विशेष टिप्पणी

सवर्ण लॉबी के निशाने पर क्यों है भूपेश बघेल ?

पिछले कुछ दिनों से सवर्ण लॉबी जिसमें वरिष्ठ पत्रकार, समाजसेवी, आरटीआई कार्यकर्ता समेत अन्य लोग लगातार छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के खिलाफ एक अभियान छेड़े हुए है, जिसमें लॉक डाउन के बाद उपजी समस्याओं को लेकर भूपेश सरकार को असंवेदनशील, मजदूर विरोधी बताया जा रहा है।

इनके विरोधों के पीछे छिपे एजेंडा को आम आदमी बिल्कुल नही समझ पाता इन्हें समझने के लिए थोड़ा रिसर्च करना पड़ता है।

भूपेश बघेल का विरोध शुरू से ही रहा है परंतु कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद एकाएक उनके विरोधियों की संख्या बढ़ गई। उस समय के वर्तमान रमन सरकार ने भूपेश बघेल को झूठे मामलों में फंसाने क्या कुछ नही किया। (खैर ये बातें कभी और)

भूपेश के नेतृत्व में जब छग विधानसभा के चुनावों में एक बड़ी जीत कांग्रेस ने दर्ज की, उसके बाद सीएम चयन के बाद से सवर्ण लॉबी जो भूपेश के समर्थन में थे वो भी विरोध में हो गए।

एक खबर के मुताबिक भूपेश बघेल को सीएम बनने से रोकने के लिए एक हजार करोड़ तक कि सौदेबाजी हो रही थी।

जब सीएम चुनने की बारी थी तब यही सवर्ण लॉबी टीएस सिंहदेव को योग्य सीएम बता रही थी लेकिन जब भूपेश बघेल सीएम बने तब से भूपेश बघेल संघ और स्वर्ण लॉबी की आंखों की किरकिरी बने हुए है।

भूपेश बघेल के आदिवासी,दलित,पिछड़ा हितैषी निर्णय सवर्ण लॉबी को चुभ रहा था, सवर्ण लॉबी का सब्र का सीमा तब टूट गया जब भूपेश ने पिछड़ा आरक्षण 27 फीसदी कर दिया है तब लगभग इन्ही सवर्ण लाबी ने भूपेश सरकार को बदनाम करने में बड़ा षड्यंत्र रचा जो अब भी जारी है।

सवर्ण लाबी लगातार भूपेश सरकार में हो रहे कार्यों में और छोटी मोटी अव्यवस्था को लेकर हो-हल्ला करते रहता है,परन्तु कोई बड़ी सफलता नहीं मिल रही है।

लॉक डाउन में हो रही अव्यवस्था को लेकर सवर्ण लाबी भूपेश बघेल पर हमलावर है और सीएम को बदनाम करने कोई कसर नही छोड़ रहें है, लेकिन ये सवर्ण लॉबी केंद्र की भाजपा सरकार पर मुंह तक नही खोल रहें है।

वर्तमान में देश के कुछ चुनिंदा राज्य ही मजदूर,गरीब,किसान,दलित,आदिवासी के हित मे काम कर रहें है उनमें  छग की भूपेश सरकार भी है परन्तु संघी सवर्णों को दिक्कत होती है । मेरे दलित,आदिवासी,पिछड़ा भाइयों एक बात याद रखों जहां से आप सोचना खत्म करते हो वहां से संघी सोचना शुरू करते है, इसलिए सम्भल के रहिये।

अभिषेक कुमार के फेसबुक वॉल से 

 

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अखबार मरेंगे तो लोकतंत्र बचेगा ?

अरुण कुमार त्रिपाठी

हम गाजियाबाद की पत्रकारों की एक सोसायटी में रहते हैं. वहां कई बड़े संपादकों और पत्रकारों(अपन के अलावा) के आवास हैं. इस सोसायटी में एक बड़े पत्र प्रतिष्ठान के ही पूर्व कर्मचारी अखबार सप्लाई करते हैं. वे बताते हैं कि कोरोना से पहले लोग तीन- तीन अखबार लेते थे. अब कुछ ने अखबार एकदम बंद कर दिया है और कुछ ने घर में लड़ाई झगड़े के बाद एक अखबार पर समझौता किया है. एक दिन पहले एक बड़े अखबार के बड़े पत्रकार ने बताया कि उनका वेतन एक तिहाई काट दिया गया है. यूरोप की फरलो (छुट्टी पर भेज दिए जाने) वाली कहानी यहां भी दोहराई जा रही है.

यह धीरे धीरे मरते हुए अखबारों की एक अवस्था है जिसे कोरोना महामारी ने तेज कर दिया है. पूरी दुनिया में इस बात पर चर्चा हो रही है कि क्या कोरोना के बाद अखबार बच पाएंगे या पूरी तरह समाप्त हो जाएंगे? हिंदी हृदय प्रदेशों में अखबारों की धूम पर `हेडलाइन्स फ्राम हार्टलैंड’ जैसी  किताब लिखने वाली शेवंती नाइनन ने द टेलीग्राफ में बहुत सारी जानकारियों से भरा हुआ लेख लिख कर बताया है कि किस तरह से पूरी दुनिया में प्रिंट मीडिया संकट में है. इस टिप्पणीकार को इंतजार है आस्ट्रेलिया के मीडिया विशेषज्ञ राबिन जैफ्री के किसी लेख का, जिन्होंने `इंडियाज न्यूज पेपर्स रिवोल्यूशन’ जैसी चर्चित किताब लिखी थी. जैफ्री ने नब्बे के दशक में भारत में उदारीकरण और वैश्वीकरण रूपी पूंजीवाद के विकास के साथ ही अखबार उद्योग की क्रांति देखी थी. जैफ्री भी बेनेडिक्ट एंडरसन की  `इमैजिन्ड कम्युनिटी’ वाली सोच को भारत में लागू करते हैं और देखते हैं कि किस तरह से इन नए क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अखबारों के विकास के साथ एक नए किस्म का लोकतंत्र और राष्ट्रवाद विकसित हुआ है.

अखबारों के इस संकट के बारे में द गार्जियन टिप्पणी करते हुए लिखता है, ``  प्रिंट मीडिया दो दशक से बंद होने की आशंका से ग्रसित था. आज कोरोना ने पूरे ब्रिटेन में 380 साल पुराने अखबार उद्योग को नष्ट कर दिया है. लगता नहीं कि अब अखबार बच पाएंगे.’’ अखबारों के मौजूदा संकट के पीछे एक प्रमुख कारण विज्ञापनों का बंद होते जाना और दूसरा उसके कागज और स्याही पर लगा संक्रमण का आरोप है. पहला कारण लंबे समय से चल रहा था और दूसरे कारण ने उसके साथ मिलकर कोढ़ में खाज पैदा कर दी है. हालांकि मौजूदा स्थिति आने में प्रौद्योगिकी की भी बड़ी भूमिका है और डिजिटल टेक्नालाजी धीरे धीरे अखबारों को कागज और स्याही की दुनिया से निकालकर साइबर दुनिया में ला रही थी. इस बीच गूगल और फेसबुक जैसे डिजिटल मंचों ने अखबारों की सामग्री का मुफ्त में इस्तेमाल करके उनके प्रति लोगों का आकर्षण भी कम कर दिया है.इसीलिए कहा जा रहा है कि जिस गूगल ने अखबारों को मारा है अब उसे ही उन्हें जीवन दान देने के लिए मदद देनी चाहिए. वे कुछ हद तक तैयार भी हैं क्योंकि नई सामग्री गूगल पैदा नहीं कर रहा. लेकिन संक्रमण का आरोप उसके पाठकों के जीवन और अस्तित्व से जुड़ा है और उसे मिटा पाना आसान नहीं है. 

संक्रमण के आरोप को सैनेटाइज करने के लिए अखबार उद्योग ने एक साथ मिलकर बहुत सारे जतन किए. पहली बार सभी अखबार समूहों ने मिलकर पूरे पूरे पेज के विज्ञापन दिए. जाहिर सी बात है कि इस विज्ञापन से कोई कमाई नहीं हुई होगी. उसमें अखबार को व्यक्ति के चेहरे पर मास्क की तरह लगाकर कहा गया था कि अगर झूठी खबरों के संक्रमण से बचना है तो अखबारों के मास्क का सहारा लीजिए. उसी के साथ यह भी कहा गया था कि अखबार की छपाई पूरी तरह मशीनीकृत है और उसमें किसी का हाथ नहीं लगता. यहां तक कि बिक्री केंद्रों पर भी दस्ताने लगाकर ही हाकर अखबार उठाते हैं. भारत के सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने ट्विट करके कहाः—अफवाहों पर विश्वास न करें. समाचार पढ़ने से # CORONA नहीं होता. समाचार पत्र पढ़ने और कोई भी काम करने के बाद साबुन से हाथ धोना है. समाचार पत्रों से हमें सही खबरें मिलती हैं. 

इसके अलावा देश के बड़े वकीलों से भी बयान दिलवाए गए कि अखबार का प्रसार रोकना गैर कानूनी है. इस बीच इंडियन न्यूजपेपर्स सोसायटी (आईएनएस) के पदाधिकारी शैलेश गुप्ता ने सूचना प्रसारण मंत्री को पत्र लिखकर अखबार उद्योग को संकट से बचाने के लिए आर्थिक मदद की मांग की है. उनका कहना है कि सरकार विज्ञापन की दरें 50 फीसदी बढ़ा दे. न्यूजप्रिंट पर लगने वाला सीमा शुल्क पांच फीसदी घटाए. न्यूज प्रिंट पर दो साल का टैक्स हाली डे घोषित करे.

भारत में की जाने वाली यह सारी तदवीरें पूरी दुनिया में चल रही हैं. लेकिन लगता नहीं कि दवा काम करने वाली है. अखबारों को कागज और स्याही से रिश्ता तोड़ना ही होगा और डिजिटल दुनिया में जाना ही होगा. इसके अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है. अखबारों ने विज्ञापन के बूते पर अपना मूल्य काफी घटा रखा था. वे विज्ञापन से मुनाफा कमाते थे, उससे कागज, स्याही, टेक्नालाजी और वितरण का खर्च निकलता था और कर्मचारियों को मोटी तनख्वाहें भी देते थे. इस तरह कौड़ियों के दाम बंटने वाले अखबारों ने अपनी सामग्री के बूते पर अपनी कमाई का कोई ढांचा नहीं बनाया था. यह विज्ञापन पर टिका परजीवी ढांचा था जो विज्ञापन के टेलीविजन और डिजिटल की ओर जाते ही लड़खड़ाने लगा. 

अखबारों के इस संकट को दुनिया भर के विशेषज्ञ पहले से आते हुए देख रहे थे. आस्ट्रेलिया के भविष्यवादी लेखक रास डाउसन ने 2011 में अखबारों के मरने की चेतावनी देते हुए पूरी दुनिया के लिए एक समय सारणी बना दी थी. उनका कहना था कि अमेरिका में 2018 में, ब्रिटेन में 2019 में, कनाडा और नार्वे में 2020 में, आस्ट्रेलिया में 2022 में अखबार मर जाएंगे. उन्होंने लिखा है कि फ्रांस में सरकार की मदद से 2029 तक और जर्मनी 2030 तक अखबार रह सकते हैं. जहां तक एशिया और अफ्रीका के विकासशील देशों की बात है तो वहां वे कुछ और दिनों तक अखबारों का भविष्य देखते हैं. 

अखबारों की मृत्यु का यह टाइम टेबल कुछ विद्वानों के लिए एक बेवजह का हौवा लगता रहा है. मार्क एज ने तो `ग्रेटली एक्जजरेडःद मिथ आफ डेथ आफ न्यूजपेपर्स’ लिखकर इसे खारिज भी किया था. लेकिन जो चीज हम अपनी आंख के सामने देख रहे हैं उसे कैसे खारिज कर सकते हैं. अब सवाल यह है कि अखबार कैसे बचेंगे. एक माडल सरकार से आर्थिक सहायता लेकर अखबार चलाने का है. इसकी अपील करने वाले अखबार को दूसरे उद्योगों की तरह एक उद्योग मानते हैं और उन्हीं की तरह सरकार से सहायता मांग रहे हैं. उनके लिए उसमें छपने वाले शब्द निष्प्राण किस्म के केमिकल हैं. वे मानव जीवन और प्रकृति के सत्य से संवाद  नहीं एक केमिकल लोचा पैदा करते हैं जो धंधे में कारगर होता है. दूसरा माडल सेविंग द मीडियाःक्राउड फंडिंग एंड डेमोक्रेसी जैसी किताब लिखकर जूलिया केज ने प्रस्तुत किया है. केज का कहना है कि मीडिया ज्ञान उद्योग यानी नालेज इंडस्ट्री का हिस्सा है. लोकतंत्र के कुशल संचालन के लिए इसका रहना जरूरी है.

अब सवाल यह है कि सरकार से सहायता लेकर चलने वाला मीडिया किस तरह सरकार की गलत नीतियों और गलत निर्णयों पर सवाल उठाएगा और अगर नहीं उठाएगा तो उसका मकसद तो कम्युनिस्ट और तानाशाही वाले देशों की तरह सरकार की नीतियों का प्रचार बन रह जाएगा. जहां तक क्राउडफंडिंग का मामला है तो वह माडल अभी तक बहुत सफल नहीं हुआ है. जूलिया इस आर्थिक ढांचे में सरकार की सहायता को भी रखती हैं लेकिन उनकी कल्पना में वे लोकतांत्रिक देश हैं जहां की सरकारें सहायता देने के बाद उन संस्थानों में हस्तक्षेप नहीं करतीं. इन माडलों से अलग तीसरा और बहुत पुराना माडल महात्मा गांधी ने प्रस्तुत करने का प्रयास किया था. उनका कहना था कि अखबार अपने ग्राहकों के खर्च से चलने चाहिए. अगर वे लोग अखबार का खर्च नहीं उठा सकते जिनके लिए अखबार निकाला जाता है तो अखबार को निकालने की जरूरत क्या है? वे अपने  `इंडियन ओपीनियन’ में इसी माडल को लागू कर रहे थे और 1915 में दक्षिण अफ्रीका से चले आने के बाद भी वहां रह गए अपने बेटे को इसी प्रकार की सलाह दे रहे थे.

सवाल यह है कि अखबार मरेंगे तो क्या टेलीविजन और डिजिटल मीडिया उस पूरी जिम्मेदारी को उठा पाएगा जो लोकतंत्र के जीवन के लिए जरूरी है. शायद उठा भी रहे हैं या नहीं उठा रहे हैं. उनकी चीख चिल्लाहट और चाटुकारिता देखकर तो लगता नहीं. वे ज्यादा से ज्यादा लोकतंत्र प्रोपेगंडा या मनोरंजन उद्योग के हिस्से हैं. आज के सात साल पहले द इकानमिस्ट टाम स्टैंडेज द्वारा लिखी अपनी कवर स्टोरी `बुलेटिन्स फ्राम फ्यूचर’ में इस बात पर बनाई थी कि आने वाले समय में समाचारों की दुनिया किस प्रकार की होगी. उस स्टोरी में अखबारों के मरने के साथ यह भविष्यवाणी की गई थी कि समाचारों की पारिस्थितिकी पूरी तौर पर बदल रही है. खबरों की संरचना धीरे धीरे मास मीडिया के आगमन से पहले वाली स्थिति में पहुंच जाएगी. हर कोई खबर दाता होगा और हर कोई उपभोक्ता. बहुत सारी चीजें गप की शक्ल में होंगी. 

निश्चित तौर पर आने वाला समय बड़े बदलाव का है और यह बदलाव लोकतंत्र को भी बदलेगा और हमारे ज्ञान के संसार को भी. संभव है अखबार डिजिटल के रूप में नया जन्म लें और अपनी विरासत को बचाए रखें और लोकतंत्र को भी नया रूप दे, क्योंकि आखिर में लोकतंत्र और तानाशाही कुछ और नहीं सिर्फ डाटा प्रणाली की अलग अलग वितरण व्यवस्था ही तो है. 

 

 

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अर्णब पर हमला: कहानी में जबरदस्त झोल

राजकुमार सोनी

संभव है कि अर्णब गोस्वामी पर हमला हुआ हो. यह भी संभव है कि हमला न हुआ हो. अर्णब गोस्वामी के बहुत सारे विचारों से असहमति के बावजूद इस टिप्पणी को लिखने वाला हिंसा का समर्थक नहीं है.

... तो खबर आई है कि रिपब्लिक टीवी के एडिटर इन चीफ एंकर अर्णब गोस्वामी बुधवार की रात हमले के शिकार हो गए हैं. खुद अर्णब गोस्वामी ने एक वीडियो जारी कर कहा है कि उन पर हमला करने की कोशिश की गई. पहले तो हमलावरों ने गाड़ी का शीशा तोड़ने की कोशिश की और जब नाकामयाब रहे तो गाड़ी में स्याही फेंक दी. हमलावरों की संख्या दो थी और वे मोटर साइकिल में थे. अर्णब गोस्वामी पर यह हमला रात सवा बारह बजे के आसपास गणपत राव कदम मार्ग पर हुआ. जब हमला हुआ तब गोस्वामी अपनी पत्नी के साथ बॉम्बे डायिंग कॉम्पलेक्स स्थित एक स्टूडियों से घर लौट रहे थे.

गोस्वामी पर हुए इस हमले के बाद सोशल मीडिया में कई तरह के सवाल उठ रहे हैं और नागरिक पत्रकारिता को महत्वपूर्ण मानने वाले लोग कुछ नए सवालों के साथ जांच-पड़ताल की मांग भी कर रहे हैं.

