संस्कृति

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फ़ासीवाद के खिलाफ आवाज बुलंद करने रायपुर में जुटेंगे पांच सौ से ज्यादा लेखक, साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी

रायपुर. जन संस्कृति मंच लेखक,साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों का सबसे महत्वपूर्ण संगठन है. इस संगठन का16 वां राष्ट्रीय सम्मेलन रायपुर में 8-9 अक्टूबर को पंजाब केसरी भवन में आयोजित हो रहा है. दो दिवसीय सम्मेलन में छत्तीसगढ़ सहित देशभर के लगभग पांच सौ लेखक, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी अपनी हिस्सेदारी दर्ज करेंगे.

यह जानकारी जन संस्कृति मंच के छत्तीसगढ़ के संयोजक सियाराम शर्मा ने एक विज्ञप्ति में दी. उन्होंने बताया कि जन संस्कृति मंच का यह सम्मेलन फासीवाद के खिलाफ प्रतिराध, आजादी और लोकतंत्र की संस्कृति के लिए जैसे महत्वपूर्ण विषय पर केन्द्रित है. सम्मेलन में लेखक-संस्कृतिकर्मी फासीवाद के खिलाफ सांस्कृतिक शक्तियों को एकजुट करने और सांस्कृतिक प्रतिरोध के रूपों पर गहनता से विचार विमर्श कर योजना व रणनीति बनाएंगे.

उन्होंने बताया कि 8 अक्टूबर को अपरान्ह चार बजे सम्मेलन का उद्घाटन होगा. दूसरे दिन दोपहर 12 बजे फासीवाद के खिलाफ प्रतिरोध के रूप  विषय पर वैचारिक सत्र होगा. इसके अलावा सम्मेलन के दोनों दिन शाम छह बजे से सांस्कृतिक कार्यक्रम का सत्र होगा जिसमें बिहार, झारखंड, उत्तराखंड, यूपी, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल आदि स्थानों से आए कलाकार, रंगकर्मी अपने कार्यक्रम प्रस्तुत करेंगे. कविता पाठ का भी आयोजन किया गया है.

गौरतलब है कि जन संस्कृति मंच की स्थापना 26 अक्टूबर 1985 को हुई थी. प्रसिद्ध नाटककार गुरूशरण सिंह इसके पहले अध्यक्ष और क्रांतिकारी कवि गोरख पांडेय संस्थापक महासचिव थे.तीन दशक से अधिक समय में जन संस्कृति मंच के 15 राष्ट्रीय सम्मेलन हो चुके हैं. पिछला सम्मेलन 29-31 जुलाई 2017 को पटना में हुआ था.

 

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अपसंस्कृति फैलाने वाले छालीवुड के कलाकारों को संस्कृति विभाग ने दिखाया बाहर का रास्ता... एक बड़े वर्ग में हर्ष

रायपुर. छत्तीसगढ़ में अब बहुत कुछ अच्छा हो रहा है... बस... छत्तीसगढ़ी में निर्मित होने वाली फिल्मों का स्तर ही निराश करने वाला है. मुंबईयां फिल्मों की चोरी-चकारी और अपसंस्कृति को परोसने की वजह से छत्तीसगढ़ का प्रबुद्ध दर्शक यहां के फिल्मी कलाकारों को न तो सम्मान देता है और न ही गंभीरता से लेता है. इक्के-दुक्के दो-चार कलाकार प्रतिबद्धता के साथ काम कर रहे हैं, मगर लगता है कि इन दिनों वे भी भेड़चाल में फंसकर रह गए हैं. छत्तीसगढ़ी में निर्मित होने वाली फिल्में कितनी बंडल होती है अगर इसकी बानगी देखनी हो तो हाल में रीलिज हुई राजा भैया इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. इस फिल्म को देखने के बाद अपने माथे पर हथौड़ा मारकर खुद को चोटिल कर लेने की इच्छा बलवती हो जाती है. बहरहाल यहां छत्तीसगढ़ी फिल्मों का जिक्र इसलिए हो रहा  है क्योंकि हाल के दिनों में सरकार के संस्कृति विभाग ने छालीवुड के तथाकथित नामचीन कलाकारों को राज्योत्सव से बाहर का रास्ता दिखा दिया है. विभाग के इस कदम की हर कोई सराहना कर रहा है. हालांकि जानने वाले अच्छी तरह से जानते हैं कि सब कुछ ढचरा हो जाता...अगर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल प्रत्येक कार्यक्रम पर पैनी नजर नहीं रखते ? 

भाजपा के प्रचार में लगे थे कलाकार

राज्य में जब भाजपा की सरकार काबिज थी तब संस्कृति विभाग ने छत्तीसगढ़ी फिल्मों और उससे जुड़े कलाकारों को मोटी रकम देकर प्रमोट करना ही संस्कृति को बढ़ावा देना मान लिया था. एक से बढ़कर एक घटिया दर्जें की फिल्मों में काम करने वाले कलाकारों ने पूरे विभाग पर कब्जा कर रखा था. ( हालांकि यह कोशिश संस्कृति विभाग में सालों से जमे कमीशनखोर अफसरों के चलते वे अब भी कर रहे हैं, लेकिन तेज-तर्रार मंत्री और संचालक की वजह से सफल नहीं हो पा रहे हैं. ) संस्कृति को बढ़ावा देने के नाम पर संस्कृति विभाग या तो ठुमके लगाने वाली मुबंई की हिरोइनों को आमंत्रित करता था या फिर भाजपा के लिए चुनाव में प्रचार करने वाले कलाकारों को अवसर प्रदान करता था. पाठकों को आश्चर्य होगा कि छत्तीसगढ़ी फिल्मों में काम करने वाले दो-चार कलाकार खुलेआम भाजपा के लिए काम कर रहे थे. एक कलाकार पूर्व मुख्यमंत्री के सांसद बेटे की नाक का बाल बन गया था. यह महान कलाकार जिसे समाजसेवा के लिए पद्मश्री हासिल है, वह ही तय करता था कि किस कलाकार को राज्योत्सव में काम मिलेगा और किसे नहीं ? भाटापारा से भाजपा की टिकट पर चुनाव लड़ने का इच्छुक यह कलाकार किसी समय पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी का भी करीबी था. बताते हैं कि इस कलाकार ने ही पन्द्रह सालों में संस्कृति विभाग से करोड़ों का अनुदान हासिल किया. यह राशि इतनी ज्यादा है कि इससे छत्तीसगढ़ के सैकड़ों जरूरतमंद कलाकारों को सम्मानजनक मानदेय प्रदान किया जा सकता था. बहरहाल एक के बाद एक फ्लाप फिल्मों की चलते अब इस तथाकथित महान कलाकार की हालत फिल्म एक्टर कुमार गौरव जैसी हो गई है. एक दूसरा कलाकार जो जरूरत से ज्यादा बड़बोला है वह भी भाजपा की टिकट पर महासमुंद लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने का इच्छुक था. इन दिनों यह बड़बोला कलाकार भी परिदृश्य से गायब है. एक विलेन हर रोज जय रमन-जय रमन किया करता था. इन दिनों उसने पाला बदल लिया है. एक डायरेक्टर पूर्व मुख्यमंत्री के ओएसडी के बेहद निकट था. घर-परिवार और अफसरों की चाकरी के चलते इस डायरेक्टर ने पिछले साल एक बड़ा सम्मान हासिल कर लिया था. इन दिनों यह डायरेक्टर छत्तीसगढ़ की सिने इंडस्ट्रीज को प्रमोट करने के लिए चालू किस्म की फिल्में बनाने में व्यस्त है. पाठकों को याद होगा कि कुछ साल पहले भाजपा सरकार के मुखिया की पुत्री की रुचि के चलते सलमान खान छत्तीसगढ़ में दर्शकों को टाटा-बाय-करने आए थे. छत्तीसगढ़ में चेहरा दिखाने के लिए सलमान खान ने करोड़ो रुपए मांगे थे. सरकार यह पैसा संस्कृति विभाग के मद से देना चाहती थी, लेकिन वहां पदस्थ एक अधिकारी ने हाथ खड़े कर दिए. नतीजा यह हुआ कि सलमान का पैमेंट वीडियोकान नाम की कंपनी ने किया. सलमान के बाद करीना कपूर आई तो संस्कृति विभाग ने एक करोड़ 14 लाख रुपए का भुगतान किया. यह सवाल अब भी उठ खड़ा होता है कि क्या एक करोड़ 14 लाख  में छत्तीसगढ़ के  हजारों-हजार प्रतिभावान जरूरतमंद कलाकारों का सम्मान नहीं हो सकता था.?

बंटमारी करने को दिखाया बाहर का रास्ता

इस बार संस्कृति विभाग ने छत्तीसगढ़ के लोकनृत्य, भरथरी और सरगुजिहा गायन से जुड़े कलाकारों के अलावा लोक नाट्य के कलाकारों को तव्वजों दी है. संस्कृति के नाम पर बंटमारी करने वाले कलाकारों को बाहर का रास्ता  दिखाए जाने से संस्कृति और कला के क्षेत्र से जुड़े एक बड़े वर्ग में हर्ष की लहर है. भिलाई के प्रसिद्ध रंगकर्मी सुरेश गोण्डाले कहते हैं- प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कुछ शुरूआत तो बड़ी अच्छी की है. स्थानीय तीज-त्योहार और परम्परा-संस्कृति को बढ़ावा देने के नाम पर वे जो कुछ कर रहे हैं उसे एक बड़ा वर्ग नोटिस में ले रहा है. सबको अच्छा लग रहा है. प्रदेश के संस्कृति विभाग ने भी अगर स्थानीय कलाकारों को प्रोत्साहन देने का सिलसिला प्रारंभ किया है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए. आखिरकार दूर-दराज इलाके के कलाकार कब तक अपनी बारी का इंतजार करते रहेंगे. छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहर के रहवासी और कई उपन्यासों के लेखक कैलाश बनवासी कहते हैं- संस्कृति विभाग ने राज्योत्सव में छालीवुड के कलाकारों से किनारा करके ठीक ही किया है. अब तक एक भी ऐसी छत्तीसगढ़ी फिल्में नहीं बनी जो छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व करती हो तो फिर ऐसी फिल्मों से जुड़े किसी भी कलाकार को किसी प्रतिष्ठित समारोह का हिस्सा क्यों बनने देना चाहिए. छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में रचे-बसे लोक कलाकार हमारी धरोधर है. इन धरोहरों को अब हर सम्मानजनक आयोजन में  स्थान मिलना चाहिए. संस्कृतिकर्मी आशीष का मानना है- किसी भी राज्य की संस्कृति तभी बची रहती है जब वहां के तीज-त्योहार, मान्यताओं और परम्पराओं को संरक्षण मिलता है. पिछले पन्द्रह सालों में बहुत से लोगों ने छत्तीसगढ़ को कचरे में तब्दील करने का काम किया है. ऐसे लोगों की शिनाख्त बहुत जरूरी है. यह भी देखना होगा कि संस्कृति के नाम पर कचरा फैलाने वाले कलाकार के भेष में छिपे हुए कारोबारी है या संस्कृति के लुटेरे हैं. छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग ने कचरा परोसने वालों से किनारा करके पहली बार शानदार काम किया है.आने वाले दिनों में भी यह सिलसिला कायम रहे तब तो बात बनेगी. एक संस्कृतिकर्मी ने नाम न छापने की शर्त पर अपनी चिंता कुछ यूं जताई है-  देखिए... संस्कृति विभाग फिलहाल तो जो कर रहा है वह स्वागत योग्य है, लेकिन वहां ऐसे अधिकारियों का जमावड़ा हो चुका है जिनके मुंह में पैसों का खून लगा है. वे हर कलाकार से कार्यक्रम के बाद कमीशन की डिमांड करते हैं. जो कलाकार पैसे नहीं देता है उसका बिल रोक दिया जाता है. कुछ अधिकारी भाजपा के कलाकारों से सांठगांठ करके चलते हैं. विभाग में अब भी दलालों की घुसपैठ बरकरार है. विभाग में एक महिला कलाकार का दबदबा पूरी तरह से कायम है. इस महिला कलाकार को एक राजनेता का संरक्षण प्राप्त है. पिछली सरकार में इस महिला को लालबत्ती गाड़ी दी गई थीं जो अब तक वापस नहीं ली गई. इस कलाकार के दबदबे का आलम यह है कि सब भींगी बिल्ली बनकर घूमते हैं. प्रदेश की संस्कृति तभी बेहतर हो पाएगी जब संस्कृति विभाग का कचरा साफ होगा और सुथरे वातावरण का निर्माण होगा. अभी विभाग के कुछ लोग भ्रष्टाचार के दलदल में धंसे हुए हैं. 

