साहित्य
अब रायपुर में भी जनसंस्कृति मंच गठित, पहले अध्यक्ष बने आनंद बहादुर,सचिव पद की जिम्मेदारी संभालेंगे मोहित जायसवाल
रायपुर. देश में लेखकों और संस्कृतिकर्मियों के सबसे महत्वपूर्ण संगठन जन संस्कृति मंच जसम की रायपुर ईकाई का गठन 3 मई मंगलवार को शंकर नगर स्थित अपना मोर्चा कार्यालय में किया गया. रायपुर ईकाई के पहले अध्यक्ष प्रसिद्ध लेखक एवं कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुल सचिव आनंद बहादुर बनाए गए हैं.जबकि सचिव पद की जिम्मेदारी मार्क्सवादी विचारक मोहित जायसवाल को सौंपी गई है. अंचल की प्रसिद्ध लेखिका कल्पना मिश्रा उपाध्यक्ष एवं अजुल्का सक्सेना कोषाध्यक्ष बनाई गई हैं. सुप्रसिद्ध समीक्षक इंद्रकुमार राठौर सह-सचिव पद की जिम्मेदारी संभालेंगे. कार्यकारिणी में लेखक भुवाल सिंह ठाकुर, अमित चौहान, आलोक कुमार, दीक्षित भीमगढ़े, नरोत्तम शर्मा, वसु गंधर्व, अखिलेश एडगर, वंदना कुमार और तत्पुरुष सोनी को शामिल किया गया है.
ईकाई के गठन अवसर पर जसम की राष्ट्रीय ईकाई के सदस्य और प्रखर आलोचक प्रोफेसर सियाराम शर्मा ने कहा कि जब देश भयावह संकट से नहीं गुजर रहा था तब साहित्यिक और सांस्कृतिक संगठन जबरदस्त ढंग से सक्रिय थे, लेकिन अब जबकि देश में सांप्रदायिक और पूंजीवादी ताकतों का कब्जा बढ़ता जा रहा है तब लेखकों और सांस्कृतिक मोर्चें पर डटे हुए लोगों की बिरादरी ने एक तरह से खामोशी ओढ़ ली है. एक टूटन और पस्ती दिखाई देती है. कलमकार और संस्कृतिकर्मी इस दुखद अहसास से घिर गए हैं कि अब कुछ नहीं हो सकता. श्री शर्मा ने कहा कि यह कार्पोरेट और फासीवादी राजनीति का भयावह दौर अवश्य है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इन ताकतों को परास्त नहीं किया जा सकता. उन्होंने कहा कि हर रोज लोकतांत्रिक मूल्यों को कुचला जा रहा है. इस भयावह दौर में चेतना संपन्न लेखकों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों का एकजुट होना बेहद जरूरी है. श्री शर्मा ने बताया कि देश के बहुत से हिस्सों में जन संस्कृति मंच से जुड़े लोग अपना प्रतिवाद जाहिर करते रहे हैं. अब रायपुर ईकाई भी मुखर होकर काम करेगी.
जसम की दुर्ग-भिलाई ईकाई के सचिव अंजन कुमार ने संगठन के संविधान और उद्देश्य को विस्तार से बताया तो देश के चर्चित कथाकार कैलाश बनवासी ने कहा कि संगठन केवल समाज ही नहीं स्वयं के वैचारिक और रचनात्मक विकास में भी अहम भूमिका निभाता है. फिलहाल हमारे सामने विवेकहीन लोगों की भीड़ खड़ी कर दी गई है, लेकिन हमें नागरिक बोध और विश्वबोध के साथ प्रतिरोध जारी रखना है. रायपुर इकाई के अध्यक्ष आनंद बहादुर सिंह ने अध्यक्ष पद का दायित्व सौंपे जाने पर राष्ट्रीय ईकाई के सदस्यों और बैठक में मौजूद लेखक-संस्कृतिकर्मियों के प्रति आभार जताया. उन्होंने कहा कि जन संस्कृति मंच में विचारवान युवा लेखकों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों का सदैव स्वागत रहेगा. ईकाई के गठन के दौरान मई महीने के अंतिम सप्ताह में एक साहित्यिक आयोजन किए जाने को लेकर भी चर्चा की गई. जसम के सभी सदस्यों ने तय किया कि देश के प्रसिद्ध लेखक रामजी राय की नई पुस्तक मुक्तिबोध- स्वदेश की खोज पर एक दिवसीय चर्चा गोष्ठी आयोजित की जाएगी. जसम की रायपुर ईकाई के गठन के दौरान अंचल के लेखक, बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी मौजूद थे.
देश के शीर्षस्थ लेखक विनोद कुमार शुक्ल की रचना प्रक्रिया के बारे में बता रहे हैं उनके पुत्र शाश्वत गोपाल
देश के शीर्षस्थ रचनाकार विनोद कुमार शुक्ल को भला कौन नहीं जानता. यह छत्तीसगढ़ और हमारा सौभाग्य है कि वे हमारे बीच यहीं रायपुर में रहते हैं. उनके पुत्र शाश्वत गोपाल ने अपनी पिता और उनकी रचना प्रक्रिया को लेकर जो कुछ लिखा है उसे हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं. शाश्वत ने इस लेख का वाचन अपने पिता पर केद्रिंत 'रंग विनोद' नाम के एक कार्यक्रम में किया था. अगर आप किसी लिखे हुए में रविशंकर की सितार का अनुभव करना चाहते हैं तो इसे पढ़ना ठीक होगा. मनुष्य बने रहने के लिए संवेदना बची रहे...यहीं जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता है और उपलब्धि भीं.
एकांत का बाहर जाना
-शाश्वत गोपाल
मैं अपने पिता को दादा कहता हूँ।
मुझे बहुत सी चीजें विरासत में मिली हैं। चित्र, लेखकों की स्मृतियाँ, संबोधन, पेड़-पौधे, पुस्तकें और भी बहुत कुछ। एक ऐसी अमूर्त चीज़ भी विरासत में मिली जो दादा मुझे शायद देना नहीं चाहते थे- वह है 'हिचक'। मंच में और उसके करीब जाने का डर। चूंकि यह विरासत थी इसलिए मिल गई।
दादा मंच से दूर रहे। वे सबसे पीछे बैठना पसंद करते हैं। मुझे लगता है ऐसा कर वे सबके ज्यादा करीब हो पाते हैं। जितनी दूर जब हम होते हैं तब हमारी दृष्टि के क्षितिज का फैलाव उतना ज्यादा बड़ा हो जाता है। सबसे पीछे अंत की दूरी से सबको एक साथ देख पाना, अपने में समेट पाना संभव हो पाता है। और, यह अंत की दूरी एकांत के करीब भी होती है।
आज मुझे मंच से कहने के लिए कहा गया। मैं मंच में सहज नहीं सा हूँ। इसलिए अपनी बात कह तो नहीं पाऊँगा, लेकिन पढ़ने की कोशिश करूँगा। जो मैं पढ़ने जा रहा हूँ वह बातें कुछ वर्ष पहले लोकमत समाचार पत्र समूह के साहित्य विशेषांक 'दीपभव' में प्रकाशित हो चुकी हैं। इन प्रकाशित स्मृतियों का पहला मुख्य वाक्य था- 'एकांत का बाहर जाना'। आज फिर स्मृतियों पर लौटने की कोशिश करूँगा। स्मृतियाँ कभी पुरानी नहीं पड़तीं। स्मृतियों को याद करना जीवन के दोहराव की तरह भी है, और इसमें हमारे एकांत का बाहर जाना आज पुनः प्रतिध्वनित होगा।
आदरणीय दादा, आदरणीय मंच, सम्मानित उपस्थितजन।
एक बेटे द्वारा पिता पर कुछ कहना या लिखना, पिता द्वारा अपनी ही बात कहने जैसा है। हम अपनी बात क्यों कहें? आत्मकथा लेखन के संबंध में मैं अज्ञेय जी के विचारों से सहमत हूँ कि– “आत्मकथा लेखन अहंकारी उद्यम है। अपने जीवन को कोई इतना अहम क्यों माने कि उसकी दास्तान दूसरों को सुनाने लगे।”
मुझसे हमेशा कई सवाल दादा पर, उनकी दिनचर्या, लेखनकर्म, लेखन प्रक्रिया आदि पर पूछे जाते हैं। ये बातें उन्हीं प्रश्नों, प्रति-प्रश्नों के आस-पास की हैं। लेकिन उत्तर नहीं हैं, क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि प्रश्न और उनके उत्तर हमें बाँध देते हैं।
एक छोटा सा प्राणी ककून के अंदर रहकर रेशम बुनता है। दादा भी घर में रहना पसंद करते हैं। ये थोड़ी सी बातें और उनके मेरे द्वारा खींचे गये कुछ छायाचित्र, हमारे घर के एकांत का बाहर जाना है। उन पर कुछ कहने के लिए हर बार की तरह बार-बार मैं दुविधा में रहता हूँ। इस बार भी ठिठका हुआ सा, दुविधा और संकोच से घिरा हूँ।
विरासत में मुझे खूब सी पुस्तकों के साथ बहुत से शब्द और संबोधन भी मिले। संबोधन उनके अपने पारंपरिक शब्दार्थ से कुछ अलग नये अर्थों के साथ। जैसे पिता को मैं दादा कहता हूँ। मेरी बेटी मुझे दादा कहती है। आदि। संस्कृति, परंपरा, प्रकृति, संस्कार, कला और उत्कृष्ट को सहेजने, अगली पीढ़ी को सौंपने पर दादा हमेशा ज़ोर देते हैं।
दादा को जानने की कोशिश में मैं जब पीछे लौट रहा हूँ तो यह लौटना किसी रचना संसार की ओर आगे बढ़ने जैसा है। बचपन में मैं उनके साथ घूमने जाया करता था। उनका प्रयास होता कि घर से उनका बाहर मेरे साथ हो। हम कभी पैदल निकल जाते। कभी साइकिल से। कभी स्कूटर से। किसी भी दिशा में हम निकल जाते और कोई गाँव मिल जाता था। गाँव में मैं चुप रहता। वे चलते जाते। मैं भी। कभी उनके साथ। कभी पीछे-पीछे कुछ बीनते हुए। लेकिन सुन सकने की दूरी से ज्यादा दूर उनसे मैं कभी नहीं होता। वे पेड़ में बैठे पक्षियों की पहचान कराते। जो पक्षी दिखते नहीं उनकी आवाज़ याद रखने को कहते। खेतों में फसलों से परिचय कराते। बीज के लहलहाती फसल तक पहुँचने के चरणों को याद कराते। भूमि की पहचान कराते। बज रहे या घरों में टंगे-रखे वाद्ययंत्रों के बारे में बताते। लोकगीतों के भावार्थ समझाते। ठेठ गवईं गहनों और उनकी अनूठी परंपरा का महत्व बताते। लेकिन, लौटने पर जब शहर पास आते जाता तो अक्सर दादा मौन हो जाते। तब शायद गाँव के शहर में समा जाने के विध्वंस की आहट वे सुन रहे होते हों! अब तो हमें बहुत दूर कई किलोमीटर तक चले जाने पर भी गाँव नहीं मिलते। भौतिक-आधुनिकता, विकास और बाज़ार ने गाँव के सांस्कृतिक बोध लगभग निगल लिये हैं। शहर की असीमित सीमा इतनी बढ़ गई है कि किसी गाँव तक पहुँचने से पहले ही अब दादा थक जाते हैं। जबकि, लगभग सभी कच्ची सड़कें पक्की हो गईं हैं।
उन्होंने मुझे और दीदी को केवल अच्छा मनुष्य बनने के लिए कहा। यह कभी नहीं कहा कि तुम ये या वो पढ़कर वो या ये बन जाओ। एक बात हमेशा कही कि कुछ उत्कृष्ट ऐसा रचो कि आने वाली पीढ़ी के काम जरूर आये। दो शब्द ‘संतुष्टि’ और ‘बचत’ के गहरे अर्थों के साथ सुखी जीवन का मंत्र दादा ने दिया। गाँधीवाद को मैंने घर में बचपन से महसूस किया है। कुछ बड़े होने पर मोहनदास करमचंद गाँधी को जाना और पढ़ा। गाँधी के अस्त्रों अहिंसा, स्पष्टता, ईमानदारी, निडरता, संतुष्टि, समय की पाबंदी, बचत, आवश्यकताएं सीमित रखना.... जैसे प्रयोग मैं छुटपन से महसूस करते आ रहा हूँ। शायद, उन्होंने गाँधी के सूत्रों-सिद्धांतों को हमारे आस-पास रखने की कोशिश की।
जन्मदिन पर मुझे पुस्तकें मिलतीं और कुछ खिलौने भी। कहानी पुस्तकों की ज़िद करता तो ‘तारों की जीवन गाथा’ मिलती। कभी ‘जोड़ासांको वाला घर’ की कथा। तो कभी ‘भारत की नदियों की कहानी’। ह्वेनसांग की भारत यात्रा, चीनी यात्री फाहियान, अल-बिरुनी की नज़र में भारत, बर्नियर और इब्नबतूता की भारत यात्राएँ, नेहरू की भारत एक खोज हो या विश्व का सांस्कृतिक इतिहास आदि मिल जाता। इस तरह वे पुस्तकों के माध्यम से हमें ऐसे समय का भी बोध कराते जहाँ-जिसमें लौटकर पहुँचना किसी के लिए भी संभव नहीं होता।
भारत और दुनिया को दिखाने और समझाने की कोशिश वे हमेशा करते रहते हैं। उन्होंने संस्कृति, इतिहास, दर्शन, विज्ञान को भी हमारे सामने रखने की कोशिश की, उनके पारंपरिक और आधुनिक स्वरूप दोनों के साथ। जीवन के विभिन्न पड़ावों पर तरह-तरह की पुस्तकें मिलती जातीं। जब किशोर था तो मैक्सिम गोर्की का उपन्यास ‘मेरा बचपन’ पढ़ने मिला, महाविद्यालय में पहुँचा तो ‘जीवन की राहों में’ और ‘मेरे विश्वविद्यालय’ को पढ़ा। मार्क्स, विवेकानंद, लोहिया, वॉनगॉग, सावरकर, आंबेडकर, जयप्रकाश नारायण, सलीम अली, एम.एफ.हुसैन, कुमार गंर्धव, मल्लिकार्जुन मंसूर, जनगनश्याम, निर्मल वर्मा आदि इत्यादि के अंतःमन से भी दादा ने मुझे मिलवाया है। ‘अभी भी खरे हैं तालाब’, ‘राजस्थान की रजत बूंदें’ ‘मेरा ब्रह्माँड’ पता नहीं क्या नहीं उन्होंने मुझे दिया। वे एक पुस्तक पढ़ने के समाप्त होने से पहले मेरे मन में कई और पुस्तकों को पढ़ने की जगह बना देते हैं। मेरी उम्र बढ़ने के साथ-साथ पुस्तकों की संख्या भी बढ़ती चली गई। बल्कि, पुस्तकें तो आयु के कई घनमूलों के गुणक के साथ बढ़ीं हैं। एक तरह से उन्होंने जिज्ञासा और पढ़ते-जानते रहने की ललक का समुद्र मेरे मन में खोद दिया है। मैं पढ़ता चला गया और पढ़ा हुआ उस समुद्र में समाता चला गया। कई बार यह इतना गहरा चला जाता है कि इसे जरूरत और समय पर निकालना भी मेरे लिए दुरूह है।
लेख, पेटिंग, संवाद, साक्षात्कार, कविता, समाचार, घटना, फिल्म, यात्रा-वृतांत, आलोचना, समीक्षा... यहाँ तक कि कोई अच्छा पत्र भी आता तो वे मुझे पढ़ाते। जापानी फिल्मकार आकिरा कुरोसावा ने कैसे छोटी-छोटी फिल्मों के सहारे मानव मन को पर्दे पर उतारा, रूसी फिल्मकार आँद्रेई तारकोवस्की ने किस तरह नई दृश्य-भाषा दी, सत्यजीत राय के चार दशकों में फैले रचनात्मक जीवन में किस तरह उत्कृष्टता केंद्र में रही, श्यामबेनेगल इतिहास और वर्तमान में कैसे एक सेतु बनाते हैं, एक फिल्मकार उतना ही बड़ा विद्वान भी हो तो उनकी (मणिकौल) फिल्मों में दूसरों से क्या अलग और मौलिक है। भारतीय फिल्मों का एक बड़ा बाज़ार है, आधुनिक संसाधन हैं, इसके बावजूद ईरानी फिल्में क्यों उद्वेलित करती हैं। यह सब मैं कब जानता गया पता ही नहीं चला। उत्कृष्टता को दादा ने हमेशा हमारे करीब रखा। मेरी बेटी जब सवा साल की थी तब से वह रवीन्द्रनाथ ठाकुर, गाँधी, अज्ञेय...को तस्वीरों में पहचानने लगी थी। एक तरह से वे हम सब के जीवन के संपादक हैं। उन्होंने हमें सृष्टि और जीवन-सूत्रों के हर पहलू को समझने की दृष्टि दी। यहाँ तक कि बचपन में एक बड़ा टेलीस्कोप देकर सुदूर स्थित मंगल, शनि ग्रहों को भी हमारा पड़ोसी बना दिया है।
