विशेष टिप्पणी

चंदूलाल चंद्राकर के नाम पर पत्रकारिता विश्वविद्यालय... चड्डी गैंग परेशान !

चंदूलाल चंद्राकर के नाम पर पत्रकारिता विश्वविद्यालय... चड्डी गैंग परेशान !

राजकुमार सोनी

छत्तीसगढ़ में भाजपा शासनकाल में स्थापित पत्रकारिता विश्वविद्यालय को चंदूलाल चंद्राकर के नाम पर किए जाने से चड्डी गैंग परेशान हो गया है. इस गैंग से जुड़े कथित राष्ट्रवादी चिंतक अलग-अलग स्तर पर मंथन कर रहे हैं. उनकी कोशिश है कि इस मामले को एक खास तरह का रंग देकर राष्ट्रीय स्तर का मुद्दा बना दिया जाय. गैंग से जुड़े एक सदस्य ने हाल ही में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को एक लंबा-चौड़ा पत्र लिखा है. यह पत्र वंदन... चंदन... अभिनंदन... शुभ प्रभातम... और विषय है तो विषय क्यों है जैसी प्राचीन भाषा के साथ सोशल मीडिया पर विचरण कर रहा है. ( प्रगतिशील लेखकों का एक बड़ा वर्ग चड्डियों को कुछ इसी तरह की भाषा से जानता-समझता है. जैसे ही मुंह खोले और विषय-सिषय जैसे शब्दों की बौछार हुई तो समझ लीजिए सामने वाला मामूली कार्यकर्ता नहीं बल्कि भक्ति युग का शेयर होल्डर है. )

गैंग के सदस्य ने अपने पत्र में साफ तौर पर यह माना है कि चंदूलाल चंद्राकर छत्तीसगढ़ के माटीपुत्र थे और पत्रकारिता में उनका जबरदस्त योगदान था. गैंग के कर्ताधर्ता ने यह नहीं बताया कि कुशाभाऊ ठाकरे जिनके नाम पर पत्रकारिता विश्वविद्यालय खोला गया था वे पत्रकार थे भी या नहीं? सदस्य ने लिखा है- कुशाभाऊ ठाकरे एक सात्विक वृत्ति के नेता थे और उन्होंने छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की सेवा की थीं. सदस्य ने अपने पत्र के जरिए मुख्यमंत्री को डराने ( चेतावनी भी बोल सकते हैं ) की चेष्टा भी की है. वे फरमाते हैं- सत्ता हमेशा के लिए नहीं होती. काल के प्रवाह में पांच साल कुछ नहीं होते. कल अगर कोई अन्य दल सत्ता में आकर चंदूलाल चंद्राकर का नाम का इस विश्वविद्यालय से हटा देगा तब क्या होगा ? जो विश्वविद्यालय लंबे समय से एक खास दल की राजनीतिक विचारधारा को पोषित करने का केंद्र बना हुआ था उसका नाम बदले जाने से हैरान और परेशान सदस्य ने आगे लिखा है- शिक्षा परिसरों को राजनीति का अखाड़ा बनाना एक तरह का अपराध ही है. ( गोया... अब तक वहां भजन संध्या का कार्यक्रम चल रहा था. ) सदस्य ने कहा है- अगर कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम छत्तीसगढ़ के कुछ पत्रकारों के कहने पर बदला गया है तो वे देशभर के संपादकों से लेटर लिखवाकर भिजवा सकते हैं कि नाम मत बदलिए.

खैर... यह तो हुई गैंग के एक सदस्य की बात जिन्हें नहीं मालूम कि देश में अब संपादक नाम की कोई वैधानिक संस्था बची नहीं है. इधर जब से सोशल मीडिया का दौर आया है तब से यह जानना भी बड़ा आसान हो गया है कि कौन किसका भक्त है. कौन देशभक्त है और कौन अंधभक्त है. मान्यवर को यह बताना ठीक होगा कि अब संस्थानों में गणेशकंर विद्यार्थी नहीं बल्कि पार्टी के कार्यकर्ता काम करते हैं. संपादक... एक दलाल से अधिक कुछ नहीं होते. 

एक मैग्जीन के इस मूर्धन्य संपादक ने यह भी उल्लेखित किया है- चूंकि कुशाभाऊ ठाकरे परिसर में कुशाभाऊ जी की मूर्ति स्थापित है इसलिए किसी भी कीमत पर विश्वविद्यालय का नाम बदल देना ठीक नहीं होगा. मूर्धन्य संपादक को शायद यह नहीं मालूम है कि छत्तीसगढ़ में यह परिपाटी भाजपा के शासनकाल में ही प्रारंभ हुई थी. भिलाई के खुर्सीपार में राजीव गांधी के नाम एक स्टेडियम बनाया गया था. इस स्टेडियम में राजीव गांधी की प्रतिमा भी स्थापित हो चुकी थीं, लेकिन बावजूद इसके स्टेडियम का नाम दीनदयाल उपाध्याय खेल परिसर कर दिया गया. ऐसे और भी कई उदाहरण है. इसकी सूची काफी लंबी है. संपादक जी को समझना चाहिए कि जब बोया बीज बबूल का तो... फल कहां से होय... मुहावरा इसलिए उपयोग में लाया जाता है.