 

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13 अक्टूबर को भिलाई में सेक्सोफोन की दुनिया

भिलाई नगर.सेक्सोफोन की दुनिया यूं ही बड़ी नहीं है. इस वाद्ययंत्र में दुनिया के बड़े से बड़े तानाशाह की हुकूमत को चुनौती देने की हिम्मत और ताकत बरकरार है. अगर आप यह जानने के इच्छुक है कि यह हिम्मत और ताकत इस जिद्दी वाद्ययंत्र को बजाने वालों ने कैसे जुटाई थीं ( अब भी जुटाते हैं ) तो इसके लिए आपको 13 अक्टूबर की शाम ठीक साढ़े पांच बजे कला मंदिर सिविक सेंटर में आना होगा. यह साज़ एक साथ कई एक्सप्रेशन की ताकत रखता है. इसके स्वर में कोमलता, उत्तेजना, उन्मुक्तता, जुनून और स्व्छंदता है... तो आंसू, उदासी और विद्रोह का जबरदस्त तेज भी मौजूद है. यहां यह बताना जरूरी है कि अपना मोर्चा डॉट कॉम और संस्कृति विभाग के सहयोग से आयोजित सेक्सोफोन की दुनिया कार्यक्रम इसके पहले छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में जबरदस्त ढंग से सफल रहा है. इस कार्यक्रम की गूंज विदेशों तक जा पहुंची है. अब बारी सुर और ताल के मुरीदों के शहर भिलाई की है. इस बार खास आयोजन के मुख्य अतिथि मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल होंगे. जबकि विशिष्ट अतिथि के तौर पर संस्कृति मंत्री श्री अमरजीत भगत और विधायक- महापौर श्री देवेंद्र यादव मौजूद रहेंगे. इस मर्तबा भी सेक्सोफोनिस्ट विजेंद्र धवनकर पिंटू, लीलेश कुमार और सुनील कुमार जानदार और शानदार गीतों की धुन पर धमाल मचाएंगे.फिल्म अध्येता अनिल चौबे पर्दे पर छोटी-छोटी क्लिपिंग के जरिए यह जानकारी देंगे कि फिल्मों में सेक्सोफोन की उपयोगिता क्यों और किसलिए है ? आयोजन की एक खास बात यह होगी कि चित्रकार सर्वज्ञ की अगुवाई में सुरेंद्र उइके, कुशाल साहू और प्रवीर सिंह बैस उपस्थित मेहमानों और हॉल में मौजूद दर्शकों का रेखाचित्र बनाएंगे. कार्यक्रम का संचालन राजकुमार सोनी करेंगे.

सेक्सोफोन के बारे में

इस साज को बेल्जियम के एडोल्फ सेक्स ने बनाया था जिसके पिता खुद वाद्य यंत्रों के निर्माता थे. सेक्स का बचपन बहुत त्रासद और नारकीय स्थितियों में गुजरा , जब वह पांच साल का था तो दूसरी मंजिल से गिर गया. इस हादसे में उसका पैर टूट गया फिर उसे खसरा हुआ. लंबे समय तक वह कमजोरी का शिकार रहा. एक बार उसकी मां ने यह तक कह दिया कि वह सिर्फ नाकामियों के लिए ही पैदा हुआ है. इस बात से दुखी होकर एडाल्फ सेक्स ने सल्फरिक एसिड के साथ खुद को जहर दे दिया. फिर कोमा में कुछ दिन गुजारे. जब वह कुछ उबरा तो उसने सेक्सोफोन बनाना प्रारंभ किया. सेक्सोफोन बन तो गया, लेकिन इस साज़ को किसी भी तरह के आर्केस्ट्रा या सिंफनी में जगह नहीं मिली. अभिजात्य वर्ग ने उसे ठुकरा दिया, लेकिन सेक्सोफोन बजाने वालों ने उसे नहीं ठुकराया. धीरे-धीरे यह वाद्य लोगों के दिलों में अपना असर छोड़ने लगा. यह वाद्य जितना विदेश में लोकप्रिय हुआ उतना ही भारत में भी मशहूर हुआ. किसी समय तो इस वाद्ययंत्र की लहरियां हिंदी फिल्म के हर दूसरे गाने में सुनाई देती थीं, लेकिन सिथेंसाइजर व अन्य इलेक्ट्रानिक वाद्ययंत्रों की धमक के चलते बड़े से बड़े संगीतकार सेक्सोफोन बजाने वालों को हिकारत की नजर से देखने लगे. उनसे किनारा करने लगे. इधर एक बार फिर जब दुनिया ओरिजनल की तरफ लौट रही है तब लोगों का प्यार इस वाद्ययंत्र पर उमड़ रहा है. ऐसा इसलिए संभव हो पा रहा है क्योंकि बाजार के इस युग में अब भी सेक्सोफोन को एक अनिवार्य वाद्य यंत्र मानने वाले लोग मौजूद है.अब भी संगीत के बहुत से जानकार यह मानते हैं कि दर्द और विषाद से भरे अंधेरे समय को चीरने के लिए सेक्सोफोन और उसकी धुन का होना बेहद अनिवार्य है. बेदर्दी बालमां तुझको... मेरा मन याद करता है... है दुनिया उसकी जमाना उसी का... गाता रहे मेरा दिल...हंसिनी ओ हंसिनी... सहित सैकड़ों गाने आज भी इसलिए गूंज रहे हैं क्योंकि इनमें किसी सेक्सोफोनिस्ट ने अपनी सांसे रख छोड़ी है. छत्तीसगढ़ में भी चंद कलाकार ऐसे हैं जिन्होंने इस वाद्ययंत्र की सांसों को थाम रखा है.

सेक्सोफोन पर लग चुका है प्रतिबंध

पाठकों को यह भी बताना जरूरी है कि छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहर के निवासी  ( अब नागपुर ) कथाकार मनोज रुपड़ा ने सेक्सोफोन को केंद्र पर रखकर साज-नासाज जैसी कहानी भी लिखी हैं. इस मकबूल कहानी पर दूरदर्शन ने एक फिल्म भी बनाई है. अपने एक लेख में मनोज रुपड़ा लिखते हैं-

एक समय लेटिन अमेरिका के एक देश में जन विरोधी सरकार के खिलाफ लाखों लोगों का एक मार्च निकला था. सेक्सोफोन बजाने वालों की अगुवाई में लाखों लोगों की भीड़ जब आगे बढ़ी तो तहलका मच गया. अभिजात्य वर्ग को सेक्सोफोन की असली ताकत तब समझ में आई. फिर तो ये सिलसिला बन गया. हर विरोध प्रदर्शन में जन आक्रोश को स्वर देने और उसकी रहनुमाई करने की जिम्मेदारी को सेक्सोफोन ने बखूबी निभाया. फिर उन्नीसवी सदी के प्रारंभ में जैज संगीत आया. जैज संगीत अफ्रीकी–अमेरिकी समुदायों के बीच से निकला था और उसकी जड़ें नीग्रो ब्लूज़ से जुड़ी हुई थी. जैज ने भी सेक्सोफोन को तहेदिल से अपनाया क्योंकि सेक्सोफोन चर्च की प्रार्थनाओं में ढल जाने वाला वाद्य नहीं था. उसकी आवाज में दहला देने की ताकत थी. खुद जैज अपने आप में एक विस्फोटक कला-रूप था. उसने अपनी शुरूआत से ही उग्र रूप अपनाया था. उसने थोपी हुई नैतिकता और बुर्जुआ समाज के खोखले आडंबरों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. बहुत जल्द वो समय आ गया जब सत्ता और जैज आमने–सामने आ गए .सत्ता का दमन शुरू हो गया तो यूएसएआर में 1948 में सेक्सोफोन और जैज म्यूजिक पर प्रतिबंध लगा दिया गया. उसके ऊपर अभद्र असामाजिकऔर अराजक होने का आरोप था.

ठीक उसी तरह हिटलर के युग में जर्मनी में भी सेक्सोफोन और जैज पर  प्रतिबंध लगाया गया था, लेकिन हर तरह के दमन और अपमान जनक बेदखलियों के बावजूद सेक्सोफोन ने अपनी जिद नहीं छोड़ी क्योंकि वह एक बहुत हठीला जनवाद्य यंत्र है. उसी समय की एक बात है. घूरी रंगया के जंगल में एक बार एक गुप्त कंसर्ट चल  रही थी. इस बात की भनक पुलिस को लग गई और वे दलबल के साथ जंगल की तरफ बढ़े लेकिन  वहां हजारों की तादाद में संगीत सुनने वाले मौजूद थे. पुलिस को यह उम्मीद नहीं थी कि शहर से इतनी दूर जंगल में लोग इतनी बड़ी तादाद में संगीत सुनने जाते होंगे. संगीत की लहरों में झूमते हुए लोगों पर हवाई फायर का भी जब कोई असर नहीं हुआ तो उन्हें बल प्रयोग करना पड़ा. भीड़ तितर-बितर हो गई.

संगीत भी बजना बंद हो गया लेकिन तभी एक सेक्सोफोन बजाने वाला एक बहुत ऊंचे पेड़ पर चढ़ गयाऔर वहां पेड़ के ऊपर सेक्सोफोन बजाने लगा. उसके इस बुलंद हौसले को देखकर पूरा जनसमूह फिर से जोश में आ गया. पुलिस ने भले ही पुलिस की वर्दी पहन रखी थी, लेकिन आखिरकार वे भी तो इंसान थे.  तो हुआ ये कि उस धुन ने  पुलिस वालों  के दिलों को  भी अपने वश में कर लिया में  कर लिया और वे भी भाव विभोर हो गए.  

अब यहां एक सवाल ये हो सकता है कि  इन साजिंदों के वादन में ऐसी क्या खास बात थी जो सत्ता को नागवार लगती थी ? न तो ये संगीतकार किसी जन आंदोलन से जुड़े थे न ही उनकी कोई राजनैतिक विचारधारा थी. वे तो सिर्फ ऐसी धुनें रचते थे जो लोगों के दिलों पर छा जाती थी. प्रत्यक्ष रूप से वे किसी भी राजसत्ता का विरोध नहीं कर रहे थे , या उन्होने ये सोचकर संगीत नहीं रचा था कि किसी का विरोध करना है. दरअसल उनकी धुनों में ही कुछ ऐसी बात थी कि लोग दूसरी तमाम बातों को भुलाकर उनकी तरफ़ खींचे चले आते थे. अब जरा सोचिए कि  हिटलर पूरे  पूरे जोश-खरोश के साथ कहीं भाषण दे रहा है और लोग उसकी बातों से प्रभावित होकर हिटलर-हिटलर का जयकारा  कर रहे हैं और अचानक कहीं सेक्सोफोन बजने लगे और लोगों का ध्यान हिटलर से हटकर सेक्सोफोन की तरफ़ चला जाए तब क्या होगा ?

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लोक गायिका सीमा कौशिक को क्यों कहना पड़ा- जाकर यूपी-बिहार देखो... पता चल जाएगा छत्तीसगढ़ के कौन-कौन से गानों पर डांसर कमर हिला रही है?

छत्तीसगढ़ में कलाकारों के बीच गंभीर तरह की लड़ाईयां चलती है. यह लड़ाई यहां निर्मित होने वाली फिल्मों में भी नजर आती है. विवेक सार्वा की फिल्म मंदराजी धीरे-धीरे रप्तार पकड़ रही थीं इस बीच थियेटर मालिकों ने अल्टीमेटम दे दिया कि हर हाल में 8 अगस्त तक थियेटर खाली कर देना है. यहां के थियेटरों में एक गुट विशेष का कब्जा है. वे जिसकी फिल्म चाहे उसे चलने देते हैं और जिनसे उन्हें खतरा नजर आता है उनकी फिल्मों का बंटाढार कर दिया जाता है. बहराल फिल्म से अलग लोक गायकों के बीच एक नया विवाद खड़ा हो गया है. छत्तीसगढ़ के कुछ नामचीन कलाकारों ने घोषणा कर दी है कि कोई भी एक-दूसरे का गाना नहीं गाएगा. इस सोच के पीछे की मानसिकता शायद यह हो सकती है कि कुछ नया और मौलिक सामने आएगा. नामचीन कलाकारों की इस घोषणा का जबरदस्त विरोध भी हो रहा है. कला  और संस्कृति के जानकार इस प्रतिबंध को अनुचित मान रहे हैं. कलाकारों का कहना है कि फिर तो किसी को भी किशोर कुमार, मुकेश और अन्य लोक गायकों के गानों को गाना ही नहीं चाहिए ? लोक गायिका सीमा कौशिक ने सोशल मीडिया में एक मैसेज भेजकर छत्तीसगढ़ की संस्कृति को बचाने की गुहार लगाएगी. उन्होंने गायकों से कहा है- जाकर यूपी-बिहार देखो... पता चल जाएगा छत्तीसगढ़ के कौन-कौन से गानों पर डांसर कमर हिला रही है?

