत होगी. भारतीय जनसंघ की स्थापना 21 अक्टूबर 1951 को हुई थी ,और इसके  संस्थापक अध्यक्ष महान शिक्षाविद, स्वतंत्रता सेनानी और हिन्दू महासभा नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी  थे .

स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरत बाद वैचारिक स्तर पर दलों के पृथक संगठन बनने आरम्भ हो गए थे . हालांकि वैचारिक फोरम और मंचों का बनना स्वतंत्रता संघर्ष के दरम्यान ही हो गया था . मुस्लिम लीग,हिन्दू महासभा ,आरएसएस ,साम्यवादी दल , कांग्रेस  सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी ), फॉरवर्ड ब्लॉक आदि 1940  के पहले ही बन चुके थे . 1948 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी )  से जुड़े हुए समाजवादी  जन , जो कांग्रेस में ही थे अलग हो गए . इनलोगों ने अपनी  सोशलिस्ट पार्टी बना ली . इनके बारह लोग संविधान सभा के सदस्य थे . उन लोगों  ने इकट्ठे धारासभा से  इस्तीफा कर दिया . उपचुनाव में  कोई भी पुनः चुन कर नहीं आ सका . कांग्रेस के भीतर दक्षिणपंथियों का बोलबाला था ,हालाकि गांधीजी के हस्तक्षेप से समाजवादी तबियत के जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे . आचार्य नरेन्द्रदेव ने अपने लेख " हमने कांग्रेस  क्यों छोड़ी ? " में उन स्थितियों का विवेचन किया है और यह स्वीकार किया है कि नेहरू के साथ हमारी हमदर्दी है ,लेकिन कांग्रेस  के साथ होने का अब कोई मतलब इसलिए नहीं रह गया है कि नेहरू दक्षिणपंथियों के दबाव में कुछ भी समाजवादी कदम नहीं उठा सकते ;और हम समाजवादी उद्देश्यों को छोड़ नहीं सकते .  यह बात सही भी थी . तब कांग्रेस के भीतर  दक्षिणपंथियों के मुखर और दबंग नेता सरदार पटेल थे . डॉ  राजेंद्र प्रसाद  जैसे  दक्षिणपंथी  लोग , जिन्होंने  सरकार  में ओहदे पा लिए थे ,  तो  मौन  साधे रहे ; लेकिन  कन्हैया माणिकलाल मुंशी , डॉ   रघुवीर , द्वारिकाप्रसाद  मिश्रा जैसे नेता  ,

जो पटेल के नेतृत्व में सक्रिय थे , 1950 में उनके निधन के बाद अचानक खुद को  अनाथ महसूस करने लगे  थे . राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर गांधीजी की हत्या के बाद कुछ समय केलिए  प्रतिबंध लगा हुआ था .संघ से जुड़े लोग भी एक राजनीतिक फ्रंट के निर्माण केलिए व्याकुल थे ,ताकि उनके  राजनैतिक स्टैंड का प्रकटीकरण हो .  हिंदी क्षेत्र में  जो हिंदुत्ववादी ताकतें थी ,उनका एक अलग व्याकरण था . 1946  में हिंदूमहासभा नेता मदन मोहन मालवीय की मृत्यु  हो गयी . इसके साथ ही महासभा का सुधारवादी पक्ष हमेशा के लिए ख़त्म हो गया . अब इस महासभा पर बंगाली हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व करने वाले श्यामाप्रसाद मुखर्जी  प्रभावी हुए  और वह इसके अध्यक्ष बने . श्यामाप्रसाद जी विद्वान थे . बहुत कम उम्र में उनने कलकत्ता विश्वविद्यालय का उपकुलपति पद हासिल  किया था . उनकी बौद्धिक क्षमता का सब लोहा मानते थे .नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल में भी उन्हें शामिल किया था .  उनका व्यक्तित्व जटिल तत्वों से निर्मित था ;मसलन  उन पर बंगला नवजागरण के साथ , बंगाल में काम कर रहे अनुशीलनसमिति  का भी गहरा असर था ,जो कि एक समय आतंकवादी संगठन था . बंगाल में  हिंदुत्व का अर्थ था , थोड़ा -सा मुस्लिम विरोध और महाराष्ट्र में हिंदुत्व का अर्थ था, प्रच्छन्न तौर  पर बहुजन -शूद्र विरोध . दोनों की अलग पृष्ठभूमि है ,और कतिपय अंतर्विरोध भी थे , जिसकी विवेचना में जाने का अर्थ विषयांतर होना होगा  .

हिंदी क्षेत्र में हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व मालवीय जी कर रहे थे ,जो कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके थे . मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय स्थापित कर बता दिया था कि उनके हिंदुत्व का एजेंडा कुछ अलग है . मालवीय जी हिन्दुओं के बीच ज्ञान- क्रांति लाने और छुआछुत ख़त्म करने केलिए प्रयत्नशील रहे थे . उनकी मृत्यु के बाद हिंदुत्व का यह सुधारवादी पक्ष हमेशा  केलिए सो गया . 

इसके बाद जो परिस्थितियां  बनीं ,उसमे इस पूरी विचारधारा का संघनन  आरम्भ हुआ .महाराष्ट्रीय हिंदुत्व जिसका प्रतिनिधित्व आरएसएस कर रहा था  और शेष  हिंदुत्व जिसका नेतृत्व हिंदूमहासभा के रूप में श्यामाप्रसाद मुखर्जी कर रहे थे , एक साथ  हुए . इसी का संघटन 21 अक्टूबर 1951  को भारतीय जनसंघ के रूप में हुआ . श्यामाप्रसाद मुखर्जी इसके संस्थापक अध्यक्ष  बने . अटल बिहारी  वाजपेयी उनके प्राइवेट सेक्रेटरी हुआ करते थे . मुखर्जी के अध्यक्ष बनने के साथ ही कांग्रेस के द्वारिकाप्रसाद मिश्रा बिदक गए . वह स्वयं अध्यक्ष बनना चाहते थे . अब वह और उनके अनुयायी कांग्रेस में ही रुक गए . (कहते हैं इसी द्वारका प्रसाद  ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनवाने में चाणक्य जैसी भूमिका निभाई .  . ) लेकिन मुंशी और रघुवीर जैसे लोग जनसंघ से जुड़े . मुखर्जी ने बंगला हिंदुत्व में अन्तर्निहित नवजागरण के वैचारिक अवयवों से शेष हिंदुत्व को मंडित करने का प्रयास आरम्भ ही किया था कि उनका 1953 में अचानक निधन हो गया . अब जनसंघ का मतलब था आरएसएस का राजनैतिक मंच . हालांकि अपने स्थापना काल में आरएसएस गौण शक्ति के रूप में था . श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मेधा के सामने आरएसएस का कोई नेता टिक नहीं सकता था . मुखर्जी संघियों की बहुत परवाह भी नहीं करते थे . 

इसलिए यह केवल मिथ है कि जनसंघ की स्थापना आरएसएस से जुड़े लोगों की है . वास्तविकता है कि इसकी स्थापना में उनके बनिस्पत कांग्रेसियों के एक बड़े समूह का अधिक  हाथ था . यह अलग बात है कि वे अपना कोई वैचारिक वर्चस्व नहीं बना सके . दरअसल उनकी कोई विचारधारा थी भी नहीं. नेहरू ने अपनी आत्मकथा में कांग्रेके इस समूह को 1936 में ही चिन्हित कर लिया था . 

भारतीय जनसंघ को दूसरी दफा एक वैचारिक आवेग देने की कोशिश इसके एक अल्पकालिक अध्यक्ष दीनदयाल  उपाध्याय  ने की . उन्होंने  उन वैचारिक आवेगों से पार्टी को जोड़ने की कोशिश की जिनका प्रतिनिधित्व मालवीय जी करते थे . दीनदयाल आरएसएस से जुड़े थे ,लेकिन उनके संस्कारों पर मालवीय जी का प्रभाव परिलक्षित होता है . यह शायद उन पर हिंदी क्षेत्र के होने का प्रभाव था . एकात्म मानववाद के उनके फलसफे पर संघ का प्रभाव कम दिख पड़ता  है . लेकिन दीनदयाल जी कुल 44 रोज ही अध्यक्ष रह सके . उन्हें मौत के घाट  उतार दिया गया . संदिग्ध स्थितियों में मुगलसराय रेलवे स्टेशन के पास उनकी लाश मिली . उनकी हत्या के लिए पार्टी के पूर्व अध्यक्ष बलराज  मधोक  ने अपनी पार्टी के शीर्ष नेता पर ऊँगली उठायी . सब जानते हैं कि वह नेता कौन था . एक दूसरे की हत्या ,पैर खींचना ,अपमानित करना इस पार्टी का पुराना चरित्र रहा है . फिलहाल आडवाणीजी  इसके उदाहरण हैं .  

अटल -आडवाणी के नेतृत्व में 1970  के दशक में यह पार्टी काम करती रही . 1977 में विशेष तत्कालीन परिस्थितियों  में  भारतीय जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया . उस वक़्त की परिस्थितियों और जनता पार्टी के कोहराम से सब लोग परिचित हैं . पार्टी में पूर्व जनसंघी सदस्यों के आरएसएस से जुड़ाव के प्रश्न पर अंतरकलह हुआ . इसे दोहरी सदस्यता  का मुद्दा कहा जाता है . कोई भी जनता पार्टी सदस्य , क्या आरएसएस का भी सदस्य रह सकता है ? यही सवाल था . यह सवाल उन सोशलिस्टों ने उठाया था जो स्वतंत्रता आंदोलन के समय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और कांग्रेस के सदस्य एक साथ हुआ करते  थे और इसका औचित्य भी बतलाते थे . उस वक़्त इस विचार का नेतृत्व मधु लिमये और रघु  ठाकुर कर रहे थे .  

रस्साकशी होते जनता पार्टी की सरकार गिर गयी .मध्यावधि चुनाव हुए और कांग्रेस की वापसी हुई . जनता पार्टी बिखर गयी . चुनाव के तुरंत बाद 6 अप्रैल 1980 को पुराने जनसंघियों  का जुटान हुआ और नयी पार्टी बनी - भारतीय जनता पार्टी . दरअसल जनता पार्टी में केवल ' भारतीय ' जोड़ लिया गया था . अटल बिहारी वाजपेयी संस्थापक अध्यक्ष बने .सोशलिस्टों के साथ रहने का कुछ प्रभाव शेष रह गया था . इसलिए इस नयी  पार्टी ने गांधीवादी समाजवाद की विचारधारा भी घोषित की . हालांकि कुछ ही समय बाद उसपर चुप्पी साध ली गयी . आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा ने आरएसएस के द्वारा प्रतिपादित हिंदुत्व को अपनी विचारधारा बना लिया . श्यामाप्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल के फोटो जरूर रह गए ,लेकिन उनकी विचार धारणाओं का  दफन कर दिया गया . 

