कला
हम सबको छोड़कर चल गए बिरजू महाराज
नई दिल्ली. जाने-माने कत्थक नर्तक पंडित बिरजू महाराज का रविवार देर रात को निधन हो गया. वो 83 वर्ष के थे. पद्म विभूषण सम्मान से सम्मानित बिरजू महाराज के निधन की जानकारी उनके पोते स्वरांश मिश्रा ने फ़ेसबुक पोस्ट के ज़रिए दी. उन्होंने लिखा-बहुत ही गहरे दुख के साथ हमें बताना पड़ रहा है कि आज हमने अपने परिवार के सबसे प्रिय सदस्य पंडित बिरजू जी महाराज को खो दिया. 17 जनवरी को उन्होंने अंतिम सांस ली. मृत आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें.
लखनऊ के कत्थक घराने में पैदा हुए बिरजू महाराज के पिता अच्छन महाराज और चाचा शम्भू महाराज का नाम देश के प्रसिद्ध कलाकारों में शुमार था. उनका शुरुआती नाम बृजमोहन मिश्रा था,नौ वर्ष की आयु में पिता के गुज़र जाने के बाद परिवार की ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई. फिर उन्होंने अपने चाचा से कत्थक का प्रशिक्षण लेना शुरू किया. कुछ अरसे बाद कपिला वात्स्यायन उन्हें दिल्ली ले आईं. उन्होंने संगीत भारती (दिल्ली) में छोटे बच्चों को कत्थक सिखाना शुरू किया और फिर कत्थक केंद्र (दिल्ली) का कार्यभार भी संभाला.
उन्होंने कत्थक के साथ कई प्रयोग किए और फ़िल्मों के लिए कोरियोग्राफ़ भी किया. बिरजू महाराज ने देवदास, डेढ़ इश्किया, उमराव जान और बाजी राव मस्तानी जैसी फिल्मों के लिए डांस कोरियोग्राफ किया था. इसके अलावा इन्होंने सत्यजीत राय की फिल्म शतरंज के खिलाड़ी में संगीत भी दिया था.
अखर गया रंगकर्मी उषा गांगुली का यूं ही चले जाना
अख्तर अली आमानाका रायपुर 9826126781
उषा गांगुली नहीं रही ..... कुछ समाचार ऐसे होते हैं जिन पर सहसा विश्वास नहीं होता ध्यान तुरंत इस बात पर जाता है कि कहीं यह फेक न्यूज़ तो नहीं है ? आज सुबह जब विख्यात रंगकर्मी उषा गांगुली के निधन का समाचार मिला तो सम्पूर्ण नाट्य जगत हिल गया. कोई भी इस सच को स्वीकार करने के लिए तैयार नही था. हर कोई इस खबर की सत्यता जानने में इस उम्मीद के साथ व्यस्त हो गया कि अभी उसे कोई बताएगा कि - नही, उषा जी तो एकदम स्वस्थ है, लेकिन इस दुनियां के रंगमंच में हमारी पसंद को ध्यान में रख कर कथानक नही बुना जाता, कथ्य और शिल्प उस सर्व शक्तिमान के द्वारा ही रचे जाते है ,लेखन और निर्देशन दोनों ईश्वर का होता है.
आज प्रातः उषा की किरणों के साथ रंगमंच की यह उषा निशा हो गई . कोलकाता के लिए ही नही बल्कि पूरे देश के रंगमंच में बहुत से दा के बीच यह दी अपनी नाट्य प्रस्तुतियों से लगातार रंगमंच को समृद्ध कर रही थी. उषा गांगुली आधुनिक रंगमंच की महत्वपूर्ण स्तंभ थी. उषा जी ने साबित किया था कि नाटक लिखने के कारण नही खेलने के कारण स्वीकार किए जाते हैं. नाटक का शिल्प ही उसके कथ्य को स्थापित करता है.
जिन लोगों ने उषा जी का नाटक "काशीनामा" देखा है वे स्वीकारते हैं कि यह वह नाटय प्रस्तुति थी जिसे देखने के बाद सैकड़ों लोगों ने रंगकर्मी बनना चाहा. काशीनामा सिर्फ एक नाटय प्रस्तुति भर नही थी, यह अपने आप में एक प्रशिक्षण शिविर थी जिसे देख कर नये रंगकर्मियों ने जाना कि स्किप्ट के साथ निर्देशक का ट्रीटमेंट कैसा होना चाहिए. दृश्यों की बुनावट, सजावट कैसी हो, अभिनेता को दृश्य में प्रवेश कैसा कराया जाए. प्रकाश के बिम्ब और संगीत के ज़रिए प्रस्तुति को किस तरह उंचाई प्रदान की जा सकती है इन सब का बहुत अच्छा उदाहरण थी उषा गांगुली की नाटय प्रस्तुति " काशीनामा "
रूदाली एक अन्य ऐसी नाट्य प्रस्तुति साबित हुई जिसने अभिनय के नये आयाम पेश किए. अभिनय मे शरीर के इस्तेमाल का क्या महत्व होता है , संवाद की अदायगी में स्वर का कैसा उतार चढ़ाव हो. घटना के अनुसार वाणी का लहजा कैसे परिवर्तित किया जाए. मंच पर जब वो रोती है तो उनके शरीर का हर अंग रोता और जब वह गरजती तो उनका अंग अंग गरजता . जब उषा जी मंच पर होती तो यह साबित कर देती थी कि अभिनय के कार्य में बुद्धि मालिक और शरीर नौकर होता है.
एक और नाटक जिसे हिंदी रंगमंच में पिछले दो तीन दशकों से बहुत सम्मान मिल रहा है वह है " कोर्ट मार्शल " , उषा जी के निर्देशन में जब यह नाटक खेला गया तो फिर इस नाटक को खेलने की होड़ मच गई थी. हर रंगकर्मी की ख़्वाहिश हो गई थी कि वह कोर्ट मार्शल का हिस्सा बने. ऐसे ही एक अन्य नाटक ने उषा जी ने खूब उंचाई दी थी वह था "महाभोज". उषा जी के सम्पूर्ण रंगमंच का अध्ययन किया जाये तो यह बात साफ़ नज़र आती है कि उन्होंने प्रसिद्ध नाटकों का मंचन ही नहीं किया बल्कि उषा जी के नाटक करने की वजह से कई नाटक प्रसिद्ध हुए.
उषा गांगुली के नाटकों की चर्चा में सिर्फ उसके कलात्मक पक्ष की ही बात करेगे तो बात अधूरी रह जायेगी. जब हम उनके स्किप्ट चयन पर ध्यान देते हैं तो पाते हैं कि उनका विचारात्मक पक्ष भी काफी महत्वपूर्ण है. उनके लिए रंगकर्म मात्र कला का प्रदर्शन नही था बल्कि नाटकों के माध्यम से वे सामाजिक ज़िम्मेदारियों का निर्वाह भी करती थीं.
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27 जनवरी को रायपुर में हंसाने आ रहे हैं देश के पहले स्टैंडअप कॉमेडियन केके नायकर
रायपुर. स्काईलैब क्यों और कैसे गिरने वाला था? क्या होता है अंग्रेजी फिल्म के ट्रेलर में ? नल पर झगड़े के दौरान कौन किस भूमिका में रहता है? चाट की दुकान पर जब लड़कियां गुपचुप खाती है तो उनके मनोभाव क्या होते है? अगर दिल को गुदगुदाने वाली इस हकीकत से आप वाकिफ नहीं है तो एक बार आपको केके नायकर को अवश्य सुनना चाहिए. अपनी मौलिक और अद्वितीय आब्जर्वरवेशन क्षमता से जनसामान्य को भौंचक कर देने वाले देश के पहले स्टैंडअप कॉमेडियन नायकर कई सालों के बाद एक बार फिर अपने चाहने वालों से रू-ब-रू होने जा रहे हैं. अपना मोर्चा डॉट कॉम और शिक्षादूत प्रकाशन की ओर से आयोजित नायकर अभी जिंदा है...नामक कार्यक्रम 27 जनवरी की शाम ठीक साढ़े सात बजे शहीद स्मारक भवन में होने जा रहा है. कार्यक्रम के मुख्य अतिथि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल होंगे जबकि अध्यक्षता पंचायत एवं स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव करेंगे. कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि नगरीय निकाय मंत्री शिव डहरिया, पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल और वरिष्ठ पत्रकार मोहन राव होंगे.
फूहड़ हास्य के भयावह दौर में भले ही नई पीढ़ी केके नायकर से वाकिफ नहीं है, मगर देश की एक बड़ी आबादी केके नायकर को सुनते-समझते बड़ी हुई है. जब बड़े- छोटे एलपीजी रिकार्ड और कैसेट का दौर था तब हास्य-व्यंग्य के हर मंच पर केके नायकर की तूती बोलती थी, लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब नायकर पीछे धकेल दिए गए. हास्य-व्यंग्य के प्रायोजित बाजार ने उन्हें गुमनामी के अंधेरे में जीने के लिए मजबूर कर दिया. यदा-कदा जब वे याद किए गए तो लोगों के जेहन में सबसे पहला सवाल यहीं उठा- अरे... क्या वे जिंदा है ? सच तो यह है कि हास्य में शुद्धता की रक्षा के लिए संघर्षरत नायकर अब भी जिंदा है और पूरे जोशों-खरोश के साथ अपनी नई पारी खेलने को तैयार है. खुशी की बात यह है कि अपनी नई पारी के शुरूआत वे रायपुर से करने जा रहे हैं. कार्यक्रम में सेक्सोफोन की दुनिया टीम से जुड़े सेक्सोफोनिस्ट विजेंद्र धवनकर पिंटू, लीलेश, सुनील कुमार और साथियों की भी खास प्रस्तुति देखने को मिलेगी.
जब भी अंतिम सांस लूं...तो पहली खबर छत्तीसगढ़ से ही छपनी चाहिए- नायकर
गिरीश पंकज
ऐसा कौन होगा जिसने स्टैण्डप कॉमेडी के बादशाह केके नायकर का नाम न सुना हो? नायकर साहब 27 जनवरी 2020 को रायपुर आ रहे हैं. उनके आगमन से पहले प्रख्यात साहित्यकार गिरीश पंकज ने अपना मोर्चा डॉट कॉम के पाठकों के लिए एक खास लेख भेजा है. यह लेख नायकर साहब की जिंदादिली को जानने-समझने के लिए काफी है.