नागरिक सवाल उठा रहे हैं कि गोस्वामी साहब लॉकडाउन में देर रात अपनी पत्नी के साथ क्या कर रहे थे. बहुत संभव है कि पत्नी कामकाज में सहयोग करती हो. या साथ में कार्य करती हो. यह सवाल बेमानी सा है. फिर भी उठ रहा है. लोग कह रहे हैं कि गोस्वामी साहब जिस स्टूडियो से निकले वहां का सीसीटीवी फुटेज खंगालकर यह देखा जाना चाहिए कि बुधवार की रात उनकी पत्नी उनके दफ्तर आई भी थी या नहीं ? वे खुद स्टूडियो से कितने बजे निकले और गणपतराव मार्ग कितने बजे पहुंचे थे. नागरिक यह सवाल भी उठा रहे हैं कि गणपतराव मार्ग के आसपास के तमाम सीसीटीवी फुटेज से भी यह जानने में मदद मिल सकती है कि हमला हुआ भी था या नहीं ?

यह भी कहा जा रहा है कि विवादित होने की वजह से अर्णब गोस्वामी देश के बड़े पत्रकार बन गए हैं. जब वे बड़े पत्रकार है तो जाहिर सी बात है कि उन्हें तगड़ी सुरक्षा हासिल है. हालांकि यह सुरक्षा रवीश कुमार को मिलनी चाहिए जो सत्ता की बघिया उधेड़ते रहते हैं, लेकिन गोस्वामी साहब सुरक्षा में घूम रहे हैं जो सत्ता से सवाल ही नहीं करते. भला उन्हें सुरक्षा क्यों चाहिए ? खैर अर्णब गोस्वामी ने अपने वीडियो में यह बताया है कि घटना के दौरान उनके सुरक्षाकर्मी पीछे रह गए थे. अब सवाल यह है कि लॉकडाउन में जब चप्पे-चप्पे पर पुलिस मौजूद है तब हमला कैसे हो जाता है और गोस्वामी साहब ऐसी सुरक्षा लेकर चलते ही क्यों है जो पीछे रह जाती है. ? नागरिक यह भी सवाल उठा रहे हैं कि गोस्वामी साहब को बगैर पुलिसिया पड़ताल के यह कैसे पता चला कि जो लोग पकड़े गए हैं वे युवक कांग्रेस के हैं. 

वैसे हम सबने कई बार चुनाव के दौरान यह देखा है कि चुनाव जीतने के लिए नेताजी अपने ऊपर हमले करवा लेते हैं. सहानुभूति में कुछ वोट तो मिल ही जाते हैं. खैर... गोस्वामी जी चुनाव मैदान में नहीं है, लेकिन जिसके चैनल में काम करते हैं उसका मालिक भाजपा से अवश्य जुड़ा है. सोशल मीडिया में इस बात की भी चर्चा है कि जिसके ऊपर एफआईआर हो जाती है उसके सीने में अचानक दर्द उठता है और वह फिर अस्पताल में एडमिट हो जाता है. एफआईआर होते ही बौखलाहट में क्रिया-प्रतिक्रिया दोनों होती है. वह भी एक एफआईआर नहीं.... छत्तीसगढ़ में अकेले एक सौ एक लोगों ने एफआईआर दर्ज करवाई है. यह अपने आप में एक रिकार्ड है जो शायद कभी नहीं टूटने वाला.

अब तो तकनीक का जमाना है और तकनीक से पाइंट टू पाइंट यह जाना जा सकता है कि कब क्या हुआ. फेसबुक पर रजनीश जैन नाम के एक शख्स ने यह पोस्ट डाली है कि अर्णब गोस्वामी ने खुद के ऊपर किए गए हमले की जो पोस्ट डाली है उसका वीडियो बुधवार की रात को आठ बजकर 17 मिनट पर ही तैयार कर लिया गया था. यानी हमले से कुछ घंटे पहले ही वीडियो तैयार कर लिया गया था. ( मेटाडाटा रिपोर्ट ) यदि वीडियो पर कोई कांट-छांट नहीं की गई है तो साइबर सेल की जांच-पड़ताल के बाद यह आसानी से जाना जा सकता है कि वीडियो कब बना ? कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर पर डिजिटल कम्युनिकेशन के समन्वयक गौरव पांधी ने भी यह जानकारी दी गई है कि अर्णब का वीडियो कथित हमले से कई घंटा  पहले ही तैयार कर लिया गया था. यह सिर्फ अभी दावा है. इस दावे की अधिकृत सच्चाई आनी बाकी है. 

फेसबुक पर लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि जिस गोस्वामी को वाय श्रेणी की सुरक्षा हासिल है उसे दो लोग जो किसी भी श्रेणी के नहीं है अचानक घेरकर हमला कर देते हैं. हमले की सबसे पहली खबर रिपब्लिक भारत में रात एक बजकर छह मिनट पर दिखाई जाती है मगर उससे ठीक एक मिनट पहले यानी एक बजकर पांच मिनट पर भाजपा के संबित पात्रा टिव्हट करके यह जानकारी देते हैं कि अर्णब गोस्वामी पर हमला हो गया है.

अपने वीडियो में अर्णब पूरी ताकत से यह कहते हुए भी सुनाई देते हैं कि पूरा भारत देश उनके साथ है. लोग यह भी कह रहे हैं कि अगर पूरा देश साथ है तो फिर विभिन्न राज्यों में लोग एफआईआर क्यों लिखवा रहे हैं. चलिए आप कह सकते हैं कि जिन लोगों ने एफआईआर की है वे सबके सब कांग्रेसी है. मगर सवाल यह भी है कि जब कांग्रेस  कानून-सम्मत तरीके से निपटने के लिए मामले दर्ज करवा रही है तो उसे हमले की जरूरत क्या है और क्यों है? लोग यह भी कह रहे हैं कि फर्जी हमले की कहानी इसलिए भी गढ़ी गई क्योंकि सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री को विज्ञापन बंद करने की सलाह दे डाली थीं. सोशल मीडिया में एक बड़ा सवाल यह भी तैर रहा है कि अर्णब का बचाव केवल और केवल भाजपाई ही क्यों कर रहे हैं. कोई बड़ा पत्रकार या लेखक क्यों नहीं कह रहा है कि अर्णब के साथ जो कुछ हुआ वह गलत है. इस हमले के साथ-साथ लोग राज ठाकरे का वह इंटरव्यूह भी शेयर कर रहे हैं जिसमें उनकी घिग्घी बंधी हुई नजर आती है. फेसबुक पर एक टिप्पणी यह भी चल रही है कि  सोनिया गांधी ने हमले में अपनी सास और फिर पति को खोया है. जो महिला अपने पति के हत्यारों को माफ कर सकती है क्या वह वैमनस्य और घृणा का व्यापार करने वाले अर्णब गोस्वामी से बदला लेगी ?

 

 

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क्या कर रहे हो आजकल ?

राजकुमार सोनी

इस खाली समय में बहुत से लोग खाली है. बेरोजगार तो खाली थे ही, लेकिन जिनके पास रोजगार हैं वे भी इन दिनों खाली है.

हालांकि यह कहना सही नहीं है कि बहुत से लोग खाली है. बहुत से लोग मैसूर पाक बना रहे हैं. कुछ ने पाव-भाजी बनाना सीख लिया है. कुछेक को आगे चलकर गुपचुप का ठेला लगाना है, इसलिए वे खट्टे पानी के साथ गुपचुप की फोटो फेसबुक पर लोड़ कर रहे हैं. कुछेक ने शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बहुत महत्वपूर्ण मानते हुए काढ़ा बनाना सीख लिया है. कुछेक इसी चिंता में मरे जा रहे हैं कि घर की बनी हुई मिठाई खाकर शुगर पर कंट्रोल कैसे किया जा सकता है. बहुत से लोगों ने इन दिनों ऐसी-ऐसी मिठाईयों का निर्माण किया हैं जिसका नाम बाप जन्म में किसी ने नहीं सुना है. एक भक्त ने एक नई मिठाई ईजाद की है. नाम रखा है- मोको. पूछने पर पता चला कि मोदी से मो लिया है और कोरोना से को.

बहुत से लोग बेहद पारदर्शी है. आखिर वे आपके हमारे दोस्त है. ऐसे तमाम दोस्त लगातार बता रहे हैं कि वे सुबह चार बजे उठ जाते हैं. राजश्री गुटखे का मिलना दूभर हो चला है इसलिए एक गिलास गर्म पानी पीते हैं ताकि प्रेशर बन जाय. प्रेशर बनते ही निवृत होने के लिए दौड़ लगाते हैं और फिर पीटी ( मतलब व्यायाम ) करते हैं. थोड़ा रुककर नहा लेते हैं. नहा लेने के बाद पूरे बदन को टॉवेल से रगड़-रगड़कर पौंछते हैं. फिर सरसो का तेल लगाते हैं. सरसो का तेल कड़वा होता है. मजाल है कि कोरोना कड़वे तेल से निपट लें. तेल मालिश के बाद नाश्ता होता है. कभी अंडा-आमलेट तो कभी इडली. कभी दोसा तो कभी कटलेट. ऐसे तमाम मित्रों का कहना है कि जीवन एक ही बार मिला है. हम जीते क्यों है... खाने के लिए. इसलिए तमाम तरह के पकवान खाओ और मर जाओ.

बहुत से लोग टीवी पर रामायण देखते हैं. महाभारत देखते हैं. बहुत से लोग नहीं देखते. जो नहीं देखते वे ऑनलाइन तीन पत्ती खेलते हैं. बहुत सी महिलाएं साड़ी चेंज करो प्रतियोगिता में शामिल है तो कुछ लोगों की दिलचस्पी इस बात में हैं कि वे पिछले जन्म में क्या थे?

मेरे एक साहित्यकार मित्र ने फेसबुक पर पोस्ट साझा की. पोस्ट में लिखा हुआ था- आप पिछले जन्म में राजा थे और अपनी प्रजा के हर सुख-दुख में शामिल रहते थे. मित्र की पोस्ट पर कमेंट आए- वाह भैय्या क्या बात है. आप तो अभी भी चंदेरी के राजा लगते हो. मित्र के चक्कर में मुझे भी अपना पिछला जन्म जानने की जिज्ञासा हुई. ( यह जन्म तो मोदी के कारण बुरी तरह से खराब हो रहा है ) फेसबुक ने बताया कि मैं पिछले जन्म में लोहार था. ( अभी सुनार हूं )

जो लोग राजनीति में रुचि रखते हैं उन्हें फेसबुक से यह सुविधा भी मिली हुई है कि वे जान सकते हैं उनका व्यक्तित्व किस नेता से मिलता है. एक मित्र ने पोस्ट साझा की जिससे यह पता चला कि वह आगे चलकर मोदी बनने वाला है. फेसबुक पर इन दिनों कई तरह के मोदी दिख रहे हैं. फेसबुक से ही यह जानकारी मिली है कि बहुत से लोग अमित शाह भी बनना चाहते हैं.

बहुत से लोग घर में नाच रहे हैं. उनके टिक-टॉक वाले वीडियो को देखकर लग रहा है कि अगर वे बंबई चले गए होते तो मिथुन चक्रवर्ती और गोविंदा की वॉट लगा सकते थे.

कुछ लोग शाम को मोटा सा रजिस्टर लेकर कोरोके में अड़ियल-सड़ियल सा गाना गा रहे हैं. घर से बाहर नहीं निकलने के लिए जागरूकता अभियान चल रहा है तो सड़क पर पुलिस वाले भी अपनी खुजली मिटाने में लगे हुए हैं. बहुत से लोग रात को लूड़ो खेलते हैं. इधर अपन को अब जाकर पता चल रहा है कि लूडो से भी जुआ खेला जा सकता है. बच्चे ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं. जब मास्टरजी के प्रश्नों का उत्तर नहीं देना होता है तो कह देते हैं- नेट स्लो हो गया है. बहुत से साधन-संपन्न दरूवे अब रात को एक टाइम ही दारू का सेवन कर पा रहे हैं. ऐसे तमाम दरूवे इस बात को लेकर दुखी है कि अगर जल्द ही लॉकडाउन नहीं खुला तो स्टॉक खत्म हो जाएगा. कुछेक मोदी सरकार को सुझाव दे रहे हैं कि वे कम से कम नाई की दुकान खोल दें अन्यथा उन्हें जामवंत बन कर घूमना पड़ जाएगा.

मीडिया के पास भी खूब काम है. अभी उनके पास सबसे बड़ा काम यहीं है कि हर समाचार में मस्जिद खोजनी है. टोपी पहने और दाढ़ी बढ़ाए लोगों को कव्हर करना कोई आसान काम नहीं है भाई ? बहुत दिमाग लगाना पड़ता है. कुत्ते की माफिक सूंघना पड़ता है तब जाकर एगंल मिल पाता है. आज की तारीख में मालिक दो रोटी तभी डालता है जब कई लोग मौत की आगोश में सो जाते हैं.

 

हो सकता है कि बहुत से वैधानिक / अवैधानिक कामों का जिक्र नहीं हो पाया हो. अगर आपकी नजर में कुछ छूट गया हो तो मुझे बता दीजिएगा. आपके कामों को भी शामिल कर लूंगा.

अपने रोजगार के बारे में अवश्य बताइगा.

अपनी बेकारी के दिनों में जब हॉफ चाय के साथ एक ब्रेड के टुकड़े को चबाकर... और मां के आंचल में बंधे पांच रुपए के मुड़े-तुड़े नोट को लेकर जब काम की तलाश में घर से बाहर निकलता था तब यह सवाल अक्सर मेरा पीछा करता था- क्या कर रहे हो आजकल ?

यह सवाल आत्मा को छलनी कर जाता था और भीतर ही भीतर कांप जाता था मैं.

मैं नहीं चाहता कि आपको कंपकंपी छूटे. इस चित्र को देखिए और सोचिए कि क्या आपके लायक इसमें कोई काम है?

 

 

 

 

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शब्दों के नए वायरस !

छत्तीसगढ़ के जनसंपर्क विभाग के आयुक्त तारन प्रकाश सिन्हा पूरी वैज्ञानिक समझ के साथ लगातार लिख रहे हैं. अपने इस लेख में वे कोरोना वायरस के साथ-साथ शब्दों के वायरस से भी सतर्क रहने बात कह रहे हैं. वे कहते हैं- किसी घटना विशेष अथवा परिस्थितियों में उपजा कोई दूषित विचार कब धारणा बन जाता है और कब वह धारणा सदा के लिए रूढ़ हो जाती है, पता ही नहीं चलता. हम कब पूर्वाग्रही होकर इन संक्रामक आग्रहों के वाहक बन जाते हैं इसकी जानकारी भी फिर नहीं हो पाती.

 

चीन ने सख्त ऐतराज जताया है कि कोविड-19 को चाइनीज या वुहान वायरस क्यों कहा जा रहा है ! बावजूद इसके कि दुनिया का सबसे पहला मामला वुहान में ही सामने आया। चीन का तर्क है कि जब अब तक इस नये वायरस के जन्म को लेकर चल रहे अनुसंधानों के समाधानकारक नतीजे ही सामने नहीं आ पाए हैं, तब अवधारणाओं पर आधारित ऐसे शब्दों को प्रचलित क्यों किया जा रहा है, जो खास तरह का नरेटिव  सेट करते हों।

चीन शब्दों की शक्ति को पहचानता है। किसी समाज के लिए प्रयुक्त होने वाले विशेषणों के असर को जानता है। इसीलिए वह अपनी छवि को लेकर इतना सतर्क है।  

जाने-अनजाने में हम हर रोज विभिन्न समाजों, समुदायों, संप्रदायों अथवा व्यक्तियों के लिए इसी तरह के अनेक विशेषणों का प्रयोग करते रहते हैं, जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता। हमारे द्वारा गढे़ जा रहे विशेषण कब रूढियों का रूप ले लेते हैं, पता ही नहीं चलता। 

किसी घटना विशेष अथवा परिस्थितियों में उपजा कोई दूषित विचार कब धारणा बन जाता है और कब वह धारणा सदा के लिए रूढ़ हो जाती है, पता ही नहीं चलता। और कब हम पूर्वाग्रही होकर इन संक्रामक आग्रहों के वाहक बन जाते हैं, यह भी नहीं। यह भी नहीं कि कब नयी तरह की  प्रथाएं-कुप्रथाएं जन्म लेने लगती हैं।

अस्पर्श्यता का विचार पता नहीं कब, कैसे और किसे पहली बार आया। पता नहीं कब वह संक्रामक होकर रूढ़ हो गया। कब कुप्रथा में बदल गया और कब इन कुप्रथाओं ने सामाजिक- अपराध का रूप धर लिया। उदाहरण और भी हैं...

जब यह कोरोना-काल बीत चुका होगा, तब हमारी यह दुनिया बदल चुकी होगी। इन नये अनुभवों से हमारे विचार बदल चुके होंगे। नयी सांस्कृतिक परंपराएं जन्म ले चुकी होंगी। तरह-तरह के सामाजिक परिवर्तनों का सिलसिला शुरू हो चुका होगा। इस समय हम एक नयी दुनिया के प्रवेश द्वार से गुजर रहे हैं।

ठीक यही वह समय है, जबकि हमें सोचना होगा कि हम अपनी आने वाली पीढी़ को कैसी दुनिया देना चाहते हैं। क्या अवैज्ञानिक विचारों, धारणाओं, पूर्वाग्रहों, कुप्रथाओं से गढी़ गई दुनिया ? बेशक नहीं। तो फिर हम इस ओर भी सतर्क क्यों नहीं हैं ! कोरोना से चल रहे युद्ध के समानांतर नयी दुनिया रचने की तैयारी क्यों नहीं कर रहे हैं ? हम अपने विचारों को अफवाहों, दुराग्रहों, कुचक्रों से बचाए रखने का जतन क्यों नहीं कर रहे ? हम अपने शब्द-संस्कारों को लेकर सचेत क्यों नहीं है ?