 

सबो कलाकार साथी मनसे मोर बिनती हे के ऐक दूसर के गीत ला कोई मत गाये कहिके अपन आप मा छोटे मत बनाव. हम सबला ऐ सोचना चहिऐ के हम अपन कला अउ संस्कृति ला कईसे बचावन. आज ईही छत्तीसगढ़ के कला अउ नृत्य ला यूपी बिहार मा कुछ लड़की डांसर अउ कुछ दलाल मिलके  हमर कला संस्कृति के धज्जी उड़ाते .तेखर कोनो ला चिन्ता नईऐ छत्तीसगढ़ के मंच  मा ऐक दूसर के गीत ला मत गाव कहिके उलझे हव एक बार यूपी बिहार जाके के देख लेतेव काखर- काखर गीत मा ए डांसर मन अपन कमर ला हिलाथे. काबर के भोजपुरी गीत में तो नाचते होही, लेकिन बुलाने वाले ला तो पता हे ना के ऐहा छत्तीसगढ़ ले आऐ हे ता छत्तीसगढ़ी गीत मा भी नचवा के देखें जाऐ, ऐ बात ला कोनो नई सोचतथव. ऐखरे खातिर नई सोचत थव के ईहा जब कार्यक्रम के सिजन आही तहां उही लड़की मन वापस छत्तीसगढ़ आके ऐ मोर पालटी ऐ मोर पालटी कहिके समलित हो जाथे. अब जागो अपन अधिकार ला मांगों.

-सीमा कौशिक 

 

 

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एक किसान का बेटा ही जान सकता है हरेली तिहार के मायने

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल एक किसान के बेटे हैं और एक किसान का बेटा ही समझ सकता है कि स्थानीयता और रंगत का मतलब क्या होता है. छत्तीसगढ़ में आज हरेली का त्योहार धूमधाम से मनाया जा रहा है. लेखक एलडी मानिकपुरी ने बेहद विस्तार के साथ अपने इस लेख में यह समझाया है कि गांव-गंवई के जीवन में हरेली क्यों अनिवार्य है. इस लेख को पढ़ा जाना चाहिए.

‘हरेली ह हमर छत्तीसगढ़ कृषि संस्कृति के पहली तिहार हवय. गांव-गंवई के जिनगी म खेती के महत्ता महतारी अइसन होथे. खेती ह कोख ले पैदा करे महतारी अइसन हमर भरन-पोसन करथे. ए तिहार ह जन-जन के जिनगी ले जुड़ जथे. हरेली ह धरती माता के हरियाली के संदेस लेके आथे, अउ संग में हमर संस्कृति के घलो संदेस लाथे. हमर आघू ए बेरा चुनौती हे के हम अपन संस्कृति ल कइसे बचान. आप मन के सरकार ह इही बात ला सोच के ’हरेली तिहार’ म छुट्टी देके फैसला करीस हे. छत्तीसगढ़ के जम्मो दाई-दीदी, सियान-जवान, नोनी-बाबू, संगी मन ल जय जोहार अउ ‘हरेली तिहार’ के झारा-झारा बधाई व शुभकामनाएं. ’ यह संदेश प्रदेश के ठेठ छत्तीसगढ़िया मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के है.

सचमुच अपनी बोली-भाषा, त्यौहार, संस्कृति, खेलकूद का कितना महत्व है, उक्त संदेश में साफ-साफ झलक रहा है. छत्तीसगढ़ राज्य के इतिहास में पहली बार राज्य सरकार ने जिन पांच सार्वजनिक अवकाश की घोषणा की है, उनमें हरेली तिहार भी है. ’धान के कटोरा’ के रूप में विख्यात छत्तीसगढ़ का यह एक ऐसा त्यौहार है, जो छत्तीसगढ़ी संस्कृति, कृषि संस्कृति, परम्परा, लोक पर्व एवं पर्यावरण की महत्ता को दर्शाता है. ग्रामीण अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक व्यवस्था में खेती-किसानी का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है.  खरीफ मौसम छत्तीसगढ़ की खेती का प्राण है. यह त्यौहार साल का पहला त्यौहार इसलिए कहलाता है कि हरेली सावन माह की अमावस्या तक खेती-किसानी का बड़ा काम पूरा होना माना जाता है.

आज के दिन कृषि उपकरणों, पशुधन का धन्यवाद दिया जाता है, जिसके कारण बोवाई का काम पूरा हुआ तथा नई फसल की बेहतर शुरूआत हुई.  परंपरागत रूप से पर्यावरण को समर्पित यह त्यौहार छत्तीसगढ़ के लोगों के प्रकृति के प्रति प्रेम और समर्पण को दर्शाता है. हिंदी के ‘हरियाली’ शब्द से ‘हरेली’ शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है. आज जब समूचा विश्व पर्यावरण असंतुलन को लेकर चिंतित है, तब छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा ’नरवा, गरवा, घुरवा, बाड़ी’ के संरक्षण तथा संर्वधन के लिए जो कारगर कदम उठाए गए हैं वे आने वाली पीढ़ी के लिए खूबसूरत तोहफा साबित होंगे, ऐसे में ’हरियाली त्यौहार’ की महत्ता और बढ़ जाती है. देश के प्रमुख पर्वों में शामिल हरेली कृषि पर आधारित त्यौहार है. लिहाजा किसान भाई-बहनों द्वारा हरेली के दिन सुबह से ही कुलदेवताओं की पूजा की जाती है. कृषि औजारों की साफ-सफाई करने के बाद परंपरागत रूप से नया मुरूम डालकर पूजा स्थल तैयार करते हैं और यहां घर के सभी सदस्य खेती-किसानी के उपयोग में लाए जाने वाले सभी औजारों की बारी-बारी से पूजा करते हैं, मीठा चीला से भोग लगाया जाता है तथा मंदिरों में चढ़ाया जाता है. मवेशियों को नमक और बगरंडा की पत्ती एक साथ मिला लोंदी बनाकर (गेहूं आटा से बना) खिलाया जाता है ताकि वे बीमारी से बचे रहें और मवेशियों की पूजा भी की जाती है. इसके अलावा किसान भाई-बहन अपने खेत जाकर नीम और भेलवा की टहनी डालते हैं. घर के दरवाजे, गौशाला पर नीम की पत्ती तथा चौखट में कील लगाई जाती है, ऐसा करने वालों को दाल, चावल, सब्जी और नगद राशि दान के रूप में भी प्राप्त होते हैं.

हरेली को अंधविश्वास से जोड़ना उचित नहीं

बारिश के मौसम में आए इस त्यौहार को कुछ लोग अंधविश्वास से जोड़ते हैं. जैसा कि आज के दिन घर के दरवाजे पर नीम की पत्तियां लगाने और लोहे की कील ठोकने की परंपरा है. प्रदेश में जरूर इन परंपराओं का पालन यह बोल कर किया जाता है कि इससे आपके घर से नकारात्मक शक्तियां दूर रहती हैं, लेकिन इन परंपराओं के पीछे कुछ वैज्ञानिक कारण हैं. बारिश के दिनों में गढ्ढो-नालों में पानी भर जाने से बैक्टीरिया, कीट व अन्य हानिकारक वायरस पनपने का खतरा पैदा हो जाता है और दरवाजे पर लगी नीम और लोहा उन्हीं हानिकारक वायरस को घर में घुसने से रोकने का काम करते हैं. छत्तीसगढ़ संस्कृति में घर के बाहर गोबर लीपने की वैज्ञानिक वजह भी हानिकारक वायरस से बचना ही है, इसलिए छत्तीसगढ़ के पहले त्यौहार को अंधविश्वास से जोड़ना किसी मायने में सही नहीं है. हरेली और गेड़ी हरेली के साथ गेड़ी का मजा अलग ही है। क्योंकि हरेली पर्व का मुख्य आकर्षण गेड़ी होती है, जो हर उम्र के लोगों को लुभाती है। यह बांस से बना एक सहारा होता है, जिसके बीच में पैर रखने के लिए खाँचा बनाया जाता है. गेड़ी की ऊँचाई हर कोई अपने हिसाब से तय करता है कई जगहों पर 10 फीट से भी ऊँची गेड़ी देखने को मिलती है। हरेली के दिन से गेड़ी चढ़ने से शुरू हुआ ग्रामीण खेलों का सिलसिला भादो माह में तीजा-पोला के दिन तक चलता है.  खेलां का आनंद हरेली में गाँव व शहरों में नारियल फेंक, फुगड़ी, पोसम-पा, पिट्टूल, मटकी फोड़, बांटी, उलान-बाटी, कुश्ती, खो-खो, कबड्डी, लंगड़ी, बित्ता कूद, गिल्ली-डंडा, घांदी-मुंदी, बिल्लस, भौंरा के अलावा अन्य खेल प्रतियोगिताएं होती हैं. सुबह पूजा-अर्चना के बाद गाँव के चौक-चौराहों पर युवाओं की टोली जुटती है और खेल प्रतियोगिताओं तथा एक-दूसरे को बधाई देने का सिलसिला रात तक चलता है. राज्य सरकार ने विगत छह-सात माह में अनेक योजनाएं शुरू की तथा उपलब्घियां भी हासिल की है.

किसान के बेटे ने याद रखा किसानों को

पेशे से किसान, मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने किसानों, ग्रामीणों के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए हैं, उसे संक्षिप्त में बताना भी उचित होगा. सरकार बनने के तुरंत बाद किसानों से 2500 रू. प्रति क्विंटल में धान खरीदी की गई. प्रदेश के इतिहास में पहली बार किसानों के लिए व्यापक ऋण माफी योजना पर अमल की किया गया. 19 लाख किसानों के लगभग 11 हजार करोड़ रूपए से अधिक का कर्ज माफ किया. किसानों के नानपरफार्मिग खातों के वन टाइम सेटलमेंट का निर्णय लिया गया, जिससे राज्य शासन पर 6सौ करोड़ रू. का व्यय भार आया. करीब 15 वर्षों से 15 लाख किसानों की 207 करोड़ रूपए की सिंचाई कर माफ किया गया. ‘नरवा, गरवा, घुरवा, बाड़ी’ के तहत 1,947 गौठान स्वीकृत किए हैं और 445 गौठान पूर्णतः की ओर है. 1,927 ग्रामों में चारा उगाये जाने संबंधी कार्यवाही, गौठानों में ट्रेन्चिग, कोटना, चारे की व्यवस्था, सोलर पम्प, जल उपलब्धता, वर्मी कम्पोस्ट जैसे अनेक कार्य प्रगति पर हैं. स्व-सहायता समूह द्वारा सीमेन्ट पोल, चेन लिंक फेन्स, फ्लाई ऐश ब्रिक्स, जैविक खाद, गौ-मूत्र से जैविक कीटनाशक निर्माण व गैस प्लांट संचालन आदि कार्य प्रारम्भ किया गया है. प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत स्वीकृत सड़कों में 89 प्रतिशत उपलब्धि के कारण राज्य को देश में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है. 5 डिसमिल से कम भू-खण्डों की खरीदी-बिक्री से रोक हटाई गई, जिसके कारण लगभग 56 हजार भू-खण्डों की रजिस्ट्री हुई है. प्रत्येक गरीब परिवारों को 35 किलो चावल, 5 सदस्य से अधिक होने पर प्रति सदस्य 7 किलो चावल साथ ही एपीए ल परिवारों को भी 10रू. किलो में चावल देने जैसे अनेक निर्णय ने 2 करोड़ 80 लाख छत्तीसगढ़ियों के मन में एक नया विश्वास पैदा किया है।

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खुशहाली और पर्यावरण का पर्व हरेली

एलडी मानिकपुरी

‘हरेली ह हमर छत्तीसगढ़ कृषि संस्कृति के पहली तिहार हवय. गांव-गंवई के जिनगी म खेती के महत्ता महतारी अइसन होथे. खेती ह कोख ले पैदा करे महतारी अइसन हमर भरन-पोसन करथे. ए तिहार ह जन-जन के जिनगी ले जुड़ जथे. हरेली ह धरती माता के हरियाली के संदेस लेके आथे, अउ संग में हमर संस्कृति के घलो संदेस लाथे. हमर आघू ए बेरा चुनौती हे के हम अपन संस्कृति ल कइसे बचान. आप मन के सरकार ह इही बात ला सोच के ’हरेली तिहार’ म छुट्टी देके फैसला करीस हे. छत्तीसगढ़ के जम्मो दाई-दीदी, सियान-जवान, नोनी-बाबू, संगी मन ल जय जोहार अउ ‘हरेली तिहार’ के झारा-झारा बधाई व शुभकामनाएं. ’ यह संदेश प्रदेश के ठेठ छत्तीसगढ़िया मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के है.

