विशेष टिप्पणी

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भूपेश बघेल की कार्यशैली से छत्तीसगढ़ के नारंगी पत्रकारों के पेट में उठा दर्द

जनता को दी जाने वाली राहत से परेशान है छत्तीसगढ़ के नारंगी पत्रकार

छत्तीसगढ़ के नारंगी पत्रकार ( थोड़े-बहुत कथित बुद्धिजीवी भी ) इस बात से परेशान चल रहे हैं कि भूपेश बघेल अपनी सभाओं में जनता को फौरी राहत देने की बात क्यों करते हैं ? नारंगी पत्रकार राहत को रेवड़ी तो नहीं कहते… लेकिन अपनी खबरों और इधर-उधर के प्रचार में यह जरूर कहते हैं कि जनता को मुफ्तखोरी की आदत से बचाना राजनीति का धर्म होना चाहिए. नारंगी पत्रकारों और कथित बुद्धिजीवियों का पका-पकाया यह भी तर्क है कि जो कुछ भी फ्री में वितरित होता है उसका पैसा हमारे आपके टैक्स से ही वसूला जाता है.

नारंगी पत्रकार जनता को भूखमरी और गरीबी में लिथड़ी जनता बनाए रखने के पक्ष में दिखाई देते हैं और चाहते हैं कि लंबा राजनीतिक विमर्श चलता रहे. विमर्श के लिए स्वयंसेवी संस्थाएं कार्यशालाएं आयोजित करती रहे. कार्यशाला का खर्च…सरकार के किसी विभाग से वसूला जाता रहे और फिर तरह- तरह के पकवान वाले सत्रों के बीच इस बात पर मंथन चलता रहे कि जनता मुफ्तखोर क्यों है?

नारंगी पत्रकारों को कांग्रेस की राहत में तो मुफ्तखोरी दिखाई देती है, लेकिन वे कभी इस बात पर चर्चा नहीं करते कि अस्सी करोड़ जनता को फ्री में राशन देने का ऐलान करने वाली मोदी सरकार कौन सा तीर मार रही है? छत्तीसगढ़ में बड़े-बड़े विज्ञापनों के जरिए जारी की गई मोदी की गांरटी को किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए ? राहत को रेवड़ी कल्चर बताने वाली मोदी सरकार क्या हर मतदाता को पनीर-चिल्ली या चिकन टिक्के का वितरण करने जा रही है ?

खुद को लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रहरी बताने वाले नारंगी गैंग ने जनता को कभी यह नहीं बताया कि जिस अखबार समूह या चैनल से वे जुड़े हुए हैं उसके मालिकों ने चुनाव में राजनीतिक दलों से किस तरह का पैकेज वसूला है ? छत्तीसगढ़ की जनता को कभी यह तो बताना ही चाहिए कि मीडिया के मालिक और विज्ञापन प्रबंधक किस तरह से लैपटाप लेकर राजनीतिक दलों के पास जाते हैं और यह बताते हैं कि देखिए… हम आपका प्रचार इस भयानक तरीके से करने वाले है कि सामने वाला चित्त हो जाएगा. सच तो यह है कि छत्तीसगढ़ की मीडिया को दिया जाने वाला विज्ञापन ही बंद कर दिया जाय तो एक नहीं बल्कि पूरे दो चुनाव में किसानों का कर्ज माफ किया जा सकता है.

इस देश में कई ऐसे औद्योगिक घराने हैं जिनका कर्ज केंद्र की मोदी सरकार ने माफ कर दिया है. यदि भूपेश सरकार किसानों का कर्ज माफ कर रही है. महिलाओं को पंद्रह हजार रुपए सालाना देने की घोषणा कर रही है तो पेट में दर्द क्यों उठ रहा है? जनता को थोड़ी राहत मिल जाएगी तो परेशानी क्यों होनी चाहिए ?

छोटे-बड़े लगभग पचास उद्योगपति ऐसे हैं जो अरबो-खरबों का चूना लगाकर देश छोड़कर भाग चुके हैं. छत्तीसगढ़ ही नहीं देश के किसी भी नारंगी पत्रकार ने कभी यह नहीं लिखा कि ऐसे तमाम लोगों को घसीटकर देश लाना चाहिए और उनसे पाई-पाई वसूलना चाहिए.

लेकिन… नहीं साहब… जनता को रसोई गैस में पांच सौ रुपए की सब्सिडी देने की घोषणा से ही नारंगियों की जान निकल रही है.

पवित्रता सीधे तौर पर पवित्रता होती है. पवित्रता का कोई पाखंड नहीं होता और पाखंड वाली कोई पवित्रता नहीं होती. नारंगी गैंग को पाखंड के आवरण में लिपटी पवित्रता छोड़ देनी चाहिए. जनवाद के जिस कंबल को ओढ़कर वे सोते हैं उसमें इतने ज्यादा छिद्र है कि सबको…सब कुछ दिखता है.

सबको यह साफ तौर पर दिखता है कि कौन सा पत्रकार सांप्रदायिक ताकतों के साथ खड़ा है और कौन सा तटस्थ या निष्पक्ष रहने का ढोंग करते हुए मलाई छान रहा है.

 

समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध

जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध

-दिनकर

देश एक भयावह दौर से गुजर रहा है. नफरत की राजनीति ने हम सबका कुछ न कुछ छीन ही लिया है. यह समय तटस्थ और निष्पक्ष रहने का बिल्कुल नहीं है. सांप्रदायिकता सबसे बड़ी चुनौती है और इस चुनौती के खिलाफ जंग एक जरूरी मसला है. युद्ध में यह आवश्यक नहीं होता है कि आपके पास तेजधार हथियार हो. कई बार युद्ध शोषक पक्ष का हथियार छीनकर भी लड़ा जाता है.

इस भयावह समय में तटस्थ या निष्पक्ष रहने की बात वहीं कर सकता है जिसके पास कोई रीढ़ नहीं है. ये वहीं लोग है जिनके पूर्वज सावरकर के कामों को जायज ठहराते थे और मानते थे कि अंग्रेज यदि माफी के बाद सावरकर पेंशन देते थे तो बिल्कुल सही देते थे क्योंकि सावरकर भी एक इंसान था. ऐसे लोगों की नजरों में एक निहत्थे बुर्जुग पर गोली दागने वाला गोड़से भी एक मानव ही है.

नारंगी पत्रकारों की क्या पहचान ?

नारंगी पत्रकारों की फौज देश के हर मीडिया संस्थानों में मौजूद है. छत्तीसगढ़ के अमूमन हर मीडिया संस्थानों में नारंगी चंपादक और पत्रकारों की उपस्थिति कायम है. प्रदेश के आधे से ज्यादा वेबसाइट या पोर्टल चलाने वाले लोग नारंगी गैंग का हिस्सा है. आप इनकी खबरों के कंटेंट से यह समझ सकते हैं कि वे कितना कुछ भयानक सोच रहे हैं. सांप्रदायिकता इनके लिए कोई बड़ी चुनौती नहीं है. इनके लिए सबसे बड़ा मसला है कि राम मंदिर का निर्माण नरेंद्र दामोदार दास मोदी किस शिद्दत के साथ कर रहे हैं. जैसे मोदी के अलावा कोई और दूसरा राम मंदिर को बना ही नहीं सकता था. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल राम गमन पथ के निर्माण पर जोर देते हैं तो इन्हें खराब लगता है. नारंगियों को लगता है कि मर्यादा पुरूषोत्तम राम का नाम तो दूसरा कोई और ले ही नहीं सकता. इनके लिए रोजी-रोजगार कोई मसला नहीं है. इनकी चिन्ता का विषय यह है कि छत्तीसगढ़ में खूब धर्मान्तरण हो रहा है. नारंगी पत्रकारों को फलने-फूलने के लिए आर्थिक मदद देने में वे दल भी शामिल हैं जो आपदा में अवसर को प्रमुख मानते हैं.

नारंगी वे ही नहीं है जो एक खास दल से जुड़े हुए हैं. नारंगी वे लोग भी है जो जाने-अनजाने में ही सही...छत्तीसगढ़ में सांप्रदायिक ताकतों को फलने-फूलने का अवसर देने के लिए जमीन तैयार कर रहे हैं. ये वे लोग हैं जो अपनी खबरों या यू ट्यूब चैनलों के जरिए यह नैरेटिव बना रहे हैं कि छत्तीसगढ़ का पूरा चुनाव फंसा हुआ है. ऐसे तमाम लोगों ने दिल्ली के पत्रकारों के साथ बकायदा बैठक कर गलत फीडबैक प्रेषित किया है. कई चंपादकों के दफ्तर में नारंगी समूह के लिए काम करने वालों की बैठक होने की भी सूचना है.

अपने आसपास देखिएगा... कहीं आपका कोई दोस्त... या पत्रकार नारंगी तो नहीं है ?

यदि हैं तो.... सावधान

 

राजकुमार सोनी

98268 95207

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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अंबेडकर जयंती पर मिला छत्तीसगढ़ के बच्चों को शानदार तोहफा

रायपुर. छत्तीसगढ़ में जगह-जगह स्थापित स्वामी आत्मानंद अंग्रेजी माध्यम स्कूल अब हर बड़े महंगी फीस वाले स्वनामधारी प्राइवेट स्कूलों को टक्कर दे रहे हैं.इन स्कूलों में प्रवेश के लिए होड़ मच रही हैं. इधर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने एक अच्छा काम यह किया है कि पालकों की मांग पर स्कूल की कक्षाओं में विद्यार्थियों की क्षमता बढ़ा दी हैं.पहले किसी भी कक्षा में 40 बच्चों को प्रवेश मिलता था.अब 50 बच्चों को प्रवेश मिलेगा. वैसे तो आज सरकारी अवकाश था लेकिन छत्तीसगढ़ की सरकार ने अपने इस निर्णय को अंबेडकर जयंती यानी 14 अप्रैल के दिन ही लागू किया है. सार्वजनिक अवकाश होने के बावजूद आज यह आदेश जारी कर दिया गया है. बाबा साहेब अंबेडकर जीवन में शिक्षा और समानता को बहुत महत्वपूर्ण मानते थे. छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल की सरकार अगर शिक्षा पर जोर दे रही हैं तो यह अच्छी बात है. शिक्षा और ज्ञान के विस्तार से समाज का चहुंमुखी विकास होता है. जो नेतृत्वकर्ता अपने राज्य और देश के नौनिहालों के भविष्य की चिंता करता है उसका काम इतिहास में दर्ज होता है. राज्य के गरीब-आदिवासी और अन्य समाज के बच्चों के शैक्षणिक विकास के लिए छत्तीसगढ़ की भूपेश सरकार का यह काम प्रशंसनीय है. छत्तीसगढ़ में इसके पहले भाजपा की सरकार थीं.यह सरकार कभी नक्सलियों पर आरोप लगाकर स्कूल बंद कर देती थीं तो कभी संसाधनों का रोना रोकर. शायद इस सरकार की सोच में शामिल था कि अनपढ़-गंवार लोग अच्छे किस्म के भक्त और वोटबैंक होते हैं.
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अगर आप शादी करने जा रहे हैं तो आपको मिल सकता हैं डिस्काउंट, बस...आपको दिखानी होगी कश्मीर फाइल्स की टिकट

रायपुर. अब इसमें कोई दो मत नहीं कि देश अजीब तरह की बेवकूफियों से घिर गया है. कोई बड़ी बात नहीं कि एक रोज आप किसी मजबूत सी दीवाल की खोज में निकलेंगे और वहां अपना सिर पटककर खुद को रक्त रंजित कर लेंगे. जब हर रोज नई-नई तरह की मूर्खताएं सामने आ रही है तो लगता है कि अब खुद का बलिदान ही हमारी बेचैन आत्मा को मोक्ष प्रदान कर सकता है.

अभी थोड़ी देर पहले ही फेसबुक पर एक पोस्टर देखा. वही पोस्टर जो आप इस खबर में देख रहे हैं. इस पोस्टर में लिखा हुआ था- जो लोग फिल्म कश्मीर फाइल्स देख चुके हैं अगर वे शादी करते हैं तो उन्हें 50 प्रतिशत की छूट दी जाएगी. पोस्टर में छूट देने वाले का फोन नंबर भी दिया हुआ था. मुझे लगा कि दिए गए नंबर पर बातचीत कर लेनी चाहिए क्योंकि कई बार पोस्टर में झूठ भी चस्पा होता है. मैंने फोन लगाया तो पंड़ित रवींद्र कुमार शास्त्री ने फोन उठाया. उन्होंने बताया कि पोस्टर में जो कुछ लिखा हुआ है वह पूरी तरह से सच है. यह छूट उन लोगों को ही दी जा रही है जो कश्मीर फाइल्स देख चुके हैं. उन्हें छूट हासिल करने के लिए फिल्म की टिकट दिखानी पड़ेगी. मैंने कहा- क्या आरआरआर की टिकट से काम नहीं चलेगा ? पंड़ित जी ने कहा- आरआरआर भी अच्छी फिल्म है, लेकिन अभी हमारे लिए कश्मीरी फाइल्स जरूरी है. हमें ही नहीं मालूम था कि पंड़ितों के साथ कितना अत्याचार हुआ है. जब फिल्म देखी तब पता चला कि बहुत बुरा हुआ है. हमने तय किया है कि फिल्म के प्रमोशन के लिए हम शादी-ब्याह के अलावा हवन, जन्मकुंडली बनाने और गाड़ी पूजन में 50 प्रतिशत की छूट प्रदान करेंगे. शादी में पूजन के लिए हम 11 हजार रुपए लेते हैं लेकिन कश्मीर फाइल्स देखने वाले जोड़ों की शादी मात्र 5 हजार पांच सौ रुपए में कर दी जाएगी.