आज उत्कृष्टता केंद्र में नहीं है। अब यह शब्द ही विस्मृत सा लगता है। सब तरफ मीडियॉकर्स हावी हैं और रहा-सहा जितना अच्छा बचा है उसका कबाड़ बना रहे हैं। चालाकी, झूठ, बेईमानी के इस दौर में उससे जूझना मेरे लिए एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि उनके जीवन में ये शब्द ही नहीं हैं। उनका जीवन संघर्ष में बीता। मेरा नहीं। लेकिन दादा ने कोशिश की कि संघर्ष के रास्ते पर मिलने वाले आत्मविश्वास को मैं जरूर पा सकूँ। इस दौर की अबूझ पहेलियों के बीच उलझे समय से कुछ समय निकालने में ही मुझ जैसे युवाओं का समय फिसला जा रहा है। लेकिन, मैं और पत्नी यह देखकर आश्वस्त हैं कि हमारी बेटी अपने बाबा-अजिया की उँगलियाँ कस कर पकड़ी हुई, स्वाभिमान और आत्मविश्वास को पाने के रास्ते पर चलना सीख रही है, और जो अच्छा बिखेरा जा रहा है, जिसे वर्तमान आधुनिक समय नहीं देख पा रहा, उन्हें वो अपने छोटे हाथों से समेट भी रही है। लेकिन अच्छा, बहुत जल्दी कबाड़ बन रहा है और मेरी बेटी की अंजुलियाँ अभी बहुत छोटी हैं।
दादा के साथ मेरा संवाद हर क्षण होता रहता है। तब भी जब हम दोनों मौन हों। हमारी बातचीत के विषय भी विविधता भरे होते हैं। कभी कोई अच्छी कविता तो कभी परमाणु मुद्दा। कभी मीडिया, साहित्य, खेल, पड़ोस, प्रकृति, जीवन शैली, रचना, संघर्ष, रंग, परंपरा, संगीत, लेख, आदिवासियों का संघर्ष, पूँजीवाद, दैनिक दिनचर्या, मेरी बेटी के स्कूल का बीता एक दिन, सूखा पड़ने की आहट, नक्सलवाद से वाद का ही समाप्त हो जाना, हिंसा, कटते जंगल, युवाओं के मन से बचत और संतुष्टि शब्दों की विस्मृति, आतंकवाद से नष्ट होती संस्कृतियाँ, बच्चों के चित्र और उनकी शिक्षा, अच्छा संगीत, कोई अच्छी पुस्तक, युवाओं का संघर्ष, ब्रह्मांड में किसी नये ग्रह का मिलना, सहनशक्ति का बढ़ता अभाव, सेना के जवानों की कठिनाइयां, पौधों में नई पत्तियों का आना, मेरे द्वारा किसी गलत शब्द का उपयोग, दाल में छौंक लगाने के तरीके, अच्छे प्रशासनिक निर्णय, जमीन में पड़े किसी पत्थर की आकृति, तालाब क्यों एक बड़ी बूंद है, इत्यादि। लेकिन संवाद का विषय राजनीति कभी नहीं रहा। शायद इसलिए कि अब की राजनीति गैर-रचनात्मक और विचारहीन है। राजनीति पर उन्होंने इतना जरूर कहा है कि “अब हम सामाजिक समाज में नहीं राजनैतिक समाज में रहते हैं। मीडिया और राजनीति, इन दोनों में से कोई एक ठीक हो जाये तो दोनों ठीक हो जायेंगे। लेकिन मीडिया और राजनीति एक दूसरे के ठीक नहीं होने को बनाये हुए हैं।”
दादा को पुरस्कारों ने कभी आकर्षित नहीं किया। उनके सम्मान और हमें, मेरी बेटी को स्कूलों, खेलों इत्यादि में मिले पुरस्कार, स्मृति चिह्न या तो अटारे में पड़े हैं या पेटियों में बंद। उन्हें केवल ‘रचनात्मकता’ अभिप्रेरित करती है। मैंने उन्हें उनकी रचनाओं से कभी संतुष्ट होते नहीं देखा। कोई चार दशक पुरानी कविता आज उनके सामने कुछ देर तक रखी रह जाये तो उसे पुनः परिवर्धित करने का विचार उनके मन के कोने में बैठने लगेगा। मुझे लगता है उनकी रचनाओं की आलोचना उन्हें ज्यादा संतुष्टि देती है। वे कहते हैं “एक अच्छी कविता की सबसे अच्छी आलोचना दूसरी उससे अच्छी कविता को रच देना है।”
मैं दादा की रचनाओं का पाठक नहीं हूँ। श्रोता हूँ। ‘नौकर की कमीज़’ उपन्यास मेरे जन्म के आस-पास लिखा गया, इसलिए उसका मैं पाठक हूँ। लेकिन उसे पढ़ने में भी मैंने कविता ही सुनी है। उनके उपन्यास, कहानियाँ, साक्षात्कार और कविताएँ मुझे ‘एक’ लंबी कविता लगते हैं। ‘एक’ ऐसी लंबी कविता जिसका उपन्यास, कहानी के रूप में केवल आवरण बदलता है; मूल तो वह जो है, वही है- एक कविता। उस ‘एक’ लंबी कविता को मैं पसंद के आधार पर विभक्त भी नहीं कर पाऊँगा। क्योंकि सर्वश्रेष्ठ का चयन तो बहुत या कुछ के बीच से ही किया जा सकता है। ‘एक’ में यह संभव नहीं। उनकी रचनाओं में बनने वाले ‘दृश्य’ मुझे अच्छे लगते हैं। दृश्य से बने शब्द और शब्दों से बने दृश्य भी तथा अर्थों से बनने वाले अदृश्य बिंब-प्रतिबिंब भी। शायद यह भी एक कारण हो कि फिल्म या नाटक से जुड़े लोगों की नज़र उनकी रचनाओं पर ठहर जाती है।
हम सब उनके रचना संसार में रहते हैं, उनके साथ। सूर्य के उदय और अस्त होने के साथ-साथ उनके कार्य करने की ऊर्जा जागती और विश्राम करती है। उनके लिखने का समय तय नहीं होता। वे कभी तब लिखते हैं जब हम सब सो रहे होते हैं और कभी तब जब खूब सारे बच्चे उनके आस-पास खेल रहे हों, कुछ उनसे टिके, कुछ उनपर लदे हों। वे वहीं आस-पास बैठकर लिखना पसंद करते हैं, जहाँ हम सब लोग काम कर रहे हों। कई बार उस आस-पास में बैठने की जगह भी नहीं होती तो वे खड़े-खड़े ही लिखते रहते हैं। ऐसे में हम सब के काम की गति बढ़ जाती है ताकि हम वहाँ का काम जल्द ख़त्म कर ऐसी जगह पहुँच जायें जहाँ बैठने की जगह हो। उनका एकांत सब के साथ रहना है। कई बार तो वे सोने चले जाते हैं। सो भी जाते हैं। कुछ घंटे बाद वे आवाज़ देते हैं। लेटे-लेटे कुछ अक्षर या एक-दो छोटे वाक्य हमें लिखने के लिए कहते हैं। और हम उन अक्षरों/वाक्यों को उनकी टेबल पर रख देते हैं। जब हम सुबह उठते हैं तो वे कुछ अक्षर एक पूरी कविता बन गये होते हैं। एक पूर्ण कविता।
वे जब भी कुछ लिखते हैं, हमें जरूर सुनाते हैं। एक कविता के कई ‘ड्राफ्ट’ हम सुनते हैं। एक कविता रचते हुए उन्हें सुनते हैं। गद्य को गढ़ते हुए सुनते हैं। बल्कि कहूँगा- हम उनकी पूरी रचना प्रक्रिया के श्रोता हैं। फुर्सत में वे कभी नहीं होते। तब भी नहीं जब वे आराम कर रहे होते हैं। करीब सात वर्ष पूर्व जब उन्हें हृदयघात हुआ, उसके अगले दिन से वे अस्पताल के गहन-चिकित्साकक्ष में लिखने लगे। अधलेटे लिखने की वजह से बार-बार उनकी डॉटपेन चलना बंद हो जाती तो उन्होंने पेंसिल माँगकर उससे लिखना शुरू कर दिया। उनकी जिजीविषा और लेखन से उन्हें मिलने वाले गहन सुकून के कारण डॉक्टरों ने भी वहाँ उन्हें रचने की कु्छ छूट दे दी।
छिटपुट नोट्स को छोड़कर पिछले 20 वर्षों से वे सीधे कंप्यूटर में टाइपकर ही लिखते रहे हैं। उन्होंने टाइपिंग करीब 62 वर्ष की उम्र में सीखी। दो वर्ष पूर्व उनकी आँखों में मोतियाबिंद बढ़ गया था। वे ठीक से लिख और टाइप नहीं कर पा रहे थे। ऐसे में वे कहते जाते हैं और माँ लिखती जातीं। बाद में मैं उसे टाइप कर देता। फिर माँ उन्हें वो सुना देतीं।
उनका प्रूफ भी हम सुनते। उनका सृजन निरंतर है। घर में टेलीफोन के पड़ोस में कुछ कोरे कागज़ों के टुकड़ों के साथ पेन या पेंसिल रहते हैं। दादा फोन पर बात करते हुए अक्सर कुछ न कुछ उन कागजों पर करते रहते हैं। बात ख़त्म होने पर दादा की उँगलियों के सहारे चलती वह कलम भी वहीं रूक जाती। और कुर्सी से उठने से पहले दादा उस कागज़ को टेबल के नीचे रखे कूड़ेदान में डाल भी देते। यह बात हमें बहुत बाद में पता चली। दादा फोन पर बात करते वक्त भी चित्र बनाते रहते हैं। कागज़ों के ढेर से हम बहुत कम चित्र ढूंढ पाये हैं। मुझे उनका हर क्षण उनकी रचना प्रक्रिया में शामिल लगता है।
उनसे जुड़े किसी विषय पर कोई गलत आलोचना भी करे तब भी वे मौन रहते हैं। इसलिए नहीं कि उसका कोई उत्तर नहीं है, बल्कि इसलिए कि उसका उत्तर देना रचनात्मक कार्य नहीं है।
मैं यह भूल गया था कि विरासत में मुझे ‘भूलना’ भी मिला है। दादा मुझे भी भूल जाते हैं। कई बार ऐसा हुआ कि वे स्कूटर में मुझे कहीं ले गये। सामान लेने हम दोनों उतरे। लेकिन घर में सामान पहुँच गया और मैं सामान की जगह छूट गया। उम्र के आठवें दशक में दादा का यह भूलना अब प्रतिध्वनित होने लगा है। वे कहीं जाते हमारे साथ हैं। लेकिन अपने काम में स्वयं इतने खो जाते हैं कि यह भूल जाते हैं कि वे आये किसके साथ थे। हम उनसे छू सकने की दूरी से ज्यादा दूर कभी नहीं हुए। उनका यह भूलना बहुत सी बातों में है। मुझे मेरा बचपन उस तरह याद नहीं जिस तरह दूसरों को होता है। दादा को भी अपना बचपन उस तरह याद नहीं। मुझे वो हर चीज उस समय याद नहीं आती जब आनी चाहिए। और उस तरह भी याद नहीं आती जिस तरह उसे आना चाहिए था। हर बार याद का याद आना उसके संपूर्ण के साथ नहीं होता। स्मृतियाँ टूट-टूटकर ही लौटती हैं। फिर उन टुकड़ों को जोड़ने का क्रम भी भूल जाता हूँ। धीरे-धीरे वे भी उसी तरह लौटती हैं। क्षणभर पहले बीता बहुत जल्द स्मृति बन जाता है और स्मृति बहुत कम शेष रह पाती हैं। दादा के साथ के समय को मैं जब-तब ठहराने की कोशिश करते रहता हूँ। कुछ याद रखने की इच्छा और उसे भूल जाने के बीच का क्षण अब मैं तस्वीरों में कैद करने लगा हूँ। लेकिन उस तस्वीर में शब्द कैद होने से छूट जाते हैं। भूलना, दादा की विशिष्टता है, मौलिकता और शायद ‘मैनरिज़्म’ भी।
दादा एक आम पिता की तरह हैं, जो अपने बच्चों और आस-पड़ोस को सुखी देखना चाहते हैं। इस सुखी शब्द में केवल ज्ञान-रचनात्मकता-उत्कृष्टता की समृद्धि और विकास तथा मनुष्य हैं। इस पूरी बात में एक बात रह गई। मेरे लिखे प्रत्येक ‘दादा’ शब्द में एक अनकहा छूट गया, माँ। दादा के रचनात्मक और मनुष्य जीवन में केवल दादा शब्द अकेले नहीं लिखा जा सकता। दादा शब्द, माँ शब्द के बिना बे-अर्थ है। इन दोनों शब्दों में न कोई उपसर्ग हैं न प्रत्यय। दादा-माँ, एक शब्द है, एक ही जीवन।
उनका जीवन बहुत सामान्य सा है। किसी अदृश्य से छोटे बिंदु की तरह। शायद रंगों, रेखाओं, कई पट्टियों से घिरे सैयद हैदर रज़ा के चित्रों का वह बिंदु जिसकी व्याख्या अनंत है। दादा का कहीं भी जाना घर से बाहर जाना नहीं होता, यह पृथ्वी उनका केवल एक कमरा है। दादा की इस याद को उनके शब्दों से ही अल्पविराम लगाता हूँ। उन्होंने थोड़े दिन पहले ही लिखा है-
“समय जो समाप्त है वह अपनी शुरुवात से समाप्त है। चाहे कितना भी लंबा समय हो या बस एक मिनट का। बीते से एक क्षण बचता नहीं। यह जो नहीं, वह गुमा नहीं है कि याद करने या ढूंढने से जस का तस मिल जायेगा। हो सकता है याद करना ढूँढने का तरीका हो। बीते के कबाड़ में काम का शायद कुछ भी नहीं। इस समय मेरे लिए खोना बहुत आसान हो गया है और ढूँढना सबसे कठिन। याद करना भूलने के साथ याद रहता है। सब याद कभी नहीं रहता। कभी कुछ याद आया। कुछ कभी। और कुछ, कभी याद नहीं आता, यह भी याद नहीं कि क्या याद नहीं। यद्यपि मेरा बचपन बहुत पीछे चला गया, पर बचपना लगता है बुढ़ापे में भी बचा रहता है। बचपन को याद करना भी जैसे बचपना है। पर मैं सचमुच बचपना करता हूँ बिना बचपने को याद करते हुए।”
दादा सबकी फिक्र करते रहते हैं। ब्रह्मांड की भी। एक दिन उन्होंने मेरी बेटी से कहा था और फिर लिखा भी- “एक दिन पत्थर भी नहीं बचेगा। चाहता हूँ पत्थर का बीज सुरक्षित रहे।”
उनकी यह कामना हम सबकी सोच में भी बची रहे, यह मैं सोचता हूँ।
आप सबने मेरे पढ़े हुए को कहते सुना। बहुत आभार।
पता-
शाश्वत गोपाल,
द्वारा श्री विनोद कुमार शुक्ल
सी-217, शैलेन्द्र नगर,
रायपुर-492001
छत्तीसगढ़
मो.: 9179518866
ई-मेलः sgtalk7@gmail.com
बुलडोजर पर कविताएं
साहित्य, विचार और कलाओं की वेब पत्रिका समालोचन ने अपने ताजा अंक में बुलडोजर के खिलाफ वरिष्ठ कवि विजय कुमार, राजेश जोशी, अरूण कमल, विष्णु नागर, लीलाधर मंडलोई, अनूप सेठी, कृष्ण कल्पित, बोधिसत्व, स्वप्निल श्रीवास्तव, अत्युतानंद मिश्र, विनोद शाही और हूबनाथ की कविताएं छापी है. इस खास अंक का संयोजन विजय कुमार ने ही किया है. इन कविताओं को पढ़कर कहा जा सकता है कि कवि चुप नहीं है. कविता मुठभेड़ के लिए तैयार है. यहां प्रस्तुत सभी कविताएं समालोचन से ली गई है. समालोचन और वरिष्ठ कवि विजय कुमार का आभार.
राजेश जोशी
बुलडोजर
तुमने कभी कोई बुलडोजर देखा है
वो बिल्कुल एक सनकी शासक के दिमाग़ की तरह होता है
आगा पीछा कुछ नहीं सोचता,
उसे बस एक हुक़्म की ज़रूरत होती है
और वह तोड़ फोड़ शुरू कर देता है
सनकी शासक कल्पना में कुचलता है
जैसे विरोध में उठ रही आवाज़ को
बुलडोजर भी साबुत नहीं छोड़ता किसी भी चीज़ को
सनकी शासक बताना भूल जाता है
कि बुलडोजर को क्या तोड़ना है
और कब रूक जाना है
सनकी शासक ख़्वाबों की दुनिया से जब बाहर आता है
मुल्क़ मलबे का ठेर बन चुका होता है
सनकी शासक मलबे के ढेर पर खड़े होने की कोशिश करता है
पर उसकी रीढ़ टूट चुकी है
वह ज़ोर ज़ोर से हँसना चाहता है
पर बुलडोजर ने तोड़ डाले है उसके भी सारे दाँत
बुलडोजर किसी को नहीं पहचानता है
बुलडोजर सब कुछ तोड़ कर
बगल में खड़ा है
अगले आदेश के लिये !
अरुण कमल
बुलडोजर
अब न तो पहिए चलते हैं न जबड़े
पहियों के चारों तरफ़ दूब उग आयी है और चींटियों के घर
जबड़ों के दाँत टूट चुके हैं और उन पर खेलती हैं गिलहरियाँ
अपने ज़माने में मैंने कितने ही झोंपड़े ढाहे उजाड़ीं बस्तियाँ
दुनिया का सबसे सुस्त चाल वाला सबसे ख़ूँख़ार अस्त्र
एक बार एक बच्चा दब गया था पालने में सोया
मैं अक्सर सोचता कोई मेरे सामने खड़ा क्यों नहीं होता
दस लोग भी आगे आ जाते तो मेरा इस्पात काँच हो जाता
बस एक बार एक वीरांगना खड़ी हो गयी थी निहत्थे
और मुझे रुकना पड़ा था असहाय निर्बल
पीछे मुड़ना मैं नहीं जानता पर मुझे लौटना पड़ा
तोड़ना कितना आसान है बनाना कितना मुश्किल
अब चारों तरफ घनी रिहाइश है इतने इतने लोग
और मैं बच्चों का खेल मैदान हूँ
उसी बस्ती के बीच अटका अजूबा
वो ज़माना बीत गया वो हुक्मरान मर गये अपने ही वज़न से दबकर
काश मैं मिट्टी की गाड़ी होता!