जबलपुर शहर हिंदी व्यंग्य सम्राट हरिशंकर परसाई के लिए जाना जाता है। उसी तरह यह शहर कुछ हास्य कलाकारों के लिए भी जाना जाता है। इसमें दो नाम बेहद महत्वपूर्ण हैं। एक हैं केके नायकर और दूसरे कुलकर्णी-बन्धु । इन दोनों ने देशभर में अपनी हास्य प्रतिभा से जबरदस्त धूम मचाई। लेकिन केके नायकर (कृष्णकुमार नायकर) की अपनी अलग से विशिष्ट पहचान है क्योंकि उन्होंने हास्य की विशुद्ध एकल प्रस्तुतियां ही दीं। नायकर हास्यकला की वन मैन आर्मी कहे जा सकते हैं। 'स्टैण्डप कॉमेडी' यानी खड़े होकर मिमिक्री या हास्य कार्यक्रम प्रस्तुत करने का चलन तो टीवी के माध्यम से जोर पकड़ा लेकिन नई पीढ़ी को शायद पता न हो कि यह सिलसिला पाँच दशक पहले केके नायकर ने ही शुरु किया था । वर्ष 1968 में पहली बार उन्होंने जबलपुर के एक सार्वजनिक मंच पर अपना कार्यक्रम दिया था। फिर वह सिलसिला आज तक नहीं रुका । अकेले दो घंटे मंच पर खड़े होकर लोगों को हँसाना, मिमिक्री करना बहुत बड़ी बात है। और वह भी विशुद्ध मौलिकता के साथ। आज हिंदी के कवि सम्मेलनों में तथाकथित कवि चुटकुले सुनाकर लोगों को हँसाते हैं लेकिन केके नायकर ने कभी चुटकुलों का सहारा नहीं लिया। वरन उन्होंने चुटकुले या कथाएँ खुद गढ़ी और उन्हें बेहद कलात्मक तरीके से भाव भंगिमाओं के साथ प्रस्तुत किया। केके नायकर जी ने अपने शिष्ट हास्य के बल पर पूरे देश में अपनी पहचान बनाई। जो एकदम नए युवा है, वे उनके नाम से भले परिचित न हो लेकिन जिनकी उम्र चालीस और उसके बाद की है, वे नायकर को सुनकर बड़े हुए हैं । मेरे जैसे अनेक लोग केके नायकर का नाम सुनकर उनको सुनने जाते रहे और हंसते- हंसते लोटपोट होते रहे हैं। नायकरजी की विशेषता यही है कि वे खुद नहीं हँसते, उनकी साभिनय प्रस्तुति पर लोग हँसते हैं। उनकी प्रस्तुति, अभिनय की अदा, कहने का ज़बरदस्त अंदाज हँसने पर मजबूर कर देता है । कभी वह बच्चों की आवाज निकालते हैं, कभी बूढ़ों की, तो कभी लड़कियों की । पशु -पक्षियों की आवाजें और विभिन्न सामाजिक चरित्रों की जीवंत -सटीक आवाजें भी। यह कला उनमें बचपन से ही आ गई थी, जब फिल्मी कलाकारों की आवाजें निकालकर वे अपने मित्रों को सुनाया करते थे। गुपचुप के ठेले पर खड़ी लड़कियों की बातचीत जब नायकर प्रस्तुत करते हैं, तब ऐसा लगता है कि वह आंखों देखा हाल ही प्रस्तुत कर रहे हैं । एक कलाकार की सूक्ष्म दृष्टि देखनी हो तो नायकर जी की प्रस्तुतियों में देखी जा सकती है। केके नायकर के जितने भी आइटम होते हैं, उनमें जबरदस्त हास्य तो रहता ही है मगर हास्य के पीछे व्यंग्य की अंतरधारा भी प्रवहमान रहती है।
नायकर... नाम ही काफी है
मेरा सौभाग्य है कि केके नायकर जी से पिछले दिनों आत्मीय परिचय हुआ। उसके पीछे बड़ा कारण यह रहा कि एक बार मैंने जन कवि आनंदीसहाय शुक्ल पर एक लंबा लेख लिखा था। वह लेख मंच के सुपरिचित कवि सुरेश उपाध्याय के माध्यम से केके नायकर तक पहुंचा, तो उन्होंने मुझे बधाई देने के लिए फोन लगाया।" मैं केके नायकर बोल रहा हूं" यह सुनकर ही मैं अभिभूत हो गया। उन्होंने बहुत देर तक मुझसे बातें की और और आनंदीसहाय शुक्ल पर लेख लिखने की भूरि- भूरि प्रशंसा की । उसके बाद उनसे संवाद का सिलसिला शुरू हो गया। मैंने बातों-बातों में उनसे कुछ और जानने की जिज्ञासा व्यक्त की, तो उन्होंने कई महत्वपूर्ण बातें बताई, जिसमें से कुछ यहां प्रस्तुत करना चाहता हूं। एक रोचक किस्सा नायकर जी ने मुझे बताया कि बहुत पहले की बात है। उनकी बहन को नौकरी के सिलसिले में इंटरव्यू देने भोपाल जाना था। बहन का साथ देने के लिए नायकर भी भोपाल पहुंच गए। बहन को इंटरव्यू के लिए कक्ष में बुलाया गया । नायकर बाहर ही बैठे रहे । इंटरव्यू लेने वाले ने उनकी बहन के नाम के साथ नायकर देखा तो उन से पूछा, " क्या आप केके नायकर को जानती हैं ?" तो उनकी बहन ने कहा कि "वे मेरे भाई हैं । बाहर ही बैठे हैं"। इतना सुनना था कि इंटरव्यू लेने वाला उछल गया और बोला, "उन्हें फौरन बुलाइए"। केके नायकर भीतर आए और बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। इंटरव्यू लेने वाले ने उनसे आग्रह किया कि अपने एक- दो आइटम यहां पेश कीजिए। नायकर जी ने आइटम पेश किए। जिसे सुनकर के वहां बैठे सब लोग बड़े प्रसन्न हुए । उसके बाद इंटरव्यूकर्ता ने उनकी सिस्टर से कहा, " ठीक है । अब आप जा सकती हैं "। बाहर निकल कर के बहन ने भाई से कहा कि " मेरा तो इंटरव्यू हुआ ही नहीं। पता नहीं मेरी नौकरी का क्या होगा?" नायकर जी ने मुस्कुरा कर कहा, "तुम चिंता मत करो। तुम्हारा सिलेक्शन हो जाएगा।" और कुछ दिन बाद बहन का सिलेक्शन डिप्टी कलेक्टर के रूप में हो गया। यह घटना यह समझने के लिए पर्याप्त है कि केके नायकर की लोकप्रियता का आलम क्या था। ऐसी अनेक घटनाएं नायकर जी के साथ जुड़ी हुई है। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर एक बार हाजी मस्तान ने भी उन्हें कार्यक्रम पेश करने के लिए मुंबई बुलाया था।
नौकरी छोड़कर स्वतंत्र जीवन
केके नायकर जी ने बताया कि वे रेलवे में वेलफेयर इंस्पेक्टर थे । सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था लेकिन एक बार एक उच्चाधिकारी की किसी बात से वे आहत हुए और 1983 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी। नौकरी छोड़ने के बाद उनके सामने घर परिवार चलाने की चुनौती थी, लेकिन यह वह दौर था, जब उनकी डिमांड काफी थी। सो जगह-जगह जाकर अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करने लगे। वह सिलसिला लंबे समय तक निरंतर बना रहा । नायकर अमीन सयानी को अपना आदर्श मानते हैं।वह भावुक हो कर कहते हैं "अमीन सयानी प्रसारण जगत के महात्मा गांधी है" । नायकर इस बात को लेकर संतुष्ट हैं कि आज भी नई पीढ़ी के कुछ हास्य कलाकार उनको आदर सम्मान देते हैं । टीवी के आने के बाद नायकर जी धीरे धीरे लोकप्रियता के नेपथ्य में जरूर चले गए लेकिन कहावत है कि शेर जितना भी बूढ़ा हो जाए दहाड़ना नहीं भूल सकता। शेर का महत्व कम नहीं होता । उसी तरह नायकरजी का भी महत्व कम नहीं हुआ है ।आज भी लोगों के निमंत्रण पर वे कार्यक्रम प्रस्तुत करने जाते हैं और उनकी मिमिक्री हंसा हंसा कर लोटपोट कर देती है। उन्हें इस बात की पीड़ा है कि उन्हें जितना सम्मान मिलना चाहिए था, नहीं मिल सका। खासकर सरकारों की ओर से । वह बताते हैं कि अनेक मंत्री उनसे मिलते रहे, उनकी तारीफ भी करते रहे, लेकिन कभी उनको वह सम्मान नहीं दिया, जिसके वे हकदार थे। लेकिन नायकर जी ने कहीं जाकर आग्रह नहीं किया। जनता से उन्हें जो सम्मान मिला,वह उनके लिए सर्वोच्च है। बातों बातों में उन्होंने कहा कि "मैं पूरी तरह से मौलिक कलाकार हूं। लेकिन आजकल नक्कालों का जमाना है । अब लोग गोबर खाद नहीं यूरिया पसंद करते हैं। औरतें भी नकली सोना पहन कर खुश हो लेती हैं । नकलीपन हमारे जीवन के केंद्र में आ गया है ।असल के प्रति लोगों का मोहभंग हो चुका है ।"
छत्तीसगढ़ से गहरा लगाव
केके नायकर ने बीते दिनों को याद करते हुए कहा कि छत्तीसगढ़ से उन्हें जबरदस्त प्रेम मिला। इसलिए मैं छत्तीसगढ़ को कभी भूल नहीं सकता। उनके इस कथन से मैं क्या सभी सहमत होंगे क्योंकि मैंने और तमाम मित्रों ने सैकड़ों बार उनको छत्तीसगढ़ में विभिन्न मंचों से मिमिक्री पेश करते हुए सुना ही है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद वे छत्तीसगढ़ के पहले विधानसभा अध्यक्ष पंडित राजेंद्र शुक्ला के निमंत्रण पर नायकर रायपुर पधारे थे और अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया था। मुझसे बात करते हुए उन्होंने पिछले दिनों कहा था कि "जब भी मैं अंतिम सांस लूं, तो पहली खबर छत्तीसगढ़ से ही छपनी चाहिए ।" यह कथन उनके अटूट छत्तीसगढ़ प्रेम को दर्शाता है। जीवन के सत्तर बसंत पार कर चुके नायकरजी की आवाज में आज भी वही कोमलता है, जो पाँच दशक पहले थी। हिंदी साहित्य जगत में पंडित गोपालप्रसाद व्यास को 'हास्य रसावतार' कहा जाता है, लेकिन मंच के 'हास्यवतार' के रूप में मैं केके नायकर का नाम लूँगा। यह कुछ अतिश्योक्ति लग सकती है लेकिन सच्चाई यही है कि मंच के माध्यम से अगर किसी एक व्यक्ति ने अकेले खड़े होकर ज़बरदस्त मिमिक्री पेश की, तो उसका नाम है, केके नायकर। वे इसी तरह निरन्तर हँसाते-गुदगुदाते रहें, यही हम सब की शुभकामना है।
क्या आप केके नायकर को जानते हैं ?