महामारी के इस दौर में हमारा सामना नयी तरह की शब्दावलियों से हो रहा है। ये नये शब्द भविष्य के लिए किस तरह के विचार गढ़ रहे हैं, क्या हमने सोचा है? क्वारंटिन, आइसोलेशन, सोशल डिस्टेंसिंग, लक्ष्मण रेखा...परिस्थितिवश उपजे ये सारे शब्द चिकित्सकीय-शब्दावलियों तक ही सीमित रहने चाहिए। सतर्क रहना होगा कि सामाजिक शब्दावलियों में ये रूढ़ न हो जाएं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जब सोशल डिस्टेंसिंग के स्थान पर फिजिकल डिस्टेंसिंग शब्द के प्रचलन पर जोर देते हैं, तब वे इसी तरह के नये और छुपे हुए खतरों को लेकर आगाह भी कर रहे होते हैं....

 

 

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कमाने वाला कल फिर कमाएगा... मगर भूखा नहीं सोएगा !

राजकुमार सोनी

इस तस्वीर में एक मजदूर महिला देश के प्रसिद्ध मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी को गौर से देख रही है. एक पूंजीवादी व्यवस्था कभी नहीं चाहती है कि लोग शंकर गुहा नियोगी को गौर से देखें और समझे, लेकिन आर्थिक असमानता दूर करने और पसीने की वाजिब कीमत हासिल करने के लिए असंगठित कामगारों का एक बड़ा आंदोलन खड़ा करने वाले शंकर गुहा नियोगी को उनके मजदूर उन्हें दिल से याद करते हैं. हर रोज याद करते हैं.

आप कह सकते हैं कि ये क्या बात हुई. मजदूर तो फैक्ट्रियों और कल-कारखानों के होते हैं. संस्थानों के होते हैं, लेकिन यह शायद सही नहीं है. नियोक्ता और मजदूर का संबंध तो काम लेने और उसका गैर वाजिब भुगतान देने तक सिमटा होता है, लेकिन जो मजदूर विचार के साथ होते हैं वे हर तरह के सुख-दुःख में अपने साथियों का ख्याल रखते हैं. वे मोदी के कहने पर थाली नहीं पीटते ... बल्कि तब थाली पीटते हैं जब किसी झोपड़ी में किलकारी गूंजती है.

कई सालों से छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के साथियों को मजदूर बस्तियों में काम करते हुए देख रहा हूं. कुछ समय से जनमुक्ति मोर्चा के जाबांज साथियों के कामकाज की जानकारी भी मिल रही है. दोनों संगठनों से जुड़े हुए साथी मजदूर मानते हैं – नियोगी एक व्यक्ति नहीं विचारधारा है. नियोगी विचारधारा कैसे हैं इस पर कभी लंबी बातचीत की जा सकती है. अभी संक्षेप में सिर्फ इतना कह सकता हूं कि नियोगी ज्योति बसु की तरह पाइप पीने वाले कामरेड़ नहीं थे. वे किसानों की तकलीफों को जानने-समझने के लिए कभी खेत में किसान बनकर काम करते थे तो मजदूर की पीड़ा से वाकिफ होने के लिए खदान में गढ्ढा खोदा करते थे. उन्होंने प्यार भी किया और शादी भी की तो एक मजदूर महिला से. ( ऊपर तस्वीर में जो महिला नज़र आ रही है वह शंकर गुहा नियोगी की पत्नी आशा गुहा नियोगी है. आशा नियोगी भी उनके साथ मेहनत-मजूरी करती थीं. उनके तीन बच्चे हैं जिनका नाम क्रांति- मुक्ति और जीत है. )

लॉकडाउन के भीषण संकट में आज हम बात करते हैं छत्तीसगढ़ और जनमुक्ति मोर्चा से जुड़े साथियों के कामकाज के बारे में. गत कई दिनों से छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के साथी कलादास डहरिया, जीत डहरिया, अजय टीजी, पुष्पा, मनोज कोसरे, लखन साहू, जय प्रकाश नायर, सोनू बेगम, वेलांगनी, मोतम भारती, खेमिन साहू, नेमन साहू और अरीम शिवहरे उन झुग्गी बस्तियों में राहत पहुंचाने का काम कर रहे हैं जहां कोई जाने की जहमत नहीं उठाता. मजदूरों से दिन-रात कोल्हू के बैल की तरह काम लेने वाले उद्योगपति यह भूल चुके हैं उनकी फैक्ट्रियों से सोना निकालकर देने मजदूरों का भी कोई जीवन है? वे कहां है... किधर रहते हैं. कैसे रहते हैं... कैसे जी रहे हैं... यह जानने की फुरसत किसी को नहीं है.

बहरहाल छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के साथी हर उस मजदूर के घर में दस्तक दे रहे हैं जिनके यहां राशन नहीं है. भिलाई पावर हाउस से थोड़ा आगे छावनी बस्ती, कुम्हारी, सुपेला में बाहर के कई ऐसे श्रमिक मौजूद हैं जो आसपास की फैक्ट्रियों में काम करते हैं. किसी को पगार नहीं मिली है तो कोई घर से इतनी दूर है कि राशनकार्ड मौजूद नहीं है. कुछ मजदूर पार्षदों के पास गए थे तो पार्षदों ने भगा दिया. मोर्चा के साथी सभी जरूरतमंद साथियों को चावल-दाल, नमक-तेल, हल्दी-मिर्च,आलू-प्याज और सोयाबीन बड़ी मुहैय्या करवा रहे हैं. यही काम दल्ली राजहरा में जनमुक्ति मोर्चा के प्रमुख जीतगुहा नियोगी ( शंकर गुहा नियोगी के पुत्र ), बसंत रावटे, कुलदीप नोन्हारे, ईश्वर निर्मलकर, यादराम, जितेंद्र साहू, सुधीर यादव, मोहम्मद मेराज, शुभम वानखेड़े कर रहे हैं. दल्ली राजहरा में एक पत्रकार झुनमुन गुप्ता की सक्रियता भी जोरदार है. पत्रकार परिवार के सभी सदस्य अल-सुबह से गरीबों के लिए भोजन तैयार करने में जुट जाते हैं. छत्तीसगढ़ से एक झुनमुन गुप्ता और उसके परिवार को छोड़कर अभी और किसी पत्रकार के बारे में सकारात्मक जानकारी नहीं मिल पाई है. छत्तीसगढ़ के बहुत से पत्रकार इन दिनों तबलीगी-तबलीगी करने में व्यस्त हैं. जब वहां से फुरसत मिल जाएगी तो शायद वे यह बता पाएंगे कि उन्होंने किस गरीब को राहत पहुंचाई.

 

छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा और जनमुक्ति मोर्चा के साथियों को खूब सारी बधाई और सलाम भेजता हूं.

कुछ नंबर यहां दे रहा हूं. इन साथियों की हौसला-आफजाई करने का भी निवेदन है-

कलादास- 9399117681  

जय प्रकाश नायर- 9329025734

जीत गुहा नियोगी- 9977449745

ईश्वर निर्मलकर- 9109392409

 

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पत्रिका के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी की संपादकीय पर बिग्रेडियर प्रदीप यदु और निगम ने जताई गंभीर आपत्ति

कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के मीडिया के विज्ञापन बंद करने संबंधी सुझाव पर पिछले दिनों पत्रिका के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी ने संपादकीय लिखी थी. इस संपादकीय पर छत्तीसगढ़ के बहुत से लोगों ने असहमति जताई है. हमारे पास ब्रिगेडियर प्रदीप यदु और एलएस निगम की आपत्ति पहुंची है जिसे यहां हम अपना मोर्चा के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. बिग्रेडियर यदु ने अपनी आपत्ति पत्रिका के राजस्थान स्थित कार्यालय को भी भेजी है. जनसामान्य की हर खबर को महत्व देने का दावा करने वाले इस अखबार में उनकी आपत्ति कब छपती है ? छपती है भी या नहीं... यह देखना फिलहाल बाकी है.

 

आदरणीय डॉ गुलाब कोठारी जी ,

1. आशा करता हूँ कि आप सपरिवार स्वस्थ होंगे , प्रसन्न होंगे । मेरी शुभकामनाएं स्वीकारें ।

2. इस राष्ट्रीय त्रासदी से पूरा देश  अभूतपूर्व परिस्थितियों से गुज़र रहा है । कुछ लोग जी जान लगाकर इससे लड़ रहे हैं , कुछ उनकी मदद कर रहे हैं , कुछ   इस त्रासदी के कारण जानने का प्रयास कर रहे हैं तो कुछ अभी भी अपना प्रिय खेल हिन्दू-मुस्लिम खेल खेलने से बाज नही आ रहे हैं ।आम भाषा में कही जाने वाली "गोदी मीडिया" या "बिकी मीडिया" सबसे अग्रिम पंक्ति में खड़ी दिखाई पड़ रही है जो शतक के स्कोर की तरफ तीव्र गति से बढ़ रही है ? इस बात को आपसे बेहतर कौन जान सकता है ?

3. इस लॉकडाउन में देश विदेश की खबरों को पढ़ने का अवसर मिला है , आपके सम्पादकीय भी इससे अछूते नही हैं , "पत्रिका' उठता हूँ तो सबसे पहले इन्ही लेखों पर नज़र टिक जाती है ये सोचकर कि एक निष्पक्ष लेख पढ़ने का मौका मिलेगा ? थोड़ा विचलित हूँ ये देखकर कि आपकी कलम में निष्पक्षता तथा सशक्तता की धार में कमी आ गई है ? अगर पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य सच की नींव पर टिका है तो हर जागरूक पाठक का उद्देश्य उस सच को खरे माँपदण्ड पर आंकलन करने का भी है , ऐसा में मानता हूँ ।

4. जबाबदेह कौन ?  बड़ी सावधानी से आपने लेखनी का स्टीयरिंग जिले के जिलाध्यक्ष तथा पुलिस अधीक्षक की ओर मोड़ दिया ये कहकर की केंद्र के गृह मंत्रालय ने कठोर निर्देश दिए हैं ताकि अन्तर्राज्यीय आवागमन को रोका जा सके , आपने सही कहा है पर आप इन छोटी मछलियों को ना पकड़ दिल्ली की  बड़ी मछलियों को पकड़ते तो बेहतर होता ? क्या दिल्ली में बैठी सरकार सो रही थी जब WHO ने 30 जनवरी को कोरोना को  वैश्विक त्रासदी बताते हुए अग्रिम चेतावनी दी थी ? हम तो तब कुआं खोदेंगे जब आग लग जायेगी ,इस पर आपकी कोई टिप्पणी देखने को नही मिली , शायद " नमस्ते ट्रम्प " इस त्रासदी के ऊपर भारी था ? आपने ये बताने की भी ज़हमत नही उठाई कि हज़ारों मजदूरों के दिल्ली के आनंद विहार में जमावड़े के लिए कौन जिम्मेदार था ? केंद्र सरकार ? दिल्ली सरकार? उत्तरप्रदेश सरकार ? जिलाध्यक्ष या पुलिस अधीक्षक ? बड़ी शार्क का निवाला बनने के लिए देश में छोटी मछलियां बहुतायत में हैं और मीडिया का "चतुर तड़का" भोजन को और स्वादिष्ट बना देता है । जब तक इन शार्कों के दांत सुरक्षित रहेंगे , देश तो असुरक्षित रहेगा ही ? पता नही आप मेरी बात से सहमत हैं कि नही , क्योंकि आप पत्रकारिता के भीष्म पितामह हैं और मैं महाभारत की लड़ाई में कौरवों की सेना का एक छोटा सा अंजान सैनिक ?

5. कोरोना मरे पर लोकतंत्र नही ? सोनिया गांधी के सुझावों को तो आपने सिरे से ही खारिज कर दिया, महोदय ? पांचों में से एक भी नही जँचा - तीन साधारण थे , चौथे से थोड़ी बहुत कोरोना की लड़ाई लड़ी जा सकती है पर पांचवां तो बिल्कुल गलत सुझाव लगा जिसमें विज्ञापनों की बात की गई थी ? आपने तो इस सुझाव को चौथे स्तम्भ पर सीधा प्रहार ही बता दिया , ये भी कह दिया कि ये एक अलोकतांत्रिक सुझाव है, मीडिया पर इमरजेंसी है , पत्रकारिता बंद हो जाएगी क्योंकि मंहगाई बहुत बढ़ गई है ? सही बात है ;  अगर हमारी रोटी ही सरकार के विज्ञापनों पर चलती है तो लाज़िमी है कि कलम की धार को अपना "तीखापन" तो कम करना ही पड़ेगा ?असंवैधानिक पदों पर आसीन , संगठनों के प्रमुख , सरकार के चहेते पूंजीपति , मीडिया घरानों की सुरक्षा में भी तो पैसा लगता है ,इसे थोड़े ही बंद किया जा सकता है ? हमें चिंता नही होनी चाहिए कि विधायकों की खरीद फरोख्त में और सत्तारूढ़ दल के आलीशान महलरूपी दफ्तरों के लिए पैसा कहां से आया ? अरे ये तो विदेश में निवास कर रहे ललित मोदी , नीरव मोदी , मेहरुल चौकसी , विजय माल्या व सन्देसरा का दान है , बड़े बड़े उद्योगपतियों का चढ़ावा है , आम आदमी का पैसा है ही नही तो आम आदमी इसपर कैसे तांका- झांकी कर सकता है ? जब हम पर आंच आती है तो हमें किसी ना किसी प्रकार की शील्ड सामने रखनी ही पड़ती है ताकि हम इस तपन में ना जलें , हैं तो बहुत लोग जलने वाले जो पैदल ही दिल्ली से सैकड़ों मील का सफर कर अपने घरों की ओर दौड़ रहे हैं - वो जलें हम क्यों अपनी त्वचा को धूप में झुलसायें ? 

6. प्रयासों पर पत्थर ? बड़ा सटीक चित्रण है राजस्थान की जनता की उदंडता का , बिल्कुल गलत किया जो विधायक अमीन काग़ज़ी ने किया , गलती उन गरीबों की है जिनका पेट कभी भरता ही नही ? और भरे भी कैसे क्योंकि ये तो "हिन्दू-मुस्लिम" के क्रिकेट मैच में पाकिस्तान टीम के हरी ड्रेस पहने खिलाड़ी हैं , बेचारे हमेशा मज़बूत हिंदुस्तानी भगवा रंग की ड्रेस पहने खिलाड़ियों के चौके / छक्कों को बाउंडरी लाइन के पार जाने से रोकने की जद्दोजहद में ही लगे रहेंगे ? "अनप्रोफेशनल" खिलाड़ी हैं ये, जो "अंपायर बनी मीडिया" की बातों को मानते ही नही ?जब से "तबलीगी जमात" नामक खिलाड़ी ने टीम में प्रवेश किया है ,मानों हिंदुस्तानी टीम और मीडिया अंपायर का परस्पर समन्वय इतना प्रगाढ़ हो गया जैसे " फेविकोल का जोड़ " हो जो भीम के सौ हाथियों की ताकत से भी अलग नही किया सकता ? माननीय , क्या आपको योगी आदित्यनाथ की मूर्ति स्थापना , शोलापुर की रामननवमी यात्रा , वर्धा के भाजपा विधायक के जन्मदिन पर खड़ी सैकड़ों की भीड़ , तेलंगाना के भाजपा विधायक का मशाल जुलूस , तिरुपति के 40 हजार भक्तों की भीड़, शिर्डी के 20 हजार दर्शनार्थी , वैष्णों देवी के 5 हजार पर्यटक नज़र नही आये जिनका अपराध उतना ही है जितना तबलीगी जमात के आयोजककर्ता का है। सिर्फ निज़ामुद्दीन नज़र आया ,देश में भगवाधारी खिलाड़ियों की गंदी करतूतें नज़र नही आईं ? ये मान्यता तो सरासर गलत तथा निंदनीय है कि " तुम्हारा कुत्ता - कुत्ता पर मेरा कुत्ता टॉमी "? एक उंगली जब सामने वाले पर उठती है तो तीन का इशारा अपने ऊपर होता है ।ये कहावत तो अब शायद किताबों में ही कैद हो गई है , मीडिया को इससे क्या मतलब ? हम तो उसी का भजन गाएंगे जो हमारी दुकान चलाता है , बाकियों से हमें क्या ? जिस टीम के खिलाड़ियों को राष्ट्रपति बनने के अवसर मिलें हो , देश के मुख्य न्यायाधीश बनने का गौरव प्राप्त हो , मुख्य चुनाव आयुक्त भी बने हों , मरणोपरांत परमवीर चक्र भी मिला ही , ये उपलब्धियां मीडिया के लिए कोई मायने ही नही रखती हैं । इस गोदी मीडिया का काम ही है कि देश में धर्म व जाति के नाम भेदभाव बढ़ाया जाय और सत्तारूढ़ दल की इस नीति को जो शायद देश के मध्य स्तिथ "जीरो माइल " से निर्धारित होती है ,उसे अच्छी तरह पूरे जोर शोर से हवा दी जाय ; जब तक देश में आग नही लगेगी हम अपने हाथ कैसे सेंक पायेंगे ? शर्मनाक मीडिया की शर्मनाक नीति जिसे पूरा विश्व देख रहा है पर मीडिया को इसकी चिन्ता थोड़ी है कि देश की छवि तार तार हो रही है और हम सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं।

7. किसी ने बिल्कुल सही कहा है कि तैरते तो वही हैं जो जिंदा होते हैं , धारा के साथ तो मुर्दे ही बहते हैं ? शायद मीडिया इसे भी भूल गई है कि " Eagles Fly Higher Against The Wind And Not With The Wind ".