विजय कुमार
बुलडोजर
बस्तियां ही अवैध नहीं
उनकी तो सांसें भी अवैध थीं
हंसना और रोना
भूख और प्यास
मिट जाने से पहले
थोड़ी सी छत थोड़ी सी हवा
भोर की उजास और घनी रातें
ईंट की इन मामूली दीवारों के पीछे
यहीं रही होगी आदम और हव्वा की कोई जन्नत
बच्चों की किलकारी
शक्तिहीन बूढ़ों की दुआएं
सब अवैध था सब कुछ
विशाल भुजाओं वाली
राक्षसी मशीनों
के भीमकाय जबड़ों से
अब लटक रहे हैं
उनकी
याचनाओं के कुछ बचे खुचे लत्तर
इस पृथ्वी पर ज़मीन का कौन सा टुकड़ा है
कि अब वहां बचाकर ले जाएं वे अपनी लाज
कौन सा रिक्त स्थान भरें
कोर्ट याचिकाओं में
कोई जगह नहीं मनुष्य चिह्नों के लिए
दर्द सिर्फ शायरी में
और
ग्राउंड ज़ीरो पर केवल एक ‘एक्शन प्लान’
एक उन्माद
कि कुचल कर रख दिया जाएगा सब कुछ
वे अपने बिखरे हुए मलबे में
खोजते हैं अपने कुछ पुराने यकीन
कोई ज़ंग खाई हुई आस
अपना रहवास
इस दुनिया में अपने होने के सबसे सरल रहस्य
घटित के बाद
अब वहां बस एक ख़ालीपन
उसे भर नहीं सकता कोई
कोई चीत्कार
शोक आघात विलाप ख़ामोशी
बचे हैं केवल तमतमाए चेहरे
ताकत के निज़ाम में
सब बिसरा दिया जाएगा
सब लुप्त हो जाएगा
सबकुछ
उजड़ना टूटना बिखरना ध्वस्त होना
पेड़ काट डाले गए
एक बेरहम दुनिया में
चिड़ियाएँ अशांत
वे अपनी स्मृतियाँ संजोए
वे अपनी फ़रियाद लिए
मंडराती रहती हैं
ज़मीन पर गिरे हुए घोंसलों के इर्दगिर्द
कोई भरपाई नहीं
यह हाहाकार भी उनका डूब जाता है
पुलिस वैन के चीखते हुए सायरनों में.
विष्णु नागर
बुलडोजर एक विचार है
बुलडोजर एक विचार है
जो एक मशीन के रूप में सामने आता है
और आँखों से ओझल रहता है
बुलडोजर एक विचार है
हर विचार सुंदर नहीं होता
लेकिन वह चूंकि मशीन बन आया है तो
इस विचार को भी कुचलता हुआ आया है
कि हर विचार को सुंदर होना चाहिए
बुलडोजर एक विचार है
जो अपने शोर में हर दहशत को निगल लेता है
तमाशबीन इसके करतब देखते हैं
और अपने हर उद्वेलन पर खुद
बुलडोजर चला देते हैं
जब भी देखो मशीन को
इसके पीछे के विचार को देखो
वरना हर मशीन जिसे देखकर बुलडोजर का खयाल तक नहीं आता
बुलडोजर साबित हो सकती है.
लीलाधर मंडलोई
रमजान में बुलडोजर
हैरां हूं इन उजड़े घरों को देखकर
ख़ाक़ उठती है घरों से
कुछ नहीं है बाक़ी उठाने को
यह वो शहर तो नहीं
जहां हर क़दम पर ज़िंदगियां रोशन हुआ करती थीं
अब ऐसा बुलडोजर निज़ाम
और मातम-ही-मातम
चौतरफ़ा कम होती सांसों में भागते-थकते लोग
नमाज़ में झुके सर
और दुआओं में उठे खाली हाथ
मांग रहे है सांसें रमजान के मुक़द्दस माह में
अब यहां ईदी में बर्बाद जीवन के अलावा
कुछ भी नहीं,कुछ भी नहीं.
बुलडोजर: तुलसी के राम का स्मरण
बचपन में मैंने देखे
हरे-भरे जंगल
उनके बीच बड़ी-बड़ी मशीनों से
धरती के गर्भ को भेदते लौह अस्त्र
कोयले के भंडारों की तलाश में
क्रूर तरीक़ों से जंगलों को
नेस्तनाबूद करने के लोमहर्षक दृश्य
वे कभी स्मृति से ओझल नहीं हुए
जीव-जंतुओं के साथ उजड़ते देखा
आदिवासियों के घरों को
बुलड़ोज़र के भीमकाय उजाड़ू जबड़ों में
लुटती मनुष्यता को देखना बेहद मुश्किल था
बुलड़ोज़र के पार्श्व में थी कोई दैत्य छवि
जिसे सब डरते हुए कोसते-गरियाते
लेकिन तब उजड़ने वालों से पूछने का रिवाज था
उनके साथ कोई भेदभाव न था, न जाति भेद
धर्म कभी विकास के रास्ते हथियारबंद न था
आज बुलडोजर पर सवार जब कोई गुज़रता है
वह ड्राइवर नहीं तानाशाह होता है
वह किसी एक क़ौम को निशाने पर लेता है
वह मद में भूल जाता है
घरों में सोये ज़ईफ़ों, बच्चों यहां तक
गर्भवती महिलाओं को
भयावह त्रासद ख़बरों के बीच
दुख और पश्चाताप में असहाय
मैं करता हूं तुलसी के राम का स्मरण
वह नहीं होता मौक़ा-ए-वारदात पर
वारदात को बेरहम ढंग से अंजाम देने वालों के भीतर
राम की जगह होता है मदांध तानाशाह का बीज
तानाशाह का ईमान और धर्म पूछती जनता
बुलडोजरों के जाने के बाद
एक बार फिर ध्वस्त जगहों पर
मुहब्बत के फूलों के खिलने के लिए
आशियाने बनाना शुरु कर देती है
इस बनाने से यह न समझा जाए
कि जनता बुलडोज़रों के साथ
तानाशाहों के महलों की तरफ़ कूच नहीं कर सकती.
अनूप सेठी
बुलडोजर और बुढ़िया संवाद
ओ बुलडोजर ? तू कहां चला?
उन्नने ड्यूटी पर भेजा है
क्या कह कर भेजा है?
दरो दीवार तोड़कर आ?
जो दिख जाएं खोपड़े फोड़ कर आ?
अंधी है क्या?
दिखता नहीं?
ड्यूटी बजा रहा हूं?
लोकतंत्र का घंटा घनघना रहा हूं?
कान खोल कर सुन ले
मेरा पिंडा-जिगरा लोहे का
लौह दरवाजों से निकला
मेरा पुर्जा पुर्जा लोहे का
मेरे मुंह मत लग री बुढ़िया
दो जो चार सांसें बची हैं, ले ले
सवाल किया तो यहीं धूल चटा दूंगा
नामोनिशान मिटा दूंगा.
कृष्ण कल्पित
बुलडोजर
ठाकुर साहेब, बहादुर कितने हो?
ऐसा समझो, ग़रीब और कमज़ोर के तो बैरी पड़े हैं !
(एक राजस्थानी कहावत)
(२)
घर वही ढहा सकता
जिसका कोई घर नहीं
जैसे युवावस्था में घर से भागा हुआ कोई भिक्षुक !
(3)
बुलडोजर तो तुम्हारे घर पर भी चल सकता है
या तुम्हारा घर लोहे का बना हुआ है ?
(४)
उन्होंने मन्दिर तोड़ डाले
तुम मस्जिदों को ढहा दो
नफ़रतों और
बुलडोजर का कोई धर्म नहीं होता !
(५)
तुम्हारे बुलडोजर से
लाल क़िला नहीं ढह सकता
नहीं ढह सकता ताजमहल
गोरख-धाम नहीं ढह सकता
तुम काशी विश्वनाथ मन्दिर को नहीं ढहा सकते
जामा मस्जिद से टकराकर तुम्हारे बुलडोजर टूट जाएँगे
तुम्हारा बुलडोजर सिर्फ़ ग़रीबों को तबाह कर सकता है !
(६)
कबीर के सुन्न-महल को कैसे ढहाओगे
वहाँ तक तो तुम्हारी रसाई तक नहीं है, मूर्खों !
(७)
ढहा कर ही तुम सत्ता में आए हो
इसलिए तुम ढहा रहे हो
तुमने उस मस्जिद को ढहा दिया
जिसमें काशी के ब्राह्मणों के आक्रमण से आहत तुलसीदास ने पनाह ली थी
जिसमें रामचरितमानस के कई प्रसंग लिखे गए !
(८)
इसमें अब कोई संदेह नहीं कि
तुम सारे लोग एक दिन
कुचलकर मारे जाओगे !
(९)
पुण्य ही नहीं
पाप भी फलते हैं
क्या किया जाए
यह भयानक मृत्यु तुमने ख़ुद चुनी है !
(१०)
मैं बुलडोजर से कुचलते हुए
तुम्हें देखना चाहता हूँ !
(११)
आमीन/तथास्तु !
स्वप्निल श्रीवास्तव
बुलडोजर
ये बुलडोजर नहीं
जैसे शत्रु देश के टैंक हो
अपने ही नागरिकों को रौंद
रहे हों
जो नाफरमानी करता है
उसे सबक सिखा देते है
इनके लिए कोई सरहद नहीं
नहीं है कोई बंदिश
इनके मनमानी को कोई चुनौती
नहीं दे सकता है
बुलडोजर अचानक कही भी पहुंच सकते हैं
उन्हें किसी हुक्म की जरूरत
नहीं है
वे हुक्म के परे हैं
मगरमच्छ की तरह रक्ताभ हैं
इनके जबड़े
नुकीले हैं इनके दांत
वे दूर से दिखाई देते हैं
ये नदी या झील में नहीं रहते
जमीन पर कवायद करते
रहते हैं
निरपराध लोगों को बनाते हैं
शिकार
वे बिना सूचना के आते है
किसी अदालत में नहीं होती
इनके खिलाफ कार्यवाही
वे किसी अदालत का आदेश
नहीं मानते
खुद ही फतवा जारी करते हैं
पूरे इलाके में है इनका खौफ
लोग इनके डर से बाहर
नहीं निकलते
बुलडोजर नींद में भी दुःस्वप्न
की तरह आते हैं
और हमारा चैन बर्बाद कर
देते हैं
ये तानाशाहों के सैनिक हैं
इन्हें अभयदान मिला हुआ है
वे कही भी जा सकते हैं
और किसी को भी ढहा
सकते हैं
चाहे वह इमारत हो या कोई
आदमी
थोड़ा रुक कर सोचिये
जो कारीगर इसे बनाते है
वह क्या इसके कुफ्र से बच
पाते होंगे ?
बोधिसत्व
बुलडोजर
एक चूड़ी की दुकान में
एक सिंदूर की दुकान में
अजान के समय घुसा वह बुलडोजर की तरह!
उसने कहा मैं चकनाचूर कर दूंगा वह सब कुछ जो मुझसे सहमत नहीं!
जो मेरे रंग का नहीं
उसे मिटा दूंगा!
उसे आंसू नहीं दिखे
उसे रोना नहीं सुनाई दिया
उस तक नहीं पहुंचीं टूटने की आवाजें
उसे बर्तनों के विलाप नहीं छू पाए!
उसे खपरैलों की चीख ने छुआ तक नहीं
कुचलने को वीरता और तोड़ने को शौर्य कह कर
ढहाता रहा टुकड़े टुकड़े जोड़ी
कोठरियों और आंगनों को!
देश की राजधानी में भी हाहाकार की तरह था वह
अपनी नफरत भरी उपस्थिति से समय को विचलित करता एक संवैधानिक व्यभिचार की तरह था!
वह आएगा और सब कुछ उजाड़ जाएगा
यह कह कर डराते थे बुलडोजर के लोग
उनको जो बुलडोजर के स्वर में स्वर मिलाकर नारे नहीं लगाते थे
जो बुलडोजर का भजन नहीं गाते थे
बुलडोजर उनको मिटाने की घोषणा करता
घूम रहा है!
बुलडोजर को किसी की परवाह नहीं
क्योंकि उसे एक गरीब ड्राइवर नहीं
राजधानी में बैठा कोई और चला रहा था
जिसे सब कुछ कुचलना और गिरा देना पसंद था!
जो तोड़ने की आवाज सुन कर ख़ुश होता था
और जब कुछ न टूटे तो
वह बिगड़े बुलडोजर की तरह
सड़क किनारे धूल खाता रोता था!
अच्युतानंद मिश्र
ताकतवर लोगों का भय
(प्रिय रवि राय के लिए)
सबसे ताकतवर लोग
सबसे कमजोर लोगों से लड़ रहे हैं
सबसे ताकतवर लोग हंसते हंसते पागल हो रहे हैं
सबसे कमजोर लोग गठरी बांधे
बच्चे को गोद में लिए सड़क पर
घिसट रहे हैं
वे एक के बाद एक
दुख की नदी में पार उतर कर
सूअरों को बचा रहे हैं
वे शहर की सबसे बदबूदार गली में
घास फूस की छतें उठा रहे हैं
वे मनुष्य और मनुष्यता के बारे में नहीं
न्याय अन्याय और असमानता के बारे में नहीं
दुख के बाद सुख
रात के बाद दिन
के बारे में नहीं सोच रहे हैं
वे खालिस पानी में उबल रही
चाय की पत्ती के बारे में
सीलन भरी बिस्तर पर लेटे
बुखार से तपते बच्चे के बारे में
म्युनसिपालिटी द्वारा काट दी गई
बिजली के बारे में
धर्म के बारे में नहीं
आने वाले त्यौहार के बारे में सोच रहे हैं
वे एक अंधकार से दूसरे अंधकार
के बारे में सोच रहे हैं
उस खामोशी के बारे में
उस खामोशी के भीतर दबे आक्रोश के बारे में
उस आक्रोश में छिपी हताशा के बारे में
बहुत कम सोच रहें हैं
ताकतवर लोग
ताकत की दवाई बना रहे हैं,
वे लोहे और फौलाद को पल भर में
मसलने का विज्ञान खोज रहे हैं
मुलायम गलीचे और लजीज खाने
के बारे में सोच रहे हैं
वे बार-बार ऊब रहे हैं
वे हर क्षण कुछ नया, कुछ अधिक आनंददायक
कुछ और सफल
चमत्कृत कर देने वाली
कोई चीज ढूंढ रहे हैं
वे हुक्म दे रहे हैं और नाराज हो रहे हैं
लोगों को संख्या में
और संख्या को शून्य में बदल रहे हैं
सबसे ताकतवर लोग बुलडोजर के बारे में सोच रहे हैं
सबसे कमजोर लोग भी बुलडोजर के बारे में सोच रहे हैं.
सबसे ताकतवर लोग खुशी से नाच रहे हैं
सबसे कमजोर लोगों का दुख समुद्र की तरह बढ़ता जा रहा है
सबसे ताकतवर लोग थोड़े हैं
सबसे ताकतवर लोग इस बात को जानते हैं
सबसे कमजोर लोग बहुत अधिक हैं
सबसे कमजोर लोग इस बात को नहीं जानते
सबसे ताकतवर लोगों को यह भय
रह रहकर सताता है
एक दिन सबसे कमजोर लोग
दुनिया के सारे बुलडोजरों के सामने खड़े हो जाएंगे.
विनोद शाही
पत्थर धर्म
पाषाण काल से
कथा सनातन चली आ रही
अब तक पत्थर
मानव होने की
ज़िद करते हैं
शिला-पुरुष हैं एक ओर
बुलडोज़र के पहियों से
उनके कुछ टुकड़े अलग हुए तो
जन्मे बाकी के पत्थर जन
जैसे आदम की पसली से
हब्बा निकली है
जैसे पैरों से ब्रह्म देव के
शूद्रों का उद्भव होता है
मर्यादा पुरुषोत्तम
शिला-पुरुष ने
अन्य सभी को
स्वयं सेवकों में रखा है
सृष्टि पूर्व से रचित सनातन
पृथ्वी शिला सा
‘पत्थर धर्म’ चलाया है
‘बुलडोज़र स्मृति’ को
संविधान का रूप दिया है
जन जन की पत्थर काया को
तोड़ा उसने रोड़ी में
और आत्मा का चूरा कर
सीमेंट में बदला
शिला-पुरुष का भव्य भवन
यों खड़ा हुआ
अलग धर्म के लोग मगर
‘बुलडोज़र स्मृति’ के
विधि विधान के
जलसों त्योहारों से बचते हैं
हाथों में पत्थर
उनके भी हैं
और अहिंसक हैं थोड़े
गीता अपनी के मंत्र बोलते
“देह हमारी बेशक कुचले बुलडोज़र कोई
नहीं आत्मा उसके हाथों आयेगी”
परवाह नहीं, बस रौंद दिये
परधर्मी घर बुलडोज़ हुए
पत्थर के ढेर बचे पीछे
पहचान नहीं पाता है कोई
कहां पड़े दिखते पत्थर हैं
कहां स्वयं वे पड़े हुए हैं
‘बुलडोज़र स्मृति’ में लिखा मिला है
‘शठे शाठ्यम् समाचरेत’ ही
न्याय धर्म की रीति है
वे आतंकी, अर्बन नक्सल हैं
पाकिस्तानी तक उनमें हैं
बीमार देश है
दवा तिक्त पीनी पड़ती है
जड़ समाज होता जाता है
नहीं बुरा यह लेकिन इतना है
जितना उसका
पत्थर होने की
स्मृति से बंधना है
खो देना इतिहास बोध को
जीते जी पत्थर होने से
राज़ी होना है
पत्थर से मुर्दा
सभी हो रहे
कुछ पत्थर होकर भी
लेकिन थोड़े जीवित हैं
लेकिन बेहद थोड़े हैं
यह संकट की
घड़ी बड़ी है
देव जनों की प्रस्तर प्रतिमाएं
जीवित पत्थर से बनती हैं
जीवित पत्थर पर
छिपे हुए हैं
देव मूर्तियां इसलिये
हो गयीं विहीन
ईश्वर से अपने
यह संकट की
घड़ी बड़ी है
संस्कृति से जीवन
विदा हो गया
युद्ध लिप्सा से भरे हुए
मानव द्रोही काम सभी
बेजान पत्थरों के जिम्मे हैं
जीवित पत्थर से
जीवित जन
पाषाण काल में
लौट रहे हैं
लौट रहे पर
आसान नहीं उनकी यात्रा है
रस्ता
गुहाद्वार से होकर जाता है
उसके मुख पर पड़ी हुई है
एक शिला
जिस पर इतिहास आद्य काल का
भित्ति चित्र सा अंकित है
दिख रहा साफ है
शिला-पुरुष पृथ्वी के सारे
उसकी नकल किया करते हैं
पाखंडी प्रतिनिधि ईश्वर के
इतिहास शिला की
पैरोडी खाली करते हैं
इतिहास शिला से
भू कंपन से स्वर उठते हैं
बोल रही वह
मेरे पीछे छिपे रहस्य हैं
खोलो द्वार
सत्य कथा को
फिर से बाहर आने दो
पाषाण काल की ध्वनियां सारी
उसकी भाषा में अर्थ बनी हैं
पत्थर लिपि में लिखी मिलीं हैं
दुश्मन बेशक बहुत बड़ा हो
और हारना निश्चित हो
रणभूमि को ऐसे में
पीछे छोड़ो, रणछोड़ बनो
धैर्य धरी, दृढ़ बने रहो
इतिहास मदद करने आयेगा
कालयवन में शक्ति दंभ है
जड़ बुद्धि दैत्य है, वैसा ही है
जैसा होता बुलडोजर कोई
अंध गुहा के भीतर तक भी
पीछा करता आयेगा ही
आने दो उसको पीछे पीछे
असुरारि मुचुकुंद
वहां सोया है कब से
काल तुम्हारा
कालयवन
उसका है भोजन
महा शिला से
कालयवन कंकाल बने
पड़े हुए है
काल गुहा में जाने कितने
लौटे वापिस
पाषाण काल से
जीवित पत्थर
चिकने होकर
स्वयं लुढ़कना
आगे बढ़ना सीख रहे हैं
स्वयं-सेव हैं वे ही सच्चे
मुर्दा पत्थर
लेकिन ठहरे हैं
‘शिला छाप’ हैं
भगवां ठप्पे
उनके माथों पर लगे हुए हैं
ट्रेड मार्क बनते हैं जैसे
उपयोगी चीज़ों के
खुसरो बन कर
आये हैं लेकिन वे तो अब
छाप तिलक सब छोड़ रहे हैं
वे कबीर हैं
अष्ट-छापिया
पत्थर धर्मों के पार खड़े हैं
हूबनाथ
बुलडोजर
सिर्फ़
एक शब्द ही नहीं
एक मशीन ही नहीं
एक अवधारणा भी नहीं
बल्कि
एक पॉलिसी है
एक नीति
एक कूटनीति है
बुलडोजर
संविधान की पुस्तक में
छिपा एक दीमक है
सत्ता की आत्मा में पैठा
एक डर है
शक्तिहीनता का संबल
पौरुषहीनता की दवाई है
बुलडोजर
झूठ का पहाड़
जब ढहने लगे
क्रूरता के क़िले की दीवार
में सेंध लग जाए
रंगे सियार का
उतरने लगे रंग
तो सबसे बड़ा सहारा है
बुलडोजर
खेतों को रौंदता हुआ
कमज़़ोर घरों को ढहाता
झोंपड़ियाँ उजाड़ता
नंगी भूखी भीड़ पर
रौब जमाता
जब थक जाता है
तब सत्ता की जाँघ तले
सुस्ताता है
बुलडोजर.
