देश
धवलपुर के दंतेश्वरी मंदिर के लिए पक्का रास्ता की मांग
गरियाबंद. गरियाबंद जिले के वनग्राम धवलपुर में दंतेश्वरी माता का एक प्रसिद्ध मंदिर है. श्रद्धालुओं की आस्था है यहां पूजा-अर्चना से जीवन की बहुत सी दिक्कतों का समाधान हो जाता है, लेकिन मंदिर जाने के लिए श्रद्धालुओं को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है. यहां पहुंचने का मार्ग काफी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है. इसके अलावा रास्ता बेहद संकीर्ण यानी सकरा भी है. धवलपुर और उसके आसपास के ग्रामीणों ने शासन-प्रशासन से कई मर्तबा पक्का मार्ग बनाने की मांग की है, लेकिन उनकी मांगों पर विचार नहीं किया गया है. प्रदेश में नई सरकार बनने के बाद एक बार फिर ग्रामीणों ने जिले के जिम्मेदार अधिकारियों से पक्का मार्ग निर्माण करने की अपील की है.
गुम गया है तोता... खोज़ कर लाने वाले को मिलेगा 11 हजार का ईनाम
ऊंची हिल वाली सैंडिल भी बन सकती है जबड़े के जोड़ों में दर्द का कारण
राजधानी रायपुर में जुटे जबड़े के डाक्टर
रायपुर। विटामिन डी की कमी, अनियमित खान-पान, तनावपूर्ण जीवन शैली या अन्य कोई बीमारियां किसी भी व्यक्ति के जबड़ों में दर्द पैदा करने का कारण बन सकता है, यहीं नहीं डॉक्टरों ने तो यहां तक बताया कि ऊंची हिल की सैंडल पहने वाली महिलाओं को भी यह दिक्कत आ सकती है। सामान्य जांच में तो पता नहीं चलता लेकिन सूक्ष्मता से अन्य कारणों की पड़ताल व जांच की जाती है तो ऐसे कई मामलों का पता चलता है। दवाई व सर्जरी के साथ फिजियोथैरेपी से भी इसका उपचार संभव है। जबड़े के जोड़ों का दर्द क्यों होता है और इसके निदान के क्या उपाय है देश भर के जुटे दांत के एक्सपर्ट डॉक्टरों ने अपने चिकित्सकीय अनुभव इंडियन प्रोस्थेडोटिक्स सोसाइटी छत्तीसगढ़ शाखा के न्यू सर्किट हाउस में आयोजित वर्कशाप में शनिवार को साझा किया।
इंडियन प्रोस्थेडोटिक्स सोसाइटी छत्तीसगढ़ शाखा के अध्यक्ष डा. नीरज कुमार चंद्राकर ने बताया कि वर्कशाप का आज शुभारंभ पं. दीनदयाल उपाध्याय मेमोरियल आयुष व स्वास्थ्य विज्ञान विवि के कुलपति डा.अशोक चंद्राकर के मुख्य आतिथ्य व इंडियन प्रोस्थोडोसिस सोसायटी के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा. वी. रंगराजन के विशेष आतिथ्य में हुआ। देश भर के लगभग 200 डाक्टर्स इसमें हिस्सा ले रहे हैं जिसमें 120 छत्तीसगढ़ व अन्य बाहर राज्य से हैं। जयपुर से आए प्रसिद्ध डा. फिजियोथेरेपिस्ट डा.हिमांशु माथुर ने बताया कि दांतों के जबड़ों का इलाज करने के विभिन्न विधियों में फिजियोथैरेपी भी शामिल है। शरीर के किसी अन्य हिस्से में यदि प्राब्लम हैं तो उसके कारण भी जबड़े के जोड़ों में दर्द हो सकता है। उन्होने ही बताया कि ऊंची हिल की सैंडल पहनना भी इसका कारण बन सकता है।
रोहतक से आए आरेल मेडिसीन एवं रेडियोलॉजी विशेषज्ञ डा. हरनीत सिंह ने बताया कि कई सारे इंफेक्शन की वजह से भी जबड़ों में जोड़ों का दर्द होता है। अनियमित खान व तनावपूर्ण जीवन शैली भी इस प्रकार का दर्द पैदा कर सकते हैं। वहीं दवाईयों व अन्य आधुनिक तरीकों को वीडियो के माध्यम से प्रदर्शित किया। चेन्नई से आए मैक्सिकोफेशियल प्रोस्थोडॉटिस्ट एवं इंडियन प्रोस्थोडोसिस सोसायटी के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा. वी. रंगराजन ने बताया कि किसी प्रकार तनावपूर्ण जीवन शैली, अनियमित खानपान, अनिद्रा, रात में दांत घिसने की आदत इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है। दंत चिकित्सकों-प्रास्डोडांटिस्ट द्वारा निर्मित ओरल स्पिलिंट इसके इलाज में कारगर व सहायक है। पुरानी सोच वाली विधियों में किस प्रकार का बदलाव आया है और उसका किस प्रकार उपयोग आज के डाक्टरों को करना चाहिए उन्होने बताया।
कुलपति डा. चंद्राकर ने कहा कि ऐसे कार्यक्रमों से राज्य के सभी मेडिकल से जुड़े छात्रों व शिक्षकों के ज्ञानवर्धन व नवीनतम उपचार से राज्य के निवासियों को भी लाभ मिलता है। डाक्टर विद्या वैध ने भी अपने अनुभव साझा किए। इंडियन प्रोस्थेडोटिक्स सोसाइटी छत्तीसगढ़ शाखा के अध्यक्ष डा. नीरज कुमार चंद्राकर ने बताया कि इस वर्कशाप का मुख्य उद्देश्य विभिन्न क्षेत्र के विशेषज्ञों के बीच समन्वय बनाना ताकि राज्य के लोगों को इसका अधिकाधिक लाभ मिल सके।
रविवार को जनजागरूकता रैली
रविवार 4 सितंबर को प्रोस्थोडॉटिक्स विशेषज्ञों के द्वारा मरीन ड्राइव से छत्तीसगढ़ दंत चिकित्सालय तक सुबह 9 बजे एक रैली निकाली जाएगी और आमजनों को पोस्टर, बैनर व स्लोगन के माध्यम से संदेश दिया जाएगा। कोच्चि के प्रसिद्ध क्रेनियोफेशियल सर्जन डा. प्रमोद सुभाष कल के वर्कशाप में प्रमुख रूप से शामिल रहेंगे।
युवाओं...अपने नेताओं से पूछो- “आपके बच्चे कहां हैं ”
डॉ. दीपक पाचपोर
कुछ समय पहले अफगानिस्तान में तख्तापलट के बाद आतंकवादी अपने हाथों में आधुनिकतम हथियार थामे ट्रैफिक व्यवस्था को सम्हालते, सड़कों पर पहरा देते, परीक्षाएं संचालित करते या कार्यालयों में बैठे नज़र आये थे। तब भारत सहित लोकतांत्रिक प्रणाली में आस्था रखने वाले लोगों के दिल दहल गये थे। कई लोगों ने उन दृश्यों की हंसी भी उड़ायी थी। सोचने की बात यह है कि क्या उनके हाथों में ये बड़े व आधुनिक हथियार एकाएक आ गये या रातों-रात वे इसे चलाने में माहिर हो गये होंगे। बिलकुल नहीं! दुनिया की सारी चीजों या विचारों की तरह यह भी क्रमिक विकास का ही एक पड़ाव था जिसकी शुरुआत निश्चित रूप से छोटे स्तर व लघुतर पैमाने पर हुई होगी। वहां के नौजवानों ने अतिवादी विचारों के फेर में पड़कर पहले छोटे हथियार हाथों में लिये होंगे। खुद के हाथों में हथियार थामने का रोमांच, भीड़ प्रदत्त सुरक्षा व पहचान में न आने की आभासी आश्वस्ति के चलते वहां के युवाओं के हाथों में छोटे से बड़े एवं पुरातन से आधुनिक हथियार आये होंगे। ये वे लोग थे जिनकी पढ़ाई-लिखाई छुड़ाकर उन्हें इस्लामी दुनिया बनाने में योगदान देने के लिये आमंत्रित किया गया होगा। वहां भी राजनीति में धर्म के घालमेल ने यह परिस्थिति बनाई है।
कौन सोच सकता था कि जल्दी ही इसके प्रारम्भिक रूप या कहें कि उसके मिनिएचर भारत के शहरों महानगरों, कस्बों अथवा गांवों में भी देखने को मिल सकते हैं। पूरे समाज ने अगर इसे अभी ही न रोका तो आश्चर्य नहीं कि आज हमारे युवाओं के हाथों में जो छोटे-मोटे व कुछ मायने में प्रतीकात्मक अथवा गैर कारगर किस्म के हथियार दिख रहे हैं, आगे चलकर उनकी जगह बड़े व घातक हथियार ले सकते हैं। राजनीति एवं युवाओं के हाथों में हथियार के अंतर्संबंध क्या हैं? राजनीति के इस षडयंत्र को युवा जितनी जल्दी समझ लें, यह स्वयं उनके और देश के लिये उतना ही अच्छा होगा। उन्हें चाहिये कि वे केवल यह न देखें कि किनके हाथों में हथियार हैं, बल्कि यह भी देखें कि उनके नेताओं के किन बच्चों के हाथों में हथियार नहीं हैं? वे यह भी मत देखें कि कौन लोग इस भीड़ में शामिल हैं, वरन इस पर गौर करें कि जो लोग आपके हाथों में हथियार थमाकर आपको जुलूस में लेकर आये थे, उनके अपने बच्चे कहां हैं और क्या कर रहे हैं? अगर उनके बच्चे आपके साथ हथियार नहीं लहरा रहे हैं तो समझ जाएं कि आपका निरा राजनैतिक, धार्मिक व आपराधिक उपयोग हो रहा है जिसकी मलाई तो आपके नेतागण खाएंगे लेकिन जीवन भर के लिये अपराध व हिंसा आपका पीछा नहीं छोड़ेगी। आपका नाम उस सूची में शामिल होगा जो हर थानेदार तबादले के वक्त अगले अधिकारी को इस सलाह के साथ देकर जायेगा कि “इस पर नज़र रखे रहना!” जब तक आपकी चहेती पार्टी की सरकार है तब तक तो ठीक है, पर सत्ता स्थायी नहीं होती। परिवर्तन होते ही संरक्षण देने वाले आपको एकदम लावारिस छोड़कर स्वयं सत्ताधारी दल के साथ या तो मिल जायेंगे या उनसे संबंध सुधार लेंगे। आपके या तो स्कूल-कॉलेज छूट जायेंगे अथवा पढ़ाई में आपकी रुचि समाप्त हो जायेगी। नौकरियां तो मिलने से रहीं!
यह महज संयोग नहीं कि कई ऐसे लोग आपको सोशल मीडिया पर जहर उगलते मिलेंगे लेकिन उनके बच्चे इससे दूर हैं। वे शहर-कस्बे के सबसे अच्छे स्कूल-कॉलेजों में पढ़ते हैं, कोचिंग हब में रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियां करते हैं, ऊंची शिक्षा के लिये देश के बड़े शहरों में जाते हैं और नौकरी भी वहीं करते हैं अथवा विदेशों में बस जाते हैं। वे अपने बच्चों के हाथों में न तो हथियार थमाते हैं और न ही ऐसे जुलूसों या शोभायात्राओं का उन्हें हिस्सा बनाते हैं जिसमें हिंसा होने अथवा उनकी पहचान उजागर होने का खतरा होता है। वे जानते हैं कि इससे उनका केरियर बर्बाद हो जायेगा। इसलिये कथित ऊंची कही जाने वाली जातियों के बच्चे इनमें कम दिखलाई देते हैं। अगर हैं भी, तो जान लीजिये कि वह युवा या छात्र उसी शहर में अपने मां-बाप या किसी गॉडफादर के मार्गदर्शन में अपना ‘राजनैतिक केरियर’ ही बना रहा है। अधिकतर युवा कथित निचली जातियों, पिछड़े वर्गों आदि के होते हैं जो जोश-जोश में धर्म-राजनीति-अपराध की सीढ़ियां चढ़ते हुए खुद नेता बनना चाहते हैं। उन्हें गैरकानूनी कृत्यों, हिंसा या प्रदर्शनों में शामिल करने के लिये कई बातें सिखलाई जाती हैं। यों कहा जाये कि दिमाग में भर दी जाती हैं। पहला यह कि ‘उनका धर्म खतरे में है।’ दूसरे, अन्य धर्म वाले कट्टर होते हैं इसलिये उनका मुकाबला कट्टरता से ही सम्भव है। तीसरे, नयी शिक्षा पद्धति ने हमारे धर्म व संस्कृति को बर्बाद कर दिया है। फिर, अन्य मजहबियों की बढ़ती जनसंख्या से वे देश पर कब्जा कर लेंगे, उनके कारण आपको नौकरी नहीं मिलती, अन्य धर्मावलम्बियों के कारण अपनी जान को खतरा...आदि...आदि। धर्म व राजनीति की दोहरी जहरखुरानी उन पर ऐसा असर करती है कि वह अपने अभिभावकों की तकलीफें, उनकी हसरतें, केरियर, भावी जीवन, पारिवारिक जिम्मेदारियों का ख्याल नहीं रख पाते। वे यह भी सोचते हैं कि उनके नेता उन्हें बचा लेंगे लेकिन उन पर मुकदमे लम्बे चलते हैं। उनके हाथों अगर कोई गंभीर कृत्य होता है तो उन्हें बचाने वाला कोई नहीं होता और न ही उनके जीवन संवर पाते हैं। युवकों को नहीं पता कि वे नेताओं के लिये खाद-पानी हैं। असंख्य युवाओं के जीवन को बर्बाद करने से ही मुट्ठी भर नेताओं की संतानों की राजनीति चमकती है।
नफ़रती व हिंसक राजनीति के प्रति आकर्षित करने के लिये आवश्यक है कि देश के स्वतंत्रता आंदोलन, उसके मूल्यों, आदर्शों एवं प्रदेयों के प्रति घृणा भाव बढ़ाया जाए क्योंकि वर्तमान भारत स्वतंत्रता की भावना, सर्व धर्म समभाव, लोकतांत्रिक प्रणाली के तहत असहमति के प्रति भी सहिष्णुता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, विपक्ष का सम्मान, नागरिक अधिकार, समानता, बन्धुत्व आदि के सिद्धांतों पर टिका हुआ है। इन मूल्यों के प्रति घृणा भाव से ही इतिहास बोध से शून्य लोग आकर्षित हो सकते हैं। इसी भावना के तहत नागरिकता कानून या किसान आंदोलन में शामिल लोगों को ‘पाकिस्तानी’ या ‘खालिस्तानी’ बतलाया जाता है, तो वहीं श्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों को बदनाम व बर्बाद किया जाता है। युवाओं को यह समझना होगा कि अगर आप अहिंसा के बदले हिंसा, सहिष्णुता की जगह पर असहिष्णुता, समावेशी की बजाये विभाजनकारी, समानता नहीं गैर बराबरी, अभिव्यक्ति के स्थान पर आवाज दबाने, बहुलतावाद की बजाये बहुसंख्यकवाद को तरजीह देंगे और वैसी दुनिया बनाने की कोशिश करेंगे तो एक हथियारबन्द समाज में कल आपको ही विचरना है। ऐसे समाज की कल्पना ही भयावह है जिसमें आपका मूल्यांकन आपके ज्ञान, प्रतिभा, कौशल को देखकर नहीं बल्कि आपके हाथों-कंधों पर टंगे असलहे से होगा। अगर आपकी हिंसा आपको अपने से कमजोर पर प्रतिष्ठित करेगी तो कोई न कोई आपसे अधिक हिंसक व शक्तिशाली आपको दबायेगा; और ख्याल रखें कि वह किसी दूसरे धर्म या सम्प्रदाय से नहीं बल्कि आपके अपने समाज से निकलेगा; सम्भव है कि वह आपका कोई सहयोगी, रिश्तेदार या मित्र ही हो । अपने लिये मत बनाइये ऐसी दुनिया!