1984 का लोकसभा  चुनाव भारतीय जनता पार्टी का पहला चुनाव था . इस में पार्टी की बुरी तरह पराजय हुई . इंदिरा गाँधी की हत्या से उपजी परिस्थितियों के कारण उसे मात्र दो सीटें मिल सकीं . पार्टी में नैराश्य का  एक भाव आया . गाँधीवादी समाजवाद का  चोगा फेंक कर पार्टी एक बार फिर धुर सांप्रदायिक राजनीति की ओर लौटी . पंजाब में भिंडरावाले की सांप्रदायिक राजनीति  को जाने -अनजाने इसने आत्मसात किया . संघ के एक दस्ते विश्व हिन्दू परिषद ने रामजन्मभूमि मामले को लेकर आंदोलन आरम्भ किया और  पूरी पार्टी प्राणपण से इसमें शामिल हो गयी . अटल पीछे पड़े और आडवाणी आगे हो गए . 

1989 के चुनाव में उसने 85 सीटें हासिल कर ली . उसके बाद उसका ग्राफ बढ़ता  गया . 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस कर देने के बाद पांच राज्यों में उसकी सरकारें बर्खास्त कर दी गयीं . लेकिन 1996 में तेरह  रोज केलिए ही सही , इन की सरकार बन गयी . हालांकि ,विश्वास मत हासिल करने के पूर्व ही सरकार को अपेक्षित समर्थन के अभाव में इस्तीफा करना पड़ा , जैसे 1979 में चरण सिंह को करना पड़ा था . 1998 में फिर से लोकसभा के चुनाव हुए और भाजपा के नेतृत्व में फिर से केंद्र में सरकार बनी . इस बार फिर तेरह  महीने में सरकार गिर गयी . 1999 में पार्टी फिर से सरकार बनाने में सफल हुई . यह सरकार 2004 के चुनाव तक चली . 

2004 के चुनाव में भाजपा को झटका लगा. इसके कई कारण थे. पार्टी आत्मविश्वास से इतनी लबरेज थी कि उसने तय समय से छह महीने पूर्व ही चुनाव करा लिए . पार्टी सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं हासिल कर सकी . हालांकि कांग्रेस ( 145) से उसे मात्र सात सीटें कम थी . लेकिन वामदलों और सोशलिस्ट दलों के सहयोग से कांग्रेस के नेतृत्व में नयी सरकार बनी. यह भाजपा की हार थी . 

2009 तक अटल बिहारी बुरी तरह अस्वस्थ होकर सामाजिक -राजनैतिक जीवन से सदा के लिए विदा हो गए. आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा ने लोकसभा चुनाव लड़ा . इस बार 2004  के 138 से भी बहुत कम, उसे मात्र 116 सीटें मिली . आडवाणी अब इससे बेहतर शायद नहीं कर सकते हैं ,यह पार्टी ने मान लिया . इसके साथ ही भाजपा में आडवाणी -युग का अंत हो गया . 

2014 तक  नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एक नयी भाजपा का उदय हुआ . मोदी ने हिंदुत्व  के तुरुप को चालाकी से  छुपा कर उस जाति के तुरुप को आगे किया ,जिसे हिंदी पट्टी में लोहियावादी सोशलिस्ट इन दिनों काफी इस्तेमाल कर रहे थे . मोदी ने खुद को चायवाला और पिछड़ी जात -जमात के निरीह नायक के तौर पर पेश किया. परिवारवाद और भ्रष्टाचार में लिप्त हो गयी सोशलिस्ट पार्टियां अब राजनैतिक दल से अधिक एक कम्पनी की तरह काम कर रही थीं . इन पार्टियों में आंतरिक जनतंत्र का पूरी तरह सफाया हो गया ,नतीजतन ये सब वैचारिक बांझपन की भी शिकार हो गयीं . इस कारण  भाजपा के इस नए तेवर को ये झेल नहीं सकीं और बुरी तरह पिटती चली  गयी . कांग्रेस भी इसी बीमारी की शिकार हुई और उसका भी सोशलिस्टों वाला ही  हाल हुआ . अलबत्ता  मार्क्सवादी दल अपने विचारों की अप्रासंगिकता के कारण ख़त्म होने लगे. वर्ष 2014 में पहली बार भाजपा स्पष्ट बहुमत के साथ केंद्र में पहुंची . 2019 के चुनाव में उसने अपनी ताकत और बढाई . अब कई पुराने सोशलिस्ट या तो उनकी झालर बन चुके हैं या फिर विपक्ष में होकर भी दुम  हिलाने के लिए मजबूर हैं .

स्पष्टतया उसने अपना असली एजेंडा अब सामने ला लिया है . इसके साथ ही भारत में एक नए राजनैतिक दौर की शुरुआत हो चुकी है . बहुत संभव है निकट भविष्य में एक राजनैतिक संघनन हो . कांग्रेस ,समाजवादियों और कम्युनिस्टों के अलग -अलग काम करने का अब कोई औचित्य नहीं है . भाजपा की कोशिश है विपक्षी दल कभी एकजुट नहीं हों. 

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राष्ट्रीय एकता के नाम पर अश्लीलता !

देश के प्रख्यात कथाकार मनोज रुपड़ा अपनी बेहद छोटी किंतु महत्वपूर्ण टिप्पणी में बता रहे है कि वे अवसाद में क्यों चले गए ? उनका मानना है कि देश में राष्ट्रीय एकता के नाम पर अश्लीलता हावी है.

कुछ दिनों से ऐसा लग रहा है , जैसे मैं कोई वास्तविक जीवन नहीं जी रहा हूं , बल्कि किसी कहानी में  जी रहा हूं. एक ऐसी फैंटेसी में जो ‘’ अंधेरे में ‘’ से भी ज्यादा भयानक और अकल्पनीय है.

इसमें सिर्फ किसी महामारी के संक्रमण का डर नहीं है, बल्कि समूचे भारतीय समाज के सामूहिक अवचेतन को निगलने का उपक्रम ज्यादा नजर आ रहा है. इतने बड़े पैमाने पर समूहिक मूर्खता का प्रदर्शन  मैंने पहले कभी नहीं देखा था. इतना विवेकहीन जन समूह भी कभी नहीं देखा था.

लेकिन याद रहे कि पहले ताली और थाली बजाने  का और अब दीया–बत्ती जलाने का आव्हान सिर्फ उनके लिए है , जिनके पास छत और बालकनी है. किराए का ही सही पक्का मकान है. छप्पर और टप्पर के नीचे जीने वाले निम्न वर्ग के लिए तो ये आव्हान बिल्कुल भी नहीं है ( दिखावे के लिए उनके लिए, लेकिन वास्तविक रूप में उनके लिए  नहीं )क्योंकि साधारण लोग जो टप्पर और छप्पर के नीचे रहते हैं , वे मनुष्य नहीं , कसाई खाने के पशु हैं. वे केवल तब उपयोगी हो सकते हैं , जब वे सत्ता विरोधी शक्तियों को मुश्किल में डालने के काम में आते हैं. यानी उनका उपयोग चुनाव  में वोट देने जुलूस  या चुनावी जन-सभा में भीड़ बढ़ाने तक सीमित है और जब उनका उपयोग नहीं रह जाता तो उनकी बलि चढ़ा दी जाती है.

दिल्ली से पलायन करते मजदूरों को देखकर यही लगा था कि वे कसाईबाड़े  की तरफ बढ़ते पशु हैं या ऐसे अनुपयोगी जानवर जिन्हें मरने के लिए छोड़ दिया जाता है. 

जिस डरावनी फैंटेसी में मैं जी रहा हूं उसमें एक तरफ सड़क पर भटकती भीड़ है और अपने छप्परों और टप्परों में राशन और खाने के पैकेट की भीख का इंतजार करते लाखों लोग हैं और दूसरी तरफ राष्ट्रीय एकता के नाम पर की जाने वाली अश्लीलता. ये वही स्वयंसेवक हैं जो ताली और थाली बजाने के पर्व में शामिल थे और अब खाने के पेकेट बांट रहे हैं. एक तरफ  ये अश्लील तमाशा और दूसरी तरफ़  सड़क पर भटकते हजारों मजदूर और रातों रात भिखारी बना दिए गए लाखों लोग मेरे दुःस्वप्न में गुथ्थम-गुत्था हो रहे हैं इस गुथ्थ्त्म- गुत्थी से कोई बड़ा सामाजिक विस्फोट हो या न हो, लेकिन व्यक्तिगत रूप से मुझे इस फैटेंसी ने अवसाद में डाल  दिया है.

 

 

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पहले बत्ती बुझानी है या जलानी है... अगर जलानी है तो फिर बुझानी ही क्यों?

रंगकर्मी और फिल्मकार पंकज सुधीर मिश्रा वैसे तो छत्तीसगढ़ के भिलाई के रहने वाले हैं, लेकिन लंबे समय से मुंबई में है. वे विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास नौकर की कमीज पर बनी फिल्म ( निर्देशक मणिकौल ) में काम कर चुके हैं. इसके अलावा रजत कपूर की फिल्म मिथ्या में भी वे थे. इन दिनों वे द कपिल शर्मा शो में क्रियेटिव डायरेक्टर है. यहां प्रस्तुत है उनकी खास टिप्पणी-

पंकज सुधीर मिश्रा

सुबह बड़े उत्साह से उठा...आज प्रकाशउत्सव मनाना है. सोचा तैयारी कर लूं. ढूंढना शुरू किया कि घर पर दिया, तेल, बत्ती, माचिस, मोमबत्ती सब है भी या नहीं. और देखिये कमाल... मेरे घर सब मिल गया. और चीज़ें तो छोड़िए टॉर्च तक निकल आई बताइए भला. जिस मुंबई महानगर में एक मिनट के लिए भी बिजली गुल नहीं होती वहां मैंने टॉर्च खरीद रखी है. मुझे खुद पर हंसी आई की कितना डरता हूं अंधेरे से ! जबकि उस्ताद कहते थे कि अंधेरे से डरना नहीं है... वो उतना ही निर्विकार है जितना उजाला है. रोज़ रात अंधकार होता है फिर रोज़ सुबह उजाला हो जाता है. अंधकार से डरना छोड़ दोगे तो अंधकार के भीतर देखने की दृष्टि पैदा होगी. वे मेरे सिनेमा के उस्ताद थे. 

टॉर्च जल रही थी. दिन के उजाले में टॉर्च को कई बार जलाया बुझाया... फिर बुझाया- जलाया... फिर बुझा दिया और कन्फ्यूज़ हो गया. 

