विशेष टिप्पणी

पहले बत्ती बुझानी है या जलानी है... अगर जलानी है तो फिर बुझानी ही क्यों?

पहले बत्ती बुझानी है या जलानी है... अगर जलानी है तो फिर बुझानी ही क्यों?

रंगकर्मी और फिल्मकार पंकज सुधीर मिश्रा वैसे तो छत्तीसगढ़ के भिलाई के रहने वाले हैं, लेकिन लंबे समय से मुंबई में है. वे विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास नौकर की कमीज पर बनी फिल्म ( निर्देशक मणिकौल ) में काम कर चुके हैं. इसके अलावा रजत कपूर की फिल्म मिथ्या में भी वे थे. इन दिनों वे द कपिल शर्मा शो में क्रियेटिव डायरेक्टर है. यहां प्रस्तुत है उनकी खास टिप्पणी-

पंकज सुधीर मिश्रा

सुबह बड़े उत्साह से उठा...आज प्रकाशउत्सव मनाना है. सोचा तैयारी कर लूं. ढूंढना शुरू किया कि घर पर दिया, तेल, बत्ती, माचिस, मोमबत्ती सब है भी या नहीं. और देखिये कमाल... मेरे घर सब मिल गया. और चीज़ें तो छोड़िए टॉर्च तक निकल आई बताइए भला. जिस मुंबई महानगर में एक मिनट के लिए भी बिजली गुल नहीं होती वहां मैंने टॉर्च खरीद रखी है. मुझे खुद पर हंसी आई की कितना डरता हूं अंधेरे से ! जबकि उस्ताद कहते थे कि अंधेरे से डरना नहीं है... वो उतना ही निर्विकार है जितना उजाला है. रोज़ रात अंधकार होता है फिर रोज़ सुबह उजाला हो जाता है. अंधकार से डरना छोड़ दोगे तो अंधकार के भीतर देखने की दृष्टि पैदा होगी. वे मेरे सिनेमा के उस्ताद थे. 

टॉर्च जल रही थी. दिन के उजाले में टॉर्च को कई बार जलाया बुझाया... फिर बुझाया- जलाया... फिर बुझा दिया और कन्फ्यूज़ हो गया. 

मुझे अब भी समझ में नहीं आ रहा कि पहले बत्ती बुझानी है फिर बत्ती जलानी है? या पहले बत्ती जलानी है फिर बत्ती बुझानी है? जलानी ही है तो फिर बुझानी क्यों है? पहले से जल रही है ? और बुझानी है तो फिर जलानी क्यों है ? 

करना क्या है ?

टॉर्च एक तरफ पड़ी है और सोच रहा हूं कि वो ताली-थाली वाला ही ठीक था. रोज़ कमाने खाने वाले, जिनके घरों में बालकनी-खिड़कियां होती नही हैं और दीया- बत्ती-तेल के पैसे बचे नही हैं, उनके भी खाली पड़े हाथों को थोड़ा काम मिल जाता.  

जो मजदूर किसी तरह अपने घर पहुंच सकें और जो नहीं पहुंच सकें शायद अभी भी रास्तों पर हैं,  और जो खुले आकाश के नीचे बैठे आश्चर्य और निराशा में डूबे सोच रहे हैं कि देश के लोगों की चिंता में और 5 बिलियन वाली महाशक्ति की तैयारी में वे शामिल क्यों नही है ? वे मजदूर भी ताली बजा लेते तो उनकी सदियों की थकान शायद थोड़ी कम हो जाती. 

वे भी जो ना घर पहुंच पाए ना ही रास्तों पर हैं, जो महज़ अपने घर पहुंच पाने की आसभरी यात्रा के बीच किसी और लंबी यात्रा पर निकल गए उनकी आत्माएं भी वहां नर्क के दरवाज़े पर बैठी भूखे पेट ताली बजा ही लेतीं (हमें बताया नहीं था हमारे पूर्वजों ने... भूख से मरने पर मोक्ष नही मिलता )

और हां कुछ बच्चों की आंखें अभी भी कीटनाशक की भीषण जलन महसूस करती होंगी. लाल आंखों वाले वे बच्चे भी ताली पीट के थोड़ी देर के लिए बहल जाएं वैसे ही जैसे देश का मध्यवर्ग भीषण रूप से बहला हुआ है इन दिनों. 

 

 

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