सचमुच अपनी बोली-भाषा, त्यौहार, संस्कृति, खेलकूद का कितना महत्व है, उक्त संदेश में साफ-साफ झलक रहा है. छत्तीसगढ़ राज्य के इतिहास में पहली बार राज्य सरकार ने जिन पांच सार्वजनिक अवकाश की घोषणा की है, उनमें हरेली तिहार भी है. ’धान के कटोरा’ के रूप में विख्यात छत्तीसगढ़ का यह एक ऐसा त्यौहार है, जो छत्तीसगढ़ी संस्कृति, कृषि संस्कृति, परम्परा, लोक पर्व एवं पर्यावरण की महत्ता को दर्शाता है. ग्रामीण अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक व्यवस्था में खेती-किसानी का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है.  खरीफ मौसम छत्तीसगढ़ की खेती का प्राण है. यह त्यौहार साल का पहला त्यौहार इसलिए कहलाता है कि हरेली सावन माह की अमावस्या तक खेती-किसानी का बड़ा काम पूरा होना माना जाता है.

आज के दिन कृषि उपकरणों, पशुधन का धन्यवाद दिया जाता है, जिसके कारण बोवाई का काम पूरा हुआ तथा नई फसल की बेहतर शुरूआत हुई.  परंपरागत रूप से पर्यावरण को समर्पित यह त्यौहार छत्तीसगढ़ के लोगों के प्रकृति के प्रति प्रेम और समर्पण को दर्शाता है. हिंदी के ‘हरियाली’ शब्द से ‘हरेली’ शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है. आज जब समूचा विश्व पर्यावरण असंतुलन को लेकर चिंतित है, तब छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा ’नरवा, गरवा, घुरवा, बाड़ी’ के संरक्षण तथा संर्वधन के लिए जो कारगर कदम उठाए गए हैं वे आने वाली पीढ़ी के लिए खूबसूरत तोहफा साबित होंगे, ऐसे में ’हरियाली त्यौहार’ की महत्ता और बढ़ जाती है. देश के प्रमुख पर्वों में शामिल हरेली कृषि पर आधारित त्यौहार है. लिहाजा किसान भाई-बहनों द्वारा हरेली के दिन सुबह से ही कुलदेवताओं की पूजा की जाती है. कृषि औजारों की साफ-सफाई करने के बाद परंपरागत रूप से नया मुरूम डालकर पूजा स्थल तैयार करते हैं और यहां घर के सभी सदस्य खेती-किसानी के उपयोग में लाए जाने वाले सभी औजारों की बारी-बारी से पूजा करते हैं, मीठा चीला से भोग लगाया जाता है तथा मंदिरों में चढ़ाया जाता है. मवेशियों को नमक और बगरंडा की पत्ती एक साथ मिला लोंदी बनाकर (गेहूं आटा से बना) खिलाया जाता है ताकि वे बीमारी से बचे रहें और मवेशियों की पूजा भी की जाती है. इसके अलावा किसान भाई-बहन अपने खेत जाकर नीम और भेलवा की टहनी डालते हैं. घर के दरवाजे, गौशाला पर नीम की पत्ती तथा चौखट में कील लगाई जाती है, ऐसा करने वालों को दाल, चावल, सब्जी और नगद राशि दान के रूप में भी प्राप्त होते हैं.

हरेली और अंधविश्वास

बारिश के मौसम में आए इस त्यौहार को कुछ लोग अंधविश्वास से जोड़ते हैं. जैसा कि आज के दिन घर के दरवाजे पर नीम की पत्तियां लगाने और लोहे की कील ठोकने की परंपरा है. प्रदेश में जरूर इन परंपराओं का पालन यह बोल कर किया जाता है कि इससे आपके घर से नकारात्मक शक्तियां दूर रहती हैं, लेकिन इन परंपराओं के पीछे कुछ वैज्ञानिक कारण हैं. बारिश के दिनों में गढ्ढो-नालों में पानी भर जाने से बैक्टीरिया, कीट व अन्य हानिकारक वायरस पनपने का खतरा पैदा हो जाता है और दरवाजे पर लगी नीम और लोहा उन्हीं हानिकारक वायरस को घर में घुसने से रोकने का काम करते हैं. छत्तीसगढ़ संस्कृति में घर के बाहर गोबर लीपने की वैज्ञानिक वजह भी हानिकारक वायरस से बचना ही है, इसलिए छत्तीसगढ़ के पहले त्यौहार को अंधविश्वास से जोड़ना किसी मायने में सही नहीं है. हरेली और गेड़ी हरेली के साथ गेड़ी का मजा अलग ही है। क्योंकि हरेली पर्व का मुख्य आकर्षण गेड़ी होती है, जो हर उम्र के लोगों को लुभाती है। यह बांस से बना एक सहारा होता है, जिसके बीच में पैर रखने के लिए खाँचा बनाया जाता है. गेड़ी की ऊँचाई हर कोई अपने हिसाब से तय करता है कई जगहों पर 10 फीट से भी ऊँची गेड़ी देखने को मिलती है। हरेली के दिन से गेड़ी चढ़ने से शुरू हुआ ग्रामीण खेलों का सिलसिला भादो माह में तीजा-पोला के दिन तक चलता है.  खेलां का आनंद हरेली में गाँव व शहरों में नारियल फेंक, फुगड़ी, पोसम-पा, पिट्टूल, मटकी फोड़, बांटी, उलान-बाटी, कुश्ती, खो-खो, कबड्डी, लंगड़ी, बित्ता कूद, गिल्ली-डंडा, घांदी-मुंदी, बिल्लस, भौंरा के अलावा अन्य खेल प्रतियोगिताएं होती हैं. सुबह पूजा-अर्चना के बाद गाँव के चौक-चौराहों पर युवाओं की टोली जुटती है और खेल प्रतियोगिताओं तथा एक-दूसरे को बधाई देने का सिलसिला रात तक चलता है. राज्य सरकार ने विगत छह-सात माह में अनेक योजनाएं शुरू की तथा उपलब्घियां भी हासिल की है.

पेशे से किसान, मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने किसानों, ग्रामीणों के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए हैं, उसे संक्षिप्त में बताना भी उचित होगा. सरकार बनने के तुरंत बाद किसानों से 2500 रू. प्रति क्विंटल में धान खरीदी की गई. प्रदेश के इतिहास में पहली बार किसानों के लिए व्यापक ऋण माफी योजना पर अमल की किया गया. 19 लाख किसानों के लगभग 11 हजार करोड़ रूपए से अधिक का कर्ज माफ किया. किसानों के नानपरफार्मिग खातों के वन टाइम सेटलमेंट का निर्णय लिया गया, जिससे राज्य शासन पर 6सौ करोड़ रू. का व्यय भार आया. करीब 15 वर्षों से 15 लाख किसानों की 207 करोड़ रूपए की सिंचाई कर माफ किया गया. ‘नरवा, गरवा, घुरवा, बाड़ी’ के तहत 1,947 गौठान स्वीकृत किए हैं और 445 गौठान पूर्णतः की ओर है. 1,927 ग्रामों में चारा उगाये जाने संबंधी कार्यवाही, गौठानों में ट्रेन्चिग, कोटना, चारे की व्यवस्था, सोलर पम्प, जल उपलब्धता, वर्मी कम्पोस्ट जैसे अनेक कार्य प्रगति पर हैं. स्व-सहायता समूह द्वारा सीमेन्ट पोल, चेन लिंक फेन्स, फ्लाई ऐश ब्रिक्स, जैविक खाद, गौ-मूत्र से जैविक कीटनाशक निर्माण व गैस प्लांट संचालन आदि कार्य प्रारम्भ किया गया है. प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत स्वीकृत सड़कों में 89 प्रतिशत उपलब्धि के कारण राज्य को देश में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है. 5 डिसमिल से कम भू-खण्डों की खरीदी-बिक्री से रोक हटाई गई, जिसके कारण लगभग 56 हजार भू-खण्डों की रजिस्ट्री हुई है. प्रत्येक गरीब परिवारों को 35 किलो चावल, 5 सदस्य से अधिक होने पर प्रति सदस्य 7 किलो चावल साथ ही एपीए ल परिवारों को भी 10रू. किलो में चावल देने जैसे अनेक निर्णय ने 2 करोड़ 80 लाख छत्तीसगढ़ियों के मन में एक नया विश्वास पैदा किया है।

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भिलाई में आया... पेड़ा नहीं खाया

छत्तीसगढ़ के भिलाई में एक पेड़ा बेचने वाला बूढ़ा था. सफेद पैन्ट-सफेद शर्ट, सफेद जूता, सिर पर सफेद टोपी. बिल्कुल राजकपूर वाली. हाथ में छड़ी और कंधे पर टिन का डिब्बा. डिब्बे में लगा सुंदर सा कांच और कांच के भीतर  से झांकते और मन को लालच से भर देने वाले पेड़े.यह बूढ़ा जब भी सड़क से गुजरता तो तुकबंदी करता-

भिलाई में आया... पेड़ा नहीं खाया. भिलाई में कायकू आया... अगर पेड़ा नहीं खाया.

अगर कोई बच्चा पेड़े वाले को छेड़ दे तो फिर जवाब मिलता था- क्यों मां-बाप ने यहीं सिखाया. दुनिया में काय को आया? बच्चे फिर छेड़ते- पेड़े में आटा मिलाया... जवाब मिलता- कौन भौ....... ड़ी वाला चुगली लगाया.

बूढ़ा कौन था? क्या था ? इस बारे में मुझे कुछ भी नहीं मालूम...। जब भी इधर-उधर से कुछ मालूम करने की कवायद करता तो बस इतना पता चलता कि बूढ़ा केम्प वन भिलाई की एक झोपड़ी में रहता है.शायद बाल-बच्चों ने घर से निकाल दिया था. बूढ़े की झकाझक सफेद ड्रेस और वाइट कलर की हेट देखकर कुछ लोग उसे दूसरे देश का जासूस भी बताते थे? भले ही राजन- इकबाल और नन्हा जासूस बबलू दिलो-दिमाग पर हावी थे, लेकिन मुझे नहीं लगता था बूढ़ा कोई जासूस होगा? और भी जासूस पेड़ा क्यों बेचेगा? 

भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि उस समय मोदी हमारे मुखिया जी नहीं थे अन्यथा तय था कि गरीब पेड़े वाले को पाकिस्तान का जासूस ठहरा दिया जाता. हर रोज गरीबी और मुफलिसी में मर-मरकर जीने और ड्रेस कोड को मेन्टेन करने वाला बूढ़ा सही में जासूसी के आरोप में जेल की सलाखों के पीछे होता और अपमानित होकर दुनिया से कूच कर गया होता? 

वैसे जो लोग भिलाई के रहने वाले हैं वे एक गूंगे लड़के भी वाकिफ होंगे. दुबला- पतला बिल्कुल रंगकर्मी सुप्रियो सेन जैसा नजर आने वाला यह लड़का हर जगह दिखाई देता था. कहीं कोई घटना घटी... और अगर आप उस जगह से गुजर रहे हैं तो गूंगा आपको ऊं आ... ऊं आ करते हुए मिल जाएगा. बताते हैं कि यह गूंगा पुलिस के लिए मुखबिरी का काम का करता था. हर थाने में उसकी दखल थीं. थानेदार और पुलिस वाले उसे अपने साथ लेकर चलते थे. गूंगे को अभिताभ बच्चन की फिल्मों का शौक था. जब भी अमिताभ की फिल्म लगती वह बिल्कुल अभिताभ स्टाइल वाली बेलबाटम पहनकर टाकीज पहुंच जाया करता था. अच्छी-खासी भीड़ को चीरकर वह सीधे गेटकीपर या मैंनेजर से मिलता और ऊं आ... ऊं आ करके फिल्म देखने बैठ जाता और इंटरवेल में समोसा भी खाता.