यह कैसा अजीब सा सवाल है कि क्या आप केके नायकर को जानते हैं? भई जो भी हंसना जानता है वह केके नायकर को जानता है. देश के पहले स्टैंडअप कॉमेडियन केके नायकर पहले भी जबलपुर में रहते थे और अब भी जबलपुर में ही रहते हैं. वे चाहते तो फिल्मी दुनिया में अपना एक खास मुकाम बना सकते थे, लेकिन प्रोग्राम करते-करते उन्हें यह ख्याल ही नहीं रहा कि मुंबई में पैसों की बारिश होती है. बीच में उनका पारिवारिक जीवन उथल-पुथल से भरा रहा. पहली पत्नी से आपसी सामंजस्य नहीं बैठ पाने के कारण वे पूरी तरह से सड़क पर आ गए थे, लेकिन फिर जैसे-तैसे उन्होंने अपने आपको संभाला और अब इन दिनों एक बार फिर से सक्रिय है. चाहे राजू श्रीवास्तव हो या फिर कॉमेडी किंग जॉनी लीवर...सब मानते हैं कि अगर केके नायकर नहीं होते तो वे यह कभी नहीं जान पाते कि स्टैंडअप कॉमेडी क्या होती है. इप्टा के वरिष्ठ साथी दिनेश चौधरी उन पर एक किताब लिखने जा रहे हैं. हाल के दिनों में उन्होंने पर अपने फेसबुक वॉल पर दो किस्त लिखी है. अपना मोर्चा डॉट कॉम के पाठकों के लिए यहां वह किस्तें प्रस्तुत हैं-
( एक ) जर्रा बुलंदी को छूने निकला था
एक बार चार्ली चैपलिन के अभिनय की नकल करने की प्रतियोगिता रखी गई । नजरें बचाकर खुद चार्ली भी इस में शामिल हो गए। चार्ली चैपलिन को इस प्रतियोगिता में तीसरा स्थान मिला। किसना की कथा भी कुछ यूँ ही है।
अपने जमाने में किसना का रुतबा किसी सुपर स्टार से कम नहीं था। उन दिनों जब कैसेट प्लेयर गलियों और नुक्कड़ों के पान ठेलों में बजते थे तब गब्बर सिंह के साथ एक आवाज और सुनाई पड़ती थी। इस एक आवाज में कई आवाजें होती थीं। यह एक तरह से कई किस्म की आवाजों का कोलाज होता था। आवाजें कुछ ऐसी जीवंत होतीं कि साफ-साफ दिखाई पड़ने लगतीं। कुछ यूँ कि इतने साफ दृश्य भी नज़र न आते हों। फिर न जाने क्या हुआ कि यह आवाज एक चुप्पी में बदल गई। बहुत गहरी और लम्बी चुप्पी। लोगों ने इस आवाज को ढूंढने की बहुत कोशिश की, पर वह कहीं नजर नहीं आई। इस गुमशुदगी की वजह से खाली हुई जगह को भरने के लिए फिर बहुत से लोग आए। ये वही लोग थे जो चार्ली की नकल करने आए थे और नकल करने का उनका फन असल से बेहतर माना गया।
यह वह दौर था जब एक तिलस्मी बक्सा लोगों के घरों में घुस आया था और जब तक इसका तिलिस्म टूटता, लोगों के पाँवों में जंजीर पड़ चुकी थी।लोग अपने ही घरों में अपनी मर्जी से कैद हो गए। सामूहिकता खत्म हो गई और सब तरह की महफिलें सूनी हो गईं। बक्से के रास्ते बाजार ने घरों में सुरंग बना ली और फिर पूरे समाज को एक ओर धकिया दिया। वह खेल, संस्कृति व उत्सवों से लेकर कलाओं की दुनिया में काबिज हो चुका था। जो चारण नहीं थे उन्हें कला की दुनिया से बाहर धकेलना का सिलसिला शुरू हो गया था और समझदारों ने अपनी कमीज जानबूझकर थोड़ी मैली कर ली थी। कलाफरोश ही कला के सबसे उत्कृष्ट आलोचक मान लिए गए थे और इसके नाम पर जो कुछ भी परोसा जाने लगा वह फूहड़, सुरुचिहीन और एक हद तक अश्लील होने लगा था।
ठीक इसी दौर में किसना एकाएक सड़क पर आ गया था। गाड़ी-बंगला सब धरे रह गए। ऊपर, बहुत ऊपर छत के नाम पर आसमान रह गया था और पैरों तले जमीन खिसक चुकी थी। बाहरी दुनिया से सम्पर्क कट गया, जैसे डूबे हुए जहाज से बचा हुआ कोई सैलानी किसी अनजान टापू की शरण में जा पहुँचा हो। टेलीफोन- मोबाइल कुछ नहीं। सिर्फ एक अटैची, जो एक परिचित के यहाँ धरी थी। जेब में फ़क़त 80 रुपये। सोना-नहाना रेलवे स्टेशन में। कोई परिचित देखता तो सोचता कि कहीं प्रोग्राम करने जा रहे होंगे। ये दिन देखना भी शायद उनकी नियति में बदा था, जो इंसान के वश में नहीं होता। जीवन में सब कुछ वैसा नहीं चलता, जैसा आप सोचते या चाहते हों। कभी-कभी जिंदगी आपको अपने तरीके से हाँकती है और उसका रुख क्या होगा, यह पहले से पता नहीं होता।
दुनिया को हँसने-हँसाने का हुनर बाँटने वाले किसना उर्फ कृष्णा भैया उर्फ के के नायकर अगर अपनी निजी जिंदगी में एक त्रासदी का शिकार न होते, तो लोग भी अपने जीवन के कुछ बेहतरीन पलों से महरूम न होते। के के नायकर हिंदुस्तान में बस एक ही है। ये जबलपुर के पानी की खासियत है कि यहाँ जो हुआ एक ही हुआ, कोई जोड़ नहीं। एक ओशो, एक परसाई, एक योगी, एक नायकर। यह वो शहर है, जहाँ मुर्गी के अंडों का अविष्कार भी दुबेजी करते हैं।
नायकर के माता-पिता तमिलनाडु से यहाँ आ बसे थे। शुरुआती पढ़ाई 'लाल स्कूल' में हुई। स्कूल की दीवार के रंग के कारण यह नाम रख दिया गया था और प्रचलित भी हुआ। इसी लाल स्कूल के नाम पर एक रोचक वाकया हुआ। हिंदी के एक हास्य-कवि को अपनी किताब का विमोचन मशहूर फ़िल्म निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी से कराना था। हृषिकेश तब 80 की उम्र में पहुँच चुके थे और बिस्तर पर थे। कविवर अपने चार मित्रों के साथ, जिनमें एक नायकर भी थे, मुखर्जी दा के फ्लैट में पहुँचे। उन्होंने अपना बंगला बेच दिया था और फ्लैट के एक कमरे में नर्सेस उनकी तिमारदारी में लगी हुई थीं। कुल 5 मिनटों का समय दिया था। विमोचन की कारवाई के लिए रिबन खोला गया। ताली बजी। परिचय हुआ। सबसे आखिर में नायकर का। जबलपुर के नाम से उनके कान खड़े हो गए। कहा, " जबलपुर के गुरन्दी मार्केट में चूसने वाले आम अब भी मिलते हैं? तब दो रुपये में एक टोकरी मिल जाया करती थी।" नायकर ने कह,"हाँ, पर अब थोड़े महंगे हो गए हैं।" फिर उन्होंने पूछा, " अच्छा, गढ़ा में सीताफल मिलते हैं?" नायकर ने कहा, " हाँ! पर दादा....जबलपुर में भेड़ाघाट है, धुंआधार है, पास में कान्हा किसली है.. आप उन्हें छोड़कर गुरन्दी मॉर्केट, चूसने वाले आम और सीताफल के बारे में पूछ रहे हैं।" मुखर्जी दा ने कहा, "चौथी कक्षा तक मेरी पढ़ाई लाल स्कूल में हुई थी..।" नायकर ने उनके पैर पकड़ लिए और कहा कि, " आप मेरे सीनियर हुए, मैंने भी यहीं पढ़ाई की है।" 5 मिनटों की मुख्तसर मुलाकात कोई घण्टे भर तक फैल गई। आगे नायकर के किसी कैसेट का राज भी खुला जो मुखर्जी दा ने सुन रखा था। कहा, " बॉम्बे में पहले लक चलता है, फिर टैलेंट.. अगर पहले मिलते तो तुम मेरी फिल्मों में होते।"
यों नायकर ने मुंबई की ओर रुख करने के बारे में कभी सोचा भी नहीं। एक तो पारिवारिक जिम्मेदारियां बड़ी थीं। दूसरे सिने इंडस्ट्री की कला 'मांग और आपूर्ति' के सिद्धांत पर चलती है। वे अपनी कला को खुदा की नेमत मानते हैं, सो इसकी शुद्धता के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहते थे। जिन्होंने उन्हें देखा-सुना है, वे जानते हैं कि उन्होंने अपने कंटेंट में कभी भी अश्लील अथवा फूहड़ चीजों का समावेश नहीं किया। इन्हें वे उथले पानी के बुलबुले की तरह कहते हैं, जो बस कुछ ही पल में हमेशा के लिए खत्म हो जाते हैं। दूसरी ओर झील की गहराई में फेंका गया कंकड़ जो लहरें पैदा करता है, वे दूर तक जाती हैं और देर तक रहती हैं।
उन्होंने अपने आत्म-सम्मान के साथ भी कभी समझौता नहीं किया। इसी वजह से शादी-ब्याह में कार्यक्रम वाले न्योतों को भी ठुकराते रहे। बस दो मौके ऐसे आए जब वे इंकार न कर सके। एक तो एक लड़के के बाप ने बताया कि लड़के ने कसम खा रखी है कि शादी तभी करेगा, अगर नायकर साहब आएंगे। यह धर्मसंकट था। वे नहीं चाहते थे कि उनकी वजह से एक लड़का आजीवन कुंआरा रह है। उन्होंने शर्त रखी कि कार्यक्रम बरातियों-घरातियों के लिए नहीं होगा। जब वे खाना खाकर विशुद्ध दर्शक में तब्दील हो जाएँ, तभी होगा। शर्त मान ली गई पर लड़के के बाप ने मानी थी, बाकियों को क्या मतलब। रात्रि-भोज देर तक चलता रहा। कोई एक बजे के आसपास जब फुर्सत हुई तो कार्यक्रम शुरू हुआ। शादी में दूल्हा बेचारा सबसे दयनीय प्राणी होता है। सब घेरे हुए होते हैं। कुदरती आवाजों को भी अनसुना करना पड़ता है। बेतरह थका हुआ था। इधर कार्यक्रम शुरू हुआ और उधर आँखे मूँदने लगीं। नायकर साहब ने दूल्हे के बाप को यह नजारा दिखाया और यह कहते हुए कि 'कसम तो पूरी हो गई', अपनी दुकान समेट ली।
दूसरा मौका ऐसा था, जब इनकार करना मुमकिन न था। बुलावा मुंबई से हाजी मस्तान का था। बताने की जरूरत नहीं कि तब हाजी मस्तान का रसूख क्या हुआ करता था। कलाकार को पकड़ लाने के एक आदमी को जबलपुर भेज दिया गया था। जहाँ ठहराया गया वहाँ खिड़की से झाँककर देखा तो पाया कि मेहमान खाने-पीने में मस्त हैं और फ़िल्म अभिनेता जॉनी लीवर उनके मनोरंजन में मस्त हैं। साथ वाले सिपहसालार ने पूछा, 'भाई, तुमको भी प्रोग्राम करना मांगता क्या?' नायकर साहब का गला सूख गया। कहा, 'नहीं, मुझे थोड़े ज्यादा स्पेस की जरूरत होती है।' भाई ने कहा, ' बोले तो स्टेज माँगता?' नायकर ने कहा, 'हाँ।' जवाब मिला, 'कल मिलेंगा!' किसी तरह जान बची। जिज्ञासावश भाई से पूछा, ' मस्तान साहब का घर कहाँ है?' जवाब मिला, ' अख्खा मुंबई में उनका घर है। कौन-सा देखना मांगता?'