8. आदरणीय , कृपया अन्यथा मत लीजिएगा , कई बुद्धिजीवी आपसे प्रेरणा लेते हैं । गलत को गलत कहना गलत नही होता पर गलत को गलत नही कहना गलत होता है । इस त्रासदी में अब ये मुद्दा सिर्फ पक्ष और विपक्ष का नही है । ये एक आम आदमी का है क्योंकि उसकी जिंदगी भी इस खेल में दावँ पर लगी है । अगर आपकी कलम की धार पैनी हो जाय तो सरकार भी अपनी गलतियों को देख सकेगी। ये गलतियां कतई क्षमा करने योग्य किसी भी दृष्टि से हो ही नही सकती ।

 जयहिंद . ब्रिगेडियर प्रदीप यदु, सेवानिवृत्त. रायपुर , छत्तीसगढ़

 

दूसरा खत- 

आदरणीय कोठारीजी,

पत्रिका मे प्रकाशित  संपादकीय, " कोरोना मरे, लोकतंत्र  नहीं "  देखा . सोनिया गाँधी  द्वारा प्रधानमंत्री को  कुछ  सुझाव दिए  गए हैं .इसमे  कुछ अवधि के लिए विज्ञापन  बंद करने सुझाव भी है़.उसी समय लगा था कि  मीडिया  इसे  पसंद नहीं करेगा .स्वाभाविक है़ कि समाचार पत्रों  के  संचालन मे विज्ञापन की महत्वपूर्ण  भूमिका  होती है़ और इसे  पूरी तरह से बंद नही किया जा सकता, लेकिन इस सुझाव ने आपको इतना विचलित कर दिया कि  आप व्यक्तिगत आलोचना करने लगे . राम और धोबी का उदाहरण  तथा इटली की  नागरिकता  का उल्लेख  भी कर दिया. प्रधानमंत्री राष्ट्रीय सहायता कोष और पी.एम. केयर्स  फंड का अंतर आप नही  समझते हों, यह  कल्पना  से परे  है़ . दोनो ही कोष  यदि प्रधानमंत्री  के नियंत्रण  हैं, तो अलग-अलग बनाने  की  क्या आवश्यकता है़. सोनिया गांधी  के सुझावों से असहमत  हुआ जा सकता है़ लेकिन इस प्रकार की  भाषा  की उम्मीद  आपसे  नहीं  थी क्योकि मै  आपकी  भाषा और ज्ञान  का  प्रशंसक   रहा हूं .

सादर

एलएस निगम 

 

 

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लॉकडाउन के खोलने की दरपेश चुनौतियां

कैलाश बनवासी

21 दिनों के अनिवार्य किन्तु अकस्मात घोषित लॉक डाउन के पश्चात् लाख टके का सवाल यह है कि आगे चार दिनों के बाद होगा क्या? लॉक डाउन जारी रहेगा, या इसमें कुछ छूट मिलेगी? ओडिशा सरकार ने दो दिन पहले ही अपने राज्य का लॉक डाउन 30 अप्रैल तक बढ़ा दिया है.और विभिन्न चैनलों में इस बात की चर्चा है कि विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री—छत्तीसगढ़ समेत—इसके बढाए जाने के पक्ष में हैं. इस पर अभी विचारमंथन का दौर जारी है,जो कि सर्वाधिक उचित भी है कि ऐसे बेहद गंभीर,नाजुक और संवेदनशील मसले पर काफी गहराई से सोच-विचार कर ही निर्णय लिया जाए. इसे आनन-फानन में किसी देशभक्ति उत्सव या इवेंट में बदलने के विचार से कोसों दूर हटकर.

सूनी-सूनी गलियां और सड़कें,सन्नाटा,निर्जनता...यह सब देखते-देखते लॉक डाउन का एक लम्बा समय बीत जाने के बाद,सबके मन में  इससे जितनी जल्द हो उबर पाने की,और जीवन के पटरी पर लौट आने की बहुत स्वाभाविक इच्छा बनी हुई है. लेकिन दूसरी तरफ,इस समस्या की विकरालता और प्रकृति तत्काल भयभीत करती है. इस महामारी ने पूरे विश्व को,हमारे जन-जीवन को गहरे प्रभावित किया है. मरनेवालों की संख्या देश-विदेशों के मिलाकर एक लाख से ऊपर आ जाना इसकी भयावहता को बताने के लिए काफी है. इस पूरे दौर में बहुत अभावों के बीच भी जिस तरह से स्वास्थ्यकर्मी,पुलिस, प्रशासन, सेवाभावी एजेंसियां और संगठन इसका मुकाबला युद्धस्तर पर कर रहे हैं,देश-प्रदेश के लिए यह अत्यंत गौरव और गर्व का विषय है. ऐसे समय में इनके कर्तव्यनिष्ठता और सहयोग के लिए जितनी भी प्रसंशा की जाय,वह कम है. खासकर स्वास्थ्य विभाग जो कई तरह के अभावों,असुविधा के बाद इसमें जिस लगन और प्रतिबद्धता से,अपनी बीमारी का जोखिम लेकर भी डटा-जुटा हुआ है,उसे सलाम! ऐसी मिसाल संभवतः युद्धकाल में ही देखने को मिलती है.

अभी तक लॉक डाउन के अनतर्गत ज्यादातर लोगों को भी इसके खतरों की गंभीरता का,साथ ही इस दरमियान--मजबूरी में ही सही--उन्हें अपनी जिम्मेदारी का कुछ-कुछ अहसास हो गया है. यह अलग बात है कि कई लोग अभी भी इसे उस रूप में नहीं देख और समझ पा रहे हैं,जिसके कारण पुलिसिया/कानूनी  दबावों की जरूरत पेश आती है.सच्चाई यह भी है कि देश में विषम परिस्थितियों में लागू यह सर्वथा नए किस्म का जनता कर्फ्यू है,जिसकी व्यापक समझ नहीं बन सकी है. ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की अवधारणा भी उनके लिए नयी है.इसलिए,लॉक डाउन में अगर रिलेक्सेशन मिलती है,तो यह सभी विभागों और प्रशासन के लिए जिम्मेदारी को और बढ़ानेवाला  काम होगा. इस छूट का मतलब दिनचर्या का फिर से पुराने ढर्रे पर लौट आने का तो कतई-कतई नहीं होगा. वहीं, इस लॉक डाउन से आज नही तो कल,बाहर आना ही है. तब प्रश्न है कि क्या, बहुत सतर्कता और जिम्मेदारी बरतते हुए विभिन्न राज्य सरकारें इसमें रिलेक्सेशन की तरफ बढ़ सकती हैं? जैसे हालात हैं उसमें फिर से उसी पटरी पर जीवन का कुछ हफ़्तों तो छोड़िये,महीनों में भी आ पाना असम्भव है ! देश की आर्थिक गति पर इससे सबसे बड़ा धक्का लगा है,जिसका आंकलन विषय विशेषग्य खरबों में कर रहे हैं. रेल,कल कारख़ाने बंद,ट्रक,टैक्सीयों,से लेकर इ-रिक्से सब बंद हैं. हैं, छोटे-मोटे उद्योग धंधे और निर्माण कार्य सब बंद हैं.जिसकी सबसे बड़ी मार दिहाड़ी मजदूरों पर पड़ी है. बेरोजगारी में इन कामगारों की हालत बदतर हो गयी है. फिर कृषि में भी कम संकट और पीड़ा नहीं है.मजदूरों के अभाव में कटाई को तैयार फसल चौपट हुई जा रही है. अपनी फसलों को जानवरों के लिए चरने को छोड़ने के लिए किसानों/मालिकों को विवश होना पड़ रहा है.देश पर आ पड़े इस आर्थिक सुनामी से उबर पाना आसान नहीं होगा. असंगठित मजदूर,जो कुल मजदूरों की संख्या का 90 प्रतिशत हैं,जिनकी अनुमानित संख्या 35-40 करोड़ है, रास्ट्रीय स्तर पर इन्हें देखें तो इनमें से लाखों जीविकोपार्जन की अनिश्चिंतता के कारण अपने गाँव-घरों की ओर लौट गए हैं. इसलिए छोटे-मोटे दुकानों,व्यापारियों से लेकर उद्योग-धंधों को भी सँभालने में लंबा वक्त लगेगा. देश की सोयी आर्थिक स्थिति में कुछ बदलाव लाने.जन-जीवन को फिर गति देने  के लिए आवश्यकता अनुरूप  और सावधानीपूर्वक शुरुआत की जा सकती है.इन्हें दुबारा उनका जीवन लौटाना है,लेकिन उनका जीवन ले लेने की शर्त पर तो बिलकुल नहीं. इसलिए एक दीर्घकालिक सुनियोजित कार्यप्रणाली और व्यवस्था बनाने के बाद, क्रमशः छोटे-छोटे पॉकेट्स में ही इन्हें छूट दी जा सकती है.

अपने राज्य छत्तीसगढ़ में देखें, तो अभी दर्ज हुए कटघोरा के नए सात केस के अलावा बड़े पैमाने पर इससे संक्रमण की सूचना नहीं है.और कोरोना पॉजिटिव मरीजों के स्वस्थ होने की प्रगति शानदार है,जिसके लिए निश्चय ही मुख्यमंत्री सहित पूरा अमला ढेरों बधाई का हक़दार है. एहतियातन ऐसे  चिन्हित गहरे संवेदनशील क्षेत्रों को पूरी तरह सील किया जाकर अप्रभावित क्षेत्रों में सावधानीपूर्वक,नजर रखते हुए छूट दी जा सकती है.जैसे गांवों में अभी मनरेगा कार्य चलाये जा रहे हैं.यह भी सुनिश्चित करना होगा कि बेघरबार,या कहीं फंसे हुए मजदूरों या काम न होने की स्थिति में उनके भोजन-राशन की व्यवस्था वैसे ही बरकरार रहे,वे आश्वस्त रहें, जिससे किसी किस्म की अफरा-तफरी ना मचे. और यहीं दानदाताओं,सेवाभावी लोगों,संगठनों से इस सम्बन्ध में यह कहना उचित लगता है,कि उनकी मदद की जरूरत ऐसे जरूरतमंद लोगों को अभी आगे बहुत लम्बे समय तक पड़ने वाली है.इसलिए केवल इसी फेस में उनकी उत्साही सहायता कर लेने से समस्या समाप्त नहीं होने वाली है.इस जज्बे को लम्बे समय तक निरंतर बरकरार रखने की जरूरत है. शासन सहित ऐसे सभी समाज सेवी संगठनों को इनके मदद की एक दीर्घकालिक योजना बनानी होगी, क्योंकि उनकी असली समस्या तो लॉक डाउन के इन फेसेज़ से बाहर आने के बाद शुरू होगी.आवश्यक सेवाओं के लिए ही सरकारी कार्यालय खोले जाएँ,जिसमें लॉक डाउन जैसी स्थिति निरंतर बनाकर रखी जाए. अप्रभावित क्षेत्रों,जिलों में इसमें किश्तों में धीरे-धीरे छूट दे देने से,और इनसे हासिल अनुभवों के आधार पर, आगे बड़े दायरे को छूट देने की ठोस रणनीति बनाने में मदद मिलेगी.

सबको जन-जीवन सामान्य होने का इन्तजार है.और उस दिशा में कदम बढ़ें,तो स्वभाविक है,सबको ख़ुशी होगी. ऐसे में महाकवि निराला की ये काव्य-पक्तियां कितनी प्रासंगिक हैं—

  अभी न होगा मेरा अंत

  पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं

  अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूंगा मैं

  द्वार दिखा दूंगा फिर उनको

  हैं मेरे वे जहां अनंत

  अभी न होगा मेरा अंत

 

 - लेखक का संपर्क नंबर- 9827993920   

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मसीही समाज के पागल !

राजकुमार सोनी

लॉकडाउन के दौरान जब दो लेख-एक पागल लड़का...एक पागल लड़की और दुर्ग शहर के पागल में गरीबों की मदद करने वालों को मैंने पागल कहकर संबोधित किया तो ज्यादातर लोगों ने यह माना कि जनता के बीच... जनता के लिए पूरी सुरक्षा और संवेदना के साथ काम करने वाला पागलपन बेहद जानदार है.

बहुत से लोगों ने पागलों के साथ काम करने की इच्छा जताई तो कुछेक लोगों की यह शिकायत भी थी कि मैं पागलपन की आड़ लेकर टकले पर दीया जलाने वाले भक्तों पर हमले कर रहा हूं. कतिपय भक्तगणों का कहना था कि मैं अब निष्पक्ष नहीं रहा. ( हालांकि भक्तों के प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं है ) फिर भी यह साफ कर देना चाहता हूं कि अब मैं उस तरह की मीडिया का हिस्सा नहीं हूं जिसे लोग सुबह-शाम गंदी-गंदी गाली देते है. कोई चैनल वालों को गाली बकता है तो कोई अखबार वालों को. हर रोज दलाल... फलाल... हलाल जैसे शब्द इधर-उधर विचरण करते हुए मिल जाते हैं. जो लोग निष्पक्ष पत्रकारिता का दावा करते हैं उन्हें एक बार यह बताना मेरा काम है कि मीडिया से जुड़े ज्यादातर घराने सबसे बड़े फेंकू की ब्रांडिग को ही पत्रकारिता मान बैठे हैं. इसलिए हे जगत के पालनहारों...आप लोगों को भी कथित तौर पर निष्पक्ष दिखने वाली पवित्रता का पाखंड बंद कर देना चाहिए. गंगाजल से नहा-धोकर तिलक-चंदन चुपड़कर ज्ञान बघारने की प्रवृति पर जितनी जल्दी विराम लग जाय उतना हम सबके लिए अच्छा है. फेंकूराम के समर्थकों को तो लोग अंधभक्त...और भी न जाने कौन-कौन सी उपाधियों से नवाजते हैं, लेकिन मीडिया को गोदी मीडिया क्यों कहा जाने लगा है इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है.

बहरहाल आज हम बात करने जा रहे हैं मसीही समाज से जुड़े पागलों की. छत्तीसगढ़ में क्रिश्यन फोरम नाम का एक संगठन है. इस फोरम के अध्यक्ष अरुण पन्नालाल और महासचिव अंकुश बरियेकर को कई सालों से जानता हूं. पिछले 22 मार्च को जब पूरे देश को लॉकडाउन में तब्दील कर देने की घोषणा हुई तो मुझे उनकी याद आई. मैं इस बात के लिए आश्वस्त था कि चाहे जो हो... सेवा कार्य में जुटा क्रिश्यन फोरम इधर-उधर फंसे हुए गरीबों और मजदूरों की मदद अवश्य करेगा. मेरा सोचना सही था. लॉकडाउन के दूसरे दिन यानी 23 मार्च को मुझे यह संदेश मिला कि फोरम से जुड़े रविन्द्र सिंह, अतुल आर्थर, राजू गोसाला, कुसुम, शीतल, चित्रलेखा और निर्मला, रामू यादव, त्रिलोचन बाघ, सुभाष महानंद, राकेश जयराज, दयानंद, सतीश गंगराड़े, एल्विन, रवि सोनकर, सुमीर राव, संजय महालिंगे, मनोहर साहू, केशव जगत, लाकेश्वर, दीनू बाघ, शिवकुमार, जयप्रकाश, पूरनलाल, प्रदीप तांडेकर युद्ध स्तर पर सक्रिय हो गए हैं. ( इतने सारे नाम यहां इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि कोई अखबार इन नामों को छापने की जहमत नहीं उठाएगा. ये सारे लोग विज्ञापनदाता नहीं है और सेलिब्रिटी तो बिल्कुल भी नहीं है. )

फोरम को यह सूचना मिली थी कि लॉकडाउन के दौरान 17 मजदूर भूखे-प्यासे मजदूर मंदिर हसौद के पास मौजूद है और अपना हौसला खो चुके हैं. सदस्यों ने वहां पहुंचकर सबसे पहले पुलिस को सूचना दी और फिर उनके भोजन का प्रबंध किया. मुंगेली और जांजगीर जिले के करीब 22 मजदूर फरीदाबाद में फंस गए थे. इस बात की सूचना अतुल आर्थर को मिली तो वे फरीदाबाद का संपर्क सूत्र निकाल लेने में कामयाब हो गए. जैसे-तैसे वहां के एक पार्षद नरेश को भोजन आदि की व्यवस्था के लिए तैयार कर लिया. फोरम ने अब तक कोरबा, बिलासपुर और रायपुर के सैकड़ों मजदूरों को राहत पहुंचाई है. फोरम के सदस्य अब भी रायपुर की झुग्गी बस्तियों में रहने वाले बूढ़े, विकलांग और कमजोर लोगों को गरम भोजन मुहैय्या करवा रहे हैं. अभी तीन रोज फोरम को यह सूचना मिली थी कि मारवाड़ी श्मशान घाट के पीछे झुग्गियों में रहने वाले कई लोग भूखे-प्यासे बैठे हैं. फोरम के इस नेक काम के लिए छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध अधिवक्ता फैजल रिजवी और अशरफ ने भरपूर सहयोग दिया.

अब एक बार फिर सोच रहा हूं कि आखिर छत्तीसगढ़ क्रिश्यन फोरम को यह सब करने की जरूरत क्या है ? घर में बैठकर... मनमोहन देसाई की अमर-अकबर-अंथोनी जैसी कोई चालू फिल्म देख सकते थे. प्रभु ईशु आया... मेरा जीवन बदला.... यहां पाप नहीं नहीं वहां पुण्य नहीं जैसा कोई गीत कोरस में गा सकते थे. घर में बैठकर कांगो-बांगो ड्रम और गिटार बजा सकते थे. जो मजदूर भोजन-पानी लेकर बिहार- झारखंड चले गए हैं क्या उन सारे मजदूरों को अरुण पन्नालाल और उनके साथियों ने यह कहते हुए अपना विजिटिंग कार्ड दिया होगा कि भाइयों जैसे ही लॉकडाउन खुल जाएगा... हमको फोन करना... हम तुम्हें प्रभु के चरणों में श्रेष्ठ स्थान दिलवा देंगे.

