विशेष टिप्पणी

अगर लोगों का ध्यान मोदी से हटकर संगीत की तरफ चला गया तब क्या होगा ?

अगर लोगों का ध्यान मोदी से हटकर संगीत की तरफ चला गया तब क्या होगा ?

जब हमने सेक्सोफोन की दुनिया कार्यक्रम के बारे में सोचा तब बहुत से पत्रकारों, लेखकों, बुद्धिजीवियों और नवाचार का विरोध करने वाले लकीर के फकीर मठाधीशों को यह लगा था कि ज्यादे से ज्यादा क्या होगा कार्यक्रम में ? नाच- गाना होगा या सेक्सोफोन पर बजने वाली वे सब धुनें सुनाई जाएगी जो शादी और बर्थडे पार्टियों में बजाई जाती है. लेकिन ऐसा नहीं था. इस खास आयोजन में सेक्सोफोन एक नायक था. इस नायक के जरिए यह बताने की कोशिश की गई कि सेक्सोफोन की कहानी दुखभरी है, लेकिन किसी समय इसी सेक्सोफोन ने एक हथियार की शक्ल लेकर बुर्जुआ समाज और खोखले आडंबर के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. यहां हम अपने समझदार और सुधि पाठकों की मांग पर देश के सुप्रसिद्ध कथाकार मनोज रुपड़ा का वह लेख पेश कर रहे हैं जिसकी चर्चा अब भी बनी हुई है. इस लेख को मनोज रुपड़ा ने खास तौर पर सेक्सोफोन की दुनिया कार्यक्रम के लिए लिखा था. इस लेख को पढ़ते हुए लगता है कि सेक्सोफोन की दुनिया यूं ही बड़ी नहीं है. इस वाद्ययंत्र में दुनिया के बड़े से बड़े तानाशाह की हुकूमत को चुनौती देने की हिम्मत बरकरार है. 

 

दोस्तों आप सब ने संगीत के कई कार्यक्रमों मे शिरकत की होगी ,जहां गाने –बजाने वाले अपनी प्रस्तुति देते हैं और सुनने वाले संगीत का आनंद लेते हैं, लेकिन  आज पहली बार ये हो रहा है कि हम सिर्फ संगीत सुनने नहीं आए है बल्कि एक वाद्य के बारे मे बात करने और उसकी कहानी सुनने भी आए हैं. मेरे जानते में शायद पहली बार किसी वाद्य पर चर्चा  हो रही है. हमने संगीतकारों को तो सम्मानित होते कई बार देखा है लेकिन आज एक  साज़ का सम्मान हो रहा  है. मैं राजकुमार सोनी का हम सब की तरफ से शुक्रिया अदा करता हूं इस बात के लिए कि उसने पहली बार किसी साज़ को वो इज्जत दी जिस इज्जत और एहतराम का वह साज हकदार था.

 जब राजकुमार के हवाले से सेक्सोफोन की दुनिया का जिक्र आया तो मैं फिर बरसों पुरानी यादों में खो गया कि सेक्सोफोन से मेरा परिचय कब हुआ और सेक्सोफोन की दुनिया कैसी थी. तो यहां दो बातें मैं बताना चाहता हूं. एक बात अपने व्यक्तिगत अनुभव की और दूसरी बात खुद उस सेक्सोफोन की जिसकी दुनिया बहुत बड़ी है और वह दुनिया इसलिए भी इतनी बड़ी है क्योंकि वह कई तत्वों से बनी है और उन तत्वों मे सबसे प्रमुख तत्व है उसकी अभिव्यंयक क्षमता उसके एक्स्प्रेशन की रेंज.

यह साज़ एक साथ कई एक्सप्रेशन की ताकत रखता है इसके स्वरों में कोमलता है उत्तेजना है. जुनून है. उन्मुक्तता और स्व्छंदता है. कामुक उत्तेजना है. आंसू है उदासी है और विद्रोह भी है.  तो ये जो इतने सारे एक्सप्रेशन की एफीनिटी इस साज़ में है , वो कहां से आई ? उसकी एक अलग कहानी है जो मैं आपको सुनाऊंगा.  