अब सुनिए गैंग के दूसरे सदस्य की गुहार जो एक वाट्सअप ग्रुप में चल रही है- सदस्य ने लिखा है- कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम बदले जाने पर अगर सोशल मीडिया में कोई मुहिम चलानी है तो हमें संगठित होकर लड़ना होगा. अक्सर देखा गया है कि जब हम लोग ज्वलंत विषय पर लिखते हैं तो न तो हमारी पोस्ट को लोग लाइक करते हैं और न ही कमेंट करते हैं जबकि कांग्रेसी संगठित होकर पूरी पोस्ट पर रायता फैला देते हैं. 

( सदस्य के भीतर यह डर समाया हुआ है कि अगर मुखरता से बात नहीं उठी तो फजीहत हो जाएगी. )

एक तीसरे सदस्य के विचार सर्वोत्तम डाइजेस्ट में छपने वाले विचार की तरह है- अगर हमें इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाना है तो व्यवस्थित होकर भिंड़ना समीचीन होगा. जिन राज्यों में हमारी सरकार है, विरोध की सारी गतिविधि वहीं से शुरू करनी होगी. इसके लिए केंद्रीय नेतृत्व का दिशा-निर्देश लेना भी समीचीन होगा.

(  बड़े दिनों के बाद यह समीचीन शब्द सुनाई पड़ा. सवाल यह भी है कि कौन सा केंद्रीय नेतृत्व ? पर्दे के पीछे का असली केएन सिंग कौन है ? )

चौथे सदस्य का दर्द देखिए- यह विश्वविद्यालय की स्वायत्तता पर चोट है. बताइए अब सरकार करेगी कुलपति की नियुक्ति और उसको हटाने की कार्रवाई. यह तो हद है.

एक अन्य सदस्य ने खोजी पत्रकारिता को महत्वपूर्ण मानते हुए लिखा है- सबसे पहले हमें कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का अध्यादेश प्राप्त करना चाहिए. इस विश्वविद्यालय का अलग ही अध्यादेश है. विश्वविद्यालय के नाम परिवर्तन का कोई प्रस्ताव विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद की अनुमति से ही भेजा जा सकता है. जब उच्च शिक्षा मंत्री संक्षेपिका तैयार कर लेंगे तब मंत्रिपरिषद को भेजा जाएगा. विधानसभा में संशोधन के साथ अध्यादेश लाया जाएगा. हमें डिटेल जानकारी लेनी होगी कि कब क्या-क्या हुआ.

एक महामानव की राय है- हमारे देश में जितने भी विश्वविद्यालय कांग्रेस नेताओं के नाम पर है उसका भी डाटा तैयार करना चाहिए. क्या सरकार बदलते ही नाम बदला जा सकता है ?

एक सदस्य ने कानूनी दांव-पेंच पर जोर देते हुए लिखा है- मुझे पता चला है कि प्रदेश के कुछ पत्रकारों ने मुख्यमंत्री और उच्चशिक्षा मंत्री को विश्वविद्यालय का नाम बदलने के लिए ज्ञापन दिया था. इस ज्ञापन में कहा गया था कि कुशाभाऊ ठाकरे का पत्रकारिता से कोई लेना-देना नहीं था. मुझे लगता है हमें इसकी भी तोड़ निकालनी चाहिए. हमें जल्द से जल्द स्टे लेने के बारे में कोई योजना बनानी चाहिए. लिखने वाले ने प्रदेश के पत्रकारों को आड़े हाथों लेते हुए यह भी लिख मारा है कि जिन पत्रकारों ने नाम बदलने के लिए ज्ञापन दिया है उनमें से ज्यादातर वामपंथी होंगे. अगर उन पत्रकारों का नाम मिल जाए तो हम उनका प्रोपगंड़ा भी एक्सपोज कर सकते हैं.

( अगर कल कोई पत्रकार कोरोना को छोड़कर इधर-उधर की अफवाह या साजिश का शिकार होता है तो इसे चड्डी गैंग का ही कारनामा मानना ज्यादा बेहतर होगा. आरोप कुछ भी हो सकते हैं. मसलन पत्रकार चरित्रहीन है. शराब पीता है. खूब कमा रहा है. हेलीकाफ्टर में घुमता ही नहीं... अब तो हेलीकाफ्टर भी खरीद लिया है. किराए पर चलाता है. वगैरह... वगैरह... )

सदस्य की यह भी राय है कि हमें न्यायालय में जनहित याचिका विश्वविद्यालय के किसी पूर्व छात्र या छात्रा से ही लगवानी चाहिए. एक बड़े नेता ने तो यह तक ऐलान कर दिया है कि अगर दोबारा भाजपा की सरकार आई तो छत्तीसगढ़ में किसी भी संस्थान का नाम नेहरू और गांधी के नाम पर नहीं होगा.