आखिर मसीह समाज से जुड़े इन पागलों को यह सब करके क्या मिल रहा है ? दर्द को महसूस करने के लिए दर्द से गुजरना पड़ता है. घर में बैठकर गजल लिखने से बात नहीं बनने वाली है. एक दर्द ही है जो हर संवेदनशील इंसान को परेशान करता है. ताली-थाली-घंटी-घंटा और शंख बजाने लोग शायद यह कभी नहीं समझ पाएंगे कि देश का गरीब किस दर्द से गुजर रहा है? गरीब की आंख के नीचे आंसुओं की पपड़ी क्यों बन गई है. पता नहीं क्यों यह लगता है कि एक न एक दिन जमी हुई पपड़ी पिघल जाएगी. जिस रोज भी पिघलेगी उस रोज जलजला आ जाएगा. ( तब भी शायद मसीह समाज के लोग कहेंगे- हे प्रभु इन्हें माफ कर देना... ये नहीं जानते थे कि अन्जाने में क्या कर रहे थे ? )  

मेरे पास फिलहाल फोरम के अध्यक्ष अरुण पन्नालाल का ही नंबर है. अगर आप चाहे तो उनसे बात कर सकते हैं. उन्हें और उनकी पागल टीम को बधाई दे सकते हैं-  9893290025

 

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दुर्ग शहर के पागल !

राजकुमार सोनी

कोरबा जिले के कटघोरा में कोरोना से सात लोग प्रभावित पाए गए हैं. ऐसे समय जबकि छत्तीसगढ़ से मरीजों का स्वस्थ होकर घर लौटना जारी था तब एकाएक नए कोरोना प्रभावितों के मिल जाने से हलचल मच गई है. सबसे ज्यादा हलचल उन लोगों में देखी जा रही है जो यह मान बैठे हैं कि इस देश को बरबाद करने में मुसलमानों का सबसे बड़ा हाथ है.  मुसलमानों से बड़ा कोई वायरस नहीं है. सारी बेचैन आत्माएं एक साथ निकल पड़ी है और फेसबुक... वाट्सअप- सोशल मीडिया में चिल्ला रही है- देखिए... जमातियों ने मरवा दिया. इनको  बाहर निकालों. दो-चार दिन समझाओ... नहीं तो सीधे गोली मार दो. मूर्ख जमाती. मूर्ख बाराती और भी न जाने क्या- क्या ? यह तो हुई सोशल मीडिया की बात...। वैसे कल का अखबार भी देखिएगा... सारे अखबार के प्रथम पेज पर यहीं खबर होगी और खबर के भीतर का पूरा मजबूत स्वर यहीं होगा कि जमातियों के कारण छत्तीसगढ़ बरबादी के कगार पर आ खड़ा हुआ है. आदि-आदि... अनादि. ( कल सभी अखबार की हैडिंग देखिएगा और समझने की कोशिश करिएगा. ) मीडिया की बांछे खिल गई है साहब.

यह बड़ा खौफनाक समय है. इस खौफनाक समय में यह तय करना बड़ा मुश्किल हो गया है कि कौन अपना है और कौन पराया. कौन है जो देश के लिए सोच रहा है... और सोच भी रहा है तो क्या सोच रहा है ? एक सीधा सा सवाल है कि क्या कोरोना को देश में जमाती लेकर आए थे. देश में कोरोना से अब तक जितने लोगों की मौत हुई है क्या वे सारे जमाती थे ? लोग यह बात क्यों समझ नहीं पा रहे है कि कोरोना...हिन्दू, मुस्लिम-सिक्ख और ईसाई धर्म को देखकर प्रवेश नहीं करता है. यह बहुत साफ है कि जो कोई भी लापरवाही बरतेगा...कोरोना उसे अपनी चपेट में ले लेगा. जिन लोगों ने कोरोना को लेकर गंभीरता नहीं दिखाई है उन पर तो कार्रवाई होनी चाहिए... लेकिन अभी क्या कोरोना प्रभावित सारे लोगों को जेल में ठूंस देना चाहिए ताकि जेल में बंद कैदियों की मौत हो जाय.क्या बेहद अमानवीय होकर उनको गोली मार देना चाहिए ताकि फिर मामूली सी सर्दी-खांसी पर भी दनादन गोलियां बरसाने का खेल चलता रहे. जब छत्तीसगढ़ में नौ मरीज ठीक हो सकते हैं तो वे लोग क्यों ठीक नहीं हो सकते हैं जो आपकी नजर में जमाती  है. अभी जरूरत ज्यादा एहतियात बरतने की है.

बहरहाल... यह सब मैं क्यों लिख रहा हूं और मुझे क्यों लिखना चाहिए. मैं शायद इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मेरे भीतर कट्टरता ने अपना टीला नहीं बनाया है. लेकिन जिनके भीतर कट्टरता बैठी है वे भी तो लिख रहे हैं और पूरी कट्टरता के साथ लिख रहे हैं. कट्टर लोग अपना काम करते रहे तो मुझे भी अपना काम इसलिए जारी रखना चाहिए क्योंकि देश के पढ़े-लिखे और उदार लोगों ने बचपन में ही यह समझा दिया था कि कट्टरता का साथ देते ही आप जाहिलों की पंक्ति में शामिल हो जाते हैं. भला मुझे जाहिलों की कतार में क्यों शामिल होना चाहिए ?

चलिए...अब बात करते हैं दुर्ग शहर के कुछ पागलों के बारे में. इस शहर में रहने वाले अजहर जमील कट्टर नहीं है. उनके दोस्त फजल फारुखी भी कट्टर नहीं है. इन दोनों के साथ वाट्सअप ग्रुप रक्षक से जुड़े राजू खान, असलम कुरैशी, रिजवान खान, आबिद, अंसार भी कट्टर नहीं है. अब आप सोच में पड़ गए होंगे कि अरे... ये तो पूरे के पूरे वहीं लोग है. दाढ़ी रखने वाले. टोपी पहनने वाले.

जी नहीं... इस ग्रुप में राजेश सराफ, अजय गुप्ता, रमेश पटेल, डाक्टर संतोष राय, ज्ञानेश्वर ताम्रकार, आनंद बोथरा, सुनील, राधे और सूरज आसवानी जैसे लोग भी जुड़े है. ये सब लोग भी अपने-अपने ढंग से पूजा- इबादत करते हैं मगर कट्टर नहीं है. ऐसा भी नहीं है कि इस वाट्सग्रुप में देश-दुनिया के बदलते हालात को लेकर बहस नहीं होती है. खूब बहस होती है और जमकर होती है. कई बार कुछ लोग ग्रुप छोड़कर भी चले जाते हैं मगर फिर अजहर उन्हें यह कहकर मना लेते हैं कि मामू क्या हम लोग हंसी-मजाक भी नहीं कर सकते ? अरे लड़ना- झगड़ना तो चलते रहता है. ऐसे ही हमसे रूठकर चले जाओगे क्या मामू.

इस ग्रुप से जुड़े सभी लोग गत 15 दिनों से साढ़े तीन सौ लोगों को भोजन का वितरण कर रहे हैं. ग्रुप के सदस्यों ने इसके लिए बकायदा नगर निगम से अनुमति ली और भोजन बनाने के लिए कार्यशाला भी खोली है. हर सुबह ग्रुप के सदस्य पूरे एहतियात और सुरक्षा के साथ चावल-दाल- सब्जी, मसाले के जुगाड़ में लग जाते हैं और दोपहर तक गरम भोजन पैक कर चिन्हित जगहों पर पहुंच दिया जाता है. इस ग्रुप ने अब तक 124 परिवारों को एक महीने का राशन भी वितरित किया है.

एक बार फिर सोच रहा हूं कि आखिर इस वाट्सअप ग्रुप रक्षक को क्या जरूरत है यह सब करने की ? मस्त पड़े रहते. दिनभर मोदी-फोदी का मैसेज फारवर्ड करते रहते हैं. गंदे चुटकुलों और टिकटॉक में लगे रहते. क्या मिल रहा है इन पागलों को ?

अगर आप जानते हैं कि इन पागलों को कुछ हासिल हो रहा है तो मुझे अवश्य बताइएगा. मेरी समझ तो यहीं कहती है कि ये पागल दिनभर खुश रहते हैं. मुस्कुराते रहते हैं. यह तो तय है कि ये पागल कभी उस पागलखाने में तो नहीं जाएंगे जहां मोदी ने आपको भेजने की तैयारी कर रखी है.

दुर्ग शहर के इन पागलों को आप भी फोन करके बधाई दे सकते हैं. याद रखिए...हौसला-आफजाई से पागलों की संख्या में बढ़ोतरी होती है. अभी हमें ढ़ेर सारे पागलों की जरूरत है. हमें वैसे पागल तो बिल्कुल भी नहीं चाहिए जो टकले पर दीया जलाकर गो-कोरोना-गो के मंत्रोच्चार को ही अपने जीवन का कर्म मान बैठे हैं. )

अजहर जमील- 9329009549

फजल फारुखी- 9826165494

 

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एक पागल लड़का.. एक पागल लड़की और पागल कुछ लोग!

राजकुमार सोनी

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में  एक पागल लड़का रहता है. एक पागल लड़की भी रहती है. दोनों पागल एक साथ रहते हैं क्योंकि दोनों ने तय कर लिया है कि साथ-साथ रहना है. पागल लड़के का नाम है अनुज और लड़की का नाम प्रियंका है. दोनों ने अब से एक बरस पहले संविधान की शपथ लेकर साथ-साथ रहना मंजूर कर लिया था. उनकी इस शादी का एक घराती-बाराती मैं भी था. दोनों पागलों ने तय किया था कि उनकी बारात एक रिक्शे में ही निकलेगी. बारात रिक्शे में निकली तो शहर के शरीफ लोगों ने कहा- क्या पागलपंथी है. सब पागल है. बहरहाल इन दो पागलों के साथ कुछ और लोग भी बिलासपुर में रहते हैं जो पागल है. जिन पागलों का जिक्र यहां कर रहा हूं उनमें नीलोत्पल शुक्ला, कपूर वासनिक, नंद कश्यप, राजिक, नुरुल हुदा, कुलदीप सिंह, राधा श्रीवास, असीम तिवारी, अप्पू नवरंग, शाहिद कुरैशी, आशिफ हुसैन और पीयूष का नाम शामिल है. ( हो सकता है कुछ नाम छूट गए हो. )

ये सारे लोग इस लिहाज से पागल है कि इन्होंने कोरोना के भीषण संकट काल में कोविड- 19 हेल्प ग्रुप खोल रखा है. इस ग्रुप से जुड़े हुए सारे लोग ने तय कर रखा है कि हर हाल में गरीबों की मदद करनी है. किसी को भोजन देना है, किसी को राशन तो किसी को उनके घर पहुंचाना है. पिछले कुछ समय से इस ग्रुप की ओर से आने वाली सूचनाओं को पढ़ रहा हूं. कभी कोई किसी अधिकारी का नंबर मांगता है तो कोई कहता है- भैय्या... फलां जगह तुरंत पहुंचिए... झारखंड के मजदूर फंस गए हैं. ग्रुप से जुड़े हुए सभी पागल अपनी छोटी-छोटी कोशिशों के जरिए युद्ध स्तर पर सक्रिय है.

जब ये सोचता हूं कि ये लोग ऐसा क्यों कर रहे हैं तो पाता हूं कि इंसानी मोहब्बत में बड़ी ताकत होती है. जो इंसान मोहब्बत करता है उसका दिल और दिमाग अपने आप विशाल हो जाता है. जिसका दिल और दिमाग साफ रहता है वह ताली-थाली नहीं बजाता. शंख भी नहीं फूंकता. दीया-बत्ती और टार्च भी नहीं जलाता. तबलीगी-फबलीगी तो बिल्कुल भी नहीं करता. हर बार कहीं-कहीं बोलते रहता हूं. एक बार फिर से कहता हूं- जो लोग प्यार करते हैं... वहीं लोग क्रांति भी कर सकते हैं. धर्म से पहले इंसान से मोहब्बत करना सीखिए. बल्कि इंसानी मोहब्बत को ही अपना धर्म बना लीजिए.

अगर आपके घर के आसपास. आपके शहर में ऐसे थोड़े-बहुत पागल लोग रहते हैं तो उनकी मदद करिए. दिल और दिमाग से खूबसूरत पागलों की संख्या में इजाफा तो होना ही चाहिए. मैं तो इन पागलों के साथ हूं ही. बिलासपुर के इन पागलों के अलावा दुर्ग में भी रक्षक नाम का एक वाट्सग्रुप यहीं पागलपंथी कर रहा है. इस ग्रुप से जुड़े हुए पागलों के बारे में कल आपको जानकारी दूंगा.

अगर आप अभी तक  पागल नहीं हुए हैं तो पागल हो जाना चाहिए. इससे पहले कि मोदी  आपको घर बिठाकर सीधे पागलखाने जाने लायक बनाकर छोड़े आपका पागल हो जाना ठीक है.

प्रियंका और अनुज का नंबर यहां दे रहा हूं. आप इन पागलों की हौसला-आफजाई तो कर ही सकते हैं-

प्रियंका-08871067410

अनुज 9752319680

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कोरोना काल और टोटका

कोरोना काल में अंधविश्वास बुरी तरह से बढ़ गया है. साहित्यिक पत्रिका समय के साखी की संपादक आरती इसी बात को लेकर चितिंत है. अपने इस लेख में वे कहती है- हमारे और आपके सोचने-समझने से क्या होगा.देश के प्रधान सेवक को अपने इवेंट पर पूरा भरोसा है.

राज्य के अलग-अलग गांव कस्बों से तरह-तरह की अफवाहें आ रही हैं. कहीं कोई शीतला माता की पूजा कर रहा है, कहीं दरवाजे पर चौक पूरा जा रहा है, कहीं हल्दी के छापे लगाए जा रहे हैं. गाय को रोटी खिलाने से लेकर कुत्ते को तेल पिलाने तक की अफवाहें, अनेक तरह के अंधविश्वास चल पड़े हैं.

ज्ञान की जिज्ञासा जिस समाज से जितनी दूर रहती है या उसे दूर रखने के लिए जितने तरह के प्रयास जो समाज करता है. जैसे कि स्त्रियों को, दलितों को विभिन्न ज्ञान माध्यमों से दूर रखने के लिए मनुस्मृति जैसे फर्जी किस्म के ग्रंथ और उनसे जुड़ी नीतियां और परंपराएं बनाई गई, वह समाज उस स्वत: खोदी हुई खाई को कभी पाट नहीं पाता. वह समाज वैसे भी अंधविश्वास की जकड़न में गहरे जकड़ा हुआ समाज होता है. कहीं थोड़ा कम कही थोड़ा ज्यादा.

आजादी के बाद लोगों के भीतर नई शिक्षा नीतियों और विज्ञान के प्रवेश ने एक आशा जताई थी कि हम परंपराओं और विज्ञान के बीच की दूरी को धीरे-धीरे कम कर सकेंगे. वह लंबी दूरी हमने थोड़ा कम की भी थी. लेकिन इतनी नहीं जितनी होनी चाहिए थी.

किसी घटना की प्रतिक्रियाओं को देखते हुए कई प्रश्न उठते हैं कि क्या इस समाज की बुनावट ही ऐसी है? अंधविश्वासों को पैदा करने में सुकून महसूस करता है? क्या उसके पास कोई ऐसी खिडकी नहीं जो यह सच देख सके या उसे महसूस कर सकें.   इसमें समाज का नहीं, इसके आदि व्यवस्थापकौ का ही दोष है. व्यवस्था से जुड़े हुए और सच की खोज करने वाले तमाम आदि ऋषि  पुरुषों ने खुद लोगों और सत्ता के बीच में एक बड़ी  दीवार बना दी थी ताकि वह जन हमेशा भ्रांति में रहा आए. इसलिए समाज की संरचना अभी भी उतनी नहीं बदली कि वह महानायक की अवधारणा से हटकर किसी और सत्य को देख सके. 

इस कोरोना टाइम में,जब दुनिया को विज्ञान ही एकमात्र सहारा है, जब दुनिया के सारे देश वैक्सीन खोजने के लिए दिन रात एक कर रहे हैं, जब संकट से निपटने के लिए अधिक से अधिक चिकित्सीय आपदा प्रबंध में लगे हुए हैं, तब हमारे देश का प्रधानमंत्री हर 3 दिन में एक टोटका लेकर आता है और 130 करोड़ लोगों को झुनझुने की तरह पकड़ा कर चला जाता है. और लोग उसे प्रसाद की तरह सिर माथे पर लगा लेते हैं. 

जो लोग कहते हैं कि सकारात्मकता खोजी जाए, वे भी सकारात्मक बिंदुओं को सामने नहीं रख पा रहे.

क्या ऐसा नहीं लगता कि इस समय देश के प्रमुख को, स्वास्थ्य मंत्री को, स्वास्थ्य विभाग से जुड़े  एक्सपर्ट को लोगों को भरोसा दिलाना चाहिए था कि हम ऐसी तैयारी कर रहे हैं कि मुसीबत कितनी भी बड़ी हो जाएगी हम उससे निपट लेंगे... लोगों में डर है, घर के भीतर छुपे हुए भी उस बीमारी के अदृश्य  दुश्मन से, वे मुस्कुराते हुए भी घबराए हुए हैं....

हम सब जानना चाहते हैं कि हमारा देश इस महामारी से निपटने के लिए कैसी तैयारी कर रहा है? हम जानना चाहते हैं डॉक्टरों की सुरक्षा, सफाई कर्मियों की सुरक्षा, टेस्टिंग किट, वेंटीलेटर आदि के बारे में जानना चाहते हैं.. हम जानना चाहते हैं उन लोगों के बारे में जो हजारों की संख्या में बेघर महानगरों के किसी कोने में बैठा दिए गए हैं, जो खैरात के भोजन पर निर्भर हैं.. हम जानना चाहते हैं उन लोगों के बारे में जो 800 किलोमीटर का सफर तय करके अपने घर पहुंचने के रास्ते के बीच में अभी भी हैं.. और भी बहुत सी चीजें हैं जानने के लिए. उनकी व्यवस्थाओं के बारे में जानने के लिए.