अगले दिन स्टेज पर पहुँचे तो दिलीप कुमार और सायरा बानू सामने बैठे हुए थे। साथ में संजय खान भी थे। दमकता हुआ स्टेज, भारी चकाचौंध, कैमरे और कैमरे। जब तक उन्होंने माइक सम्भाला, हाजी मस्तान ने दिलीप कुमार और सायरा को दोनों बाहों में समेट लिया। बेटी से मिलवाया और इसी तरह विदा भी किया। अभी उन्हें छोड़ा भी न था कि नायकर के गले से इंदिरा गांधी की आवाज फूटने लगी। हाजी मस्तान की आँखे बदहवास यहाँ-वहाँ दौड़ने लगी। यह दिल्ली वाली आवाज कहाँ से आ रही है? जब मुआमला समझ में आया तो मंच पर आकर नायकर को समेट लिया। दर्जनों कैमरों के फ्लैश चमक उठे। कोई और होता तो इस मौके को फिल्मी दुनिया में प्रवेश के लिए भुना लेता। नायकर ने अगले दिन अपना बोरिया-बिस्तर समेटा और वहाँ से निकल लिए।
इंदिरा गांधी की आवाज उनके गले से बाकमाल निकलती है। मीना कुमारी, वहीदा रहमान और सायरा बानू को भी सुना जा सकता है। फेहरिश्त बनाने से बेहतर है यह कहना कि दुनिया की ऐसी कोई आवाज नहीं है, जो उनके कंठ से न फूटती हो। हाँ, कभी-कभी वे अपनी आवाज भूल जाते हैं। बचपन में उन्हें संगीत सीखने का शौक चर्राया। बाकायदा संगीत विद्यालय में दाखिला भी ले लिया। कोई शर्मा जी थे, जिन्होंने सारेगामा का अभ्यास कराया। फिर उन्हें कोई काम आन पड़ा तो एक अन्य उस्ताद की शरण मे भेज दिया। उस्ताद जी ने कहा, चलो आज तुम्हें राग यमन बताते हैं। जैसे में गाऊँ, वैसे तुम भी गाना। शागिर्द ने सिर हिलाकर उस्ताद की बातों का अनुमोदन किया। उस्ताद ने एक टुकड़ा गाया। शागिर्द ने हू-ब-हू उसकी नकल की। उस्ताद ने फिर से गाया। शागिर्द ने फिर नकल की। उस्ताद ने हारमोनियम एक तरफ रखकर कहा, "सुर मेरे जैसे लगाओ पर आवाज अपनी!" शागिर्द के गले से सुर तो सही निकलते रहे पर आवाज उस्ताद की ही निकलती रही। हारकर उस्ताद ने शागिर्द से तौबा कर ली और शागिर्द ने संगीत से। एक महान गायक की भ्रूण- हत्या हो गई!
( दो ) बहुत बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले
वह कयामत की रात थी। जुलाई 79 की उस रात को भारत सरकार ने सभी राज्यों की पुलिस को हाई एलर्ट पर रखा था। तब अपन कच्ची उम्र में थे और यह समझने के काबिल नहीं थे कि स्काई लैब गिरेगा तो पुलिस क्या करेगी? हालांकि अब इस उम्र में भी यह समझना आसान नहीं है कि सचमुच ही स्काईलैब उस तरह गिर जाता, जैसा प्रचारित हुआ था, तो उसमें पुलिस की क्या भूमिका होती? पर अपनी जनता को आश्वस्त करने के लिए सरकारों को कुछ तो करना ही पड़ता है।
अफवाहें उस जमाने में भी खूब फैलती थीं, जबकि तब व्हाट्सएप नहीं था। तरह-तरह की बातें चलती थीं, कयास लगाए जाते थे और जीवन व संसार की निःसारता की दुहाई दी जाने लगी थी। कहते हैं कि तब कुछ लोग अपनी ज़मीनें भी कौड़ियों के मोल बेच रहे थे और कुछ कौड़ियों के मोल खरीद रहे थे। जो बेच रहे थे, जरूर उन्होंने अपनी अक्ल भी बेच खाई होगी, क्योंकि जब दुनिया ही खत्म होने वाली हो तो कोई जमीन खरीद कर भला करेगा क्या?
जैसे कभी-कभी इंसान अपनी राह से भटक जाता है, अमेरिका का यह यान भी अपनी कक्षा से भटक गया था। भटके हुए इंसान का कोई ठिकाना नहीं होता। स्काईलैब का भी कुछ पता नहीं था कि वह कहाँ गिरेगा। जबलपुर वालों ने सोचा कि वह अपने ऊपर गिरेगा। जबलपुर में गिरने-उठने की सबसे उपयुक्त जगह मालवीय चौक है। यहाँ से उठकर कई नेताओं ने अपार ख्याति अर्जित की है। कुछ का पतन भी हुआ है।
तो लोगों ने सोचा कि मरना ही है तो क्यों न हँसते-हँसते मरा जाए और हँसने-हँसाने का सबसे बढ़िया काम नायकर ही कर सकते थे। सो उस रात मालवीय चौक में 'मिलन' संस्था ने 'स्काईलैब नाइट' का आयोजन रखा । इस आयोजन के लिए नायकर ने एक विशेष कार्यक्रम तैयार किया था जो किन्हीं कारणों से आज तक प्रस्तुत नहीं किया जा सका। 'स्काईलैब' अलबत्ता आशु रचना थी जो खूब पॉपुलर हुई। यह नायकर की बहुत बाद की रचना है। उनकी शुरुआती रचनाओं को जानने-समझने के लिए बीते हुए दिनों की ओर लौटना होगा जब जिंदगी आज की तरह साँस-दर-साँस मशीनों पर टिकी हुई नहीं थी और दुनिया में बहुत कुछ था, जो मौलिक, पारदर्शी और साफ-शफ्फाक था!
