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अपने और परायों की साजिशों के बीच भूपेश बघेल के तीन साल

राजकुमार सोनी

छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल ने बतौर मुख्यमंत्री अपने तीन साल पूरे कर लिए हैं.उनके मुख्यमंत्री बने रहने के साथ-साथ उनकी सरकार के भी तीन साल पूरे हो गए हैं.उनका और उनकी सरकार का पहला साल चुनाव में गुजरा तो दो साल कोरोना से निपटने में बीत गया. इस बीच उन्हें अस्थिर करने की साजिश भी चलती रही हैं. मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने कभी उन पर धर्मान्तरण को बढ़ावा देने का आरोप लगाया तो कभी कवर्धा में भगवा झंड़े का अपमान बताकर हिन्दू विरोधी साबित करने की असफल कवायद की गई. उनकी अपनी ही पार्टी के कुछ नेता लगातार इस बात को हवा देते रहे कि ढ़ाई-ढ़ाई साल तक मुख्यमंत्री बने रहने का कोई फार्मूला बना हुआ है सो...अब-तब में उनकी कुर्सी जाने वाली है. उन्हें अस्थिर करने में दिल्ली और छत्तीसगढ़ में विराजमान कुछ अधिकारी तथा पुरानी सरकार के प्रवक्ता संपादक-पत्रकार भी जबरदस्त ढंग से सक्रिय रहे हैं. कतिपय सामाजिक कार्यकर्ता उन्हें आदिवासी और किसान विरोधी साबित करने के लिए दुष्प्रचार का पका-पकाया और एक्सपोज हो जाने वाला चिर-परिचित हथकंड़ा आजमाते रहे हैं. बहरहाल कई तरह की उठा-पटक के बीच बघेल ने खुद को विश्वसनीय और मजबूत राजनेता के तौर पर स्थापित कर लिया है.

हालांकि मजबूत-टिकाऊ और विश्वसनीय तो वे तब भी थे जब छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार नहीं थीं. भाजपा के शासनकाल में उनकी अपनी ही पार्टी के किसी नेता को चौदहवां मंत्री कहा जाता था तो किसी नेता के बारे में यह विख्यात था कि उनके घर में दूध का पैकेट भी अंत्योदय योजना के तहत भाजपा के कार्यकर्ता सप्लाई करते हैं. 25 मई 2013 को कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमले में कई कांग्रेस नेताओं की हत्या के बाद यह समझा जा रहा था कि अब छत्तीसगढ़ में फिर कभी भाजपा लौटकर नहीं आएगी, लेकिन...इस जघन्य हत्याकांड़ के बाद भी भाजपा ने बाजी पलट दी थीं. दरअसल उस दौरान कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व जनता को यह बात समझाने में कामयाब नहीं हो पाया कि घटना की जड़ में कांग्रेस नहीं भाजपा है. तब एक बड़ी आबादी यह मान रही थीं कि घटना में हेलिकाफ्टर से राजधानी लौटने वाले एक प्रमुख कांग्रेसी नेता का अहम रोल है. बहरहाल 2018 में जब भूपेश बघेल के हाथ में संगठन की कमान आई तब उन्होंने कई मोर्चों पर खुद को सक्रिय किया और रमन सिंह सरकार के खिलाफ जोरदार ढंग से आवाज बुलंद की. बघेल ने छत्तीसगढ़ में उस कांग्रेस में जान फूंकी जो आक्सीजन जोन में चली गई थीं. आखिरकार, मेहनत रंग लाई और अब 2018 का चुनाव कांग्रेस जीत गई.

जब छत्तीसगढ़ में सत्ता का सारथी तय करने की कवायद चली तब इस रेस में बघेल के अलावा टीएस सिंहदेव, चरणदास महंत और ताम्रध्वज साहू भी शामिल थे, लेकिन आलाकमान ने भूपेश बघेल के नाम पर इसलिए मुहर लगाई क्योंकि वे गलत नीतियों और प्रवृतियों के आगे झुकना नहीं जानते थे. कांग्रेस के सत्ता में आने के पहले उनकी अपनी ही पार्टी के एक बड़े नेता अजीत जोगी रमन सरकार के खिलाफ सख्त रुख अख्तियार नहीं करते थे. कांग्रेस के प्रत्याशी मंतूराम पवार को भाजपा में शामिल करने के पीछे जो घटनाक्रम घटित हुआ था उसे सभी फोरम पर उजागर करने में भी भूपेश बघेल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थीं. अपने अथक प्रयासों से अततः उन्होंने यह साबित किया कि जिस जोगी को कांग्रेस का खैर-ख्वाह समझा जा रहा है दरअसल वे कांग्रेस को गर्त में डूबोने वाले शख्स हैं. आलाकमान के समक्ष लंबे समय तक यही धारणा ही बनी हुई थीं कि छत्तीसगढ़ में जोगी को साथ लिए बगैर पार्टी की नैय्या का पार लगना असंभव है. बघेल ने इस धारणा को ध्वस्त कर भाजपा की बी-टीम समझे जाने वाले अजीत जोगी और उनके पुत्र अमित जोगी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया तो कांग्रेस की राह आसान हो गई.