कश्मीर फाइलस के प्रमोशन का यह कोई पहला मामला नहीं है. इसके पहले भी सोशल मीडिया में एक राष्ट्रभक्त अनिल शर्मा का पोस्टर वायरल हुआ था. उस पोस्टर में लिखा था कि जो कोई भी कश्मीर फाइल्स की टिकट दिखाएगा उसे गाय के दूध में डिस्काउंट दिया जाएगा. पोस्टर में यह भी उल्लेखित था कि जो दूध 44 रुपए लीटर में बेचा जाता है उसे 35 रुपए लीटर में बेचा जाएगा. कश्मीर फाइल्स के प्रमोशन को लेकर संघ, बजरंग दल, विद्यार्थी परिषद और भाजपा के लोग किस ढंग से सक्रिय रहे हैं यह किसी से छिपा नहीं है. बकायदा झुंड बनाकर... उत्तेजक और भड़काऊ नारा लगाकर यह सिनेमा देखा और दिखाया गया है. संघियों ने हाल के भीतर नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे...प्रार्थना गायी है और उसका वीडियो वायरल किया है. मैं पहले भी लिख चुका हूं. एक बार फिर से लिख रहा हूं कि कश्मीर फाइल्स ने भले ही अपने उपायों से दो-ढ़ाई सौ करोड़ का बिजनेस कर लिया है, लेकिन यह फिल्म निहायत ही  गंदे मकसद से बनी इतिहास के कूड़ेदान में फेंकी जाने वाली एक घटिया फिल्म है.

और हां... इस घटिया फिल्म के प्रमोशन के लिए फिल्म के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री और उनकी पत्नी पल्लवी जोशी इन दिनों बैंकाक-पटाया में हैं. पति-पत्नी का हंसता हुआ वीडियो भी सोशल मीडिया में जमकर वायरल हो रहा है. लोग उनकी इस यात्रा पर लिख रहे हैं-देश जल रहा है... वो बैंकाक में हंस रहा है. राधेश्वर शर्मा नाम के एक यूजर ने लिखा है- बैंकाक की मौज तो जनेऊधारी ब्राम्हण के अलावा और कोई दूसरा ब्राम्हण नहीं ले सकता है. यदुवंश नाम के एक यूजर की टिप्पणी है- ये लोग भारत में आग लगाकर बैंकाक में मौज-मस्ती कर रहे हैं.

 

राजकुमार सोनी

9826895207

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जिस पत्रकार को थाने में नंगा खड़ा किया गया उसकी बेटी आंखों में आंसू लेकर पूछ रही है सवाल ?

मध्यप्रदेश के सीधी जिले में पत्रकार कनिष्क तिवारी को पुलिस ने जिस तरह से थाने में नंगा खड़ा कर तस्वीरों को वायरल किया वह बेहद शर्मनाक है. पढ़े-लिखे और समझदार लोग मान रहे हैं कि थाने में पत्रकार को नहीं बल्कि लोकतंत्र को नंगा किया गया है. शिवराज सिंह की पुलिस ने लोकतंत्र की पीठ पर चमड़े की बेल्ट से वार भी किया है. पत्रकार ने खुद एक वीडियो जारी कर बताया है कि उसे और उसके साथियों को पुलिस ने किस निर्ममता से मारा-पीटा है. इधर खबर और तस्वीरों के वायरल होने के बाद जब पत्रकार की बेटी ने एक अखबार में अपने पिता की तस्वीर देखी तो वह रो पड़ी. बेटी के आंसूओं में कुछ सवाल उमड़ रहे थे जिसे कनिष्क तिवारी ने महसूस कर फेसबुक पर शेयर किया है.

 

मैं कनिष्क तिवारी सच्चे मन से सामाजिक मुद्दे को उठाता हूं उठाता रहूंगा. मरते दम तक लडूंगा और लड़ता रहूंगा. लेकिन मेरी कुछ पारिवारिक जिम्मेदारी भी है. मेरी 10 साल की एक बेटी है. उसे यह सब नहीं मालूम है कि  पत्रकार किन परिस्थितियों में सामाजिक मुद्दों को उठाते हैं ? क्या परिस्थितियां होती हैं ? क्या हालात होते हैं?  जब कई बार लगता रहा है कि यह सब छोड़ के कुछ और किया जाए. बीते दिन ऐसा ही कुछ हुआ. जब प्रताड़ना की पराकाष्ठा को पार कर दिया गया. मेरे सामाजिक सम्मान को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया गया. आज अखबारों में जब यह खबर छपी और साथ में वह तस्वीर भी छपी जिसे पुलिस के द्वारा विधायक के कहने पर खींचकर वायरल किया गया था तब शायद विधायक और उसके पुत्र खूब खुश हुए हो. उन्हें अपनी जीत का एहसास भी हुआ हो, लेकिन एक पत्रकार समाज का आईना है. उस सामाजिक आईने को कैसे चूर चूर किया गया. उसका हौसला तोड़ा गया उसे मजबूर किया गया. साथ ही मान सम्मान को ऐसी ठेस पहुंचाई गई कि कल्पना मात्र से ही आंखों से आंसू निकल आते हैं.

आज सुबह 8 तारीख को जब अखबार घर आया तो मेरी 10 साल की बेटी ने अखबार में मेरी अर्धनग्न तस्वीर देखी तो रोते हुए पूछा कि पापा यह क्या है ? मेरे आंखों से आंसू छलक आए और मैंने सिर्फ यही कहा कि बेटा यह आपके पापा के द्वारा पत्रकारिता के रूप में किए गए काम का इनाम है. मैंने यह भी समझाया जब सच की लड़ाई लड़ी जाती है तो इंसान अकेले होता हैं, लेकिन यदि सच के साथ हमेशा खड़ा रहा जाए तो धीरे-धीरे कारवां बढ़ता जाता है.

धन्यवाद राष्ट्रीय मीडिया. धन्यवाद प्रादेशिक मीडिया. धन्यवाद सभी शुभचिंतकों को जिन्होंने मेरे अपमान को अपना अपमान समझा. यह एक पत्रकार का अपमान नहीं था बल्कि पत्रकार बिरादरी का अपमान था. यदि न्याय नहीं मिलता तो कभी पत्रकार किसी गरीब और दबे कुचले की आवाज ही नहीं उठा पाएंगे. बेटी धीरे-धीरे बड़ी होगी तब शायद उसे सब कुछ पता चल जाएगा, लेकिन शायद जो जख्म मुझे मिला है वह कभी नहीं भर सकता. बहुत कुछ लिखना चाहता हूं मगर आंखों से आंसू निकल रहे हैं. आंसू लिखने की हिम्मत तोड़ देते हैं. फिर भी मैं वादा करता हूं कि आखिरी दम तक इस लड़ाई को लड़ता रहूंगा ताकि हर पत्रकार के मान और सम्मान की रक्षा हो सकें. फिर किसी दूसरे कनिष्क तिवारी इस तरह से बेइज्जत ना होना पड़े.

 

 

 

 

 

 

 

 

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कश्मीर फाइल्स को लेकर पढ़िए उस आईपीएस अफसर का नजरिया जो कश्मीर में पदस्थ था

देश के नामचीन लेखक विभूति नारायण राय  के उपन्यास घर, शहर में कर्फ्यू, किस्सा लोकतंत्र, तबादला और प्रेम की भूतकथा से हर कोई वाकिफ है. भारतीय समाज में व्याप्त सांप्रदायिक हिंसा को समझने के क्रम में उनकी दो पुस्तक सांप्रदायिक दंगे और पुलिस तथा हाशिमपुरा को भी काफी महत्वपूर्ण माना जाता है. कश्मीर पर लिखे उनके एक लेख- अंधी सुरंग में कश्मीर को पढ़कर भी बहुत कुछ जाना समझा जा सकता है. यहां हम फिल्म द कश्मीर फाइल्स पर लिखी उनकी टिप्पणी को अपने पाठकों के लिए शेयर कर रहे हैं.

विभूति नारायण राय

दुनिया की सबसे खूबसूरत फिल्में नरसंहार और उससे उपजे विस्थापन को लेकर बनी हैं। विस्थापन है भी ऐसा विषय, जो कहानी, कविता, नाटक, फिल्म- गरज यह कि रचनात्मकता की हर विधा के सर्जक के समक्ष चुनौती की तरह आता है। इस चुनौती को स्वीकार करने में अपने कुछ जोखिम भी हैं। बहुत कम रचनाकार, जिनमें फिल्म निर्माता भी शामिल हैं, इस परीक्षा में खरे उतरते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण नि:संगता का अभाव है, जिसकी अपेक्षा इस संवेदनशील विषय को रहती है। द कश्मीर फाइल्स, जो इन दिनों विवादों के घेरे में है, इसी नि:संगता की कमी के कारण एक औसत मुंबइया फिल्म बनकर रह गई है।

व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए 1993-94 के दौरान कश्मीर घाटी में नियुक्ति एक बड़ा सीखने वाला अनुभव था। जनवरी 1993 में जब मैं वहां पहुँचा, तब आतंकवाद अपने चरम पर था। दिसंबर 1989 में शुरू हुए पृथकतावादी आंदोलन ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। भारतीय राज्य का इतने बडे़ शहरी आतंकवाद से पहला साक्षात्कार था और कई बार लगता कि नीतिकारों की समझ में भी नहीं आ रहा है कि उसका मुकाबला कैसे करें? कश्मीरी पंडितों के पलायन का बड़ा भाग संपन्न हो चुका था, पर अभी भी पुराने शहर के कुछ हिस्सों में इक्का-दुक्का पंडित परिवार जाने और रुकने के ऊहापोह में झूल रहे थे। 

मेरी एक परिचिता अपने पिता के साथ इसी तरह के एक घनी आबादी और पतली गलियों वाले इलाके में रहती थीं। हिंदी की इस महत्वपूर्ण कथा लेखिका के पिता वामपंथी राजनीति से जुडे़ थे और उनका जीवट देखने लायक था। इस झंझावात में भी, जब उनके कई करीबी मारे जा चुके थे और उन्हें भी तरह-तरह की धमकियां मिल रही थीं, उन्होंने हब्बा कदल का अपना घर न छोड़ने की जिद-सी ठान रखी थी। उन्होंने कश्मीर की साझा संस्कृति, चुनाव में राज्य द्वारा की गई धांधलियों और कश्मीरी राजनीति में घुन की तरह लगे भ्रष्टाचार पर विस्तार से मुझे समझाया था। मुझसे मिलने आने में जोखिम था, इसलिए वे छिपकर मेरे पास आते, बेटी बुर्के में होती और दोनों एक लंबा रास्ता लेकर मुझ तक पहुंचते। 

पिछले दिनों जब द कश्मीर फाइल्स देख रहा था, तब मुझे उस बहादुर और सचेत बुजुर्ग कश्मीरी पंडित द्वारा साझा की गई जानकारियां याद आईं। ऊपरी तौर से तो सब कुछ वैसा ही लगा, जैसा उन्होंने बताया था, लेकिन दिमाग पर थोड़ा जोर देते ही लगता कि कहीं कुछ गड़बड़ हो रही है। मसलन, वे सब सूचनाएं गायब थीं, जिनमें मोहल्ले के पड़ोसी मुसलमानों ने पंडित को झूठ बोलकर भी बचाया था। वे अनगिनत कथाएं भी इस फिल्म की पटकथा का हिस्सा नहीं बन पाईं, जिनमें घर छोड़कर भाग चुके पंडित परिवार का कोई सदस्य अगर कभी अपनी संपत्ति की खोज-खबर लेने आता, तो उसका मुसलमान पड़ोसी उसे होटल से जबर्दस्ती लाकर अपने घर ठहराता। उन्होंने एक दर्जन से अधिक किस्से सुनाए थे, जिनमें पंडितों के सेब के बागान की देखभाल करने वाले मुसलमान काश्तकार हर साल फसल बेचकर जम्मू के शरणार्थी कैंपों में रहने वाले उनके मालिकों को पैसा देने जाते और अपनी आंखें पोंछते हुए लौटते। पर ये प्रसंग तो फिल्म में कहीं दिखे ही नहीं। शायद जिस एजेंडे के तहत यह फिल्म बन रही थी, उसमें ये सकारात्मक प्रसंग कहीं फिट नहीं बैठते थे।

उन दिनों अचानक शहर की जामा मस्जिद में जुमे की नमाज के बाद एक अपरिचित सा चेहरा खुतबे के लिए खड़ा होता और स्थानीय नमाजियों को कोसने लगता कि वे दरगाहों पर इबादत के लिए जाते हैं या कश्मीरियत के नाम पर बहुत सी गैर-इस्लामी परंपराओं में मुब्तला हैं। उसी जैसा कोई व्यक्ति मोहल्ले की मस्जिद पर भी काबिज था और वहां के माइक से पंडितों को घर छोड़कर भाग जाने को कह रहा था। इस व्यक्ति को स्थानीय लोग पहचानते तो नहीं थे, पर उसके उच्चारण और पोशाक से अनुमान लगा लेते कि वह पाकिस्तानी पंजाब या सरहदी इलाकों से आया है। इस फिल्म में पीढ़ियों से पड़ोस में रह रहे और सूबा सरहद से आए मुसलमान के बीच के फर्क को खत्म कर दिया गया है।

कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की जो कहानी फिल्म में सुनाई गई है, वह तथ्यात्मक रूप से काफी हद तक सही होते हुए फिल्म को प्रचार से अधिक कुछ नहीं बना पाती है। इसमें आतंकवाद के फौरी कारण उन आम चुनावों का तो जिक्र ही गायब है, जो जनता को अपनी पसंद के प्रतिनिधि चुनने के अधिकार से वंचित करते थे। अब यह छिपा तथ्य नहीं है कि 1987 के आम चुनाव की धांधलियों ने 1989 के विस्फोट में उत्प्रेरक की भूमिका निभाई थी। इस रहस्य पर किसी का ध्यान नहीं गया कि मोरारजी देसाई घाटी के सबसे लोकप्रिय भारतीय प्रधानमंत्री सिर्फ इसलिए हैं, क्योंकि उनकी सरकार ने वहां के सबसे निष्पक्ष चुनाव कराए थे। फिल्म ने पंडितों के निष्कासन के समय महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे वी पी सिंह, जगमोहन, मुफ्ती मोहम्मद सईद या फारूख अब्दुल्ला के चरित्र का तटस्थ अवलोकन नहीं किया। यह कहना ज्यादा सही होगा कि सिर्फ इन पात्रों के चित्रण में नहीं, फिल्म की पूरी पटकथा में ही इस तटस्थ रचनात्मकता का अभाव है।

फिल्म के निर्माता भूल गए कि युद्ध या घृणा पर बड़ी रचना वही हो सकती है, जो अंतत: इनके विरुद्ध अरुचि पैदा कर सके। यहूदियों के नरसंहार या होलोकास्ट पर बहुत-सी फिल्में बनी हैं, पर सम्मान से जिक्र उन्हीं का होता है, जो नस्लवादी संहार के विरुद्ध दर्शकों को खड़ा करती हैं। द कश्मीर फाइल्स  तो प्रतिशोध की फिल्म है, इससे जुडे़ लोगों को द पियानिस्ट  या लाइफ इज ब्यूटीफुल  जैसी फिल्में देखनी चाहिए। इन फिल्मों को देखकर कभी भी उस पूरी जाति के प्रति आक्रोश नहीं पैदा होता, जिसके कुछ सदस्य होलोकास्ट से जुडे़ थे। लाइफ इज ब्यूटीफुल  की तो आलोचना भी इसलिए की गई कि उसने यातना और पीड़ा के उन बोझिल क्षणों में कुछ हल्के-फुल्के प्रसंगों के लिए भी गुंजाइश निकाल ली थी। इन बड़ी कृतियों के बरक्स द कश्मीर फाइल्स  में सिर्फ घृणा है, आक्रोश है और इनसे उपजने वाली प्रतिशोध की भावना है। मानो एक फिल्म ने देश को विभक्त कर दिया है। कुछ लोगों ने मांग की है कि देश में मुस्लिम संहार की घटनाओं पर भी फिल्में बनें। वे भूल जाते हैं कि बदले की भावना से निर्मित कोई भी कृति साधारण ही होगी। 

 

 

 

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निहायत ही गंदे मकसद से बनाई गई फिल्म का नाम हैं कश्मीर फाइल्स

राजकुमार सोनी

अभी थोड़ी देर पहले ही कश्मीर फाइल्स को देखकर लौटा हूं. यकीन मानिए इस फिल्म को लेकर इतना अधिक पढ़ चुका था कि इसे देखने का कोई इरादा नहीं बन पा रहा था, लेकिन 16 मार्च की शाम जैसे-तैसे इस फिल्म को देखने का मन बन ही गया. सीधे शब्दों में कहूं तो कश्मीर फाइल्स निहायत ही गंदे मकसद से बनाई गई एक कचरा फिल्म हैं. यह फिल्म उन लोगों को ही अच्छी लग सकती हैं जो अपने भगवान मोदी को आगे रखते हैं और देश को पीछे.

यह फिल्म युद्ध के उदघोष की तरह जय-जय श्रीराम का नारा लगाकर रोजी-रोटी चलाने वाले लपंट समुदाय की भावनाओं को भुनाने और निकट चुनाव में उनकी दोयम दर्जे की ऊर्जा का उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करती है.कश्मीर में कश्मीरी पंड़ितों के साथ जो कुछ घटित हुआ वह पूरी तरह से शर्मनाक है. उस पर कोई किंतु-परन्तु नहीं होना चाहिए, लेकिन फिल्म का भीतरी और खुला स्वर यहीं हैं कि मुसलमान कौम पूरी तरह से हत्यारी है और हर मुसलमान गद्दार है.

फिल्म के प्रारंभ में जब फिल्म को प्रोजेक्ट करने वाली कंपनियों के विज्ञापन छपते हैं तब छोटे अक्षरों में यह भी छपता हैं कि यह फिल्म विश्व के समस्त पीड़ित समुदाय को समर्पित हैं, लेकिन फिल्म को देखकर कहीं से भी यह नहीं लगता है कि यह फिल्म पीड़ित मानवता की बात करती हैं. फिल्म को देखकर यह साफ-साफ झलकता है कि मुसलमानों और आजादी-आजादी का गीत गाने वाले नौजवानों के खिलाफ नफरत को कैसे जिंदा रखना है ? फिल्म यह नैरेटिव सेट करती हैं कि देश में राजनीतिक तौर पर जो कुछ भी घट रहा है वह ठीक है और जब तक केंद्र की वर्तमान सरकार है तब तक ही हिन्दुओं की रक्षा हो सकती हैं ? अगर मुसलमानों को ठीक करना है तो हिन्दुओं को एकजुट होना होगा. यह फिल्म कश्मीर की महिमा और देश को विश्वगुरू बनाने के नाम पर ऋषि-मुनियों के सानिध्य में गुफाओं-कंदराओं में लौटकर खुद को गौरान्वित करने की जोरदार ढंग से वकालत भी करती हैं. पूरी फिल्म में जिसे देखो वहीं लेक्चर झाड़ते मिलता हैं.

आईटीसेल के लिए काम करने वाले घोषितऔर अघोषित लंपट समुदाय ने इस फिल्म को चिल्ला-चिल्लाकर हिट बना दिया है. यकीन मानिए यह फिल्म अभी और अधिक धन कमाएगी और फिल्मफेयर अवार्ड तथा राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीतेगी. जिस फिल्म का प्रमोशन स्वयं प्रधानमंत्री ने ( हालांकि वे सबके प्रधानमंत्री होते तो शायद ऐसा नहीं करते ) कर दिया हो उसे तो आस्कर के लिए भी भेजा जा सकता है. अभी कल ही कश्मीर फाइल्स बनाने वाली राष्ट्रवादियों की फौज ने देश के गृहमंत्री अमित शाह के दर्शन का लाभ भी प्राप्त कर लिया है. टीम के सदस्यों ने बढ़िया फोटो-शोटो खिंचवाकर फेसबुक व सोशल मीडिया के अन्य माध्यमों में चस्पा कर दिया है. विवेक अग्निहोत्री की धुंआधार पैंतरेबाजी को देखकर तो यह भी लग रहा है कि बंदे को जल्द ही पद्मश्री और पद्मभूषण भी थमा दिया जाएगा.

 

अब आने वाले दिनों में चाहे जो हो...लेकिन मेरी नज़र में यह फिल्म दो कौड़ी से अधिक की नहीं है. एक अच्छी और मील का पत्थर साबित होने वाली कोई भी फिल्म अगर घटनाओं को जस का तस रखती भी हैं तो एक कदम आगे बढ़कर मार्ग सुझाती है. दिशा दिखाती है. एक अच्छी फिल्म हमारे भीतर नफरत का पहाड़ खड़ा नहीं करती. वह मनुष्य को और अधिक संवेदनशील बनाने का काम करती है. कश्मीर फाइल्स के भीतर ऐसा कोई भी तत्व मौजूद नहीं है जिसे देखकर कुछ बेहतर करने की भीतरी उष्मा प्राप्त हो. यहीं एक वजह है कि फिल्म की बंपर कमाई के बावजूद अंधभक्त केंद्र की मोदी सरकार से यह सवाल करने की स्थिति में नहीं है कि धारा 370 खत्म होने के बावजूद भी कश्मीरी पंड़ितों के पुर्नवास और बेहतरी के लिए क्या प्रयास हो रहा है ? यह सब तब होता जब यह फिल्म संघियों का टूल बनने के बजाय शाश्वत सृजन होती ? सब जानते हैं कि कश्मीरी पंड़ितों के साथ जो कुछ भी घट रहा था तब केंद्र की वीपी सिंह की सरकार को भाजपा का समर्थन हासिल था.तब भी भाजपा की सरकार ने कश्मीरी पंड़ितों के लिए कुछ नहीं किया.अब जबकि मोदी सरकार हैं तब भी कश्मीरी पंड़ितों के पुनर्वास के लिए कुछ होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है.

फिल्म का एक पात्र ( मिथुन चक्रवर्ती ) जो जम्मू-कश्मीर में पदस्थ एक अफसर हैं... वह बार-बार इस बात को कहता है कि कश्मीरी पंड़ित मर रहे हैं. शिविरों में रहने के लिए मजबूर हैं. कीड़े- मकोड़ों सा जीवन जी रहे हैं..मगर सरकार कुछ नहीं कर रही हैं. आखिरकार वह कौन सी सरकार हैं ? सरकार कश्मीरी पंड़ितों की रक्षा क्यों नहीं कर पा रही हैं ? सरकार क्यों फेल हुई ? यह सारे सवाल फिल्म से नदारद हैं. बस...फिल्म का पात्र सरकार को कोसते रहता है. वह ऐसा इसलिए करता है क्योंकि तब केंद्र की सरकार भाजपा के समर्थन से चल रही थीं. अगर फिल्म में यह तथ्य प्रमुखता से उभर जाता तो पोल खुल जाती और वे राजनीतिज्ञ बेनकाब हो जाते जो इसके लिए दोषी है.

फिल्म में मिथुन चक्रवर्ती तीन-चार तरह की फाइल रखता है. सभी फाइलों में अखबारों की कटिंग चस्पा है. फिल्म के इस पात्र को अखबार की कतरनों पर तो भरोसा भी है, लेकिन मीडिया को रखैल बताते हुए एक पात्र यह भी कहता है कि कोई भी मीडिया कश्मीर का सच नहीं बता रहा है ? खैर...फिल्मकार के लाख बचाव के बावजूद परत-दर-परत पोल खुलती चलती हैं. फिल्म में हिंसा के इतने भयावह दृश्य हैं कि सेंसर बोर्ड की पोल खुल जाती हैं. छविगृह में बैठा दर्शक खुद से सवाल करने लगता है कि यार...फिल्म के क्रूरतम से क्रूरतम दृश्यों पर कैची क्यों नहीं चलाई गई ? सेंसर बोर्ड किसके दबाव में था ? दर्शक को खुद के भीतर से यह जवाब भी मिलता है कि जब आयकर विभाग, सीबीआई और चुनाव आयोग सहित देश की कई संवैधानिक संस्थाओं की हैसियत दो कौड़ी की कर दी गई हैं तो फिर सेंसरबोर्ड की क्या औकात ?

फिल्म में आरएसएस यानी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का उल्लेख कर फिल्मकार यह भी बता देता है कि वह किस खेमे का है ? और उसका इरादा क्या है ? वह क्या चाहता है ? वैसे भी ब्राह्मणों के लिए एक अलग देश की मांग करने वाले विवेक अग्निहोत्री का दक्षिणपंथी झुकाव किसी से छिपा हुआ नहीं है. एक बूढ़ी काया पर गोली चलाने वाले गोड़से और माफी वीर सावरकर की गैंग का कोई सदस्य जब कभी भी फिल्म बनाएगा तो क्या वह फिल्म के साथ न्याय करेगा ? यह फिल्म देश को दो भागों में बांटने का काम करती है. एक भाग में नफरती चिन्टूओं की जमात हैं तो दूसरे भाग में भाई-चारे और मोहब्बत पर यकीन करने वाले लोग. इस फिल्म को देखने वाले सवर्ण समुदाय को भी यह सोचना चाहिए कि क्या फिल्मकार ने उन्हें सहानुभूति का पात्र बनाकर देश के अन्य समुदायों के बीच कहीं घृणा का पात्र तो नहीं बना दिया है. फिल्म में यह स्वर छिपा हुआ है जिसके चलते यह आवाज भी उठ रही है कि क्या देश में सिर्फ पंड़ित ही रहते हैं? क्या देश में शोषित-पीड़ित दलित और आदिवासियों का कोई वजूद नहीं है ?

सुधि व समझदार दर्शकों को इस फिल्म का एजेंडा साफ-साफ समझ में आ रहा है. देश के बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और जन सरोकार से जुड़े संस्कृतिकर्मियों को इस फिल्म और इसके फिल्मकार के खतरनाक इरादों की पोल खोलनी ही चाहिए. अगर हमने अभी प्रतिरोध दर्ज नहीं किया तो अभी एक फाइल बनी हैं...आगे और कई ऐसी संघी फाइलें सामने आएगी. हर फाइल से नफरत बाहर निकलेगी. नफरत... नफरत...नफरत और केवल नफरत. यह देश वैसे भी अंधभक्ति और अंधभक्तों से परेशान चल रहा है.कश्मीर फाइल्स अंधभक्तों की नई खेप पैदा करने वाली फैक्ट्री के तौर पर खुद को स्थापित करने का घिनौना प्रयास करती है.

अब आप पूछ सकते हैं कि फिल्म की कहानी क्या है ? फिल्म में किसका अभिनय अच्छा है ? सच तो यह है कि फिल्म की कोई कहानी नहीं है. फिल्म में सिर्फ घटिया और खतरनाक इरादा है. फिल्म में किसी भी अभिनेता की भूमिका जानदार नहीं है. फिल्म में बिट्टा कराटे ( खलनायक )  की भूमिका निभाने वाले मराठी अभिनेता चिन्मय दीपक मंडेलकर की आंखों का सूरमा, उसका पलक झपकाना और संवाद बोलने का अंदाज एक कौम विशेष के हर चेहरे पर जाकर चस्पा हो जाता है और यहीं दुर्भाग्यजनक है.