युवाओं को अगर एक खुशगवार संसार चाहिये तो उसे खुद का निःशस्त्रीकरण करना होगा। मानव ने ‘लोकतंत्र’ नामक न्याय पाने-देने की एक मुकम्मल व कारगर प्रणाली पहले ही विकसित कर ली है। इसके जरिये युवा अपने लिये एक खुशहाल, सम्पन्न एवं आधुनिक समाज का निर्माण कर सकते हैं।
आखिर...मोदी की किसी भी बात पर यकीन क्यों नहीं होता ?
मोदी देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री है जिनकी हर बात को शंका-आशंका के तराजू के पर तौला जाता है. देश का पढ़ा-लिखा और समझदार वर्ग उनकी किसी भी बात पर यकीन नहीं करता है. ज्यादातर लोग यह मानते हैं कि वे जो कुछ भी करते हैं उसके पीछे इवेंट काम करता है. जब वे दाढ़ी बढ़ाते हैं तो लोग-बाग तुरन्त समझ जाते हैं कि रवींद्रनाथ टेगौर के लुक का क्या अर्थ है और इस लुक का वे क्या उपयोग करने वाले हैं. इधर पंजाब के एक पुल में लगभग 20 मिनट तक जाम में फंसे रहने के बाद कई तरह के मीम बनाए जा रहे हैं. पंजाब सहित देश का मीडिया उस अफसर को खोज रहा है जिसके सामने मोदी ने कहा था- अपने सीएम को कहना कि जिंदा बचकर जा लौट रहा हूं. बहरहाल सोशल मीडिया तरह-तरह की बातों से अट गया है. यहां हम अपने पाठकों के लिए कुछ महत्वपूर्ण पोस्ट का प्रकाशन कर रहे हैं.
प्रख्यात पत्रकार रवीश कुमार ने लिखा है- क्या आपको याद है जब 2017 के गुजरात चुनाव में प्रधानमंत्री अपनी सुरक्षा दांव पर लगाकर सी-प्लेन से उड़े थे? जबकि SPG की गाइडलाइन है कि जिन्हें यह सुरक्षा मिलती है वे सिंगल इंजन वाले विमान में नहीं उड़ सकते हैं.लेकिन तब वोटर में थ्रिल पैदा करना था. समर्थकों में इस स्टंट से जोश पैदा करना था. उस घटना को आप भूल गए होंगे लेकिन सवाल आज भी है कि एसपीजी ने अपनी ब्लू बुक से अलग जाकर प्रधानमंत्री को सिंगल इंजन वाले विमान में कैसे उड़ने दिया. क्या उस घटना को देखते हुए पंजाब की घटना के पीछे भाषणों से उदासीन हो रहे समर्थकों और मतदाता में जोश पैदा करने के लिए किया जा रहा है ?
पुलवामा में हमले के दो घंटे बाद प्रधानमंत्री फ़ोन से रैली को संबोधित कर रहे थे. रुद्रपुर की रैली उन्होंने फ़ोन से संबोधित की थी. तब सवाल उठा था कि जवान शहीद हुए हैं. देश पर हमला हुआ है और प्रधानमंत्री रैली की चिन्ता कर रहे हैं. 2016 में मौसम ख़राब होने के कारण बहराइच की सभा को उन्होंने फ़ोन से संबोधित किया था क्योंकि मौसम ख़राब होने के कारण उनका हेलिकाप्टर नहीं उतर सकता था. पंजाब के समय भी यही किया जा सकता था.पंजाब की यह पूरी घटना पंजाब की जनता का सामना करने से बचने के लिए के लिए ड्रामा लगता है. इस घटना के बहाने यूपी के चुनावी भाषणों में जोश पैदा किया जाएगा. इंतज़ार कीजिए अगले भाषण का. कैसे सब कुछ मैं मोदी मैं मोदी पर जा टिकेगा.
देश के शीर्षस्थ साहित्यकार विष्णु नागर ने अपने फेसबुक पेज पर बगैर नाम लिए लिखा है- इस पद पर पहले बैठे सभी भूतपूर्व कोई आदर्श नेता नहीं थे मगर एक न्यूनतम गरिमा से संपन्न थे. कम से कम छिछोरे नहीं थे.आलोचना उन पर देर-सबेर असर दिखाती थी. मगर ये तो हद है. इसे न पद की गरिमा से कोई मतलब है,न व्यक्तित्व में गहराई की कोई सतह है. छिछोरापन, घटिया प्रचार की सतत चाह है. फैशनपरस्ती है. प्रदर्शन प्रियता है. इस आदमी की किसी बात का कोई मतलब नहीं.ये गाँधी, अंबेडकर, सरदार पटेल का गाना जरूर गाहे-बगाहे गाता रहता है मगर इसे इनमें से किसी से कोई लेना-देना नहीं. इसका कोई आदर्श नहीं. अपना आदर्श यह स्वयं है. इसे देश,धर्म, किसान, गरीब किसीसे कोई लेनादेना नहीं. यह किसी का नेता नहीं. यह भ्रम है कि यह देश का नेता है. इमेज है कि यह देश का नेता है. यह क्रूरतम है. नीरो है. हिटलर है. ये सब अपने लिए थे. ये भी केवल अपने लिए है.ये किसी को भी लात कभी भी मार सकता है. कायर आदमी सबसे क्रूर होता है.
व्यक्ति, देश,धर्म,मनुष्यता, सब इसके इस्तेमाल की चीजें हैं-व्यक्तिगत उपयोग की. इसके लिए ये साबुन, तेल,तौलिया, कपड़े हैं. काम निबटा और फेंका. इसके फर्जी प्रोफाइल, पब्लिसिटी पर फिदा लोग इस देश के सबसे बदकिस्मत लोग हैं. बदकिस्मत हम भी हैं मगर हमसे ज्यादा वो हैं,जो इसे अपना समझते हैं. जो इसे देश का रखवाला समझते हैं. मैं ईश्वर में विश्वास करनेवाला होता तो उससे इनके लिए प्रार्थना करता. गाँधी होता तो अपना दूसरा गाल इनकी ओर इनका थप्पड़ खाने के लिए कर देता.
जिंदा बचकर आ गया हूं... कहने के बाद विचारक आयुष कुमार मिश्र ने लिखा है- BJP और MODI को अपना "स्क्रिप्ट राइटर" बदल लेना चाहिए क्योंकि बेहद घटिया और D ग्रेड स्टोरी लिखी है.उन्होंने सिलसिलेवार उन्होंने कुछ तथ्यात्मक बातें रखी हैं-
1. PM की सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्य सरकार की नही बल्कि एसपीजी की होती और SPG सुरक्षा प्राप्त हर व्यक्ति का रूट चार्ट SPG के निगरानी में होता है और पूरे रास्ते मे SPG के लोग अपने हिसाब से सुरक्षा घेरा बनवाते हैं. तो क्या SPG ने ऐसा नही किया ? और यदि नही किया तो क्यों नही किया और नही करने के कारण SPG के प्रमुख और गृहमंत्री से इस्तीफा कब लिया जाएगा.
2. फिरोजपुर में जहां किसानों ने रास्ता रोका वह क्षेत्र राज्य सरकार के पुलिस के अंतर्गत आता ही नही क्योंकि मोदी सरकार के "दखलदांजी नीति" के कारण हाल ही में बॉर्डर क्षेत्र के 50 किमी क्षेत्र को BSF के निगरानी में दे दिया गया है और वो रास्ता बॉर्डर के 10 किमी दूरी पर है तो क्या केंद्र सरकार मानती है कि BSF ने PM के सुरक्षा क्षेत्र की निगरानी नही की और यदि ऐसा है तो BSF के मुखिया होने के नाते गृहमंत्री इस्तीफा देंगे ?
3. प्रधानमंत्री को हैलीकॉप्टर से 112 किलोमीटर की दूरी तय करनी थी मगर उन्होंने अचानक से कार में जाने का फैसला आखिर किसके सलाह पर लिया और क्या 112 किमी सड़क को बिना पूर्व सूचना के सुरक्षाकर्मियों द्वारा घेर पाना सम्भव है क्योंकि केंद्र सरकार भी जानती है कि पंजाब में किसान मोदी के विरोध में सड़क पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे हैं ?
4. IB की इंटेलिजेंस कहाँ थी. क्या वो PM के सुरक्षा में होने वाले चूक को पहले नही भांप पाई और यदि IB को पूरे घटना की जानकारी नही हो सकी तो क्या IB के मुखिया के रूप में गृहमंत्री इस्तीफा देंगे ?
5. BJP के साथी उर मंत्री जो सवाल पंजाब के चन्नी सरकार से कर रही है वो असल मे उन्हें गृहमंत्री से करना चाहिए क्योंकि PM के सुरक्षा में अगर चूक हुआ है तो उसके लिए SPG, BSF और IB जिम्मेदार है और ये तीनो गृहमंत्री के अंतर्गत आता है।
संयुक्त किसान मोर्चा ने भी एक प्रेस नोट के जरिए बहुत सी बातें साफ की है-
1. प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा 5 जनवरी को प्रस्तावित पंजाब के दौरे की खबर मिलने पर संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़े 10 किसान संगठनों ने अजय मिश्र टेनी की गिरफ्तारी और अन्य बकाया मांगो को लेकर उनका प्रतीकात्मक विरोध करने का ऐलान किया था. इस उद्देश्य से 2 जनवरी को पूरे पंजाब में गांव स्तर पर और 5 जनवरी को जिला और तहसील मुख्यालय पर विरोध प्रदर्शन और पुतला दहन के कार्यक्रम घोषित किए गए थे. प्रधानमंत्री की यात्रा रोकने या उनके कार्यक्रम में अड़चन डालने का कोई कार्यक्रम नहीं था।
2. पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार 5 जनवरी को पंजाब के हर जिले और तहसील मुख्यालय पर शांतिपूर्ण विरोध किया गया. जब पुलिस प्रशासन द्वारा कुछ किसानों को फिरोजपुर जिला मुख्यालय जाने से रोका गया तो उन्होंने कई जगह सड़क पर बैठ कर इसका विरोध किया. इनमें से प्यारेयाणा का वह फ्लाईओवर वह भी था जहां प्रधानमंत्री का काफिला आया, रुका और वापस चला गया. वहां के प्रदर्शनकारी किसानों को इसकी कोई पुख्ता सूचना नहीं थी कि प्रधानमंत्री का काफिला वहां से गुजरने वाला है. उन्हें तो प्रधानमंत्री के वापिस जाने के बाद मीडिया से यह सूचना मिली.
3. मौके की वीडियो से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रदर्शनकारी किसानों ने प्रधानमंत्री के काफिले की तरफ जाने की कोई कोशिश तक नहीं की. बीजेपी का झंडा उठाए "नरेंद्र मोदी जिंदाबाद" बोलने वाला एक समूह ही उस काफिले के नजदीक पहुंचा था. इसलिए प्रधानमंत्री की जान को खतरा होने की बात बिल्कुल मनगढ़ंत लगती है.
4. यह बहुत अफसोस की बात है कि अपनी रैली की विफलता को ढकने के लिए प्रधानमंत्री ने "किसी तरह जान बची" का बहाना लगाकर पंजाब प्रदेश और किसान आंदोलन दोनों को बदनाम करने की कोशिश की है. सारा देश जानता है कि अगर जान को खतरा है तो वह किसानों को अजय मिश्र टेनी जैसे अपराधियों के मंत्री बनकर छुट्टा घूमने से है. संयुक्त किसान मोर्चा देश के प्रधानमंत्री से यह उम्मीद करता है कि वह अपने पद की गरिमा को ध्यान में रखते हुए ऐसे गैर जिम्मेदार बयान नहीं देंगे.
आरटीआई अध्यक्ष के खिलाफ एनजीओ संचालिका ने खोला मोर्चा
रायपुर. अभी न्याय के दरबार में एक जीजा और साले साहब की कहानी सोशल मीडिया में तैर ही रही थीं कि एक राजनीतिक दल के आरटीआई अध्यक्ष पर एक महिला ने गंभीर आरोपों की झड़ी लगा दी है. जगदलपुर से अर्शिल शिक्षण व प्रशिक्षण वेलफेयर सोसायटी संचालित करने वाली शमीम सिद्धकी ने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को भेजी गई शिकायत में आरटीआई अध्यक्ष को आड़े हाथों लिया है. महिला ने आरटीआई अध्यक्ष के एक निज सहायक के फोन को रिकार्ड करने का दावा भी किया है. महिला का कहना है कि निज सहायक उससे सीधे-सीधे पचास फीसदी हिस्सेदारी की बात करते हुए कह रहे हैं कि अगर पैसा नहीं दिया गया तो जैव विविधता बोर्ड की तरफ से सौंपा गया काम निरस्त करवा दिया जाएगा. शमीम का कहना है कि पूर्व में भी आरटीआई अध्यक्ष और उनसे जुड़े लोगों ने चार से पांच लाख रुपए उनसे वसूल लिए हैं.
शमीम ने पत्र में लिखा है कि उनकी संस्था वर्ष 2005 से ही छत्तीसगढ़ की सरकारी योजनाओं को जन-जन तक पहुंचाने के लिए कार्य कर रही है. संस्था मुख्य रुप से घरेलू हिंसा में महिलाओं के संरक्षण, एचआईवी की रोकथाम, महिला उत्थान, बंधवा मजदूर, कौशल उन्नयन, विधिक सेवा, मानव तस्करी की रोकथाम और लोक जैव विविधता पंजी निर्माण का काम करती है.
महिला ने बताया कि आरटीआई अध्यक्ष और उनके साथ जुड़े हुए दो अन्य लोग आए दिन उनकी छवि खराब करने का काम कर रहे हैं. बड़े राजनेताओं के साथ निजी संबंधों का हवाला देते हुए गत एक साल से उनके ऊपर मानसिक दबाव डाला जा रहा है. आरटीआई अध्यक्ष कहते हैं कि अगर उनकी मांगे नहीं मानी गई तो वे छत्तीसगढ़ में काम नहीं करने देंगे. आरटीआई अध्यक्ष का कहना है कि छत्तीसगढ़ के हर शासकीय काम में उनकी भूमिका रहती है. वे जो बोलेंगे वहीं होगा क्योंकि कई मंत्री और अधिकारी उनके आफीस में बैठकर चाय पीते हैं.
एनजीओ संचालिका ने पत्र में जानकारी दी है कि वह फिलहाल जैव विविधता बोर्ड की ओर से सौंपे गए काम को बेहतर ढंग से कर रही है, लेकिन आरटीआई अध्यक्ष इस बात की धौंस दे रहे हैं कि अगर परियोजना राशि का 50 फीसदी उन्हें नहीं दिया गया तो वे जैव विविधता कार्यादेश निरस्त करवा कर उनकी संस्था को काली सूची में डलवा देंगे.