मुझे अब भी समझ में नहीं आ रहा कि पहले बत्ती बुझानी है फिर बत्ती जलानी है? या पहले बत्ती जलानी है फिर बत्ती बुझानी है? जलानी ही है तो फिर बुझानी क्यों है? पहले से जल रही है ? और बुझानी है तो फिर जलानी क्यों है ? 

करना क्या है ?

टॉर्च एक तरफ पड़ी है और सोच रहा हूं कि वो ताली-थाली वाला ही ठीक था. रोज़ कमाने खाने वाले, जिनके घरों में बालकनी-खिड़कियां होती नही हैं और दीया- बत्ती-तेल के पैसे बचे नही हैं, उनके भी खाली पड़े हाथों को थोड़ा काम मिल जाता.  

जो मजदूर किसी तरह अपने घर पहुंच सकें और जो नहीं पहुंच सकें शायद अभी भी रास्तों पर हैं,  और जो खुले आकाश के नीचे बैठे आश्चर्य और निराशा में डूबे सोच रहे हैं कि देश के लोगों की चिंता में और 5 बिलियन वाली महाशक्ति की तैयारी में वे शामिल क्यों नही है ? वे मजदूर भी ताली बजा लेते तो उनकी सदियों की थकान शायद थोड़ी कम हो जाती. 

वे भी जो ना घर पहुंच पाए ना ही रास्तों पर हैं, जो महज़ अपने घर पहुंच पाने की आसभरी यात्रा के बीच किसी और लंबी यात्रा पर निकल गए उनकी आत्माएं भी वहां नर्क के दरवाज़े पर बैठी भूखे पेट ताली बजा ही लेतीं (हमें बताया नहीं था हमारे पूर्वजों ने... भूख से मरने पर मोक्ष नही मिलता )

और हां कुछ बच्चों की आंखें अभी भी कीटनाशक की भीषण जलन महसूस करती होंगी. लाल आंखों वाले वे बच्चे भी ताली पीट के थोड़ी देर के लिए बहल जाएं वैसे ही जैसे देश का मध्यवर्ग भीषण रूप से बहला हुआ है इन दिनों. 

 

 

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भक्तों के लिए आज सेल्फी का दिन

हे...आर्यपुत्रों सादर प्रणाम. खुश तो बहुत होंगे आज. सोच रहे होंगे कि कब रात के नौ बजे और तरह- तरह के पोज़ देते हुए सेल्फी लेने, वीडियो बनाने का मौका मिले. आज आप सबको एक फिर यह साबित करना है कि आप ही सबसे बड़े वाले देशभक्त हो. बाकी सब गदहे के बच्चे और राष्ट्रद्रोही हैं.

आप लोगों की बुद्धि पर मुझे कभी शक नहीं रहा. आप सबकी तादाद इतनी ज्यादा और भंयकर हैं कि कई बार हम मुठ्ठी भर लोग सोच में पड़ जाते हैं कि कौन सी चक्की का आटा खाकर मुकाबला किया जाय ? वैसे मुकाबला शब्द सही नहीं है.आप लोगों का मुकाबला स्वयं प्रभु श्री राम भी नहीं कर पा रहे हैं तो हमारी क्या बिसात. देश महामारी के एक भयावह दौर से गुजर रहा है. हर आदमी की हालत यह सोचकर पस्त है कि न जाने कल क्या होगा ? हर किसी को अपना भविष्य अंधकारमय लग रहा है तब आप लोगों को मस्ती सूझ रही है. ऐसा आप ही लोग कर सकते हैं. फलस्वरूप मुकाबला न केवल मुश्किल है बल्कि नामुमकिन जान पड़ता है.

आप लोगों को लगता है कि मोदी जी सब कुछ ठीक कर देंगे, लेकिन न जाने क्यों मुझे यह लगता है कि कोरोना से लड़ना उनके बस की बात नहीं है. अगर बस में होता तो आप लोगों से ताली-थाली पिटने और दीया-टार्च जलाने के लिए नहीं कहा जाता. जिस रोज आप सब लोगों ने थाली-ताली पिटने का उपक्रम प्रारंभ किया था उस रोज से ही कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है. अब तो आप सब लोगों को यह मान लेना चाहिए कि कोरोना सामूहिक मूर्खता से भागने वाला वायरस नहीं है.

फिलहाल हताशा और निराशा के एक भयानक दौर में हम मुट्ठीभर नागरिक सोशल मीडिया पर डटे हुए हैं. हमें कोरोना से भी लड़ना है और अज्ञानता से भी. अखबारों और चैनलों से हमने इसलिए भी उम्मीद छोड़ रखी है क्योंकि हमें यह बात अच्छी तरह से मालूम हैं कि कथित मीडिया अब एक निर्धारित एजेंडे के तहत काम करता है. अभी कथित देशभक्त मीडिया का सबसे बड़ा एजेंडा यहीं है कि कैसे देश के मुसलमानों को कोरोना से भी बड़ा वायरस बना दिया जाय.

अब मेरे एक-दो छोटे-छोटे सवाल है. आपको यह पता ही होगा कि परम आदरणीय मोदी जी ने गरीबों को सम्मानित करने के लिए दीया- टार्च- लाइटर- जलाने के लिए कहा है. क्या अलग-अलग राज्य अलग-अलग दिन प्रकाश फैलाने का काम नहीं कर सकते थे. चलिए 3 अप्रैल की बात छोड़िए... क्या यह काम  4 अप्रैल को नहीं हो सकता था ? आप कहेंगे कि कभी भी हो सकता है... फिर मोदी जी के आदेश और सामूहिकता का क्या मतलब है ? 

इसमें कोई दो मत नहीं है कि एकजुटता का अपना महत्व होता है, लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि आपकी यहीं एकजुटता कई तरह की परेशानियों  का कारण बन रही है. मोदी की घोषणा के बाद बिजली विभाग वालों की हालत खराब है. उन्हें अपील करनी पड़ रही हैं कि सब कुछ करना पर बत्ती मत बुझाना. भक्तों इतना तो जानते ही होंगे कि लॉकडाउन की वजह से ट्रेनें बंद हैं. उद्योग बंद है. जहां- जहां भी बिजली की खपत होती हैं ऐसे सारे संस्थान बंद है. अब ऐसे में देश की एक बड़ी आबादी बत्ती बंद करके बैठ जाएगी तो क्या पावरग्रिड का भठ्ठा नहीं बैठ जाएगा ? बिजली विभाग के जानकार बार- बार यह अपील कर रहे हैं कि भइया... सब कुछ कर लेना, लेकिन बत्ती मत बुझाना. क्या आप लोग उनकी अपील पर गौर करने के बारे में कुछ विचार कर रहे हो? ( अरे... यहां तो अपने दिमाग की बत्ती जला लो. )

हे भक्तों... अगर आप छत्तीसगढ़ से हैं तो आपको अच्छी तरह से याद होगा कि प्रदेश में जब भाजपा की सरकार थीं तब बस्तर में ब्लैक आउट की स्थिति पैदा हुई थीं. ऊर्जा नगरी कोरबा में बिजली घरों के खराब होने का खामियाजा भी छत्तीसगढ़ को समय- असमय भुगतना पड़ा है. इसलिए हे दानवीरों... मां भारती के लालों...रात को नौ बजे कछुआ छाप मच्छर अगरबत्ती से लेकर कपूर, लोभान, हेलोजन सब कुछ जला लेना... मगर देश को अंधेरे में डूबने से बचा सकते हो तो बचा लेना ? 

गर्मी का मौसम है और लॉकडाउन की वजह से हालत पस्त है. उम्मीद करता हूं कि खुद भी गर्मी में नहीं सड़ोंगे और हम लोगों को भी सड़ने का मौका नहीं दोंगे. और हां... रात को नौ बजकर नौ मिनट के बाद दांतों-तले ऊंगली दबा लेने वाले मुहावरे को चरितार्थ करने वाली तस्वीरें और वीडियो शेयर करना मत भूलना. हम लोगों के मनोरंजन का ख्याल रखना भी आप सबका कर्तव्य है. एक बात और...दीया-बत्ती का खेल खेलने के बाद यह भी चेक कर लेना कि मंगलू, समारू और दुकालू के घर चूल्हा जला था या नहीं ?

- राजकुमार सोनी  पांच अप्रैल 2020

 

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उत्सवधर्मी प्रधानमंत्री

छत्तीसगढ़ सरकार के राजनीतिक सलाहकार विनोद वर्मा इस लेख में नरेंद्र मोदी द्वारा मनाए जाने वाले उत्सव के बीच सुगबुगाते हुए कई सवाल खड़े करते हैं.

वे प्रधानमंत्री हैं. देश के कर्ताधर्ता हैं. उन्हें देश चलाना चाहिए. वे जैसे तैसे चला भी रहे हैं. लेकिन साफ़ दिख रहा है कि ऐसे संकट के समय में भी वे राजनीति कर रहे हैं.

 

वे बार बार यह साबित करना चाहते हैं कि लोग उनके कहे पर ताली और थाली बजा सकते हैं. लोग उनके कहने पर पांच अप्रैल को रात नौ बजे दिए और मोमबत्तियां भी जलाएंगे. उनको लगता है कि वे इस तरह के आव्हान से इतिहास में दर्ज होते जाएंगे. गांधी ने कहा, करो या मरो. देश ने माना और आज़ादी का रास्ता खुला. नेहरू जी ने कहा कि आराम हराम है और देश नवनिर्माण में लग गया. शास्त्री ने कहा, जय जवान जय किसान और अपील की कि देश के लिए एक जून उपवास करो तो देश ने लंबे समय तक पालन किया. वे इसी तरह से इतिहास में दर्ज होना चाहते हैं. अपनी समझ भर का प्रयोग वे भी कर रहे हैं. उन्होंने ताली-थाली बजवाकर देख लिया. वे यह जानबूझकर अनदेखा कर गए कि ताली-थाली बजनी तो डॉक्टरों, चिकित्साकर्मियों और कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ रहे लोगों के लिए थी लेकिन भक्तगण मोदी के लिए ताली-थाली बजाते रहे. वह गो कोरोना गो हो गया. हासिल क्या हुआ? कुछ नहीं.

अब पांच अप्रैल को रात नौ बजे सबको अपने घरों में दिया या मोमबत्ती या टॉर्च जलाना है. नौ मिनट तक. मोदी जी की जय-जयकार. उनकी धमक की चर्चा होगी. बार- बार आपको बताया जाएगा कि देखिए उनके एक आव्हान पर देश कैसे एकजुट होता है. हासिल क्या होगा? कुछ नहीं.