 

 

 

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इन टिप्पणियों को पढ़ लीजिए...साफ हो जाएगा कि कश्मीर फाइल्स देखनी चाहिए या नहीं ?

कोई एक विवेक अग्निहोत्री है.सोशल मीडिया व अन्य माध्यमों से पता चला है कि वे कान्यकुब्ज ब्राम्हण परिवार से हैं और मुंबई में सेटल होने के बाद वे ताशकंद फाइल्स और क्राइम थ्रिलर फिल्म चाकलेट भी बना चुके हैं. सोशल मीडिया बता रहा है कि वे एक खूबसूरत टीवी अभिनेत्री पल्लवी जोशी के हसबैंड भी है. विवेक अग्निहोत्री की हालिया रीलिज फिल्म कश्मीर फाइल्स को लेकर कई तरह की बातें हो रही है. एक वर्ग कह रहा है कि हर सच्चे भारतीय को यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिए तो दूसरे वर्ग का कहना है कि मोहब्बत... इंसानियत और भाई-चारे पर यकीन करने वाले किसी भी शख्स को यह फिल्म नहीं देखनी चाहिए. वैसे अच्छी फिल्मों को देख-समझकर टिप्पणी करने वाले अधिकांश सुधि दर्शक मान रहे हैं कि फिल्म का निर्माण एक समुदाय विशेष के साथ नफरत के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए किया गया है. सोशल मीडिया में बहुत से लोगों ने लिखा है कि कश्मीर फाइल्स से ज्यादा जरूरी गुजरात की फाइल्स है. कश्मीर फाइल्स के साथ गुजरात के दंगों पर बनी फिल्म परजानिया का भी जिक्र हो रहा है. लोग कह रहे हैं कि परजानिया को टैक्स फ्री तो दूर सही ढंग से थियेटरों में रीलिज भी नहीं होने दिया गया था. कश्मीर फाइल्स से पहले शुद्र द राइजिंग जैसी फिल्म बन चुकी है. जो लोग कश्मीर फाइल्स देखकर रो रहे हैं अगर वे शुद्र द राइजिंग देख लेंगे तो शायद उनका कलेजा फट जाएगा. कोई जज लोया फाइल्स बनाने का सुझाव दे रहा है तो कोई नारी उत्पीड़न जैसे विषय पर जशोदा फाइल्स बनाने की बात कर रहा है. कश्मीर फाइल्स पर हम यहां कुछ ऐसी टिप्पणियों को प्रकाशित कर रहे हैं जो हाल के दिनों में लिखी गई है. इन टिप्पणियों के आलोक में यह साफ हो जाएगा कि फिल्म को देखा जाना चाहिए या नहीं ? वैसे आज सुबह से सोशल मीडिया में विवेक रंजन अग्निहोत्री की उस तस्वीर को लेकर बवाल मच गया है जिसमें वे जामा मस्जिद के सामने नमाज अदा करते हुए दिखाई दे रहे हैं. विवेक रंजन अग्निहोत्री ने यह तस्वीर 25 नवंबर 2012 को टिव्हटर पर जारी की थी. तब केंद्र में भाजपा की सरकार नहीं थीं. इस फोटो के वायरल होते ही सवालों का पहाड़ खड़ा हो गया है. लोग कह रहे हैं-क्यों मियां सरकार बदलते ही इरादा बदल गया ? ऊपर दी गई तस्वीर विवेक अग्निहोत्री की है. 

कश्मीर फाइल्स को लेकर देश के एक प्रमुख अखबार देशबन्धु ने अपने संपादकीय में लिखा है-

कश्मीरी पंडितों के विस्थापन पर बनी फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ सिनेमाघरों में रिलीज़ हो चुकी है और उम्मीद से ज्यादा कमाई कर रही है। गौरतलब है कि 90 के दशक में जम्मू-कश्मीर में बड़े पैमाने पर कश्मीरी पंडितों की हत्या हुई थी और बड़ी संख्या में उन्हें अपने घर और ज़मीन से बेदखल होना पड़ा था। इसके पीछे बहुत से राजनैतिक, सामाजिक कारण थे, लेकिन इस मसले की जड़ पर ध्यान देने की जगह इसे सीधे सांप्रदायिक मसला बना दिया गया। इस फ़िल्म में भी समस्या के हर पहलू को परखने की जगह इसे एकतरफा नजरिए से बनाया गया है। शायद फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक की मंशा भी यही हो। वैसे भी फ़िल्म के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की राजनैतिक विचारधारा किसी से छिपी नहीं है। अर्बन नक्सल शब्द भी उन्हीं की देन है।

बहरहाल, कश्मीर हमेशा से भारतीय राजनीति का एक संवेदनशील विषय रहा है। और इस विषय को समझने के लिए व्यापक नज़रिए की ज़रूरत है। इसे काला या सफ़ेद यानी या तो इस पार या उस पार वाले व्यवहार से समझा नहीं जा सकता। यह फिल्म गुजरात और मप्र सहित कई राज्यों में टैक्स फ़्री भी की गई है। इस का प्रचार भी नामी-गिरामी लोग कर रहे हैं और ये बता रहे हैं कि अगर आप भारतीय हैं तो यह फ़िल्म आपको ज़रूर देखनी चाहिए।हालांकि अपनी राष्ट्रीयता और देशप्रेम साबित करने के लिए जनता किसी फिल्म की मोहताज नहीं है।

द कश्मीर फ़ाइल्स 1990 के दौर के उस भयावह समय पर केन्द्रित है, जब आतंकवादियों ने कश्मीरी पंडितों की हत्याएं कीं और उन्हें कश्मीर छोड़ने पर मजबूर किया गया। हज़ारों कश्मीरी पंडित अपने ही देश में शरणार्थी बनकर रहने पर मजबूर हो गए। ‘द कश्मीर फाइल्स’ का मुख्य पात्र कृष्णा पंडित नाम का लड़का है, जो दिल्ली में ईएनयू नाम के मशहूर कॉलेज में पढ़ता है। कृष्णा छात्र राजनीति में भी सक्रिय है। कृष्णा के दादा पुष्कर नाथ को 1990 में कश्मीर छोड़ना पड़ा था। वो खुद आतंकियों के अत्याचार के भुक्तभोगी हैं। उनका सपना है कि वो एक बार वापस अपने घर जा सकें। हालात ऐसे बनते हैं कि कृष्णा खुद कश्मीर जाकर देखता है कि वहां क्या चल रहा है। 

इस दौरान उसके अतीत के राज उसके सामने खुलते हैं, जो कश्मीर और उसके अपने जीवन को लेकर उसका नज़रिया बदल देते हैं। फ़िल्म में आतंकवाद के दृश्यों को काफी विस्तार से फिल्माया गया है, जिस वजह से उसका असर दर्शकों पर गहरा पड़ता है। इस फिल्म में अनुपम खेर, दर्शन कुमार, पल्लवी जोशी और मिथुन चक्रवर्ती मुख्य भूमिकाओं में हैं। सभी मंजे हुए कलाकार हैं, इसलिए उनकी अदाकारी में कोई कमी नहीं है। लेकिन बेहतर होता अगर फिल्म में सभी पहलुओं को बराबरी से उठाया जाता।

कश्मीरी पंडितों का विस्थापन भारत की गंगा-जमुनी सभ्यता के माथे पर एक और दाग था, जिसे जल्द से जल्द मिटाया जाना था। लेकिन एक बार फिर लोगों की जान को राजनैतिक फ़ायदे के लिए भुनाया गया। 90 से लेकर 2022 तक देश में कई सरकारें आईं और गईं। देश में कांग्रेस का भी शासन रहा और भाजपा का भी। मगर ये समस्या पूरी तरह हल नहीं हुई और अब इसे पूरी तरह सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई है। बताया जाता है कि कश्मीरी पंडितों पर जुल्म और दर्द की कहानी को पर्दे पर दिखाने के लिए विवेक अग्निहोत्री ने ख़ूब शोध किया। पीड़ितों के बारे में जानकारी जुटाई। लेकिन यह मेहनत कहीं न कहीं इकतरफा ही रही, क्योंकि इसमें तथ्यों को कसौटी पर नहीं परखा गया। 

हाल ही में भारतीय वायु सेना के शहीद ‘रवि खन्ना’ की पत्नी निर्मला ने ‘द कश्मीर फाइल्स’ के खिलाफ अदालत में याचिका दायर की थी। स्क्वाड्रन लीडर रवि खन्ना की पत्नी ने अदालत से अपील की है कि फिल्म में उनके पति को दर्शाने वाले दृश्यों को हटाया जाए। उन्होंने दावा किया कि फिल्म में दिखाए गए तथ्य उनके पति के साथ हुई घटनाओं के विपरीत हैं। गौरतलब है कि स्क्वाड्रन लीडर रवि खन्ना 25 जनवरी, 1990 को श्रीनगर में शहीद हुए चार वायुसेना कर्मियों में से एक थे। इस याचिका पर अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीश दीपक सेठी ने आदेश दिया है कि ‘रवि खन्ना की पत्नी द्वारा बताए गए तथ्यों को देखते हुए, फिल्म में से शहीद स्क्वाड्रन लीडर रवि खन्ना से संबंधित कार्यों को दर्शाने वाले दृश्य दिखाने पर रोक लगाई जाए।’ अदालत का ये आदेश बताता है कि विवेक अग्निहोत्री ने पूरा सच बयां नहीं किया है।

बहरहाल, फिल्म में दिखलाई कहानी पूरा सच नहीं है, क्योंकि इतिहास आधे-अधूरे तथ्यों के साथ पढ़ा नहीं जा सकता। यह याद रखना होगा कि कश्मीर में जिस वक्त नरसंहार और पलायन की घटनाएं हुईं, उस वक्त  केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी, जो भाजपा के समर्थन से बनी थी। वीपी सिंह सरकार दिसंबर 1989 में सत्ता में आई। पंडितों का पलायन उसके ठीक एक महीने बाद से शुरू हो गया। साल 1990 से लेकर 2007 के बीच के 17 सालों में आतंकवादी हमलों में 399 पंडितों की हत्या की गई। इसी दौरान आतंकवादियों ने 15 हजार मुसलमानों की हत्या कर दी। 

और सबसे बड़ी बात ये कि 90 से पहले देश में अधिकांश समय  कांग्रेस का ही शासन रहा। इस दौरान कभी ऐसी नौबत नहीं आई कि कश्मीरी पंडितों को पलायन करना पड़े, लेकिन राम मंदिर के लिए रथयात्रा निकाल कर सत्ता में आने की भाजपा के कोशिशों के बीच यह दुखद अध्याय भी जम्मू-कश्मीर में जुड़ ही गया। आख़िरी बात ये कि इस फिल्म को आपदा की तरह देखना चाहिए, और इस आपदा में अवसर देखने वालों को करारा जवाब जनता को देना चाहिए।

वृषभ दुबे की टिप्पणी है-

 

द कश्मीर फाइल्स को देखते हुए मुझे Mathieu Kassovitz की फ़िल्म La Haine का एक डायलॉग बार बार याद आता रहा - "Hate Breeds Hate"

ख़ैर … 

मैं हर कहानी को पर्दे पर उतारने का समर्थक हूँ। यदि कहानी ब्रूटल है, तो उसे वैसा ही दिखाया जाना चाहिए। 

जब टैरंटीनो और गैस्पर नोए, फ़िक्शन में इतने क्रूर दृश्य दिखा सकते हैं तो रियल स्टोरीज़ पर आधारित फ़िल्मों में ऐसी सिनेमेटोग्राफ़ी से क्या गुरेज़ करना।

और वैसे भी, तमाम क्रूर कहानियाँ, पूरी नग्नता के साथ पहले भी सिनेमा के ज़रिए दुनिया को सुनाई और दिखाई जाती रही हैं। 

रोमन पोलांसकी की "दा पियानिस्ट" ऐसी ही एक फ़िल्म है। .. 

जलियांवाला बाग़ हत्याकांड की क्रूरता को पूरी ऑथेंटिसिटी के साथ शूजीत सरकार की "सरदार ऊधम" में फ़िल्माया गया है।

मगर आख़िर ऐसा क्या है कि पोलांसकी की "दा पियानिस्ट" देखने के बाद आप जर्मनी के ग़ैर यहूदियों के प्रति हिंसा के भाव से नहीं भरते? और शूजीत सरकार की "सरदार ऊधम" देखने के बाद आपको हर अंग्रेज़ अपना दुश्मन नज़र नहीं आने लगता. 

पर कश्मीर फ़ाइल्स देखने के बाद मुसलमान आपको बर्बर और आतंकी नज़र आता है. ऐसा क्यों?

मुझे इस "क्यों" का जवाब अनुप्रास अलंकार से सुसज्जित इस पंक्ति में नज़र आता है - "कहानी को कहने का ढंग"

अच्छे फ़िल्ममेकर्स अपनी बात कहने के ढंग पर ध्यान देते हैं. कहानी से पूरी ईमानदारी करते हुए, अपनी ज़िम्मेदारी नहीं भूलते.

चलिए मैं बात साफ़ करता हूँ - जैसे लिंकन ने डेमोक्रेसी की एक यूनिवर्सल डेफ़िनिशन दी है - "औफ़ दा पीपल, बाई दा पीपल एंड फ़ॉर दा पीपल"। वैसी ही कोई परिभाषा विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्मों के लिए भी गढ़ी जा सकती है … मसलन "एक विशेष वर्ग द्वारा, एक विशेष वर्ग के लिए और एक विशेष वर्ग के ख़िलाफ़" ..

आप ख़ुद सोचिए कि पूरी 170 मिनट की फ़िल्म में किसी लिबरल मुस्लिम कैरेक्टर की आधे मिनट की भी स्क्रीन प्रेज़ेन्स नहीं है. लिट्रली निल! 