 पहले मैं ये बता दूं कि मैं सेक्सोफोन से कैसे जुड़ा. बात उन दिनों की  है जब मैं नौजवान था और अपने दोस्तों के साथ गोवा घूमने गया था. नौजवानी  की उस उम्र में आप जानते ही हैं कि हर किसी को रोमांटिक अनुभवों की तलाश रहती है. तो हम भी मस्ती भरे नाच गाने के लिए इस समुद्र का सफर करते रहे. हम पर गोवा की मदमाती मस्ती छा  गई और हम मस्ती में इतने चूर हो गए कि सब एक दूसरे को भुला बैठे. हमारी टोली बिखर गई. मैंने अपना सूटकेस उठाया और दोस्तों का ग्रुप छोड़कर अकेला निकल गया. मैं पणजी चला  गया और मेरा इरादा पणजी में एक दो दिन रुकने के बाद वापस लौटने का था. लेकिन अचानक एक पोस्टर पर मेरी नजर पड़ी मैंने देखा उस शहर में एक राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव चल रहा था.  मैंने वापसी स्थगित कर दी और नाटक देखने लगा.  वहां हबीब  साहब का नाटक था. कारांत साहब का नाटक था. रतन थियम और तलवार साहब और जालान साहब का नाटक था. तो एक दिन ये हुआ कि मैंने लगातार तीन नाटक देखे और उसका- मिला- जुला जो प्रभाव था वो मेरे अंदर कोई स्थायित्व न पा  सका, चीजें सब गड़बड़ हो गई.

मेरी तबीयत पर इतना बोझ पड़ गया कि थियेटर से निकलकर मैं सीधे समुद्र किनारे चला आया. मैं भटकते हुए एक रॉक  बीच पर चला गया.  वहां समुद्र किनारे चट्टानें थीं और उन चट्टानों की  कटी - फटी  दरारों से लहरें टकरा रही थी. मैं  कुछ देर लहरों के चट्टानों से टकराने की आवाज सुनता रहा.  फिर अचानक मुझे एक धुन सुनाई दी. मैंने सिर उठाकर देखा. एक आदमी एक चट्टान पर बैठा सेक्सोफोन बजा रहा था. मैं उसके पास गया और उस धुन को सुनने लगा. वह एक अमेरिकी हैप्पी था और वह किसी श्रोता को नहीं समुद्र को और डूबते हुए  हुए सूरज को अपनी धुन सुना रहा था. 

उस दिन पहली बार मैंने सेक्सोफोन को देखा , सूरज की डूबती किरणें उस साज़ पर पड़ रही थी. पहली बार मुझे लगा कि इस साज में समुद्र की अतल गहराइयों में उतारने ओर आसमान की बेनाप ऊंचाइयों में ले जाने की बेपनाह कुव्वत है. जब धुन पूरी हुई तो उस हिप्पी ने मुझे और मैंने उसे देखा और कुछ ही देर में मुझे लगा कि इस आदमी के साथ मेरी ट्यूनिंग हो जाएगी. हालांकि न मैं उसकी भाषा जानता था न वह मेरी भाषा लेकिन कुछ चीजें ऐसी होती है , जहां भाषा की और शब्दों की जरूरत नहीं पड़ती. संप्रेषणीयता अपना रास्ता खुद बना लेती है. फिर उस हिप्पी ने मुझे बताया कि  जो धुन अभी वह बाजा रहा था वह पेटेटेक्स नमक एक बड़े सेक्सोफोनिस्ट की धुन है । उस धुन का नाम था- डार्क क्लाउड एंड ब्लू सी.   

मैंने नाट्य समारोह में जाना छोड़ दिया.  सेक्सोफोन का नशा मेरे सिर पर सवार हो  गया था. मैं दो दिन तक  उस हिप्पी के साथ रहा. मैं सेक्सोफोन के बारे में बहुत कुछ जानना चाहता था लेकिन मेरे किसी भी सवाल का जवाब देने के बजाय वह सिर्फ  एक ही बात दोहराता था कि इस साज़ की  कहानी बहुत दुख भरी है तुम उसकी कहानी सुनने के बजाय सिर्फ उसकी आवाज सुनो. तो सेक्सोफोन के बारे में मेरी जो जिज्ञासा थी वह अधूरी रह गई.                               

बाद में जब मैं अपने कारोबार के सिलसिले में  बंबई गया तो घाटकोपर में जहां मेरी फैक्ट्री थी , उसके पीछे एक चाल थी और उस चाल में कुछ आर्टिस्ट रहते थे जो फिल्मों में बेकग्राउंड म्यूजिक देते थे. मेरा उनसे संपर्क हुआ तो मालूम हुआ कि उन साजिन्दों को  बहुत  गहरे संकट से गुजरना पड़ रहा है अब उन्हें काम मिलना बंद हो गया है. इसका कारण ये था कि फिल्म इंडस्ट्रीज में इलेक्ट्रानिक सिथेंसाइजर आ गया था और रिकार्डिंग की दुनिया में ऐसी डिजिटल  तकनीकें आ गई थी कि अब किसी भी तरह के जेनुइन म्यूजिकल इंस्टूमेंट की उन्हें जरूरत नहीं रह गई थी. वहां एक सेक्सोफोन प्लेयर भी रहता था और उसकी दुख भरी कहानी सुनने के बाद ही  साज़ –नासाज़ कहानी लिखने का विचार मेरे मन  में आया तो मैंने कहानी लिखी. इस कहानी के जरिए यह बताने की कोशिश कि हिन्दुस्तान की रूह को निखारने वाले और  इस देश की आत्मा को अपनी धुनों से संवारने वाले हमारे इन बेहतरीन कलाकारों की हालत क्या से क्या हो गई है.