शमीम सिद्धकी ने आगे लिखा है- मैंने आरटीआई अध्यक्ष की अनुचित मांगों के संबंध में संगठन के प्रभारी महामंत्री को भी मौखिक तौर पर जानकारी दी है. आरटीआई अध्यक्ष ने एक शख्स को निज सहायक बना रखा है. यह शख्स आए दिन कहता है कि अभी भी वक्त है पचास प्रतिशत दे दो नहीं दो कार्यादेश निरस्त करवा दिया जाएगा. शमीम का कहना है कि हर एनजीओ शासन से अच्छा और बेहतर काम हासिल हो जाए इसकी उम्मीद करता है. आरटीआई अध्यक्ष, उसके सहायक और उनके साथ जुड़े एक शख्स ने उन्हें कभी यह बताया था कि वन-धन योजना के अंर्तगत बड़ा काम दिया जाएगा. इस बाबत उन्होंने एक हजार रुपए के स्टांप पेपर पर एग्रीमेंट भी करवाया था. शमीम ने अपने पत्र के साथ एग्रीमेंट की प्रति भी मुख्यमंत्री के पास भेजी है. महिला ने आरटीआई अध्यक्ष पर कार्रवाई की मांग की है. महिला का कहना है कि आरटीआई अध्यक्ष और उनके साथ जुड़े हुए लोग धमकी-चमकी और दबाव बनाने के खेल में संलिप्त रहकर लोकप्रिय और जनप्रिय सरकार की छवि को नुकसान पहुंचाने का काम कर रहे हैं. महिला ने आरटीआई अध्यक्ष और उनके साथ जुड़े हुए लोगों की शिकायत कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी, वन मंत्री मोहम्मद अकबर, प्रभारी महामंत्री रवि घोष और पीसीसीएफ राकेश चतुर्वेदी को भी भेजी है.
बाबू मोशाय...2024 में जमकर खेला होबे
नई दिल्ली
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी विधानसभा चुनाव जीतने के बाद केंद्र की भारतीय जनता पार्टी पर जबरदस्त ढंग से हमले कर रही है.उनके हमले से भाजपा घबराई हुई भी है. केंद्र के सारे मंत्रियों और हथकंड़ों को झोंक देने के बाद भी पश्चिम बंगाल में भाजपा की जिस ढंग से फजीहत हुई हैं उसे लेकर अब भी तंज कसा जाता है.जैसे ही कोई भक्त यह बताने की चेष्टा करता है कि मोदी को 2024 में क्यों वोट दिया जाना चाहिए...वैसे ही कोई न कोई टिप्पणी सुनने को मिल जाती है. ज्यादातर लोग तो यहीं कहते हैं- बाबू मोशाय...2024 में तो खेला होबे और भीषण होबे. जमकर होबे.
इधर कोलकाता में बुधवार को ममता बनर्जी ने एक बार फिर से दोहराया कि वह 2024 के चुनाव में भाजपा को पूरे देश में हारते हुए देखना चाहती हैं.
दरअसल पश्चिम बंगाल में भाजपा को धूल चटा देने के बाद अब ममता बनर्जी अन्य राज्यों में टीएमसी के पैर जमाने में लगी हुई हैं. इस बीच कई कांग्रेसी नेताओं के टीएमसी ज्वाइन करने को लेकर टीएमसी और कांग्रेस समर्थकों के बीच अनबन की खबरें भी सामने आई हैं.
ठीक एक दिन पहले गोवा में भी ममता बनर्जी ने भाजपा पर निशाना साधते हुए कहा था कि उन्हें भाजपा से चरित्र प्रमाण पत्र लेने की आवश्यकता नहीं है.ममता बनर्जी ने कहा कि मैं आपका मुकाबला करने नहीं आई हूं. मैं नहीं चाहती कि बाहरी लोग गोवा पर नियंत्रण करें.
ममता बनर्जी का दावा है कि गोवा, उत्तर प्रदेश और पंजाब सहित जिन राज्यों में 2022 की शुरुआत में चुनाव होना है वहां से भाजपा अस्त प्रारंभ हो जाएगा और यह चलन पूरे देश में दिखाई देगा. ममता बनर्जी ने यह भी कहा कि कांग्रेस को भगवा संगठन को लेकर बड़े-बड़े दावे करने के बजाय बीजेपी के खिलाफ जोरदार ढंग से लड़ना चाहिए. कुछ दिनों पहले ममता बनर्जी ने एनसीपी चीफ शरद पवार से मुलाकात की थी. इस मुलाकात के बाद उन्होंने इशारों में यह तो बता ही दिया था कि वह यूपीए से इतर 2024 के लोकसभा चुनाव में एक तीसरा फ्रंट तैयार करने की कोशिश में लगी हुई है.
किस हालात में हैं आदिवासी... तीन दिवसीय गोष्ठी में होगा मंथन
रायपुर. छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में 28 से 30 अक्टूबर तक आदिवासी समाज की दशा और दिशा पर तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है. राजभाषा आयोग और “गोंडवाना स्वदेश” नाम की एक मासिक पत्रिका के बैनर तले इस विचार गोष्ठी का आयोजन शहीद स्मारक भवन में होगा.कार्यक्रम के मुख्य संयोजक रमेश ठाकुर ने बताया कि इस तरह की संगोष्ठी वर्ष 2019 में भी आयोजित की गई थीं. तब देश भर से बुद्धिजीवियों ने आदिवासी समाज के विभिन्न पहलुओं जैसे: सभ्यता, संस्कृति, शिक्षा, कला, साहित्य और उनकी चुनौतियों पर मंथन किया था.
गोल्डी एम.जार्ज ने बताया कि इस गोष्ठी से आदिवासियों के समस्त अधिकारों व उसके क्रियान्वयन पर सकारात्मक प्रभाव पडे़गा साथ ही सांस्कृतिक विविधता के बाद एकजुटता भी कायम होगी. संगोष्ठी के संयोजक डॉ. संतोष कुमार ने बताया कि संगोष्ठी में देश भर के बुद्धिजीवियों के अलावा समुदाय के मुखिया भाग लेंगे. गोष्ठी में देश मूल निवासी समाज की समस्याओं को लेकर मंथन किया जाएगा. कार्यक्रम में शिक्षाविद, शोधार्थी, नामी लेखक, पत्रकार, नीति-निर्माता,बुद्दिजीवी तथा सामाजिक कार्यकर्ता आदि बड़ी संख्या में जुटेंगे. कार्यक्रम के प्रमुख अतिथियों में प्रो .वर्जिनियस खाखा (पूर्व अध्यक्ष, खाखा कमेटी नयी दिल्ली),सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका ,झारखंड से कुलपति प्रो.सोनाझारिया मिंज.,प्रो सूर्या बाली (फैमिली मेडिसिन, एम्स ,भोपाल ),प्रो.बिपिन जोजो (डीन स्कूल आफ सोसल वर्क),प्रणव डैले,सदस्य संयुक्त राष्ट्र आदिवासी मंच,जेरोम जेराल्ड कुजूर,मानव अधिकार कार्यकर्ता झारखंड, गोपीनाथ मांझी ,उडी़सा के जमीनी सामाजिक कार्यकर्ता,मुकेश बरुआ,मानव अधिकार कार्यकर्ता, हेमंत दलपति (डिपार्टमेंट ऑफ टीचर एजुकेशन, उडी़सा),एड्वोकेट रजनी सोरेन, सुप्रीम कोर्ट आफ इंडिया, डॉ जितेन्द्र प्रेमी,सुश्री दयामणि बारला,प्नो.निस्तार कुजूर,प्रो. एल.एस.निगम ,कुलपति शंकराचार्य यूनिवर्सिटी और छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्र की जमीनी सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी शामिल है. आदिवासी समाज की दशा और दिशा पर कई शोध पत्र भी पढ़े जाएंगे. कार्यकम के संरक्षक मंडल में डॉ. गोल्डी एम. जॉर्ज, डॉ. सुनील कुमार ‘सुमन’, डॉ. निस्तर कुजूर, डॉ. जयलक्ष्मी ठाकुर, डॉ. उदयभान सिंह चौहान हैं. संगोष्ठी के सह संयोजक डॉ. रामचंद साहू, आयोजन समिति में डॉ. अनीश कुमार, अश्विनी कांगे, मोहित राम चेलक, पूनम साहू, अंजलि यादव, गणेश कुमार कोशले, अंकिता अंधारे,दीपिका यादव, अग्निश, पंचशील श्यामकर, बृजेश प्रसाद, रजनीश कुमार अम्बेडकर, डॉ. ललित कुमार, विवेक सकपाल को शामिल किया गया है. यह जानकारी संगोष्ठी की मीडिया प्रभारी पूनम साहू ने दी है.
वे जो कल तक देशद्रोही थे... अचानक देशभक्त हो गए...भई...कमाल है !
शाहीन बाग के आंदोलन से जुड़े मुस्लिम समुदाय के कुछ नेता भाजपा और आरएसएस की नजर में सांप्रदायिक और देशद्रोही थे... लेकिन हाल के दिनों में जब उन्होंने भाजपा का दामन थामा तो वे देशभक्त हो गए. ऐसा क्यों और कैसे हुआ... बता रहे हैं देश के प्रसिद्ध लेखक कैलाश बनवासी
कैलाश बनवासी
शाहीन बाग़ में सौ दिन से भी अधिक चले शांतिपूर्ण,अहिंसात्मक आन्दोलन से जुड़े कई कार्यकर्ताओं ने 16 अगस्त को दिल्ली में भाजपा ज्वाइन कर लिया, जिसमें प्रमुख रूप से शहजाद अली और डॉ.मोहरिन हैं. गत वर्ष नवम्बर से दिल्ली का शाहीन बाग़ आन्दोलन मुख्य रूप से गृहमंत्री द्वारा लाए गए सी.ए.ए. अमेंडमेंट बिल और नागरिकता रजिस्टर कानून के विरोध को लेकर था. इस आन्दोलन की खासियत यह रही जिसने इस दौर में जन-आन्दोलन का एक नया इतिहास ही रच दिया, जिसमें इन कानूनों के विरोध में उस क्षेत्र की मुस्लिम महिलाओं —क्या किशोरियां, क्या बूढ़ी,क्या जवान--सबने शाहीन बाग़ को अपना दूसरा घर बनाकर देश को आंदोलन के एक बिलकुल नए ढंग से परिचित कराया.जिसका फैलाव आज़ादी की लड़ाई की तरह देश के कई भागों में फ़ैल गया था.जिसकी चर्चा देश-विदेशों में होती रही.इस आन्दोलन की एक और खासियत यह रही कि इन्होंने देश के संविधान से मिले धार्मिक स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की आज़ादी को केंद्र में रखा.दिल्ली के शाहीन बाग़ के इस अनूठे आन्दोलन की तर्ज़ पर देश के अनेक शहरों में इस आन्दोलन ने ज़ोर पकड़ लिया था.और यह अपनी लड़ाई में केवल मुस्लिमों का ही नहीं,सभी अमनपसंद धर्मनिरपेक्षता पर विश्वास करने वाले लोगों,संगठनों का आन्दोलन बन गया था.जिसके खिलाफ कथित देशभक्तों की कुख्यात ट्रोल एजेंसियों ने कितने भड़काऊ,विभाजनकारी और कुत्सित प्रचार किए,यह भी देश ने देखा है. इस आन्दोलन को सीधे देशद्रोह से जोड़ा गया. इसके आन्दोलनकारियों,समर्थकों को झारखंड और दिल्ली चुनाव में भाजपा के बड़े नेताओं से लेकर छुटभैये नेताओं ने जैसे ऊल-जलूल,हिंसा भड़काने वाले बयान दिए,वह भी सबके सामने है.आगे चलकर दिल्ली के सुनियोजित दंगों के पीछे भी इसके आन्दोलनकारियों के हाथ होने की बात दिल्ली और यू.पी. पुलिस द्वारा न सिर्फ कही गयी,बल्कि उन्हें,उनके समर्थक सामाजिक कार्यकर्ताओं, छात्रों,नौजवानों, प्राध्यपकों,पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को निशाने पर लाकर उनके खिलाफ़ सख्त से सख्त धाराएं –जिसमें यू.ए.पी.ए.के अंतर्गत मामले दर्ज किये गए. कईयों को जेल में डाल दिया गया,और आज तक उनकी ज़मानत भी नहीं हो सकी है.
ऐसे में,इन कठिन परिस्थितियों के बीच जब कुछ इसके आन्दोलनकारी भाजपा ज्वाइन करते हैं तब संदेह कई तरह से गहरा जाते हैं. यह सहसा सूरज के पश्चिम से उदय होने जैसा है. इस बीच,आखिर ऐसा क्या घटित हुआ कि वे अन्दोलनकारी को—जिन्हें कल तक दिन-रात पाकिस्तानी परस्त देशद्रोही विशेषणों से नवाज़ा जाता रहा,आज अचानक देशभक्त हो गए? इसके मुख्य नेता शहजाद अली का साक्षात्कार मीडिया में आया है,जिसमें वह इस परिवर्तन का कारण बताते हुए कह रहे हैं—“इस मामले में राजनीति ज़्यादा हुई है,जबकि सच्चाई कुछ और थी.मुसलमानों को यह सच्चाई समझने की ज़रुरत है. आज़ादी से लेकर आज तक मुसलमानों के मन में सिर्फ एक ही बात बिठाई गयी है कि आर.एस.एस –भाजपा उनकी दुश्मन है. लेकिन हमारा कहना है कि कोई हमारा डीएसटी हैया दुश्मन,सच्चाई जानने के लिए हमें उनके क़रीब जाना पड़ेगा.मुझे लगता है कि आपको जो भी सवाल करने हैं,वह व्यवस्था के एक अंग बनकर कीजिए.”( अमरउजाला ई पेपर,17 अगस्त,अमित शर्मा की रिपोर्ट)
सवाल कई हैं.किसी भी व्यक्ति का अपना राजनीतिक विचार या दल चुनना उसका व्यक्तिगत मसला है.वह स्वतंत्र है. लेकिन जो स्थितियां हैं,उसके चलते यह बेहद चौंका देने वाली और एकबारगी अविश्वसनीय खबर है.शाहीन बाग़ आन्दोलन कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से प्रेरित आंदलन नहीं था. वह बहुत सुनियोजित ढंग से सी.ए.ए. और एन.आर.सी. के विरोध देश के संवैधानिक,लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्षता आधारित मूल्यों को केंद्र में रखकर किया गया आन्दोलन था, जिसका ‘विजन’ किसी भी राजनैतिक दल की सतही लोकप्रियता और चुनावी क्षुद्रता से परे, उन उदार और व्यापक मूल्यों और यहाँ की मिली-जुली संस्कृति को बढ़ावा देने वाला था. यही कारण है कि यह देश भर में हर भाग में,हर प्रगतिशील वर्ग में जगह बना सकी ,और आन्दोलन को क्षेत्रीय कलाकारों,छात्रों,संस्कृतिकर्मियों, ट्रेड यूनियनों से लेकर सिनेमा उद्योग के बड़े-बड़े नामचीन हस्तियों का इसको समर्थन मिला.