मुस्लिम औरतों से ले कर, मस्जिद के ईमाम तक सब विलन क़रार दिए गए हैं, मगर उस कम्यूनिटी से एक शख़्स को भी वाइट शेड में दिखाने की कोशिश नहीं की. 

आप कहेंगे कि जब कोई वाइट शेड में था ही नहीं तो दिखा कैसे देते. मैं कहूँगा कि बकवास बंद करिए.

क्यूँकि उसी exodus के वक़्त, कश्मीर के मुस्लिम पोलिटिकल फ़िगर्स से लेकर इस्लामिक धर्मगुरुओं की हत्या इस आरोप का जवाब है कि लोग उन पीड़ित कश्मीरी पंडितों के लिए बोले थे, आतंकवाद के ख़िलाफ़  खड़े हुए थे.

मगर उन्हें स्क्रीन पर दिखा कर शायद आपका नैरेटिव माइल्ड हो जाता. और वही तो नहीं होने देना था …. क्यूँकि ख़ून जितना खौले उतना बेहतर, गाली जितनी भद्दी निकले उतनी अच्छी .. नारा जितना तेज़ गूंजे उतना बढ़िया … वोट जितना पड़ें ….. है ना?

फ़िल्म बढ़ती जाती है और एक के बाद एक प्रॉपगैंडा सामने आता जाता है :

"सेल्यूलर अस्ल में सिकुलर हैं, यानी बीमार हैं"

"संघवाद से आज़ादी, मनुवाद से आज़ादी … जैसे नारे लगाना देश से ग़द्दारी करना है।" 

"कश्मीर में औरतों और लोगों के साथ जो भी ग़लत होता है वो वहाँ के मिलिटेंट्स, फ़ौज की वर्दी पहनकर करते हैं ताकि फ़ौज को निशाना बनाया जा सके।"

"मुसलमान आपका कितना भी ख़ास क्यों ना हो, मगर वक़्त आने पर वो अपना मज़हब ही चुनेगा।" … वग़ैरह वग़ैरह।

मगर इस सब के बावजूद मैं आपसे कहूँगा कि इस फ़िल्म को थिएटर में जा कर देखिए. ताकि आप फ़िल्म के साथ साथ फ़िल्म का असर भी देख सकें.

ताकि आप अपनी रो के पीछे बैठे लोगों से कांग्रेस को माँ बहन की गालियाँ देते सुन पाएँ और ख़ुद ये बताने में डर महसूस करें कि तब केंद्र में कांग्रेस नहीं जनता दल की सरकार थीं. ताकि आप बेमतलब में जय श्री राम के नारे से हॉल गूँजता देखें. ताकि निर्देशक द्वारा एक तस्वीर को एक झूठे और बेहूदे ढंग से पेश होते हुए देखें और बगल वाले शख़्स से उस तस्वीर में मौजूद औरत के लिए "रखैल …" जैसे जुमले सुन सकें। ताकि फ़िल्म ख़त्म होने के बाद बाहर निकलती औरतों को ये कहते पाएँ कि "कुछ बातें ऐसी होती हैं जो खुल के बोल भी नहीं सकते", और मर्दों को ये बड़बड़ाते सुनें कि "हिंदुओं का एक होना बहुत ज़रूरी है वरना ये साले हमें भी काट देंगे।" 

फ़िल्म इन्हीं लोगों के लिए बनाई गयी है और जो लोग न्यूट्रल हैं, उन्हें इन जैसा बनाने के लिए।

बाक़ी, मोहब्बत ज़िंदाबाद! 

 

प्रेमसिंह सियाग ने लिखा है-

 

कश्मीर फाइल्स के नाम पर बनी फिल्म आजकल चर्चाओं में है।

मेरे आज तक यह समझ नहीं आया कि कोई बिना संघर्ष के कैसे  अपनी विरासत छोड़कर भाग सकता है!

किसानों की जमीनों पर आंच आई तो 13 महीने तक सब कुछ त्यागकर दिल्ली के बॉर्डर पर पड़े रहे।

कश्मीर घाटी में आज भी जाट-गुर्जर खेती कर रहे है।पीड़ित होने का रोना-धोना आजतक दिल्ली जंतर/मंतर आकर नहीं किया है. 

1967 के बाद देश के बारह राज्यों में आदिवासियों को चुन-चुनकर मारा जा रहा है और कारण इतना ही बताया जाता है कि विकास के रास्ते में रोड़ा बनने वाले नक्सली लोगों को निपटाया जा रहा है

आदिवासियों का नरसंहार कभी चर्चा का विषय नहीं बनता है. उनके विस्थापन का दर्द,पुनर्वास की योजनाओं पर कोई विमर्श नहीं होता.

सुविधा के लिए बता दूँ कि 1989 तक कश्मीरी पंडित बहुत खुश थे और हर क्षेत्र में महाजन बने हुए थे.

अचानक दिल्ली में बीजेपी समर्थित सरकार आती है और राज्य सरकार को बर्खास्त करके जगमोहन को राज्यपाल बना दिया जाता है.

कश्मीरी पंडितों पर जुल्म हुए और दिल्ली की तरफ प्रस्थान किया गया.

उसके बाद बीजेपी ने कश्मीरी पंडितों का मुद्दा मुसलमानों को विलेन साबित करने के लिए राष्ट्रीय मुद्दा बना लिया.

कांग्रेस सरकार ने जमकर इस मुद्दे को निपटाने के लिए सालाना खरबों के पैकेज दिए और जितने भी कश्मीरी पंडित पलायन करके आये उनको एलीट क्लास में स्थापित कर दिया.

साल में एक बार जंतर-मंतर पर आते,बीजेपी के सहयोग से ब्लैकमेल करते और हफ्ता वसूली लेकर निकल लेते थे.

8 साल से केंद्र में बीजेपी की प्रचंड बहुमत की सरकार है व कश्मीर से धारा 370 हटा चुके है लेकिन कश्मीरी पंडित वापिस कश्मीर में स्थापित नहीं हो पा रहे है.

धरने-प्रदर्शन से निकलकर हफ्तावसूली की गैंग फिल्में बनाकर पूरे देश को इमोशनल ब्लैकमेल करके वसूली का नया तरीका ईजाद कर चुकी है!

आदिवासी रोज अपनी विरासत को बचाने के लिए चूहों की तरह मारे जा रहे है लेकिन कभी संज्ञान नहीं लिया जाता।आज किसान कौमों को विभिन्न तरीकों से मारा जा रहा है लेकिन कोई चर्चा नहीं होती.

1995 के बाद आज तक तकरीबन 4 लाख किसान व्यवस्था की दरिंदगी से तंग आकर आत्महत्या कर चुके है लेकिन पिछले 25 सालों में एक भी बार जंतर-मंतर पर कोई धरना नहीं हुआ,राष्ट्रीय मीडिया में विमर्श का विषय नहीं बना और केंद्र सरकार की तरफ से चवन्नी भी राहत पैकेज के रूप में नहीं मिली. 

भागलपुर,पूर्णिया,गोधरा के दंगों से भी पलायन हुआ व देश के सैंकड़ों नागरिक मारे गए।मुजफरनगर नगर फाइल्स या हरियाणा जाट आरक्षण पर हरियाणा फाइल्स भी बननी चाहिए. 

हर नागरिक की मौत का संज्ञान लिया जाना चाहिए. एक नागरिक की जान अडानी-अंबानी की संपदा से 100 गुणा कीमती है. हफ्ता-वसूली की यह मंडी अब खत्म होनी चाहिए. भावुक अत्याचारों का धंधा कब तक चलाया जाएगा?

किसान कौम के बच्चे बंदूक लेकर इनके घरों की सुरक्षा के लिए खड़े हो तब ये लोग बंगलों में जाएंगे. क्यों देश इनका नहीं है क्या? ये नागरिक के बजाय राष्ट्रीय दामाद क्यों बनना चाहते है?

भारत सरकार संसाधन दे रही है आर्मी तैनात है तो डर किससे है?जिससे खतरा है उनके खिलाफ लड़ो!जाट-गुज्जर कश्मीर घाटी में आज भी रह-रहे है उन्होंने कभी असुरक्षा को लेकर रोना-धोना नहीं किया है.

 

 रजत कलसन ने लिखा है-

क्यों नहीं बनती दलित फाइल्स

आजकल बॉलीवुड फिल्म कश्मीर फाइल्स की चर्चा हो रही है जिसमें कथित तौर पर कश्मीरी पंडितों के साथ अत्याचार हुआ था जिसके चलते उन्हें वहां से पलायन करना पड़ा था. 

मेरे पास हरियाणा के दलित समाज के पिछले 12 साल में हुए अत्याचार के मामले जिनमे कत्ल, सामूहिक कत्ल, रेप, गैंगरेप, सामाजिक बहिष्कार, जाति के आधार पर किए जाने वाले अपमान की घटनाएं, दलित महिलाओं के साथ छेड़खानी व अन्य दिल दहला देने वाली घटनाओं की फाइल्स है. 

सुना है जब दर्शक कश्मीर फाइल्स देखकर रो कर रहे थे ,अगर कोई फिल्मकार हरियाणा में दलितों पर हुए अत्याचार की घटनाओं पर फिल्म बनाये तो हरियाणा का राजनीतिक परिदृश्य बदल जाएगा।

सिनेमाघरों में तहलका मच जाएगा जब दर्शकों को दिखाया जाएगा कि

कैसे मिर्चपुर में जातिवादी गुंडों की भीड़ ने वाल्मीकि समाज के एक पिता पुत्री को कमरे में बंद कर जिंदा जला दिया था और पूरी दलित बस्ती को आग के हवाले कर दिया था।

जब हिसार के गांव में एक दलित लड़की चीखती चिल्लाती रही तथा जातिवादी गुंडे गैंगरेप कर उसे फिल्माते रहे। पीड़िता के पिता ने इसके बाद आत्महत्या कर ली थी।

झज्जर के एक गांव में तथाकथित गोरक्षकों की भीड़ ने मरी गाय की खाल उतारने के आरोप में पांच दलितों की बेहरहमी से पीट पीट कर नृशंस हत्या कर दी थी।

गोहाना में पूरी दलित बस्ती को आग के हवाले कर दिया गया था।

एक दलित युवक ने जब कुरुक्षेत्र के पबनावा गांव में लव मैरिज की तो सवर्ण समुदाय ने गुस्से में पूरी दलित बस्ती में आगजनी और तोड़फोड़ कर दी थी।

रोहतक के गांव मदीना में दलित परिवार खेत से काम करके वापस लौट रहा था तो जातिवादी गुंडों ने फायरिंग कर दो दलितों को मौत के घाट उतार दिया था।

रोहतक के ही मोखरा गांव में दलित समाज के व्यक्ति के शव का जातिवादी गुंडों ने सार्वजनिक श्मशान घाट में संस्कार नहीं होने दिया था।

कैथल में मछली चोरी के आरोप में दो वाल्मीकि युवकों की पीट-पीटकर हत्या कर दी थी न्याय के लिए  कैथल के सरकारी अस्पताल में 11 दिन शवों के साथ समाज ने आंदोलन किया था।

हिसार के मीरकां गांव में जातिवादी गुंडों ने दलित समाज के युवकों को चोरी के शक में भरी पंचायत में पिटवाया था जिसमें एक दलित युवक की मौके पर ही मौत हो गई थी।

हिसार के गांव भाटला में दलित बच्चों के साथ मारपीट के मामले में एफआईआर दर्ज करने की रंजिश में मुनादी करवाकर दलित समाज का सामाजिक बहिष्कार किया गया जिसके चलते गांव के दलित समाज बर्बादी के कगार पर आ गए हैं।

गांव छातर में पहले दलित युवकों को पीटा गया जब एफआईआर दर्ज कराई तो जातिवादी गुंडों ने पंचायत की और दलित समाज का सामाजिक बहिष्कार कर दिया यहां से लोगों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ रहा ।

गांव खापड में दलित समाज के नाबालिग बच्चे को चोरी के शक में जातिवादी गुंडों द्वारा सार्वजनिक जगह पर जगह-जगह पीटा गया जब मुकदमा दर्ज कराया तो इन्होंने भी दलित समाज का समाजिक बहिष्कार कर दिया।

हरियाणा तथा भारत में जितने भी हिरासत में मोतें होती हैं, उनमे 80 फ़ीसदी दलित समाज के लोग होते हैं । इस पर कौन फिल्म बनाएगा?

भारत में महिलाओं के खिलाफ जितने भी रेप व गैंग रेप की घटनाएं होती हैं उनमें से 75 फ़ीसदी दलित महिलाएं होती हैं।

 इस पर कौन डॉक्यूमेंट्री बनाएगा?

खाप पंचायत के गुंडों द्वारा सम्मान के नाम पर जितनी हत्या की जाती हैं उसमें से ज्यादातर दलित युवक और युवतियां इन गुंडों का शिकार बनते हैं इसको कोन नोटिस करेगा?