भूपेश बघेल ओबीसी समुदाय से आते हैं. छत्तीसगढ़ में 52 फीसदी ओबीसी हैं जिसमें से 36 फीसदी केवल कुर्मी समाज से ही आते हैं. इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि वे अपने समुदाय के सबसे बड़े नेता हैं, लेकिन गत तीन सालों में जन-सरोकार से जुड़े कामों की वजह से उनकी छवि सर्वमान्य हो गई है. वे अब आदिवासियों के बीच भी लोकप्रिय हैं तो समाज का अन्य वर्ग भी उन्हें बेहद पंसद करता है. बघेल की सबसे बड़ी ताकत उनका किसान पुत्र होना भी है. उनके किसान होने से छत्तीसगढ़ में किसानों के लिए कई तरह की कल्याणकारी योजना लागू है. जब देश में मोदी सरकार किसानों के साथ बुरा बरताव कर रही थीं तब छत्तीसगढ़ के किसानों के खाते में बोनस की राशि भेजी जा रही थीं. सच तो यह है कि छत्तीसगढ़ में जब-जब गोदी मीडिया मुख्यमंत्री को बदलने की खबर चलाता था तब गांव-गांव से किसान यह सवाल उठाते थे कि महराज को बैल पकड़ना और हल चलाना आता है नहीं ?

बहरहाल तीन साल का उनका सफर यादगार और शानदार रहा है. अपने और परायों की साजिशों के बीच बघेल भी जनता के लिए आगे और कुछ बेहतर करने को लेकर आश्वस्त है. लेकिन यह भी तय है कि अभी चुनौतियां कम नहीं हुई है. वे स्वयं स्वीकारते हैं कि केंद्र की मोदी सरकार हर काम में बाधा उत्पन्न कर रही है. छत्तीसगढ़ की सरकार ने केंद्र से धान खरीदी के लिए पांच लाख गठान बारदानों की मांग की है, लेकिन केंद्र का रवैय्या बेहद ढीला-ढाला है. सरकार हर साल उसना चावल जमा कर रही थीं. अब केंद्र ने फरमान जारी कर दिया है कि वह उसना चावल नहीं लेगी. राज्य को सेंट्रल एक्साइज का पैसा भी नहीं दिया जा रहा है. वहीं कई ऐसी योजनाओं का पैसा भी अटका पड़ा है जिसे केंद्र को देना ही चाहिए था. मुख्यमंत्री ने छत्तीसगढ़ के राजभवन के कामकाज को लेकर भी सवाल उठाए हैं. उनका कहना है कि छत्तीसगढ़ में प्रतिभाओं की कमी नहीं है बावजूद इसके बाहर से लोगों को लाकर वाइस चांसलर बनाया जा रहा है. राजभवन हर उस विधेयक को रोक रहा है जो जनता के लिए उपयोगी है. राजभवन को राजनीति का अखाड़ा बना दिया गया है.

और...अंत में

छत्तीसगढ़ में सीधे-सरल और सभी धर्मों का सम्मान करने वाले लोग निवास करते हैं. कवर्धा सहित कुछ अन्य जगहों घटना यह बताती है कि अपनी जमीन खो चुके राजनेता यहां की मिट्टी में नफरत का बीज बोना चाहते हैं. बहुत संभव है कि आने वाले दिनों में छत्तीसगढ़ की शांत फिजा में नफरत, माब लीचिंग और सांप्रदायिकता का जहर घोला जाय. लगता तो यहीं है कि सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती सांप्रदायिक ताकतों से निपटने को लेकर बने रहने वाली है. वैसे यह चुनौती तब तक है जब तक मोदी पैटर्न चल रहा है.जब मुद्दे नहीं होते हैं तो गाय-हिन्दू-मुस्लिम और झंड़ा ही होता है. सांप्रदायिकता की चुनौती देश की सबसे बड़ी चुनौती है. लोगों को काटने-बांटने और छांटने वाली इस चुनौती से देश का मेहनतकश और पढ़ा-लिखा वर्ग जूझ रहा है. लंपट समुदाय की इस विकास विरोधी चुनौती से भूपेश बघेल को भी दो-चार होना ही पड़ेगा. छत्तीसगढ़ कभी दंगों की प्रयोगशाला वाला गुजरात न बन पाए...यह कोशिश हर स्तर पर जारी रखनी होगी.

 

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बंदी पारिश्रमिक से पीड़ित को दी जाने वाली राशि में बड़ा घपला : छत्तीसगढ़ के नौ जेलर जांच के दायरे में.