कुछ मूर्खों की चर्चा व्हाट्सऐप पर चलती रहेगी कि ध्वनि से कोरोना मरेगा, रोशनी से कोरोना मरेगा. मोदी जी ने सोच समझकर कुछ किया है. नासा के वैज्ञानिक भी ऐसा कह रहे हैं. आदि आदि.

लेकिन कोरोना से लड़ाई में हम कौन सी मंज़िल हासिल कर लेंगे? कुछ नहीं.

आप चतुराई देखिए कि मोदी जी ऐसा कोई आव्हान नहीं करते जिसका असर को आप भांप या नाप सकें. जैसे उन्होंने कभी ये नहीं कहा कि उद्योगपति और व्यावसायी मज़दूरों को लॉक-डाउन के दौरान तनख्वाह देते रहें. मकान मालिकों से नहीं कहा कि वे किराया न मिलने पर भी ग़रीबों और मज़दूरों को न निकालें. उन्होंने ऐसा कोई आव्हान नहीं किया जिसे लोग नहीं मानेंगे. लाखों मज़दूर पैदल अपने घर जाने के लिए निकल पड़ते हैं, वे चुप रहते हैं. एक आयोजन की वजह से (जो कि सिरे से ग़लत था) देश में सांप्रदायिता का ज़हर फैलाया जाता है, वे चुप रहते हैं. देश के अलग अलग हिस्सों से भूख और पीड़ा की कहानियां आती हैं, वे चुप रहते हैं. उन्हें न नोटबंदी के समय ग़रीबों की पीड़ा समझ में आई थी न अब आ रही है. वे किसानों का दर्द महसूस ही नहीं करते.

वे देश को संबोधित करते हुए यह नहीं बताते कि देश में कोरोना से लड़ाई की कितनी तैयारी हो चुकी है. ग़रीबों को भोजन कैसे मिलेगा? बेरोज़गार किस तरह से अपने दिन काटेगा? अस्पतालों का क्या हाल है? 

टेस्ट क्यों नहीं हो रहे हैं? डॉक्टरों को सुरक्षित क्यों नहीं किया जा रहा है? वे चुप रहते हैं.

वे उत्सवजीवी हैं. वे उत्सव का आडंबर खड़ा कर सकते हैं. वे जानते हैं कि भारत की जनता उनकी वही बात मान सकती है जिसमें जेब से एक पैसा न खर्च होता हो. जिससे किसी का हित प्रभावित न होता हो. ताली- थाली भी उत्सव था और दिया जलाना भी उत्सव है. एकजुटता के नाम पर. देशहित के नारे पर. वे एक ऐसे तमाशबीन में बदल चुके हैं जो हर दिन एक नया तमाशा खड़ा कर सकता है और मुद्दे की हर बात को नज़र बचाकर हाशिए पर डाल सकता है.

जैसा नीरो के लिए कहा जाता है कि जब रोम जल रहा था तो नीरो बंसी बजा रहा था. वैसे ही आने वाले दिनों में लिखा जाएगा कि जब भारत कोरोना से लड़ रहा था तो नरेंद्र मोदी उत्सव मना रहा था.

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हल के फालों को गलाकर तलवार बना लेने का समय

भय और निराशा के खतरनाक दौर में जनसंपर्क विभाग के आयुक्त तारन प्रकाश सिन्हा की यह टिप्पणी कम संसाधनों से भी मुठभेड़ करने की प्रेरणा देती है. इस टिप्पणी को पढ़कर एक गीत बरबस याद आ जाता है- हम लोगों को समझ सको तो समझो दिलबर जॉनी... जितना हमको समझोगे उतनी होगी हैरानी... क्योंकि दिल है हिन्दुस्तानी.

जब युद्ध की परिस्थितियां हों तब हल के फालों को गलाकर तलवारें ढाल लेनी चाहिए.

देश इस समय यही कर रहा है. 

आटो मोबाइल सेक्टर की नामवर कंपनी महिंद्रा और महिंद्रा अब वैंटिलेटर्स के निर्माण के लिए आगे आ रही है. और खबरों के मुताबिक वह चार-पांच लाख रुपए के वैंटिलेटर्स साढ़े 7 हजार रुपए से भी कम कीमत पर उपलब्ध कराने की तैयारी में है.

भारत में कोरोना वायरस को बड़ा खतरा इसलिए भी माना जा रहा था क्योंकि यहां संक्रमितों की संभावित संख्या की तुलना में वेंटिलेटर्स की संख्या बहुत कम है. महिंद्रा की पेशकश ने इस खतरे को न केवल कम कर दिया, बल्कि इस युद्ध को भी आसान कर दिया है.

अस्पतालों में भर्ती मरीजों के लिए पलंग से लेकर सैनेटाइजर जैसे सामान कम न पड़े, इसके लिए रेलवे ने भी कमर कस रखी है. रेलवे ने अपने कई प्रोडक्शन इकाइयों को मेडिकल संबंधी सामान बनाने का आदेश जारी कर रखा है. खबर यह भी है कि कई वातानुकूलित ट्रेनों को भी अस्पतालों में तब्दील करने के बारे में विचार किया जा रहा है, यह इनोवेटिव आइडिया रेलवे को आमलोगों से ही मिला था.

कोरोना से रक्षा के लिए जब सेनेटाइजर्स कम पड़ने लगे तब शराब का उत्पादन करने वाली डिस्टिलरियों ने सेनेटाइजर्स का उत्पादन शुरू कर दिया. मास्क की कमी को दूर करने के लिए गांव-गांव में स्व सहायता समूह की महिलाएं अपनी सिलाई मशीनें लेकर जुट गईं.

संक्रमितों की जांच के लिए जब महंगे विदेशी किटों की उपलब्धता रोड़ा बनी तब पुणे के माईलैब डिस्कवरी साल्यूशन प्राइवेट लिमिटेड नाम की देसी संस्था ने सस्ता किट तैयार कर दिखाया. इससे मरीजों की जांच अब एक-डेढ़ हजार रुपए में भी हो सकेगी, जिस पर पहले चार-पांच हजार रुपए तक खर्च हो जाया करते थे. भारत की यह उपलब्धि भी किसी मंगल मिशन से कम नहीं है।

इस तरह के उदाहरणों का लंबा सिलसिला है. 

हम वो लोग हैं जो पुड़ियों के लिए गर्म हो रहे तेल से राकेट साइंस सीख लेने की योग्यता रखते हैं. 

- तारन प्रकाश सिन्हा

 

 

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चंदूलाल चंद्राकर के नाम पर पत्रकारिता विश्वविद्यालय... चड्डी गैंग परेशान !

राजकुमार सोनी

छत्तीसगढ़ में भाजपा शासनकाल में स्थापित पत्रकारिता विश्वविद्यालय को चंदूलाल चंद्राकर के नाम पर किए जाने से चड्डी गैंग परेशान हो गया है. इस गैंग से जुड़े कथित राष्ट्रवादी चिंतक अलग-अलग स्तर पर मंथन कर रहे हैं. उनकी कोशिश है कि इस मामले को एक खास तरह का रंग देकर राष्ट्रीय स्तर का मुद्दा बना दिया जाय. गैंग से जुड़े एक सदस्य ने हाल ही में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को एक लंबा-चौड़ा पत्र लिखा है. यह पत्र वंदन... चंदन... अभिनंदन... शुभ प्रभातम... और विषय है तो विषय क्यों है जैसी प्राचीन भाषा के साथ सोशल मीडिया पर विचरण कर रहा है. ( प्रगतिशील लेखकों का एक बड़ा वर्ग चड्डियों को कुछ इसी तरह की भाषा से जानता-समझता है. जैसे ही मुंह खोले और विषय-सिषय जैसे शब्दों की बौछार हुई तो समझ लीजिए सामने वाला मामूली कार्यकर्ता नहीं बल्कि भक्ति युग का शेयर होल्डर है. )

गैंग के सदस्य ने अपने पत्र में साफ तौर पर यह माना है कि चंदूलाल चंद्राकर छत्तीसगढ़ के माटीपुत्र थे और पत्रकारिता में उनका जबरदस्त योगदान था. गैंग के कर्ताधर्ता ने यह नहीं बताया कि कुशाभाऊ ठाकरे जिनके नाम पर पत्रकारिता विश्वविद्यालय खोला गया था वे पत्रकार थे भी या नहीं? सदस्य ने लिखा है- कुशाभाऊ ठाकरे एक सात्विक वृत्ति के नेता थे और उन्होंने छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की सेवा की थीं. सदस्य ने अपने पत्र के जरिए मुख्यमंत्री को डराने ( चेतावनी भी बोल सकते हैं ) की चेष्टा भी की है. वे फरमाते हैं- सत्ता हमेशा के लिए नहीं होती. काल के प्रवाह में पांच साल कुछ नहीं होते. कल अगर कोई अन्य दल सत्ता में आकर चंदूलाल चंद्राकर का नाम का इस विश्वविद्यालय से हटा देगा तब क्या होगा ? जो विश्वविद्यालय लंबे समय से एक खास दल की राजनीतिक विचारधारा को पोषित करने का केंद्र बना हुआ था उसका नाम बदले जाने से हैरान और परेशान सदस्य ने आगे लिखा है- शिक्षा परिसरों को राजनीति का अखाड़ा बनाना एक तरह का अपराध ही है. ( गोया... अब तक वहां भजन संध्या का कार्यक्रम चल रहा था. ) सदस्य ने कहा है- अगर कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम छत्तीसगढ़ के कुछ पत्रकारों के कहने पर बदला गया है तो वे देशभर के संपादकों से लेटर लिखवाकर भिजवा सकते हैं कि नाम मत बदलिए.

खैर... यह तो हुई गैंग के एक सदस्य की बात जिन्हें नहीं मालूम कि देश में अब संपादक नाम की कोई वैधानिक संस्था बची नहीं है. इधर जब से सोशल मीडिया का दौर आया है तब से यह जानना भी बड़ा आसान हो गया है कि कौन किसका भक्त है. कौन देशभक्त है और कौन अंधभक्त है. मान्यवर को यह बताना ठीक होगा कि अब संस्थानों में गणेशकंर विद्यार्थी नहीं बल्कि पार्टी के कार्यकर्ता काम करते हैं. संपादक... एक दलाल से अधिक कुछ नहीं होते. 