 खैर...तो ये तो हो गई सेक्सोफोन से जुड़े मेरे व्यक्तिगत अनुभवों की बात अब सेक्सोफोन की दुनिया में चलते हैं  और उस साज़ के खुद के तर्जुबे की बात करते हैं, तब ये मामला समझ में आएगा कि क्यों वह हिप्पी मुझसे कहता था कि सेक्सोफोन की कहानी बहुत दुख भरी है.                                      

दोस्तों अब उस दुनिया में जाने से पहले हम उस शख्स को याद कर लेते हैं जिसने ये साज़ बनाया था.  इस साज को बेल्जियम के एडोल्फ सेक्स ने बनाया था जिसके पिता खुद वाद्य यंत्रों के निर्माता थे. सेक्स का बचपन बहुत त्रासद और नारकीय स्थितियों में गुजरा , जब वह पांच साल का था तो दूसरी मंजिल से गिर गयाऔर लगा कि अब वह बचेगा नहीं. इस हादसे में उसका पैर टूट गया फिर उसे खसरा हुआ और लंबे समय तक वह कमजोरी का शिकार रहा. उसकी मां ने एक बार ये कह दिया कि वह सिर्फ नाकामियों के लिए पैदा हुआ है. इस बात से दुखी होकर एडाल्फ सेक्स ने सल्फरिक एसिड के साथ खुद को जहर दे दिया. फिर कोमा में कुछ दिन गुजारे और कुछ सालों बाद वह शराब पीने लगा.

शराबनोशी की बेहद संगीन और शर्मनाक गर्त  में गिरने के बाद वह इन सब चीजों से उबरकर बाहर आया और उसके बाद उसने सेक्सोफोन बनाया, लेकिन सेक्सोफोन के इस अविष्कारक और उसके अविष्कार को शुरूआत में कोई मान्यता नहीं मिली.उस साज़ को किसी भी तरह के आरकेस्ट्रा में या सिंफनी में जगह नहीं मिली. अभिजात्य वर्ग ने उसे ठुकरा दिया, लेकिन सेक्सोफोन बजाने वालों ने उसे नहीं ठुकराया. वे उसे सड़कों पर और बदनाम इलाकों के नाइट क्लबों में बजाते रहे और उसे बजाने  वालों में अधिकांश जिप्सी थे और जिप्सियों के बारे में सभ्य समाज की राय बहुत अच्छी नहीं थी.

फिर एक समय ऐसा आया जब लेटिन अमेरिका के एक देश में एक जन विरोधी सरकार के खिलाफ लाखों लोगों का एक मार्च निकला. उस मार्च में पता नहीं कहां से  सेक्सोफोन बजाने वाले दो जिप्सी शामिल हो गए. भीड़ ने उन दोनों को हाथों-हाथ लिया और उन्हें अग्रिम मोर्चे पर भेज दिया. सेक्सोफोन बजाने वालों की अगुवाई में लाखों लोगों की भीड़ जब आगे बढ़ी तो तहलका मच गया. अभिजात्य वर्ग को सेक्सोफोन की असली ताकत तब समझ में आई. फिर तो ये सिलसिला बन गया. हर विरोध प्रदर्शन में जन आक्रोश को स्वर देने और उसकी रहनुमाई करने की जिम्मेदारी को सेक्सोफोन ने बखूबी निभाया. फिर उन्नीसवी सदी के प्रारंभ में जैज संगीत आया. जैज संगीत अफ्रीकी–अमेरिकी समुदायों के बीच से निकला था और उसकी जड़ें नीग्रो ब्लूज़ से जुड़ी हुई थी. जैज ने भी सेक्सोफोन को तहेदिल से अपनाया क्योंकि सेक्सोफोन चर्च की प्रार्थनाओं में ढल जाने वाला वाद्य नहीं था. उसकी आवाज में सत्ता को दहला देने की ताकत थी. खुद जैज अपने आप में एक विस्फोटक कला-रूप था ,  उसने अपनी शुरूआत से ही उग्र रूप अपनाया था. उसने थोपी हुई ईसाई नैतिकता और बुर्जुआ समाज के खोखले आडंबरों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. बहुत जल्द वो समय आ गया जब सत्ता और जैज आमने–सामने आ गए .सत्ता का दमन शुरू हो गया तो यूएसएआर में 1948 में सेक्सोफोन और जैज म्यूजिक पर प्रतिबंध लगा दिया गया. उसके ऊपर अभद्र असामाजिकऔर अराजक होने का आरोप था.