आज वे सभी भौचक होंगे. और बहुत अधिक निराश. क्योंकि इसके राजनीतिक-प्रेरित होने या राजनीतिक लाभ लेने की बात आन्दोलन के चरित्र में उन्होंने नहीं पाया था,अन्यथा इतनी विशाल संख्या में समर्थन नहीं मिला होता. कुछ आन्दोलनकारियों के इस कदम ने इस आन्दोलन की मंशा पर नए सिरे से प्रश्न खड़े कर दिए हैं. उनका यह परिवर्तन पहली नज़र में स्वतःस्फूर्त तो कतई नहीं,बल्कि सायास और अपनी निभाई भूमिका का राजनीतिक लाभ लेनेवाला अधिक लगता है. दूसरे यह उस आन्दोलन के भरोसे को बहुत निष्ठुरता के साथ तोडनेवाला लगता है. इस कदम का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि भविष्य के ऐसे किसी भी जन-आन्दोलन के प्रति यह गहरा यह संदेह पैदा करनेवाला है,जिसके चलते लोगों का ऐसे आंदोलनों पर भरोसा कर पाना मुश्किल होगा. कुछ स्वार्थी लोगों के कारण इतना बड़ा आन्दोलन शर्मसार हुआ है,जो एक बार फिर हमारे नैतिक और आधिकारिक मूल्यों के बड़ी तेज़ी से क्षरण की कहानी कह रहा है, जो राजनीति में आज कोरोना वायरस की ही तरह बहुत तेज़ी से फ़ैल गया है,जिसके उदाहरण पिछले कुछ समय में हम कर्नाटक.महाराष्ट्र,मध्यप्रदेश और राजस्थान में देख चुके हैं,जहां राजनेताओं की सत्ता,अधिकारों,शक्तियों की अपनी हवस जनता के मतों, ज़रूरतों और आकाक्षाओं रौंदती चली जाती है.
इसी के साथ इसके पीछे छुपे हुए कुछ एजेंडों पर भी ध्यान स्वाभाविक रूप से चला जाता है. क्या इसके पीछे कुछ दबाव काम कर रहे हैं? इन ‘दबावों’ से तो आज देश की अनेक संस्थाएं ग्रस्त है जिसके नमूने चुनाव आयोग, न्यायपालिका,सी,बी.आई.,आर.बी.आई. या एन.आई.ए. की कार्यवाहियों में देश देख रहा है. यही नहीं,जिस ‘आपरेशन लोटस’ की चर्चा की जाती है,उसके मोहपाश से जब बड़े-बड़े दिग्गज और बरसों पुराने कार्यकर्ता नहीं बच सके,तब इन नए लोगों की क्या बिसात? आज की राजनीति किसी भी बड़े राष्ट्रीय,सामाजिक उद्देश्यों, नैतिक मूल्यगत निष्ठाओं को तिलांजली देकर साम दाम दंड भेद ‘पावर’ हासिल करने का शतरंजी खेल बन गया है; जिसके लिए ठीक ही कहा जाता है कि राजनीति में न कोई स्थायी दोस्त होता है न दुश्मन. यह एक बार फिर हम अपने सामने चरितार्थ होता देख रहे हैं. निश्चित रूप से यह भाजपा की बड़ी जीत है,जो उन्हें अपने खेमे में ले आए जिनके आने की कल्पना कुछ महीने पहले कोई भी नहीं कर सकता था.
41, मुखर्जी नगर,सिकोलाभाठा,दुर्ग छत्तीसगढ़
दूरभाष- 9827993920 इमेल : kailashbanwasi@ gmail.com
राजीव गांधी किसान न्याय योजना का आगाज 21 मई से
रायपुर. पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न राजीव गांधी के शहादत दिवस 21 मई के दिन छत्तीसगढ़ सरकार किसानों के लिए न्याय योजना शुरू कर रही है। दिल्ली से श्रीमती सोनिया गांधी और श्री राहुल गांधी वीडियो कांफ्रेसिंग के जरिए इस योजना के शुभारंभ कार्यक्रम में शामिल होंगे। मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल और मंत्रीमण्डल के सदस्यगण मुख्यमंत्री निवास कार्यालय में आयोजित कार्यक्रम में दोपहर 12 बजे स्वर्गीय श्री राजीव गांधी के तैल चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित करेंगे. इसके पश्चात् किसानों को दी जाने वाली 5700 करोड़ रूपए की राशि में से प्रथम किश्त के रूप में 1500 करोड़ रूपए की राशि के कृषकों के खातों में आनलाइन अंतरण की जाएगी. कार्यक्रम में जिलों से सांसद, विधायक, अन्य जनप्रतिनिधि, किसान और विभिन्न योजनाओं के हितग्राही भी वीडियो कांफ्रेसिंग से जुड़ेंगे. मुख्यमंत्री भूपेश बघेल आज यहां अपने निवास कार्यालय में योजना के शुभारंभ के लिए की जा रही तैयारियों की वरिष्ठ अधिकारियों के साथ समीक्षा भी की.
गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ देश में पहला ऐसा राज्य है जो किसानों को सीधे तौर पर बैंक खातों में राशि ट्रांसफर कर 5700 करोड़ रूपए की राहत प्रदान कर रहा है। कोरोना संकट के काल में किसानों को छत्तीसगढ़ सरकार राजीव गांधी किसान न्याय योजना के माध्यम से बड़ी राहत प्रदान करने जा रही है। इस योजना का उद्देश्य फसल उत्पादन को प्रोत्साहित करना और किसानों को उनकी उपज का सही दाम दिलाना है.
मुख्यमंत्री श्री बघेल कार्यक्रम के आरंभ में राजीव गांधी किसान न्याय योजना के संबंध में संक्षिप्त उद्बोधन देगें । कार्यक्रम में किसानों को दी जाने वाली 5700 करोड़ रूपए की राशि में से प्रथम किश्त के रूप में 1500 करोड़ रूपए की राशि के कृषकों के खातों में अंतरित की जाएगी। इस अवसर पर जिला मुख्यालयों में उपस्थित योजना के हितग्राहियों के साथ ही महिला स्व-सहायता समूहों के सदस्यों, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना और लघु वनोपज के हितग्राही तथा गन्ना और मक्का उत्पादक किसानों से वीडियो कांफ्रेसिंग से जरिए चर्चा भी की जाएगी.
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति देने तथा कृषि के क्षेत्र में रोजगार के नए अवसर सृजित करने लिए यह महत्वाकांक्षी योजना लागू की जा रही है। इस योजना से न केवल प्रदेश में फसल उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा बल्कि किसानों को उनकी उपज का सही दाम भी मिलेगा। इस योजना के तहत प्रदेश के 19 लाख किसानों को 5700 करोड़ रूपए की राशि चार किश्तों में सीधे उनके खातों में अंतरित की जाएगी। यह योजना किसानों को खेती-किसानी के लिए प्रोत्साहित करने की देश में अपने तरह की एक बडी योजना है.
राज्य सरकार इस योजना के जरिए किसानों को खेती किसानी के लिए प्रोत्साहित करने के लिए खरीफ 2019 से धान तथा मक्का लगाने वाले किसानों को सहकारी समिति के माध्यम से उपार्जित मात्रा के आधार पर अधिकतम 10 हजार रूपए प्रति एकड़ की दर से अनुपातिक रूप से आदान सहायता राशि दी जाएगी। इस योजना में धान फसल के लिए 18 लाख 34 हजार 834 किसानो को प्रथम किश्त के रूप में 1500 करोड़ रूपए की राशि प्रदान की जाएगी। योजना से प्रदेश के 9 लाख 53 हजार 706 सीमांत कृषक, 5 लाख 60 हजार 284 लघु कृषक और 3 लाख 20 हजार 844 बड़े किसान लाभान्वित होंगें.
इसी तरह गन्ना फसल के लिए पेराई वर्ष 2019-20 में सहकारी कारखाना द्वारा क्रय किए गए गन्ना की मात्रा के आधार पर एफआरपी राशि 261 रूपए प्रति क्विंटल और प्रोत्साहन एवं आदान सहायता राशि 93.75 रूपए प्रति क्विंटल अर्थात अधिकतम 355 रूपए प्रति क्विंटल की दर से भुगतान किया जाएगा। इसके तहत प्रदेश के 34 हजार 637 किसानों को 73 करोड़ 55 लाख रूपए चार किश्तों में मिलेगा। जिसमें प्रथम किश्त 18.43 करोड़ रूपए की राशि 21 मई को अंतरित की जाएगी.
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा इसके साथ ही वर्ष 2018-19 में सहकारी शक्कर कारखानों के माध्यम से खरीदे गए गन्ना की मात्रा के आधार पर 50 रूपए प्रति क्विंटल की दर से प्रोत्साहन राशि (बकाया बोनस) भी प्रदान करने जा रही है। इसके तहत प्रदेश के 24 हजार 414 किसानों को 10 करोड़ 27 लाख रूपए राशि दी जाएगी। राज्य सरकार ने इस योजना के तहत खरीफ 2019 में सहकारी समिति, लैम्पस के माध्यम से उपार्जित मक्का फसल के किसानों को भी लाभ देने का निर्णय लिया है। मक्का फसल के आकड़े लिए जा रहे हंै, जिसके आधार पर आगामी किश्त में उनको भुगतान किया जाएगा.
इस योजना में राज्य सरकार ने खरीफ 2020 से इसमें धान, मक्का, सोयाबीन, मूंगफली, तिल, अरहर, मूंग, उड़द, कुल्थी, रामतिल, कोदो, कोटकी तथा रबी में गन्ना फसल को शामिल किया है। सरकार ने यह भी कहा है कि अनुदान लेने वाला किसान यदि गत वर्ष धान की फसल लेता है और इस साल धान के स्थान पर योजना में शामिल अन्य फसल लेता हैं तो ऐसी स्थिति में उन्हें प्रति एकड़ अतिरिक्त सहायता दी जायेगी.
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा प्रदेश की अर्थव्यवस्था को गतिशील और मजबूत बनाने के लिए लॉकडाउन जैसे संकट के समय में किसानों को फसल बीमा और प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना के तहत 900 करोड़ की राशि उनके खातों में अंतरित की गई है। मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में राज्य सरकार द्वारा इसके पहले लगभग 18 लाख किसानों का 8800 करोड़ रूपए का कर्ज माफ किया गया है साथ ही कृषि भूमि अर्जन पर चार गुना मुआवजा, सिंचाई कर माफी जैसे कदम उठाकर किसानों को राहत पहुंचाई गई है.
कोविड- 19 और स्कूली शिक्षा का बदलता प्रतिमान
विविध गैर सरकारी संगठनों के साथ कार्यरत रही नेहा रूपडा किशोरी स्वास्थ्य और जेंडर के मुद्दों पर काम करती है. यहां प्रस्तुत उनका यह लेख कई तरह के सवाल खड़े करता है.
"वर्तमान शिक्षा पद्धति सड़क पर पड़ी हुई कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है।" - श्रीलाल शुक्ल
वर्ष 1968 में प्रकाशित उपन्यास 'राग दरबारी' का यह कथन आज भी प्रासंगिक है। इस बार शिक्षा तंत्र को लताड़ा है कोविड-19 ने। हालाँकि कोविड-19 ने तो समूची दुनिया, विज्ञान और तकनीक, अर्थव्यवस्था और जीवनशैली को भी लताड़ा है। इस लेख में हम स्कूली शिक्षा पर पड़ने वाले संभावित परिणामों की पड़ताल करेंगे।
स्कूली शिक्षातंत्र अकादमिक एवं प्रशासनिक कार्य के आधार पर अलग-अलग विभागों में बँटा हुआ है। ज़िला स्तर पर ज़िला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान (डाइट) अकादमिक कार्यों के लिए उत्तरदायी है। सेवा-पूर्व और सेवाकालीन, दोनों तरह के शिक्षक प्रशिक्षण का दायित्व डाइट पर है। जैसा कि अनुमान लगाया जा रहा है, सोशल डिस्टेंसिंग शायद लंबा चल सकता है। इस परिपेक्ष्य में शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थान की कार्यप्रणाली को बदलना पड़ सकता है। हमने देखा है कि डाइट में सेवा-पूर्व प्रशिक्षण ले रहे विद्यार्थी-शिक्षकों की संख्या के अनुपात में व्याख्याताओं की काफी कमी है। इस कारण अक्सर दो कक्षाओं को मिलाकर एक कक्षा-कक्ष में बैठा दिया जाता है। कक्षा में हो रही इस भीड़ को सम्हालने के लिए कई प्रशासनिक कदम उठाने की दरकार है। सेवापूर्व शिक्षक प्रशिक्षण में कक्षा-शिक्षण के पारंपरिक तरीके काफी हद तक बदल जाएँगे। ज़्यादातर कक्षाएँ ऑनलाइन होंगी, जिसमें व्याख्याता अपने विषय से संबंधित विडियो बनाकर विद्यार्थी-शिक्षकों को भेजेंगे और ग्रुप चैटिंग या टैली कॉन्फ्रेंसिंग जैसी तकनीकों के माध्यम से समूह चर्चाएँ आयोजित होंगी।
व्यवस्थित प्रशिक्षण कक्ष और समुचित स्रोत व्यक्तियों के अभाव में कई बार एक कक्ष में 100शिक्षकों को सेवाकालीन प्रशिक्षण दिया जाता है। मौजूदा हालात में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए प्रशिक्षण आयोजित किया जाना लगभग असंभव है। भविष्य में शायद विडियो कांफ्रेसिंग के माध्यम से शिक्षक प्रशिक्षण आयोजित करना पड़े।
अधिकांश शैक्षिक प्रक्रियाएँ ऑनलाइन होने का एक सकारात्मक पक्ष यह है कि इसके जरिए शिक्षा तंत्र में अधिक पारदर्शिता आ सकती है। व्याख्याताओं को अपने विषय के पढ़ाने के लिए अधिक रचनात्मक व नवाचारी होना पड़ेगा, ताकि वे लॉकडाउन जैसी स्थितियों में विद्यार्थी-शिक्षकों को सीखने में मदद कर सकें। इस दृष्टि से विद्यार्थी-शिक्षकों की अपेक्षाओं को पूरा कर पाना चुनौतिपूर्ण हो सकता है। शिक्षक-प्रशिक्षकों को इसके लिए अतिरिक्त तैयारी और परिश्रम करने की दरकार होगी।
प्रशासनिक कार्यों के लिए ज़िला स्तर पर ज़िला शिक्षा अधिकारी का कार्यालय होता है, जो उस ज़िले के प्रशासनिक कार्यों जैसे - डाटा कलेक्ट करना, उसका विश्लेषण करना, डाटा को राज्य स्तर पर भेजना, छात्रवृत्ति वितरण, शिक्षकों आदि के अवकाश संबंधी कार्य, वेतन संबंधी कार्य, राज्य स्तर से आने वाले आदेशों-निर्देशों को शालाओं तक पहुँचाना, आदि के लिए जिम्मेदार होता है। वर्तमान में इस संस्था के काफी कार्य ऑनलाइन ही किए जा रहे हैं। हो सकता है कि यह तंत्र अधिक विकेन्द्रित हो जाए। यानी राज्य से सीधे ब्लॉक या उससे भी नीचे संकुल या सीधे शाला स्तर पर ही सूचनाओं का आदान-प्रदान हो। ऐसे में ज़िला स्तर की यह इकाई शायद अप्रासंगिक हो जाएगी। ज़िला और उससे नीचे स्तर के की सभी इकाइयाँ और कर्मचारी, जिनमें शिक्षक भी शामिल हैं, वर्क फ्रॉम होम के युग में प्रवेश कर सकते हैं।
शिक्षातंत्र की बुनियादी इकाई है शाला। जो हालात अभी देश मे निर्मित हैं उन्हें देखकर नहीं लगता है कि अब तक शालाएँ जिस तरह से संचालित हो रही थीं, आगे भी उसी तरह से संचालित रह पाएँगी। विभिन्न विचारक इशारा करते हुए कह रहे हैं कि अक्सर लॉकडाउन या सोशल डिस्टेसिंग जैसे आपातकाल के दौरान जो व्यवस्थाएँ लागू होती हैं, वह दीर्धकालीन व स्थायी व्यवस्थाओं का रूप ले लेती हैं। समस्त स्कूली विद्यार्थियों के लिए लॉकडाउन के दौरान अधिकतर राज्यों में ऑनलाइन कक्षाएँ आयोजित की जा रही हैं। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा बच्चों की घर बैठे पढ़ाई के लिए ऑनलाईन एजुकेशन पोर्टल "पढ़ई तुहर दुआर ” का शुभारंभ यह कहते हुए किया गया है - "लॉकडाउन के साथ ही आने वाले समय में भी बच्चों की निरंतर पढ़ाई में यह कार्यक्रम बहुत उपयोगी साबित होगा।" इससे यह अंदेशा होता हैं यह व्यवस्था शायद लंबे समय तक बनी रहे। मुमकिन है कि रोज़ाना शाला जाकर पढ़ाई करने का दस्तूर ही खत्म हो जाए। आने वाली पीढ़ियाँ शायद इस बात पर हँसेंगी कि पहले के विद्यार्थी रोज़ाना स्कूल जाकर पढ़ाई करते थे।
प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के स्कूलों को लम्बे समय तक बन्द नहीं रखा जा सकता। इस स्तर के विद्यार्थियों को विडियो आदि के तरीके पढ़ाना, खास तौर पर ग्रमीण अंचलों में नामुमकिन है। शालाओं में विद्यार्थियों की बैठक व्यवस्था में भी सोशल डिस्टेंसिंग के लिहाज से परिवर्तन होगा। हम जानते हैं कि शासकीय शालाओं में सीमित संसाधन हैं एवं बुनियादी अधोसंरचना का नितान्त अभाव है। कई गाँवों में बिजली या मोबाइल नेटवर्क नहीं है। इसलिए सोचना होगा कि सोशल डिस्टेंसिंग के प्रावधानों को लागू करते हुए स्कूली शिक्षा स्वरूप क्या हो सकता है? विडियो कक्षाएँ और इस तरह की अन्य तकनीकों का उपयोग भी किस हद तक किया जा सकेगा? पोडकास्ट के रूप में किसी अज्ञात स्थान से किसी अज्ञात व्यक्ति की आवज़ सुनकर या स्क्रीन पर चलती-फिरती तस्वीरों के माध्यम से सीख पाना प्राथमिक कक्षाओं के विद्यार्थियों के लिए किस हद तक मुमकिन और लाज़मी है? अनुमान लगाना कठिन है कि शिक्षक के अभाव में सीखने की प्रक्रिया का प्राथमिक कक्षाओं के विद्यार्थियों के संज्ञानात्मक विकास पर क्या असर होगा?