एक मैग्जीन के इस मूर्धन्य संपादक ने यह भी उल्लेखित किया है- चूंकि कुशाभाऊ ठाकरे परिसर में कुशाभाऊ जी की मूर्ति स्थापित है इसलिए किसी भी कीमत पर विश्वविद्यालय का नाम बदल देना ठीक नहीं होगा. मूर्धन्य संपादक को शायद यह नहीं मालूम है कि छत्तीसगढ़ में यह परिपाटी भाजपा के शासनकाल में ही प्रारंभ हुई थी. भिलाई के खुर्सीपार में राजीव गांधी के नाम एक स्टेडियम बनाया गया था. इस स्टेडियम में राजीव गांधी की प्रतिमा भी स्थापित हो चुकी थीं, लेकिन बावजूद इसके स्टेडियम का नाम दीनदयाल उपाध्याय खेल परिसर कर दिया गया. ऐसे और भी कई उदाहरण है. इसकी सूची काफी लंबी है. संपादक जी को समझना चाहिए कि जब बोया बीज बबूल का तो... फल कहां से होय... मुहावरा इसलिए उपयोग में लाया जाता है.

अब सुनिए गैंग के दूसरे सदस्य की गुहार जो एक वाट्सअप ग्रुप में चल रही है- सदस्य ने लिखा है- कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम बदले जाने पर अगर सोशल मीडिया में कोई मुहिम चलानी है तो हमें संगठित होकर लड़ना होगा. अक्सर देखा गया है कि जब हम लोग ज्वलंत विषय पर लिखते हैं तो न तो हमारी पोस्ट को लोग लाइक करते हैं और न ही कमेंट करते हैं जबकि कांग्रेसी संगठित होकर पूरी पोस्ट पर रायता फैला देते हैं. 

( सदस्य के भीतर यह डर समाया हुआ है कि अगर मुखरता से बात नहीं उठी तो फजीहत हो जाएगी. )

एक तीसरे सदस्य के विचार सर्वोत्तम डाइजेस्ट में छपने वाले विचार की तरह है- अगर हमें इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाना है तो व्यवस्थित होकर भिंड़ना समीचीन होगा. जिन राज्यों में हमारी सरकार है, विरोध की सारी गतिविधि वहीं से शुरू करनी होगी. इसके लिए केंद्रीय नेतृत्व का दिशा-निर्देश लेना भी समीचीन होगा.

(  बड़े दिनों के बाद यह समीचीन शब्द सुनाई पड़ा. सवाल यह भी है कि कौन सा केंद्रीय नेतृत्व ? पर्दे के पीछे का असली केएन सिंग कौन है ? )

चौथे सदस्य का दर्द देखिए- यह विश्वविद्यालय की स्वायत्तता पर चोट है. बताइए अब सरकार करेगी कुलपति की नियुक्ति और उसको हटाने की कार्रवाई. यह तो हद है.

एक अन्य सदस्य ने खोजी पत्रकारिता को महत्वपूर्ण मानते हुए लिखा है- सबसे पहले हमें कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का अध्यादेश प्राप्त करना चाहिए. इस विश्वविद्यालय का अलग ही अध्यादेश है. विश्वविद्यालय के नाम परिवर्तन का कोई प्रस्ताव विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद की अनुमति से ही भेजा जा सकता है. जब उच्च शिक्षा मंत्री संक्षेपिका तैयार कर लेंगे तब मंत्रिपरिषद को भेजा जाएगा. विधानसभा में संशोधन के साथ अध्यादेश लाया जाएगा. हमें डिटेल जानकारी लेनी होगी कि कब क्या-क्या हुआ.

एक महामानव की राय है- हमारे देश में जितने भी विश्वविद्यालय कांग्रेस नेताओं के नाम पर है उसका भी डाटा तैयार करना चाहिए. क्या सरकार बदलते ही नाम बदला जा सकता है ?

एक सदस्य ने कानूनी दांव-पेंच पर जोर देते हुए लिखा है- मुझे पता चला है कि प्रदेश के कुछ पत्रकारों ने मुख्यमंत्री और उच्चशिक्षा मंत्री को विश्वविद्यालय का नाम बदलने के लिए ज्ञापन दिया था. इस ज्ञापन में कहा गया था कि कुशाभाऊ ठाकरे का पत्रकारिता से कोई लेना-देना नहीं था. मुझे लगता है हमें इसकी भी तोड़ निकालनी चाहिए. हमें जल्द से जल्द स्टे लेने के बारे में कोई योजना बनानी चाहिए. लिखने वाले ने प्रदेश के पत्रकारों को आड़े हाथों लेते हुए यह भी लिख मारा है कि जिन पत्रकारों ने नाम बदलने के लिए ज्ञापन दिया है उनमें से ज्यादातर वामपंथी होंगे. अगर उन पत्रकारों का नाम मिल जाए तो हम उनका प्रोपगंड़ा भी एक्सपोज कर सकते हैं.

( अगर कल कोई पत्रकार कोरोना को छोड़कर इधर-उधर की अफवाह या साजिश का शिकार होता है तो इसे चड्डी गैंग का ही कारनामा मानना ज्यादा बेहतर होगा. आरोप कुछ भी हो सकते हैं. मसलन पत्रकार चरित्रहीन है. शराब पीता है. खूब कमा रहा है. हेलीकाफ्टर में घुमता ही नहीं... अब तो हेलीकाफ्टर भी खरीद लिया है. किराए पर चलाता है. वगैरह... वगैरह... )

सदस्य की यह भी राय है कि हमें न्यायालय में जनहित याचिका विश्वविद्यालय के किसी पूर्व छात्र या छात्रा से ही लगवानी चाहिए. एक बड़े नेता ने तो यह तक ऐलान कर दिया है कि अगर दोबारा भाजपा की सरकार आई तो छत्तीसगढ़ में किसी भी संस्थान का नाम नेहरू और गांधी के नाम पर नहीं होगा.

राष्ट्रवादी चिंतकों की आगे क्या प्लानिंग है इसका खुलासा हम धीरे-धीरे करते रहेंगे.

बहरहाल सरकार ने पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम जिस चंदूलाल चंद्राकर के नाम पर किया है उनके बारे में हम अपने पाठकों को बताना चाहेंगे.

छत्तीसगढ़ की माटी में जन्मे चंदूलाल चंद्राकर राजनीति में आने से पहले एक सक्रिय पत्रकार थे. वर्ष 1945 से ही उनकी पहचान एक राष्ट्रीय पत्रकार के तौर पर होने लगी थीं. उनके समाचार हिंदुस्तान टाइम्स में छपा करते थे. उन्होंने कांग्रेस के पहले अधिवेशन की रिपोर्टिंग की थी. यह अधिवेशन बंबई में हुआ था. उन्हें महात्मा गांधी भी बेहद पसंद करते थे. खेलकूद की रिपोर्टिंग में उनकी विशेष रुचि थीं. उन्हें नौ ओलंपिक खेलों और तीन एशियाई खेलों की रिपोर्टिंग का अनुभव रहा है. वे राष्ट्रीय हिंदुस्तान टाइम्स में पहले संवाददाता थे. बाद में इसी अखबार के संपादक बने. एक सम्मानजनक पद पर पहुंचने वाले छत्तीसगढ़ से वे पहले व्यक्ति थे. उन्हें युद्ध की रिपोर्टिंग का भी अच्छा-खासा अनुभव था. एक पत्रकार के रुप में उन्होंने कई देशों की यात्रा भी थी. अगर चंदूलाल चंद्राकर छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण सर्वदलीय मंच का गठन कर आंदोलन नहीं छेड़ते तो शायद ही कभी छत्तीसगढ़ का निर्माण हो पाता.

छत्तीसगढ़ सरकार उनके सम्मान में पत्रकारिता पुरस्कार भी प्रदान करती है. इस खबर के लेखक ने भी वर्ष 2005 में यह पुरस्कार इसलिए स्वीकार किया था कि क्योंकि वह पत्रकारिता के अग्रह, पितामह और स्वतंत्रता सेनानी चंदूलाल चंद्राकर के नाम पर था. कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम अगर अब चंदूलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय कर दिया गया है तो यह ठीक ही किया गया है. कुछ भूल केवल भूल होती है. इन भूलों को झाड़ते रहने और उनके ऐतिहासिक होने से रोक लगा देने में ही भलाई निहित होती है. ऐसा करना एक अच्छी सरकार का दायित्व भी होता है. अब विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच अगर पत्रकारिता की जिम्मेदारी का बीज रोपा जाएगा तो इसे अच्छी शुरूआत मानकर आगे बढ़ना ठीक होगा. इस मामले में एक तथ्य और है कि जब भाजपा सरकार ने कुशाभाऊ ठाकरे के नाम पर पत्रकारिता विश्वविद्यालय को खोले जाने की बात की थीं तब संघ की विचारधारा से जुड़े एक मूर्धन्य संपादक ने ही जबरदस्त विरोध किया था. इस संपादक का कहना था- वर्ष 1980-81 में युगधर्म अखबार बंद होने के कगार पर आ गया तो उन्होंने कुशाभाऊ ठाकरे से सहायता के लिए गुहार लगाई थीं, लेकिन ठाकरे ने आर्थिक सहायता देने इंकार कर दिया था. अगर कुशाभाऊ चाहते तो अखबार को बंद होने से बचाया जा सकता था.

अब जरा सोचिए... उन छात्र-छात्राओं के बारे में जो कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय में पढ़ते हैं या पढ़ते रहे हैं. विश्वविद्यालय में अध्ययन के लिए आने वाले छात्रों ने क्या यह जानने की कवायद नहीं की होगी कि कुशाभाऊ ठाकरे कौन थे? विश्वविद्यालय में कार्यरत एक प्राध्यापक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा- छात्र-छात्राओं ने कई मर्तबा यह जानने की कवायद की है कि ठाकरे जी का पत्रकारिता में क्या योगदान था ? हम बार-बार यहीं बोलकर खामोश हो जाते हैं- समाज में हर व्यक्ति का योगदान होता है.वे छत्तीसगढ़ के नहीं थे,लेकिन छत्तीसगढ़ आते-जाते रहते थे.

चंदूलाल चंद्राकर छत्तीसगढ़ के ही थे... इसलिए राजनीति के गलियारों में इस बात को लेकर भी बहस प्रारंभ हो गई है कि जब-जब स्थानीय स्तर पर किसी पुरखे या छत्तीसगढ़ी व्यक्ति के सम्मान की बात आती है तो देश को अलग-थलग बांटने लोग विरोध क्यों प्रारंभ कर देते हैं ? ऐसे लोगों को किसी ठेठ छत्तीसगढ़िया को सम्मान देना रास क्यों नहीं आता है? क्या छत्तीसगढ़ में पैदा होना... छत्तीसगढ़िया होना अपराध है? 

 

 

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याद रखिए संपादक जी... क्रांतिकारी कभी बूढ़ा नहीं होता है.... और हां...कभी मरता भी नहीं है.