यहां पढ़िए वे पांच कविताएं जो खूब होती हैं वायरल
हिंदी साहित्य को आदिकाल, भक्ति काल, रीति काल,आधुनिक काल और नव्योत्तर काल में बांटा गया है. फिलहाल कौन सा काल चल रहा है इसकी जानकारी ठीक-ठाक ढंग से किसी के पास नहीं है.ज्यादातर लोग मानते हैं कि सारे कालों का एक ही काल है और वह हैं अन्याय को बढ़ावा देने वालों का काल.इस काल में बहुत से साहित्यकारों ने पाला बदलकर चापलूसी से भरी हुई कविताएं और कहानियां लिखी है, लेकिन बहुत से साहित्यकार ऐसे हैं जो अन्याय के आगे जमकर डटे हुए हैं और अपना प्रतिरोध दर्ज कर रहे हैं. यहां हम अपने पाठकों के लिए ऐसी पांच कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं जो हर दूसरे-तीसरे दिन वायरल होती हैं और सोशल मीडिया में सबसे ज्यादा पढ़ी जाती है.
एक- योगा कर
भूख लगी है? योगा कर!
काम चाहिए ? योगा कर!
क़र्ज़ बहुत है? योगा कर!
रोता क्यों है? योगा कर!
अनब्याही बेटी बैठी है?
घर में दरिद्रता पैठी है?
तेल नहीं है? नमक नहीं है?
दाल नहीं है? योगा कर!
दुर्दिन के बादल छाये हैं?
पन्द्रह लाख नहीं आये हैं?
जुमलों की बत्ती बनवाले
डाल कान में! योगा कर!
किरकिट का बदला लेना है?
चीन-पाक को धो देना है?
गोमाता-भारतमाता का
जैकारा ले! योगा कर!
हर हर मोदी घर घर मोदी?
बैठा है अम्बानी गोदी?
बेच रहा है देश धड़ल्ले?
तेरा क्या बे? योगा कर!
- राजेश चन्द्र
दो- कौन जात हो
कौन जात हो भाई?
“दलित हैं साब!”
नहीं मतलब किसमें आते हो?
आपकी गाली में आते हैं
गन्दी नाली में आते हैं
और अलग की हुई थाली में आते हैं साब!
मुझे लगा हिन्दू में आते हो!
आता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।
क्या खाते हो भाई?
“जो एक दलित खाता है साब!”
नहीं मतलब क्या-क्या खाते हो?
आपसे मार खाता हूँ
कर्ज़ का भार खाता हूँ
और तंगी में नून तो कभी अचार खाता हूँ साब!
नहीं मुझे लगा कि मुर्गा खाते हो!
खाता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।
क्या पीते हो भाई?
“जो एक दलित पीता है साब!
नहीं मतलब क्या-क्या पीते हो?
छुआ-छूत का गम
टूटे अरमानों का दम
और नंगी आँखों से देखा गया सारा भरम साब!
मुझे लगा शराब पीते हो!
पीता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।
क्या मिला है भाई
“जो दलितों को मिलता है साब!
नहीं मतलब क्या-क्या मिला है?
ज़िल्लत भरी जिंदगी
आपकी छोड़ी हुई गंदगी
और तिस पर भी आप जैसे परजीवियों की बंदगी साब!
मुझे लगा वादे मिले हैं!
मिलते हैं न साब! पर आपके चुनाव में।
क्या किया है भाई?
“जो दलित करता है साब!
नहीं मतलब क्या-क्या किया है?
सौ दिन तालाब में काम किया
पसीने से तर सुबह को शाम किया
और आते जाते ठाकुरों को सलाम किया साब!
मुझे लगा कोई बड़ा काम किया!
किया है न साब! आपके चुनाव का प्रचार..।
- बच्चा लाल उन्मेष
तीन- साहेब तुम्हारे रामराज में
एक साथ सब मुर्दे बोले ‘सब कुछ चंगा-चंगा’
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
ख़त्म हुए शमशान तुम्हारे, ख़त्म काष्ठ की बोरी
थके हमारे कंधे सारे, आँखें रह गई कोरी
दर-दर जाकर यमदूत खेले
मौत का नाच बेढंगा
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
नित लगातार जलती चिताएँ
राहत माँगे पलभर
नित लगातार टूटे चूड़ियाँ
कुटती छाति घर घर
देख लपटों को फ़िडल बजाते वाह रे ‘बिल्ला-रंगा’
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
साहेब तुम्हारे दिव्य वस्त्र, दैदीप्य तुम्हारी ज्योति
काश असलियत लोग समझते, हो तुम पत्थर, ना मोती
हो हिम्मत तो आके बोलो
‘मेरा साहेब नंगा’
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
- पारूल खक्कड़
चार- मैं बहुत सेंसिटिव हूं
बार-बार मत दिखाओ
सैकड़ों तपे हुए मील के पत्थरों
और उन झुलसे हुए लोगों को
मत दिखाओ उनके बाल-बच्चों को
उनके छालों भरे पांवों को
देखा नहीं जाता यह सब...
मैं बहुत सेंसिटिव हूं!
मैं अर्थात्,
महज़ मैं ही नहीं...
हम सब देशवासी...
वे, जो कल्चर्ड हैं
जिनके पास घर है
दरवाज़ा है
दरवाज़े पर बंदनवार है
रंगोली है
खिड़की में थाली, चम्मच
तालियां हैं
दीए में तेल है
देह में योग है
प्राणायाम है
छंद है
गंध है
मद्धिम संगीत है
मेडिटेशन है
धुर आनंद है,
इस तरह
आप की तरह
मैं भी बहुत सेंसिटिव हूं!
इसीलिए कहा पत्नी से
बाई नहीं है,
मैं मांज देता हूं बर्तन
झाडू-पोंछा कर देता हूं
उससे कहीं बेहतर...
तुम देखना !
स्त्री -मुक्ति !
और साथ-साथ व्यायाम भी...
सुनते ही पत्नी भी
घर में मटर की गुजिया
बनाने के लिए
खुशी-खुशी तैयार हो गई
कितना मोहक और कुरकुरा रिश्ता है हमारे बीच!
बहुत सेंसिटिव हूं मैं !
फिर भी बेकार में वे लोग
बार-बार
नज़र के सामने आ ही जाते हैं...
अरे, कोई न कोई इंतज़ाम
हो ही जाएगा उनका
सरकार उन्हें खिचड़ी दे तो रही है न
तो और क्या चाहिए उन्हें?
बैठे रहना चाहिए न चुपचाप
जहां कहा जाए...
जल्द से जल्द उन्हें
नज़रों से ओझल हो जाना चाहिए
देखा नहीं जाता
पीड़ा होती है
बहुत सेंसिटिव हूं जी मैं !
सच कहूं तो उनके बगैर शहर
सुंदर साफ-सुथरे और शांत लगने लगे हैं
और हां, सामाजिक अंतर या दूरियां
तो ज़रूरी ही है न?
अरे, यह सब तो सनातन है
हमारी पुरानी चिर-परिचित संस्कृति में
पहले से ही
यह विद्यमान है,
इस सच को छिपाया नहीं जा सकता.
आजकल के प्रगतिशील,
लिबरल्स, वामपंथी, शहरी नक्सल, टुकड़े टुकड़े गैंग वाले...
कहते हैं, नासा ने अब इन शब्दों को
ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में शामिल कर लिया है...
और वो...
क्या कहते हैं उसे...
ओह, याद नहीं आ रहा...
क्या है!
हां, मानवाधिकार वाले...
इनमें से कोई भी नकार नहीं सकता
इस सच को !
अमेरिका में बसा हुआ मेरा भांजा बताता है
वहां इस तरह के लोग नहीं मिलते
घरेलू काम, बागवानी मैं ही करता हूं
घर में रंगरोगन पत्नी-बच्चे करते हैं
मामा, घर भी हमने खुद ही बनाया है
अरे, सब की किट्स मिलती हैं ऑनलाइन...
डॉग को भी हम ही ले जाते हैं बाहर घुमाने
उसकी टट्टी-पेशाब ‘सक’ करने की मशीन लेकर.
सभी काम मशीन से ही होते हैं यहां...
हम भी काम करते हैं मशीन की तरह ही
समय बेहतर गुज़रता है !
भाग्यशाली है मेरा भांजा...
भारत भी बहुत जल्द हो जाए सुपर पॉवर
साथ ही विश्वगुरू भी
इस मामले में मैं ज़्यादा सेंसिटिव हूं...
अरे ओ बीवी !
ज़रा रिमोट तो देना...
क्यों दिखाते हैं ये फालतू बातें बिकाऊ मीडियावाले
दुनिया में भारत को बदनाम करते हैं...
बंद करो !
इन पैदल चलने वालों
और उनके छालेभरे पैरों को दिखाना...
क्या ज़रूरत है?
एक बात बहुत अच्छी है
कि
यह रिमोट मेरे जैसा ही सेंसिटिव है.
- मोहन देस
मराठी से अनुवाद: उषा वैरागकर आठले
पांच- मोदी
मोदी के घर में उसके कई सेवक हैं
उसका वहाँ कोई भाई, कोई बहन नहीं
उसके आँगन में खेलता कोई बच्चा नहीं
उसके अनुयायी लाखों में है
उसका कहने को भी कोई मित्र नहीं
वह जब आधी रात को चीख़ पड़ता है भय से काँप कर
उसे हिलाकर, जगाकर
‘क्या हुआ’, यह पूछने वाला कोई नहीं
‘कुछ नहीं हुआ’ यह उत्तर सुनने वाला कोई नहीं
ऐसा भी कोई नहीं जिसकी चिन्ता में
वह रात-रात भर जागे
ऐसा कोई नहीं
जिसकी मौत उसे दहला सके
किसी दिन उसे उलटी आ जाए
तो उसकी पीठ सहलाने वाला कोई नहीं
आधी-आधी रात जागकर
उसके दुख सुन सके, उसके सुख साझा कर सके
ऐसा कोई नहीं
कोई नहीं जो कह सके आज तो तुम्हें
कोई फ़िल्मी गाना सुनाना ही पड़ेगा
उसकी एक माँ ज़रूर हैं
जो उसे आशीर्वाद देते हुए फ़ोटो खिंचवाने के काम
जब तब आती रहती हैं
यूँ तो पूरा गुजरात उसका है
मगर उसके घर पर उसका इन्तज़ार करने वाला कोई नहीं
उसे प्रधानमन्त्री बनाने वाले तो बहुत हैं
उसको इनसान बना सके, ऐसा कोई नहीं।
- विष्णु नागर
छत्तीसगढ़ के रायपुर में 12 व 13 मार्च को लोकतंत्र और साहित्य विषय पर समारोह
विनोद कुमार शुक्ल और आलोचना के प्रतिमान
ईश्वर सिंह दोस्त / अध्यक्ष साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़
विनोद कुमार शुक्ल बहुत ही सहज मगर अद्भुत वाक्यों के सर्जक हैं, जो पाठक को एक ही साथ आश्वस्ति और आश्चर्य की दुनिया में ले जाते हैं। इन वाक्यों की परस्परता से बनी एक ऐसी आत्मीय दुनिया, जहां से गुजरकर कोई भी ज्यादा नई अंतर्दृष्टियां हासिल कर सके और ज्यादा भाव-संपन्न हो जाए। ये वाक्य कथा, उपन्यास, कविता ही नहीं, बातचीत और संस्मरण का भेष भी धरे हो सकते हैं। कागज पर उभरे हुए हो सकते हैं और आवाज बन हवा में उभरते और विलीन होते हुए। एक वाक्य का कौतुक दूसरे की तरफ खींचता है। एक वाक्य का अर्थ दूसरे में घुल जाता है।
विनोद कुमार शुक्ल गद्य और पद्य के बने-बनाए साँचों की और तमाम दूसरे साँचों की भंगुरता के विधान के लेखक हैं। वे उन विरल रचनाकारों में हैं, जो आलोचना के प्रचलित प्रतिमानों के लिए चुनौती बन जाते हैं। आलोचना कभी ऐसी रचनाशीलता को खारिज करती है, कभी शर्तों के साथ स्वीकार करती है। मगर एक वक्त वह आता है, जब आलोचना अपनी ही प्रामाणिकता की खोज में खुद से सवाल करती है और अपने अधूरेपन की आत्म-चेतना के आलोक में नया रास्ता तलाशती है।
वैसे आलोचना का एक मुख्य काम प्रतिमान बनाना होता है। संस्कृति व साहित्य सिद्धांतों में बड़ी तबदीली से ये बनते हैं। मगर नई रचनाशीलता भी नए प्रतिमानों को गढ़ने का दबाव बनाती रहती है। विनोद कुमार शुक्ल हमारे वक्त के ऐसे ही रचनाकार हैं, जिनसे मुखातिब होकर आलोचना प्रतिमानों में उलट-फेर कर सकती है।
रचना के बरक्स आलोचना की मजबूरी यह होती है कि वह अवधारणाओं का सहारा लेती है। अवधारणाएं ऐसी सवारी है जो जल्द ही सवार पर सवार हो जा सकती है। अवधारणाओं का हश्र अकसर द्विभाजनों में होता रहा है। यथार्थवाद बनाम रूपवाद एक ऐसा ही अखाड़ा था, जहां रूप और यथार्थ (जानबूझ कर मैं यहां कथ्य नहीं कह रहा हूं) की द्वंद्वात्मकता को पीट-पीट कर इकहरा बना दिया जाता था। मानो रचना में यथार्थ और रूप का निबाह एक-दूसरे से विलगाव से ही हो सकता हो।
पहले शमशेर, मुक्तिबोध और अब विनोद कुमार शुक्ल ने यह सोचने के लिए मजबूर किया है कि यथार्थ इतना बहुस्तरीय, बहुलार्थी और अंतर्विरोधी हो सकता है कि किसी एक लेखन शैली की पकड़ में नहीं आ सके। साहित्य यथार्थ को मुट्ठी में भरता है, मगर रेत और समय की तरह हाथ से फिसलने भी देता है।
यूरोप में 18वीं-19वीं सदी में उभरा व भारत में 20वीं सदी में फला-फूला यथार्थवाद एक शिल्प के रूप में थक गया है। जिन रचनाकारों ने यथार्थ को इस शिल्प के पुराने चौखटे से बाहर निकाला और यथार्थ की समझ को नया व विस्तृत किया, उनमें विनोद जी एक प्रमुख नाम हैं।
विनोद जी के शिल्प में कामनाएं, फंतासी, निराशा और उम्मीद यथार्थ के परिसर से बाहर नहीं की जाती। फिर भी उनके संदर्भ में लातीनी अमेरिका में उदित हुआ जादुई यथार्थवाद नामक पद काफी अधूरा और अपर्याप्त लगता है, जिसे अकसर उनके साथ जोड़ दिया जाता है। फंतासी, जादुई कल्पनाशीलता ये सब कुछ तो विनोद जी के यहाँ हैं ही। मगर जो बात उनकी ही खालिस देन लगती है, वह है कथन की निश्चयात्मकता में भी संभावना की संभावना को खुला रखना। हम जानते हैं कि नाम देना और निरूपित करना यथार्थ में बिखरी बहुत सी संभावनाओं को सीमित कर देता है। मगर विनोद जी अपनी कविताओं, कथाओं व उपन्यासों में यथार्थ के कथन को एक प्रस्तावना की तरह रखते हैं, मानो पाठक उसमें सहज ही कुछ घटा या जोड़ सकता हो।
कहना न होगा कि विनोद कुमार शुक्ल के वाक्य कविता या उपन्यास, बातचीत जिस भी रूप में हों, पाठक को सोचने की जगह देते जाते हैं। वैसे भी साहित्य का काम ज्ञान बांटना नहीं, बल्कि नए अहसासों व दृष्टियों के जरिए सोचने के लिए नए परिप्रेक्ष्य मुहैया कराना होता है। ज्ञान का काम दूसरे अनुशासन पहले से बखूबी कर रहे हैं।
विनोद कुमार शुक्ल पाठक को नए अनुभव संसार में ले जाते हैं। जहां वह पहले से देखे और बरते गए और किन्हीं छवियों या मान्यताओं के रूप में रूढ़ हो गए अपने संसार से अपरिचित हो सकता है। यह बगैर कल्पना और/या फंतासी के संभव नहीं, मगर विनोद जी उसे यथार्थ की तरह ही सामने लाते हैं। नतीजे में पाठक रोजमर्रे के जीवन की किसी बंधी हुई वास्तविकता से बाहर कदम रख एक वैकल्पिक खिड़की के जरिए अपने ही होनेपन या अस्तित्व की नई संभावनाशीलता में दाखिल हो जाता है। जो है और जो होना चाहिए (‘इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए’) एक दूसरे में घुलमिलकर एक संभावनाशील यथार्थ खड़ा कर देते हैं।
हमारे समय में विनोद कुमार शुक्ल का रचना संसार बहुत से द्विभाजनों या बाइनरीज की अपर्याप्तता का विश्वसनीय संकेतक है। इनमें से एक द्विभाजन सत्य और सौंदर्य का भी है। यथार्थ व रूप की तरह विनोद जी राजनीति, लोकतंत्र, प्रकृति जैसी वास्तविकताओं को भी नया अर्थ विस्तार देते हैं। (जिस पर चर्चा फिर कभी।)
देश के नामचीन साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल को जनकवि नागार्जुन स्मृति सम्मान
रायपुर.जनकवि नागार्जुन स्मारक निधि, नई दिल्ली के निर्णायक मण्डल की ओर से वर्ष 2020 का जनकवि नागार्जुन स्मृति सम्मान प्रख्यात कवि और लेखक विनोद कुमार शुक्ल को प्रदान किया गया. जनकवि नागार्जुन स्मारक निधि के अध्यक्ष प्रख्यात आलोचक मैनेजर पाण्डेय, सचिव जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक और लेखक देवशंकर नवीन और उपाध्यक्ष वरिष्ठ कवि मदन कश्यप की ओर से उनके प्रतिनिधि के तौर पर आलोचक प्रोफेसर सियाराम शर्मा, कवि अंजन कुमार और युवा लेखक अम्बरीश त्रिपाठी ने रविवार को यहां विनोद कुमार शुक्ल के निवास पर जाकर उन्हें स्मारक निधि की ओर से शॉल, श्रीफल, स्मृति चिह्न एवं प्रशस्ति पत्र के साथ पन्द्रह हजार रुपए की सम्मान राशि का चेक भेंट किया.