लेकिन आपके चाहने से होगा क्या? हमारे देश के प्रमुख को अपने इवेंट पर पूरा भरोसा है... उन्हें पता है इवेंट मैनेजिंग कैसे करनी है.... 

 

 

 

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वैश्विक महामारी एक नई दुनिया का प्रवेश द्वारः अंरुधति रॉय

मशहूर लेखिका और बुकर पुरस्कार विजेता अरुंधति रॉय के इस लेख का अनुवाद शैलेश ने किया है. कोरोना काल में यह लेख कई सवाल खड़े करता है.

अंग्रेजी में “वायरल होना” (किसी वीडियो, संदेश आदि का फैलना) शब्द को सुनते ही अब किसको थोड़ी सिहरन नहीं होगी? दरवाजे के हैंडल, गत्ते का डिब्बा या सब्जी का थैला देखते ही किसकी कल्पना में उन अदृश्य छींटों के झुंड साकार नहीं हो उठेंगे जो न जीवित ही हैं, न मृत ही हैं और जो अपने चिपकने वाले चूषक पंजों के साथ हमारे फेफड़ों में कब्जा जमाने का इंतज़ार कर रहे हैं। एक अजनबी को चूमने, बस में घुसने या अपने बच्चे को स्कूल भेजने के पहले कौन भयभीत नहीं हो उठेगा?

अपनी रोजमर्रा की खुशियों से पहले उनके जोखिम का आकलन कौन नहीं करने लगेगा? अब हममें से कौन है जो एक झोलाछाप महामारी-विशेषज्ञ, विषाणु-विज्ञानी, सांख्यिकी विद और भविष्यवक्ता नहीं बन चुका है? कौन वैज्ञानिक या डॉक्टर मन ही मन में किसी चमत्कार के लिए प्रार्थना नहीं कर रहा है? कौन पुजारी है जो मन ही मन में विज्ञान के आगे समर्पण नहीं कर चुका है? और विषाणुओं के इस प्रसार के दौरान भी कौन है जो पक्षियों के गीतों से भर उठे शहरों, चौराहों पर नृत्य करने लगे मयूरों और आकाश की नीरवता पर रोमांचित नहीं है?

दुनिया भर में संक्रमित लोगों की संख्या इस सप्ताह 10 लाख तक पहुंच गई जिनमें से 50 हजार लोग मर चुके हैं। आशंकाओं के हिसाब से यह संख्या लाखों, या और भी ज्यादा तक जाएगी। यह विषाणु खुद तो व्यापार और अंतरराष्ट्रीय पूंजी के मार्ग पर मुक्त भ्रमण करता रहा है लेकिन इसके द्वारा लाई गई भयावह बीमारी ने इंसानों को उनके देशों, शहरों और घरों में बंद कर दिया है। परंतु पूंजी के प्रवाह के विपरीत इस विषाणु को प्रसार तो चाहिए, लेकिन मुनाफा नहीं चाहिए, और इसलिए, अनजाने में ही कुछ हद तक इसने इस प्रवाह की दिशा को उलट दिया है।

इसने आव्रजन नियंत्रणों, बायोमेट्रिक्स (लोगों की शिनाख्त करने वाली प्रणालियों), डिजिटल निगरानी और अन्य हर तरह के डेटा विश्लेषण करने वाली प्रणालियों का मजाक उड़ाया है, और इस तरह से दुनिया के सबसे अमीर, सबसे शक्तिशाली देशों को, जहां पूंजीवाद का इंजन हिचकोले खाते हुए रुक गया है, इसने जबर्दस्त चोट पहुंचाया है। शायद अस्थायी रुप से ही, फिर भी इसने हमें यह मौक़ा तो दिया ही है कि हम इसके पुर्जों का निरीक्षण कर सकें और निर्णय ले सकें कि इसे फिर से ठोंक -ठाक कर चलाना है अथवा हमें इससे बेहतर इंजन खोजने की जरूरत है।

इस महामारी के प्रबंधन में लगे दिग्गज ‘युद्ध-युद्ध’ चिल्ला रहे हैं। वे युद्ध शब्द का इस्तेमाल जुमले के तौर पर नहीं, बल्कि सचमुच के युद्ध के लिए ही कर रहे हैं। लेकिन अगर वास्तव में यह युद्ध ही होता तो इसके लिए अमरीका से ज्यादा बेहतर तैयारी किसकी होती? अगर अगले मोर्चे पर लड़ रहे सिपाहियों के लिए मास्कों और दस्तानों की जगह बंदूकों, स्मार्ट बमों, बंकर-ध्वंसकों, पनडुब्बियों, लड़ाकू विमानों और परमाणु बमों की जरूरत होती तो क्या उनका अभाव होता? 

न्यूयार्क कोरोना का नया हॉटस्पाट बन गया है

दुनिया भर में हम में से कुछ लोग रात-दर-रात न्यूयॉर्क के गवर्नर के प्रेस बयानों को ऐसी उत्सुकता के साथ देखते हैं जिसकी व्याख्या करना मुश्किल है। हम आंकड़े देखते हैं और उन अमरीकी अस्पतालों की कहानियां सुन रहे हैं जो रोगियों से पटे हुए हैं, जहां कम वेतन और बहुत ज्यादा काम से त्रस्त नर्सें कूड़ेदानों में इस्तेमाल होने वाले कपड़ों और पुराने रेनकोटों से मास्क बनाने को मजबूर हैं ताकि हर तरह के जोखिम उठा कर भी रोगियों को कुछ राहत दे सकें, जहां राज्य वेंटिलेटरों की खरीद के लिए एक दूसरे के खिलाफ बोली लगा रहे हैं, जहां डॉक्टर इस दुविधा में हैं कि किस रोगी की जान बचाएं और किसे मरने के लिए छोड़ दें! और फिर हम सोचने लगते हैं, “हे भगवान! यही अमरीका है!”

यह एक तात्कालिक, वास्तविक और विराट त्रासदी है जो हमारी आंखों के सामने घटित हो रही है। लेकिन यह नई नहीं है। यह उसी ट्रेन का मलबा है जो वर्षों से पटरी से उतर चुकी है और घिसट रही है। “रोगियों को बाहर फेंक देने” वाली वे वीडियो क्लिपें किसे याद नहीं हैं जिनमें अस्पताल के गाउन में ही रोगियों को, जिनके नितंब तक उघाड़ थे, अस्पतालों ने चुपके से कूड़े की तरह सड़कों पर फेंक दिया था। कम सौभाग्यशाली अमरीकी नागरिकों के लिए अस्पतालों के दरवाज़े ज्यादातर बंद ही रहे हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कितने बीमार हैं, या उन्होंने कितना दुःख झेला है।

कम से कम अब तक नहीं फर्क पड़ता रहा है, क्योंकि अब, इस विषाणु के दौर में एक ग़रीब इंसान की बीमारी एक अमीर समाज के स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर सकती है। और अभी भी, सीनेटर बर्नी सैंडर्स, जो सबके लिए स्वास्थ्य के पक्ष में अनवरत अभियान चलाते रहे हैं, उन्हें व्हाइट हाउस के लिए प्रत्याशी बनाने के मामले में उनकी अपनी पार्टी ही पराया मान रही है।

और मेरे देश की हालत क्या है? मेरा ग़रीब अमीर देश भारत, जो सामंतवाद और धार्मिक कट्टरवाद, जातिवाद और पूंजीवाद के बीच कहीं झूल रहा है और जिस पर अति दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादियों का शासन है, उसकी हालत क्या है? दिसंबर में, जब चीन वुहान में इस विषाणु के विस्फोट से जूझ रहा था, उस समय भारत सरकार अपने उन लाखों नागरिकों के व्यापक विद्रोह से निपट रही थी जो उसके द्वारा हाल ही में संसद में पारित किए गए बेशर्मी पूर्वक भेदभाव करने वाले मुस्लिम-विरोधी नागरिकता क़ानून के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे।

गुजरात के मोटेरा स्टेडियम में ट्रंप का स्वागत करते मोदी

भारत में कोविड-19 का पहला मामला 30 जनवरी को आया था, भारतीय गणतंत्र दिवस की परेड के सम्माननीय मुख्य अतिथि, अमेजन के वन-भक्षक और कोविड के अस्तित्व को नकारने वाले जायर बोल्सोनारो के दिल्ली छोड़ने के कुछ ही दिनों बाद। लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी की समय-सारिणी में ऐसा बहुत कुछ था जो इस विषाणु से निपटने से ज्यादा जरूरी था। फरवरी के अंतिम सप्ताह में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की सरकारी यात्रा तय थी। उन्हें गुजरात के एक स्टेडियम में एक लाख लोगों को जुटाने का प्रलोभन दिया गया था। इस सब में काफी धन और समय जाया हुआ।

फिर दिल्ली विधानसभा चुनाव भी थे, जिसमें भारतीय जनता पार्टी अगर अपना खेल नहीं खेलती तो हारना निश्चित था, अतः उसने खेला। उसने एक बिना किसी रोक-टोक वाला कुटिल हिंदू राष्ट्रवादी अभियान छेड़ दिया, जो शारीरिक हिंसा और “गद्दारों” को गोली मारने की धमकियों से भरा था।

खैर पार्टी वैसे भी चुनाव हार गई। तो फिर इस अपमान के लिए जिम्मेदार ठहराए गए दिल्ली के मुसलमानों के लिए एक सजा तय की गई थी। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंदू उपद्रवियों के हथियारबंद गिरोहों ने पुलिस के संरक्षण में अपने पास-पड़ोस के मुस्लिम-बहुल मजदूर-वर्ग के घरों पर हमला बोल दिया। मकानें, दुकानें, मस्ज़िदें और स्कूल जला दिए गए। जिन मुसलमानों को इस हमले की आशंका थी, उन्होंने मुकाबला किया। 50 से ज्यादा लोग, मुसलमान और कुछ हिंदू मारे गए।

हजारों लोग स्थानीय कब्रिस्तानों में स्थित शरणार्थी शिविरों में चले गए। जिस समय सरकारी अधिकारियों ने कोविड-19 पर अपनी पहली बैठक की और अधिकांश भारतीयों ने जब पहली बार हैंड सैनिटाइज जैसी किसी चीज के अस्तित्व के बारे में सुना तब भी गंदे, बदबूदार नालों से विकृत लाशें निकाली जा रही थीं।

दिल्ली दंगे के दौरान अपने मृत पिता के पास एक बच्चा

मार्च का महीना भी व्यस्तता भरा था। शुरुआती दो हफ्ते तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिराने और उसकी जगह भाजपा की सरकार बनाने में समर्पित कर दिए गए। 11 मार्च को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने घोषित किया कि कोविड-19 एक वैश्विक महामारी है। इसके दो दिन बाद भी 13 मार्च को स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि कोरोना “कोई आपातकालीन स्वास्थ्य खतरा नहीं है।”

आखिरकार 19 मार्च को भारतीय प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को संबोधित किया। उन्होंने ज्यादा होमवर्क नहीं किया था। उन्होंने फ्रांस और इटली से कार्य योजना उधार ले लिया था। उन्होंने हमें “सोशल डिस्टेंसिंग” की जरूरत के बारे में बताया (जाति-व्यवस्था में इतनी गहराई तक फंसे हुए एक समाज के लिए यह समझना काफी आसान था), और 22 मार्च को एक दिन के “जनता कर्फ्यू” का आह्वान किया। संकट के इस समय में सरकार क्या करने जा रही है इसके बारे में उन्होंने कुछ नहीं बताया। लेकिन उन्होंने स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को सलामी देने के लिए लोगों को अपनी बालकनियों में आकर ताली, थाली और घंटी वगैरह बजाने का आह्वान किया।

उन्होंने यह उल्लेख नहीं किया कि भारतीय स्वास्थ्य कर्मचारियों और अस्पतालों के लिए आवश्यक सुरक्षात्मक उपकरण और श्वसन उपकरण बचा कर रखने की जगह भारत उस समय भी इन चीजों का निर्यात कर रहा था।

पीएम मोदी का राष्ट्र के नाम संबोधन

आश्चर्य की बात नहीं कि नरेंद्र मोदी के अनुरोध को बहुत उत्साह के साथ पूरा किया गया। थाली बजाते हुए, जुलूस निकाले गए, सामुदायिक नृत्य और फेरियां निकाली गईं। कोई सोशल डिस्टेंसिंग नहीं। बाद के दिनों में लोगों ने गोबर भरी टंकियों में छलांग लगाई और भाजपा समर्थकों ने गोमूत्र पीने की पार्टियां आयोजित कीं। कई मुस्लिम संगठन भी इसमें पीछे नहीं रहे, उन्होंने घोषणा किया कि इस विषाणु का जवाब है सर्वशक्तिमान अल्लाह और उन्होंने आस्थावान लोगों को बड़ी संख्या में मस्ज़िदों में इकट्ठा होने का आह्वान किया। 24 मार्च को  रात 8 बजे  मोदी टीवी पर फिर से यह घोषणा करने के लिए दिखाई दिए कि  आधी रात से पूरे भारत में लॉक डाउन होगा। बाजार बंद हो जाएंगे। सार्वजनिक और निजी सभी परिवहन बंद कर दिए जाएंगे।

उन्होंने कहा कि यह फैसला वे सिर्फ एक प्रधानमंत्री के रूप में नहीं, बल्कि हमारे परिवार के बुजुर्ग के रूप में ले रहे हैं। राज्य सरकारों से सलाह लिए बिना, जिन्हें इस फैसले के नतीजों से निपटना था, दूसरा कौन यह फैसला कर सकता है कि 138 करोड़ लोगों को, बिना किसी तैयारी के, महज चार घंटे के नोटिस के साथ लॉक डाउन कर दिया जाए? उनके तरीके निश्चित रूप से यह धारणा देते हैं कि भारत के प्रधान मंत्री नागरिकों को शत्रुतापूर्ण शक्ति के रूप में देखते हैं, जिन पर घात लगा कर हमला करने, उन्हें हैरत में डाल देने की जरूरत है, लेकिन कभी भी उन्हें विश्वास में लेने की जरूरत नहीं है।

लॉकडाउन में हम थे। अनेक स्वास्थ्य पेशेवरों और महामारी विज्ञानियों ने इस कदम की सराहना की है। शायद वे सिद्धांततः सही हैं। लेकिन निश्चित रूप से उनमें से कोई भी उस अनर्थकारी योजना-हीनता और किसी तैयारी के अभाव का समर्थन नहीं कर सकता जिसने दुनिया के सबसे बड़े, सबसे दंडात्मक लॉक डाउन को इसके मकसद के बिल्कुल खिलाफ बना दिया।

जैसा कि दुनिया ने स्तब्ध होकर देखा, भारत ने अपनी सारी शर्म के बीच अपनी क्रूर, संरचनात्मक, सामाजिक और आर्थिक असमानता और पीड़ा के प्रति अपनी निष्ठुर उदासीनता को प्रकट कर दिया।

लॉक डाउन ने एक रासायनिक प्रयोग की तरह काम किया जिसने अचानक छिपी चीजों को रोशन कर दिया। जैसे ही दुकानें, रेस्तरां , कारखाने और निर्माण उद्योग बंद हुए, जैसे ही धनी और मध्यम वर्गों ने खुद को सुरक्षित कॉलोनियों में बंद कर लिया, हमारे शहरों और महानगरों ने अपने कामकाजी वर्ग के नागरिकों – अपने प्रवासी श्रमिकों – को बिल्कुल अवांछित उत्पाद की तरह बाहर निकालना शुरू कर दिया।

अपने नियोक्ताओं और मकान मालिकों द्वारा बाहर निकाल दिए गए ढेरों लोग, लाखों गरीब, भूखे, प्यासे लोग, युवा और बूढ़े, पुरुष, महिलाएं, बच्चे, बीमार लोग, अंधे लोग, विकलांग लोग, जिनके पास जाने के लिए कोई ठिकाना नहीं था, कोई सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध नहीं था, उन्होंने सुदूर अपने गाँवों के लिए पैदल ही चलना शुरू कर दिया। वे सैकड़ों किलोमीटर दूर बदायूं, आगरा, आज़मगढ़, अलीगढ़, लखनऊ, गोरखपुर के लिए कई-कई दिनों तक चलते रहे। कुछ ने तो रास्ते में ही दम तोड़ दिया।

उन्हें पता था कि वे अपनी भुखमरी की गति को धीमी करने की संभावना में अपने घर की ओर जा रहे हैं। वे यह भी जानते थे कि शायद वे अपने साथ यह विषाणु भी ले जा रहे हों, और घर पर अपने परिवारों, अपने माता-पिता और दादा-दादी को संक्रमित भी कर दें, फिर भी, उन्हें रत्ती भर ही सही, परिचित माहौल, आश्रय और गरिमा के साथ ही प्यार न सही भोजन की सख्त जरूरत थी।

पलायन कर गाँवों की ओर जाते लोग

जब उन्होंने चलना शुरू किया तो काफी लोगों को पुलिस ने बेरहमी से पीटा और अपमानित किया क्योंकि पुलिस पर कर्फ्यू को सख्ती से लागू करने की जिम्मेदारी थी। युवकों को राजमार्गों पर झुकने और मेढक की तरह उछल कर चलने को मजबूर किया गया। बरेली शहर के बाहर एक समूह को झुंड में बैठा कर उन पर कीटनाशक का छिड़काव किया गया।

कुछ दिनों बाद, इस चिंता में कि पलायन कर रहे लोग गांवों में भी विषाणु फैला देंगे, सरकार ने पैदल चलने वालों के लिए भी राज्यों की सीमाओं को सील करा दिया। कई दिनों से पैदल चल रहे लोगों को रोक कर वापस उन्हीं शहरों के शिविरों में लौटने को मजबूर कर दिया गया जहां से तुरंत ही उन्हें निकलने को मजबूर किया गया था।