राजकुमार सोनी

प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और दमन के खिलाफ अनेक जनआंदोलन की अगुवाई करने वाले लाखन सिंह भले ही एक काया के तौर पर इस दुनिया का हिस्सा नहीं है, लेकिन उनकी मौजूदगी हर समय विद्यमान रहने वाली है. कभी वे बिलासपुर के नेहरू चौक में नजर आएंगे तो कभी रायपुर के बूढ़ातालाब के पास... तो कभी बस्तर में आदिवासियों के साथ.निजी तौर पर मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि वे इस दुनिया से कूच कर गए हैं. इस देश के तमाम चड्डीधारी लाख कोशिश कर लें, लेकिन न तो वे इतिहास को फांसी पर लटका पाएंगे और न ही उनकी दिली ख्वाहिश से विचारधारा की मौत होने वाली है. दोस्तों... क्रांतिकारियों की मौत कभी नहीं होती. क्रांतिकारी कभी नहीं मरते.

लाखन सिंह...जिन्हें हम सब लाखन भाई कहते थे, उनसे मेरा पहला परिचय कब और किस दिन हुआ यह बताना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन मुझे याद है कि जब तहलका में था तब मैंने एक खबर के सिलसिले में वरिष्ठ पत्रकार आलोक पुतुल से नंबर लेकर उन्हें फोन किया था. एक खबर के लिए महज एक छोटी सी जानकारी हासिल करने का मामला धीरे-धीरे एक दूसरे तरह के रिश्ते में बदल गया. वे एक पत्रकार की पसन्द बन गए. ( हालांकि वे जनसरोकार से जुड़ी खबरों पर काम करने वाले हर पत्रकार की पहली पसंद थे. ) मुझे किसी भी खबर में कुछ पूछना होता तो उन्हें आवश्यक रुप से याद करता था. सामान्य तौर पर अखबार में काम करने वाले संवाददाताओं को मालिक और उनके द्वारा नियुक्त किए गए चिरकुट संपादक समय-समय पर हिदायत देते रहते हैं- देखिए ज्यादा... रिश्ते मत बनाइए... प्रोफेशनल रहिए... अखबार को जितनी जरूरत है उतनी बात करिए... लेकिन मैं मालिक और चड्डीधारी संपादक की परवाह किए बगैर उनसे बात करता था और लगातार बात करता था.

कथित मुख्यधारा की पत्रकारिता के अंतिम दिनों में संघ की विचारधारा को बीज-खाद और पानी देकर पोषित करने वाले जिस अखबार में फंसा हुआ था वहां एक स्थानीय संपादक को लाखन भाई से खास तरह की चिढ़ थीं. जब भी लाखन भाई का नाम खबर में लेता वे सीधे-सीधे कहते- यार... किस काम का यह वर्शन. अखबार को दो पैसे का फायदा मिले...यह देख-समझकर काम करना चाहिए. इस बूढ़े क्रांतिकारी का पक्ष छापकर क्या मिलेगा. मेरा जवाब होता- बेशक आप उनका पक्ष हटा सकते हैं, लेकिन संपादक जी आपको यह तो पता होना चाहिए कि एक क्रांतिकारी कभी बूढ़ा नहीं होता. आप इस क्रांतिकारी को ठीक से जानते नहीं है. क्या आप एक बार भी पूरे दिन तेज गरमी में तख्ती लेकर किसी चौक में खड़े हो सकते हैं? संपादक कहते- मैं क्यों खड़ा रहूंगा. यह मेरा काम नहीं है. मैं उनसे पूछता- एक अखबार में जनसरोकार से जुड़ी खबरों को पर्याप्त महत्व मिलना चाहिए... इस सिद्धांत तो आप जानते ही होंगे. अखबार में काम करने वाले संपादक और उसके रिपोर्टर को किसके पक्ष में खड़े रहना है इसकी सामान्य जानकारी भी आपके पास होगी ही, लेकिन क्या आप ऐसा कर पा रहे हैं ? बस... संपादक जी का आखिर वाक्य होता- यार... मुझसे बहस मत करो.

बावजूद इसके लड़-भिंडकर मैं लाखन भाई ( उनके विचारों के लिए ) गुंजाइश निकालता रहा. डाक्टर रमन सिंह के शासनकाल में जब बस्तर एक बड़े हिस्से में निर्दोष आदिवासियों पर अत्याचार बढ़ा तब लाखन भाई शालिनी गेरा, प्रियंका शुक्ला सहित बस्तर की आदिवासी बच्चियों के साथ अक्सर रायपुर आते थे. कभी वे प्रेस कांफ्रेन्स करते तो कभी सीधे मुझसे मिलने अखबार के दफ्तर चले आते. उन्हें देखते ही विचार और कद से ठिगनु स्थानीय संपादक का पारा चढ़ जाता. वे फूं-फां- फूं-फा करने लगते. नाक-भौ सिकुड़ने लगते. ( अब संघ के दफ्तर में तब्दील हो चुके अखबार के दफ्तर में कोई क्रांतिकारी पहुंच जाएगा तो फूं-फां झूं-झा का होना स्वाभाविक ही था. )

धीरे-धीरे लाखन भाई छपना बंद हो गए. मुझे  राजनीति/ प्रशासन/ आदिवासी इलाकों की बीट को देखने से रोक दिया गया. मैं सांस्कृतिक खबरों को कव्हरेज करने लगा था. एक रोज लाखन भाई ने मुझे बताया कि मैं जिस अखबार के लिए काम करता हूं उसके बिलासपुर संस्करण ने भी आंदोलन की खबरों को छापना बंद कर दिया है. मैंने लाखन भाई को बताया वहां का संपादक भी मोदी का परम भक्त है. बात-बात में लघुत्तम-सर्वोत्तम, घटोत्तम-चट्टोत्तम और अतिउत्तम करते रहता है. चिंता करने की कोई बात इसलिए नहीं है क्योंकि ढंग से पढ़ने-लिखने वाला कोई भी शख्स उसे गंभीरता से नहीं लेता है. आप भी मत लीजिए. केवल फिल्मों मेंं ही नहीं पत्रकारिता मेंं भी बहुत से लोग उदय चोपड़ा होते हैं.

ऐसा क्या ? बोलकर लाखन भाई मेरी बात से सहमत हो गए और फिर धीरे से  सीजी बास्केट को लांच करने की योजना बनी. खबरों की इस बास्केट को लांच करने का एक मकसद ही यहीं था कि भाजपा के शासनकाल में जनआंदोलन से जुड़ी खबरों को बुरी तरह से दबाया जा रहा था. अब मेरे द्वारा जो कुछ भी लिखा जाता उसे वे सीजी बास्केट में अवश्य छापते. जब तबादले में कोयम्बटूर भेजा गया तब भी वक्त निकालकर मैं उनके सीजी बास्केट के लिए खबरें लिखता रहा. मेरी खबरों में वे मेरा नाम लिखते थे- विक्रम वरदराजन. विधानसभा चुनाव के रिजल्ट से कुछ पहले मैंने उन्हें खबर भेजी कि भाजपा 15 से 20 सीटों पर सिमट जाएंगी. उन्होंने फोन किया और कारण जानना चाहा. मैंने भी हंसते हुए कहा-क्या लाखन भाई... आज तक विक्रम वरदराजन की कोई रिपोर्ट झूठी निकली है क्या ?

उनसे साथ अपने रिश्तों के सैकड़ों किस्से याद आ रहे हैं. अभी लगभग दो-तीन महीने पहले मैं उनके और जीएसएस के सुबोध भाई के साथ छत्तीसगढ़ी फिल्मों के सामने चुनौतियां विषय पर आयोजित की गई एक गोष्ठी का हिस्सा था. इस गोष्ठी में गरमा-गरम बहस के कुछ दिनों बाद ही वे ही सुबोध जी के साथ मेरे निवास आए. उनके साथ अनुज भी था. हम सब पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म का निर्माण करने वाले मनुनायक जी को लेकर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल जी से मिलने गए थे. मुख्यमंत्री बघेल एक घरेलू टी-शर्ट पहनकर बैठे थे. उसी टी-शर्ट में उन्होंने फोटो भी खिंचवा ली. उनका ठेठ छत्तीसगढ़ियां अंदाज देखकर वे बहुत खुश हुए और जब लौटे तो आग्रह किया कि कुछ ठेठ अदांज में सीजी बास्केट के लिए मनु नायक जी का एक इंटरव्यूह कर लूं. मैं उनके आदेश और आग्रह को ठुकराने की स्थिति में कभी नहीं रहा. मैंने यह इंटरव्यूह किया. 

बहुत कम लोग होते हैं जिन्हें देखकर आप खुश हो पाते हैं. जब भी कोई आयोजन हो... आंदोलन हो... लाखन भाई को देखते ही खुश हो जाता था. पतली-दुबली काया... पैरों में मामूली सी चप्पल, सफेद बाल और जानलेवा दमे के बावजूद  हंसता हुआ उनका चेहरा रह-रहकर याद आ रहा है. इस चेहरे के साथ आलोक शुक्ला, प्रियंका, अनुज, रोशनी, ईशा खंडेलवाल, शालिनी गेरा, लता, श्रेया, निकिता सहित उन्हें चाहने वाले हजारों-हजार नौजवानों का साथ भी याद आ रहा है. मुझे नहीं लगता कि उन्हें चाहने वाले उन्हें यूं ही कभी खारिज होने देंगे. नौजवान साथी उन्हें सबसे ज्यादा पसंद करते थे. रात हो बिरात हो... चाय पीनी हो, काफी पीनी हो... कोई बात हो... लाखन भाई... लाखन भाई... लाखन भाई... बस लाखन भाई... । याद रखिए संपादक जी... जो क्रांतिकारी बच्चों और नौजवानों के बीच मौजूद होता है वह कभी बूढ़ा नहीं होता है.... और हां... कभी मरता भी नहीं है. आपके अखबार में जगह नहीं देने से क्या घंटा होता ?

 

 

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अगर लोगों का ध्यान मोदी से हटकर संगीत की तरफ चला गया तब क्या होगा ?

जब हमने सेक्सोफोन की दुनिया कार्यक्रम के बारे में सोचा तब बहुत से पत्रकारों, लेखकों, बुद्धिजीवियों और नवाचार का विरोध करने वाले लकीर के फकीर मठाधीशों को यह लगा था कि ज्यादे से ज्यादा क्या होगा कार्यक्रम में ? नाच- गाना होगा या सेक्सोफोन पर बजने वाली वे सब धुनें सुनाई जाएगी जो शादी और बर्थडे पार्टियों में बजाई जाती है. लेकिन ऐसा नहीं था. इस खास आयोजन में सेक्सोफोन एक नायक था. इस नायक के जरिए यह बताने की कोशिश की गई कि सेक्सोफोन की कहानी दुखभरी है, लेकिन किसी समय इसी सेक्सोफोन ने एक हथियार की शक्ल लेकर बुर्जुआ समाज और खोखले आडंबर के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. यहां हम अपने समझदार और सुधि पाठकों की मांग पर देश के सुप्रसिद्ध कथाकार मनोज रुपड़ा का वह लेख पेश कर रहे हैं जिसकी चर्चा अब भी बनी हुई है. इस लेख को मनोज रुपड़ा ने खास तौर पर सेक्सोफोन की दुनिया कार्यक्रम के लिए लिखा था. इस लेख को पढ़ते हुए लगता है कि सेक्सोफोन की दुनिया यूं ही बड़ी नहीं है. इस वाद्ययंत्र में दुनिया के बड़े से बड़े तानाशाह की हुकूमत को चुनौती देने की हिम्मत बरकरार है. 