यूं तो भिलाई में एक बेर बेचने वाला भी गाना गाते हुए सड़क से गुजरता था- बेर लो...बेर लो...बेर लो... तेरे- मेरे नसीबों का? हम सबके नसीबों का ? छिटकना भई छिटकना... बाबू भैया छिटकना... चले आव-चले आव. 

एक मरियल- खपियल सी साइकिल में दो बड़े से झोले में नड्डा लेकर एक शख्स और नजर आता था. नड्डे को ऊंगली में फंसाकर खाने का मजा ही कुछ और था. वैसे भिलाई में एक बहुत ही शानदार रंगकर्मी का नाम नड्डा है. एक किसी बड़े नेता जी का सरनेम भी नड्डा है, लेकिन मुझे नड्डे का पीला कलर और नेताजी की पार्टी के झंडे का कलर पंसद नहीं हैं इसलिए नड्डा खाना बंद कर दिया है. गांव और कस्बों के बाजारों में नड्डा अब भी मिलता है. अब भी बहुत से प्रगतिशील और जनवादी लोग चखने में नड्डे का उपयोग करते हैं. जो लेखक मित्र दारू के साथ नड्डे का प्रयोग करते हैं, उन्हें देखकर गाने का मन करता है- समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई.

राजकुमार सोनी की फेसबुक वाल से 
 

 

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जय संतोषी मां

1975 को जय संतोषी मां नाम की एक फिल्म भी रीलिज़ हुई थीं. पिताजी कहते थे संतोषी मां के नाम वाली किसी देवी का पुराण में उल्लेख नहीं है. यह सही भी है क्योंकि फिल्म के प्रारंभ में ही फिल्म बनाने वाले ने यह बता दिया था कि संतोषी मां का शास्त्रों में उल्लेख नहीं है, लेकिन मां यह मानने को तैयार नहीं थीं. इस फिल्म को मां तीन-चार बार देख चुकी थी और उनकी आस्था इतनी ज्यादा गहरी हो गई थीं कि हर शुक्रवार को व्रत रखने लगी थीं. घर के प्रत्येक सदस्य को हिदायत थीं कि शुक्रवार को कोई भी खटाई नहीं खाएगा.  चीनी मिट्टी से निर्मित आचार की बड़ी सी बरनी को छिपा कर रख दिया जाता था.शुक्रवार आने के एक दिन पहले यानी गुरुवार को मां फरमान जारी कर देती- कल शुक्रवार है. मेरा उपवास है. कोई आचार- नींबू नहीं खाएगा.अगर किसी ने खाया तो समझ लेना. मेरा उपवास भरबन्ट ( शायद भरबन्ट का मतलब तहस- नहस होता हो. ) हुआ तो फिर तुम जानो ?

अब घर में कुछ भी ऊपर- नीचे जो कुछ भी होता तो मां आरोप लगाती- जरूर किसी ने आचार खाया है. सिर में दर्द उठा... तूने आचार खाया? भाई को चोट लगी... आचार खाया है? छोटा भाई अर्धवार्षिक परीक्षा में फेल हो गया... उसने भी आचार खाया? ड्यूटी जाने के पहले पिताजी की साइकिल पंचर हो गई.... आचार ?

हर शुक्रवार को मां संतोषी मां की पूजा करती. मैं अपनी मां का स्थायी पंड़ित बेटा था. मतलब जैसे सत्यनारायण की कथा वाली किताब होती थीं ठीक वैसे ही जय संतोषी मां की कथा को पुस्तक से बांचकर सुनाना होता था. पूरी कथा का सार यही था कि एक महिला को उसके परिवार के लोग खूब यातना देते हैं. वह महिला यातना से बचने के लिए संतोषी मां का उपवास प्रारंभ करती है और संतोषी माता प्रकट होकर उसके दुःख दूर कर देती है. महिला के सामने झूठे बर्तनों का अंबार लगाया जाता है. माता प्रकट होती है और सारे बर्तन एकदम चकाचक हो जाते है. इससे पहले कि पीड़ित महिला के चेहरे पर मुस्कान आए... जलनखोर लोग महिला के सामने गंदे कपड़ों का ढ़ेर लगा देते हैं... लेकिन ठहरिए... संतोषी मां यहां भी प्रकट होकर  सारे कपड़ों को साफ कर देती थीं. कपड़े इतने सफेद कि सुपर रिन की चमकार भी फेल. अब जलनखोर लोग परेशान... करें तो क्या करें? 

मुझे कथा बांचने के पहले नहाना होता था. कथा को बांच- बांचकर इतना ज्यादा अभ्यस्त हो चुका था कि उठते- बैठते और  कई बार सोते- सोते भी कथा बांच दिया करता था. मां पूजा में लीन रहती. अंत में आरती होती तो उसी धुन पर होती- मैं तो आरती उतारूं रे संतोषी माता की... जय- जय संतोषी माता जय-जय मां. जय संतोषी मां... जैसी फिल्म क्यों हिट रही इसके कई कारण है. अब जाकर सोचता हूं तो लगता है हिन्दुस्तान की जनता बेहद भावुक है. खासकर जो हिंदी पट्टी है वहां अशिक्षा ने लोगों को चमत्कार पर भरोसा करने के लिए मजबूर कर रखा है. मेहनतकश जनता को भी यह लगता है कि उनके कष्टों का निवारण किसी अदृश्य शक्ति के जरिए ही हो सकता है. जब किसी दुखी आदमी के जीवन में खुशियां आती है तो वह खुशी देने वाले को भी भगवान मानने लगता हैं.  जय संतोषी मां ने उस जमाने में पीड़ित-प्रताड़ित महिलाओं के जीवन में खुशियां लौटाई थीं. जो चमत्कार रुपहले परदे भी होता था उसे महिलाएं अपने जीवन में महसूस करती थीं. सोलह शुक्रवार तक उपवास करती और फिर उध्यापन करके खुश हो जाती थीं कि अब उनके जीवन में सब कुछ बदल जाएगा.

फिल्म वाले ने पूजा के लिए बड़ी चालाकी से गुड़ और चने के प्रसाद का प्रावधान तय कर दिया था. यह प्रसाद हर जगह मौजूद था सो संतोषी मां भी हर जगह विद्यमान हो गई. याद रखिए प्रसाद की उपलब्धता जितनी सरल होती है... धर्म उतनी तेजी से हमारे भीतर प्रवेश कर जाता है. टाकीजों में हर शुक्रवार को गुड़ और चने के प्रसाद का वितरण भी इसलिए होता था क्योंकि यह गरीब आदमी की पहुंच में होता था. अगर फिल्म बनाने वाला यह बताता कि संतोषी मां को काजू- कतली पसंद है तो यकीन मानिए फिल्म कभी हिट नहीं होती.

अब यह कितना सच है यह नहीं मालूम लेकिन बताते कि फिल्म देखने के पहले बहुत से दर्शक दरवाजे के बाहर ही जूते-चप्पल भी उतार दिया करते थे. अमूमन लड़के ही फिल्म की स्टोरियां सुनाते रहे हैं, लेकिन जय संतोषी मां की स्टोरी जब लड़कियां सुनाती थीं तो गजब सुनाती थीं. हां रे... ऊं रे...कितनी कमीनी थीं न उसकी सास...देवरानी....वगैरह-वगैरह...। यह संतोषी मां का ही प्रभाव था कि सुभाष घई की एक फिल्म कालीचरण जो वर्ष 1976 में रीलिज हुई थीं उसमें डैनी लंगडा रहता है और जय संतोषी मां,,, बोल-बोलकर ढिशुंम-ढिशुंम करता है.

 

इस फिल्म के साथ कई तरह की खूबसूरत यादें जुड़ी हुई हैं. तर्क और विज्ञान की अवधारणा को खंडित करने वाली यह फिल्म मुझे अब भी पसंद है. इस फिल्म को पसंद करने का यह मतलब नहीं है कि मैं अंधविश्वासी हूं. इस फिल्म को पंसद करने के पीछे मेरी वजह सिर्फ़ मां थीं. मैं लंबे समय तक मां के विश्वास के साथ था. कई शुक्रवार उपवास रहने के बाद भी पिता बेमतलब बरस पड़ते थे. मैं छोटा था तो मां के कष्ट हर नहीं सकता है. बस...इतना चाहता था कि यार... कम से कम संतोषी मां हर लें. भोली मां की बहुत सी दर्दनाक यादें जुड़ी हुई है. मां इस दुनिया न होते भी साथ है तो फिर मां की जो पूजा वाली मां है वह जेहन से कैसे गायब हो सकती है? मैं इस मां के सामने कोई अगरबत्ती नहीं जलाता, लेकिन संतोषी मां के बारेे में सोचता हूं तो गांव-कस्बों की बहुत सी माताएं याद आ जाती है. चमत्कार सी भरी हुई धैर्यवान. उम्मीद से ज्यादा देने वाली लबालब जय संतोषी मां.

मैं अब भी जय संतोषी मां के साथ हूं. 

होने को तो मैं साध्वी प्रज्ञा और राधे मां साथ भी हो सकता था, लेकिन जरा सोचकर बताइए क्या इनके साथ कभी कोई गीतकार प्रदीप हो सकता था? फिल्म जय संतोषी मां के सारे गीत असली राष्ट्रवादी कवि / गीतकार प्रदीप ने लिखे थे. प्रज्ञा ठाकुर और राधे मां की प्रशंसा में गीत लिखने वालों की आज कोई कमी नहीं है, अगर कवि प्रदीप जिंदा होते और वे राधे मां और प्रजा ठाकुर के लिए गीत लिखने से इंकार कर देते तो उन्हें राष्ट्रद्रोही ठहरा दिया जाता? अगर उन्हें गीत लिखने के लिए ज्यादा मजबूर किया जाता तो बहुत संभव है कि वे आत्महत्या भी कर लेते. इस पोस्ट में एक चित्र फिल्म जय संतोषी मां का है दूसरा चित्र उस मंदिर का है जो कोरबा के पाली इलाके में मौजूद है. यह मंदिर मैंने तब देखा जब मैं कोरबा से लौट रहा था.

राजकुमार सोनी के फेसबुक वॉल से

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डिस्को डांसर

अगर आप इस पोस्ट को पढ़ने की ताकत और हिम्मत जुटा रहे हैं तो प्लीज वक्त निकालकर मिथुन पर फिल्माए गए आईएमए डिस्को डांसर जैसे गीत को देखने की कोशिश भी करिएगा. यह गीत यू ट्यूब पर मौजूद है. हमारे जमाने में- मौसम है गाने का...गाने का बजाने का... हंसने का हंसाने का...ये जीवन ये दुनिया सपना है दीवाने का...यानी गन मास्टर जी 9 मतलब डिस्को डांसर मिथुन चक्रवर्ती का उदय हो चुका था. थोड़ा बहुत नाचना-गाना तो हम भी जानते थे, लेकिन मिथुन के आने के बाद ही पहली बार यह पता चला कि कोई डिस्को डांस भी होता है. अब इसे मिथुन का प्रभाव कहे या कुछ और... लेकिन उनकी आत्मा हर लड़के में घुसी हुई दिखती थीं. जिसे देखो वहीं डिस्को और कराटे वाला पोज देते हुए मिलता था.

मां ने कहा- सब्जी ले आ. तुरंत कराटे वाला पोज. कमर का झटका....लाओ झोला. बाप ने कहा- दाढ़ी बनाने वाला ब्लेड नहीं है. जा रे...ब्लेड ले आ... फिर कराटे वाला पोज. कमर का जोरदार झटका... लाओ आठ आना. सेक्टर छह भिलाई के बाद जब हमारा परिवार रिसाली सेक्टर में शिफ्ट हुआ तब अचानक एक रोज एक रिक्शा घर के सामने से गुजरा. रिक्शे में बैठा एक शख्स अमीन सयानी का बाप बनकर अनाउंसमेंट कर रहा था-जी हां...भाइयों और बहनों आज नवयुवक गणेश पंडाल पर देखिए दानी का डिस्को डांस... ऐसा डांस जो आपने कभी नहीं देखा होगा. एलाउंसर बकते जा रहा था- रहस्य और रोमांच से भरपूर डांस.... जी हां... भाइयों और बहनों दानी को कई गणेश पूजा पंडालों में बेस्ट डांसर का अवार्ड मिल चुका है. आइए-आइए... अवश्य आइए.