पुराने लोगों के लिए 1947 के विस्थापन की स्मृतियां ताजा हो गईं जब भारत विभाजित हुआ था और पाकिस्तान का जन्म हुआ था। इतनी तुलना के अलावा यह निष्कासन वर्ग-विभाजन से संचालित था, धर्म से नहीं। इस सबके बावजूद भी ये भारत के सबसे गरीब लोग नहीं थे। ये वे लोग थे, जिनके पास (कम से कम अब तक) शहरों में काम था और लौटने के लिए घर थे। बेरोजगार लोग, बेघर लोग और निराश लोग शहरों और देहात में जहाँ थे वहीं पड़े हुए थे, जहां इस त्रासदी से काफी पहले से गहरा संकट बढ़ रहा था। इन भयावह दिनों के दौरान भी गृह मंत्री अमित शाह सार्वजनिक परिदृश्य से अनुपस्थित रहे।

जब दिल्ली से पलायन शुरू हुआ तो मैंने एक पत्रिका, जिसके लिए मैं अक्सर लिखती हूं, उसके प्रेस पास का इस्तेमाल करके मैं गाजीपुर गई, जो दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सीमा पर है।

विराट जन सैलाब था। जैसा कि बाइबिल में वर्णित है। या शायद नहीं, क्योंकि बाइबिल ऐसी संख्याओं को नहीं जान सकती थी। शारीरिक दूरी बनाने के मकसद से लागू किया गया लॉकडाउन अपने विपरीत में बदल चुका था। अकल्पनीय पैमाने की शारीरिक नजदीकी थी। भारत के शहरों और क़स्बों का भी सच यही है। मुख्य सड़कें हो सकता है खाली हों लेकिन गरीब लोग मलिन बस्तियों और झोपड़पट्टियों की तंग कोठरियों में ठुंसे पड़े हैं।

वहां जिससे भी मैंने बात की सभी विषाणु से चिंतित थे। फिर भी उनके जीवन पर मंडरा रही बेरोजगारी, भुखमरी और पुलिस की हिंसा की तुलना में यह कम वास्तविक था, और कम मौजूद था। उस दिन मैंने जितने लोगों से बात की थी, उनमें मुस्लिम दर्जियों का एक समूह भी शामिल था, जो कुछ सप्ताह पहले ही मुस्लिम विरोधी हमलों से बच गया था, उनमें से एक व्यक्ति के शब्दों ने मुझे विशेष रूप से परेशान कर दिया। वह राम जीत नाम का एक बढ़ई था, जिसने नेपाल की सीमा के पास गोरखपुर तक पैदल जाने की योजना बनाई थी।

उसने कहा, “शायद जब मोदी जी ने ऐसा करने का फैसला किया, तो किसी ने उन्हें हमारे बारे में नहीं बताया होगा। शायद वह हमारे बारे में न जानते हों।” “हम” का अर्थ है लगभग 46 करोड़ लोग।

इस संकट में भारत की राज्य सरकारों ने (अमेरिका की ही तरह) बड़ा दिल और समझ दिखाई है। ट्रेड यूनियनें, निजी तौर पर नागरिक और अन्य समूह भोजन और आपातकालीन राशन वितरित कर रहे हैं। केंद्र सरकार राहत के लिए उनकी बेकरार अपीलों का जवाब देने में धीमी रही है। यह पता चला है कि प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय राहत कोष में कोई नकदी उपलब्ध नहीं है। इसकी बजाय, शुभचिंतकों का पैसा कुछ हद तक रहस्यमय नए पीएम-केयर फंड में डाला जा रहा है। मोदी के चेहरे वाले भोजन के पैकेट दिखने शुरू हो गए हैं।

इसके अलावा प्रधानमंत्री ने अपनी योग-निद्रा की वीडियो क्लिपें शेयर की हैं, जिनमें बदले रूप में ऐनिमेटेड मोदी एक स्वप्न शरीर के साथ योगासन करके दिखा रहे हैं ताकि लोग स्व-अलगाव के दौरान अपने तनावों को कम कर सकें। यह आत्ममोह बहुत परेशान करने वाला है। संभवतः उनमें एक आसन अनुरोध-आसन भी हो सकता था जिसमें मोदी फ्रांस के प्रधान मंत्री से अनुरोध करते कि हमें उस तकलीफ देह राफेल लड़ाकू विमान सौदे से बाहर निकलने की अनुमति दें ताकि 78 लाख यूरो की उस रक़म को हम अति आवश्यक आपातकालीन उपायों में इस्तेमाल कर सकें जिससे कई लाख भूखे लोगों की मदद की जा सके। निश्चित रूप से फ्रांस इसे समझेगा।

लॉक डाउन के दूसरे सप्ताह में पहुंचने तक सप्लाई चेनें टूट चुकी हैं, दवाओं और आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति कमजोर पड़ चुकी है। हजारों ट्रक ड्राइवर राजमार्गों पर अब भी असहाय फंसे हुए हैं, जिनके पास न खाना है न पानी है। कटाई के लिए तैयार खड़ी फसलें धीरे-धीरे खराब होने लगी हैं। 

आर्थिक संकट है ही। राजनीतिक संकट भी जारी है। मुख्यधारा के मीडिया ने अपने 24/7 चलने वाले जहरीले मुस्लिम विरोधी अभियान में कोविड की कहानी को भी शामिल कर लिया है। तबलीगी जमात नामक एक संगठन, जिसने लॉक डाउन की घोषणा से पहले दिल्ली में एक बैठक आयोजित की थी, एक “सुपर स्प्रेडर” निकला है। इसका उपयोग मुसलमानों को कलंकित करने और उन्हें बदनाम करने के लिए किया जा रहा है। समग्र स्वर ऐसा है जैसे कि मुसलमानों ने ही इस विषाणु का आविष्कार किया और इसे जानबूझकर जिहाद के रूप में फैलाया है।

निज़ामुद्दीन में तब्लीगी जमात से जुड़े लोग

अभी कोविड का संकट आना बाकी है, या नहीं, हम नहीं जानते। यदि और जब ऐसा होता है, तो हम सुनिश्चित हो सकते हैं कि धर्म, जाति और वर्ग के सभी प्रचलित पूर्वाग्रहों के साथ ही इससे निपटा जा सकेगा।

आज 2 अप्रैल तक भारत में लगभग 2000 संक्रमणों की पुष्टि हो चुकी है और 58 मौतें हो चुकी हैं। खेदजनक ढंग से बहुत कम परीक्षणों के कारण इन संख्याओं पर विश्वास नहीं किया जा सकता। विशेषज्ञों की राय में आपस में बहुत अंतर है। कुछ लाखों मामलों की भविष्यवाणी करते हैं। तो दूसरों को लगता है कि इसका असर काफी कम होगा। हम इस संकट के वास्तविक रूप को कभी नहीं जान पाएंगे, भले ही हम भी इसकी चपेट में आ जाएं। हम सभी जानते हैं कि अस्पतालों पर अभी तक काम शुरू नहीं हुआ है।

भारत के सार्वजनिक अस्पतालों और क्लिनिकों में हर साल 10 लाख बच्चों को डायरिया, कुपोषण और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं से बचाने की क्षमता नहीं है, जिसके कारण वे मर जाते हैं। यहां लाखों टीबी के मरीज (विश्व का एक चौथाई) हैं। यहां भारी संख्या में लोग रक्ताल्पता और कुपोषण से ग्रस्त हैं जिसके कारण कोई भी मामूली बीमारी उनके लिए प्राणघातक साबित हो जाती है। जिस तरह के विषाणु संकट से अमरीका और यूरोप जूझ रहे हैं, उस पैमाने के संकट को संभालने की कूवत हमारे सार्वजनिक क्षेत्र के अस्पतालों और क्लिनिकों में नहीं है।

चूंकि अस्पताल कोरोना से निपटने में लगा दिए गए हैं, अतः इस समय कमोबेश सभी स्वास्थ्य-सेवाएं स्थगित कर दी गई हैं। दिल्ली में एम्स (AIIMS) का प्रसिद्ध ट्रॉमा सेंटर बंद कर दिया गया है। सैकड़ों कैंसर रोगी, जिन्हें कैंसर शरणार्थी कहा जाता है, और जो उस विशाल अस्पताल के बाहर की सड़कों पर ही रहते हैं, उन्हें मवेशियों की तरह खदेड़ दिया गया है।

लोग बीमार पड़ जाएंगे और घर पर ही मर जाएंगे। हम उनकी कहानियों को कभी जान भी नहीं पाएंगे। हो सकता है कि वे आंकड़ों में भी कभी न आ पाएं। हम केवल यह आशा कर सकते हैं कि इस विषाणु को ठंडा मौसम पसंद है, ऐसे अध्ययन सही हों (हालांकि अन्य शोधकर्ताओं ने इस पर संदेह व्यक्त किया है)। भारतीय लोगों ने इससे पहले कभी इतने अतार्किक ढंग से और इतनी तीव्र लालसा के साथ भारत के जला डालने वाले और परेशान कर देने वाले गर्मी के मौसम का इंतजार नहीं किया है। 

हमारे साथ यह क्या घटित हुआ है? यह एक विषाणु है। हां है, तो? इतनी सी बात में तो कोई नैतिक ज्ञान नहीं निहित है। लेकिन निश्चित रूप से यह विषाणु से कुछ ज्यादा है। कुछ लोगों का मानना है कि यह हमें होश में लाने का ईश्वर का तरीक़ा है। दूसरों का कहना है कि यह दुनिया पर क़ब्जा करने का चीन का षड्यंत्र है। चाहे जो हो, कोरोना विषाणु ने शक्तिशाली को घुटने टेकने को मजबूर कर दिया है और दुनिया को एक ऐसे ठहराव पर ला खड़ा किया है जैसा इससे पहले कोई चीज नहीं कर सकी थी। 

हमारे मस्तिष्क अभी भी आगे-पीछे दौड़ लगा रहे हैं और “सामान्य स्थिति” में आने के लिए लालायित हैं, और भविष्य को अतीत के साथ रफू करने की कोशिश में लगे हैं ताकि बीच की दरार का संज्ञान लेने से अस्वीकार कर दें। लेकिन यह दरार अस्तित्वमान है। और इस घोर हताशा के बीच ही यह हमें एक अवसर मुहैय्या कराती है कि हमने अपने लिए जो यह विनाशकारी मशीन बनाई है, उस पर पुनर्विचार कर सकें। सामान्य स्थिति में लौटने से ज्यादा बुरा कुछ और नहीं हो सकता।

ऐतिहासिक रूप से, वैश्विक महामारियों ने इंसानों को हमेशा अतीत से विच्छेद करने और अपने लिए एक बिल्कुल नई दुनिया की कल्पना करने को बाध्य किया है। यह महामारी भी वैसी ही है। यह एक दुनिया और अगली दुनिया के बीच का मार्ग है, प्रवेश-द्वार है। हम चाहें तो अपने पूर्वाग्रहों और नफरतों, अपनी लोलुपता, अपने डेटा बैंकों और मृत विचारों, अपनी मृत नदियों और धुंआ-भरे आसमानों की लाशों को अपने पीछे-पीछे घसीटते हुए इसमें प्रवेश कर सकते हैं। या हम हल्के-फुल्के अंदाज से बिना अतीत का कोई बोझ ढोए एक नई दुनिया की कल्पना और उसके लिए संघर्ष की तैयारी कर सकते हैं।

 

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कैसे और क्यों बनी भारतीय जनता पार्टी...यह तो जानना ही चाहिए आपको ?

प्रेमकुमार मणि 

6 अप्रैल भारतीय जनता पार्टी का स्थापना दिवस है. वर्ष 1980 में इसी रोज इसकी स्थापना की गयी थी. दरअसल भारतीय जनता पार्टी एक पुरानी दक्षिणपंथी पार्टी भारतीय जनसंघ का पुनरावतार है . दूसरी दफा जन्मी हुई पार्टी . इस रूप में यह शब्दशः द्विज (ट्वाइस बोर्न ) पार्टी  है  . 

पहले  मातृ - पार्टी के उद्भव की परिस्थितियों और मिजाज को जान लेना चाहिए . उससे पुत्री पार्टी का मिजाज जानने में सहूलियत होगी. भारतीय जनसंघ की स्थापना 21 अक्टूबर 1951 को हुई थी ,और इसके  संस्थापक अध्यक्ष महान शिक्षाविद, स्वतंत्रता सेनानी और हिन्दू महासभा नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी  थे .

स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरत बाद वैचारिक स्तर पर दलों के पृथक संगठन बनने आरम्भ हो गए थे . हालांकि वैचारिक फोरम और मंचों का बनना स्वतंत्रता संघर्ष के दरम्यान ही हो गया था . मुस्लिम लीग,हिन्दू महासभा ,आरएसएस ,साम्यवादी दल , कांग्रेस  सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी ), फॉरवर्ड ब्लॉक आदि 1940  के पहले ही बन चुके थे . 1948 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी )  से जुड़े हुए समाजवादी  जन , जो कांग्रेस में ही थे अलग हो गए . इनलोगों ने अपनी  सोशलिस्ट पार्टी बना ली . इनके बारह लोग संविधान सभा के सदस्य थे . उन लोगों  ने इकट्ठे धारासभा से  इस्तीफा कर दिया . उपचुनाव में  कोई भी पुनः चुन कर नहीं आ सका . कांग्रेस के भीतर दक्षिणपंथियों का बोलबाला था ,हालाकि गांधीजी के हस्तक्षेप से समाजवादी तबियत के जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे . आचार्य नरेन्द्रदेव ने अपने लेख " हमने कांग्रेस  क्यों छोड़ी ? " में उन स्थितियों का विवेचन किया है और यह स्वीकार किया है कि नेहरू के साथ हमारी हमदर्दी है ,लेकिन कांग्रेस  के साथ होने का अब कोई मतलब इसलिए नहीं रह गया है कि नेहरू दक्षिणपंथियों के दबाव में कुछ भी समाजवादी कदम नहीं उठा सकते ;और हम समाजवादी उद्देश्यों को छोड़ नहीं सकते .  यह बात सही भी थी . तब कांग्रेस के भीतर  दक्षिणपंथियों के मुखर और दबंग नेता सरदार पटेल थे . डॉ  राजेंद्र प्रसाद  जैसे  दक्षिणपंथी  लोग , जिन्होंने  सरकार  में ओहदे पा लिए थे ,  तो  मौन  साधे रहे ; लेकिन  कन्हैया माणिकलाल मुंशी , डॉ   रघुवीर , द्वारिकाप्रसाद  मिश्रा जैसे नेता  ,

जो पटेल के नेतृत्व में सक्रिय थे , 1950 में उनके निधन के बाद अचानक खुद को  अनाथ महसूस करने लगे  थे . राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर गांधीजी की हत्या के बाद कुछ समय केलिए  प्रतिबंध लगा हुआ था .संघ से जुड़े लोग भी एक राजनीतिक फ्रंट के निर्माण केलिए व्याकुल थे ,ताकि उनके  राजनैतिक स्टैंड का प्रकटीकरण हो .  हिंदी क्षेत्र में  जो हिंदुत्ववादी ताकतें थी ,उनका एक अलग व्याकरण था . 1946  में हिंदूमहासभा नेता मदन मोहन मालवीय की मृत्यु  हो गयी . इसके साथ ही महासभा का सुधारवादी पक्ष हमेशा के लिए ख़त्म हो गया . अब इस महासभा पर बंगाली हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व करने वाले श्यामाप्रसाद मुखर्जी  प्रभावी हुए  और वह इसके अध्यक्ष बने . श्यामाप्रसाद जी विद्वान थे . बहुत कम उम्र में उनने कलकत्ता विश्वविद्यालय का उपकुलपति पद हासिल  किया था . उनकी बौद्धिक क्षमता का सब लोहा मानते थे .नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल में भी उन्हें शामिल किया था .  उनका व्यक्तित्व जटिल तत्वों से निर्मित था ;मसलन  उन पर बंगला नवजागरण के साथ , बंगाल में काम कर रहे अनुशीलनसमिति  का भी गहरा असर था ,जो कि एक समय आतंकवादी संगठन था . बंगाल में  हिंदुत्व का अर्थ था , थोड़ा -सा मुस्लिम विरोध और महाराष्ट्र में हिंदुत्व का अर्थ था, प्रच्छन्न तौर  पर बहुजन -शूद्र विरोध . दोनों की अलग पृष्ठभूमि है ,और कतिपय अंतर्विरोध भी थे , जिसकी विवेचना में जाने का अर्थ विषयांतर होना होगा  .

हिंदी क्षेत्र में हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व मालवीय जी कर रहे थे ,जो कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके थे . मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय स्थापित कर बता दिया था कि उनके हिंदुत्व का एजेंडा कुछ अलग है . मालवीय जी हिन्दुओं के बीच ज्ञान- क्रांति लाने और छुआछुत ख़त्म करने केलिए प्रयत्नशील रहे थे . उनकी मृत्यु के बाद हिंदुत्व का यह सुधारवादी पक्ष हमेशा  केलिए सो गया . 