 

दोस्तों आप सब ने संगीत के कई कार्यक्रमों मे शिरकत की होगी ,जहां गाने –बजाने वाले अपनी प्रस्तुति देते हैं और सुनने वाले संगीत का आनंद लेते हैं, लेकिन  आज पहली बार ये हो रहा है कि हम सिर्फ संगीत सुनने नहीं आए है बल्कि एक वाद्य के बारे मे बात करने और उसकी कहानी सुनने भी आए हैं. मेरे जानते में शायद पहली बार किसी वाद्य पर चर्चा  हो रही है. हमने संगीतकारों को तो सम्मानित होते कई बार देखा है लेकिन आज एक  साज़ का सम्मान हो रहा  है. मैं राजकुमार सोनी का हम सब की तरफ से शुक्रिया अदा करता हूं इस बात के लिए कि उसने पहली बार किसी साज़ को वो इज्जत दी जिस इज्जत और एहतराम का वह साज हकदार था.

 जब राजकुमार के हवाले से सेक्सोफोन की दुनिया का जिक्र आया तो मैं फिर बरसों पुरानी यादों में खो गया कि सेक्सोफोन से मेरा परिचय कब हुआ और सेक्सोफोन की दुनिया कैसी थी. तो यहां दो बातें मैं बताना चाहता हूं. एक बात अपने व्यक्तिगत अनुभव की और दूसरी बात खुद उस सेक्सोफोन की जिसकी दुनिया बहुत बड़ी है और वह दुनिया इसलिए भी इतनी बड़ी है क्योंकि वह कई तत्वों से बनी है और उन तत्वों मे सबसे प्रमुख तत्व है उसकी अभिव्यंयक क्षमता उसके एक्स्प्रेशन की रेंज.

यह साज़ एक साथ कई एक्सप्रेशन की ताकत रखता है इसके स्वरों में कोमलता है उत्तेजना है. जुनून है. उन्मुक्तता और स्व्छंदता है. कामुक उत्तेजना है. आंसू है उदासी है और विद्रोह भी है.  तो ये जो इतने सारे एक्सप्रेशन की एफीनिटी इस साज़ में है , वो कहां से आई ? उसकी एक अलग कहानी है जो मैं आपको सुनाऊंगा.  

 पहले मैं ये बता दूं कि मैं सेक्सोफोन से कैसे जुड़ा. बात उन दिनों की  है जब मैं नौजवान था और अपने दोस्तों के साथ गोवा घूमने गया था. नौजवानी  की उस उम्र में आप जानते ही हैं कि हर किसी को रोमांटिक अनुभवों की तलाश रहती है. तो हम भी मस्ती भरे नाच गाने के लिए इस समुद्र का सफर करते रहे. हम पर गोवा की मदमाती मस्ती छा  गई और हम मस्ती में इतने चूर हो गए कि सब एक दूसरे को भुला बैठे. हमारी टोली बिखर गई. मैंने अपना सूटकेस उठाया और दोस्तों का ग्रुप छोड़कर अकेला निकल गया. मैं पणजी चला  गया और मेरा इरादा पणजी में एक दो दिन रुकने के बाद वापस लौटने का था. लेकिन अचानक एक पोस्टर पर मेरी नजर पड़ी मैंने देखा उस शहर में एक राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव चल रहा था.  मैंने वापसी स्थगित कर दी और नाटक देखने लगा.  वहां हबीब  साहब का नाटक था. कारांत साहब का नाटक था. रतन थियम और तलवार साहब और जालान साहब का नाटक था. तो एक दिन ये हुआ कि मैंने लगातार तीन नाटक देखे और उसका- मिला- जुला जो प्रभाव था वो मेरे अंदर कोई स्थायित्व न पा  सका, चीजें सब गड़बड़ हो गई.

मेरी तबीयत पर इतना बोझ पड़ गया कि थियेटर से निकलकर मैं सीधे समुद्र किनारे चला आया. मैं भटकते हुए एक रॉक  बीच पर चला गया.  वहां समुद्र किनारे चट्टानें थीं और उन चट्टानों की  कटी - फटी  दरारों से लहरें टकरा रही थी. मैं  कुछ देर लहरों के चट्टानों से टकराने की आवाज सुनता रहा.  फिर अचानक मुझे एक धुन सुनाई दी. मैंने सिर उठाकर देखा. एक आदमी एक चट्टान पर बैठा सेक्सोफोन बजा रहा था. मैं उसके पास गया और उस धुन को सुनने लगा. वह एक अमेरिकी हैप्पी था और वह किसी श्रोता को नहीं समुद्र को और डूबते हुए  हुए सूरज को अपनी धुन सुना रहा था. 

उस दिन पहली बार मैंने सेक्सोफोन को देखा , सूरज की डूबती किरणें उस साज़ पर पड़ रही थी. पहली बार मुझे लगा कि इस साज में समुद्र की अतल गहराइयों में उतारने ओर आसमान की बेनाप ऊंचाइयों में ले जाने की बेपनाह कुव्वत है. जब धुन पूरी हुई तो उस हिप्पी ने मुझे और मैंने उसे देखा और कुछ ही देर में मुझे लगा कि इस आदमी के साथ मेरी ट्यूनिंग हो जाएगी. हालांकि न मैं उसकी भाषा जानता था न वह मेरी भाषा लेकिन कुछ चीजें ऐसी होती है , जहां भाषा की और शब्दों की जरूरत नहीं पड़ती. संप्रेषणीयता अपना रास्ता खुद बना लेती है. फिर उस हिप्पी ने मुझे बताया कि  जो धुन अभी वह बाजा रहा था वह पेटेटेक्स नमक एक बड़े सेक्सोफोनिस्ट की धुन है । उस धुन का नाम था- डार्क क्लाउड एंड ब्लू सी.   

मैंने नाट्य समारोह में जाना छोड़ दिया.  सेक्सोफोन का नशा मेरे सिर पर सवार हो  गया था. मैं दो दिन तक  उस हिप्पी के साथ रहा. मैं सेक्सोफोन के बारे में बहुत कुछ जानना चाहता था लेकिन मेरे किसी भी सवाल का जवाब देने के बजाय वह सिर्फ  एक ही बात दोहराता था कि इस साज़ की  कहानी बहुत दुख भरी है तुम उसकी कहानी सुनने के बजाय सिर्फ उसकी आवाज सुनो. तो सेक्सोफोन के बारे में मेरी जो जिज्ञासा थी वह अधूरी रह गई.                               

बाद में जब मैं अपने कारोबार के सिलसिले में  बंबई गया तो घाटकोपर में जहां मेरी फैक्ट्री थी , उसके पीछे एक चाल थी और उस चाल में कुछ आर्टिस्ट रहते थे जो फिल्मों में बेकग्राउंड म्यूजिक देते थे. मेरा उनसे संपर्क हुआ तो मालूम हुआ कि उन साजिन्दों को  बहुत  गहरे संकट से गुजरना पड़ रहा है अब उन्हें काम मिलना बंद हो गया है. इसका कारण ये था कि फिल्म इंडस्ट्रीज में इलेक्ट्रानिक सिथेंसाइजर आ गया था और रिकार्डिंग की दुनिया में ऐसी डिजिटल  तकनीकें आ गई थी कि अब किसी भी तरह के जेनुइन म्यूजिकल इंस्टूमेंट की उन्हें जरूरत नहीं रह गई थी. वहां एक सेक्सोफोन प्लेयर भी रहता था और उसकी दुख भरी कहानी सुनने के बाद ही  साज़ –नासाज़ कहानी लिखने का विचार मेरे मन  में आया तो मैंने कहानी लिखी. इस कहानी के जरिए यह बताने की कोशिश कि हिन्दुस्तान की रूह को निखारने वाले और  इस देश की आत्मा को अपनी धुनों से संवारने वाले हमारे इन बेहतरीन कलाकारों की हालत क्या से क्या हो गई है.

 खैर...तो ये तो हो गई सेक्सोफोन से जुड़े मेरे व्यक्तिगत अनुभवों की बात अब सेक्सोफोन की दुनिया में चलते हैं  और उस साज़ के खुद के तर्जुबे की बात करते हैं, तब ये मामला समझ में आएगा कि क्यों वह हिप्पी मुझसे कहता था कि सेक्सोफोन की कहानी बहुत दुख भरी है.                                      

दोस्तों अब उस दुनिया में जाने से पहले हम उस शख्स को याद कर लेते हैं जिसने ये साज़ बनाया था.  इस साज को बेल्जियम के एडोल्फ सेक्स ने बनाया था जिसके पिता खुद वाद्य यंत्रों के निर्माता थे. सेक्स का बचपन बहुत त्रासद और नारकीय स्थितियों में गुजरा , जब वह पांच साल का था तो दूसरी मंजिल से गिर गयाऔर लगा कि अब वह बचेगा नहीं. इस हादसे में उसका पैर टूट गया फिर उसे खसरा हुआ और लंबे समय तक वह कमजोरी का शिकार रहा. उसकी मां ने एक बार ये कह दिया कि वह सिर्फ नाकामियों के लिए पैदा हुआ है. इस बात से दुखी होकर एडाल्फ सेक्स ने सल्फरिक एसिड के साथ खुद को जहर दे दिया. फिर कोमा में कुछ दिन गुजारे और कुछ सालों बाद वह शराब पीने लगा.

शराबनोशी की बेहद संगीन और शर्मनाक गर्त  में गिरने के बाद वह इन सब चीजों से उबरकर बाहर आया और उसके बाद उसने सेक्सोफोन बनाया, लेकिन सेक्सोफोन के इस अविष्कारक और उसके अविष्कार को शुरूआत में कोई मान्यता नहीं मिली.उस साज़ को किसी भी तरह के आरकेस्ट्रा में या सिंफनी में जगह नहीं मिली. अभिजात्य वर्ग ने उसे ठुकरा दिया, लेकिन सेक्सोफोन बजाने वालों ने उसे नहीं ठुकराया. वे उसे सड़कों पर और बदनाम इलाकों के नाइट क्लबों में बजाते रहे और उसे बजाने  वालों में अधिकांश जिप्सी थे और जिप्सियों के बारे में सभ्य समाज की राय बहुत अच्छी नहीं थी.