रात आठ बजे ही मैं अपने एक दोस्त के साथ दानी का डिस्को डांस देखने के लिए पहुंच गया था, लेकिन यह क्या... वहां सबसे ज्यादा भीड़ लड़कियों और महिलाओं की थीं. बस... प्रोग्राम शुरू होते ही दानी ने वैसे ही इंट्री मारी जैसे मिथुन ने फिल्म डिस्को डांसर के गाने- आई एम ए डिस्को डांसर में मारी थीं. दानी मिथुन बनकर नाच रहा था और लड़कियां चीख रही थीं. चिल्ला रही थीं. मैं अपने दोस्त के साथ लड़कियों के पास ही खड़ा था. जैसे ही एक गाना खत्म होता, पैसों की बौछार हो जाती.

उधर दूसरे गाने की तैयारी होती और इधर लड़कियों की प्रतिक्रिया होती- 1- हाय राम...कितना मस्त नाचता है न? 2- मेरी सहेली का भाई है. 3- कभी मिलवाना न? 4- नहीं कमीनी तू पटा लेगी तो ? 5-तूने पटा लिया है क्या ? 6- नहीं... रे... उसको तो उषा आंटी लाइन मार रही है. ... तो मेहरबान... कदरदान पेश है डिस्को के बादशाह दानी का अगला डांस- तू मुझे जान से भी प्यारा है... तेरे लिए सूना जग सारा है. फिल्म का नाम है वारदात...और गायिका है उषा उथुप और हरदिल अजीज बप्पी लहरी......ईईई.....ईईई. ( अब डिस्को प्रोग्राम में माइक तो इको होगा न ? ) अब यह तो ठीक-ठाक पता नहीं कि डिस्को की वजह से दानी ने कितनी लड़कियों से प्यार किया ? और कितनी लड़कियों ने दानी की प्रतिभा पर भरोसा जताकर अपना सब कुछ नयौछावर करने पर विचार किया? लेकिन यह तय था कि हम सभी दोस्त दानी से जलते थे. पता नहीं हमारी जलन स्वाभाविक थीं या गैर स्वाभाविक... लेकिन हम सोचते थे- पता नहीं लड़कियों को क्या हो गया है? लडकियां कब समझेगी कि सच्चा प्यार डिस्को में नहीं... अभिताभ के डांस में कहीं छिपा है.

एक दिन यह सूचना अवश्य मिली कि किसी मामूली से छोकरे ने दानी को धो दिया है. सूत्रों के अनुसार महान डिस्को डांसर दानी देश- दुनिया की लड़कियों के प्यार के आमंत्रण को लगातार ठुकराकर अपने डिस्को वाले जूते के नीचे कुचल रहे थे. एक रोज एक मामूली से छोकरे ने उसे शास्त्रीय तरीक़े से इसलिए धो दिया था क्योंकि दानी ने उस गरीब के प्यार का रास्ता रोककर यह बताने की धृष्टता कर दी थीं कि वह भिलाई का बेस्ट डिस्को डांसर है.

आपके मोहल्ले में भी एक न एक डिस्को डांसर अवश्य पैदा हुआ होगा? एक बार बड़े भैया गणेश पूजा आयोजन के अध्यक्ष बने थे. हर सुबह उनसे मिलने के लिए एक न एक डिस्को डांसर घर पर आता था. एक मर्तबा एक डांसर माथे पर पट्टी, जलने-बुझने वाली ड्रेस और हाथ में लकड़ी वाली गिटार थामकर घर आ गया था. डिस्को डांसर की दिली ख्वाहिश थीं कि एक बार... बस... एक बार उसे सार्वजनिक मंच पर प्रतिभा दिखाने का मौका दे दिया जाय. शाम को उसकी ख्वाहिश पूरी हो गई लेकिन वह दानी जैसा जलवा नहीं बिखेर पाया.

 

राजकुमार सोनी की फेसबुक वाल से

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बैलबाटम की दुनिया...

क्या आपने कभी बैलबाटम को पहना है. यह फैशन भारत में कब आया इस बारे में कोई एक राय नहीं है. कोई कहता है कि हिप्पियों की वजह से यह फैशन भारत पहुंचा था तो किसी का कहना है देवानंद, राजेश खन्ना और अभिताभ बच्चन ने बैलबाटम को लोकप्रिय बनाया. अब सही क्या है इस बारे एक पाठक की हैसियत से आप सब भी रोशनी डाल सकते हैं. बहरहाल जब मैं कक्षा तीसरी में था तब बैलबाटम मार्केट में चुका था. सेक्टर छह भिलाई के ए और बी मार्केट में इक्का-दुक्का टेलर मास्टर थे, लेकिन सभी के सभी बैलबाटम स्पेशलिस्ट थे. एक दुकान में यह भी लिखा था-यहां आर्डर देने पर लड़कियों के लिए भी बैलबाटम तैयार किया जाता है.

हमारे समय के पिताजी यह मानते थे कि जो भी बच्चें स्कूल में पढ़ते हैं उन्हें सिर्फ़ हाफ पैट पहनने का ही हक है. उन दिनों- यह आराम का मामला है जैसा कोई विज्ञापन लोकप्रिय नहीं हुआ था इसलिए हमारी अंदरूनी तकलीफों से कोई भी वाकिफ नहीं था.केवल लड़कियों को ही नहीं हम लोगों को भी अपनी इज्जत बेहद प्यारी थीं और हम लोग अपनी इज्जत का खास ख्याल भी रखते थे. बैलबाटम और पूरे बांह वाली शर्ट पहनने का अधिकार उन बच्चों को ही मिल पाता था, जो कक्षा ग्यारहवीं यानी मैट्रिक पास कर लेते थे. पड़ोस में एक बिहारी परिवार रहता था. उस परिवार में एक ही लड़का था जो दिन- रात पढ़ता रहता था. लड़का गणित में तेज था और उस परिवार की बस एक ही चाहत थीं कि लड़के को किसी भी तरह से भिलाई इस्पात संयंत्र में नौकरी मिल जाय. लड़के के पिता अपने बेटे की हर चाहत पूरी करते थे.एक रोज लड़के ने बैलबाटम की फरमाइश की तो उसके पिताजी उसे साइकिल के डंडे पर बिठाकर ले गए. वापस लौटकर उन्होंने पूरे ब्लाक वालों को बताया कि टेलर मास्टर ने कहा है- अभी बच्चा छोटा है. आठवीं में पढ़ता है... बैलबाटम अच्छा नहीं लगेगा, लेकिन अब कौन समझाए. एक हफ्ते बाद बैलबाटम आ जाएगा.

एक हफ्ते के बाद जब बैलबाटम आया तो हम सबने उसे प्रत्याशा में देखा. हमें लगा एक न एक दिन हम सब भी बैलबाटम पहनेंगे. अब लड़का एक निश्चित समय में शाम को ही बैलबाटम पहनकर स्ट्रीट के दो चक्कर मारता. शायद उसका मकसद यहीं था कि सबको पता चल जाए उसके पास बैलबाटम है. लड़का सड़क के छोर पर मौजूद एक खंभे के पास जाता. फिल्म कभी-कभी में जैसे अभिताभ बच्चन पेड़ पर टिककर गाता है- कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है... ठीक वैसे ही वह भी खंबे पर टिक जाता. कुछ बुदबुदाता और फिर लौट जाता. एक रोज मैंने उससे पूछा कि खंबे के पास जाकर क्या करते हो? उसने बताया गणित का फार्मूला याद करता हूं. बहुत बाद में हमारी स्ट्रीट में कई लोगों के पास बैलबाटम आ गया था. इतनी लंबी इंची वाले बैलबाटम थे कि पूछिए मत. जब नीचे से पैंट घिसने की शिकायत में इजाफा हुआ तो हील वाले जूतें आ गए और जो चेन पोस्ट आफीस बंद करने के काम में आती थीं उसका उपयोग बैलबाटम के नीचे होने लगा. बैलबाटम को पहनकर साइकिल चलाना थोड़ा जोखिम भरा होता था.अक्सर साइकिल की चेन में फंसकर बैलबाटम का काम तमाम हो जाता था. फिर भी उन दिनों बहुत से होशियार चंद थे जो पैरों को आड़ा-तेड़ा करके सायकिल चलाना जानते थे और सिनेमा हाल तक पहुंच जाया करते थे. जब बैलबाटम का फैशन खत्म हुआ तो उसका झोला बनने लगा. मैंने खुद अपनी आंखों से कई तरह के बैलबाटम में सब्जियों को घर में आते देखा है.

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ठोला नहीं... अभिताभ कट चाहिए ?

राजेश खन्ना के ढलान और अभिताभ बच्चन के उठान युग में धीरे-धीरे मेरी हाइट बढ़ रही थी. अक्सर दोस्तों और भाइयों के बीच इस बात को लेकर झगड़ा हो जाता था कि कौन श्रेष्ठ है.बहुत से लोग राजेश खन्ना को श्रेष्ठ मानते थे और कुछ दोस्तों का कहना था कि अमिताभ का कोई मुकाबला नहीं. जो मुझसे छोटा भाई था उसे विनोद खन्ना पसंद था.

निजी तौर पर मैं अभिताभ का मुरीद था. अभिताभ पर फिदा होने के कई कारण है, लेकिन सबसे बड़ा कारण अमिताभ की हेयर स्टाइल थीं. दोनों तरफ फुग्गे वाली कली रहती थीं और पूरे कान ढंके रहते थे. मैं अभिताभ जैसी हेयरस्टाइल रखना चाहता था. इसके लिए खूब मेहनत भी करता था, लेकिन मेरी सारी मेहनत पर पिता जी पानी फेर देते थे. हर महीने किसी एक रविवार मेरे बालों का काम तमाम कर दिया जाता था. बाकी भाइयों को केश सज्जा का महत्व पता नहीं था इसलिए वे पिताजी के सामने सरेंडर हो जाते थे और जैसा पिताजी चाहते थे वैसा ही बाल कटवा लेते थे, लेकिन मैं नाई की दुकान में जाते-जाते तक प्रतिरोध करता था.जैसे ही नाई की दुकान पहुंचता वैसे ही नाई भी खुश हो जाता. शायद वह मुझे बकरा समझता था. कई बार तो यह भी लगता था नाई पिताजी से मिला हुआ है और उनकी ही सुनता था. मेरे हाट सीट पर बैठते ही पिताजी डायरेक्शन दे देते थे और नाई भी उनके कहे अनुसार कैची चला-चला कर खुश होते रहता था. मैं अभिताभ...अभिताभ चिल्लाते रहता और पिताजी कहते-कोई अभिताभ नहीं... ठोला कट काट दो. बाल कटाई के दौरान ही यह पता चल गया था जो पुलिस वाले छोटे-छोटे बाल रखते थे उन्हें ठोला कहा जाता था.कई बार तो नाई सिर पर सीधे कटोरा रखकर बाल काट देता था और डबल ठोला बनाकर छोड़ता था.

आप सबके साथ भी शायद ऐसा हुआ होगा. कोई राजेश खन्ना हेयरस्टाइल के लिए परेशान रहा होगा तो कोई विनोद खन्ना जैसी स्टाइल रखना चाहता होगा. मैं जिस स्कूल में पढ़ता था वहां सारी लड़कियों को सख्त हिदायत थीं कि वे दो चोटी में लाल रिबन बांधकर आएगी.उन्हें शनिवार को सफेद रिबन बांधना होता है. उन दिनों लड़कियों के बीच फिल्म अभिनेत्री साधना की हेयर स्टाइल का जलवा बरकरार था. लड़कियां साधना कट भी रखती थीं तो भी दो चोटी डालनी होती थीं. कक्षा में लड़कियों के सिर पर अच्छे-खासे बाल देखकर जलन होती थीं. एक बार मैंने चंद्राकर गुरुजी से डरते-सहमते कह ही दिया- गुरुजी... आप कभी लड़कियों को बाल कटवाने के लिए नहीं कहते हैं? हम लोग ही कब तक बलिदान देते रहेंगे? गुरुजी ने कहा- ठीक है तुम बाल बढ़ा लो...लेकिन फिर चोटी भी बांधकर आना पड़ेगा.