माध्यमिक स्तर और उससे ऊपर की कक्षाओं में अभी हर विषय के लिए शालाओं में अलग-अलग शिक्षक होना अपेक्षित है। यदि ऑनलाइन कक्षाओं का चलन बढ़ता है. तो फिर तो शालाओं में शिक्षकों की आवश्यकता बेहद कम हो सकती है। एक शिक्षक का पोडकास्ट या विडियो-कक्षा संकुल या ज़िले से लेकर राज्य तक के सभी विद्यार्थी देख सकते हैं। अगर भाषा की दिक्कत न हो तो सारे देश या दुनिया के विद्यार्थियों तक उस एक शिक्षक की पहुँच हो सकती है। हाँ, विद्यार्थियों से चर्चा करने, उनकी समस्याओं को सुनने और फिर उनके समाधान, सुझाव आदि के लिए शायद कुछ व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ेगी। परंतु यह प्रबल संभावना है कि इस तरह की तकनीक आधारित व्यवस्थाएँ अनेक शिक्षकों को बेरोज़गार कर सकती हैं।
जब पढ़ाई ऑनलाइन होगी तो क्या शिक्षा विभाग पाठ्यपुस्तकों का प्रकाशन करेगा? पाठ्यपुस्तकों की छपाई और वितरण एक बड़़ा कारोबार है। वैसे भी शिक्षा विभाग के पोर्टल में सभी कक्षाओं के किताब ऑनलाइन उपलब्ध होती ही है। मोबाइल फोन, टैबलेट आदि पर चलने वाले एप, पोडकास्ट, विडियो, ऑलनाइन वर्कशीट आदि पाठ्यपुस्तकों की जगह ले लेंगे तो पाठ्यपुस्तकों का पुरा करोबार संकट में आ जाएगा। शिक्षा और तकनीक का यह मेल एक नए उद्योग को जन्म दे रहा है। एप आधिरित शिक्षण सामग्री के निर्माण और विपणन एक नया खड़ा उद्योग है।
विचारणीय है कि पढ़ने-पढ़ाने और सीखने-सिखाने के इन नए तौर-तरीकों का बच्चों के मानसिक एवं शारीरिक विकास पर क्या असर होगा? कंधे पर बाँह रखकर चलने वाले दोस्त अब एक-दूसरे से दूरी बनाकर चलेंगे। साथ घूमना, खेलना आदि गतिविधियाँ बच्चों शारीरिक-मानसिक विकास के लिए बेहद ज़रूरी हैं। बाल-मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चों का विकास अन्य बच्चों के साथ घुलने-मिलने से बेहतर होता है। अब अगर बच्चे एक-दूसरे के साथ मिलकर खेलने के बदले ऑनलाइन गेम खेलेंगे तो इससे उनका मानसिक विकास बाधित होने और यहाँ तक कि कुछ विकार हो जाने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
कुछ चीज़ें सकारात्मक हैं, जैसे बड़े निजी शिक्षण संस्थान भव्य अधोसंरचना में निवेश करके तगड़ी फीस बच्चों से वसूलते हैं। जब अधिकांश शैक्षिक गतिविधियाँ ऑनलाइन होंगी तो ये भव्य इमारतें शायद क्वारेंटाइन सेंटर बन जाएँगी। भारत की स्कूली शिक्षा व्यवस्था सामाजिक-आर्थिक वर्गों की तरह विभाजित और श्रेणीबद्ध है। कुछ निजी स्कूल बेहद महंगे हैं, जिनकी फीस लाखों रूपए है। कुछ मध्यम श्रेणी के स्कूल हैं, जिनकी फीस हज़ारों में है। कुछ गली-मोहल्ले के निजी स्कूल है, इनकी फीस तो कम होती है, लेकिन गुणवत्ता के विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। फिर शासकीय शालाओं की अलग श्रेणियाँ हैं, केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, एकलव्य एकल विद्यालय, उत्कृष्ठ विद्यालय और आम शासकीय शालाएँ। फिर इनके अलावा देश के कुछ हिस्सों में गैर-सरकारी संगठन या चैरीटेबल ट्रस्टों द्वारा चलाए जाने वाले स्कूल हैं, जो मुफ्त हैं या बहुत कम फीस लेते हैं। लेकिन इनका विस्तार और पहुँच सीमित है। तकनीक आधारित शिक्षण प्रक्रिया इस विभाजन को कम करेगी या और ज़्यादा बढ़ा देगी, यह देखना रोचक होगा।
जब सारी कक्षाएँ ऑनलाइन होंगी तो मुमकिन है कि महंगी फीस वहन न कर सकने वाले विद्यार्थी किसी भी स्कूल के शिक्षक की वीडियो कक्षा, पोडकास्ट या पठन सामग्री का इस्तेमाल करते हुए सीख सकते हैं। हो सकता है कि शिक्षक-स्कूल का रिश्ता ही बदल जाए और शिक्षक किसी स्कूल से बन्धे न रहें। इस रूप में शिक्षा सामग्री की पायरेसी की सम्भावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। यद्यपि हो सकता है कि यह चलन हमें स्कूली शिक्षा के लोकतांत्रीकरण की ओर ले जाए और विद्यार्थियों को अधिक स्वायत्त बनाए।
कुछ शालाओं में निम्न मानी जाने वाली जातियों से आने वाले के विद्यार्थियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता रहा है। हो सकता है कि अब वैसा व्यवहार उन विद्यार्थियों के साथ नहीं होगा। हालाँकि यह भी मुमकिन है कि कोरोना संक्रमित परिवार से आने वाले विद्यार्थियों को एक नई तरह की अस्पृश्यता या बहिष्करण का सामना करना पड़े।
कुछ बातें पर सोचने पर मज़बूर भी करती हैं, जैसे - ज़्यादातर सरकारी शालाओं में संसाधन सीमित होते हैं। सहायक शिक्षण सामग्री का एक ही किट का उपयोग सभी बच्चों द्वारा किया जाता है। तो क्या यह संभव है कि हर एक विद्यार्थी के किट उपयोग किए जाने के बाद उसे सेनिटाइज़ किया जाए और फिर दूसरा विद्यार्थी उसे उपयोग करे? या शायद शालाओं में विद्यार्थियों के साथ समूह गतिविधि करना बंद हो जाए। विद्यार्थियों द्वारा समूह में मिलकर कार्य करना सीखने-सीखाने की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण अंग है। शालाओं में होने वाले सांस्कृति कार्यक्रम, वार्षिक उत्सव, खेल प्रतियोगिताएँ भी क्या ऑनलाइन होंगी? एक-दूसरे के बात करना, एक-दूसरे के विचारों को सुनना, नेतृत्व, सहयोग की भावना, सभी का सम्मान, सबको अवसर देना आदि मूल्यों के विकास में इस तरह की सहभागी प्रक्रिया और सामूहिक अन्तर्क्रिया एक कारगर साधन है। सामाजिक अंतर्संबंधों और मानवीय स्पर्श का कोई विकल्प नहीं है। विद्यार्थियों के लिए शिक्षक द्वारा पीठ थपथपाना सिर्फ शाबासी देने की स्थूल प्रक्रिया नहीं, बल्कि उसकी कई भावनात्मक व मानवीय परतें हैं। क्या अब शिक्षक बच्चों की पीठ थपथपा पाएँगे? विद्यार्थी के सामाजिक-भावनात्मक विकास पर सामाजिक और मानवीय अंतर्क्रिया के अभाव का क्या असर हो सकता है? भावी विद्यार्थी कहीं एकाकी और स्वकेन्द्रीत न बन जाएँ?
विद्यार्थियों की अकादमिक क्षमताओं के आकलन के लिए क्या तरीके अपनाए जाएँगे? क्या अब भी विद्यार्थी उत्तर-पुस्तिका में उत्तर लिखकर परीक्षा देंगे? क्या शिक्षक अब उत्तर-पुस्तिकाओं को जाँचने का कार्य करेंगे? यदि कोरोना वायरस हमारे साथ लम्बे समय तक बना रहता है तो क्या शिक्षक प्रत्येक उत्तर-पुस्तिका को जाँचने से पूर्व सेनिटाइज़ करेगें? क्या व्यवहारिक रूप से यह संभव है? शायद हमें मौखिक और ऑनलाइन परीक्षा पद्धति की ओर जाना पड़े।
सरकारी शालाओं में शौचालयों की स्थिति आम तौर पर बदतर होती है। देखा गया कि वहाँ न तो नियमित सफाई हो पाती है और नहीं इसकी ज़रूरत समझी जाती है। समुचित स्टाफ और संसाधनों की कमी इसकी एक प्रमुख वजह है। आजकल हर जगह को सेनिटाइज किया जा रहा है। ऐसे में मुमकिन है कि शालाओं में सफाई व्यवस्था दुरूस्त हो जाए।
शासकीय शालाओं में मिलने वाला मध्यान्ह भोजन गरीब परिवारों से आने वाले बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य के बीच एक सेतू की तरह है। कोराना महामारी के दौर में इस व्यवस्था पर भी संकट के बादल मंडरा सकते हैं। शालाओं में सीमित संसाधन एवं सीमित स्थान के चलते किस प्रकार सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए भोजन बनाना और विद्यार्थियों को खिलाना लगभग नामुनकिन है। यदि यह व्यवस्था बंद होती है तो बच्चों में कुपोषण और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ बढ़ना मुमकिन है। हो सकता है कि अभिभावकों की गरीबी बच्चों की पढ़ाई छुड़ाकर उन्हें कमाई पर लगा दें। यह भी संभव है कि सालभर का राशन अभिभावकों को दे दिया जाए। यदि ऐसा होता है तो विद्यार्थियों की शाला में उपस्थिति कम हो सकती है। पोषण आहार का बच्चों तक पहुँच पाना और उसकी निगरानी करना सम्भव नहीं है।
विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा के लिए प्रशासनिक और अकादिमक स्तर पर अलग ही कवायद करनी होती है। सोशल डिस्टेंसिंग से होने वाले बदलावों के बीच विशेष आवश्यता वाले बच्चों को स्कूली शिक्षा में कैसे समाविष्ट किया जाएगा, यह एक बड़ा प्रश्न है।
बहुत से और भी सवाल हैं जिनका कोई स्पष्ट जवाब अभी नज़र नहीं आ रहा है। शायद आने वाला समय ही इसका उत्तर देगा। परंतु यह तय है कि आने वाला समय स्कूली शिक्षातंत्र के लिए काफी चुनौतिपुर्ण होने वाला है। डिजिटल शिक्षा क्रांति क्या मानवीय मूल्य और भावनाएँ हमारे विद्यार्थियों मे पोषित कर पाएगी? कहीं हम आभासी संसार के लिए मानव-रोबोट तो तैयार नहीं करने जा रहे? बहरहाल इन सारी संभावनाओं के बावजूद कोरोना का दौर को हमें शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ और व्यापक करने के एक अवसर के रूप में देखना चाहिए।
नफरत की खेती करने वालों के लिए यह खबर तमाचे से कम नहीं
रायपुर. धर्म की ठेकेदारी और नफरत की दुकानदारी को ही जीवन का सब कुछ मानने वालों के लिए यह खबर किसी तमाचे से कम नहीं है. देश में नफरत की खेती को बढ़ावा देने वाले लोग इस कवायद में लगे रहते हैं कि किसी न किसी तरह से दो समुदाय के बीच वैमनस्य के बीज का रोपण करने के लिए एंगल- राड- छड़- सब्बल-बल्लम-तसले जैसे कुछ उपकरण का जुगाड़ कर लिया जाय. कुछ मामलों में वे सफल भी हो जाते हैं, लेकिन घूम-फिरकर देश की गंगा-जमुनी तहजीब को मानने वाले लोग उनके नापाक इरादों को धूल चटा ही देते हैं.
बहरहाल इस देश के अटूट भाई-चारे पर यकीन रखने वालों के लिए एक अच्छी खबर यह है कि झज्जर में तबलीगी जमात के जो 142 लोग कोरोना पीड़ित थे उनमें से 129 लोग पूरी तरह से ठीक हो चुके हैं. जो लोग ठीक हो गए हैं उनमें से अधिकांश ने कोरोना प्रभावितों को अपना प्लाज्मा देने के लिए रजामंदी दी है.