फिर एक समय ऐसा आया जब लेटिन अमेरिका के एक देश में एक जन विरोधी सरकार के खिलाफ लाखों लोगों का एक मार्च निकला. उस मार्च में पता नहीं कहां से  सेक्सोफोन बजाने वाले दो जिप्सी शामिल हो गए. भीड़ ने उन दोनों को हाथों-हाथ लिया और उन्हें अग्रिम मोर्चे पर भेज दिया. सेक्सोफोन बजाने वालों की अगुवाई में लाखों लोगों की भीड़ जब आगे बढ़ी तो तहलका मच गया. अभिजात्य वर्ग को सेक्सोफोन की असली ताकत तब समझ में आई. फिर तो ये सिलसिला बन गया. हर विरोध प्रदर्शन में जन आक्रोश को स्वर देने और उसकी रहनुमाई करने की जिम्मेदारी को सेक्सोफोन ने बखूबी निभाया. फिर उन्नीसवी सदी के प्रारंभ में जैज संगीत आया. जैज संगीत अफ्रीकी–अमेरिकी समुदायों के बीच से निकला था और उसकी जड़ें नीग्रो ब्लूज़ से जुड़ी हुई थी. जैज ने भी सेक्सोफोन को तहेदिल से अपनाया क्योंकि सेक्सोफोन चर्च की प्रार्थनाओं में ढल जाने वाला वाद्य नहीं था. उसकी आवाज में सत्ता को दहला देने की ताकत थी. खुद जैज अपने आप में एक विस्फोटक कला-रूप था ,  उसने अपनी शुरूआत से ही उग्र रूप अपनाया था. उसने थोपी हुई ईसाई नैतिकता और बुर्जुआ समाज के खोखले आडंबरों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. बहुत जल्द वो समय आ गया जब सत्ता और जैज आमने–सामने आ गए .सत्ता का दमन शुरू हो गया तो यूएसएआर में 1948 में सेक्सोफोन और जैज म्यूजिक पर प्रतिबंध लगा दिया गया. उसके ऊपर अभद्र असामाजिकऔर अराजक होने का आरोप था.

ठीक उसी तरह हिटलर के युग में जर्मनी में भी सेक्सोफोन और जैज पर  प्रतिबंध लगाया गया था, लेकिन हर तरह के दमन और अपमान जनक बेदखलियों के बावजूद सेक्सोफोन ने अपनी जिद नहीं छोड़ी क्योंकि वह एक बहुत हठीला जनवाद्य यंत्र है. आप सब को यह जानकार बहुत आश्चर्य होगा कि एक समय में जब जैज पर प्रतिबंध लगा था तब कुछ कलाकार घने जंगलों में जाकर छुप गए थे और वहां भी उन्होने कंसर्ट की थी. यह कंसर्ट ठीक उसी तरह थीं जैसे छापामार घने जंगलों में अपनी लड़ाई लड़ते हैं.                              

उसी समय की एक बात है. घूरी रंगया के जंगल में एक बार एक गुप्त कंसर्ट चल  रही थी. इस बात की भनक पुलिस को लग गई और वे दलबल के साथ जंगल की तरफ बढ़े लेकिन  वहां हजारों की तादाद में संगीत सुनने वाले मौजूद थे. पुलिस को यह उम्मीद नहीं थी कि शहर से इतनी दूर जंगल में लोग इतनी बड़ी तादाद में संगीत सुनने जाते होंगे. संगीत की लहरों में झूमते हुए लोगों पर हवाई फायर का भी जब कोई असर नहीं हुआ तो उन्हें बल प्रयोग करना पड़ा. भीड़ तितर-बितर हो गई.

संगीत भी बजना बंद हो गया लेकिन तभी एक सेक्सोफोन बजाने वाला एक बहुत ऊंचे पेड़ पर चढ़ गयाऔर वहां पेड़ के ऊपर सेक्सोफोन बजाने लगा. उसके इस बुलंद हौसले को देखकर पूरा जनसमूह फिर से जोश में आ गया. पुलिस ने भले ही पुलिस की वर्दी पहन रखी थी लेकिन आखिरकार तो वे भी इंसान थे.  तो हुआ ये कि उस धुन ने  पुलिस वालों  के दिलों को  भी अपने वश में कर लिया में  कर लिया और वे भी भाव विभोर हो गए.  

अब यहां एक सवाल ये हो सकता है कि  इन साजिंदों के वादन में ऐसी क्या खास बात थी जो सत्ता को नागवार लगती थी ? न तो ये संगीतकार किसी जन आंदोलन से जुड़े थे न ही उनकी कोई राजनैतिक विचारधारा थी. वे तो सिर्फ ऐसी धुनें रचते थे जो लोगों के दिलों पर छा जाती थी. प्रत्यक्ष रूप से वे किसी भी राजसत्ता का विरोध नहीं कर रहे थे , या उन्होने ये सोचकर संगीत नहीं रचा था कि किसी का विरोध करना है. दरअसल उनकी धुनों में ही कुछ ऐसी बात थी कि लोग दूसरी तमाम बातों को भुलाकर उनकी तरफ़ खींचे चले आते थे और बस सत्ता के लिए यही तो सबसे बड़ी दिक्कत थी. सत्ता नहीं चाहती थी कि इतना बाद जन समूह उनके राजनैतिक एजेंडे से विमुख होकर संगीत सुनने चला जाए.  वे यह देखकर जल-भून जाते थे कि उनके नेताओं के भाषण को सुनने के लिए जुटाई गई भीड़ संगीत की तरफ मुड़ गई है.                              

जरा अनुमान लगाइए कि अगर हिटलर पूरे  पूरे जोश-खरोश के साथ कहीं भाषण दे रहा है और लोग उसकी बातों से प्रभावित होकर हिटलर-हिटलर का जयकारा  कर रहे हैं और अचानक कहीं सेक्सोफोन बजने लगे और लोगों का ध्यान हिटलर से हटकर सेक्सोफोन की तरफ़ चला जाए तो क्या होगा ?

अब जरा ये भी अनुमान लगाइए कि आज जब पूरा देश मोदी मोदी- मोदी कर रहा है और हम यहां सेक्सोफोन पर कार्यक्रम कर रहे हैं. अब अगर हमारे इस संगीत कार्यक्रम के बाद  लोगों का ध्यान मोदी से हटकर संगीत की तरफ  चला गया तो क्या होगा ? 

 

मनोज रुपड़ा का दूरभाष नबंर है-   9823434231    

 

 

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अरे...रवीश कुमार ने तो रूला दिया

देश के प्रसिद्ध पत्रकार रवीश कुमार ने रेमन मैग्सेसे अवार्ड पाने के बाद अपने दर्शकों/ पाठकों और चाहने वालों के प्रति आभार जताया है. आभार पढ़कर रुलाई छूट जाती है.
आप भी रो लीजिए...कभी-कभी ऐसा रोना भी अच्छा लगता है.

आपका लिखा हुआ मिटाया नहीं जा रहा है। सहेजा भी नहीं जा रहा है। दो दशक से मेरा हिस्सा आपके बीच जाने किस किस रूप में गया होगा, आज वो सारा कुछ इन संदेशों में लौट कर आ गया है। जैसे महीनों यात्रा के बाद कोई बड़ी सी नाव लौट किनारे लौट आई हो। आपके हज़ारों मेसेज में लगता है कि मेरे कई साल लौट आए हैं। हर मेसेज में प्यार,आभार और ख़्याल भरा है। उनमें ख़ुद को धड़कता देख रहा हूं। जहां आपकी जान हो, वहां आप डिलिट का बटन कैसे दबा सकते हैं। ऐसा क्यों हो रहा है कि किसी का मेसेज डिलिट नहीं हो रहा है। चाहता हूं मगर सभी को जवाब नहीं दे पा रहा हूं। 

व्हाट्स एप में सात हज़ार से अधिक लोगों ने अपना संदेशा भेजा है। सैंकड़ों ईमेल हैं। एस एम एस हैं। फेसबुक और ट्विटर पर कमेंट हैं। ऐसा लगता है कि आप सभी ने मुझे अपनी बाहों में भर लिया है। कोई छोड़ ही नहीं रहा है और न मैं छुड़ा रहा हूं। रो नहीं रहा लेकिन कुछ बूंदे बाहर आकर कोर में बैठी हैं। नज़ारा देख रही हैं। बाहर नहीं आती हैं मगर भीतर भी नहीं जाती हैं। आप दर्शकों और पाठकों ने मुझे अपने कोर में इन बूंदों की तरह थामा है। 

आप सभी का प्यार भोर की हवा है। कभी-कभी होता है न, रात जा रही होती है, सुबह आ रही होती है। इसी वक्त में रात की गर्मी में नहाई हवा ठंडी होने लगती है। उसके पास आते ही आप उसके क़रीब जाने लगते हैं। पत्तों और फूलों की ख़ुश्बू को महसूस करने का यह सबसे अच्छा लम्हा होता है। भोर का वक्त बहुत छोटा होता है मगर यात्रा पर निकलने का सबसे मुकम्मल होता है। मैं कल से अपने जीवन के इसी लम्हे में हूं। भोर की हवा की तरह ठंडा हो गया हूं। 

मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। आस-पास मेरे जैसे ही लोग हैं। आपके ही जैसा मैं हूं। मेरी ख़ुशी आपकी है। मेरी ख़ुशियों के इतने पहरेदार हैं। निगेहबान हैं। मैं सलामत हूं आपकी स्मृतियों में। आपकी दुआओं में। आपकी प्रार्थनाओं में। आपने मुझे महफ़ूज़ किया है। आपके मेसेज का, आपकी मोहब्बत का शुक्रिया अदा नहीं किया जा सकता है। बस आपका हो जाया जा सकता है। मैं आप सभी को होकर रह गया हूं। बेख़ुद हूं। संभालिएगा मुझे। मैं आप सभी के पास अमानत की तरह हूं। उन्हें ऐसे किसी लम्हें में लौटाते रहिएगा। 

बधाई का शुक्रिया नहीं हो सकता है। आपने बधाई नहीं दी है, मेरा गाल सहलाया है। मेरे बालों में उंगलियां फेरी हैं। मेरी पीठ थपथपाई है।  मेरी कलाई दबाई है। आपने मुझे प्यार दिया है,मैं आपको प्यार देना चाहता हूं। आप सब बेहद प्यारे हैं। मेरे हैं।

( रवीश कुमार )

 

 

 

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