हमारी हेयरस्टाइल का युग राजेश खन्ना, अभिताभ बच्चन, विनोद खन्ना और थोड़े समय के लिए मिथुन चक्रवर्ती से गुजरकर समाप्त हो गया है. अब शायद लड़कों के बीच विराट कोहली वाली हेयर स्टाइल चल रही है? लड़कियों के बीच कौन सी हेयर स्टाइल चल रही है इसकी जानकारी नहीं है. पहले मन ही मन में लड़कियों की तारीफ करने लिए ज्यादा सोचना नहीं पड़ता था. तस्वीर एकदम साफ रहती थी. कौन सी लड़की में साधना मौजूद है? कौन लड़की हेमामालिनी है? कौन दो चोटी डालने वाली रेखा है? कौन जीनत अमान है और कौन परवीन बाबी? अब पहचान थोड़ी मुश्किल हो गई है. अब पता ही नहीं चलता क्योंकि सारी लड़कियां एक जैसी दिखती है. जिसे देखता हूं वह मुंह को आड़ा-तेड़ा करके सेल्फी लेते मिलती है और हर रोज मिलती है.

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रुमाल में फूल... स्वेटर और घरों में कैद तोते

क्या आपको कभी किसी लड़की ने फूल से कढ़ा रुमाल तोहफे में दिया है. चलिए रुमाल न सही... क्या आपको कभी प्रेमिका या पत्नी ने पलट जाने को कहकर स्वेटर का नाप लिया है? यदि ऐसा नहीं भी हुआ तो कोई बात नहीं...? क्या पहली बार जब आप शादी के लिए किसी लड़की को देखने गए तब लड़की की मां ने आपको दो तोते वाली तस्वीर दिखाकर यह कहा है- अमाई संगीता ने बनाई हे जे पेन्टिंग. खाना तो बहुते बढ़िया बनाती है. पेन्टिंग भी कमाल का बनाती है. अगर आपके साथ तीन घटनाओं में से कोई भी एक घटना नहीं हुई तो आपका जीवन बेकार है.

स्कूल और कालेज की किताबों में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं थीं इसलिए हमारा सारा ध्यान जन और उसकी संस्कृति की तरफ ज्यादा रहता था. अब भी रहता है. एक रोज स्कूल में अलीवर जेकब ने बताया कि उसे शोभा डे नाम की लड़की से प्यार हो गया है तो सुनकर अच्छा लगा क्योंकि शोभा डे लड़की ही ऐसी थीं कि हर कोई उससे प्यार कर सकता था. सिर पर नारियल का तेल चुपड़कर आती थीं और बेमतलब की बात पर रो देती थीं. मगर जब भी रोती थीं तो और प्यारी लगती थीं. बिल्कुल गीत गाता चल फिल्म की हिरोइन सारिका की तरह. अलीवर ने मुझसे मदद मांगी. अलीवर ने बताया कि उसने अपनी सिस्टर से शोभा के नाम का एक रुमाल बनवाया है. मैंने अंचभित होकर कहा- दीदी ने ऐसे कैसे बना दिया ? अली ने बताया कि उसने कहा है कि मुझे अपने दोस्त सोनी को देना है. अबे.... लेकिन मेरा नाम तो र... से आता है. अली ने तर्क दिया- आखिरी में स भी तो आता है न ?

तय हुआ कि मुझे अलीवर रुमाल देगा और शोभा के नाम का पहला अक्षर स...वाला रुमाल मैं शोभा को दूंगा. अपने प्रिय दोस्त के लिए इतना तो कर सकता था. मैंने शोभा को रुमाल दिया और शोभा ने उसे अपनी मां तक पहुंचा दिया. पाठक अब तक चंद्राकर गुरुजी के बारे में जा चुके है. तो मित्रों चंद्राकर गुरुजी ने कक्षा के बाहर मुर्गा बना दिया. मुर्गा मतलब जानते हैं न ? आज भी मुर्गा बनना तो याद आता है, लेकिन उससे कहीं ज्यादा रुमाल की याद आती हैं. क्या ऐसे किसी रुमाल को कभी देखा है आपने? जीवन में एक न एक बार तो ऐसा रुमाल आपको मिला ही होगा जिससे देखकर आपने नाक पौछने का इरादा अवश्य ही स्थगित कर दिया होगा.स्कूल में शोभा के अलावा एक दूसरी लड़की भी थीं जो रुमाल लाती थीं... मगर उस रुमाल में पाउडर की खूशबू भी रहती थीं.

दूसरी घटना भी रोचक है. हमारे बड़े भैया को शादी की बहुत जल्दी थीं. वहीं भैया जो छत पर - लाइफबाय है जहां तंदुरुस्ती. हैं वहां गाया करते थे. पिता की बगैर अनुमति के भी वे लड़की देखने के लिए चले जाया करते थे. एक रोज वे मुझे भी ले गए. लड़की वाले के घर पहुंच कर उन्होंने अपना मकसद बताया तो लड़की की मां ने खुश होकर कहा- अमाई लड़की को देखने के पहले यह तो देख लो कि लड़की क्या-क्या बनाती है? हमें कई तरह की पेंटिंग दिखाई गई. अमूमन हर पेंटिंग में दो तोते थे. बहुत बाद में भैया की शादी लखनादौन में हो गई लेकिन कई घरों में तोतों को कैद देखा. हर बार इन तोतों को देखकर सोचता रहा... न जाने कितनी लड़कियों को कितनी बार अंजान लोगों के सामने यह बताना पड़ा होगा कि इन महान तोतों को उन्होंने बनाया है. न जाने कितनी लड़कियों की मां ने अपनी लड़कियों का घर बसाने के लिए पड़ोसी से कप और बसी उधार मांगी होगी. न जाने कितने घरों में अब भी ये तोतें कैद है? न जाने ये तोते कब उड़ेंगे ? कुछ घरों में बटन वाली बत्तख तैर रही है. कुछ घरों में मोर नाच रहे हैं. पता नहीं बत्तख कब भागेंगी? मोर कब जंगल में नाचेंगे ?

अब थोड़ी सी बात उस स्वेटर की भी कर लेता हूं जिसे अमूमन हर महिला बनाना पंसद करती थीं. स्कूल में आधी छुट्टी के दौरान मैडम अपने बैग से ऊन का बड़ा गोला निकाल लेती थीं. स्कूल के बाहर भी यहीं दृश्य देखने को मिलता था. उन दिनों हर हाथ में ऊन का गोला देखकर यहीं महसूस होता था कि मैं एक ठंडे देश में रहता हूं. यह सही भी है उन दिनों ठंड भी कड़ाके की पड़ती थीं. जब छोटे थे तब किसी ने स्वेटर नहीं बनाया. एक रोज सोनू ( पत्नी ) ने पीछे पलट जाने को कहा और स्वेटर बनाने के लिए नाप लिया. मेरी पसंद के रंग का स्वेटर था. सूर्ख लाल. काफी दिनों तक चला भी यह स्वेटर.अब स्वेटर की जगह जैकेट ने ले ली है. अब सोनू अपनी पंसद की शर्ट लाने के लिए पलट जाने को कहती है. पलट तो जाता हूं लेकिन सामने लाल रंग का स्वेटर मुस्कुराते हुए नजर आता हैं.

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बिटको-बिनाका और...

अब आपसे कोई नहीं कहता होगा कि बेटा सुबह हो गई है चलो मंजन कर लो, लेकिन किसी वक्त मां चिल्लाती थीं और हाथों में बिटको का काला दंतमंजन थमा देती थी. मंजन काला अवश्य होता था मगर दांत सफेद हो जाते थे. अब बाजार में बिटको पहले आया या बिनाका टूथपेस्ट...इस बारे में कोई पुख्ता जानकारी मेरे पास नहीं है लेकिन दांतों को चमकाने के लिए इन दो ब्रांडों का इस्तेमाल खूब किया है. बीच में थोड़े समय के लिए फोरहेंस टूथपेस्ट भी आया था. यह पेस्ट बाजार से कब गायब हुआ पता ही नहीं चला.

बिनाका के बाद सिबाका ने भी अपनी जगह बनाई थीं. अब मंजन में शायद डाबर का लाल दंतमंजन ज्यादा लोकप्रिय है. इस मंजन को लोकप्रिय बनाने में टीपी जैन नाम के एक कलाकार का भी बड़ा योगदान है. टीपी जैन ब्लैक एंड वाइट टीवी में मंजन का विज्ञापन करते हुए नजर आते थे.उनका एक फेमस विज्ञापन यह भी था- भाड़ा नहीं देना है तो मकान खाली कर दो. मंजनों में बंदर छाप, विठोबा और वज्रदंती का भी बोलबाला रहा. फिल्मी परदे पर एक बूढ़ा अब भी अपने मजबूत दांतों से अखरोट तोड़ते रहता है. हालांकि काला दंतमंजन करने वालों को जब हिकारत की नजर से देखा जाने लगा तब बिनाका मेरी जिंदगी का हिस्सा बना.उन दिनों रेडियो पर अमीन सयानी बिनाका गीत माला प्रस्तुत करते थे. इस पेस्ट की लोकप्रियता शायद इस वजह से भी ज्यादा हो गई थीं. मुझे भी लगता था कि यार जिस पेस्ट को मैं इस्तेमाल करता हूं उस पेस्ट से हेमा मालिनी भी मुंह धोती है.उन दिनों अफवाह फैलाने वाले तंत्र नहीं थे. जैसे-तैसे यह सूचना मिल ही जाती थीं कि कौन हीरो क्या कर रहा है और कौन सी हिरोइन किस गुंताडे में हैं.ज्यादातर सूचनाएं सच के करीब होती थीं.

मुझे याद है कि जब घर में पहली बार बिनाका पेस्ट आया था तब हम पांचों भाई लाइन से अपनी-अपनी उंगली लेकर खड़े हो गए थे. पिता भी नाप-जोखकर सबकी उंगली में पेस्ट लगाया करते थे.पेस्ट को बड़े जतन से किसी ऊंची सी जगह पर संभालकर रख दिया जाता था.एक बड़ा सा बिनाका पेस्ट महीने भर चलता था, लेकिन एक रोज पिता ने जल्दी-जल्दी खत्म हो रहे पेस्ट को लेकर चिंता जताई तो चुगलखोर भाई ने उन्हें बता दिया कि राजू यानी मैं पेस्ट को खाता हूं. बात तो सही थीं. चुगलखोर भाई की वजह से मैं कई बार पीटा गया. हालांकि जब मेरी कुटाई हो जाती थीं तब चुपके से रात में भाई ही रोटी भी खिलाता था. रोटी खिलाने का उसका अंदाज बहुत ही शानदार था. उसे पता होता था कि रसोईघर में रोटी और सब्जी कहां रहती थीं.रात के अंधेरे में रोटी-सब्जी लाकर वह गाता था- जो खाने की चीज है लोग उसे खाते नहीं है...पेस्ट खाकर जूते खाते हैं और जरा भी शर्माते नहीं हैं. रात के अंधेरे में गाना सुनाने के लिए पिताजी उसे भी डांटते थे लेकिन मुझे लगता था कि एक तरह से वह मख्खनबाजी करके पिताजी को खुश कर लेता था और मुझे भूखा सोने भी नहीं देता था. उन दिनों मैं यह भी सोचता था कि यार...कोई ऐसा पेस्ट बनना चाहिए जिसे रोटी पर चुपड़कर खाया जा सकें. रोटी भी खा लेंगे और मुंह भी धुल जाएगा.

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केवल गब्बर का नहीं जनाब...मेरा अपना बिस्कुट भी है यह

जब डाकू गब्बर सिंह की पहली पसंद ग्लूकोज़ बिस्किट हो सकती थीं तो हमारी तो होनी ही थीं. शोले के अमजद खान उर्फ गब्बर को कौन नहीं जानता.फिल्मी खबरों पर रुचि रखने वाले लोगों का कहना हैं कि आम तौर पर हीरो या हिरोइन ही विज्ञापन किया करते थे. किसी कंपनी ने पहली बार एक खलनायक को विज्ञापन में लिया था, गब्बर सिंह से पहले शायद प्रेम चोपड़ा वैसलीन का विज्ञापन कर चुके थे, लेकिन किसी ने उन्हें नोटिस में नहीं लिया. गब्बर को नोटिस में लेने की एक वजह यह थीं कि उनका डायलॉग- कितने आदमी थे ? तेरा क्या होगा कालिया घर-घर पहुंच चुका था. बचपन में जो भी चीजें मिलती थीं उसका महत्व होता था. किसी ने मां को बता दिया था कि अगर बच्चों को ग्लूकोज़ बिस्किट खिलाया जाय तो उनमें ताकत बनी रहती है. बस... चावल के डिब्बे में, भगवान की फोटो के नीचे, या फिर आंचल में जहां कहीं भी चार आना-आठ आना होता बिस्किट खरीद लिया जाता था.