भारत के दलित राष्ट्रपति, दलित कैबिनेट मंत्री को हिंदू मंदिरों में नहीं घुसने दिया इस पर भी जरूर एक फिल्म बननी चाहिए ।

दलित समाज की छात्राओं के साथ गैंगरेप करने के बाद उन्हें कत्ल कर नहरों के किनारों पर फेंक दिया गया । इस तरह के केस हरियाणा के कई जिलों के गांवों में हुए । अगर इस तरह की घटनाएं इन लोगों के साथ होती तो यह लोग पूरे देश में आंदोलन खड़ा कर देते और अभी तक विशेष कानून और कई फिल्में बन जाती।

दलित अत्याचार के मामलों में समाज की पैरवी करने वाले वकीलों व दलित समाजिक अधिकार कार्यकर्ताओं के ऊपर संगीन धाराओं में मुकदमें दर्ज किए गए तथा उन्हें प्रताड़ित किया गया। उनकी लाइफ स्टोरी पर भी फिल्म बननी चाहिए

यह तो कुछ फाइल्स है अगर सारी फाइल्स खोल दें तो फिल्मकारों के कैमरे कम पड़ जाएंगे।

हमारे समाज के लोग जो यूट्यूब पर चैंनल चला रहे हैं, वह तो इस दिशा में पहल कर सकते हैं।

 

रीवा एस सिंग ने लिखा है-

कुछ बातें गाँठ बाँधकर रख लेनी हैं ताकि भारत, भारत ही रहे: 

 

1. सन् 1990 में कश्मीरियों संग जो हुआ उसे बिना लाग-लपेट ग़लत कहें. ब्रह्माण्ड में व्याप्त किसी भी तर्क के आधार पर उसका बचाव करने की चेष्टा न करें.  

2. समूचे भारतवर्ष के मुसलमानों को उस क़त्लेआम पर तर्क-वितर्क करने की ज़रूरत नहीं है. आप वहाँ नहीं थे, न आपसे सफ़ाई माँगी जा सकती है, न आपको सफ़ाई देनी चाहिए. वकालत करने की कोशिश न करें. आप कटघरे में नहीं हैं इसलिए बेकार के तर्क देकर बचाव का प्रयास भी न करें. ऐसी मारकाट का बचाव किसी सूरत में नहीं किया जाना चाहिए. 

3. कश्मीरी पंडितों के साथ जो हुआ वह मुसलमानों ने किया लेकिन भटिंडा, बाराबंकी, बिलासपुर के मुसलमानों ने नहीं किया. कश्मीर के लोगों ने किया इसलिए जब यह विषय उठे तो धर्म के आधार पर चिह्नित कर नफ़रत फैलाने की रवायत न शुरू हो. कश्मीर के कृत्य के लिए समूचे भारत के मुसलमानों को कटघरे में नहीं रखा जा सकता है. 

4. फ़िल्म देखकर आ रहे लोग उन्मादी हो रहे हैं. इस ऊर्जा को सही जगह लगाए. धार्मिक लड़ाई समाधान नहीं हो सकता. उन शरणार्थियों के हित में कदम उठायें, किसी के अहित में नहीं. 

5. देश के वो तमाम कश्मीरी पंडित जो तीन दशक से अपनी ही मिट्टी में शरणार्थी बने हुए हैं, उनके पुनर्वास की बात हो और यह बात बिना किन्तु-परन्तु की जाए. अपना सब कुछ उजड़ते हुए देखना और वहाँ कभी न लौट पाने की पीड़ा आप चाहकर भी नहीं समझ सकते. फ़िल्म देखकर दहाड़ लगाने से बेहतर है उचित कदम उठाना. फ़िल्म देखकर द्वेष न फैलाए. पीड़ितों के हित में कुछ कर सकें तो करें. ज़रूरत उन्हें इसी की है. 

 

आशुतोष कुमार ने लिखा है-

उस कौम के बारे में सोचिए, जिसे रोने और उबलने के लिए भी एक के बाद एक फेंक कहानियों की जरूरत होती. गर्व करने के लिए तो सभी को होती है. जीवन में सब झूठ भी हो, कहीं एक आंसू तो सच्चा होना चाहिए. साफ और तरल.

आरपी सिंह ने लिखा है-

अगर जज लोया फाइल्स फिल्म बनाकर रीलिज कर दी जाय तो क्या भाजपाई उसे टैक्स फ्री करने की मांग करेंगे.

फिल्म को लेकर भाजपा के एक विचारक पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ का एक ट्विवट भी जबरस्त ढंग से वायरल रो रहा है. पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ ने लिखा है- एक बार कश्मीर फाइल्स देखिए... फिर आपके व्यापार, शिक्षा, नौकरी, विकास, बेरोजगारी, मंहगाई, जातिवाद और अपंग धर्मनिरपेक्षता के सारे भूत मात्र दो घंटे पचास मिनट में उतर जाएंगे. द कश्मीर फाइल्स....हर-हर महादेव.

 

 

 

 

 

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क्या मोदी सरकार माफी मांगेगी ?

न्यूयॉर्क टाइम्स कह रहा है कि मोदी सरकार ने पांच साल पहले 2017 मे 15 हजार करोड़ रुपये का जो रक्षा सौदा इस्राइल से किया था, उसमें पेगासस स्पाईवेयर की खरीद भी शामिल थी.अखबार ने अपनी सालभर लंबी चली जांच के बाद यह खुलासा किया है. ऐसे खुलासे के बाद एक देश के रूप में हमारा सिर शर्म से झुक जाता है. दूसरी तरफ बेशर्म मोदी सरकार को अपनी घटिया हरकतों पर गर्व होता दिखाई देता हैं. पेगासस एक ऐसा स्पायवेयर है, जो इसे संचालित करने वालों को दूर से ही किसी स्मार्टफोन को हैक करने के साथ ही उसके माइक्रोफोन और कैमरा सहित, इसके कंटेंट और इस्तेमाल तक पहुंच देता है. इस तरह के सॉफ्टवेयर आतंकवाद का मुकाबला करने के एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं लेकिन भारत में मोदी सरकार ने इससे विपक्ष के नेताओ, पत्रकारो, मानव अधिकार कार्यकर्ताओ, आएएस अफसरों, जजों, और भाजपा में मोदी के सहयोगियों की जासूसी करवा रही थीं. 1972 में अमेरिका में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के कार्यालयों पर जासूसी कराने की कोशिश की थी, जिसे वॉटरगेट स्कैंडल के नाम से जाना जाता है. इसके कारण बाद में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था. आज तो हम इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि मोदी सरकार इस इस्तीफा देना तो दूर रहा इस कृत्य पर माफी भी मांगेंगी. Girish Malviya की पोस्ट
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क्या आप बसील की मां को जानते हैं ?

मुझे इस मां का नाम नहीं मालूम. नाम को जानकर करूंगा भी क्या ? दुनिया की हर मां का नाम सिर्फ़ मां ही होता है. चित्र में नज़र आने वाली यह महिला बसील टोप्पो की मां है.बसील छत्तीसगढ़ के जशपुर इलाके के एक गांव परेवाआरा में रहता था. एक रोज़ उसने तय किया कि या तो वह सेना में भर्ती हो जाएगा या फिर पुलिस में. ठोस इरादों और कठिन संघर्ष के चलते बसील को बस्तर के जिला पुलिस बल में नौकरी भी मिल गई. लेकिन वर्ष 2011 में नक्सलियों ने उस गाड़ी को अपना शिकार बनाया जिसमें बसील सवार होकर आ रहा था. बसील शहीद हो गया. बसील के गुज़र जाने के बाद उसकी मां ने परेवाआरा के स्कूल चौक पर अपने बेटे की प्रतिमा स्थापित की है. इस प्रतिमा को बनवाने के लिए उसने कोलकाता और ओडिशा के कलाकारों की भी सहायता ली है. बसील की मां अब हर सुबह अपने बेटे की प्रतिमा को नहलाती है. उसे साफ कपड़ों से पौंछती है. वैसे तो बचपन में हर मां अपने बेटे को नहला-धुलाकर तैयार करती है. दुनिया की बुरी नज़रों से बचाने के लिए गाल और आंखों पर काजल का टीका लगाती हैं. लेकिन बसील की मां को यह सब तब करना पड़ रहा है जब उसका जवान बेटा इस दुनिया में नहीं है. ना जाने इस दुनिया में कितनी मां...बसील की मां जैसी है. जब तक युद्ध है. नफरत और घृणा है तब तक बसील की मां प्रतिमा को पौंछती रहेगी. देश के हर हिस्से में बसील की मां जैसी एक मां रहती है जो अपने जवान बेटे के आदमकद चित्र को निहारती रहती है. क्या हम लोग बसील की मां की पीड़ा को कभी समझ पाएंगे ? सचमुच क्या दुनिया बना दी है हम इंसानों ने ? राजकुमार सोनी 9826895207
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प्रशासनिक आतंकवाद पर भूपेश बघेल ने कसा शिकंजा

राजकुमार सोनी 

इस छोटी सी टिप्पणी के साथ घोड़े पर लगाम वाली तस्वीर इसलिए दी गई है क्योंकि प्रशासनिक गलियारों में अक्सर यह बात कही जाती है कि नौकरशाह शानदार नस्ल के घोड़ों के समान होते हैं. एक बेहतर घुड़सवार ही शानदार नस्ल के घोड़ों पर सवारी कर सकता है. रेस जीतने के लिए शानदार घोड़ों का होना बहुत अनिवार्य है. बेकार घोड़े आपको बीच मैदान में पटक सकते हैं.

छत्तीसगढ़ की पिछली सरकार में आतंक और अन्याय का पर्याय बन चुके बहुत से अफसर ठिकाने लगाए जा चुके हैं. हालांकि अब भी थोड़े बहुत अफसर अपनी पुरानी चाल और संवेदनहीनता के साथ जनता को परेशान करने वाला काम करते हुए नजर आते हैं, लेकिन जिस ताबड़तोड़ ढंग से अफसरों पर नकेल कसी जा रही है उससे ऐसा लगता नहीं है कि आग भूंकने वाले अफसर बहुत ज्यादा दिनों तक अपनी अकड़बाजी और जनविरोधी कारनामों को जिंदा रख पाएंगे. छत्तीसगढ़ की बघेल सरकार ने शोषित-पीड़ित और कमजोर वर्ग पर अन्याय करने वाले अफसरों पर शिकंजा कसकर जनता को राहत दी है और एक भरोसा कायम किया है.

वर्ष 2000 में जब छत्तीसगढ़ नया-नया राज्य बना था तब विपक्ष अमूमन हर अफसर को अजीत जोगी का एजेंट ही समझता था. चूंकि जोगी राजनीति में आने से पहले एक नौकरशाह थे तो उनकी राजनीति में नौकरशाही की विशिष्ट शैली देखने को मिल जाती थीं. उन दिनों छत्तीसगढ़ में तैनात बहुत से अफसर उन्हें पापाजी-पापाजी कहकर संबोधित करते थे और एक इशारा पाते ही लोगों की टांग तोड़ने के खेल में लग जाते थे. ज्यादातर अफसरों को भाजपा और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से जुड़े लोगों को कांग्रेस में प्रवेश करवाने का काम ही सौंपा गया था. हर दूसरे और तीसरे कोई न कोई नेता या फिर अफसर कांग्रेस में प्रवेश करता था. एक सेवानिवृत पुलिस अफसर आरएलएस यादव सोशल इंजीनियरिंग को बढ़ावा देने के खेल में लगे थे तो अन्य कई सीनियर और जूनियर अफसर राजनीतिज्ञों पर झूठे केस गढ़ने में जुटे थे. जब जोगी सत्ता से बेदखल हुए और भाजपा की सरकार आई तब लगा कि अब अफसरों का आतंक कम होगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. थोड़े दिनों तक सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा ...मगर उसके बाद आयातित अफसरों ने अपना खेल प्रारंभ कर दिया. सब जानते हैं कि राजस्व सेवा का एक अफसर किस तरह से खुद को राज्य का असली सीएम मानने लगा था. इस अफसर ने मुख्यमंत्री के आसपास किसी भी विश्वसनीय अफसर को टिकने नहीं दिया और गुंडे-मवाली जैसी प्रवृति रखने वाले अफसरों का एक गैंग बनाया. भारतीय प्रशासनिक और पुलिस सेवा के अधिकांश अफसर इस गैंग के सक्रिय सदस्य थे. पन्द्रह सालों तक इस गैंग ने राज्य की भोली-भाली जनता को जमकर लूटा और अकूत संपत्तियां अर्जित की. अफसरों के आतंक का आलम यह था कि भाजपा के एक वरिष्ठ नेता दिलीप सिंह जूदेव को कहना पड़ा था-राज्य में प्रशासनिक आतंकवाद चल रहा है.

भाजपा के सत्ता से बेदखल होने के बाद जब भूपेश बघेल के हाथों में कमान आई तो सबसे पहले उन्होंने अफसरशाही पर ही लगाम कसना जरूरी समझा. छत्तीसगढ़ की राजनीति में जोगी और रमन सिंह के कार्यकाल में पुलिस अफसर मुकेश गुप्ता की जबरदस्त तूती बोलती थीं. कहा जाता है कि दोनों सरकार के प्रमुख राजनेता मुकेश गुप्ता से पूछे बगैर अपना एक भी काम नहीं करते थे. रमन सिंह के कार्यकाल में ही मुकेश गुप्ता ने कांग्रेस के अध्यक्ष भूपेश बघेल पर एफआईआर दर्ज की थीं. वर्ष 2018 में चुनाव जीतने के बाद जब भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बने तब सबसे पहले उन्होंने मुकेश गुप्ता और रजनेश सिंह को निलंबित किया. अवैध फोन टेपिंग सहित अन्य कई आरोपों से घिरे रजनेश सिंह तो छत्तीसगढ़ में यदा-कदा दिख भी जाते हैं, लेकिन मुकेश गुप्ता इन दिनों कहां है इसकी खबर किसी के पास नहीं है. खबर है कि वे कभी दिल्ली में रहते हैं तो कभी विदेश चले जाते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने उन पर कार्रवाई करने से थोड़े समय के लिए रोक लगाई है. इस रोक के हटते ही उन पर भी गाज गिरना तय है. इस बीच राज्य सरकार ने केंद्र को पत्र लिखकर मुकेश गुप्ता को अनिवार्य सेवानिवृति देने की अनुशंसा की है.