ज्ञात हो जनकवि नागार्जुन स्मृति सम्मान की शुरुआत वर्ष 2017 में की गयी है. यह सम्मान अब तक वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना, राजेश जोशी, आलोक धन्वा को दिया जा चुका है. स्मारक निधि के अध्यक्ष, सचिव और उपाध्यक्ष के अलावा 2020 के आमंत्रित निर्णायक मण्डल के सदस्य महत्त्वपूर्ण कवि लीलाधर मंडलोई थे. यह सम्मान 2020 में नागार्जुन की पुण्य तिथि पर दिल्ली में एक आयोजित समारोह में विनोद कुमार शुक्ल को प्रदान किया जाना था, लेकिन कोरोना महामारी के चलते ऐसा नहीं हो पाया.
जनकवि नागार्जुन स्मारक निधि, नई दिल्ली के निर्णायक मण्डल के सदस्यों ने विनोद कुमार शुक्ल के रचनात्मक अवदान को रेखांकित करते हुए कहा है कि विनोद कुमार शुक्ल अनूठे शब्द परिष्कारक कवि हैं. उनका काव्य जगत अक्सर निरुद्वेग ढंग से जनसामान्य की पक्षधरता का गंभीर भाष्य रचता है. उनकी कविता में आस्वाद के सौन्दर्य का एक भिन्न लोक है, जो लोक शिक्षण के अपरिहार्य काम को क्रियारूप देता है. उनके खाते में लगभग जयहिन्द जैसी वर्गद्वन्द्व की कविता है, तो आधुनिक भावबोध की वह आदमी नया गरम कोट पहनकर चला गया विचार की तरह भी है. आत्म निर्वासन और विस्थापन के मार्मिक दृश्यों में उनकी कविताओं में आजादी का इतिहास बोलता सुनाई देता है. वे धरती की ही नहीं, अंतरिक्ष की सुरक्षा में फिक्रमन्द कवि हैं. इस सम्मान के लिए विनोद कुमार शुक्ल ने जनकवि नागार्जुन स्मारक निधि के प्रति आभार व्यक्त किया है. इस अवसर पर उनके परिवार के सदस्यों के साथ उनके पुत्र शाश्वत शुक्ल भी उपस्थित थे. .
देश के नामचीन कथाकार मनोज रुपड़ा की दो जबरदस्त कविता
देश के नामचीन कथाकार मनोज रुपड़ा की दो कविता अपना मोर्चा के पाठकों के लिए प्रस्तुत है.
फिलहाल नागपुर में निवासरत मनोज रुपड़ा का नंबर है- 9823434231
1- एक बार सोचना चाहिए
जब तकलीफ़ें बहुत बढ़ जाए
तब हमें रोना चाहिए
लेकिन अपने आप से थोड़ा बाहर निकलकर
तब ये लगता है कि हम
अपनी तकलीफ के लिए नहीं,
किसी और की तकलीफ़ों के लिये रो रहे हैं.
अपने गुमसुम खयालात से ज़िंदगी की
हलचल की तरफ़ बढ़ो
तो लगता है ,
किसी ने हमें अपने आगोश में ले लिया है.
फिर रुलाई के दूसरे दौर में
हमारी बांहें खुल जाती है
और वो आंखें भी ,
जो चीज़ों को वक़्त के साथ देखती है.
वे सब चीजें ,
जो आपस में एक – दूसरे से जुड़ी हैं
और एक दूसरे से अलग है
इन सब चीज़ों को
अपने आगोश में लेकर देखना चाहिए
वे जायज़ हो या न हों
वाज़िब हों या न हों
उन्हें अपने सीने से लगाए रखना चाहिए
हो सकता है कुछ चीजों से तुम्हारे दामन में दाग लग जाए
मगर बिना कुछ सोचे- समझे
उन चीज़ों से प्यार करना चाहिए
बहुत सी चीजें हैं
बहुत से लोग हैं
जरूरी नहीं कि सब के सब सभ्य हों
जरुरी नहीं कि सब के सब सदाचारी हों
इन में से कुछ अक्षम्य रूप से गंदे होंगे
कुछ छिछोरे छिनेरे और बदमाश
कुछ नशेड़ी हरामखोर और कमीने
कुछ लुच्चे – लफंगे और फूहड़ ;
स्त्रियां भी संभवत;
वैश्यालु ,धोखेबाज़ और धूर्त हों
लेकिन जरूरी नहीं है
कि जो बदनाम है
वह पापी भी हो
जरूरी नहीं है
कि जिसने पाप किया है
वह दुष्ट भी हो
जिस धरातल पर
वे सब के सब खड़े खडे हैं ,
उस धरातल को भी एक बार बार देखना चाहिए
जो उस धरातल पर खड़े है
उन्हें जनता समझने की भूल न करें
वह लंपटों का एक नारकीय,जड़हीन और आकृतिहीन समुदाय है
किसी भी तरह की निष्ठा में असमर्थ
किसी भी तरह के ज्ञान और श्रम का शत्रु
वे दलित हैं न सवर्ण
हिन्दू हैं न मुसलमान
जात-पात और मज़हबी दायरे से बाहर
इतने बेहिस
कि किसी भी तरह की सियासती हवस
उन्हें निगल नहीं सकती
वे पहले बीमार फटेहाल और पागल थे ,
जो तलछटी गाद में बिलबिला रहे थे
और अब खुले में आ रहे हैं
वे लूट पाट करेंगे
छीना झपटी करेंगे
चोरी और उठाईगिरी करेंगे
भौतिक वस्तुओं के कबाड़खानों
और डम्पिंग यार्डों में घुस कर संभोग करेंगे
चूहों की तरह बच्चे पैदा करेंगे
हर तरह के हरामों- नाजायज़ को अपना हक समझेंगे
प्रशासन कांटेदार बाड़ों के पीछे
इस महामारी को रोक नहीं सकता
इन्हें सिर्फ़ लुच्चे लफ़ंगे समझने की भूल न करें
यह एक रिज़र्व प्रेत आर्मी है
वीभत्स …. विकराल .... और विधर्मी ....
थूक घृणा का सबसे साफ़ समझ में आने वाला प्रतीक है
लेकिन उन पर थूकने से पहले सोचना चाहिए
कि तुम्हारे थूक में
मान्यता प्राप्त सामाजिक नैतिकता की मिलावट तो नहीं है ?
सोचने की और भी वजहें हो सकती है
जहरीले रसायनों
और रेडिएशन से दूषित इस पृथ्वी में
और भी कई पाप हैं
एन्थ्रेक्स बम
परमाणु बम
डिपथीरिया और नापाल्म बम की विध्वंसक शक्तियों के साथ
किन महाशक्तियों के अनैतिक संबंध हैं ?
खनिजों को हथियाना अगर कोई अपराध नहीं है
तो किसी जरूरतमंद जेबकतरे
और मालगाड़ी से कोयला चुराने वाले को
क्यो जेल में डाला जाए ?
किसी वेश्या को सुधारगृह में डालने से पहले
जरा उस महावेश्या की मटकती चाल को भी देखिए
जो संस्थानों के गलियारों में
केटवाक कर रही है रही है
जो अपने रक्तरंजित होंठों से
किसी घोटालेबाज़ का मुंह चूमती है
जिसकी जांघों के बीच से
मुक्तव्यापार का द्वार खुलता है
विक्षोभ से भरे भूगर्भ पर खड़ी होकर
धर्म और राजनीति के बीच
जो नंगी नाच रही है ,
एक बार उसके बारे में भी सोचना चाहिए.
हर बार सिर्फ़ विधर्मियों पर नहीं
धर्म और राज्य पर भी थूकना चाहिए
2- चेहरे के भाव
‘’ क्या हाल है ‘’ पूछे जाने पर
‘’ सब ठीक है ‘’ कहने का चलन है
चेहरे पर चाहे कितनी भी सरल मुस्कुराहट हो
लेकिन हर बार ‘’ सब ठीक है ‘’ का मतलब
सब कुछ ठीक है नहीं होता
ख़ुश होना और खुशमिजाज़ दिखना
दोनों अलग अलग चीजें हैं
अदाकारी एक दोधारी तलवार है
अगर तुम जैसे हो वैसे दिखना नहीं चाहते
तो तुम्हें तलवार की धार पर चलना पड़ेगा
अगर कोई सीटी बजाते हुए
किसी धांसू धुन पर थिरक रहा हो
तो ये मत समझ लेना
कि वह बहुत खुश है
अगर कोई अपना दुख- दर्द या ड़र छुपाने के लिए
नार्मल होने की एक्टिंग कर रहा हो
तो उसे ये अहसास मत दिलाना
कि तुम खराब अभिनेता हो
उसकी बजाय
तुम इस बात पर गौर कर सकते हो
कि वह किन वजहों से
अपने चेहरे के भाव छुपा नहीं पाया.
एक न एक दिन
हर किसी को अभिनेता बनना पड़ेगा
हमारे पुरखे हमलावरों से
अपनी जरूरी चीजें छुपना जानते थे
हमें भी चेहरे के भाव छुपाना आना चाहिए
हमारे पुरखे मुखौटेबाज़ थे
वे एकायामी नहीं थे
जब भी उन्हें एकाकार करने की साज़िश रची जाती थी
वे बहुरूपिए बन जाते थे.
वे यह जानते थे
कि विदूषक बनकर
कला और जीवन की सरहद पर
नृत्य करना क्यों जरूरी है
वे जानते थे कि
खुद हंसी का पात्र बनकर
किसी निरंकुश गंभीरता को कैसे खंडित किया जा सकता है
चालाकी पूर्वक फैलाये गए
किसी आधिकारिक झूठ को
झूठ-मूठ के किस्सों में उलझाकर
उसका वास्तविक अर्थ निकालना भी
वे अच्छी तरह जानते थे.
हमें खुद पर हँसना
मुखौटे बनाना
और किस्से गढ़ना आना चाहिए
किसी ‘’ आधार ‘’ से अपनी पहचान जोड़ने
और उसे अपना लेने से पहले
ख़ुद को पहचानना आना चाहिए
अब वो समय गया
जब एक कंट्रोल टावर केंद्र में होता था
और टावर में मौजूद पहरेदार
चारों और वृत्त में बनी कोठरियों पर निगाह रखता था
कोठरियों में क़ैद हमारे पुरखे
उसे देख नहीं पाते थे
लेकिन उन्हें आभास होता था
कि ‘’ वो ‘’ कहां देख रहा है
नई ताकतों ने
एक ऐसा क़ैद खाना बनाया है
जिसमें न कोठरियां है न कंट्रोल टावर
हम सीसीटीवी कैमरे की निगरानी में हैं
एक अज्ञात फेस रीडर सब को देख रहा है
हमें भी ‘’ उसे ‘’
बिना देखे
देखनाआना चाहिए.
बस्तर से पूनम वासम की कविताएं
वे लोग : तय है जिनका जंगल में खो जाना
( एक )
उनके लोकगीतों में प्रेम बारिश की तरह नहीं आता
उनकी रुचि
सियाड़ी के पत्तों पर पान रोटी पकाने से ज्यादा
बोड़ा का स्वाद चखने में है
जंगल की सूखी पत्तियों में आग लगाने के लिए
माचिस का इस्तेमाल नहीं करते
उनकी नसों में दारू की तरह दौड़ता है महुआ!
बावजूद उसके
देर रात लौटती हैं जंगल मे खो चुके पुरखाओं की आत्माएं
कुछ गिनते हुए जोड़ते-घटाते वह भटक जाती हैं फिर से जंगल के अंधेरे सच की ओर
मर चुके कुनबे की गिनती का सच सुबह उतरता है बचे हुए कुनबे के चेहरे पर
वह थोड़ा और बासी हो जाते हैं
उनके हथियार अब पहले से कम हैं
जंगल की गोद मे नारों की गूंज बढ़ती है ऐसे
जैसे जिबह से पहले निकलती है जानवर की आखिरी चीख
उनके झोला में भूख मिटाने के सामान के साथ
शामिल होती है दिमाग़ को दुरुस्त करने की खुराक भी!
उनकी हथेलियां देर तक नहीं थकती चाकू की मुठ थामे
रोटियां तोड़ने से पहले वे लोग हड्डियां तोड़ते हैं
उनकी बंदूक की गोली निशाना लगाए बिना लौट कर नहीं आती
उनकी पीठ सुरक्षा कवच हैं उनके लिए
जिन्हें गणतंत्र दिवस के दिन दोनी भर बूंदी तक नसीब नहीं होती
ये कौन लोग हैं जिनकी भाषा के भीतर लिखा गया है विद्रोह का कहकहरा
जिनकी उंगलियां हमेशा खड़ी रहती है
किसी प्रश्नचिन्ह की मुद्रा में
( दो )
जहाँ महिलाएं दोनों हाथों में हथियार उठाये झाड़ती हैं
संविधान की पोथी पर पड़ी धूल
पूछती हैं भूख से बड़ी कोई विपदा का नाम
ट्रेन से कटकर मरी हुई आत्माएं कहाँ गईं
दर्द का बोझा उठा कर
रोटी की गोलाई नापते-नापते
जिनके पाँव के छाले फूट पड़े वह लोग अस्पताल का पता नहीं जानते
हजारों मील दूर
जिनके घरों में इंतजार की उम्मीद थामे बूढ़ी आँखें पत्थरा गईं
उन आँखों का पानी कहाँ उड़ गया?
ट्रकों के नीचे कुचले जिन अभागों की लाशों को अंतिम मुक्ति भी नसीब नहीं हुई
उनकी हत्या का मुकदमा कहाँ दर्ज होगा?
सात माह का पेट सम्भालते
अपने होने वाले बच्चे की सलामती के लिए
एक माँ की आह!भरी पुकार को नकारने वाले ईश्वर के पास से लौटी हुई प्रार्थनाएं कहाँ अर्जी देंगी?
जमलो की मौत का तमाशा बनाने वाले सरकारी तंत्र
से उबकाये लोगों का जुलूस कहाँ गया!
वह जितनी बार जंगल के सबसे ऊंचे टीले से दोहराते हैं-
सुनो साहब!
राजा मर गया, लेकिन प्रजा की मौत अभी बाकी है.
जंगल की सीमा पर हर बार एक सरकारी बयान चस्पा होता है
कि जंगलवाद सबसे बड़ा खतरा है देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए.
हर बार ऐसा उत्तर पाती एक सभ्यता घूरती है जंगल की देह
हड्डियों से बनी आँखों से!
उनकी आँखों में अब पानी नहीं उतरता.