बिलासपुर. बंदी पारिश्रमिक में पीड़ित पक्ष को प्रदान की जाने वाली राशि में अफरा-तफरी के चलते छत्तीसगढ़ के विभिन्न जेलों में पदस्थ रहे नौ जेलर जांच के दायरे में लिए गए हैं. जेल प्रशासन के निर्देश पर जिन जेलरों पर जांच चल रही हैं उनमें जशपुर जेल के तत्कालीन सहायक जेल अधीक्षक रमाशंकर सिंह ( वर्तमान पदस्थापना सूरजपुर ), उप जेल अधीक्षक उत्तम पटेल ( अब रायपुर में पदस्थ ) रायगढ़ जेल के जीएस शोरी ( फिलहाल प्रभारी जेल अधीक्षक दंतेवाड़ा ) एसके मिश्रा ( सेवानिवृत ) जांजगीर के एसएस जांगड़े ( वर्तमान में कटघोरा ) महासमुंद के डीडी टोण्डर ( वर्तमान में जांजगीर )  एसके साहू ( सेवानिवृत ) कोरबा के केएल देशमुख ( निधन ) और बेमेतरा के एसपी कुर्रे ( फिलहाल रायगढ़ में पदस्थापना )  शामिल हैं.

गौरतलब है कि जेल में सजा काटने वाले तमाम बंदियों ( विचाराधीन को छोड़कर ) को शासन के नियम के अनुसार प्रतिदिन एक निश्चित पारिश्रमिक प्रदान किया जाता है. हाल-फिलहाल कुशल बंदी को 70 रुपए और अकुशल बंदी को 60 रुपए का भुगतान होता है. यह राशि बंदियों को एक साथ मिलती हैं, लेकिन इस राशि का एक बड़ा हिस्सा उस पीड़ित पक्ष को दिया जाता है जो बंदी के अपराध से प्रभावित होता है. यानि बंदी अगर हत्या के जुर्म में सजा काट रहा है तो उसके पारिश्रमिक का आधा हिस्सा पीड़ित के परिवार को प्रदान किया जाता है. पीड़ित को प्रदान की जाने वाली राशि में किसी तरह की अनियमितता न हो इसके लिए जेल विभाग की तरफ से कुछ नियम भी बनाए गए हैं. पीड़ित को दी जाने वाली राशि का भुगतान चेक के जरिए ही किया जाता है. पीड़ित पक्ष को राशि सही ढंग से पहुंचे इसके लिए जेल विभाग बकायदा थाने को लिखित पत्र के जरिए सूचना भी देता है.

...तो ऐसे हो गया घोटाला

इस पूरे घपले को अंजाम देने के पीछे बिलासपुर जेल में सजा काट चुके घनश्याम जांगड़े नाम के एक कैदी की भूमिका बताई जाती है. सूत्र बताते हैं कि पूर्व कैदी ने सहायक जेलरों से सांठगांठ कर रायगढ़ से जनार्दन वेलफेयर सोसायटी नाम से एक संस्था खोली और जशपुर जेल से अपना खेल प्रारंभ किया. एक शिकायत के बाद जब जांच प्रारंभ हुई तब पता चला कि पीड़ित पक्ष को दी जाने वाली अधिकांश धनराशि जनार्दन वेलफेयर सोसायटी के घनश्याम जांगड़े को ही प्रदान की जाती थीं. जांच में खुलासा हुआ कि जशपुर जेल के रमाशंकर सिंह ने 23 लाख 84 हजार दो रुपए का गोलमाल किया है. इस तरह इसी जेल के उत्तम कुमार ने 7 लाख 75 हजार 815 की अफरा-तफरी की. जेल विभाग ने जेल अधीक्षक जीएस शोरी के खिलाफ जांच में पाया कि उन्होंने 18 लाख 20 हजार 328 रुपए का हेर-फेर किया है. जेल अधीक्षक एसके मिश्रा पर 4 लाख 37 हजार 78 रुपए, एसएल जांगड़े पर 38 लाख 77 हजार 113 रुपए, डीडी टोण्डर पर 10 लाख 65 हजार 235, एसके साहू पर 4 लाख 65 हजार 313, केएल देशमुख 6 लाख 22 हजार 750 एवं सहायक जेल अधीक्षक एसपी कुर्रे पर 16 लाख 90 हजार 781 रुपए के हेरफेर का आरोप है. इन जेलरों में से उत्तम कुमार पटेल के खिलाफ एक पीड़ित ने एफआईआर भी दर्ज करवाई है. फिलहाल उत्तम कुमार जमानत पर है. जेल विभाग ने जांच में दोषी पाए गए सभी जेलरों को नोटिस जारी कर पीड़ित पक्ष को प्रदान की जाने वाली राशि को जमा करने के लिए कहा है. खबर हैं कि उत्तम पटेल और रमाशंकर सिंह ने अपनी गलती मानते हुए घोटाले की राशि जेल विभाग के पास जमा भी कर दी है. जेल विभाग के सूत्रों का कहना है कि संबंधित जेलरों के द्वारा राशि जमा कर दिए जाने के बाद भी विभागीय जांच चलती रहेगी. जेलरों में एक केएल देशमुख का कोरोना काल में निधन हो चुका है. देशमुख की फाइल बंद होगी या जांच चलती रहेगी यह फिलहाल साफ नहीं है.

चल रही है जांच

बंदी पारिश्रमिक की राशि में से पीड़ित पक्ष को देय प्रतिकर राशि के भुगतान में जोरदार ढंग की अनियमितता सामने आई है. मैं सहायक जेल अधीक्षक टोण्डर और एसपी कुर्रे की जांच कर रहा हूं. अभी जांच चल रही है.