इसके बाद जो परिस्थितियां  बनीं ,उसमे इस पूरी विचारधारा का संघनन  आरम्भ हुआ .महाराष्ट्रीय हिंदुत्व जिसका प्रतिनिधित्व आरएसएस कर रहा था  और शेष  हिंदुत्व जिसका नेतृत्व हिंदूमहासभा के रूप में श्यामाप्रसाद मुखर्जी कर रहे थे , एक साथ  हुए . इसी का संघटन 21 अक्टूबर 1951  को भारतीय जनसंघ के रूप में हुआ . श्यामाप्रसाद मुखर्जी इसके संस्थापक अध्यक्ष  बने . अटल बिहारी  वाजपेयी उनके प्राइवेट सेक्रेटरी हुआ करते थे . मुखर्जी के अध्यक्ष बनने के साथ ही कांग्रेस के द्वारिकाप्रसाद मिश्रा बिदक गए . वह स्वयं अध्यक्ष बनना चाहते थे . अब वह और उनके अनुयायी कांग्रेस में ही रुक गए . (कहते हैं इसी द्वारका प्रसाद  ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनवाने में चाणक्य जैसी भूमिका निभाई .  . ) लेकिन मुंशी और रघुवीर जैसे लोग जनसंघ से जुड़े . मुखर्जी ने बंगला हिंदुत्व में अन्तर्निहित नवजागरण के वैचारिक अवयवों से शेष हिंदुत्व को मंडित करने का प्रयास आरम्भ ही किया था कि उनका 1953 में अचानक निधन हो गया . अब जनसंघ का मतलब था आरएसएस का राजनैतिक मंच . हालांकि अपने स्थापना काल में आरएसएस गौण शक्ति के रूप में था . श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मेधा के सामने आरएसएस का कोई नेता टिक नहीं सकता था . मुखर्जी संघियों की बहुत परवाह भी नहीं करते थे . 

इसलिए यह केवल मिथ है कि जनसंघ की स्थापना आरएसएस से जुड़े लोगों की है . वास्तविकता है कि इसकी स्थापना में उनके बनिस्पत कांग्रेसियों के एक बड़े समूह का अधिक  हाथ था . यह अलग बात है कि वे अपना कोई वैचारिक वर्चस्व नहीं बना सके . दरअसल उनकी कोई विचारधारा थी भी नहीं. नेहरू ने अपनी आत्मकथा में कांग्रेके इस समूह को 1936 में ही चिन्हित कर लिया था . 

भारतीय जनसंघ को दूसरी दफा एक वैचारिक आवेग देने की कोशिश इसके एक अल्पकालिक अध्यक्ष दीनदयाल  उपाध्याय  ने की . उन्होंने  उन वैचारिक आवेगों से पार्टी को जोड़ने की कोशिश की जिनका प्रतिनिधित्व मालवीय जी करते थे . दीनदयाल आरएसएस से जुड़े थे ,लेकिन उनके संस्कारों पर मालवीय जी का प्रभाव परिलक्षित होता है . यह शायद उन पर हिंदी क्षेत्र के होने का प्रभाव था . एकात्म मानववाद के उनके फलसफे पर संघ का प्रभाव कम दिख पड़ता  है . लेकिन दीनदयाल जी कुल 44 रोज ही अध्यक्ष रह सके . उन्हें मौत के घाट  उतार दिया गया . संदिग्ध स्थितियों में मुगलसराय रेलवे स्टेशन के पास उनकी लाश मिली . उनकी हत्या के लिए पार्टी के पूर्व अध्यक्ष बलराज  मधोक  ने अपनी पार्टी के शीर्ष नेता पर ऊँगली उठायी . सब जानते हैं कि वह नेता कौन था . एक दूसरे की हत्या ,पैर खींचना ,अपमानित करना इस पार्टी का पुराना चरित्र रहा है . फिलहाल आडवाणीजी  इसके उदाहरण हैं .  

अटल -आडवाणी के नेतृत्व में 1970  के दशक में यह पार्टी काम करती रही . 1977 में विशेष तत्कालीन परिस्थितियों  में  भारतीय जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया . उस वक़्त की परिस्थितियों और जनता पार्टी के कोहराम से सब लोग परिचित हैं . पार्टी में पूर्व जनसंघी सदस्यों के आरएसएस से जुड़ाव के प्रश्न पर अंतरकलह हुआ . इसे दोहरी सदस्यता  का मुद्दा कहा जाता है . कोई भी जनता पार्टी सदस्य , क्या आरएसएस का भी सदस्य रह सकता है ? यही सवाल था . यह सवाल उन सोशलिस्टों ने उठाया था जो स्वतंत्रता आंदोलन के समय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और कांग्रेस के सदस्य एक साथ हुआ करते  थे और इसका औचित्य भी बतलाते थे . उस वक़्त इस विचार का नेतृत्व मधु लिमये और रघु  ठाकुर कर रहे थे .  

रस्साकशी होते जनता पार्टी की सरकार गिर गयी .मध्यावधि चुनाव हुए और कांग्रेस की वापसी हुई . जनता पार्टी बिखर गयी . चुनाव के तुरंत बाद 6 अप्रैल 1980 को पुराने जनसंघियों  का जुटान हुआ और नयी पार्टी बनी - भारतीय जनता पार्टी . दरअसल जनता पार्टी में केवल ' भारतीय ' जोड़ लिया गया था . अटल बिहारी वाजपेयी संस्थापक अध्यक्ष बने .सोशलिस्टों के साथ रहने का कुछ प्रभाव शेष रह गया था . इसलिए इस नयी  पार्टी ने गांधीवादी समाजवाद की विचारधारा भी घोषित की . हालांकि कुछ ही समय बाद उसपर चुप्पी साध ली गयी . आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा ने आरएसएस के द्वारा प्रतिपादित हिंदुत्व को अपनी विचारधारा बना लिया . श्यामाप्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल के फोटो जरूर रह गए ,लेकिन उनकी विचार धारणाओं का  दफन कर दिया गया . 

1984 का लोकसभा  चुनाव भारतीय जनता पार्टी का पहला चुनाव था . इस में पार्टी की बुरी तरह पराजय हुई . इंदिरा गाँधी की हत्या से उपजी परिस्थितियों के कारण उसे मात्र दो सीटें मिल सकीं . पार्टी में नैराश्य का  एक भाव आया . गाँधीवादी समाजवाद का  चोगा फेंक कर पार्टी एक बार फिर धुर सांप्रदायिक राजनीति की ओर लौटी . पंजाब में भिंडरावाले की सांप्रदायिक राजनीति  को जाने -अनजाने इसने आत्मसात किया . संघ के एक दस्ते विश्व हिन्दू परिषद ने रामजन्मभूमि मामले को लेकर आंदोलन आरम्भ किया और  पूरी पार्टी प्राणपण से इसमें शामिल हो गयी . अटल पीछे पड़े और आडवाणी आगे हो गए . 

1989 के चुनाव में उसने 85 सीटें हासिल कर ली . उसके बाद उसका ग्राफ बढ़ता  गया . 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस कर देने के बाद पांच राज्यों में उसकी सरकारें बर्खास्त कर दी गयीं . लेकिन 1996 में तेरह  रोज केलिए ही सही , इन की सरकार बन गयी . हालांकि ,विश्वास मत हासिल करने के पूर्व ही सरकार को अपेक्षित समर्थन के अभाव में इस्तीफा करना पड़ा , जैसे 1979 में चरण सिंह को करना पड़ा था . 1998 में फिर से लोकसभा के चुनाव हुए और भाजपा के नेतृत्व में फिर से केंद्र में सरकार बनी . इस बार फिर तेरह  महीने में सरकार गिर गयी . 1999 में पार्टी फिर से सरकार बनाने में सफल हुई . यह सरकार 2004 के चुनाव तक चली . 

2004 के चुनाव में भाजपा को झटका लगा. इसके कई कारण थे. पार्टी आत्मविश्वास से इतनी लबरेज थी कि उसने तय समय से छह महीने पूर्व ही चुनाव करा लिए . पार्टी सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं हासिल कर सकी . हालांकि कांग्रेस ( 145) से उसे मात्र सात सीटें कम थी . लेकिन वामदलों और सोशलिस्ट दलों के सहयोग से कांग्रेस के नेतृत्व में नयी सरकार बनी. यह भाजपा की हार थी . 

2009 तक अटल बिहारी बुरी तरह अस्वस्थ होकर सामाजिक -राजनैतिक जीवन से सदा के लिए विदा हो गए. आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा ने लोकसभा चुनाव लड़ा . इस बार 2004  के 138 से भी बहुत कम, उसे मात्र 116 सीटें मिली . आडवाणी अब इससे बेहतर शायद नहीं कर सकते हैं ,यह पार्टी ने मान लिया . इसके साथ ही भाजपा में आडवाणी -युग का अंत हो गया . 

2014 तक  नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एक नयी भाजपा का उदय हुआ . मोदी ने हिंदुत्व  के तुरुप को चालाकी से  छुपा कर उस जाति के तुरुप को आगे किया ,जिसे हिंदी पट्टी में लोहियावादी सोशलिस्ट इन दिनों काफी इस्तेमाल कर रहे थे . मोदी ने खुद को चायवाला और पिछड़ी जात -जमात के निरीह नायक के तौर पर पेश किया. परिवारवाद और भ्रष्टाचार में लिप्त हो गयी सोशलिस्ट पार्टियां अब राजनैतिक दल से अधिक एक कम्पनी की तरह काम कर रही थीं . इन पार्टियों में आंतरिक जनतंत्र का पूरी तरह सफाया हो गया ,नतीजतन ये सब वैचारिक बांझपन की भी शिकार हो गयीं . इस कारण  भाजपा के इस नए तेवर को ये झेल नहीं सकीं और बुरी तरह पिटती चली  गयी . कांग्रेस भी इसी बीमारी की शिकार हुई और उसका भी सोशलिस्टों वाला ही  हाल हुआ . अलबत्ता  मार्क्सवादी दल अपने विचारों की अप्रासंगिकता के कारण ख़त्म होने लगे. वर्ष 2014 में पहली बार भाजपा स्पष्ट बहुमत के साथ केंद्र में पहुंची . 2019 के चुनाव में उसने अपनी ताकत और बढाई . अब कई पुराने सोशलिस्ट या तो उनकी झालर बन चुके हैं या फिर विपक्ष में होकर भी दुम  हिलाने के लिए मजबूर हैं .

स्पष्टतया उसने अपना असली एजेंडा अब सामने ला लिया है . इसके साथ ही भारत में एक नए राजनैतिक दौर की शुरुआत हो चुकी है . बहुत संभव है निकट भविष्य में एक राजनैतिक संघनन हो . कांग्रेस ,समाजवादियों और कम्युनिस्टों के अलग -अलग काम करने का अब कोई औचित्य नहीं है . भाजपा की कोशिश है विपक्षी दल कभी एकजुट नहीं हों. 

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राष्ट्रीय एकता के नाम पर अश्लीलता !

देश के प्रख्यात कथाकार मनोज रुपड़ा अपनी बेहद छोटी किंतु महत्वपूर्ण टिप्पणी में बता रहे है कि वे अवसाद में क्यों चले गए ? उनका मानना है कि देश में राष्ट्रीय एकता के नाम पर अश्लीलता हावी है.

कुछ दिनों से ऐसा लग रहा है , जैसे मैं कोई वास्तविक जीवन नहीं जी रहा हूं , बल्कि किसी कहानी में  जी रहा हूं. एक ऐसी फैंटेसी में जो ‘’ अंधेरे में ‘’ से भी ज्यादा भयानक और अकल्पनीय है.

इसमें सिर्फ किसी महामारी के संक्रमण का डर नहीं है, बल्कि समूचे भारतीय समाज के सामूहिक अवचेतन को निगलने का उपक्रम ज्यादा नजर आ रहा है. इतने बड़े पैमाने पर समूहिक मूर्खता का प्रदर्शन  मैंने पहले कभी नहीं देखा था. इतना विवेकहीन जन समूह भी कभी नहीं देखा था.

लेकिन याद रहे कि पहले ताली और थाली बजाने  का और अब दीया–बत्ती जलाने का आव्हान सिर्फ उनके लिए है , जिनके पास छत और बालकनी है. किराए का ही सही पक्का मकान है. छप्पर और टप्पर के नीचे जीने वाले निम्न वर्ग के लिए तो ये आव्हान बिल्कुल भी नहीं है ( दिखावे के लिए उनके लिए, लेकिन वास्तविक रूप में उनके लिए  नहीं )क्योंकि साधारण लोग जो टप्पर और छप्पर के नीचे रहते हैं , वे मनुष्य नहीं , कसाई खाने के पशु हैं. वे केवल तब उपयोगी हो सकते हैं , जब वे सत्ता विरोधी शक्तियों को मुश्किल में डालने के काम में आते हैं. यानी उनका उपयोग चुनाव  में वोट देने जुलूस  या चुनावी जन-सभा में भीड़ बढ़ाने तक सीमित है और जब उनका उपयोग नहीं रह जाता तो उनकी बलि चढ़ा दी जाती है.

दिल्ली से पलायन करते मजदूरों को देखकर यही लगा था कि वे कसाईबाड़े  की तरफ बढ़ते पशु हैं या ऐसे अनुपयोगी जानवर जिन्हें मरने के लिए छोड़ दिया जाता है. 

जिस डरावनी फैंटेसी में मैं जी रहा हूं उसमें एक तरफ सड़क पर भटकती भीड़ है और अपने छप्परों और टप्परों में राशन और खाने के पैकेट की भीख का इंतजार करते लाखों लोग हैं और दूसरी तरफ राष्ट्रीय एकता के नाम पर की जाने वाली अश्लीलता. ये वही स्वयंसेवक हैं जो ताली और थाली बजाने के पर्व में शामिल थे और अब खाने के पेकेट बांट रहे हैं. एक तरफ  ये अश्लील तमाशा और दूसरी तरफ़  सड़क पर भटकते हजारों मजदूर और रातों रात भिखारी बना दिए गए लाखों लोग मेरे दुःस्वप्न में गुथ्थम-गुत्था हो रहे हैं इस गुथ्थ्त्म- गुत्थी से कोई बड़ा सामाजिक विस्फोट हो या न हो, लेकिन व्यक्तिगत रूप से मुझे इस फैटेंसी ने अवसाद में डाल  दिया है.

 

 

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पहले बत्ती बुझानी है या जलानी है... अगर जलानी है तो फिर बुझानी ही क्यों?

रंगकर्मी और फिल्मकार पंकज सुधीर मिश्रा वैसे तो छत्तीसगढ़ के भिलाई के रहने वाले हैं, लेकिन लंबे समय से मुंबई में है. वे विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास नौकर की कमीज पर बनी फिल्म ( निर्देशक मणिकौल ) में काम कर चुके हैं. इसके अलावा रजत कपूर की फिल्म मिथ्या में भी वे थे. इन दिनों वे द कपिल शर्मा शो में क्रियेटिव डायरेक्टर है. यहां प्रस्तुत है उनकी खास टिप्पणी-

पंकज सुधीर मिश्रा

सुबह बड़े उत्साह से उठा...आज प्रकाशउत्सव मनाना है. सोचा तैयारी कर लूं. ढूंढना शुरू किया कि घर पर दिया, तेल, बत्ती, माचिस, मोमबत्ती सब है भी या नहीं. और देखिये कमाल... मेरे घर सब मिल गया. और चीज़ें तो छोड़िए टॉर्च तक निकल आई बताइए भला. जिस मुंबई महानगर में एक मिनट के लिए भी बिजली गुल नहीं होती वहां मैंने टॉर्च खरीद रखी है. मुझे खुद पर हंसी आई की कितना डरता हूं अंधेरे से ! जबकि उस्ताद कहते थे कि अंधेरे से डरना नहीं है... वो उतना ही निर्विकार है जितना उजाला है. रोज़ रात अंधकार होता है फिर रोज़ सुबह उजाला हो जाता है. अंधकार से डरना छोड़ दोगे तो अंधकार के भीतर देखने की दृष्टि पैदा होगी. वे मेरे सिनेमा के उस्ताद थे. 

टॉर्च जल रही थी. दिन के उजाले में टॉर्च को कई बार जलाया बुझाया... फिर बुझाया- जलाया... फिर बुझा दिया और कन्फ्यूज़ हो गया. 

मुझे अब भी समझ में नहीं आ रहा कि पहले बत्ती बुझानी है फिर बत्ती जलानी है? या पहले बत्ती जलानी है फिर बत्ती बुझानी है? जलानी ही है तो फिर बुझानी क्यों है? पहले से जल रही है ? और बुझानी है तो फिर जलानी क्यों है ? 

करना क्या है ?

टॉर्च एक तरफ पड़ी है और सोच रहा हूं कि वो ताली-थाली वाला ही ठीक था. रोज़ कमाने खाने वाले, जिनके घरों में बालकनी-खिड़कियां होती नही हैं और दीया- बत्ती-तेल के पैसे बचे नही हैं, उनके भी खाली पड़े हाथों को थोड़ा काम मिल जाता.  

जो मजदूर किसी तरह अपने घर पहुंच सकें और जो नहीं पहुंच सकें शायद अभी भी रास्तों पर हैं,  और जो खुले आकाश के नीचे बैठे आश्चर्य और निराशा में डूबे सोच रहे हैं कि देश के लोगों की चिंता में और 5 बिलियन वाली महाशक्ति की तैयारी में वे शामिल क्यों नही है ? वे मजदूर भी ताली बजा लेते तो उनकी सदियों की थकान शायद थोड़ी कम हो जाती. 

वे भी जो ना घर पहुंच पाए ना ही रास्तों पर हैं, जो महज़ अपने घर पहुंच पाने की आसभरी यात्रा के बीच किसी और लंबी यात्रा पर निकल गए उनकी आत्माएं भी वहां नर्क के दरवाज़े पर बैठी भूखे पेट ताली बजा ही लेतीं (हमें बताया नहीं था हमारे पूर्वजों ने... भूख से मरने पर मोक्ष नही मिलता )

और हां कुछ बच्चों की आंखें अभी भी कीटनाशक की भीषण जलन महसूस करती होंगी. लाल आंखों वाले वे बच्चे भी ताली पीट के थोड़ी देर के लिए बहल जाएं वैसे ही जैसे देश का मध्यवर्ग भीषण रूप से बहला हुआ है इन दिनों. 

 

 

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