आमचो महाप्रभु मरलो
हिड़मा का दादा पारद में मिलने वाले हिस्से से अपनी भूख मिटा लेता था
हिड़मा की दादी महुआ का
दारू बना बेच आती थी साप्ताहिक बाजार में
हिड़मा का बाप जंगल साफ कर उगा लेता था
मंडिया, ज्वार
पेज से मिट जाती थी भूख
हिड़मा की माँ लन्दा के साथ साथ बेच आती थी इमली, तेंदू
जीने के लिए बहुत सोचने की जरूरत नहीं थी उनको
घोटुल का संगीत दिनभर की मेहनत से कसी हुई देह को
सुला देती थी गहरी नींद
हिड़मा तोड़ लाता था जंगल से हरा सोना
हरा सोना जो भर देता घर को
बुनियादी सुविधाओं से लबालब
हिड़मा का बेटा गायों के लिए हरी घास उगाता है
धान की फसल को ढेकी में कूट कर पकाता है
ढूटी कमर में लटकाए मेड़ की मछलियाँ पकड़ लाता है
हिड़मा की बहू मरका पंडुम मनाते हुए पीसती है
खट्टी चटनी
बीज पंडुम मनाते लिंगो से कहती है
भरा रहे धान से पुटका
हिड़मा का दादा धरती की उम्र बढ़ाने के नुक्से से वाकिफ था
हिड़मे की दादी जानती थी आनंदित हुए बिना जीना कितना कठिन है
हिड़मा का बाप समझता था भूख जितनी हो उतना ही लेना चाहिये धरती से उधार
हिड़मा की माँ पहचानती थी
जंगल की नरमी
जंगल फुट पड़ता था हर मौसम में
अपनी जंगली बेटियों के खोसे में उतना
जितने से खटास बनी रहे उनके जीवन में
हिड़मा को पता है पड़िया खोचने से पहले, उसकी प्रेमिका शरमा कर कहेगी "मयँ तुके खुबे मया करेंसे"
हिड़मा की पत्नी जानती है
पेड़ की टहनियों पर कितना लचकना है कि टहनियाँ झूल जाए उनकी बाँहों में
खाली नहीं रखती अपनी नाक को कभी कि
उनकी फुलगुना की चमक से तुरु मछलियाँ
मचल उठती हैं
धरती नहीं माँगती उनसे अपनी दी गई शुद्ध हवा का हिसाब
धरती निश्चिन्त रहती है वहाँ, जहाँ
पत्तियों के टूट कर गिरने भर से
छतोड़ी टूट जाने वाले दर्द से गुजरता है
हिड़मा का गाँव
धरती कभी नहीं कहना चाहेगी कि
आमचो महाप्रभु मरलो
धरती जानती है
हिड़मा का बेटा धरती के लिए आक्सीजन है
द वर्जिन लैंड तीन दरवाज़ों वाला गाँव
( एक )
जहाँ पेड़ों पर संकेत की भाषा में उगती हैं सीटियाँ
तनी हुई गुलेल छूटते ही मांगती हैं
नागरिकता का प्रमाण पत्र
तीर-धनुष, कुल्हाड़ी पूछते हैं कितना लोहा है तुम्हारी जुबान पर
चाकू की धार से उंगलियों का रक्त रिसते ही
लगाना होता है अंगूठा उनके संविधान पर किसी मुहर की तरह
पहले दरवाजे की चाभी फिंगरप्रिंट के बिना नहीं खुलती
मुझे याद है मेरा दूर का भाई कई दफा घूम आया है विदेश
बिना किसी वीज़ा और पासपोर्ट के
( दो )
शहर के जरा सा मुँह फेरते ही
तिरंगे का रंग उड़ने लगता है.
प्रभात फेरी के साथ 'भारत माता की जय'
उनके कानों तक स्पष्ट पहुँचती है.
हेलीकॉप्टर की आवाज से चौंक कर जाग जाता है छः माह का बच्चा,
जिसके बाप को नहीं पता पहिये के विकास की कहानी.
जंगल की डाक पर जब तक नहीं लिखा होगा तुम्हारा नाम
तुम सही पते पर कभी नहीं पहुँच सकते.
स्पाईक होल नई खेल विधि है
खुद के नाम से एक मुठ्ठी मिट्टी फेंक कर चाहो तो
पंजीयन करवा सकते हो तुम भी
कि दूसरे दरवाज़े की चाभी स्क्रीनटच की तरह खुलती है
( तीन )
कुकर में भात नहीं पकता
रपटों पर सब्बल के घाव पक कर मवाद से भर गए हैं
बिजली के तारों में विभागीय झटके नहीं आते.
छिंद तोड़ते बच्चों के कानों तक पहुँचती है
बाण्डागुडा के स्कूल में पढ़ाई जा रही 'वीर जवान तुम आगे बढ़े चलो' वाली कविता
बच्चे बढ़ते हैं गाय के झुंड की ओर
बकरी, मुर्गी, सुअर की बाड़ी की तरफ
मातागुड़ी वाली देवी की आँखों में रतौंधी है.
मन्नत का भार
बकरे के भार से हर बार ग्राम-मिलीग्राम कम पड़ जाता है.
जूतों की धमक के साथ टूटता है
गाँव के भीतर का सन्नाटा
टूटती हैं औरतें,
टूटते हैं पुरुष,
बच्चों को टूटना नहीं आता!
बच्चों को कोई नहीं बांधता यहाँ गले में ताबीज.
उन्हें भरा जाना है एक दिन खाली कारतूस में बारूद की तरह.
दो दिन के बच्चे को सूखी छाती से चिपकाये औरतें
भागती हैं शहर की ओर
लकड़ी का बोझा सिर पर लादे
औरतें जानती हैं
पोलियोड्राप से नहीं
दोनी भर मंडिया पेज से बची रहेंगी भविष्य के पैरों में जान.
औरतें बदलती हैं धान को चावल में, रुपयों को दैनिक सामानों में
पुरुष ढोता है सारा बोझ
पहले दरवाजे की चौखट तक
पुरुष राह तकते हैं सीमा रेखा पर औरतों के लौट आने की
ताकि धुंगिया चबा सके उनकी जीभ.
अर्जुन की आँखें ही भेद सकती हैं इस रहस्मयी तिलस्मी संसार की दुनिया को
लौट आने की किसी संभावना के बिना
पहुँचा जा सकता है उस पार
कि तीसरे दरवाजे की चाभी
यमराज के चाभी के गुच्छे में से कोई एक है.
( चार )
हाँड़-माँस के पुतले ही नहीं
देवता भी यहाँ थर-थर काँपते हैं
गाँव की परिधि पर रहस्यों की पोटली बांध कहीं खो जाते हैं वे लोग.
जहाँ आधा बागी-आधा बच्चा पूछता है मुझसे
आपको डर तो नहीं लग रहा!
वह चिंता भी करता है और सतर्क भी रहता है
पानी का लोटा थमाते हुए उसके हाथ 'अतिथि देवो भव'
की मुद्रा में होते हैं.
मैं पूछती हूँ उससे कई सवाल.
वो रहस्यमयी मुस्कान के साथ अपने हाथ की गुलेल
मेरी हथेलियों पर धर देता है
मैं डर के मारे काँपने लगती हूँ
वह हँसता है
गुलेल का भार तुम जैसे शहरी लोगों की हथेलियां नहीं उठा सकतीं.
तुम अपना काम करो, हम अपना!
उस वक्त मुझे उसकी आँखों मे पाश की कविता एक चमकीली आग सी चमकती नजर आती है
उस बच्चे ने नहीं पढ़ा है जबकि 'हम लड़ेंगे साथी उदास मौसमों के खिलाफ'
मेरी हथेलियाँ भारी हैं अब तक
घर की खिड़की से दिखता है उस गाँव का सबसे ऊंचा पेड़
रात के सन्नाटे को चीरती है उनके मांदर की आवाज.
ऐसे तो छः किलोमीटर दूर है 'मनकेली गोरना'
पर बिना अनुमति के प्रवेश वर्जित है वहाँ
कम होते आक्सीजन के अनुपात से अनुमान लगाया जा सकता है
कि पेड़ों के उस झुरमुट में कुछ लोग
अभी भी हवा के दम पर जिंदा हैं
अद्भुत है 'द वर्जिन लैंड तीन दरवाजों वाला गाँव'
और वहाँ के लोग
वहाँ की हवा
वहाँ का संविधान
अपनी सजगता में थर थर काँपती तनी हुई गुलेल
और वहाँ के सावधान बच्चे!
मिथक नही हैं जलपरियाँ
जलपरियों ने नहीं छोड़ा इस विकट समय में भी चित्रकुट जलप्रपात का साथ
कि दिख जाती हैं जलपरियाँ दिनभर की दिहाड़ी के बाद तेज धूप में झुलसी त्वचा पर खेत की गीली मिट्टी का लेप लगाती
एक ही बेड़ी से बंधे बालों का जी उकता जाने के डर से
अपने खोसा के मुरझाये फूलों को पानी की तेज धार संग छिटक कर कहीं दूर बहाती
घुटनों तक लिपटी उनकी लूगा की गाँठ खुलकर
जब फैल जाती है नदी में,
तब नदी का दिल हल्दी में लिपटी मोटियारिन की तरह धड़कने लगता है.
लूगा को इस तरह पटक-पटक कर धोती हैं
कि नदी की सारी मछलियाँ मदहोश हो उनकी लूगा से लिपटकर
कोई उन्मादी गीत गुनगुनाने लगती हैं.
इंद्रधनुष की छवियाँ भी देर तक टकटकी लगाये निहारती है जलपरियों के इस अदभुत सौंदर्य को
कभी-कभी लकड़ी के भारी गठ्ठर यहीं कहीँ किनारे पटक हाथों के छालों को अनदेखा कर
छिंद के पत्तो को चबा-चबा
अपने होठों को लाल कर
नदी के पानी में खुद को निहारती लाल होंठो को धीमे से भींचती बुदबुदाती हुई शर्माती हैं
शायद उस एक वक्त कोई मीठा सपना पल रहा होता है उनकी आँखों में
अक्सर दिख जाती है जलपरियां जाल फेंकती हुई
केकड़े का शिकार करती हुई
हांडी-बर्तन धोती
खेतों की मेड़ों पर नाचती
पत्थरों पर मेहंदी के ताजा पत्तों को पीसती
या फिर आम के वृक्षों से लाल चींटियाँ इकठ्ठा करती हुई
खोसा के लिए जंगल से पेड़ों की पत्तियाँ चुनती
जलपरियों का होना कोई मिथक बात नहीं है कि
सचमुच की होती है जलपरियाँ!
हिड़मे ,आयती, मनकी ,झुनकी,पायकी की देह के रूप में
'डोंगा चो डोंगी आन दादा रे' गीत गुनगुनाती
चित्रकुट जलप्रपात के बहते पानी में नृत्य करती
जलपरियों को निहारते हुये सूरज का चेहरा भी शर्म से लाल हो जाता है.
सांझ होने से पहले,
मुठ्ठी भर प्रेम लेकर अपने घरों की ओर भागती
इन जलपरियों को देखना
दुनिया की तमाम खूबसूरत घटनाओं में से एक है
नदी का पानी सूखता क्यों नहीं
सन्नाटे से भरी बस्तर की सड़कें
जिसके भाग्य में लिखा है भारत के दक्षिणी कोने पर
एन एच तिरसठ का आवरण ओढ़े सुबकते रहना.
जहाँ अक्सर फूटते हैं टिफिन-बम प्रेशर-बम,
बिना किसी कारण जला दी जाती है बारातियों से भरी बस
जल कर राख हो जाता है दुल्हन का जोड़ा
बच्चों को नहीं लुभाती डामर की चिकनी सड़कें
बीच सड़क पर लगती है जनअदालत
उन आकाओं की जिन्हें नहीं पंसद डामर की गन्ध.
जहाँ जब -तब सवारी बस के पहियों के साथ जल उठता है सारा जंगल
बेबस लाचार-सा
बस्तर की सड़कें उगलती हैं अपना गुस्सा.
महुए की मादकता पर
चिरौंजी, तेंदू की मिठास पर
इमली अमचूर की खटास पर,
मड़िया ज्वार के पेज पर,
चापड़ा के स्वाद पर ,
गौर सिंग की शान पर और मुर्गा लड़ाई की आन पर.
लिंगोपेन से आकाशगंगा की दूरी नापना चाहती हैं यहाँ की आदिम संस्कृतियाँ.
पर उपेक्षा की बाधा से टकराकर लौट आती हैं
ऐसे जैसे डामर की गंध को नथुनों में भरने मात्र को
आ रही हों जंगल से बाहर.
डामर की लाल लपटें जलाती हैं
धूँ-घूँ कर दिमाग़ की नसों को
तब कहीँ जाकर पांडु देख पाता है जिला अस्पताल का मुँह और झुनकी जान पाती है.
नमक-तेल सब कुछ नहीं होता कि
सूरज का गोला तीख़ी धूप के साथ चमकता भी है
जिस सड़क की कीमत सैकड़ों जवानों के गर्म लहू में
सालों तक पिघलता तारकोल हो.
वह सड़क इतिहास के पन्ने पर किसी फफोले की तरह ही दर्ज होगी
बरहहाल जो भी हो, इतना तो तय है.
जब भी अकेले होती है, खूब रोती है बस्तर की सड़कें. कितना कुछ कहना चाहती हैं पर कह नहीं पाती
जुबान बारूद की गंध से लड़खड़ाने लगती है
एन एच तिरसठ सड़क नहीं,
बल्कि उन तमाम उदास, हताश, निराश, अनाथ आँखों से टपकता आँसू है.
जिन्हें मोहरों की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा है.
तभी मैं सोचूँ
इंद्रावती नदी का पानी सूखता क्यों नहीं!
तुम्हारी जगह ही तुम्हारी चेतना है
( एक )
तुम छोड़ दो अपनी जगह और भूल जाओ अपनी आवाजें
उतारकर फेंक दो छानियों पर टँगा दांदर
कि मछलियां खेत के मेड़ो तक फुदकर नहीं आने वाली
तूम्बा को लटका आओ
सल्फी की किसी टहनी पर हमेशा के लिए
भूल जाओ चिपड़ी में उड़ेल कर महुए का रस.
ताड़ को दुःखी होने दो इस बात के लिए
कि तुम्हारा बेटा बाँधना भूल जाएगा अपनी शादी पर
उसकी पत्तियों का बना मौड़
( दो )
तुम भूल जाओ हथेलियों में झोकर पानी पीना
यहाँ तक कि उन दो हथेलियों की दो उंगलियों को भी
जिन्हें रोटी के टुकड़े पकड़ने में कम और
आदिमकाल से हाथो में पकड़े अपने धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए ज्यादा इस्तेमाल किया
तुम भूल जाओ जंगल की उन पत्तियों को चबाना
जिनको जीभ पर धरते ही बदल जाता था मन का मौसम
भूल जाओ
चिड़ियों की भाषा में आने वाली आपदाओं के संकेत
शिकार के वक्त बुदबुदाने वाले मंत्र!
मृतक के पैरों में चावल की पोटली बांध कर
विदा करने की परम्परा!
कि
मरने के बाद भी अपने प्रिय को भूखा न देख पाने की पीड़ा
तुम्हें किसी और मिट्टी में उगने नहीं देगी
तुम्हारी स्थानीयता ही तुम्हारी सँस्कृति की चेतना है.
( तीन )
तुम भूल जाओ एक दिन
पेन परब पर तिरडुडडी की छनक
एक दूसरे के हाथों को भींच कर पकड़ने की आदत
कदम से कदम मिलाकर चलने का कड़ा अनुशासन.
तुम्हारे कंधे मजबूत जरूर हैं पर इतने भी नही
कि तुम उठा सको
हर गाँव-हर घर के देवता को अपने कंधों पर शहर तक साबुत.
जंगलो के देवता अपनी जगह नहीं बदलते.
( चार )
तुम्हारे देवता मंदिरों में नहीं
झाड़ के झुरमुट के नीचे, पहाड़ की ऊंची चोटी पर चौकन्ने विराजते हैं
तुम्हें जहर देकर नहीं मारा जा सकता
गला रेतकर नही की जा सकती तुम्हारी हत्या.
जंगल से हटा देना सबसे आसान तरीका है
तुम्हें जड़ से नष्ट करने का
तुम भूल जाओ
एक दिन वह सब कुछ
जिनके होने से तुम्हारे होने की गंध आती है.
( पांच )
तुम खटो कारखानों में, शहर की गलियों में देर रात तक लौटो
तुम्हें आदि बनाया जा रहा है
दस से पाँच का वाली फैक्टरी की अलार्म धुन का
पतला चावल पचाएँगी तुम्हारी आँते
खाओगे, पीओगे एक दिन थककर मर जाओगे
शहर के किसी कब्रिस्तान में दफन हो जाओगे
बिना किसी मृत्य-गीत के
उस दिन पूरी दुनिया की मछलियां तड़प कर मर जाएंगी.
पहाड़ भरभराकर गिर जायेंगे
चंदन की सारी लकड़ियां भाग जाएंगी जंगल से
सारे आंगा देव नंगे होकर भटकेंगे
बूढ़ा देव अचानक बदल जाएंगे शिवलिंग में.
धोती- कुर्ता पहनें ताँबा के लोटे से सूर्य देवता को जल चढ़ाते
कई-कई मंत्र
हवा में घुल-मिल जाएंगे
जिनमें तुम्हारी गन्ध कहीं नहीं होगी.
महुआ का पेड़ जानता है
महुआ का पेड़ जानता है
महुआ की उम्र कच्ची है
कच्ची उम्र में टपकते हुये महुये को रोकना संभव नहीं.
गुरुत्वाकर्षण बल नहीं बल्कि
धरती का संगीत खींचता है उसे अपनी ओर!
बाँस की टोकनी से लिपटने का मोह
महुये को छोटी उम्र में किसी जिम्मेदार मुखिया की तरह काम करने को उकसाता है.
महुये को प्रेम है पांडु की छोटी लेकी से
उसकी खुली देह के लिए किसी कवच की तरह टप से टपकता है महुआ.
महुआ इसलिए भी टपकता है
ताकि इस बार साप्ताहिक बाजार में आयती के लिए जुगाड़ कर सके लुगा का.
आयती के दिहाड़ी वाले काम के बारे में
महुआ को सब पता है.
बड़े छाप वाले फूल और गहरे रंग वाली सूती लुगा भी
कहाँ रोक पाती है उन आँखों की रेटिना को
आयती की देह का पारदर्शी चित्र उकेरने से.
शैतानी आँखे ताड़ जाती हैं
गदराई देह पर अंकित गहरे रंग की छाप कहाँ और कैसे फीकी पड़ जाती है.
चिमनियों से टकराकर आने वाली दूषित हवा
किसी फुलपैंट वाले के नथुनों से होकर घुल न जाये तालाब के पानी में.
महुआ का टपकना जरूरी हो जाता है उस वक्त
कि महुआ की मादकता बचाएं रखती है जलपरियों को खतरनाक संक्रमित बीमारियों से.
महुआ टपकता है
अपनी मिट्टी पर/अपनी बाड़ी में/अपने गाँव-घर के बीच.
थकी देह के लिए महुआ पंडुम
इंद्र देव के दरबार में रचाई गई रासलीला की तरह है.
महुआ के फूल से खेत-खलियान अटे रहें
मन्नत के साथ गायता देता है बलि सफेद मुर्गे की.
दोना भर मन्द पीते ही, पत्तल भर भात खाते ही
पांडु की इंद्रिया लंकापल्ली जलप्रपात के कुंड में डुबकी लगा आती हैं.
फुसफुसा आती है चिंतावागू नदी के कान में
अपनी मुक्ति का कोई संदेश गोदावरी के नाम!
काली शुष्क हड्डियों से चिपका हुआ.
उसका मांस सब कुछ भुला कर पंडुम गीत गुनगुनाने लगता है.