एसएस तिग्गा ( जेल अधीक्षक बिलासपुर )

बंदी पारिश्रमिक की राशि में से पीड़ित पक्ष के परिजनों को राशि प्रदान करने का नियम है. मैं सहायक जेल अधीक्षक एसएलजांगड़े, एसके साहू और उत्तम पटेल के द्वारा की गई अनियमितता की जांच कर रहा हूं. अभी जांच पूरी नहीं हुई है.

खोमेश मंडावी ( जेल अधीक्षक कांकेर )

 

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छत्तीसगढ़ सरकार की मंशा: पांच करोड़ की लागत वाले उद्योग भी हो स्थापित...लेकिन वाह रे उद्योग विभाग के अफसर ?

रायपुर. छत्तीसगढ़ में जब भाजपा की सरकार थीं तब उद्योग नीति में काफी झोल था. यहीं एक कारण था कि भूपेश बघेल की सरकार ने चंद लोगों को फायदा पहुंचाने वाली उद्योग नीति में आमूल-चूल बदलाव कर दिया था. पहले ग्रामीण इलाकों में 25 लाख तक की लागत वाले उद्योग-धंधों के प्रकरण को ही बैंक तक भेजा जाता था.कांग्रेस ने अपनी नीति में इस राशि को बढ़ाकर पांच करोड़ तक कर दिया. यानि कोई उद्योगपति ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए पांच करोड़ की लागत का उद्योग स्थापित करना चाहेगा तो उद्योग विभाग उसके प्रकरण में भरपूर सहायता करेगा, लेकिन धरातल पर अब भी भाजपा की उद्योग नीति ही लागू दिखाई देती है. प्रदेश के कई जिलों में जिला उद्योग केंद्र के अधिकारी उद्योग लगाने की इच्छा रखने वालों से यहीं कह रहे हैं कि प्रोजेक्ट 25 लाख से अधिक का होने की दशा में आप जानो और बैंक वाला जाने ?

सोमवार को हमने महासमुंद जिला उद्योग केंद्र के महाप्रबंधक संजीव सुखदेवे से बात की. चर्चा के दौरान उन्होंने बताया कि प्रोजेक्ट कास्ट तो कई हजार करोड़ का हो सकता है, लेकिन बैंक वाले ही 25 लाख तक के प्रोजेक्ट को मंजूरी देते हैं तो हम क्या करें. जब हमने पूछा कि आप बैंक के लिए काम करते हैं या सरकार के लिए तो उनका कहना था- जब बैंक सहायता ही नहीं देगा तो काहे समय बर्बाद किया जाय. हम प्रधानमंत्री रोजगार सृजन योजना और मुख्यमंत्री रोजगार सृजन योजना के तहत उन्हीं प्रकरणों को बैंक तक भेजते हैं जिनकी कास्ट 25 लाख तक होती है. जिसको बैंक से अधिक राशि के लिए डील करनी है तो वो जाने और बैंक वाले जाने.

इधर राज्य सरकार ने अपनी नीति में साफ-साफ तय किया है कि अगर कोई न्यूनतम 25 एकड़ भूमि में औद्योगिक पार्क स्थापित करना चाहता है तो अधोसंरचना लागत ( भूमि को छोड़कर ) 30 प्रतिशत अधिकतम पांच करोड़ तक का अनुदान तथा स्टांप व पंजीयन शुल्क में पूर्ण छूट और डायवर्सन शुल्क में 100 प्रतिशत तक छूट प्रदान की जाएगी. सरकार की इस छूट से राज्य के ग्रामीण इलाकों में कई तरह के छोड़े-बड़े उद्योग स्थापित हो सकते हैं और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती मिल सकती है, लेकिन उद्योग विभाग के अफसर ग्रामीण इलाकों में उद्योग-धंधा स्थापित करने वालों की फाइल पर पुराने नियम -कानून का हवाला देकर कुंडली मारकर बैठ जाते हैं. इधर उद्योग विभाग के अतिरिक्त संचालक प्रवीण शुक्ला का कहना है कि उद्योग लगाने के लिए लिमिट का कोई बंधन नहीं है. सारे प्रकरण गुण-दोष के आधार पर ही आगे भेजे जाते हैं. अगर राज्य में निवेश करने वालों के लिए कोई अपनी तरफ से लिमिट तय कर रहा है तो वह गलत हैं.

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झीरम के नक्सली हमले से किसको था फायदा ?

झीरमघाटी का सच कहीं दम तो नहीं तोड़ देगा !