उन दिनों आसमां में इतनी सादगी और सूनापन नहीं होता था। मौसम न होने पर भी एकाध पतंग डोलती हुई नज़र आ जाती थी और मौसम आने पर आसमां रंगों से भर जाता था। रंग-बिरंगी पतंगे, कितने ही आकारों में, कितनी सारी शक्लों में उड़ती दिखाई पड़तीं। प्रोफेशनल किस्म के पतंगबाज पारम्परिक चौकोर आकार वाली पतंगें पसन्द करते थे, जिसके पीछे एक बहुत छोटी तिकोनी दुम होती थी। इनका मुख्य मकसद औरों की पतंग काटना होता था। पतंग जब कट जाती और बल खाती हुई हवा में लहराती तो उन्हें वैसी ही प्रसन्नता हासिल होती जैसे एक कवि को दूसरे कवि की आलोचना पर होती है। कटी हुई पतंग को हासिल करने के लिए अच्छा- खासा हुजूम दौड़ पड़ता था और जिस किसी को मिल जाए, वह अपने आपको ओलिम्पिक मैडल विजेता से कम नहीं समझता था। एक सच्चा पतंगबाज उस आशिक की तरह होता था, जिसकी निगाह हर पल माशूका पर होती। इस मोहब्बत में वह यह भी भूल जाता था कि उसके पैरों तले जमीन नहीं है और पतंगबाजी के फेर में खुली छत से गिर पड़ने के कई वाकये सुनाई पड़ते थे। शौकिया किस्म के पतंगबाज अलबत्ता सिर्फ इन्हें उड़ाने में यकीन रखते थे और इस काम के लिए 'फैंसी' पतंगे उपयोग में लाई जाती थीं। इन पतंगों में पुछल्ले वाली, बगैर पुछल्ले वाली, हीरों के आकार वाली, मछली अथवा जहाजनुमा पतंगे हुआ करती थीं। कभी-कभी इनका आकार भी अप्रत्याशित रूप से बड़ा हुआ करता था।
तब जबलपुर में पतंग एक पैसे में मिल जाया करती थी। हालांकि इन पतंगों को बहुत अच्छे किस्म की नहीं माना जाता था। अच्छी पतंगें इलाहाबाद- बरेली से आती थीं। हरेक मोहल्ले में एक न एक नामी पतंगबाज हुआ करता था। जब उसकी पतंग उड़ती तो पीछे अच्छा-खासा मजमा जुट जाता। इस भीड़ में एक छोटी-मोटी विशेषज्ञ समिति भी होती थी जो नाजुक मौकों पर बहुत उपयोगी सलाह देती थी, जिसे कोई सुनता नहीं था। महिलाएं छत और आंगन में निकल आती थीं.. वो रही माशाखां की पतंग, वो दासू की और वो डॉ. खान की। कोई ज्यादा रसिक हुआ तो पार्श्व-संगीत के रूप में चुंगे में गाना बजाने लगता.."उड़ी उड़ी रे पतंग मेरी चली रे!" इन्हीं पतंगों में से कोई एक नायकर की भी हुआ करती थी।
जीसीएफ के लाल स्कूल वाले दिनों में ही पतंगबाजी की इब्तिदा हो गई थी, लेकिन जेब हल्की होने के कारण एक पैसे की पतंग से काम चलाना पड़ता था। पतंग आ भी गई तो सिर्फ उड़ाई जाती थी, पतंगबाजी का जोखिम लेने का सवाल ही नहीं उठता था। एक पतंग कई-कई दिनों तक चलाई जाती थी। पतंग उड़ाने के अलावा उड़ती हुई पतंगों को देखने का भी नशा था। दर्जे में बड़ी बहनजी से 'नेचरल कॉल' का बहाना कर निकल जाते थे और लोटा लेकर बड़े इत्मीनान से बैठे हुए पतंगों को निहारा करते थे। 'फेक कॉल्स' की वजह से दो-चार बार अच्छी कुटाई भी हुई।
बाद में जब रेलवे में नौकरी लगी तो इलाहाबाद-बरेली जाना आसान हो गया। वापसी में इतनी पतंगें होती थीं कि डिब्बे में साथ वाले यात्री उन्हें पतंग बेचने वाला समझते थे। अच्छी पतंगों के साथ पतंगबाजी का हुनर भी अच्छा हुआ। किसना ने एक बार लगातार 8 पतंगें काट डालीं। तब जो पतंगबाज एक साथ 9 पतंगें काट लेता था, उसे 'नौशेरवां' की उपाधि मिलती थी। वे नौशेरवाँ से बस एक कदम की दूरी पर थे। पर डॉ खान ने, जो उस समय नौसिखुआ थे, आश्चर्यजनक ढंग से उनकी पतंग काट डाली और वे नौशेरवाँ होते-होते रह गए। अलबत्ता पतंग उड़ाने वाली कोई पचास साल पुरानी चकरी उन्होंने अब भी सहेज कर रखी हुई है।
दिन का वक्त अक्सर पतंगबाजी या कबड्डी में गुजरता। नायकत्व का स्वाद मिमिक्री से पहले कबड्डी में चख लिया था। शत्रु दल किसना के नाम से डरता था। थोड़ी पहलवानी के साथ ऊँची छलाँग उनकी अतिरिक्त योग्यता थी। छलाँग कबड्डी में बड़े काम की चीज होती है। सर्विस करते हुए अंदर प्रवेश कर जाना और छलाँग मारकर निकल जाने में दो-चार खिलाड़ी ढेर हो जाते। खेल का असली मजा तो तब आता है जब हार रही टीम आखिरी क्षणों में क्रॉसिंग बन्द कर देती। ऐसे ही किसी नाजुक मौके पर एक बार नायकर ने सर्विस कर रहे वसीम खां नामक खिलाड़ी को अपनी मिमिक्री से हँसा दिया, जिससे उसकी 'कबड्डी कबड्डी' वाली लय टूट गई और उसे दबोच लिया गया। अगर यह अंतरराष्ट्रीय मैच होता तो इंटरनेशनल कबड्डी एसोसिएसन इस खेल में मिमिक्री को प्रतिबंधित करने की एडवाइजरी जारी करता। कबड्डी या पतंगबाजी से फुर्सत मिल जाती तो एक पैसे में एक पूरा गन्ना मिल जाता था। गन्ना उसी मनोयोग से चूसा जाता था, जैसे सरमायेदार मजलूमों को चूसते हैं।
रातों में अक्सर कव्वाली या नौटँकी का आनन्द लिया जाता था। दुर्गा पूजा के समय रात-रात भर कव्वाली का चलन था। रेत में सेंकी जाने वाली मूँगफली, पकौड़े और चाट के ठेले लगते थे। कव्वाली रात भर इसलिए चलती थी कि जिसे घर जाना है, सुबह ही जाए ताकि ख़ामोखां किसी की नींद खराब न हो। तब के सामाजिक ताने-बाने में इस तरह की बारीक सोच देखी जा सकती थी, वह आज की तरह आत्मकेंद्रिन्त नहीं था। जानी बाबू कव्वाल वगैरह का नाम तब नहीं था। ज्यादातर लखनऊ -कानपुर से आते थे। गर्मियों के दिनों में नौटंकी चलती थी। तब का थियेटर वही था। साज-सज्जा, सेट, गीत-संगीत, नृत्य, अभिनय देखते ही बनता था। नायकर नौटंकी के दीवाने हो गए थे पर घर मे इसकी अनुमति नहीं थी। मौका देखकर धीरे से निकल जाते और दरवाजे को बस खींचकर धर दिया जाता ताकि सुबह होने से पहले चुपके से दाखिला मिल जाए। एक बार पिता को भनक लग गई तो लौटने पर दरवाजा बंद मिला। गर्मियों के बावजूद सुबह की हवा ठंडी थी। नींद लग गई। नींद में ही थोड़ी देर बाद पिता ने कूटना चालू कर दिया था पर नौटंकी का नशा टूटा नहीं। घर के पिछवाड़े में चारदीवारी के भीतर एक आम का पेड़ था। पेड़ की उपयोगिता अब बढ़ गई थी। वह दिन में आम खाने के काम आता था और रात में दीवार फाँदने के। दीवार फाँदकर नौटंकी देखने में परम-आनंद की अनुभूति प्राप्त होती थी।
कालोनी की संस्कृति विविधता वाली थी। देश के सभी हिस्सों के लोग यहाँ बसर करते थे। एक फैक्ट्री कोलकाता में भी थी तो बहुत से बंगाली लोग स्थानांतरित होकर यहाँ आ गए थे। घर के आगे देवेंद्र बंगाली क्लब हुआ करता था, जिसे संक्षेप में डीबी क्लब कहा जाता था। पानी की आपूर्ति सीधे घरों तक नहीं थी। घर के आगे कालोनी के दोनों छोरों पर सार्वजनिक नल लगे हुए थे और इस पनघट की डगर बहुत कठिन न थी। यह महिलाओं का सामुदायिक मिलन केंद्र था। वे यहीं मिलती थीं, बतियाती थीं, हँसती थीं, शिकवे-शिकायत करती थीं और मौका पड़ने पर झगड़ भी लेती थीं। इन सारी गतिविधियों को नायकर आँखों से देखते थे, कानों से सुनते थे और सारा ऑडियो-विजुअल डाटा मस्तिष्क के एक कोने में लगे चिप में स्थानांतरित कर देते। उनकी प्रदर्शनकारी कला की शुरुआत यहीं से होती है।
घर के बगल में फोरमेन सियाराम दुबे का क्वार्टर था। उनकी पत्नी प्रेमवती विदुषी महिला थीं। उनका हास्य-बोध भी अच्छा था। और बच्चों के साथ नायकर भी उन्हें अम्मा कहकर पुकारते थे। घर में काम करने वाली महिला बहुत सपाटे व फूर्ति के साथ काम को अंजाम देती थी, इसलिए अम्मा ने उनका नाम 'हवाई जहाज' रखा हुआ था। जब वे काम पर न आएं तो कहा जाता था कि आज 'हवाजहाज' नहीं आया है। इसी 'हवाई जहाज' के एक संवाद के कारण नायकर को जिंदगी में पहली और आखिरी बार मंच से धकिया कर बाहर किया गया।
नायकर दरअसल मोहल्ले की महिलाओं का खिलौना बन गए थे। जैसे ही मौका मिलता, महिलाएँ उन्हें घेर लेतीं और किसी न किसी की नकल करने को कहा जाता। नकल करने के लिए गुड़-रोटी का प्रलोभन मिलता था और न करने पर 'मिर्चा ठूंसने' को धमकी दी जाती थी। मिमिक्री वाली यह कला अभी तक कुटीर उद्योग की तरह चल रही थी, पर ख्याति धीरे-धीरे अपने मुहल्ले से होते हुए बाहर तक फैलने लगी थी। इन्हीं दिनों प्राइमरी स्कूल में सोशल गैदरिंग का आयोजन था। उन दिनों इस तरह के आयोजनों में भी भारी भीड़ जुटा करती थी। प्राइमरी स्कूल के मास्टर छात्रों के बीच बहुत लोकप्रिय नहीं थे। बच्चे उन्हें लड़ैया गुरुजी के नाम से पुकारते थे। इन्हीं लड़ैया गुरुजी ने बड़े सम्मान के साथ, भारी भीड़ के समक्ष किसना को खड़ा कर दिया। किसना ने वही सब किया जो अब तक घर में करता आया था। कुटीर उद्योग का माल सार्वजनिक हो गया। लोगों को मजा आने लगा। फिर किसना ने 'हवाई जहाज' की नकल की पर न जाने क्यों, जिस तरह हिंदी सिनेमा का सेंसर बोर्ड कभी-कभी बिला वजह तुनक जाता है, लड़ैया गुरुजी भी तैश में आ गए और किसना को लगभग धकेलते हुए मंच से बाहर कर दिया।
अगले दिन घर के आगे मिलिट्री की एक गाड़ी खड़ी हो गई। कोई मेजर साहब थे, जो किसना को पूछ रहे थे। किसना ने डर के मारे घर के पिछवाड़े से दौड़ लगा दी और भागकर एक दोस्त के घर में शरण ली। मेजर साहब ने घर वालों से कहा कि कल किसना ने बहुत बढ़िया शो किया था। हम चाहते हैं कि आज शाम वो हमारे खमरिया वाले बंगाली क्लब में कार्यक्रम करे। खबर किसना तक पहुँची कि बात वैसी नहीं है, वो प्रोग्राम के लिए ढूँढ रहे हैं!