किसी मुटियारी का धरती से अचानक रूठकर
आसमान पर चमकने की जिद्द पूरी करने के लिए
महुआ को टपकना ही पड़ता है.
महुआ का टपकना
मिट्टी के भीतर संभावित बीज के पनपने का संकेत मात्र नहीं है.
कि महुआ का टपकना,
गाँव के सबसे बुजुर्ग हाथ की नसों में स्नेह की गर्माहट का बचा रहना भी है.
मछलियाँ गायेंगी एक दिन पंडुम गीत
तुम्हें छूते हुये थरथरा रहें हैं मेरे हाथ
कि कहीं किसी ताजे खून का धब्बा न लग जाए मेरी हथेलियों पर
सोचती हूँ तुम्हारी नींव रखी गई थी
तब भी क्या तुम इतनी ही डरावनी थी.
अत्ता बताती है तुम्हारे आने की खबर से
सारा गाँव हथेलियों पर तारे लिए घूम रहा था
उम्मीद की हजारों-हजार झालरें
लटक रही थी घर की छानियों पर
सुअर की बलि संग देशी दारू का भोग
लगाया गया था तुम्हें
खूब मान, जान के साथ आई थी तुम
तुम्हारे आने से तालपेरु का सीना
फूल कर और चौड़ा हो गया था.
तुम आई तो अपने संग , सड़क, बिजली, पानी, अस्पताल, स्कूल, हाट, बाजार के नए मायने लेकर आई
गाँव अचानक शहर की पाठशाला में दाखिल हो चुका था.
हित-अहित, अच्छा-बुरा, नफा-नुकसान, हिंसा-अहिंसा का पाठ पढकर
होमवर्क भी करने लगा था पूरा गाँव.
किसी कल्पवृक्ष की भांति
बाहें पसारे तुम खड़ी रहती
और पूरा गाँव दुबककर सो जाता
तुम्हारी बाहों के नरम गद्दे पर
एक निश्चिंतता भरी नींद
सूरज के उगने तक
सालों बाद लौट कर
जब आई हूँ तुमसे मिलने
तो देखती हूँ
हजारों गुनाहों की साक्षी बन तालपेरु की रेतीली छाती पर
खंडहर सी बिछी हो तुम.
साईं रेड्डी के खून के छींटे तुम्हारी निष्ठुरता की कहानी कहते हैं.
तुम्हारी सुखद कहानियाँ
इतिहास के पन्नों पर
किसी फफोले की तरह जल रही हैं.
क्या कभी लौटकर आओगी तुम
तालपेरु नदी के ठण्डे पानी का स्पर्श करने
बोलो कुछ तो बोलो
तुम्हारा यूँ निःशब्द होना
बासागुड़ा की आने वाली पीढ़ियों के मस्तिष्क में गर्म खून का बीज बोने जैसा है.
तुम चीखो, तुम चिल्लाओ, तुम रोओ, तुम मांगो इंसाफ
कि तुम्हारी चुप्पी तोड़ने से ही टूटेगा जंगल का चक्रव्यूह
तुम कुछ बोलो मेरे प्रिय पुल,
कि तुम्हारी खनकती आवाज़ सुनकर
जंगल से हिरणों का झुंड पानी पीने जरूर आयेगा.
उस दिन तालपेरु की सारी मछलियाँ तुम्हारे स्वागत में एक बार फिर पंडुम गीत गायेंगी.
तुम देखना,
एक दिन तुम सजोगी फिर किसी नई दुल्हन की तरह।
शब्दार्थ
बासागुड़ा का पुल ---
एक गाँव को जिले से जोड़ने के लिए बनाया गया खूबसूरत पुल, जिस पर कभी पूरा गाँव एकजुट होकर सुबह शाम गुजारा करता था. कहते हैं बहुत रौनक होती थी एक समय इस पुल पर, सलवाजुड़ुम के दौरान बासागुड़ा गाँव पूरी तरह खाली हो गया था अब धीरे-धीरे जीवन की कुछ उम्मीदें फिर से वहाँ पनपने लगी हैं पर अब भी कुछ कहना मुश्किल है ।
*अत्ता ----बुआ
*साईं रेड्डी ----बीजापुर के चर्चित पत्रकार जिनकी उसी पुल पर कुल्हाड़ी मार कर हत्या कर दी गई थी.
*तालपेरु--- बैलाडीला से निकलकर बासागुड़ा होते हुए बहने वाली नदी.
हेमंत की कविताएं
किसी और जन्म के लिए
अगर ,वेदना है
तो उसे पनपने दो
उन सपनों के लिए
जो पूरे नहीं हुए
हो भी नहीं सकते
और उन में जोड़ दो
मेरा व्याकुल
अस्वीकृत
दावानल प्यार
किसी और जन्म के लिए
बस इतना
*********
कार्तिक की जिन हवाओं ने
रात के सन्नाटे में आकर
मेरे कमरे में लगे बिस्तर पर
हरसिंगार के फूल बिखेरे थे
और सौंपी थी
तुम्हारे आने की खुशबू ..........बेतरह
संगमरमर के जिस टुकड़े ने
मेरे दिल में बैठकर
एक हँसी घर के ख़्वाब तराशे थे
हसीन चेहरे वाले तुम्हारे होठों ने
चुपके से मेरे गीत गुनगुनाए थे
उन हवाओं ,उन फूलों
और बेदार बदन वाले
प्यार के देवता तुमने
अपने सारे वादे भुला दिए
कसमें तोड़ दीं
और ऐलान कर दिया
कि वफ़ा तुम्हारी एक फरेब थी
और फरेब थी इसलिए
तुम वफादार न थे
और मैं
अपने कमरे में
सूखे चरमराये दिल के टुकड़ों को
हवा में उड़ता देखता रहा
और ठीक मेरे सामने
मेरे बिस्तर पर आकर बैठ गया
प्यार का बेवफा देवता तू
जिसे छूने को बढे मेरे हाथ को
तूने यह कहकर झटक दिया
यहाँ वफा का क्या काम?
क्या काम है ख्वाबों का ?
टूट जाने के सिवा
जीवनक्रम
*********
हम सब
इस त्रिकाल ठहरे जल में
जलकुंभियों की तरह डोलते हैं
हमारी जड़े जमीन में नहीं जातीं
जल के ऊपर उतराती हैं
फिर घोर आतप से
सब कुछ सूख जाता है
जल भी ,जल का अस्तित्व भी
तब हम धरती में पड़ी दरारों में
समा जाते हैं
हम मरते नहीं
अपने अंदर जल का स्रोत छुपाए
धरती की कोख में छुपे रहते हैं
फिर मेह बरसता है
फिर धरती की दरार से हम
बाहर निकल आते हैं
जलकुंभी बन
पानी की सतह पर
खिल पड़ते हैं
यही क्रम चलता रहता है
चलता रहेगा लगातार
धरती के अस्तित्व तक
क्यों
****
माँएं क्यों मनाती है तीजे ,गणगौर
क्यों करती है मन्नत
रखती है उपवास
शिवरात्रि का ,नवरात्रि का ,
सोलह सोमवार का
क्यों कामना जगाती है बेटियों में
करवा चौथ की ,वटसावित्री की
मेहंदी की,महावर की
क्यों जोहती हैं बाट
बेटियों को जलाने वाले रिश्तों की
क्यों नहीं चेतती माँएं
धुएं की चुभन
***********
बर्फीली घाटियों में
शाम के वक्त
लकड़ियां जलाकर
जब हम साथ बैठे थे
कितने ही लम्हे
तुम्हारी, मेरी आंखों में तैरे थे
तुम्हारी आंखों में देखी थी
मैंने
सीली लकड़ियों के धुएं की चुभन
दूर आसमान में
कितने ही रंग पिघले थे
फिर
उन्ही रंगों को हमने
स्याह होते देखा था
तुम चुप थी
मैं चुप था
बस एक गीली गर्माहट थी
हमारे बीच
शाम के वक्त
उन बर्फीली वादियों में
गरीब की बेटी
************
गरीब की बेटी
तपेदिक की शिकार
घुल घुल कर मरती रही
नमक डली जौंक की तरह
इलाज से बच जाती
पर खर्च था
हजारों का
दवाइयां ,इंजेक्शन टॉनिक,फल
डॉक्टर की फीस
सेनेटोरियम का किराया
बच जाती फिर शादी?
खर्च था हजारों का
गरीब का
सोचना ही कितना
मुंह से पेट तक !
कर डाला फैसला
जिंदगी और मौत में से
चुन ली मौत
अपनी चुनमुनिया की
वह मंजर था
मौत की तरफ डग भरते
कुल जमा सालों का
पीली ,मुरझाई
रफ्ता-रफ्ता छीजती, गलती
गरीब की बेटी
शून्य में समा गई
दे गई कुछ और निवाले
पेट भरने को
अपने जन्मदाता को
अपने जन्म के एवज़
मैंने प्यार चाहा है
**************
मैंने प्यार चाहा है
क्योंकि वह
ताकत देता है जीने की,
जिंदा रहने की
अकेलेपन से मुक्ति की
उस अथाह गहराई को
देखते रहने की
जो दुनिया के नर्क की
सच्चाई है
मैंने प्यार चाहा है
क्योंकि
प्यार के आलिंगन में
एक नन्हा
स्वर्ग बसा है
जिसकी चाह में
तपस्वियों ने तपस्या की
पीर फकीरो ने
अलख जगाई
कवियों ने कविताएं रची
इस प्यार को पाकर मैं
बस जाना चाहता हूं
उन दिलों में
जो जानना चाहते हैं
ग्रह ,नक्षत्रों ,
आकाशगंगाओं का
रहस्य
पाताल की गहराई
और स्वर्ग का सत्य
इस प्यार को पाकर मै
समा जाना चाहता हूं
मानव की पीड़ा में
चीत्कार ,भूख ,
बदहाली ,
अत्याचार से
पिसते
निर्बल जख्मी पाँव
उपेक्षित वजूद
खून होता
टपकता पसीना
असमय बुढ़ाती जवानी
मैं इस सब को
मिटा नहीं सकता
इसीलिए
समा जाना चाहता हूं
इन बुराइयों में,
पीड़ाओं में
इसीलिए मैंने
प्यार चाहा है
अपने अंदर
ताकत जगाने को
ड्रैक्युला
*******
कल रात
मेरे अचेतन मन में
सहसा जीवित हो उठा ड्रैक्युला
उसका अट्टहास
खून पीने को उतावले
नुकीले दो दांत
मेरी गर्दन पर चुभते से लगे
कोई नहीं था आसपास
सिवा ड्रैक्युला के
जो सदियों से
रात के अंधेरे में
ढूंढ रहा है गर्दन
एक गढ़ा हुआ
सत्य है ड्रैक्युला
या ड्रैक्युला ने
सत्य गढ़ा है
न जाने कितनी गरदनो का
पी कर रक्त
ओह !कहां ड्रैक्युला?
कार की हेडलाइट की
मरियल सी रोशनी में
डोलती हैं कुछ परछाइयां
कुछ टहलते कदम
मरीन ड्राइव में
रोशनियों का
नौलखा हार पहने
सजी है दुल्हन सी मुंबई
और मैं निकला हूं
एक डिस्कोथेक से खिसककर
कार में तनहा
देखने मुंबई को
रात की बाहों में
लेकिन यहां तो तड़प है
उन गरदनों की
जिन्हें अभी अभी डँसा है ड्रैक्युला ने
तो क्या सत्य है
ड्रैक्युला सदियों से ?
बस इतना
*********
कार्तिक की जिन हवाओं ने
रात के सन्नाटे में आकर
मेरे कमरे में लगे
बिस्तर पर
हरसिंगार के फूल
बिखेरे थे
और सौंपी थी
तुम्हारे आने की
खुशबू ..........बेतरह
संगमरमर के
जिस टुकड़े ने
मेरे दिल में बैठकर
एक हंसी घर के ख़्वाब
तराशे थे
हसीन चेहरे वाले
तुम्हारे होठों ने
चुपके से मेरे गीत
गुनगुनाए थे
उन हवाओं
,उन फूलों
और बेदार बदन वाले
प्यार के देवता तुमने
अपने सारे वादे
भुला दिए
कसमें तोड़ दी
और ऐलान कर दिया
कि वफ़ा तुम्हारी
एक फरेब थी
और फरेब थी
इसलिए तुम
वफादार न थे
और मैं अपने कमरे में
सूखे चरमराये
दिल के टुकड़ों को
हवा में उड़ता
देखता रहा
और ठीक मेरे सामने
मेरे बिस्तर पर आकर
बैठ गया
प्यार का बेवफा
देवता तू
जिसे छूने को बढे
मेरे हाथ को तूने
यह कहकर झटक दिया
यहां वफा का
क्या काम?
क्या काम है ख्वाबों का ?
बस इतना कि टूट जाएं
मज़दूर
*******
मज़दूर के
उस स्वेद को सलाम है
जो रक्त बनकर
धरती पर गिरता है
इस रक्त से उगेंगी फसलें
जो देश को बिठाएँगी
विकासशील देशों की
कतार में
जो समझौतों के लिये
तैयार करेंगी गोल मेजें
और चमकते फर्श
मज़दूर के
उस स्वेद को सलाम है
जो मौन चीख बनकर
धरती पर गिरता है
और भूखी नंगी नस्लें
विवश हैं जुटाने में
लक्ष्मी पुत्रों के
ऐश्वर्य के खज़ाने
मैं इस मेहनत को
गहरे महसूस कर सकता हूँ
मैं न चीख मिटा सकता ,न दर्द
लेकिन इंतज़ार कर सकता हूँ
तपते लोहे से बने उस हथौडे का
जो मज़दूर की बेडियाँ काटकर
उन हाथों को कुचले
जिन्होने बेडियाँ लगाईं
केवल ये बताने को कि
किस हद्द तक पशु बन जाते हैं
वे हाथ
सलाम है उस मिट्टी को
जहाँ मज़दूर का स्वेद
रक्त बनकर गिरा है
मेरे रहते
********
ऐसा कुछ भी नही होगा मेरे बाद
जो न था मेरे रहते
वही भोर के धुँधलके में
लगेंगी डुबकियाँ
दोहराये जायेंगे मंत्र श्लोक
वही ऐन सिर पर
धूप के चढ जाने पर
बुझे चेहरे और चमकते कपडों में
भागेंगे लोग दफ्तरों की ओर
वही द्वार पर चौक पूरे जायेंगे
और छौंकी जायेगी सौंधी दाल
वही काम से निपटकर
बतियाएँगी पडोसिनें
सुख दुख की बातें
वही दफ्तर से लौटती
थकी महिलाएँ
जूझेंगी एक रुपये के लिये
सब्जी वाले से
वही शादी ब्याह,पढाई, कर्ज और
बीमारी के तनाव से
जूझेगा आम आदमी
सट्टा,शेयर,दलाली,
हेरा फेरी में डूबा रहेगा
खास आदमी
गुनगुनाएँगी किशोरियाँ
प्रेम के गीत
वेलेंटाइन डे पर
गुलाबों के साथ
प्रेम का प्रस्ताव लिये
ढूँढेंगे किशोर मन का मीत
सब कुछ वैसे ही होगा....
जैसा अभी है
मेरे रहते
हाँ,तब ये अजूबा ज़रूर होगा
कि मेरी तस्वीर पर होगी
चन्दन की माला
और सामने अगरबत्ती
जो नहीं जलीं मेरे रहते
हेमंत
छिछले प्रश्न गहरे उत्तर
बच्चा लाल उन्मेष
कौन जात हो भाई?
"दलित हैं साब!"
नहीं मतलब किसमें आते हो?
आपकी गाली में आते हैं
गन्दी नाली में आते हैं
और अलग की हुई थाली में आते हैं साब!
मुझे लगा हिन्दू में आते हो!
आता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।
क्या खाते हो भाई?
"जो एक दलित खाता है साब!"
नहीं मतलब क्या क्या खाते हो?
आपसे मार खाता हूँ
कर्ज़ का भार खाता हूँ
और तंगी में नून तो कभी अचार खाता हूँ साब!
नहीं मुझे लगा कि मुर्गा खाते हो!
खाता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।
क्या पीते हो भाई?
"जो एक दलित पीता है साब!
नहीं मतलब क्या क्या पीते हो?
छुआ-छूत का गम
टूटे अरमानों का दम
और नंगी आँखों से देखा गया सारा भरम साब!
मुझे लगा शराब पीते हो!
पीता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।
क्या मिला है भाई?
"जो दलितों को मिलता है साब!
नहीं मतलब क्या क्या मिला है?
ज़िल्लत भरी जिंदगी
आपकी छोड़ी हुई गंदगी
और तिस पर भी आप जैसे परजीवियों की बंदगी साब!
मुझे लगा वादे मिले हैं!
मिलते हैं न साब! पर आपके चुनाव में।
क्या किया है भाई?
"जो दलित करता है साब!
नहीं मतलब क्या क्या किया है?
सौ दिन तालाब में काम किया
पसीने से तर सुबह को शाम किया
और आते जाते ठाकुरों को सलाम किया साब!
मुझे लगा कोई बड़ा काम किया!