रायपुर. झीरम घाटी एक बार फिर चर्चा में हैं. बस्तर की इस घाटी में 25 मई 2013 को जो कुछ घटित हुआ वह कलंक के सिवाय कुछ भी नहीं है. एक राजसत्ता प्रमुख के माथे पर जो दाग लगा है वह कभी धुल भी पाएगा इसकी संभावना कम है. इधर इस घटना की जांच के लिए गठित न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट सीधे राज्यपाल को सौंप दिए जाने के बाद कई तरह की बातें होने लगी है. प्रशासन व राजनीति के गलियारों में सवालों का पहाड़ खड़ा हो गया है. सोमवार को एक बयानवीर राजनेता का बयान सामने आया है. राजनेता का कहना है कि इस रिपोर्ट को लेकर किसी भी तरह की राजनीति करना न्यायालय की अवमानना होगी. संभवतः सरकार के किसी मंत्री का जिक्र आने की दशा में अनुच्छेद 164 में परिभाषित सामूहिक जिम्मेदारी के नियम को ध्यान में रखकर ही वरिष्ठ न्यायिकअधिकारी ने महामहिम राज्यपाल को रिपोर्ट सौंपी है. मामले में वरिष्ठ अधिवक्ता सुदीप श्रीवास्तव का कहना है कि कर्नाटक के जिस प्रकरण का उदाहरण देकर राज्यपाल को रिपोर्ट सौंपने की बात कहीं जा रही है दरअसल वह  भ्रष्टाचार से संबंधित थीं जबकि झीरम का मामला सुनियोजित ढंग से किया गया नरसंहार था.

सोशल मीडिया व अन्य माध्यमों में यह बहस इसलिए उठ खड़ी हुई हैं क्योंकि दो दिन पहले एक वरिष्ठ न्यायिक अधिकारी ने झीरम घाटी में घटित घटना की जांच रिपोर्ट सीधे राज्यपाल को सौंपी दी थीं. इस रिपोर्ट को सौंपे जाने के बाद से ही भूचाल आ गया है. छत्तीसगढ़ कांग्रेस के संचार प्रमुख सुशील आनंद शुक्ला का कहना है कि जब रिपोर्ट सार्वजनिक होगी तब उसके बिन्दुओं पर अलग से बात होगी... अभी तो इस बात को लेकर आपत्ति है कि  रिपोर्ट की अनुशंसाओं को जिसे लागू करना है वह रिपोर्ट सरकार को ही नहीं सौंपी गई. शुक्ला का कहना है कि जो आयोग दो महीने पहले सरकार को खत लिखकर कहता है कि अभी थोड़ा और समय चाहिए...वहीं आयोग अचानक रिपोर्ट सौंप देता है. रिपोर्ट में क्या होगा. कांग्रेस के बड़े नेताओं की हत्या के लिए कोई सिस्टम दोषी होगा या कोई व्यक्ति ( राजनेता या अफसर ) फिलहाल इस पर कोई कयास लगाना बेमानी होगी. अभी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई है, फिर भी कई सुगबुगाते सवाल ऐसे हैं जो पूर्वीवर्ती सरकार को शक के दायरे में खड़े करते हैं.

दरअसल वर्ष 2013 में चुनावी बयार के दौरान यह साफ झलक रहा था कि इस बार परिवर्तन लहर का असर होगा और नंदकुमार पटेल की अगुवाई में कांग्रेस सत्ता में आ जाएगी. झीरम की घटना में जब कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं का सफाया हो गया तो यह चर्चा भी तेज हुई कि अब कांग्रेस के पास कोई दमदार नेतृत्व बचा नहीं है. नेता के रुप में अजीत जोगी, चरणदास महंत और भूपेश बघेल का चेहरा ही सामने था. चरणदास महंत बतौर कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अपनी पारी खेल रहे थे, लेकिन वे उस दमदार तरीके से खुद को प्रस्तुत नहीं कर पाए जो दमदारी नंदकुमार पटेल या भूपेश बघेल में थीं. घटना के दिन अजीत जोगी का हेलिकाप्टर से पहले ही रायपुर लौट आना और राजभवन जाकर भाजपा की सरकार को बर्खास्त करने के लिए फरियाद करना भी काम नहीं आया क्योंकि अफवाह तंत्र उनकी भूमिका को लेकर ही प्रचार करने में लगा हुआ था और वह इसमें कामयाब भी रहा. एक बड़ी घटना के बाद भी भाजपा की सरकार सत्ता में लौट आई लेकिन झीरम का मामला अब भी एक सवाल बना हुआ है.

सबसे बड़ा सवाल तो यहीं कि क्या कांग्रेस अपने नेताओं को खोना चाहती थीं. कांग्रेस के नेताओं के शहीद हो जाने से किसे फायदा होता ? इस पूरे खेल का असली मास्टर माइंड कौन था. वर्ष 2013 में पूर्व मुख्यमंत्री की विकास यात्रा और कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा साथ-साथ चल रही थीं. छह मई को बस्तर में जब विकास यात्रा निकली तब 1789 सुरक्षाकर्मी तैनात थे. यहां तक पूर्व मुख्यमंत्री की सुरक्षा में 199 सुरक्षाकर्मी स्थाई तौर पर लगे हुए थे. जबकि 23 मई को भैरमगढ़ से बांदापाल सड़क मार्ग पर 20 किलोमीटर की परिवर्तन यात्रा की सुरक्षा के लिए राज्य सरकार ने मात्र 318 सुरक्षाकर्मी ही मुहैया करवाए थे. इसी प्रकार 25 मई को घटना के दिन तोंगपाल से जगदलपुर बार्डर तक मात्र 135 सुरक्षाकर्मी शामिल थे. इनमें से अधिकांश सुरक्षाकर्मी केशलूर की सभा में ही लगे थे. बस्तर के महेंद्र कर्मा, कवासी लखमा और नंदकुमार पटेल को जेड़ प्लस सुरक्षा दी गई थीं, लेकिन यह सुरक्षा भी घटना के दिन अपर्याप्त थीं. यह  अफवाह भी उड़ाई गई थीं कि कांग्रेस ने ऐन मौके पर यात्रा का रुट चेंज किया था जबकि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने अपने बयान में यह साफ तौर पर स्वीकारा है कि कहीं कोई परिवर्तन नहीं किया गया था.