भारतीय प्रशासनिक सेवा 2005 बैच के अफसर सुकुमार टोप्पो कांग्रेस के नेताओं और पत्रकारों को बदनाम करने के लिए स्टिंग आपरेशन के खेल में लगे थे. वर्ष 2018 में छत्तीसगढ़ विधानसभा के दूसरे चरण का मतदान 20 नवंबर को होना था. लेकिन ठीक चुनाव के पहले एक वीडियो में टोप्पो कांग्रेस के नेताओं के खिलाफ स्टिंग ऑपरेशन करने की बात करते हुए नजर आए थे. इसके साथ ही वो इस काम के लिए कथित रूप से पैसों की पेशकश करते हुए भी पकड़े गए थे. जब सरकार बदली तब पता चला कि उन्होंने सरकारी एजेंसी संवाद में रहने के दौरान प्रचार-प्रसार के नाम पर करोड़ों का गोरखधंधा भी किया है. फिलहाल उन पर भ्रष्टाचार अधिनियम 1988 की धारा 7(सी), 13(1) (ए) और 120 बी के तहत मामला दर्ज है. जांच चल रही है.

मजे की बात यह है कि जिस टोप्पो पर ईओडब्लू के प्रमुख जीपी सिंह ने मामला दर्ज किया था... इन दिनों वे स्वयं रायपुर सेंट्रल जेल में आराम फरमाने के लिए पहुंच गए हैं. भारतीय पुलिस सेवा 1994 बैच के अफसर जीपी सिंह पर संवैधानिक रुप से गठित सरकार के खिलाफ साजिश रचने, उगाही करने सहित कई गंभीर आरोप है.उन पर राजद्रोह का मामला दर्ज है. सरकार ने उन्हें अनिवार्य रुप से सेवानिवृति दिए जाने की अनुशंसा केंद्र सरकार से कर रखी है.

छत्तीसगढ़ में मानवाधिकार हनन के लिए विवादों में रहे पुलिस अफसर शिवराम प्रसाद कल्लूरी को भूपेश सरकार ने सुधरने का मौका दिया था, लेकिन जब उनमें कोई सुधार नहीं हुआ तो उन्हें साइड कर दिया गया है. खबर तो यह भी है कि सरकार ने उन्हें भी विदा करने की तैयारी में हैं. फिलहाल वे सरकार में किसी भी तरह की प्रभावी भूमिका में नहीं है तो उनके आतंक के किस्से भी सुनाई नहीं देते हैं

भारतीय प्रशासनिक सेवा 2012 बैच के अफसर रणबीर शर्मा पहले तो घूस लेने के आरोप में विवादित हुए थे. दूसरी बार वे तब सुर्खियों में आए जब उन्होंने सूरजपुर में बिलावजह एक युवक को थप्पड़ जड़ दिया था. फिलहाल तुनक मिजाजी के लिए मशहूर इस अफसर को भी कोई महत्वपूर्व जिम्मेदारी नहीं सौंपी गई है. भारतीय पुलिस सेवा 1993 बैच के अफसर पवन देव भी इन दिनों अपना समय काट रहे हैं. उन पर यौन उत्पीड़न का आरोप है. 

 

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आदमी को चाहिए...वक्त से डरकर रहे

छत्तीसगढ़ के निलंबित पुलिस अफसर जीपी सिंह ने अपने जीवन में अगर पैसों के साथ-साथ थोड़े अच्छे लोग और संबंधों को कमा लिया होता तो यह तय था कि उन्हें जेल की हवा नहीं खानी पड़ती. जेल में भी उन्हें कालीचरण महाराज ( वहीं कालीचरण जिन्होंने बापू के हत्यारे गोडसे को रायपुर की धर्म संसद में सलाम ठोंका था ) की बैरक से सटी हुई एक बैरक में रखा गया है. 

अपनी नौकरी के दौरान जीपी सिंह ने ना जाने कितने बेगुनाहों को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाया था.अपने कंधे पर स्टार की संख्या को बढ़ाने के लिए ना जाने कितने बेकसूर ग्रामीणों को नक्सली साबित किया था. लोगों को एक आईपीएस राहुल शर्मा की आत्महत्या के पीछे का घटनाक्रम भी याद है. जीपी सिंह को अब वहीं सब कुछ भुगतना पड़ रहा है जो कभी उन्होंने दूसरों के लिए किया था. राजनीति हो या अफसरशाही...जीवन के हर क्षेत्र में संतुलन को बेहद अहम माना गया है. जीपी सिंह अपने जीवन में संतुलन को कायम नहीं रख पाए. देर से ही सही मगर उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. ( इसे वे कितने दिनों तक भुगतेंगे फिलहाल यह भी साफ नहीं है ) जेल सूत्रों से जो जानकारी मिली है उस पर यकीन करें तो जीपी सिंह को खाने के लिए वहीं भोजन दिया गया है जो जेल मैन्युअल में तय है और सामान्य कैदियों को परोसा जाता है. सूत्र बताते हैं हैं कि जीपी ने जैसे-तैसे एक रोटी खाई है और बाकी भोजन को ग्रहण करने से इंकार कर दिया. चूंकि जेल में अभी जीपी सिंह की हैसियत एक विचाराधीन बंदी के तौर पर है सो वहां सामान्य कैदियों की तरह उनके शरीर में मौजूद प्रत्येक वस्त्र की बारीकी से जांच की गई है. यानी कि उनके शरीर के एक-एक कपड़े को उतारकर यह जांचा-परखा गया है कि कहीं वे ऐसी-वैसी चीज़ को लेकर तो प्रवेश नहीं कर रहे हैं जो घातक हैं या फिर जेल प्रशासन के लिए परेशानी का सबब बन सकती हैं ? 

जो भी पाठक इस टिप्पणी को पढ़ रहे हैं वे यह सोचकर कदापि विचलित ना होंवे कि यह कोई खतरनाक किस्म की आध्यात्मिक टिप्पणी है. देश के प्रसिद्ध शायर साहिर लुधियानवी जो ठेठ वामपंथी मिज़ाज के थे...वे भी अपने एक गीत में यह मानते हैं कि वक्त से बड़ा सिकन्दर कोई नहीं हैं. वे सभी लोग जो शोषित-पीड़ितों का खून चूसकर अकूत धन संपत्ति के मालिक बन बैठे हैं और दर्प से भरे हुए हैं उन्हें साहिर के इस गीत के गहरे अर्थ पर एक बारगी मंथन अवश्य करना चाहिए. साहिर लुधियानवी ने बीआर चोपड़ा की मशहूर फिल्म वक्त के लिए यह गीत लिखा था. इस गीत का एक-एक शब्द आज भी मौजूं और प्रेरणादायक हैं- 

वक़्त से दिन और रात 

वक़्त से कल और आज

वक़्त की हर शह ग़ुलाम 

वक़्त का हर शह पे राज

 

वक़्त की पाबन्द हैं 

आते जाते रौनके

वक़्त है फूलों की सेज

वक़्त है काँटों का ताज

वक़्त से दिन और रात ... 

 

आदमी को चाहिए 

वक़्त से डर कर रहे

कौन जाने किस घड़ी 

वक़्त का बदले मिजाज़

 

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गांधी...बकरियां... चरखा और सितार

रेलगाड़ी के तीसरे-दर्ज़े से भारत-दर्शन के दौरान मोहनदास ने वस्त्र त्याग दिये थे. अब मोहनदास सिर्फ़ लँगोटी वाला नँगा-फ़क़ीर था और मोहनदास को महात्मा पहली बार कवीन्द्र-रवींद्र ने कहा.

मोहनदास की हैसियत अब किसी सितारे-हिन्द जैसी थी और उसे सत्याग्रह, नमक बनाने, सविनय अवज्ञा, जेल जाने के अलावा पोस्टकार्ड लिखने, यंग-इंडिया अख़बार के लिये लेख-सम्पादकीय लिखने के साथ बकरी को चारा खिलाने, जूते गांठने जैसे अन्य काम भी करने होते थे. राजनीति और धर्म के अलावा महात्मा को अब साहित्य-संगीत-संस्कृति के मामलों में भी हस्तक्षेप करना पड़ता था और इसी क्रम में वे बच्चन की मधुशाला, उग्र के उपन्यास चॉकलेट को क्लीन-चिट दे चुके थे और निराला जैसे महारथी उन्हें बापू, तुम यदि मुर्गी खाते जैसी कविताओं के जरिये उकसाने की असफल कोशिश कर चुके थे.

युवा सितार-वादक विलायत खान भी गाँधी को अपना सितार सुनाना चाहते थे. उन्होंने पत्र लिखा तो गाँधी ने उन्हें सेवाग्राम बुलाया. विलायत खान लम्बी यात्रा के बाद सेवाग्राम आश्रम पहुंचे तो देखा गांधी बकरियों को चारा खिला रहे थे यह सुबह की बात थी थोड़ी देर के बाद गाँधी आश्रम के दालान में रखे चरखे पर बैठ गये और विलायत खान से कहा - सुनाओ. गाँधी चरखा चलाने लगे घरर घरर की ध्वनि वातावरण में गूंजने लगी. युवा विलायत खान असमंजस में थे और सोच रहे थे कि इस महात्मा को संगीत सुनने की तमीज़ तक नहीं है. फिर अनमने ढंग से सितार बजाने लगे महात्मा का चरखा भी चालू था घरर घरर घरर घरर...।

विलायत खान अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि थोड़ी देर बाद लगा जैसे महात्मा का चरखा मेरे सितार की संगत कर रहा है या मेरा सितार महात्मा के चरखे की संगत कर रहा है. चरखा और सितार दोनों एकाकार थे और यह जुगलबंदी कोई एक घण्टा तक चली.वातावरण स्तब्ध था और गांधीजी की बकरियाँ अपने कान हिला-हिला कर इस जुगलबन्दी का आनन्द ले रहीं थीं. विलायत खान आगे लिखते हैं कि सितार और चरखे की वह जुगलबंदी एक दिव्य-अनुभूति थी और ऐसा लग रहा था जैसे सितार सूत कात रहा हो और चरखे से संगीत निसृत हो रहा हो !

-कृष्ण कल्पित

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अयोध्या और मथुरा से योगी का पलायन, गोरखपुर का ही सहारा

बीजेपी धर्म के नाम पर माहौल बनाने में उस्ताद है। इस पार्टी के एक सांसद हैं हरनाथ सिंह यादव। इन्होंने तीन जनवरी को अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष को पत्र लिखा। उसमें लिखा कि यह पत्र भगवान श्रीकृष्ण ने लिखने के लिए प्रेरित किया है कि योगी जी मथुरा से चुनाव से लड़ें। इस तरह का दावा बीजेपी का ही सांसद कर सकता है। खैर उन्होंने दावा किया और राष्ट्रीय अध्यक्ष को पत्र भी लिख दिया। क्या हरनाथ सिंह यादव अब इस्तीफा दे देंगे? क्या उन्हें उस पार्टी को छोड़ नहीं देना चाहिए जहां इतनी मुश्किल से टाइम निकाल कर भगवान एक सांसद को प्रेरित करते हैं कि आप मुख्यमंत्री की पैरवी करें और पार्टी भगवान की प्रेरणा को ठुकरा देती है। योगी आदित्यनाथ उसी गोरखपुर से चुनाव लड़े हैं जहां उनका गढ़ है।

यह पार्टी का फैसला था या उनका इसे जानकर क्या होगा लेकिन हरनाथ सिंह यादव बताएं कि उन्हें भगवान कृष्ण कब और कैसे प्रेरित किया? यह भी बताएं कि उनकी पार्टी ने भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से लिखे पत्र का अनादर कर भगवान का अनादर किया है या आदर किया है? नौटंकी की भी हद होती है। चुनाव के लिए भगवान का भी इस्तेमाल करने लगते हैं। अब इसके बाद अचानक माहौल बनाया जाता है कि योगी अयोध्या से लड़ेंगे। जागरण और उजाला जैसे अखबार एक ही दिन पहले पन्ने पर छापते हैं। उजाला ने तो दबा दबा सा छापा लेकिन जागरण ने भौंकता शीर्षक लगाया। गोदी मीडिया के चैनलों ने अयोध्या के नाम पर माहौल बनाना शुरू कर दिया लेकिन अंत में योगी आदित्यानाथ गोरखपुर से ही चुनाव लड़ने चले गए। जब वहीं से लड़ना था तब फिर अयोध्या और मथुरा के नाम पर माहौल क्यों बनाया गया?

यह ठीक है कि बीजेपी चुनावी रेस में आगे हैं लेकिन उसके पास माहौल बनाने के लिए भगवान के नाम पर झूठ बोलने के अलावा कुछ नहीं है। वर्ना पांच साल में जो भव्य विकास हुआ है उसकी तस्वीर पर बहस होती और उसके नाम पर कहीं से चुनाव लड़ सकते थे। इतना विकास हुआ है कि यूपी में पंद्रह करोड़ लोगों को महीने में दो बार मुफ्त राशन देना पड़ रहा है, सात करोड़ से अधिक श्रम कार्ड बनवा कर डेढ़ करोड़ कार्डधारकों के खाते में हज़ार रुपये डाले गए, बाकी को छोड़ दिया गया, मानदेय और भत्ते बढ़ाए गए, लाखों नौकरियां देने का दावा किया गया, जनता के पैसे फूंक कर अखबारों में एक्सप्रेस वे और हाईवे के विज्ञापन छापे गए, इसके बाद भी अयोध्या और मथुरा के नाम पर माहौल बनाया गया। पता नहीं ये भगवान के नाम पर झूठ बोलते हैं या विकास के नाम पर।

गोदी मीडिया को समझ नहीं आ रहा होगा कि अब क्या करें। अयोघ्या और मथुरा के नाम पर माहौल बनाया, योगी जी तो गोरखपुर चले गए। अब गोदी मीडिया बताए कि किस आधार पर यह माहौल बनाया जा रहा था? क्या गोदी मीडिया अपने आप राम और कृष्ण का इस्तेमाल कर रहा था या बीजेपी के इशारे पर कर रहा था? इस तरह से हिन्दी अखबार और गोदी मीडिया के चैनल दर्शकों को बेवकूफ बना रहे हैं।गोदी मीडिया के ऐंकरों की वो क्लिप निकाल कर ज़रा देखिए कि पांच महीने से योगी के अयोध्या से चुनाव लड़ने के नाम पर किस तरह मतदाता के दिमाग़ में धर्म की तस्वीरें पहुंचाई जा रही थीं। विकास हुआ होता तो इन चैनलों पर विकास की तस्वीरों को लेकर बहस हो रही होती। इन चैनलों ने यूपी और बिहार के राजनीतिक माहौल का सत्यानाश कर दिया है। योगी कहीं से भी चुनाव लड़ सकते हैं लेकिन लड़ तो रहे हैं गोरखपुर से हीं।

रवीश कुमार की फेसबुक वॉल से साभार

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क्या ओपी की तरह जीपी भी भाजपा ज्वाइन करेंगे ?