उस दिन सरस्वती पूजा थी। बंगाली क्लब में बड़ा आयोजन था। एक नाटक भी होना था। किसना ने अब तक जो किया था वो घरेलू चुहल थी। कोई नियोजित कार्यक्रम नहीं था। कोई स्क्रिप्ट नहीं थी। आनन-फानन में एक तख्त का मंच जैसा तैयार किया गया। इसके आगे एक लाठी में एक गिलास को रस्सी से बांध दिया गया ताकि माईक वाली अनुभूति मिल सके। 'पृथ्वीराज कपूर के सिगरेट की चोरी' वाला प्रहसन रचा गया, जिसमें एक-एक कर सारे फ़िल्म अभिनेता और अभिनेत्रियां आकर अपनी-अपनी आवाज में अपनी सफाई पेश करते हैं। बाकी कुटीर उद्योग वाला तैयार माल तो था ही। शाम को मिलिट्री का 'निशान' ट्रक घर के आगे खड़ा हो गया। किसना ट्रक में सवार हुआ और बंगाली क्लब के स्टेज में पर्दों के आगे खड़ा हो गया। पर्दे के पीछे नाटक की तैयारी चल रही थी। पीछे से कोई कहता है, "किसना जल्दी खत्म करना! इसके बाद हमारा नाटक है।"
मगर तब तक लम्बी दौड़ का धावक हवाओं से बातें करने लगा था। अंदर कुछ ज्वालामुखी-सा था जो फट गया था। लावा बाहर निकल रहा था। इसमें कुछ बेशकीमती खनिज पदार्थ भी थे। भीड़ किसी सम्मोहन में थी और वह बढ़ती जा रही थी। लोग आते हुए तो दिखाई पड़ रहे थे, कोई उल्टे पाँव लौट नहीं रहा था। पीछे थोड़ा-सा पर्दा हटा और एक आवाज सुनाई पड़ी, "नायकर साहब! आप अपना प्रोग्राम कंटीन्यू कीजिए। नाटक हम बाद में कर लेंगे।"
किसना एक झटके में 'नायकर साहब' में तब्दील हो चुका था।
लेखक दिनेश चौधरी का दूरभाष नंबर है- 9407944700
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दो सितंबर को रायपुर में सुनिए सेक्सोफोन बजाने वाले शानदार और जानदार कलाकारों को...
रायपुर. सुर और ताल के मुरीदों के शहर रायपुर में हर रोज संगीत का कोई न कोई आयोजन होते रहता है, मगर चंद कार्यक्रम ही ऐसा होता है जिसका असर लंबे समय तक कायम रह पाता है. जेहन में बस जाने वाला एक ऐसा ही कार्यक्रम 2 सितम्बर को शाम छह बजे वृंदावन हाल में होने जा रहा है. अपना मोर्चा डॉट कॉम और संस्कृति विभाग के सहयोग से आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम में सेक्सोफोनिस्ट विजेंद्र धवनकर, लीलेश कुमार और सुनील अपनी कला का शानदार प्रदर्शन करेंगे. कार्यक्रम के मुख्य अतिथि पुलिस महानिदेशक दुर्गेश माधव अवस्थी होंगे. जबकि प्रधान मुख्य वन संरक्षक राकेश चतुर्वेदी और संस्कृति विभाग के संचालक अनिल साहू विशिष्ट अतिथि के तौर पर मौजूद रहेंगे. देश के प्रसिद्ध फिल्म अध्ययेता एवं विश्लेषक अनिल चौबे हिंदी फिल्मों में सेक्सोफोन की उपयोगिता को लेकर पर्दे पर एक विशिष्ट प्रस्तुति देंगे. सेक्सोफोन पर आधारित एक कहानी साज-नासाज के जरिए अपनी देश व्यापी पहचान कायम करने वाले कथाकार मनोज रुपड़ा भी अपने अनुभव से कार्यक्रम को समृद्ध करेंगे. कार्यक्रम का संचालन राजकुमार सोनी करेंगे.
यह सर्वविदित है कि बेलज्यिम के रहने वाले एडॉल्फ सैक्स म्यूजीशियन और इंस्टूमेंट डिजाइनर थे. एडॉल्फ तब लोकप्रिय हुए जब उन्होंने सेक्सोफोन का अविष्कार किया. यह वाद्ययंत्र जितना विदेश में लोकप्रिय हुआ उतना ही भारत में भी मशहूर हुआ. किसी समय तो इस वाद्ययंत्र की लहरियां हिंदी फिल्म के हर दूसरे गाने में सुनाई देती थीं, लेकिन सिथेंसाइजर व अन्य इलेक्ट्रानिक वाद्ययंत्रों की धमक के चलते इस वाद्ययंत्र का महत्व धीरे-धीरे घट गया. इधर एक बार फिर जब दुनिया ओरिजनल की तरफ लौट रही है तब लोगों का प्यार सेक्सोफोन पर उमड़ रहा है. ऐसा इसलिए संभव हो पा रहा है क्योंकि बाजार के इस युग में अब भी सेक्सोफोन को एक अनिवार्य वाद्य यंत्र मानने वाले लोग मौजूद है. अब भी संगीत के जानकार लोग यह मानते हैं कि दर्द और विषाद से भरे अंधेरे समय को चीरने के लिए सेक्सोफोन और उसकी धुन का होना बेहद आवश्यक है. बेदर्दी बालमां तुझको... मेरा मन याद करता है... है दुनिया उसकी जमाना उसी का... गाता रहे मेरा दिल...हंसिनी ओ हंसिनी... सहित सैकड़ों गाने आज भी इसलिए गूंज रहे हैं क्योंकि इनमें किसी सेक्सोफोनिस्ट ने अपनी सांसे रख छोड़ी है. छत्तीसगढ़ में भी चंद कलाकार ऐसे हैं जिन्होंने इस वाद्ययंत्र की सांसों को थाम रखा है. उम्मीद की जानी चाहिए कि सेक्सोफोन की दुनिया...कम से कम इस दुनिया से कभी खत्म नहीं होगी. यह कोशिश उसी दिशा में एक नन्हा सा कदम है.
रायपुर में दो सितम्बर को सेक्सोफोन की दुनिया कार्यक्रम में धूम मचाएंगे कलाकार
रायपुर. सुर और ताल के मुरीदों के शहर रायपुर में यूं तो हर रोज संगीत का कोई न कोई कार्यक्रम होते रहता है, मगर चंद कार्यक्रम ही ऐसा होता है जिसका असर लंबे समय तक कायम रहता है. जेहन में बस जाने वाला एक ऐसा ही कार्यक्रम 2 सितम्बर को सिविल लाइन स्थित वृंदावन हाल में होने जा रहा है. अपना मोर्चा डॉट कॉम और संस्कृति विभाग के सहयोग से आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम में वाद्ययंत्र सेक्सोफोन को बजाने वाले दो फनकार विजेंद्र धवनकर और लिलेश कुमार अपनी कला का शानदार प्रदर्शन करेंगे. गणेश चतुर्थी के मौके पर होने जा रहे इस खास आयोजन के मुख्य अतिथि होंगे पुलिस महानिदेशक दुर्गेश माधव अवस्थी.जबकि प्रधान मुख्य वन संरक्षक राकेश चतुर्वेदी और संस्कृति विभाग के संचालक अनिल साहू विशिष्ट अतिथि के तौर पर मौजूद रहेंगे. देश के प्रसिद्ध फिल्म अध्ययेता एवं विश्लेषक अनिल चौबे हिंदी फिल्मों में सेक्सोफोन की उपयोगिता को लेकर पर्दे पर अपनी प्रस्तुति देंगे. सेक्सोफोन पर आधारित एक कहानी साज-नासाज के जरिए देश व्यापी पहचान कायम करने वाले कथाकार मनोज रुपड़ा भी अपने अनुभव से कार्यक्रम को समृद्ध करेंगे.
यह सर्वविदित है कि बेलज्यिम के रहने वाले एडॉल्फ सैक्स म्यूजीशियन और इंस्टूमेंट डिजाइनर थे. एडॉल्फ तब लोकप्रिय हुए जब उन्होंने सेक्सोफोन का अविष्कार किया. यह वाद्ययंत्र जितना विदेश में लोकप्रिय हुआ उतना ही भारत में भी मशहूर हुआ. किसी समय तो इस वाद्ययंत्र की लहरियां हिंदी फिल्म के हर दूसरे गाने में सुनाई देती थीं, लेकिन सिथेंसाइजर व अन्य इलेक्ट्रानिक वाद्ययंत्रों की धमक के चलते इस वाद्ययंत्र का महत्व धीरे-धीरे घट गया. इधर एक बार फिर जब दुनिया ओरिजनल की तरफ लौट रही है तब लोगों का प्यार सेक्सोफोन पर उमड़ रहा है. ऐसा इसलिए संभव हो पा रहा है क्योंकि बाजार के इस युग में अब भी एक वाद्य ( सेक्सोफोन ) को समय का नायक मानने वाले लोग मौजूद है. ऐसे तमाम लोग मानते हैं कि दर्द और विषाक्त से भरे अंधेरे समय को चीरने के लिए सेक्सोफोन और उसकी धुन का होना बेहद आवश्यक है. बेदर्दी बालमां तुझको... मेरा मन याद करता है... है दुनिया उसकी जमाना उसी का... हंसिनी ओ हंसिनी... सहित सैकड़ों गाने ऐसे है जो आज भी इसलिए गूंज रहे हैं क्योंकि किसी ने इनमें सेक्सोफोन के जरिए अपनी सांसे रख छोड़ी है. छत्तीसगढ़ में भी चंद कलाकार ऐसे हैं जिन्होंने अपनी सांसों से इस वाद्ययंत्र की सांसों को थाम रखा है. उम्मीद की जानी चाहिए कि सेक्सोफोन की दुनिया...इस दुनिया से कभी खत्म नहीं होगी. यह कोशिश उसी दिशा में एक नन्हा सा कदम है.
नाटक फांस में होगा किसान आत्महत्याओं की साजिश पर्दाफाश, मंचन 22 को
रायपुर. भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) रायपुर द्वारा 22 जून शनिवार की शाम साढ़े सात बजे रंगमंदिर सभागार में नाटक 'फांस' का मंचन किया जाएगा. हिन्दी के सुप्रसिद्ध कथाकार व उपन्यासकार संजीव के मूल उपन्यास पर आधारित कृति का छत्तीसगढ़ी नाट्य रूपांतरण संजय शाम ने किया है. नाटक के गीत देश के सुपरिचित गीतकार जीवन यदु ने लिखे हैं तथा इसकी परिकल्पना व निर्देशन मिनहाज असद ने की है.