इधर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भी सोमवार को केंद्र और एनआईए की भूमिका को लेकर सवाल उठाए हैं. बघेल ने कहा कि हम जांच करना चाहते हैं, लेकिन हमें रोका जा रहा है. उन्होंने कहा कि न्यायिक जांच आयोग बयानों के आधार पर ही अपना काम करता है वह घटना स्थल पर जाकर जांच नहीं कर सकता. यह काम जांच एजेंसियां करती है. हमने चुनावी घोषणा पत्र में झीरम कांड की जांच कराने का वादा किया था. जब हम सरकार में आए तो हमने एसआईटी का गठन किया. नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी यानि एनआईए ने पहले ही अपनी फायनल रिपोर्ट सौंप दी थीं. जब हमने केस डायरी मांगी तो हमें केस डायरी  नहीं दी गई. कई बार पत्राचार किया गया तब भी केस डायरी नहीं दी गई. आखिर केंद्र सरकार किसको बचाना चाहती है. किस तथ्य को छिपाना चाहती है. बघेल ने कहा कि एनआईए जैसी एजेंसियां कैसे काम करती है इसका उदाहरण यह है कि जो लोग घटना स्थल पर मौजूद थे उनमें से अधिकांश से पूछा ही नहीं गया. एनआईए को आंध्र की  जेल  में बंद नक्सली लीडर गुडसा उसेंडी से भी पूछताछ करनी थीं,लेकिन एनआईए ने उससे भी पूछताछ नहीं की. बघेल ने कहा कि कलक्टर एलेक्स पाल मेमन का नक्सलियों ने अपहरण कर लिया था. पूर्ववर्ती सरकार ने बातचीत करके उन्हें छुड़ाया. क्या बातचीत हुई यह तो पता नहीं लेकिन तमाम बंधक छोड़े गए. जब कांग्रेस के नंदकुमार पटेल और दिनेश पटेल का नक्सलियों ने अपहण कर लिया था तब उन्हें गोली मार दी गई. भाजपा की तत्कालीन सरकार और केंद्र सरकार इस बात को अच्छी तरह से जानती है साजिश किसने रची है. किसको बचाया जा रहा है.

मुख्यमंत्री बघेल ने और भी कई सवाल उठाए हैं, लेकिन उनके सवालों से अलग एक बड़ा सवाल यह भी तैर रहा है कि क्या कभी नक्सलियों ने भाजपा के  पूर्व मुख्यमंत्री पर हमला किया था ? अगर इसका जवाब हां में हैं तो वह तिथि सार्वजनिक होनी चाहिए और अगर जवाब ना में हैं तो नक्सलियों की मेहरबानी की वजह अवश्य तलाशी जानी चाहिए.

 

 

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आर्यन को जमानत नहीं...क्योंकि उसके बाप का नाम खान है

दिल्ली. प्रसिद्ध अभिनेता शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान को जमानत नहीं दिए जाने से मोदी सरकार की जी हजूरी में जुटे चैनल और अखबारों को छोड़कर शेष सभी प्लेटफार्म पर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं. कहा जा रहा है कि आर्यन को सिर्फ इसलिए जमानत नहीं दी जा रही है क्योंकि सामने यूपी का चुनाव है और उनके बाप का नाम खान है. अपनी साफगोई और बेबाकी के लिए प्रसिद्ध पत्रकार अशोक वानखेड़े का कहना है कि आर्यन के पास ड्रग नहीं मिला. यहां तक उसके शरीर में भी ड्रग नहीं पाया गया...फिर भी यह सिद्ध करने की कोशिश हो रही है कि आर्यन ने बहुत बड़ा गुनाह कर दिया है.अशोक वानखेड़े का यह बयान एक निजी यू ट्यूब चैनल में चल रहा है. उनका कहना है कि नवरात्र के दिन वे एक सोसायटी के कार्यक्रम में गए थे. वहां अयोध्या के एक महंत भी मौजूद थे. जब मैंने उनसे यूपी चुनाव के बारे में सामान्य बात की तो उन्होंने बताया कि यूपी के वोटर कोविड़-फोविड़ से उत्पन्न हुई समस्या को जल्द ही भूल जाएंगे क्योंकि शाहरुख खान के लड़के को टाइट कर दिया गया है.