किया है न साब! आपके चुनाव का प्रचार..।
लॉकडाउन में लेखक
सुधीर विद्यार्थी
लेखक और लॉकडाउन का पुराना संबंध है। यह न हो तो रचना की उत्पत्ति संभव नहीं। श्रेष्ठ साहित्य का जन्म हमेशा लॉकडाउन की स्थिति में ही होता है। जेल के भीतर रहकर दुनिया भर के रचनाकारों ने उत्कृष्ट और कालजयी रचनाओं को कागज पर उतारने में सफलता प्राप्त की है। कोरोना समय लेखकों और कवियों के लिए वरदान सरीखा है। हर रोज नई-नई कविताएं, दोहे, गीत और ग़ज़लों का जन्म हो रहा है। कहानियां और उपन्यास लिखे जा रहे हैं। रचनाकार खुश हैं। फेसबुक पर हलचलें है। मौसम त्योहार सरीखा हो गया है। सुखानुभूति की गंगा बहने लगी है। लॉकडाउन अगर कुछ दिन और रहा तो हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि में जल्दी ही चार चांद लग जाएंगे। यह हिंदी भाषा के इतिहास का स्वर्णिम कोरोना काल है। प्रकाशक चाहें, तो सिर्फ कोरोना के इस दौर की रचनाओं पर अनेक तरह के आयोजन-समारोह किए जा सकते हैं। रचनावलियां छप सकती हैं। विमोचन-अभिनंदन सम्पन्न हो सकते हैं। लग रहा है कि कोरोना समय में रचनात्मकता का भयंकर विस्फोट हुआ है। जो लेखक अनुर्वर थे वे भी इन दिनों गंभीर रूप से सृजनरत हैं। इस वैश्विक महामारी ने कलमकारों को नई संजीवनी सौंप दी है। इधर कोरोना संक्रमित मरीजों और उससे मरने वालों की गिनती में इजाफा हो रहा है तो दूसरी ओर कविताएं उमंग भरी उछालें मार रही हैं। व्यंग्य बरस रहा है। दोहे और ग़ज़लें फूट रही हैं।
रंगकर्म की दुनिया में कवारंटाइन थियेटर फेस्टिवल का भी आगाज़ हो चुका है। कुछ भी रूका और ठहरा नहीं है। कविता फेसबुक पर ऑनलाइन है। ’सदी की कविता’ का पाठ होने लग गया है जिसमें जीवित कवि अपना नाम और मुकाम तलाश कर रहे हैं। इस कोरोना समय में जिनके लिए रचनाकर्म संभव नहीं है वे अपना समय रसोईघर में नई-नई रेसिपी तैयार करने में लगा रहे हैं। ऐसा करते हुए जनवादी उम्रदराज रचनाकारों के चेहरे पर भी नवसृजन का भाव तैर रहा है। वे लाइव कबाब बनाते हुए अपनी वॉल पर दिखाई दे रहे हैं। अगले दिन वहां छोले-भटूरे की तस्वीर चस्पां होती हैं और फिर इतराते हुए‘चखना’ की भरी-पूरी प्लेटों के बाद अपने हाथों से पहली बार बनाया ‘चिकन विद कर्ड’ नज़र आने लगता है। यही सचमुच का रचनाकर्म है।
मैं इन दिनों खामोश हूं। लगभग सन्नाटे में। कुछ लिखा नहीं जा रहा। मि़त्र पूछते हैं--भई, कुछ रच नहीं रहे।
इस कठिन समय में क्या रचा जा सकता है जबकि पूरी दुनिया पर अस्तित्व संकट है। गरीब कोरोना और भूख दोनों से मर रहा है... मैं धीरे-से कहता हूं।
कठिन दौर रचनात्मकता के लिए बहुत मौजूं भी होता है। आप लॉकडाउन का जमकर उपयोग करिए। कुछ लिखिए। इतिहास बनाइए। यह नहीं करेंगे तो समय आपको माफ नहीं करेगा... मित्र प्रवचन के मूड में आ जाते हैं।
उनके सुझाव पर मैं कागज-कलम उठाता हूं। तभी दिल्ली से अपने शहर आते हुए रास्ते में मजदूरों के झुंड मेरा पीछा करने लगते हैं। उनके सिर पर बोझा है। औरतों की गोद में दुधमुंहे बच्चे हैं। कोई एक पैर से अशक्त आदमी मेरी ओर देखता है और मैं विचलित हो जाता हूं। मैं कार नहीं रोकता। दृश्य पीछे चला जाता है। मन में आई कविता का सिरा भी गोया हाथ से छूट जाता है। भीतर उपजी संवेदना ज्यादा देर ठहर नहीं पाती। ‘वह तोड़ती पत्थर’ के कवि से मैं माफी मांग लेता हूं। अब अंदर कहीं ग़़ज़ल का एक शेर कुलबुलाता है तभी उस बच्ची का मुरझाया चेहरा आंखों के सामने क्रंदन करने लगता है जो सौ मील पैदल चलते हुए थकान और भूख से दम तोड़ देती है। मेरी शायरी बेदम हो जाती है। एक गीत फूटने को होता है कि ‘आंचल में है दूध’ वाली कविता के शब्द मेरे सामने सिर के बल खड़े हो जाते हैं। उस नवप्रसूता को कई दिनों बाद आज थोड़ा चावल खाने को नसीब हुआ है। उसके स्तनों में दूध नहीं उतारता जिसे वह जन्मे शिशु को पिला सके। उसके आंचल से दूध लापता है और आंखों का पानी दुःखों के ताप से वाष्प में तब्दील हो गया है।
कवि ही मजदूर पर कविता लिखता है। किसान पर रचना करता है। बेघरों को शब्दों की छत सौंपता है। गरीब कभी अपने भोगे हुए यथार्थ को नहीं रचता। उसके भीतर विचार आते हैं। कोरोना त्रासदी को भी वह अपने शरीर की रूखी त्वचा और बुझे मन पर दर्ज कर रहा है। क्या सचमुच पढ़ेंगे उसे हम ?
मित्र मेरी बात पर खिन्न हो जाते हैं, तो क्या हम भी भूखों मरें ? वे जोर देकर मुझसे कहते हैं--भूखा आदमी चिल्लाता ज्यादा है।
हां, खाली पेट ढोल की तरह बजता है--मैं धीरे-से बुदबुदाता हूं।
पर मित्र इस बेहद कठिन और डरावने समय मे मैं लिख नहीं सकता। मेरे घर से थोड़ी दूर पर अभावों और दुर्दिनों का घना जंगल है जहां से उठती सायं-सायं की आवाज मेरी कलम को भोंथरा कर देती है।
6, फेज-5 विस्तार, पवन विहार पो0 रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली-243006 मोबाइल- 9760875401
विजय मानिकपुरी की कविता पत्थर
हे पत्थर
तू नादान है,
तू भोला है,
तू सीधा है,
तू सरल है,
तू कठोर होकर भी
नरम है,
हे पत्थर,
इस कथित इंसान का दिल
तुझ से कठोर है,
वो ज्यादा निष्ठुर है,
वो ज्यादा मतलबी है,
वो ज्यादा फरेबी है...!
हे पत्थर,
वो क्या जाने
तेरी वजह से
करोड़ों पेट की
आग बुझती है,
करोड़ों लोग
तुम्हारे सामने शीश झुकाते हैं...!
हे पत्थर,
तू सचमुच
नादान है,
कठोर दिल के
सामने तू
भोला है....।
हे पत्थर,
इस बात पर
मत रो कि
तू पत्थर है,
बल्कि इस बात पर
खुश हो कि
पथरली पग का
मुकाम है तू,
बहते आंसू की
मुस्कान है तू,
मंदिर-मस्जिद की नींव है तू
चर्च, गुरुद्वारा का आधार है तू
हे पत्थर,
तू परवाह मत कर
तू चट्टान तो है,
लेकिन उम्मीद की
बरसात हो तुम,
ऋषि-मुनियों का
वास हो तुम..।
हे पत्थर,
हिमालय की चोटी है तू,
महासागर का भरोसा है तू
हे पत्थर,
तू घबरा मत,
तू डर मत
तेरा साथ तो
तेरा वजूद है,
तेरा ईमान है..!!
विजय मानिकपुरी रायपुर
मैं बहुत सेंसिटिव हूं
मोहन देस
बार-बार मत दिखाओ
सैकड़ों तपे हुए मील के पत्थरों
और उन झुलसे हुए लोगों को
मत दिखाओ उनके बाल-बच्चों को
उनके छालों भरे पांवों को
देखा नहीं जाता यह सब...
मैं बहुत सेंसिटिव हूं!
मैं अर्थात्,
महज़ मैं ही नहीं...
हम सब देशवासी...
वे, जो कल्चर्ड हैं
जिनके पास घर है
दरवाज़ा है
दरवाज़े पर बंदनवार है
रंगोली है
खिड़की में थाली, चम्मच
तालियां हैं
दीए में तेल है
देह में योग है
प्राणायाम है
छंद है
गंध है
मद्धिम संगीत है
मेडिटेशन है
धुर आनंद है,
इस तरह
आप की तरह
मैं भी बहुत सेंसिटिव हूं!
इसीलिए कहा पत्नी से
बाई नहीं है,
मैं मांज देता हूं बर्तन
झाडू-पोंछा कर देता हूं
उससे कहीं बेहतर...
तुम देखना !
स्त्री -मुक्ति !
और साथ-साथ व्यायाम भी...
सुनते ही पत्नी भी
घर में मटर की गुजिया
बनाने के लिए
खुशी-खुशी तैयार हो गई
कितना मोहक और कुरकुरा रिश्ता है हमारे बीच!
बहुत सेंसिटिव हूं मैं !
फिर भी बेकार में वे लोग
बार-बार
नज़र के सामने आ ही जाते हैं...
अरे, कोई न कोई इंतज़ाम
हो ही जाएगा उनका
सरकार उन्हें खिचड़ी दे तो रही है न
तो और क्या चाहिए उन्हें?
बैठे रहना चाहिए न चुपचाप
जहां कहा जाए...
जल्द से जल्द उन्हें
नज़रों से ओझल हो जाना चाहिए
देखा नहीं जाता
पीड़ा होती है
बहुत सेंसिटिव हूं जी मैं !
सच कहूं तो उनके बगैर शहर
सुंदर साफ-सुथरे और शांत लगने लगे हैं
और हां, सामाजिक अंतर या दूरियां
तो ज़रूरी ही है न?
अरे, यह सब तो सनातन है
हमारी पुरानी चिर-परिचित संस्कृति में
पहले से ही
यह विद्यमान है,
इस सच को छिपाया नहीं जा सकता.
आजकल के प्रगतिशील,
लिबरल्स, वामपंथी, शहरी नक्सल, टुकड़े टुकड़े गैंग वाले...
कहते हैं, नासा ने अब इन शब्दों को
ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में शामिल कर लिया है...
और वो...
क्या कहते हैं उसे...
ओह, याद नहीं आ रहा...
क्या है!
हां, मानवाधिकार वाले...
इनमें से कोई भी नकार नहीं सकता
इस सच को !
अमेरिका में बसा हुआ मेरा भांजा बताता है
वहां इस तरह के लोग नहीं मिलते
घरेलू काम, बागवानी मैं ही करता हूं
घर में रंगरोगन पत्नी-बच्चे करते हैं
मामा, घर भी हमने खुद ही बनाया है
अरे, सब की किट्स मिलती हैं ऑनलाइन...
डॉग को भी हम ही ले जाते हैं बाहर घुमाने
उसकी टट्टी-पेशाब ‘सक’ करने की मशीन लेकर.
सभी काम मशीन से ही होते हैं यहां...
हम भी काम करते हैं मशीन की तरह ही
समय बेहतर गुज़रता है !
भाग्यशाली है मेरा भांजा...
भारत भी बहुत जल्द हो जाए सुपर पॉवर
साथ ही विश्वगुरू भी
इस मामले में मैं ज़्यादा सेंसिटिव हूं...
अरे ओ बीवी !
ज़रा रिमोट तो देना...
क्यों दिखाते हैं ये फालतू बातें बिकाऊ मीडियावाले
दुनिया में भारत को बदनाम करते हैं...
बंद करो !
इन पैदल चलने वालों
और उनके छालेभरे पैरों को दिखाना...
क्या ज़रूरत है?
एक बात बहुत अच्छी है
कि
यह रिमोट मेरे जैसा ही सेंसिटिव है.
मराठी से अनुवाद: उषा वैरागकर आठले
विष्णु नागर की दो कविता- 1- मोदी 2- गांव की ओर
1- मोदी
मोदी के घर में उसके कई सेवक हैं
उसका वहां कोई भाई, कोई बहन नहीं
उसके आंगन में खेलता कोई बच्चा नहीं
उसके अनुयायी लाखों में है
उसका कहने को भी कोई मित्र नहीं
वह जब आधी रात को चीख़ पड़ता है भय से कांप कर
उसे हिलाकर, जगाकर
‘क्या हुआ’, यह पूछने वाला कोई नहीं
‘कुछ नहीं हुआ’ यह उत्तर सुनने वाला कोई नहीं
ऐसा भी कोई नहीं जिसकी चिन्ता में
वह रात-रात भर जागे
ऐसा कोई नहीं
जिसकी मौत उसे दहला सके
किसी दिन उसे उलटी आ जाए
तो उसकी पीठ सहलाने वाला कोई नहीं
आधी-आधी रात जागकर
उसके दुख सुन सके, उसके सुख साझा कर सके
ऐसा कोई नहीं
कोई नहीं जो कह सके आज तो तुम्हें
कोई फ़िल्मी गाना सुनाना ही पड़ेगा
उसकी एक मां ज़रूर हैं
जो उसे आशीर्वाद देते हुए फ़ोटो खिंचवाने के काम
जब-तब आती रहती हैं
यूं तो पूरा गुजरात उसका है
मगर उसके घर पर उसका इन्तज़ार करने वाला कोई नहीं
उसे प्रधानमंत्री बनाने वाले तो बहुत हैं
उसको इंसान बना सके, ऐसा कोई नहीं.
2- गांव की ओर
जैसे आंधी से उठी धूल हो
लोग शहर से गांव चले जा रहे हैं
जैसे 1947 फिर आ गया हो
लोग चले जा रहे हैं
भूख चली जा रही है
आंधी चली जा रही है
गठरियां चली जा रही हैं
झोले चले जा रहे हैं
पानी से भरी बोतलें चली जा रही हैं
जिन्होंने अभी खड़े होना सीखा है
दो कदम चलना सीखा है
जिन्होंने अभी- अभी घूंघट छोड़ना सीखा है
जिन्होंने पहली बार जानी है थकान
सब चले जा रहे हैं गांव की ओर
कड़ी धूप है ,लोग चले जा रहे हैं
बारिश रुक नहीं रही है
लोग भी थम नहीं रहे हैं
भूख रोक रही है
लोग उससे हाथ छुड़ा कर भाग रहे हैं
महानगर से चली जा रही है उसकी नींव
उसका मूर्ख आधार हँस रहा है
उसका बेटा चला जा रहा है
मेरी बेटी चली जा रही है
आस टूट चुकी है
आंखों में आंसू थामे
चले जा रहे हैं लोग
बदन तप रहा है
लोग चले जा रहे हैं
चले जा रहे हैं कि कोई
उन्हें देख कर भी नहीं देखे
चले जा रहे हैं लोग
आधी रात है
आंखें आसरा ढूंढना चाहती हैं
पैर थकना चाहते हैं
भूख रोकना चाहती है
कहीं छांव नहीं है
रुकने की बित्ता भर जमीन नहीं है
लोग चले जा रहे हैं
सुबह तब होगी
जब गांव आ जाएगा
रोना तब आएगा
जब गांव आ जाएगा
थकान तब लगेगी
बेहोशी तब छाएगी
जब गांव आ जाएगा
हाथ में बीड़ी नहीं
चाय का सहारा नहीं होगा
800 मील दूरी फिर भी
पार हो जाएगी
गांव आ जाएगा
एक नर्क चला जाएगा
एक नर्क आ जाएगा
अपना होकर भी
जो कभी अपना नहीं रहा
वह आसमान आ जाएगा
गांव आ जाएगा
एक दिन फिर लौटने के लिए
गांव आ जाएगा
फिर आंधी बन लौटने के लिए
गांव आएगा
मौत आ जाएगी
शहर की आड़ होगी
गांव छुप जाएगा.
मितरों...
योगिनी राउल
पांच तारीख को
रात के ठीक नौ बजे
आप ने दीए जलाए या नहीं...
आप ने उर्जा महसूस की या नहीं?
की....
तो मितरों
चलो आज
सर्वश्रेष्ठ भक्त की जयंती पर
पूरी दुनिया को दिखाते हैं कि
दवाईयां कैसे दी जाती है मरीज को ?
क्या दिखाना है?
दवाईयां....
किस को देनी है?
मरीज को....
कैसे देंगे?
आप सब मिल कर,
हम सब मिल कर
आज आठ तारीख को
रात को ठीक आठ बजे
याद रहे रात को आठ बजकर आठ मिनट पर
अपनी अपनी बालकनी में
कहां?....
बालकनी में....
सब के घर को बालकनी है या नहीं है?
है ना...
तो
अपनी-अपनी बालकनी में
खड़े रह के
अपनी छोटी से छोटी
उंगली उठा के...
याद रहें,
हाथ की उंगली.
दाहिने हाथ की... बाए हाथ की नहीं.
छोटी से छोटी
उंगली उठा के
उस पर
संजीवनी परबत की कागज की प्रतिमा चिपकाएंगे.
कागज तो अपने घर में होता ही है,
नहीं है तो
अपने बच्चों की कापियां फाड़े
रद्दी में से निकाले,
कबाडी से उधार मांगे...
लेकिन संजीवनी परबत की छवि जरूर बनाए...
हमारी परंपरा में
संजीवनी परबत का बडा योगदान है,
अगर हम नहीं समझते
असली दवाई क्या है,
हम पूरे परबत को खोजेंगे
पूरे विश्व की छलांग लगाएंगे
जब तक हमें सही दवाई नहीं मिलती
हम सर्वश्रेष्ठ भक्त का जाप करेंगे
और उस वक्त
आठ मिनट के लिए
आप के हाथ में क्या होगा?
संजीवनी परबत !
सब देशवासियों के हाथ में क्या होगा?
एक संजीवनी परबत...
जरा सोचो मेरे मितरों
जिस रफ्तार से संकट बढ रहा है
क्या एक-एक टेस्टिंग किट से काम चलेगा?
नहीं चलेगा...
हमें दवाई का परबत चाहिए... परबत...
वो कौन लाएगा ?
हम लाएंगे,
सब साथ मिलकर लाएंगे !
कैसे लाएंगे?
आसान है....
अपनी-अपनी बालकनी में
अपनी-अपनी उंगली पर
एक कागज का संजीवनी परबत हमें उठाना है
ठीक आठ बजे...
आज लाइट चालू रखें
दुनिया को देखने दे
हमारे पास कितनी संजीवनी है...
दवाईयों के परबत है !
दुनिया आज हंसेगी
कल आपसे इस महान परंपरा का रहस्य पूछेगी.
हम जरूर बताएंगे
हमारा ज्ञान बांटने के लिए हैं,
छुपाने के लिए नहीं.
चलो विश्व को ज्ञान बांटते है
अपनी-अपनी बालकोनी को
विश्वविद्यालय बनाते हैं.
अपनी छोटी से छोटी उंगली का
सही इस्तेमाल करते हैं.
जगत के सर्वश्रेष्ठ भक्त का
उचित सम्मान करते हैं.
वो दिन दूर नहीं मितरों...
जब यहां सिर्फ दवाईयां ही दवाईयां होगी
और एक भी मरीज नहीं बचेगा !
जयहिंद !