प्लाज्मा का दान
प्लाज्मा का दान कोई रक्तदान जैसा नहीं है. इसके दान से किसी तरह की कमजोरी नहीं आती है. प्लाज्मा थैरेपी में कोरोना से ठीक हुए व्यक्ति के खून से प्लाज्मा निकालकर उस व्यक्ति के शरीर में डाल दिया जाता है जो कोरोना संक्रमित है. इस प्रक्रिया से मरीज के खून में वायरस से लड़ने के लिए एंटीबॉड़ी ( प्रतिपिंड ) तैयार हो जाती है. एंटीबॉडी वायरस से लड़ते हैं और उन्हें कमजोर कर देते हैं. मीडिया में जो रिपोर्ट आई है उसके मुताबिक प्लाज्मा तकनीक मेडिकल साइंस की आधारभूत तकनीक है. दिल्ली में कोरोना से ठीक हुए कुछ लोगों के खून से प्लाज्मा निकालकर स्टोर किया गया और फिर उसे दूसरे मरीज को दिया गया. इसके काफी सकारात्मक परिणाम देखने को मिले. इसके बाद वहां के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को यह कहना पड़ा है- अगर आपके मन में किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति के प्रति कोई दुर्भावना है तो याद रखिए कि किसी दिन उसका प्लाज्मा आपकी जान बचा सकता है. उन्होंने कहा है कि मुसलमान का प्लाज्मा हिन्दू की जान बचाएगा और हिन्दू का प्लाज्मा मुसलमान की जान बचाएगा. हम सबका खून एक जैसा लाल है.
दिल्ली में सफल प्रयोग के बाद अब हर जगह प्लाज्मा थैरेपी को अपनाए जाने को लेकर चर्चा चल रही है. खबर है कि कोरोना के बढ़ते मामले को देखते हुए बिहार सरकार भी प्लाज्मा थैरेपी आजमाने जा रही है.
कल तक जो लोग कोरोना के फैलाव के लिए जमाती- जमाती कहकर शोर मचाते थे वे फिलहाल जमातियों के द्वारा प्लाज्मा दान दिए जाने की खबर से खामोश हो गए हैं. वे सोच नहीं पा रहे हैं कि क्या करें ? इस बीच सोशल मीडिया में नफरत फैलाने वाले लोगों से सवाल भी पूछे जा रहे हैं- क्यों भाई...कभी कोरोना से प्रभावित हो जाओगे तो क्या जमातियों से प्लाज्मा लोगे ?
वैसे नफरत का किंग-कोबरा बनकर घूमने वालों के लिए रविवार का दिन बेहद निराशाजनक रहा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जैसे रमजान के पवित्र महीने में मुस्लिम भाइयों से इबादत करने की अपील की और बधाई दी वैसे ही नफरत के ब्रांड एम्बेसडरों के चेहरे फक्क पड़ गए. कुछेक ने तो फेसबुक पर अपना गुस्सा पीएम पर ही उतार दिया. कईयों को लगा कि उनके आका ने धोखा दे दिया है. हालांकि एक- दो जगह यह टिप्पणी भी देखने को मिली- अब मोदीजी ने किया है तो ठीक ही किया होगा. समय-समय पर भूत-प्रेत-चुड़ैल और मौका देखकर तबलीगी-तबलीगी करने वाले इंडिया टीवी के रजत शर्मा ने भी एक टिव्हट किया है. उन्होंने लिखा है- तबलीगी जमात के लोगों ने एक नेक काम किया है. झज्जर के जिस हॉस्पिटल से 129 लोग ठीक हो गए हैं उनमें से कई दूसरे मरीजों की प्लाज्मा थैरेपी के लिए अपना खून देने के लिए तैयार है. मदद का ये जज्बा काबिले तारीफ है. सवाब मिलेगा.
उनके इस टिव्हट के बाद फेसबुक पर एक जोरदार टिप्पणी पढ़ने को मिली-
लगता अर्णब गोस्वामी की दशा देखकर अपने शर्मा जी सुधर गए हैं. शर्मा जी को परशुराम जयंती की बधाई.
- राजकुमार सोनी
राजकुमार सोनी 9826895207
मजदूरों की अपनी पहचान है... उसे मत कहिए पलायन करने वाला
शिवाजी राय
हम जिस गाँव में रहते हैं वहाँ मेरी दस पीढ़ियाँ गुजर गयी होंगी। उस गाँव में मेरे खानदान के आने वाले पहले व्यक्ति, सुनने में आता है कि आज के गाजीपुर जनपद के किसी गाँव से आए थे। यानी लगभग दो सौ वर्ष पहले, अब वो गाँव बहुत बड़ा हो गया है। देश में बहुत कम ऐसे गाँव होंगे जो दो- ढाई सौ वर्ष से ज्यादा पुराने होंगे। आजादी से पहले देश में हैजा, प्लेग, तावन, सूखा, बाढ़ जैसी आपदायें अनेकों बार आई होंगी और लोग गांवों को छोड़कर दूसरी जगह जाकर बस गए होंगे और उसी के साथ गाँव उजड़ते बसते रहते होंगे।
इतिहास के बारे में हमें इतना ज्ञान तो नहीं है लेकिन अपने होश से आजतक, अपने पूर्वजों से या अगल-बगल के गांवों या कस्बों या शहरों में उपेक्षित भाव से किसी के बारे में प्रवासी या माइग्रेन्ट कहते नहीं सुना। आजादी की लड़ाई के दौरान साम्राज्यवाद के खिलाफ़ आपसी धार्मिक, जातीय और क्षेत्रीय झगड़ों को खत्म कर राष्ट्रीय भावना पैदा की जाती थी। देशी-विदेशी भाव उत्पन्न किया जाता था, जिससे अंग्रेजों के उपनिवेश को खत्म किया जा सके। 1857 की क्रांति इस बात का सबूत है कि हम सारे भेद-भाव खत्म करके उस लड़ाई को लड़े।
15 अगस्त 1947 को हमें जो आजादी मिली वह निश्चित रूप से लोगों के अंदर राष्ट्रीय भावना जागृत होने के कारण ही संभव हो सकी। आजादी के बाद जो देश की हालत थी उसके बारे में जो भी लोग ठीक समझते हैं, उन्हे मालूम है कि आज देश में जो सामाजिक, आर्थिक या राजनैतिक विकास हुआ है उसके निर्माण में बड़ी भूमिका देश के किसानों- मजदूरों एवं मेहनतकश लोगों की रही है. देश के अंदर आपस में तमाम सांस्कृतिक, सामाजिक एवं भाषाई भेद के बाद भी, आम सहमति पर सभी भारत के लोग भारतीय नागरिक के रूप में एका के भाव से काम करते रहे हैं. राज्यों के आपसी एवं क्षेत्रीय झगड़े अपने हक हकूक के लिए चलते हैं और चलते रहेंगे. देश को आजाद होने के बाद अपना संविधान मिला और लोगों को अपने संवैधानिक अधिकार मिले जिसके तहत देश के किसी भी कोने में किसी भी नागरिक को कार्य करने का और रोजी-रोटी कमाने का हक मिला.
भारतीय संविधान की उद्देशिका में लोकतंत्रात्मक, धर्म-निरपेक्ष एवं समाजवादी जैसे शब्दों के साथ संविधान का ढांचा तैयार किया गया. हमने देखा कि देश के नागरिक किसी जाति धर्म या क्षेत्र के लोग हों, देश के कोने- कोने में जाकर फैक्ट्रियों में मजदूर के रूप में, शहरों में रिक्शा, ठेला- खुमचा छोटी दुकान या व्यवसाइयों के यहाँ या तमाम किस्म के कार्य से जुड़ कर अपनी रोजी- रोटी का काम चलाते हैं. यहाँ तक कि आजादी के पहले से ही ट्रेड सेंटर मौजूद थे. जिले या क्षेत्रीय स्तर पर बड़े- छोटे या कुटीर उद्योग मौजूद थे. वहां काम करके अपना पेट भर लेते थे. शुरुआती दौर में सरकार की नीतियों से देश में भारी उद्योग, मझोले उद्योग, छोटे उद्योग एवं लघु उद्योग एवं भारी संख्या में कुटीर उद्योग की स्थापनायें हुई, जिसके कारण दुर्गापुर, भिलाई, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं एन सी आर, गुजरात, अहमदाबाद, महाराष्ट्र में पुणे इत्यादि जगहों पर और झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़ में कोल माइंस जैसी जगहों पर रोजगार के अवसर बढ़े और भारी संख्या में मजदूर के रूप में देश के नौजवान पहुँच गए.
सत्तर के दशक में जीडीपी में कृषि क्षेत्र की भागीदारी तुलनात्मक रूप से ज्यादा थी और खाद्यान उत्पादन में हम आत्मनिर्भर हो रहे थे। किसान उत्पादन में लागत मूल्य कम करने की मांग करता था तो एक तरफ अपने सामान के मूल्य को बढ़ाने की मांग करता था। हमें याद है कि गेंदा सिंह जैसे लोग जो किसानों के आंदोलन से जुड़े हुए थे तो चौधरी चरण सिंह जैसे लोग के हाथ में कभी कभी प्रदेश और देश की कमान भी आ जाती थी। जिससे किसानों की वकालत सदन से खेत तक मजबूत थी। उसी के साथ ही देश में फैक्ट्रियों से लेकर शहरों के गली कूचों तक काम करने वालों की आवाज भी सड़क से संसद तक और महिलाओं की आवाज भी बहुत मजबूती से घरों से संसद तक पहुंचती थी। माया त्यागी और नारायनपुर कांड जिसने कभी इंदिरा गांधी एवं सत्ता की चूलें हिला दी थी। लगता था कि देश में मजबूती से किसानों, मजदूरों, महिलाओं को ताकत मिलेगी, समाजवाद तेजी से आगे बढ़ेगा। देश की संसद एवं विधानसभाओं में जन प्रतिनिधि के रूप में क्षेत्रों से आने वाले प्रतिनिधि किसानों की वकालत करने वाले होते थे या मजदूरों की या देश के गरीबों महिलाओं या दलितों या पिछड़े वर्ग (जो की किसी न किसी रूप में मेहनतकश ही थे) उनकी वकालत करने वाले होते थे।
उदाहरण के रूप में हम जिस इलाके से आते हैं उस इलाके से गेंदा बाबू (प्यार से लोग जिन्हें गन्ना सिंग कहते थे), विश्वनाथ राय, झारखंडे राय, सरयू पांडे, अलगू राय शास्त्री, राजनरायण, चंद्रशेखर, जनेश्वर मिश्र, राज मंगल पांडे, राम नरेश पांडे, रामेश्वर लाल, कृष्णा बाबू (जो गरीबों के मसीहा कहे जाते थे), रामधारी शास्त्री, हरिकेवल कुशवाहा, कुबेर भण्डारी जैसे लोग जनता के प्रतिनिधि के रूप में सदन में मौजूद होते थे तो किसान और मजदूर बेफिक्र होता था कि सदन और सदन से बाहर मेरी वकालत निश्चित होगी। जिसके कारण वो खेत खलियान व कल कारखानों से लेकर गली कूचों तक निफिक्र थे। ऐसा होता भी था। सड़कों पर भीड़ भड़ाके के साथ देश के कोने-कोने से मजदूरों किसानों की आवाज गूँजती रहती थी।
डॉ. लोहिया ने कहा था कि जब देश की सड़कें सूनी दिखें तो निश्चित समझना कि देश में तानाशाही है और ऐसा ही दिख रहा है। आप सोचेंगे कि मैं ये अतीत की बातें क्यों कर रहा हूँ; इसलिए कि किसानों या मजदूरों के हित में संसद या असेंबली में जितने कानून बने थे वह इन लोगों के जद्दो जहद और देश की वास्तविक स्थिति का सही-सही एहसास होने के नाते संभव हो सका था। लेकिन जब उपरोक्त अतीत को छोड़कर हम त्रिकोणीय गठबंधन (जातीय, धार्मिक, पूंजीवादी) के जाल में फँस गए तो देश में सार्वभौमिक सवालों पर बहस कमजोर हो गयी और देश की सदनों में जाति-धर्म एवं पूजीपतियों के प्रतिनिधि चुन कर जाने लगे। अब उनकी चिंता निजी हितों की हो गयी। सार्वजनिक क्षेत्र से लेकर निजी सेक्टर के जितने भी उपक्रम या कल कारखाने क्षेत्रीय स्तर पर स्थापित हुए थे उसको देश के पूँजीपतियों के हाथों बेच दिया गया या उनके विरुद्ध नीति बनाकर उन्हें उजाड़ दिया गया।
डॉ. लोहिया ने एक बात और कही थी कि जिंदा कौमे पांच साल इंतजार नहीं करती। तब ये देखा जा रहा था कि जनता के सवालों पर देश या राज्यों की सरकारें उठा गिरा करती थी। तब देश के किसी भी नेता के अंदर कूवत नहीं थी कि लोकतंत्र को चुनौती देते हुए यह कह दे कि हम 50 साल राज करेंगे। यह सिर्फ पूंजीवादी ताकतों या पूँजीपतियों के बल पर ही दावा किया जा सकता है। क्योंकि अब उन्हीं के पास यह ताकत चली गयी है कि अरबों खरबों रुपये निवेश करके अपने लिए सरकार बना बिगाड़ सकते हैं।
यही कारण है कि मजदूरों के हित में बने सारे कानून या तो खत्म कर दिए गए है या खत्म कर दिए जाएंगे। अब उनके पास कोई अधिकार नहीं रहने दिया जाएगा जिससे वे दावा कर सकें कि एक मजदूर के रूप मे उनके श्रम की कीमत का निर्धारण हो। अब वे ठेका मजदूर, डेली मजदूर, पैकेज मजदूर, तिमाही मजदूर, छमाही मजदूर, संविदा मजदूर, पूरबिया मजदूर, बिहारी मजदूर, भैया, असमियाँ, बंगाली, बंधुआ मजदूर, महिला मजदूर, सरकारी मजदूर, भठ्ठा मजदूर, अर्ध सरकारी मजदूर, अवैतनिक मजदूर, वेतन भोगी कुशल और अकुशल मजदूर, माइग्रेंट मजदूर, पेंसनधारी मजदूर, बिना पेन्सन वाला मजदूर, टेक्निकल- नॉन टेक्निकल मजदूर, बौद्धिक ठेका मजदूर, बौद्धिक आगंतुक मजदूर और मैनेजेरियल मजदूर आदि-आदि के रूप में उनकी पहचान बना दी जाएगी जिससे इनका शोषण बहुत ही सरल हो जाए |
ये बंटवारा इसलिए हो सका कि सीधे सीधे इनकी वकालत करने का जो प्लेटफ़ॉर्म था मजदूर संगठन, उन्हें भी कानून बना कर कमजोर कर दिया गया और उनके अधिकार समाप्त कर दिए गए। और शोषण के विरुद्ध मांग करने के जो लोकतांत्रिक तरीके थे, जैसे धरना-प्रदर्शन, अनशन, हड़ताल, उन्हें कानूनी तौर पर अवैध घोषित कर दिया जाता है। जिसके कारण मजदूरों के हक को पाने के लिए जो विरोध की ताकत बन सकती थी अब वो मुश्किल हो चुका है। ऐसा नहीं है कि ये संसद या विधानसभाएं जो गठित होती हैं या चुनी जाती हैं इसके लिए वोट नहीं पड़ता है। अंतर सिर्फ इतना है कि वोट का आधार किसानों, मजदूरों , महिलाओं , गरीबों के मुद्दे न होकर जातीय और धार्मिक या पैसे की ताकत होता है। लोकतंत्र में जनता के पास सबसे बड़ी ताकत वोट की होती है और वही वोट जनता के खिलाफ संसद में कानून बनाने में सहायक भी होती है।