इधर अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एशोसियेशन ( ऐपवा ), ऑल इंडिया स्टूडेंट्स ऐशोसियेशन (आइसा ) और इंक़लाबी नौजवान सभा ने अपने एक संयुक्त बयान में भी गंभीर सवाल उठाए हैं. बयान में कहा गया है कि शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान को विगत 4 अक्टूबर को नॉर्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने मुंबई में एक क्रूज से गिरफ्तार किया था.आर्यन खान के पास से किसी तरह का कोई ड्रग्स नहीं मिला फिर भी उसे गिरफ्तार किया गया और जमानत नहीं दी गई. आर्यन खान अब तक जेल में क्यों है, यह एक ऐसा सवाल है जो हर सभ्य नागरिक को उठाना चाहिए क्योंकि राज्य द्वारा कानून और संविधान का मजाक बना कर एक नागरिक के उत्पीड़न को यदि हम चुपचाप देखते रहे तो कल यही मजाक नियम बन जाएगा और पूरे देश को यह भुगतना पड़ेगा.

इस बारे मे नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो का कहना है कि गिरफ्तारी के पीछे कोई राजनीतिक मकसद नहीं है तब सवाल उठता है कि आर्यन की गिरफ़्तारी में एनसीबी ने भाजपा कार्यकर्ता मनीष भानुशाली और मलेशिया के रहने वाले केके गोसावि को भूमिका अदा क्यों करने दिया? ये दोनों ही एनसीबी के अफ़सर नहीं हैं, गोसावि पर तो पुणे के एक थाना में 420 के एक मामले में अपराध भी दर्ज है, इसलिए आर्यन और अरबाज़ की गिरफ़्तारी में इनकी भूमिका कई सवाल पैदा करते हैं. 

आर्यन खान की गिरफ़्तारी और उसके ख़िलाफ़ किसी सबूत के न होने के बावजूद उसे बेल न दिया जाना भारत के संवैधानिक न्याय व्यवस्था के लिए बड़े संकट का खतरनाक संकेत है.क्या न्याय व्यवस्था को राजनीति में सत्तावान ताक़तें मनमाने तरीक़े से तोड़-मरोड़ रही हैं? भारत की न्याय व्यवस्था का उसूल है कि "जेल नहीं बेल ही नियम होना चाहिए है. जेल तो अपवाद ही होना चाहिए." जिस शख़्स के ख़िलाफ़ गुनाह का रत्ती भर सबूत नहीं, उसे क्यों इतने दिन जेल में रखा गया है? जज ने बेल न देने का जो तर्क दिया, वह काफ़ी ख़तरनाक है. जज ने माना कि आर्यन के पास से कोई ड्रग्स नहीं पाया गया लेकिन उनके एक मित्र के पास 6 ग्राम चरस पाया गया. जज ने कहा कि आर्यन 'चाहते तो मित्र से ड्रग्स हासिल कर सकते थे,' इसलिए ये माना जाए कि आर्यन के पास भी ड्रग्स थे! क्या आज के भारत में न्याय का ये हश्र हो गया है कि किसी को 'गुनाह करने की आशंका' के लिए गुनहगार माना जाएगा? या इसलिए कि उसका मित्र आरोपी है? ये तो न्याय का मज़ाक़ है. "Guilt by association" यानी संगति को अपराध का सबूत मान लेना; या अपराध न करने पर भी 'अपराध की आशंका' के बहाने गुनहगार मान लेना  - इसे तानाशाही शासन का लक्षण माना जाता है. 

इस मामले में पक्षपात का सवाल इसलिए भी उठ रहा है कि लोग पूछ रहे हैं: जामिया के छात्रों पर गोली चलाने वाले को बेल आसानी से मिला जबकि दोष के किसी सबूत के अभाव में भी आर्यन को बेल क्यों नहीं मिल रहा? अर्नब गोस्वामी को एक दिन में "जेल नहीं बेल" वाले उसूल के चलते बेल दिया गया. यह उसूल आर्यन या सिद्दीक कप्पन पर लागू क्यों नहीं होता? कहीं ऐसा तो नहीं कि न्याय की आँखों पर जो पर्दा होना चाहिए, उसमें छेद है जिससे न्याय व्यवस्था पक्ष पहचान कर पक्षपात करती है? 

आर्यन के एक मित्र के पास से 6 ग्राम चरस पाए जाने को लेकर गोदी मीडिया जो हल्ला और हाय तौबा मचा रही है: पूछना होगा कि उसी मीडिया का मुँह गुजरात में अडानी के पोर्ट से 3000 किलो हेरोईन के ज़ब्त होने को लेकर क्यों बंद है? क्या इसलिए कि अडानी प्रधानमंत्री के मित्र हैं और फंडर/ख़ज़ांची भी? 