राष्ट्रवादी चिंतकों की आगे क्या प्लानिंग है इसका खुलासा हम धीरे-धीरे करते रहेंगे.

बहरहाल सरकार ने पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम जिस चंदूलाल चंद्राकर के नाम पर किया है उनके बारे में हम अपने पाठकों को बताना चाहेंगे.

छत्तीसगढ़ की माटी में जन्मे चंदूलाल चंद्राकर राजनीति में आने से पहले एक सक्रिय पत्रकार थे. वर्ष 1945 से ही उनकी पहचान एक राष्ट्रीय पत्रकार के तौर पर होने लगी थीं. उनके समाचार हिंदुस्तान टाइम्स में छपा करते थे. उन्होंने कांग्रेस के पहले अधिवेशन की रिपोर्टिंग की थी. यह अधिवेशन बंबई में हुआ था. उन्हें महात्मा गांधी भी बेहद पसंद करते थे. खेलकूद की रिपोर्टिंग में उनकी विशेष रुचि थीं. उन्हें नौ ओलंपिक खेलों और तीन एशियाई खेलों की रिपोर्टिंग का अनुभव रहा है. वे राष्ट्रीय हिंदुस्तान टाइम्स में पहले संवाददाता थे. बाद में इसी अखबार के संपादक बने. एक सम्मानजनक पद पर पहुंचने वाले छत्तीसगढ़ से वे पहले व्यक्ति थे. उन्हें युद्ध की रिपोर्टिंग का भी अच्छा-खासा अनुभव था. एक पत्रकार के रुप में उन्होंने कई देशों की यात्रा भी थी. अगर चंदूलाल चंद्राकर छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण सर्वदलीय मंच का गठन कर आंदोलन नहीं छेड़ते तो शायद ही कभी छत्तीसगढ़ का निर्माण हो पाता.

छत्तीसगढ़ सरकार उनके सम्मान में पत्रकारिता पुरस्कार भी प्रदान करती है. इस खबर के लेखक ने भी वर्ष 2005 में यह पुरस्कार इसलिए स्वीकार किया था कि क्योंकि वह पत्रकारिता के अग्रह, पितामह और स्वतंत्रता सेनानी चंदूलाल चंद्राकर के नाम पर था. कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम अगर अब चंदूलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय कर दिया गया है तो यह ठीक ही किया गया है. कुछ भूल केवल भूल होती है. इन भूलों को झाड़ते रहने और उनके ऐतिहासिक होने से रोक लगा देने में ही भलाई निहित होती है. ऐसा करना एक अच्छी सरकार का दायित्व भी होता है. अब विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच अगर पत्रकारिता की जिम्मेदारी का बीज रोपा जाएगा तो इसे अच्छी शुरूआत मानकर आगे बढ़ना ठीक होगा. इस मामले में एक तथ्य और है कि जब भाजपा सरकार ने कुशाभाऊ ठाकरे के नाम पर पत्रकारिता विश्वविद्यालय को खोले जाने की बात की थीं तब संघ की विचारधारा से जुड़े एक मूर्धन्य संपादक ने ही जबरदस्त विरोध किया था. इस संपादक का कहना था- वर्ष 1980-81 में युगधर्म अखबार बंद होने के कगार पर आ गया तो उन्होंने कुशाभाऊ ठाकरे से सहायता के लिए गुहार लगाई थीं, लेकिन ठाकरे ने आर्थिक सहायता देने इंकार कर दिया था. अगर कुशाभाऊ चाहते तो अखबार को बंद होने से बचाया जा सकता था.

अब जरा सोचिए... उन छात्र-छात्राओं के बारे में जो कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय में पढ़ते हैं या पढ़ते रहे हैं. विश्वविद्यालय में अध्ययन के लिए आने वाले छात्रों ने क्या यह जानने की कवायद नहीं की होगी कि कुशाभाऊ ठाकरे कौन थे? विश्वविद्यालय में कार्यरत एक प्राध्यापक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा- छात्र-छात्राओं ने कई मर्तबा यह जानने की कवायद की है कि ठाकरे जी का पत्रकारिता में क्या योगदान था ? हम बार-बार यहीं बोलकर खामोश हो जाते हैं- समाज में हर व्यक्ति का योगदान होता है.वे छत्तीसगढ़ के नहीं थे,लेकिन छत्तीसगढ़ आते-जाते रहते थे.

चंदूलाल चंद्राकर छत्तीसगढ़ के ही थे... इसलिए राजनीति के गलियारों में इस बात को लेकर भी बहस प्रारंभ हो गई है कि जब-जब स्थानीय स्तर पर किसी पुरखे या छत्तीसगढ़ी व्यक्ति के सम्मान की बात आती है तो देश को अलग-थलग बांटने लोग विरोध क्यों प्रारंभ कर देते हैं ? ऐसे लोगों को किसी ठेठ छत्तीसगढ़िया को सम्मान देना रास क्यों नहीं आता है? क्या छत्तीसगढ़ में पैदा होना... छत्तीसगढ़िया होना अपराध है? 

 

 

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