नाटक में प्रमुखता से यह दर्शाया गया है कि भारत अब कृषि प्रधान देश से उद्योग प्रधान देश हो गया है. खेतों पर अब किसान नहीं मजदूर काम करते हैं और फार्म हाउस के मालिक आज तथाकथित किसान हैं. फिर खेत मजूरों पर अलग से कोई औद्योगिक श्रम कानून भी तो नहीं है.गांव के बेबस किसान खेती की दिन-प्रतिदिन बढ़ती लागत, बैंक और सूदखोरों के कर्ज में डूबकर आत्महत्या कर रहे हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले दस सालों में लगभग 8 लाख किसानों ने आत्महत्या की है.किसान जीवन की त्रासदी पर आधारित हिन्दी के प्रख्यात लेखक संजीव के बहुचर्चित उपन्यास "फांस" में किसानों की समस्याओं पर गंभीरता से विस्तार पूर्वक विचार किया गया है. प्रस्तुत नाटक फांस में किसान जीवन की उसी त्रासदी को रंगमंच के माध्यम से समाज के सामने लाने का एक छोटा सा प्रयास है. सरकार की कृषि विरोधी नीतियों और किसानों की लगातार उपेक्षा के कारण आज खेती जीवनयापन का साधन न होकर किसानों के गले की फांस बन गई है. किसान जीवन के अनगिन दुखों की मार्मिक कहानी नाटक ,फांस में पूरी शिद्दत के साथ शीबू के अंतहीन जीवन संघर्ष के माध्यम से कृषि समाज और कृषकों के जीवन से सीधा संवाद करती है. यह सिर्फ किसानों की गरीबी, भूखमरी और अभावों की कहानी भर नहीं है बल्कि इसमें किसानों की सामाजिक दुर्दशा , लगातार बढ़ता वर्ग संघर्ष ,आदमी और आदमी के बीच की असमानता ,उसकी बेबसी और जीवन के प्रति जिजीविषा की कहानी भी है.शीबू को बेटी छोटी ठीक ही कहती है- कौन कहता है कि गरीब आदमी सिर्फ भूख ,कर्ज और गरीबी से मरता है, शीबू जैसे लोग तो अपने मान- सम्मान के लिए भी मरते हैं. दरअसल शीबू जैसे लोग एक बार में कहां मरते हैं वो तो रोज पैदा होते है रोज मरते हैं.
नाटक में मंच पर बलराज पाठक, प्रतिमा गजभिए, साक्षी शर्मा, अलका दुबे, अनिल पटेल, नरेश साहू, नंदा रामटेके, सुरेंद्र बेड़गे, दलेश्वर साहू, सुरेश बांधे, संगीता सोनी, सुनिता गजभिए, सूर्या महिलांगे, नीतेश लहरी, अशोक ताम्रकार ने भूमिका निभाई है. प्रकाश और मंच व्यवस्था अरुण काठोटे व बालकृष्ण अय्यर, संगीत- संतोष चंद्राकर, सुभाष बुंदेले, हरजीत जुनेजा, आबिद अली, सिद्धार्थ बोरकर, अरविंद ठाकुर, गौतम चौबे, पुष्पा साहू, सुनिता गजभिए, लच्छीराम सिन्हा, गौतम धीवर, ठालेंद्र यादव ने दिया है. रूप सज्जा दिनेश धनगर ने की है.
गलती से चले गए थे भाजपा में... लौटे तो फिर बजाने लगे गिटार
रायपुर. छत्तीसगढ़ के एक वरिष्ठ पुलिस अफसर राजीव श्रीवास्तव ने विधानसभा चुनाव से कुछ समय पहले भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली थी. एक कांग्रेसी परिवार से तालुकात रखने वाले श्रीवास्तव को थोड़े ही दिनों में समझ में आ गया कि भाजपा वालों से उनकी पटरी कभी नहीं बैठ सकती. जब उनका दम घुटने लगा तो उन्होंने पार्टी छोड़ दी. उनके इस कदम से उनके चाहने वाले बेहद खुश है क्योंकि राजीव श्रीवास्तव जिन्हें लोग राजू भैया भी कहते हैं वे अपनी पुरानी दुनिया में लौट आए हैं. उनकी असली दुनिया है कला और संगीत से जुड़ी हुई है. जो लोग उनसे परिचित हैं वे इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि पुलिस सेवा में आने से पहले वे एक आर्केस्ट्रा में गिटार बजाया करते थे. शहर के कई बड़े आयोजन उनके नाम है. एक मौके पर वे सदाबहार गायक किशोर कुमार को भी आमंत्रित कर चुके हैं.
संस्कृति विभाग में उनकी पदस्थापना के दौरान कई बेहतर आयोजन हुए जिसे लोग आज भी याद करते हैं. उनके शुभचिंतक बताते हैं कि भाजपा प्रवेश करते ही संगीत से उनका नाता टूट गया था और वे खामोश रहने लगे थे. अब वे पहले की तरह बाग-बगीचों में जाकर माउथ आर्गेन बजा रहे हैं तो कभी गिटार. उन्होंने माउथ आर्गेन बजाने वालों को एकत्रित कर हारमोनिका कल्ब का गठन कर रखा है. इस संस्था से जुड़े सदस्यों के साथ वे बाग-बगीचों में जाकर तन-मन-रंजन नाम से संगीत का अनोखा कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं. उनका मानना है कि संगीत से अनेक बीमारियां दूर होती है. विशेषकर माउथ आर्गेन को नियमित रुप से बजाने पर सांस की बीमारी में फायदा पहुंचता है. पुलिस सेवा से सेवानिवृत राजीव श्रीवास्तव कहते हैं- संगीत से तो जीवन भर के लिए रिश्ता बना हुआ है... वहां से रिटायरमेंट संभव नहीं है.
रमन सरकार ने नौकरी छीनी... फिर भी नहीं हारी हिम्मत...अब अमेरिका में प्रस्तुति देगी अनुराधा
रायपुर. छत्तीसगढ़ में नई सरकार बनने के बाद लेखक-पत्रकारों के साथ कलाकारों ने भी राहत की सांस ली है. पहले अफसरों की नृत्यांगना पत्नियां ही सभी सार्वजनिक और बड़े समारोह हिस्सा हुआ करती थी,लेकिन जब से सरकार बदली है तब से अफसर पत्नियों की कथित उपलब्धियों से भरी खबरें और तस्वीरें छपना बंद हो गई है. अन्यथा पूरे पन्द्रह साल तक यही लगता था कि साहित्य, संस्कृति और कला की समझ केवल अफसरों पत्नियों के पास ही है. देश की एक नृत्यागंना अनुराधा दुबे के साथ पिछली सरकार ने क्या किया था वह किसी से छिपा नहीं है. छत्तीसगढ़ की रमन सरकार ने इस प्रतिभाशाली नृत्यागंना की नौकरी तक छीन ली थीं. बावजूद इसके अपनी हिम्मत और मेहनत के बल पर अनुराधा ने अपनी रचनात्मकता को कुंद नहीं होने दिया. अपनी प्रतिभा से विशिष्ट पहचान बनाने वाली अनुराधा अब अंतरराष्ट्रीय हिंदी संस्थान (न्यू जर्सी) द्वारा रॉयल अलबर्ट पैलेस में दो दिवसीय हिंदी कन्वेंशन का हिस्सा बनने जा रही है.
इस आयोजन के लिए अनुराधा दुबे ने खास तौर पर डॉक्टर धर्मवीर भारती की रचना “कनुप्रिया” को नृत्य नाटिका के रूप में तैयार किया है। कनु याने कृष्ण और उनकी प्रिया राधा-राधा, के अंतर्मन की व्यथा,कृष्ण के साथ बिताए पलों की मधुर यादें, कृष्ण के प्रति नाराज़गी,विभिन्न प्रश्न और कृष्ण के द्वारकाधीश बनने के बाद के विरह और कृष्ण के अंतहीन इन्तज़ार की कथा है,कनुप्रिया। अमेरिका के न्यू जर्सी शहर में 10 और 11 मई को दो दिवसीय हिंदी कन्वेंशन हैं जिसमें मशहूर नृत्यांगना डॉक्टर अनुराधा दुबे अपनी प्रस्तुति देंगी। इस संगीतमय प्रस्तुति की परिकल्पना एवं काव्य चयन – शुभम सिंह (रंगकर्मी) की है।नृत्य संयोजन – अनुराधा दुबे संगीतकार – जयश्री साकल्ले और विवेक टांक,की बोर्ड – सूरज महानंद,बांसुरी – विवेक टांक, पैड – राजेश और नरेंद्र नायक,तबला – महेंद्र चौहान और राज,गायिका – जयश्री साकल्ले और गरीमा दिवाकर, रिकॉर्डिस्ट और एडिटर – दीप्ति रंजन साहू ,अभिषेक स्टूडियो रायपुर का है.
इसके पूर्व अनुराधा ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन, इजिप्ट, इंडोनेशिया, हंगरी (यूरोप) सिडनी (आस्ट्रेलिया) और मिलान (इटली)इसके अलावा भारत के विभिन्न शहरों के प्रसिद्ध मंचों पर प्रस्तुतियां दी हैं। उन्हें अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों, सम्मानों और अवॉर्ड्स से भी सम्मानित किया गया है. अनुराधा दुबे छत्तीसगढ़ी, हिंदी, भोजपुरी फिल्मों और रंगमंच की प्रतिष्ठित अभिनेत्री होने के साथ-साथ एक प्रसिद्ध उदघोषिका और समाचार वाचिक भी हैं। न्यूजर्सी में आयोजित होने जा रहे इस दो दिवसीय हिंदी कन्वेंशन के समापन समारोह के मंच संचालन का जिम्मा भी अनुराधा को सौंपा गया है। वे 11 अप्रैल को सूफी संगीत संध्या और कवि सम्मेलन का मंच संचालन भी करेंगी. अनुराधा दुबे को रचनात्मका सक्रियता और उपलब्धि के लिए उनके शुभचिंतकों ने बधाई दी है.