आय से अधिक संपत्ति के मामले में गिरफ्तार किए गए निलंबित पुलिस अफसर जीपी सिंह फिलहाल एंटी करप्शन ब्यूरो की कस्टडी में हैं, लेकिन कल 14 जनवरी को मकर संक्रांति के दिन उन्होंने कोर्ट में मीडिया के सामने जो बयान दिया है वह यह बताने के लिए काफी हैं कि जब कभी भी वे थोड़ी-बहुत राहत पाने की स्थिति में होंगे तो पहली फुरसत में राजनीति का रुख ही अख्तियार करेंगे. वैसे उनके साथ काम कर चुके कुछ पुलिस अफसर नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि वे छत्तीसगढ़ के दो पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी और डाक्टर रमन सिंह के न केवल प्रशंसक रहे हैं ब्लकि बेहद करीबी भी समझे जाते रहे हैं. कल कोर्ट में उन्होंने साफ-साफ कहा था कि उन पर नान घोटाले के मामले में डाक्टर रमन सिंह और उनकी पत्नी वीणा सिंह पर कार्रवाई करने का दबाव था. जब उन्होंने कार्रवाई नहीं की तो फंसा दिया गया. जीपी के इस बयान में घटनाक्रम को राजनीति की तरफ मोड़ देने वाली चालाकियां साफ-साफ नज़र आ रही हैं.

सब जानते हैं कि नागरिक आपूर्ति निगम का घोटाला भाजपा के शासनकाल में ही सामने आया था. तब इस मामले में कई मंत्रियों और अफसरों की भूमिका को लेकर सवाल उठे थे. कहा जाता है कि तब सरकार इस मामले को जोर-शोर से उठाना ही नहीं चाहती थीं, लेकिन संविदा में पदस्थ एक अफसर ने सुझाव दिया था कि अगर हम नान घोटाले में अपने ही कुछ लोगों को लपेट लेंगे तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली पहली सरकार के तौर पर हमारी धूम मच जाएगी. चारों तरफ वाहवाही होगी कि देखो सरकार ने किसी को भी नहीं बख्शा ? उस समय खूब जीरो टारलेंस...जीरो टारलेंस की बात भी हो रही थीं. भाजपा के मुखपत्र बन चुके अखबारों में यह सब छप भी रहा था. खैर... जैसे-तैसे नान घोटाला उजागर तो हो गया लेकिन सरकार को क्या मालूम था कि इसमें जप्त की गई एक डायरी में सीएम मैडम का भी उल्लेख होगा और वह परेशानी का सबब बन जाएगा.

इस डायरी में उल्लेखित नामों को लेकर तात्कालिक कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल लगातार सवाल उठाते रहे और बेहद दमदारी से यह भी कहते रहे कि सरकार यह बताने से क्यों डर रही हैं कि सीएम मैडम कौन है ? कब एक्शन लिया जाएगा ? इधर यह विदित होना भी आवश्यक है कि जीपी सिंह को जून 2020 में ईओडब्ल्यू के प्रभार से हटा दिया गया था. उनको हटाने के ठीक एक साल बाद 1 जुलाई 2021 को उनके सरकारी बंगले पर छापा मारा गया. इस एक साल में जीपी सिंह ने कभी नहीं कहा कि उन पर डाक्टर रमन सिंह और वीणा सिंह को फंसाने के लिए किसी ने दबाव बनाया था. यदि नौकरी में रहते हुए यह सब नहीं किया जा सकता था तो भाजपा के मुखपत्र अखबारों और चैनलों को यह खबर पास की जा सकती थीं. ( ठीक वैसे ही जैसे उन्होंने कभी बस्तर के आईजी एमडब्लू अंसारी के बारे में एक चैनल में खबर चलवाई थीं कि लूट का पैसा उनके बंगले से बरामद हुआ है. )

कांग्रेस संचार विभाग के प्रमुख सुशील आनंद शुक्ला जीपी सिंह के बयान पर पलटवार करते हुए कहते हैं- नान घोटाले में रमन सिंह पहले से ही फंसे हुए हैं... ऐसे में उनके लिए दबाव बनाने की जरूरत क्या है ? शुक्ला का कहना है कि जीपी सिंह पर आय से अधिक संपत्ति बटोरने, संवैधानिक रूप से गठित सरकार के खिलाफ घृणा और असंतोष को बढ़ावा देने और उगाही के गंभीर आरोप लगे हैं. जीपी सिंह अपने ऊपर दर्ज संगीन आरोपों से बचने के लिए सतही आरोप लगा रहे हैं. लेकिन सतही आरोपों से न उनके अपराधों की गंभीरता खत्म होगी और न ही वे बच पाएंगे.

वैसे आज के दैनिक भास्कर में उन्हें लेकर एक खबर छपी है. इस खबर में कहा गया है कि जीपी सिंह का मोबाइल एसीबी के लिए सिर का दर्द बन गया है. जीपी सिंह इस मोबाइल को खोलने वाला कोड़ किसी को नहीं बता रहे हैं. साथ में यह भी कह रहे हैं कि मोबाइल उनका नहीं है. मोबाइल के खुल नहीं पाने से एसीबी की टीम यह पता नहीं लगा पा रही है कि इस बीच वे किन-किन लोगों के संपर्क में थे? अब तक कितनों ने संपर्क किया ? सवाल यह भी है कि जीपी सिंह किस शख्स का मोबाइल संचालित कर रहे हैं ? क्या यह मोबाइल किसी चोर या डाकू का है ? दूसरों का मोबाइल संचालित करना भी तो एक अपराध है ? अगर जीपी सिंह पाक-साफ है तो उन्हें मोबाइल की डिटेल एसीबी की टीम को साझा करने में परेशानी क्यों होनी चाहिए ? अगर जीपी सिंह सही होते तो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में उनकी याचिका खारिज ही क्यों होती ? बहरहाल राजनीति के गलियारों में जीपी सिंह के राजनीतिक निहितार्थ से भरे बयान की जबरदस्त चर्चा कायम है.कड़कड़ाती ठंड में लोग-बाग मिर्ची-भजिया खाते हुए यह कहने से भी नहीं चूक रहे हैं कि छत्तीसगढ़ में भाजपा को ओपी के बाद जीपी मिलने वाला है.

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...तो ऐसे थे पत्रकार कमाल खान

साल याद नहीं आ रहा, लेकिन इतना याद है वह एनडीटीवी की ओर से हज कवर करने गए हुए थे। उनकी वहां से आने वाली रिपोर्ट देखने से ताल्लुक़ रखती थीं। उसी दौरान उनसे फ़ोन पर बात हुई। शायद उनका फ़ोन आया था किसी बारे में पूछने के लिए तो मैं ने उनकी तारीफ़ के साथ साथ कहा कि इसी बहाने उन्हें हज करने का मौक़ा मिल गया है। कहने लगे-मैं हज नहीं कर रहा हूं। मैंने कहा -उमरा तो करेंगे। कहने लगे- वह भी नहीं। मुझे हैरत हुई कि इतना अच्छा मौक़ा मिला है वह जाने कैसे दे सकते हैं। कहने लगे कि-मुझे मेरे चैनल ने इतना पैसा खर्च कर के यहां हज करने के लिए नहीं बल्कि हज को कवर करने के लिए भेजा है।

मैंने कहा -क्या दोनों साथ साथ नहीं हो सकते? किसी का नाम लिया कि वह यह झूठ बोल कर कि सिगनल नहीं आ रहे हैं यही करने गए हैं। वे बोले-मुझ से इतना बड़ा झूठ नहीं बोला जाएगा, और वह भी अल्लाह के घर में। मैं ने कहा-हज तो हो जाएगा। कहने लगे-एक हिंदू प्रणॉय रॉय ने मुझ पर भरोसा कर के कि मैं उसके चैनल के लिए हज की कवरेज करुंगा, मुझ पर कई लाख रुपए ख़र्च किए हैं और मैं यहां आकर यहां आने का मक़सद भूल कर कुछ और ही करने लगूं तो यह ग़लत होगा। अल्लाह कैसे मेरा हज क़बूल करेगा? हां इंशाअल्ला जब भी मौक़ा मिला अपने ख़र्च पर हज करूंगा और यही इस्लाम कहता भी है।

उनकी बात सुन कर हमें खुद से ही उस समय शर्म सी महसूस हुई क्योंकि हम उस दौरान ऑफिशल डेलिगेशन में शामिल होने के लिए कोशिश कर रहे थे। कमाल ख़ान से बात करने के बाद हमने जिनसे इसके लिए कहा था और जो कि लगभग हो ही जाने वाला था, अपना नाम वापस लेने के लिए कहा और कमाल ख़ान का जुमला दोहरा दिया कि अपने पास होगा तो उसी से हज करेंगे। हमें नहीं मालूम इतने पास जाके भी अपने उसूलों के लिए जो शख़्स इतना मज़बूत रहा हो, क्या उसका हज न होकर भी हो न गया होगा ? अल्लाह बेहतरीन अज्र देने वाला है। लेकिन हम तब से उन्हें हाजी मानते हैं।

- तहसीन मुनव्वर

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डरपोक कालीचरण के पीछे खड़ा केएन सिंह कौन ?

महात्मा गांधी पर अपमानजनक टिप्पणी करने वाले जिस कालीचरण को पुलिस ने खजुराहो से दबोचा है...दरअसल वह बेहद डरपोक हैं. यहां छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की धर्म संसद में अनाप-शनाप बकने के बाद जब बवाल कटना प्रारंभ हुआ तो कालीचरण ने हवाई जहाज के बजाय ट्रेन को पकड़कर भागना मुनासिब समझा. कालीचरण ने फरार होने के बाद से अपने मोबाइल को बंद कर दिया था, लेकिन उसके पीए का मोबाइल चालू था. कालीचरण रायपुर से भागकर पहले भोपाल पहुंचा और फिर वहां से एक टैक्सी लेकर खजुराहो निकल गया. यहां पहुंचने के बाद उसने पल्लवी नाम की एक बेहद मामूली सी लॉज में शरण ली और वहीं से अपना दूसरा वीडियो जारी किया.

कालीचरण को शायद यह भ्रम हो गया था कि पुलिस उसे ज्यादे से ज्यादा लक्जरी होटल में ही तलाश करेगी...लेकिन छत्तीसगढ़ की पुलिस ने उसे चप्पे-चप्पे में तलाशा. इस बीच पुलिस ने उसके पीए का लोकेशन तलाशा तो वह बागेश्वर धाम के आसपास का मिला.पुलिस को पक्का भरोसा हो गया कि कालीचरण आसपास ही कहीं छिपा है.पुलिस के जवान जब भक्त बनकर बागेश्वर धाम पहुंचे तो पीए ने बताया कि वे बाहर गए हुए हैं. पुलिस ने मुस्तैदी से छानबीन की तो ज्ञात हुआ कि कालीचरण एक मकान में कुछ देर ठहरा था. मकान मालिक ने पुलिस को बताया कि कालीचरण ने फिर आने को कहा है.अभी सामान छोड़कर गए हैं. बाद में पता चला कि उसने एक दूसरा मकान भी किराए पर ले रखा था.

पुलिस ने उसे गिरफ्तार तो कर लिया, लेकिन यह सवाल अब भी मुंह बाए खड़ा हुआ है कि उसके पीछे छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के किस राजनेता का दिमाग काम कर रहा था. वैसे पूरे घटनाक्रम में यह तो साफ दिख ही रहा है कि कालीचरण किस विचारधारा से जुड़े हुए लोगों का प्रिय हैं. अगर पुलिस पीए और उसके मोबाइल की कॉल डिटेल खंगालेगी तो शायद यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि वे लोग कौन हैं जो छत्तीसगढ़ की समरसता से भरी हुई धरती पर नफ़रत का बीज बो कर सांप्रदायिकता की फसल उगाना चाहते थे ?

इस बात का पता तो चलना ही चाहिए कि छत्तीसगढ़ का असल जॉनी दुश्मन कौन हैं ? पर्दे के पीछे खेल खेलने वाले केएन सिंह ( पुरानी हिंदी फिल्मों का खलनायक ) बहुत से लोग हैं. केएन सिंग के चेहरे से शराफत का नकाब उतारना बेहद जरूरी हैं. जो लोग केएन सिंह को नहीं जानते उन्हें यह बताना ठीक होगा कि पुरानी फिल्मों में केएन सिंह अपना हर कारनामा पर्दे के पीछे रहकर ही किया करते थे. दर्शक को अंत में समझ आता था कि जिसे हम शरीफ समझ रहे थे वहीं सबसे बड़ा वाला गोला है.

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