ठीक उसी तरह हिटलर के युग में जर्मनी में भी सेक्सोफोन और जैज पर  प्रतिबंध लगाया गया था, लेकिन हर तरह के दमन और अपमान जनक बेदखलियों के बावजूद सेक्सोफोन ने अपनी जिद नहीं छोड़ी क्योंकि वह एक बहुत हठीला जनवाद्य यंत्र है. आप सब को यह जानकार बहुत आश्चर्य होगा कि एक समय में जब जैज पर प्रतिबंध लगा था तब कुछ कलाकार घने जंगलों में जाकर छुप गए थे और वहां भी उन्होने कंसर्ट की थी. यह कंसर्ट ठीक उसी तरह थीं जैसे छापामार घने जंगलों में अपनी लड़ाई लड़ते हैं.                              

उसी समय की एक बात है. घूरी रंगया के जंगल में एक बार एक गुप्त कंसर्ट चल  रही थी. इस बात की भनक पुलिस को लग गई और वे दलबल के साथ जंगल की तरफ बढ़े लेकिन  वहां हजारों की तादाद में संगीत सुनने वाले मौजूद थे. पुलिस को यह उम्मीद नहीं थी कि शहर से इतनी दूर जंगल में लोग इतनी बड़ी तादाद में संगीत सुनने जाते होंगे. संगीत की लहरों में झूमते हुए लोगों पर हवाई फायर का भी जब कोई असर नहीं हुआ तो उन्हें बल प्रयोग करना पड़ा. भीड़ तितर-बितर हो गई.

संगीत भी बजना बंद हो गया लेकिन तभी एक सेक्सोफोन बजाने वाला एक बहुत ऊंचे पेड़ पर चढ़ गयाऔर वहां पेड़ के ऊपर सेक्सोफोन बजाने लगा. उसके इस बुलंद हौसले को देखकर पूरा जनसमूह फिर से जोश में आ गया. पुलिस ने भले ही पुलिस की वर्दी पहन रखी थी लेकिन आखिरकार तो वे भी इंसान थे.  तो हुआ ये कि उस धुन ने  पुलिस वालों  के दिलों को  भी अपने वश में कर लिया में  कर लिया और वे भी भाव विभोर हो गए.  

अब यहां एक सवाल ये हो सकता है कि  इन साजिंदों के वादन में ऐसी क्या खास बात थी जो सत्ता को नागवार लगती थी ? न तो ये संगीतकार किसी जन आंदोलन से जुड़े थे न ही उनकी कोई राजनैतिक विचारधारा थी. वे तो सिर्फ ऐसी धुनें रचते थे जो लोगों के दिलों पर छा जाती थी. प्रत्यक्ष रूप से वे किसी भी राजसत्ता का विरोध नहीं कर रहे थे , या उन्होने ये सोचकर संगीत नहीं रचा था कि किसी का विरोध करना है. दरअसल उनकी धुनों में ही कुछ ऐसी बात थी कि लोग दूसरी तमाम बातों को भुलाकर उनकी तरफ़ खींचे चले आते थे और बस सत्ता के लिए यही तो सबसे बड़ी दिक्कत थी. सत्ता नहीं चाहती थी कि इतना बाद जन समूह उनके राजनैतिक एजेंडे से विमुख होकर संगीत सुनने चला जाए.  वे यह देखकर जल-भून जाते थे कि उनके नेताओं के भाषण को सुनने के लिए जुटाई गई भीड़ संगीत की तरफ मुड़ गई है.                              

जरा अनुमान लगाइए कि अगर हिटलर पूरे  पूरे जोश-खरोश के साथ कहीं भाषण दे रहा है और लोग उसकी बातों से प्रभावित होकर हिटलर-हिटलर का जयकारा  कर रहे हैं और अचानक कहीं सेक्सोफोन बजने लगे और लोगों का ध्यान हिटलर से हटकर सेक्सोफोन की तरफ़ चला जाए तो क्या होगा ?

अब जरा ये भी अनुमान लगाइए कि आज जब पूरा देश मोदी मोदी- मोदी कर रहा है और हम यहां सेक्सोफोन पर कार्यक्रम कर रहे हैं. अब अगर हमारे इस संगीत कार्यक्रम के बाद  लोगों का ध्यान मोदी से हटकर संगीत की तरफ  चला गया तो क्या होगा ? 

 

मनोज रुपड़ा का दूरभाष नबंर है-   9823434231    

 

 

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