सॉरी सर के लिए त्र्यम्बक को मुख्यमंत्री ने किया सम्मानित
रायपुर.लोकप्रिय ऐनिमेशन कॉलम “सॉरी सर ” के कार्टूनिस्ट त्र्यम्बक शर्मा को सात फरवरी गुरुवार को एक भव्य कार्यक्रम में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सम्मानित किया। छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय चैनल आईएनएच और यू ट्यूब में एक साथ चलने वाले इस म्यूज़िकल ऐनिमेटेड वीडियों में छत्तीसगढ़ के नेताओं के साथ साथ प्रधानमंत्री और राहुल गांधी को भी गाना गाते दिखाया जाता है. देश की एकमात्र कार्टून पत्रिका कार्टून वॉच ने अपने प्रकाशन के 23वें वर्ष में इसे प्रारम्भ किया हैं. मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने त्र्यम्बक शर्मा को शाल ओढ़ाकर सम्मानित किया, तो वहीं पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह ने श्रीफल प्रदान कर अपनी शुभकामना दी। इस मौके पर पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने उन्हें कार्टून वॉच के 22 साल पूरे होने पर बधाई दी।इस मौके पर हरिभूमि पत्र समूह और आईएनएच के एडिटर इन चीफ डाक्टर हिमांशु द्विवेदी ने त्र्यम्बक शर्मा को बधाई देते हुए कार्यक्रम में मौजूद अतिथियों और दर्शकों को बताया कि किस तरह कार्टून वॉच ने 22 साल पूरे कर लिए हैं. उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ में कार्टून वॉच और त्र्यम्बक शर्मा किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं।
अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा समेत पांच पर धोखाधड़ी का आरोप
मुरादाबाद: इंडियन फैशन एंड ब्यूटी अवार्ड कंपनी ने फिल्म अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा और उनकी मैनेजर समेत पांच पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया है। दिल्ली में शो करने के लिए कंपनी से सोनाक्षी सिन्हा के खाते में 28 लाख रुपये डलवाए गए थे। हवाई जहाज के टिकट कराए गए, लेकिन एनवक्त पर उन्होंने आने से इन्कार कर दिया।
रकम वापस मांगने पर सोनाक्षी की मैनेजर ने कंपनी के डायरेक्टर को मैसेज कर जान से मारने की धमकी दे डाली। कंपनी के डायरेक्टर ने सभी दस्तावेज पेश कर एसएसपी से अभिनेत्री के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है। एसएसपी ने मामले की जांच सीओ कटघर को सौंपी है।
इंडियन फैशन एंड ब्यूटी अवार्ड कंपनी के मालिक कटघर के हनुमान मंदिर स्थित डबल फाटक शिवपुरी निवासी प्रमोद शर्मा हैं। उनकी कंपनी ने दिल्ली के श्रीफोर्ट ऑडिटोरियम में फैशन शो कराने का ठेका लिया था। इस आयोजन के लिए जून में ही बुकिंग कर ली गई थी। प्रमोद शर्मा के मुताबिक, सोनाक्षी की कंपनी के मैनेजर अभिषेक सिन्हा, उनकी पत्नी स्वाति सिन्हा, अभिनेत्री की मैनेजर मालादीका से ध्रुवमिला टक्कर और ऐल्डा के जरिये संपर्क हुआ था। 24 लाख की रकम जीएसटी लगाकर किस्तों में स्वाति सिन्हा और सोनाक्षी सिन्हा के खाते डाली गई थी।
रकम वापस मांगने पर धमकी
30 सितंबर को होने वाले शो में आने के लिए सात एयर टिकट सुबह 10 बजे के बुक कराए गए थे। बाद में मैसेज आया कि दोपहर दो बजे के टिकट करा दिए जाएं। उस समय पांच टिकट ही हो पाए। टिकट पूरे नहीं होने पर मालादीका की ओर से मैसेज आया कि वो इस शो में शामिल नहीं हो सकते। सोनाक्षी के नहीं आने पर शो निरस्त करना पड़ा, जिस पर संचालक प्रमोद को पुलिस उठाकर ले गई। सभी कागजात दिखाने के बाद प्रमोद को छोड़ा गया। प्रमोद का आरोप है कि रकम वापस मांगने पर सोनाक्षी की मैनेजर ने धमकी भरा मैसेज भेजा।
रकम वसूली का आरोप
कंपनी के मैनेजर की ओर से की गई शिकायत पर सीओ कटघर को जांच के लिए कहा गया है। शिकायत में अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा और उनकी महिला मैनेजर समेत पांच पर रकम वसूली का आरोप लगाया गया है।
फ्लॉप हुई 'ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान' का सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर लिया आमिर खान
नई दिल्ली: यश राज बैनर्स आमिर खान और अमिताभ बच्चन जैसे दो सुपरस्टार्स को अपनी फिल्म 'ठग्स ऑफ हिंदोस्तान' के जरिए पहली बार बड़े पर्दे पर साथ लाए. इस फिल्म को लेकर फैंस में जबरदस्त क्रेज था, लेकिन दिवाली के मौके पर रिलीज हुई इस फिल्म का जो हश्र बॉक्स ऑफिस पर हुआ, वैसा शायद ही किसी ने सोचा हो. बड़े सितारों, बड़े बजट और धुआंधार एक्शन से सजी यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर पूरी तरह फ्लॉप हो गई. ऐसे में बॉलीवुड में 'मिस्टर परफेक्शनिस्ट' कहलाने वाले एक्टर आमिर खान ने अब इस फिल्म की पूरी विफलता की जिम्मेदारी खुद पर ले ली है.
सोमवार को अपनी फिल्म की असफलता पर आमिर खान ने दुख जताया. उन्होंने कहा कि उन्हें इस बात का दुख है कि वह अपने दर्शकों का मनोरंजन नहीं कर पाए. मुंबई में मीडिया से बात करते हुए आमिर खान ने कहा, 'मैं इस बात की पूरी जिम्मेदारी लेता हूं कि यह फिल्म दर्शकों का मनोरंजन नहीं कर पायी. मुझे लगता है कि हम से गलती हुई है और मैं इसकी पूरी जिम्मेदारी लेता हूं. लेकिन यह भी सच है कि हमने अपनी पूरी मेहनत इस प्रोजेक्ट में लगाई थी.'
आमिर ने कहा, 'हमने कोशिश में कोई कसर नहीं छोड़ी थी लेकिन कुछ तो है जो गलत हुआ. कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें यह फिल्म पसंद आई और हम उनका शुक्रिया अदा करना चाहते हैं, लेकिन ऐसे लोग बहुत कम थे. ज्यादातर लोगों को हमारी फिल्म पसंद नहीं आई और हमें यह पूरी तरह एहसास है.'
आमिर खान ने कहा, 'मैं जानता हूं कि दर्शक काफी उम्मीदों के साथ मेरी फिल्म देखने आते हैं, मैं उनसे भी माफी मांगता हूं कि मैं इस बार उन्हें उस स्तर पर मनोरंजन नहीं दे पाया.' हालांकि जब आमिर से पूछा गया कि आखिर यह फिल्म क्यों फ्लॉप हुई तो इसपर आमिर ने कहा कि वह अपनी हर फिल्म को अपने बच्चे की तरह मानते हैं और इसलिए वह हरबात पब्लिकली नहीं कह सकते.
Koffee With Karan 6: करण जौहर ने अजय देवगन-काजोल से मांगी माफी
बीते दिनों रोज करण जौहर karan johar के चैट शो कॉफी विद करण 6 (Koffee with Karan 6) में अजय देवगन और काजोल (Kajol-Ajay Devgan) की एंट्री हुई। इस बात को लेकर लोग पहले ही हैरान थे, लेकिन कल शो के दौरान कुछ ऐसा हुआ कि अजय और काजोल भी हैरान हो गए। दरअसल, करण ने अपने शो को शुरु करने से पहले कुछ ऐसा किया जिसकी उम्मीद शायद अजय और काजोल को भी नहीं होगी। करण ने शो की शुरुआत में ही काजोल और अजय से माफी मांगी। साथ ही ये भी कहा कि उन्हें इस बात का मलाल है कि अपनी किताब में उन्होंने दोनों के साथ हुई लड़ाई का जिक्र किया था।
साल 2016 में करण की 'ऐ दिल है मुश्किल' और अजय की 'शिवाय' के रिलीज के दौरान अजय ने एक टेप रिकॉर्डर रिवील किया था, जिसमें केआरके (कमाल आर खान) करण जौहर के साथ हुई डील का जिक्र कर रहे थे। कि करण ने उन्हें 'शिवाय' का निगेटिव रिव्यू करने के लिए कहा था। जिसके बाद दोनों में काफी तनाव हो गया और काजोल ने भी दोस्त करण की बजाय अपने पति अजय देवगन का साथ दिया। जिससे बात और बिगड़ गई। लेकिन अब करण, अजय और काजोल ने सारे गिले-शिकवे भुलाकर फिर से एक दूसरे की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। इसी शो में अजय देवगन ने इस बात का खुलासा किया कि उन्होंने कई दफा काजोल से कहा कि वह करण से इस सिलसिले में बात करें और आखिर में काजोल ने अपने जन्मदिन पर करण को न्यौता भेजा। जिसके बाद दोनों के बीच फिर बात शुरू हुई। बता दें कि करण अपने दोस्तों को ज्यादा दिन तक नाराज नहीं देख सकते है और कल रात उन्होंने इस बात को फिर से साबित कर दिया।
अक्षय-रजनीकांत की फिल्म ने की बंपर कमाई, 4 दिन में कमाए 364 करोड़ से ज्यादा
रजनीकांत (Rajinikanth) और अक्षय कुमार (Akshay Kumar) की फिल्म '2.0' ने रिलीज के चौथे दिन ही बंपर कमाई कर ली है। पहले दिन ही 100 करोड़ के क्लब में शामिल होने वाली इस फिल्म महज चार दिनों के अंदर ही दुनियाभर में 364 करोड़ से ज्यादा की कमाई कर ली है। इस बात की जानकारी ट्रेड एनालिस्ट रमेश बाला ने अपने ट्विटर अकाउंट के जरिए दी है। इसके साथ ही इस फिल्म ने कई हॉलीवुड फिल्मों को पीछे छोड़ दिया है।
इस फिल्म ने 'फैंटास्टिक बीस्ट', 'राल्फ ब्रेक्स द इन्टरनेट', 'द ग्रिंच' और 'वेनम' जैसी सुपरडुपर हिट हॉलीवुड मूवीज को भी पीछे छोड़ दिया है और कमाई के मामले में नंबर वन बन गई है। जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है। इससे पहले किसी इंडियन फिल्म ने ऐसा कमाल नहीं दिखाया है।