इस बिस्किट के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि इसे छोटा- बड़ा हर कोई खाता था. अब तो चाय के साथ काले-पीले और जीवन स्तर को ऊंचा दिखाने वाले कई तरह के बिस्किट परोसे जाते हैं, लेकिन पहले ग्लूकोज़ बिस्कुट ही दिया जाता था.अमीर हो गरीब... हर आदमी को पसंद था यह बिस्कुट. एक बार छोटे भाई के सिर में दर्द उठा. मां ने मुझे एनासिन लाने के मार्केट भेजा. सेक्टर छह भिलाई में तब मनोहर मेड़िकल स्टोर ही फेमस था. वहां पहुंचकर जैसे ही मैंने एनासिन मांगा, बंदर टोपी पहनकर बैठे हुए बूढ़े ने कहा- थोड़ा ठहरो...नाश्ता करने के बाद देता हूं. हम तो जब भी भूख लगती थीं शक्कर और रोटी खा लिया करते थे. पहली बार नाश्ते में किसी को बिस्किट खाते देख रहा था. एक छोटे से गिलास में चाय थीं और बूढ़ा एक-एक बिस्कुट को डूबा-डूबाकर खा रहा था. ग्लूकोज़ बिस्किट को खाने का अंदाज इतना प्यारा था कि पूछिए मत. बूढ़ा बिस्किट को आधा गीला करता और आधा हिस्सा सूखा रहने देता... और फिर झट से मुंह में डालकर मेरी तरफ ऐसे देखता जैसे मैं उसका बिस्किट लेकर भाग जाने वाला हूं. उसके चेहरे का भाव कुछ सवालिया भी था-क्यों बेटा कभी बाप जनम में बिस्किट खाया है ? नहीं खाया न ? बिस्किट का पूरा एक बड़ा पैकेट खत्म करने के बाद बूढ़े ने पूछा- अब बोलो क्या चाहिए. मैंने कहा- वहीं दे दो जो खा रहे थे.

घर आकर मैंने मां से कहा-एनासिन नहीं थीं, लेकिन मेडिकल वाले ने बताया कि ज्यादा भूखा रहने से भी सिर में दर्द उठता है.उसने बिस्किट खाने को कहा है. भाई को बिस्किट दे दे और दो बिस्किट मुझे भी देना...मेरे सिर में भी दर्द हो रहा है. दोस्तों... सब कुछ भूल सकता हूं लेकिन इस बिस्किट को नहीं भूल सकता. इस बिस्किट को खरीदने में मां के आंचल में बंधा हुआ चार आना-आठ आना काम आता रहा है. यह गब्बर का नहीं... मेरा अपना बिस्कुट है.

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एल्युमिनियम वाली स्कूल की पेटी

एल्युमिनियम वाली स्कूल की पेटी अब तो स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए एक से बढ़कर बस्ते आ गए हैं लेकिन जब मैं स्कूल में था तब कुछ ठीक-ठाक कमाई-धमाई करने वाले पालक अपने बच्चों को एल्युमिनियम वाली पेटी देकर ही स्कूल भेजा करते थे. मेरे पास ऐसी पेटी नहीं थीं. यह पेटी हमेशा से गरीब बच्चों के बीच काम्पलेक्स पैदा करती रही है. जो बच्चा एल्युमिनियम वाली पेटी लेकर आता था सब उसकी इज्ज़त करते थे. उस बच्चे की पेटी में कुछ न अनोखा अवश्य होता था. पेटी खोलते ही भगवान की फोटो देखने को मिलती थीं.भगवान को प्रणाम करके ही पढ़ाई चालू होती थीं. हमें भी लगता कि साला... जब तक एल्युमिनियम वाली पेटी में कापी किताब को सुरक्षित नहीं रखा जाएगा तब तक होशियार नहीं बन सकते.

इस पेटी में और भी कई तरह की खासियत थीं.पेटी खूबसूरत दिखती थीं. पेटी में किताब और कापी को बरसात से बचाया जा सकता था. उन दिनों ठीक-ठाक बारिश होती थीं. पेटी को लेकर आने वाला बच्चा बाल कलाकार सचिन लगता था. अगर कोई लड़की पेटी लेकर आती थीं तो फिल्म दो कलिया की नीतू सिंह नजर आती थीं. हमारे पास पेटी नहीं थीं इसलिए हम खुद को मुकंदर का सिकंदर वाला मास्टर मयूर समझते थे और हर पेटी वाले को साब... और पेटी वाली को मेमसाब कहते थे.

तो भैया एक रोज आधी छुट्टी में एक पेटी वाले साब और पेटी वाली मेमसाब के बीच राड़ा हो गया. मतलब झगड़ा हो गया. दोनों भिंड गए. झगड़े की वजह बेहद छोटी थीं. किसी मास्टर राजू टाइप के बाल कलाकार ने नीतू सिंह और मास्टर सचिन की पेटी की जगह बदल दी थीं. दोनों ने पहले एक-दूसरे का बाल खींचा और फिर पेटी लेकर टूट पड़े. पेटियां आपस में टकराती रही. खूब टकराई.किसी ने जाकर गुरुजी को बता दिया. वे भागते हुए आए.भारत के हस्तक्षेप के बाद युद्ध थम गया लेकिन पहली बार पता चला कि पेटी युद्ध से सिर पर गुमड़ निकल जाता है और जिसके सिर पर गुमड़ निकल जाता है वह हारकर भी जीत जाता है और हारकर जीतने वाला बाजीगर कहलाता है.

इस युद्ध में मास्टर सचिन हार गए थे लेकिन दूसरे दिन वे अपनी झगडालू मां को लेकर स्कूल पहुंच गए तो जीत गए. सचिन की मां अपने साथ अपनी बड़ी बेटी को लेकर स्कूल पहुंची थीं.मां-बेटी ने स्कूल में जमकर कोहराम मचाया. सचिन की मां ने चंद्राकर गुरुजी से साफ-साफ कहा-अगर उसके बेटे को कुछ हुआ तो पूरे स्कूल की चटनी बनाकर रख देगी.

तीसरे दिन डरते-सहमते नीतू सिंह की मां माला सिन्हा ( फिल्म दो कलिया में नीतू सिंह की मां माला सिन्हा ही थी. )  पहुंची. सचमुच बहुत खूबसूरत थीं माला सिन्हा. अपने को लगा यार... जिसकी मां खूबसूरत है उसकी बेटी तो खूबसूरत होगी ही. बेटी खूबसूरत होगी तो बेटी की पेटी कैसे बेकार हो सकती है.

...... लेकिन बेटी के युद्ध में सक्रिय ढंग से भाग लेने और मास्टर सचिन के सिर पर गुमड़ निकाल देने की शिकायत के बाद बाद माला सिन्हा ने नीतू सिंह को झोला थमा दिया था.

हालांकि झोला भी खूबसूरत था , लेकिन पेटी...पेटी थीं.

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मरफी का रेडियो और ग्रामोफोन पर गाना सुनने वाला कुत्ता

इस पोस्ट के साथ जिन दो चित्रों को आप देख रहे हैं उन चित्रों से मुझे अब भी प्यार हैं. खुर्शीपार भिलाई के मुर्गी छाप मकान में रहने के दौरान पहली बार ग्रामोफोन को देखने का अवसर मिला था. मेरे पिता गाना सुनने और गाने के शौकीन थे सो बंबई जाकर ग्रामोफोन ले आए थे. सुबह नींद भी नहीं खुली थीं कि घर में गाना बजने लगा. जो गाना बजा उसके रिकार्ड पर खूबसूरत कुत्ते का चित्र था. गाने के बोल थे-चुन-चुन करती आई चिड़िया... दाल का दाना लाई चिड़िया..। बहुत बाद में जाकर पता चला कि इस गाने को रफी साहब ने फिल्म अब दिल्ली दूर नहीं के लिए गाया था.

पिताजी अल-सुबह घर के बाहर ग्रामोफोन में गाना लगा दिया करते थे. आसपास के लोग भी हमारे घर गाना सुनने के लिए इकट्ठे हो जाया करते थे. ग्रामोफोन पर गाना सुनने के लिए हाथ से घुमाकर चाबी भरनी पड़ती थीं और एक नुकीली पिन का भी इस्तेमाल करना होता था. जब रिकार्ड घूमता था तो तेजी के साथ कुत्ता भी घूमने लगता था. अब जरा गौर से इस कुत्ते के चेहरे का भाव देखिए. लगता है कि जैसे गाना सुनकर वह तृप्त हो उठा है.वैसे कई बार इस चित्र को देखकर यह ख्याल भी आता रहा हैं कि जब एक कुत्ता संगीत से प्रेम कर सकता है तो फिर मनुष्य कैसे भागता है. सचमुच वे लोग कैसे होते हैं जिनके जीवन में संगीत नहीं होता.

बहरहाल चित्र में ग्रामोफोन के साथ जो कुत्ता नजर आ रहा है उसका असली नाम निप्पर था.यह कुत्ता मुफलिसी में दिन गुजारने वाले चित्रकार फ्रासिंस बरोड़ का दोस्त था. एक रोज जैसे-तैसे वे भी ग्रामोफोन ले आए. वे जब भी ग्रामोफोन बजाते थे कुत्ता सामने आकर बैठ जाता था. अपने कुत्ते की इस आदत को उन्होंने चित्र बनाकर कैद कर लिया. थोड़े दिनों बाद इसी चित्र ने फ्रासिंस की मुफलिसी दूर की. चित्र को अच्छे-खासे पैसे देकर रिकार्ड बनाने वाली कंपनी एचएमवी ने खरीदा था. जो कुत्ता लंदन में फ्रासिंस के साथ रहता था वह देश-दुनिया के करोड़ों लोगों के बीच पहुंच गया था.

दूसरा चित्र उस बच्चे का है जो मरफी के रेड़ियो पर अंकित था. मरफी भी एक विदेशी कंपनी थी. जब मरफी का रेड़ियो बाजार में आया तो इसने रातों-रात धमाल मचा दिया था. हर कोई मरफी का रेडियो खरीदना चाहता था. बताते है कि पहली बार भारत में फिल्म अभिनेत्री शर्मिला टैगोर ने इस रेडियो के लिए विज्ञापन किया था. इस विज्ञापन में शर्मिला ने कहा था- अगर आप दीवाली मनाने जा रहे हैं तो अपने घर में मरफी रेडियो ले आइए. अभी हाल के दिनों में यह जानकारी मिली कि मरफी रेडियो पर जिस बच्चे का चित्र अंकित था उसका नाम डॉ. कग्यूर टी रिनपोचे ठाकुर है. रिनपोचे लंबे समय तक बौद्ध भिक्षु भी रहे और फिर एक रोज उन्होंने राम तेरी गंगा मैली में काम करने वाली फिल्म अभिनेत्री मंदाकिनी से शादी कर ली है. इस मरफी बच्चे की दो संतान है. एक पुत्र राबिल ठाकुर का सड़क हादसे में निधन हो गया जबकि पुत्री राबजी इनाया साथ में रहती है.

वैसे जब मरफी रेडियो बाजार में आया तब सभी लोग कहते थे कि रेडियो में जिस बच्चे का चित्र अंकित है वहीं असली मरफी है, लेकिन सच्चाई यह है कि इस रेडियो के जन्मदाता का नाम फ्रैंक मरफी था. एक बार किसी ने मुझे बता दिया कि मरफी बेबी और उसके बाप का पूरा पता रेडियो के अंदर ही मौजूद रहता है. बस...फिर क्या था हमने चाकू-छुरा लेकर  रेडियो का पुर्जा-पुर्जा खोल दिया. बड़े-बड़े वाल्ब देखकर दिमाग घूम गया. हमारी भयानक किस्म की छानबीन की जानकारी चुगलखोर भाई को लग गई और उसने होशियारी झाड़ते हुए पिता जी को अवैज्ञानिक ढंग से की गई पड़ताल की पूरी जानकारी दे दी. अब आप समझ ही गए होंगे कि मेरे साथ क्या हुआ होगा?

 राजकुमार सोनी की फेसबुक वॉल से 

 

 

 

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