मुझे हेनरी डेविड थोरो का कथन याद आता है। थोरो ने कहा था कि जो हम टैक्स देते हैं उसी से पुलिस पाली जाती है और वही पुलिस मेरे ऊपर डंडे बरसाती है। इसका मतलब मेरा ही पैसा मेरे ऊपर डंडा बरसाता है। उनका अवज्ञा आंदोलन दुनिया में प्रसिद्ध है जिसे गांधी ने भी अख्तियार किया था। जो जनता वोट डालती है, उपरोक्त पहचान के साथ देश के कोने-कोने में जिनके श्रम की लूट हो रही है, इन्हीं उजड़े हुए किसान परिवारों के बच्चे हैं जिन्होंने गाँव मे जातीय या धार्मिक पहचान बना रखी है। पूँजीपतियों एवं पूंजीवाद के इस कुटिल खेल के शिकार के रूप में पूरे देश के मेहनतकश लोग आ चुके हैं।
आजादी के बाद पहली बार आई कोरोना वायरस महामारी में देश के छोटे बड़े सभी शहरों में मेहनत मशक्कत करके रोटी कमाने वाले मेहनतकश वर्ग के लोगों को देश की कॉर्पोरेट एवं तथा कथित कारपोरेट मीडिया, अनैतिक रूप से कमाए धन से स्थापित शहरी मध्यवर्ग, सरकारी तंत्र और व्यसायिक वर्ग एवं पूरा कॉर्पोरेट जगत, धार्मिक एवं जातीय राजनीति करने वाले लोग एवं केंद्र और क्षेत्रीय सरकारों ने एक स्वर से इन्हें नई पहचान दी है। अब इन्हें माइग्रेंट वर्कर्स कहा जाने लगा है।
लॉकडाउन के दौरान लाखों लाख मजदूर बेघर हुए जिनका मजदूरी और राशन के बिना जीना मुश्किल हो गया. तब वे शहरों से निकल गए जबकि उनका निकलना खतरे की घंटी थी। उन्हें जगह-जगह रोक कर के कोरेंटाईन कर दिया गया और जो नहीं निकल सके उन्हें भारी संख्या में बड़े शहरों में ही उनकी हालात पर छोड़ दिया गया। कंपनियों से लेकर वे सेठ महाजन या जहां भी वे काम करते थे और जिनके लिए मुनाफा कमाने के साधन हो सकते थे जो मनमाना उनकी श्रम की लूट कर रहे थे और उनके बल पर ऐशो आराम की जिंदगी जी रहे थे उन सभी लोगों ने उनसे पल्ला झाड़ लिया। किसी ने भी उनके भोजन उनके परिवार की देखरेख या किसी प्रकार की चिंता न की। यहां तक कि सरकारी तंत्र और मीडिया ने ये चिन्हित करके बता दिया कि देश के 31 जिलों मे 33% से ज्यादा कोरोना के शिकार माइग्रेंट वर्कर्स हैं। अब उनकी पहचान, जो पहले क्षेत्रीय आधार पर या विभिन्न किस्म के मजदूर के नाम पर थी, अब वे सिर्फ और सिर्फ माइग्रेंट के रूप में घोषित कर दिए गए हैं। अब तो अखबारों में कई पन्ने माइग्रेंट वर्कर्स के नाम पर आ रहे हैं।
जब मैं माइग्रेंट शब्द सुनता हूँ तो मुझे धक्का लग जाता है। गांधी ने साउथ अफ्रीका के आंदोलन में मुख्य रूप से मजदूरों की गिरमिटिया की पहचान के खिलाफ उनके पहचान पत्र को जलवाया था। गांधी साउथ अफ्रीका में गिरमिटिया मजदूरों के रूप में गए लोगों की पहचान एक नागरिक के रूप में चाहते थे और आज गांधी के देश में सारे अखबार, सारा तंत्र, सरकारें चीख-चीख के मजदूरों को माईग्रेंट बता रहे हैं।
ये मेहनतककश लोग जो उत्पादन से लेकर किसी भी किस्म के निर्माण और जीडीपी में सबसे अहम भागीदारी निभाते हैं, जिनके बिना गांव से लेकर मेट्रो सिटी तक और सड़क से लेकर कूचों तक स्वच्छता अभियान धरा का धरा रह जाता, नाले बजबजाते रहते और पांच सितारा से लेकर नुक्कड़ के होटलों में मक्खियां भिनभिनाती। हवाई जहाज से लेकर ई-रिक्सा तक धूल चाटते। हवाई से लेकर सड़क यात्राएं ठप्प हो जाती। दैत्याकार फैक्ट्रियों से लेकर छोटे-छोटे उद्योग के पहिये रुक जाते और खाद्य सामग्री के उत्पादन से लेकर विपणन तक के बिना जीवन मुहाल हो जाता, उन्हें शहरी लोग बेशर्मी से प्रवासी बताते हैं। जैसे वे मजदूर देश के नागरिक न हों। मैं उन लोगों से पूछना चाहता हूं कि जो घर से काम पर निकल गया वो प्रवासी हो जाता है तो आज देश में गिनती के काम छोड़ दिये जाएं तो कोई ऐसा कार्य है जो घर पर संभव है ? तो क्या ऐसा नहीं लगता कि जो मजदूर की माइग्रेंट के रूप में नई परिभाषा गढ़ी जा रही है तो प्रधानमंत्री से लेकर देश का पूरा तंत्र, देश के सारे व्यवसायी या अन्य सभी लोग जो अपने घर से दूर जाकर काम कर रहे हैं वे माइग्रेंट नहीं हैं ? और इसका उत्तर यही है कि ये सारे माइग्रेंट लोग अपनी पहचान छिपाकर उन मजदूरों को जो देश का निर्माण करते हुए एक नया और बेहतर समाज बनाते हैं, जो दुनिया की सबसे उत्तम किस्म की संस्कृति है, जिसमें वे जीते मरते हैं और जिन्होंने देश और दुनिया में इतिहास रचा है, उनके खिलाफ ये एक बड़ा छलावा है।
मैं मेहनतकश साथियों से कहना चाहता हूँ कि आपको अपनी पहचान मेहनतकश के रूप में बनानी ही होगी। जातीय, धार्मिक और क्षेत्रीय पहचान विषम परिस्थिति में काम नहीं आएगी। इस कोरोना महामारी ने ठीक से इसका बोध करा दिया है। महामारी तो चली जाएगी लेकिन उसके बाद पुनः वे कल कारखाने, सभी संस्थान और अन्य सारे कार्यक्षेत्र जो ठप्प पड़े हुए हैं, उन्हें खड़ा करने के लिए आपकी ही आवश्यकता पड़ेगी। फिर ये लोग आपकी मेहनत पर मुनाफा कमाने से लेकर ऐशो आराम की जिंदगी के लिए आपकी राह जरूर देखेंगे। वे जानते हैं कि आप सीधे-साधे लोग थोड़ा पुचकारने पर गालियां और उपेक्षाएं भूल कर ट्रेनों मे भर कर वापस आएंगे और ये भी कि इस व्यवस्था ने आपके पास कोई और रास्ता नहीं छोड़ा है। वे जानते हैं। ऐसा कई बार हुआ है। भगाए भी जाते हैं और बुलाए भी जाते हैं लेकिन जो नई पहचान दी गयी है ये अति घिनौनी है। इस पहचान को खत्म करने के लिए पूरे देश में अपनी पहचान मेहनतकश मजदूर के रूप में बनानी ही होगी। वही पहचान आपके गाँव से लेकर शहरों तक, खेती किसानी से लेकर मेहनत मजदूरी तक एवं देश के निर्माणकर्ता के रूप में आपको स्थापित कर सकेगी।
- लेखक किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष हैं और उत्तर प्रदेश के देवरिया में रहते हैं. संपर्क-9450218946
- साभार- समकालीन जनमत
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गमछा, जनता और जिंदगी
छत्तीसगढ़ के बलरामपुर में सहायक प्राध्यापक पीयूष कुमार के इस लेख को पढ़कर बंगाल के एक प्रसिद्ध कवि नीतिश रॉय की कविता गमछा की याद ताजा हो जाती है.कोरोना काल में जिस गरीब के पास मॉस्क खरीदने के लिए पैसे नहीं है वह गमछे का इस्तेमाल कर सकता है. नीतिश रॉय भी अपनी कविता में गमछे को कभी बाजू में बांध लेते हैं तो कभी कमर में लपेटकर लड़ने के लिए खुद को तैयार कर लेते हैं. गमछा आम आदमी की ताकत है.
गमछा सदा राखिए, ढांके अंग प्रत्यंग।
समय पर सिर चढे रात ओढिए संग।।
कहै कवि कविराय, नहाय ढँके अंग।
अंत समय भी रहे एक ही वस्त्र संग।।
पता नहीं उपर्युक्त पंक्तियां किसकी हैं, पर गमछे का महात्म्य भारतीय लोक में बहुत बड़ा है। यूं तो गमछा भारत मे बारहमासा है पर गर्मियों में अति आवश्यक कपड़ा है। यह परिधान नहीं है बल्कि उससे ऊपर की, आगे की चीज है। तीन वस्त्र आज भी महत्वपूर्ण हैं, कफन, साड़ी और गमछा। यह आज भी एक वस्त्रीय हैं और आगे भी रहेंगे।
मनुष्य ने जब वस्त्रों की आवश्यकता महसूस की होगी, सिलाई की मशीन के आविष्कार से पूर्व सारी दुनिया में यही एक वस्त्र अलग अलग ढंग से उसने पहना है। प्राचीन काल में 'वास' और 'अधिवास' कहानेवाला यह गमछा भारतीय ग्रामीण जनता का प्राण है या यूं कहें कि पहचान है। गले में या कांधे में डाल के चल दिए, तालाब या नदी मिली तो नहा लिए, फरिया लिए। बिछाने को कुछ नहीं तो यही काम आया और ओढ़ने का तो हइये है। तेज गर्मी है तो सिर पर बांध लिया जाता है। सिर पर बांधने से गरीब आदमी को भी राजा की फीलिंग आती है थोड़ी सी शायद। इस गमछे का एक प्रिय साथी है, लाठी। हालांकि यह दमखम वालों में या दबंगों में ताब के साथ देखने को मिलता है जबकि आम आदमी इसे सुरक्षा और सहयोग के नाम पर धारण करता है।
गमछे का ही एक रूप है अंगोछा। यह अंग को पोंछने की क्रिया से प्रचलित शब्द है। यह अंग पोंछा से उच्चारण सुविधा की दृष्टि से अंगोछा हुआ है। जब इंसान बीमार होता है तो इसी अंगोछे को गीला कर देह में फिरा दिया जाता है। कभी कभी किसी वजह से नही नहाने की दशा में शरीर को अंगोछ लिया जाता है। गमछा शब्द में धूप, हवा, पानी, बादर, आंधी - तूफान आदि परेशानी रूपी गम को जो पोंछ दे, निज़ात दे दे, इस भाव में यह गमपोछा से गमोछा होते गमछा हुआ प्रतीत होता है। उत्तर भारत में गर्मियों में सत्तू बहुत खाया जाता है। यहां यह गमछा थाली या पत्तल का काम देता है। श्रमिक, किसान और राहगीर गमछे पर ही सत्तू में पानी और नमक मिलाकर आटे जैसा सान लेते हैं और लाल मिर्च भरा अचार या मूली, हरी मिर्च या प्याज के साथ खाकर भर लोटा पानी पीकर छाँह में थोड़ा सुस्ता लेते हैं। श्रम के बीच के इस अवकाश और सभ्यता के विकास में गमछे का महत्व अब तक नही लिखा गया है।
यह गमछा बचपन के एक खेल में भी कोड़े के रूप में काम आता रहा है। यह खेल देश के अलग अलग हिस्सों में मारुल, कोड़ा पिटानी, कोड़ा मार, रुमाल चोर, गुर्दा, पटकू झपट और कोकला छिपाकी आदि नामों से प्रचलित है। विंध्य में इसे गुर्दा कहते हैं, वहीं मध्य छत्तीसगढ़ में यह फोदा या फोदका कहलाता है। इस खेल में जब दाम देते हैं और बच्चे गाते हैं, "घोड़ा लगाम खाए, पीछे देखे मार खाये..." तब उमेठ कर दोहरे किये गए गमछे की पीठ पर मार की आवाज भला किसे भूली होगी। मन करता है बचपन का कोई दोस्त अतीत से निकलकर इसी दोहरे किये गए कोड़े से फिर से मारे, बार बार मारे !
लोक में गमछे का महात्म्य जीवन और सुख दुख से बेहद गहरे जुड़ा है। मेले मड़ई या बजार से लौट रहा पिता बच्चों के लिए चना चबैना, खजानी इसी गमछे में बांध लाता था। इस खजाने के घर मे खुलने पर बच्चों की आंखों में उपजी खुशी की चमक और मां बाप के चेहरे के सुकून की बराबरी दुनिया सारे धर्मग्रंथ नही कर सकते। गमछे में दया - मया भी गठिया के रखा जाता है जो कि हमेशा अदृश्य रहा है। श्रम से उपजे पसीने को इसी गमछे ने बरसों से सोखा है। बेटी के बिहाव में जब तेल चघनी के समय मोहरी (शहनाई) के साथ लोकवाद्यों की अन्तस् में उतरती मार्मिक धुन जब बज उठती है तो हर पिता के छलक उठे आंसुओं को इसी गमछे ने हर बार संभाला है। गमछे का एक बड़ा महत्व हमारे यहां छत्तीसगढ़ में बारात स्वागत के वक्त समधी भेंट में देखने को मिलता है। मुख्य समधी तो विनम्र रहते हैं, पीछे कका-बड़ा वाले भाई बड़े ताब में सिर में गमछा लपेटते नजर आते हैं। जिसके पास नही होता, वह दूसरे से मांगकर लपेट लेते हैं।
अब नेता लोग भी अपनी पार्टी के हिसाब से अनिवार्य रूप से धारण कर रहे हैं। अभी तो केसरिया और तिरंगे की किनारी वाली ज्यादा दिखती है। उधर ठंडे देशों के मार्क्स और लेनिन कोट वाले थे वरना वामपंथी नेता भी शुरू से लाल गमछा धारण करते शायद। हालांकि अभी अभी कुछेक वामपंथी युवा लाल गमछा लगाए दिखने लगे हैं। कुछेक सालों में नीला राजनीतिक गमछा भी दिखाई देने लगा है। बाकी राजनीतिक पार्टियां भी अपने झंडे के निशान को गमछे में छापकर गले मे डालने लगे हैं। इन सबका अर्थ है, गले मे गमछा डालने का दौर अभी लंबा चलेगा।
हमारे यहां छत्तीसगढ़ में गमछे को पटका कहते हैं जो तीन हाथ के माप का होता है। एक शिक्षक हैं जो रिटायर हो चुके हैं, उन्होंने जीवन भर यही पटका पहना। जमाना उन्हें पटकू गुरुजी के नाम से पुकारता और जानता है। ये है पटके का महत्व। इसी पटका से बड़ा पांच हाथ का पंछा होता है। पंछा छोटी धोती हुई जो गाँधीजी पहनते थे। गाँधीजी उस जमाने मे लंदन से बैरिस्टरी कर आए और यहां के आमजन की बराबरी के लिए जीवन भर यही पहना। आज कोई कल्पना भी नही कर सकता कि कोई महात्मा ऐसा भी हुआ था। गांधीजी से याद आया, हमारे यहां एक लाल धारियों वाला बड़ा ही सस्ता गमछा बहुप्रचलित है जो गांधी गमछा कहलाता है। लोक में पंछा से आगे हम देखते हैं तो एक और इससे बड़ा सात हाथ का कपड़ा दिखता है जो सतवारी कहलाता है। जी हां, यही तो है धोती !
गमछा पिछले कुछ सालों से लड़कियों के लिए वरदान साबित हुआ है अपने नए संस्करण 'स्टोल' के रूप में। गर्मी से या प्रदूषण से या बुरी नज़रों से बचने में यह बड़ा कारगर है उनके लिए। इसलिये अब फुटपाथ पर लंबे लंबे सूती के रंग - रंग के स्टोल बिकते मिल जाते हैं। स्टोल को या गमछे को नए ढंग से बांधना भी एक कला है। लगभग आधे दर्जन तरीकों से तो इसे लड़कियां बांध ही लेती हैं। गमछा आज पहचान छुपाने का भी साधन हो गया है। प्रदूषण से बचने के नाम पर गमछे या स्टोल में बंधे चेहरों की जाने कितनी प्रेम कहानियां अभी चल रही हैं। इधर जिस तरह जाड़े के दिनों में सूरज कोने - कोने होता छुप ही जाता है, वैसे ही गमछे की आड़ उधार दिए लोगों से बचने में भी कारगर सिद्ध हो रहा है। कामना है उनकी जेब में इतना आये की वे कर्ज चुका सकें।
हमने तो गमछे का उपयोग रस्सी की तरह किया है। जब दूसरी बाइक का तेल खत्म हो गया तो पहली बाइक से बांधकर उसे खींचा है। बतौर रस्सी गमछा प्राण ज्यादा ले रहा है इन दिनों। इससे कहीं गला घोंटा जा रहा है तो कहीं यह एक कपड़ा कहीं पड़ी लाश को ढंकने के भी काम आ रहा है। इधर किसान की जिनगी का संगवारी इस गमछे का साथ अंत तक हो चला है। कर्ज में डूबे किसान अब गले मे फंसाकर इसी में झूल रहे हैं। लगभग नब्बे बरस पहले ही की तो बात है, प्रेमचंद ने धनिया से कहलवाया था- "पांचो पोशाक काहे ले जाते हो, ससुराल जा रहे हो क्या?" पांचवां उतार दिया था... बस लाठी, लोटा, बटुआ, तम्भाख लिया गमछा था, वो भी साथ ले गए... ! "यही गोदान था !
हमारा आमजन गमछे सा ही सीधा है, सरल है। यह महादेश परिधानों में नहीं, इसी गमछे में जीता है। वह बचा रहे, यही कामना है।
पृथ्वी की ओर लौटती दुनिया
विनोद वर्मा
दुनिया को कोरोना ने भयभीत कर रखा है. हर व्यक्ति आशंका से कांप रहा है कि पता नहीं कल क्या होगा. कारोबार ठप्प है. उद्योगों में ताले लटक रहे हैं. कल तक हम ‘लॉक-डाउन’ से शायद परिचित न रहे हों. लेकिन अब बच्चे तक जानते हैं कि ये क्या है.
लेकिन बुरे के दौर में सब कुछ बुरा नहीं है. दुनिया भर से अच्छी ख़बरें भी आ रही हैं. कोरोना की मार से कराह रहे इटली, स्पेन, अमरीका से और दिल्ली, बंगलौर, मुंबई, रांची और रायपुर से भी.
ये अच्छी ख़बरें हैं प्रदूषण के कम होने की. आसमान के फिर से नीला दिखाई देने की. रात में चंद्रमा के साथ तारे देख पाने की. नदियों से साफ़ होने की. और जंगली पशुओं के शहरों तक पहुंच जाने की.
विभिन्न समाचार पत्रों व वेबसाइट पर प्रकाशित ख़बरों न्यूज़ एजेंसी की ख़बरों और सोशल मीडिया पर आई ख़बरों में जो कुछ पढ़ने को मिला उसकी एक झलक देखिए:
- गंगा साफ़ हो गई है. कानपुर में भी और वाराणसी में भी
- दिल्ली में हवा साफ़ हो गई है. प्रदूषण का स्तर 71 प्रतिशत तक कम हो गया है
- यमुना के पानी में आमतौर पर दिखने वाला झाग कम हो गया है
- नोएडा सेक्टर-18 में नील गाय दिखी
- सिक्किम की राजधानी गंगटोक में हिमालयन भालू शहर तक आ गया
- देहरादून तक हाथी आ पहुंचे
- केरल के कोझिकोड में आबादी वाले इलाक़े तक दुर्लभ मालाबार बिलाव-कस्तूरी पहुंचा
- ओडिशा के समुद्र तट पर पहली बार लाखों कछुए दिन में प्रजनन करते देखे गए
- गौर (भारतीय बायसन) कर्नाटक में दिन में सड़कों पर देखा गया
- मुंबई की सड़कों पर मोर दिखा
- बिहार में बख़्तियारपुर में नील गाय का झुंड खेतों के बीच से गुज़रता दिखा
- पटना में एयरपोर्ट बेस के पास तेंदुआ दिखा
- गाज़ियाबाद पिलखुआ में अस्पताल में बारहसिंगा दिखा
लगभग यही स्थिति विदेशों में भी दिखाई दे रही है:
- ब्रिटेन के उत्तरी वेल्स में शहरी इलाक़ों में पहाड़ी बकरियां दिखीं
- रॉमफ़र्ड, इंग्लैंड में हिरण शहरी बस्तियों में दिखे
- वेनिस, इटली की प्रसिद्ध नहरों में समुद्री पक्षी तैरते दिख रहे हैं, पानी भी साफ़ हो गया है
- सैंटियागो, चिली में शहर में प्यूमा (पहाड़ी बिलाव) दिखा
- पेरिस, फ़्रांस में सेन नदी से निकलकर बत्तखों का झुंड सड़कों पर घूमता दिखा
- लंदन के मिडिलसेक्स इलाक़े में शहरी बस्ती के बीच लोमड़ी घूमती हुई दिखी
- त्रिंकोमाली, श्रीलंका में बाज़ार में बारहसिंगा दिखाई पड़ा
- नारा, जापान में व्यस्त रहने वाली सड़क पर हिरण दिखाई पड़ा
- वैंकुअर, कनाडा में समुद्री तट पर ऑरका व्हेल दिखाई देने लगी
- कैगलियारी, इटली में डॉल्फ़िन दिखने लगीं
हालांकि करुणा और पीड़ा के समय में प्रकृति और पर्यावरण की बात करना थोड़ा अटपटा सा लगता है. लेकिन जो हो रहा है वह यही है.
कुछ बरस पहले एक कार्यक्रम में कवि, समीक्षक और संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी ने बहुत पीड़ा के साथ कहा था कि पिछले कुछ दशकों में हम पृथ्वी को लगातार दुनिया की ओर ले गए हैं. यह बात कम लोगों को समझ में आई थी. वो इसलिए कि हमने दुनिया को पृथ्वी का पर्यायवाची मान लिया है. एक कवि ने इसे अलग तरह से देखा. वास्तव में पृथ्वी और दुनिया को इसी नज़रिए से देखा जाना चाहिए.
इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि हमने अपनी अपनी सुविधा के लिए पृथ्वी के विनाश में कोई कसर नहीं छोड़ी है. हमने उसके साथ दुराचार किया है. हमने अपनी नदियों का सत्यानाश कर लिया. खनिज उत्खनन के नाम पर जंगल और पहाड़ ख़त्म कर दिए. हरे भरे पहाड़ों को नंगा कर दिया. जो जंगल हमारे पास बचे हैं उनका स्तर (क्वालिटी) भी ख़राब हो गया है. शहरों में इतना प्रदूषण है कि लोग तरह तरह की बीमारियों का शिकार हो रहे हैं.
जो लोग अधेड़ हो चुके हैं वो समझ सकते हैं कि अपने पशु पक्षियों के साथ हमने क्या किया है. बाघ, शेर, तेंदुआ, हाथी, व्हेल, शार्क को छोड़ दीजिए अब तो शहरों में गौरैया और कौव्वे तक नहीं दिखते.
करोना संकट की वजह से लोग घरों से नहीं निकल पा रहे हैं. या उन्हें नहीं निकलने दिया जा रहा है. वाहन नहीं चल रहे हैं. प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग न धुंआ उगल रहे हैं और न प्रदूषित पानी नदियों में बहा रहे हैं तो अंतर दिखने लगा है.
जीव जंतुओं को एकाएक लगने लगा है मानों यह पृथ्वी उनकी भी है. वरना तो मनुष्यों ने पृथ्वी और प्रकृति पर इतना एकाधिकार कर लिया है कि शेष जीव जंतु हाशिए पर भी नहीं जी पा रहे हैं. हमारे देखते ही देखते कितने पशु और कितने पक्षी विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गए. जंगल के स्वच्छंद जीवों को हमने चिड़ियाघरों तक सीमित कर दिया.
कोरोना महामारी का समय जीव जंतुओं को नए समय की तरह लग रहा है. और ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ जीव जंतुओं को ही ऐसा लग रहा है. मनुष्यों को भी लग रहा है. वे भी सांस लेते हुए समझ रहे हैं. वे भी आसमान की ओर देखते हुए महसूस कर रहे हैं.
यह दुनिया के पृथ्वी की ओर लौटने का समय है.
अल्पकाल के लिए ही सही.
- लेखक वरिष्ठ पत्रकार और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के राजनीतिक सलाहकार है.
महलों के लिए जलने वाला दीप
विनोद वर्मा
कल यानी रविवार को रात 9 बजे 9 मिनट के लिए सबको कोरोना प्रकाशोत्सव में शामिल होना है. अपने घरों के दरवाज़ों पर या बाल्कनी में खड़े होकर दीया, मोमबत्ती, टॉर्च या मोबाइल की फ़्लैश लाइट जलानी है.
लेकिन उससे पहले आपको अपने घरों की सारी बत्तियां बुझानी हैं. जैसा कि प्रधानमंत्री जी के निर्देश हैं, “हमें प्रकाश के तेज को चारों तरफ़ फ़ैलाना है.”
अब कई लोग पूछ रहे हैं कि इसका मतलब यह है कि पहले अंधेरा फैलाना है और फिर उजाला करना है. ये नादान लोग प्रधानमंत्री जी की बातों की भावनाओं को समझ नहीं रहे हैं. अगर लाइटें जलती रहीं तो दीए और मोमबत्ती की रोशनी दिखेगी कहां? फ़ोटो अपॉर्चुनिटी मिस हो जाएगी. कोरोना संकट के अंधकार को पता ही नहीं चलेगा कि लोगों ने उजाला फैलाया. कोरोना के संकट को बताना ज़रुरी है कि उजाला हुआ.
याद कीजिए मोदी जी ने राष्ट्र को दिए अपने वीडियो संदेश में क्या कहा, “जो इस कोरोना संकट से सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं, हमारे ग़रीब भाई बहन, उन्हें कोरोना संकट से पैदा हुई निराशा से आशा की तरफ़ ले जाना है.”
उन ग़रीबों की निराशा इस प्रकाशोत्सव से आशा की तरफ़ जाएगी या नहीं? जिसका रोज़गार बंद है, जिसके घर पर राशन नहीं है, जो नहीं जानता कि लॉक-डाउन ख़त्म होने के बाद उसे रोज़गार मिलेगा भी या नहीं उसकी निराशा और हताशा की पैमाइश कोई कैसे कर सकता है? भूखे व्यक्ति को रोटी चाहिए या भूख के समर्थन में देश की एकजुटता?
नरेंद्र मोदी जी 130 करोड़ लोगों की महाशक्ति की बात कर रहे हैं. वे शायद भूल रहे हैं कि इनमें से आधे से भी अधिक लोग इस वक़्त निराशा के गहरे गर्त में हैं. वे ले-देकर अपने परिवार के लिए राशन की व्यवस्था करने लायक शक्ति जुटा पा रहे हैं वे महाशक्ति का प्रदर्शन कैसे कर पाएंगे?
अगर ग़रीबों की इतनी ही चिंता थी तो आपके निवास लोकसेवक मार्ग से बमुश्किल दस किलोमीटर दूर जब दसियों हज़ार लोग पैदल अपने घरों के लिए चल पड़े थे तो आप कहां थे प्रधानमंत्री जी? उस रात चुप रहे, अगली सुबह चुप रहे. उन सबके अपने घरों तक पहुंच जाने (या रास्ते में दम तोड़ने तक) चुप रहे. आपने माफ़ी भी मांगी तो कड़े निर्णय की मांगी. ग़रीबों को हुई असुविधा के लिए नहीं मांगी.
दरअसल आप जब अंधेरे का डर दिखाते हैं प्रधानमंत्री जी तो याद रखना चाहिए कि इस अंधेरे में आपके राज का अंधेर भी शामिल है. आपके प्रकाशोत्सव के आव्हान पर लोगों को व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी की रचना याद आ रही है. टॉर्च बेचने वाला. इसमें उन्होंने लिखा है, “चाहे कोई दार्शनिक बने, संत बने, साधु बने, अगर वह अंधेरे का डर दिखाता है तो वह ज़रूर अपनी कंपनी का टॉर्च बेचना चाहता है.” आप भी तो अंधेरे का डर दिखा रहे हैं और रोशनी तो आप भी बेचना चाहते हैं. ग़रीब, बेरोज़गार, बेघरबार और भूखे लोगों को. टॉर्च तो आप भी बेचना चाह रहे हैं, बस कह नहीं पा रहे हैं.
दरअसल, जो आप कह नहीं पा रहे हैं वह यह है कि आप की चिंता में ग़रीब है ही नहीं. आपकी चिंता में वह मध्यमवर्ग है जिसके घर में बाल्कनी है. जिसके घर में दीया जलाने को तेल है या फिर मोमबत्ती, टॉर्च या फ़्लैश लाइट दिखाने वाला मोबाइल है. आपको चिंता है कि वह घर पर खाली बैठा अगर आपके छह बरसों का हिसाब कर बैठा तो अनर्थ हो जाएगा. आप जानते हैं कि कोरोना की मार अभी भले ही ग़रीब तबके पर पड़ी हो पर निशाने पर अगला व्यक्ति मध्यमवर्ग से आएगा. वही आपका वोटर है. वही आपका भक्त है. और वही इस समय इस देश का सबसे बड़ा मूर्ख वर्ग है. आप उनसे मुखातिब हैं. आप उनको साधे रखना चाहते हैं.
आपका दीप ऊंची इमारतों, अट्टालिकाओं और महलों के लिए है और चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चलता है. वह ग़रीबों और वंचित लोगों के लिए न है और न उनके लिए जलेगा.
मशहूर शायर हबीब जालिब की रचना याद आती है,
दीप जिसका महल्लात* ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चले
वो जो साए में हर मस्लहत** के पले
ऐसे दस्तूर को, सुब्ह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
*महल्लात = महलों, **मस्लहत = सुख-सुविधा