आर्यन हिंदी फ़िल्म जगत के सबसे ख्याति प्राप्त शख़्सियत शाहरुख़ खान के बेटे हैं - इस वजह से निश्चित ही उन्हें कोई विशेष उपकार नहीं मिलना चाहिए. पर उतना ही निश्चित है कि इस वजह से उन्हें अन्यायपूर्ण तरीक़े से बिना सबूत के आरोपी भी नहीं बनाया जाना चाहिए. भारत के लोकतांत्रिक जनमानस में ये सवाल आज उठ रहा है कि क्या आर्यन के बहाने उनके पिता शाहरुख़ को निशाना बनाया जा रहा है - क्योंकि 'उनका नाम खान है" और वे देश और दुनिया में करोड़ों के दिल में राज करते हैं? क्योंकि फ़िल्म जगत के कई अन्य अदाकारों से उलट, उन्होंने तानाशाहों के आगे सिर नहीं झुकाया, पीएम या होम मिनिस्टर के साथ सेल्फ़ी लेकर उनका तुष्टिकरण नहीं किया? क्योंकि पूछे जाने पर उन्होंने साफ़ कहा कि हाँ, भारत में असहिष्णुता बढ़ रही है? 

हम आर्यन को "शाहरुख़ का बेटा" नहीं, चाहे तो भारत के आम नागरिक का युवा बेटा ही ही मान लें. किसी आम नागरिक को राजनीति के खेल में प्यादा बनाकर बिना सबूत गिरफ़्तार कर जेल में अनिश्चितकाल के लिए मनमाने तरीक़े से रखा जा रहा है. हम में से हरेक को खुद से पूछना होगा कि आज अगर हम चुप रहे तो क्या कल यही हाल हमारे साथ या हमारे बच्चों के साथ नहीं होगा? बग़ल घर में आग लगी और हमने बुझाने में साथ नहीं दिया - तो लपटें कल हमारे आपके घर तक भी ज़रूर पहुँचेंगी. आर्यन खान के साथ नाइंसाफ़ी उसके या उसके परिवार की निजी समस्या नहीं है - यह पूरे देश के हर लोकतंत्र पसंद नागरिक की समस्या है, क्योंकि ये आम नागरिक के संवैधानिक हक़ छीने जाने का मसला है. आज अगर उठे नहीं तो कल बहुत देर हो चुकी होगी.

 

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देवपुरी में सतनामी समाज की जमीन पर कब्जा

कब्जा नहीं हटा तो आंदोलन करेगा सतनामी समाज

रायपुर. राजधानी रायपुर के देवपुरी इलाके में सतनामी समाज की जमीन पर रंजीत सैनी और गुरमीत सैनी के द्वारा कब्जा किए जाने का मामला तूल पकड़ता जा रहा है. मामले में कई स्तरों पर शिकायत के बाद भी कोई ठोस कार्रवाई नहीं होने से प्रशासन की भूमिका को लेकर सवाल उठ रहे हैं.सतनामी समाज ने कब्जा नहीं हटाए जाने की स्थिति में आंदोलन की चेतावनी दी है.

चंद रोज पहले सतनामी समाज के चैतराम टोडर ने धर्मगुरू बालदास, मंत्री रुद्रगुरू, शिव डहरिया एवं मुख्य सचिव को शिकायत भेजकर जानकारी दी हैं कि देवपुरी जिला रायपुर के पटवारी हल्का नंबर 73 के खसरा नंबर 206 / एक-रकबा 7.057 हेक्टयर भूमि और खसरा नंबर 206 / दो-0.425 हेक्टयर भूमि सतनामी समाज के चैतराम, गैतराम, पवन बाई पिता मनोहर, बाबा वल्द गोपाल, सातो बाई, प्रेमदास वल्द गोपाल, प्रेमीन, केशर पिता गोपाल के नाम पर दर्ज है, लेकिन इस जमीन पर रंजीत सैनी और गुरमीत सैनी ने कब्जा करके हास्पीटल, आश्रम, सामुदायिक भवन, लंगर हाल और गुरूद्वारे का निर्माण कर लिया है.

जांच में भी निकला कि कब्जा कर किया गया निर्माण

इस मामले में एक शिकायतकर्ता संजय अग्रवाल ने भी कलेक्टर को शिकायत की थीं. उनकी शिकायत के बाद 15 सितम्बर को पटवारी और राजस्व निरीक्षक ने जांच-पड़ताल कर नायब तहसीलदार को रिपोर्ट सौंप दी है. रिपोर्ट में राजस्व निरीक्षक ने साफ-साफ लिखा है कि आश्रम, हास्पीटल सहित अन्य सभी निर्माण कब्जा करके बनाया गया है. खसरा नंबर 206 के खसरे में तीन बटांक है, लेकिन इसमें से किसी भी बटांक पर गुरूद्वारे का नाम नहीं है. इस मामले में नियमानुसार कार्रवाई करना उचित होगा.

उच्च न्यायालय ने भी दिया निर्देश

समाज की लगभग पांच एकड़ जमीन पर कब्जा किए जाने को लेकर उच्च न्यायालय बिलासपुर में एक याचिका दायर की गई थीं. इस याचिका के बाद अतिक्रमण हटाए जाने को लेकर आदेश पारित किया गया है, लेकिन अब तक कब्जा बरकरार है जिसके चलते लगातार टकराहट की स्थिति बन रही है. वैसे वर्ष 2009 के आसपास सुप्रीम कोर्ट ने सभी तरह के सार्वजनिक मार्गों, सार्वजनिक उद्यानों एवं सार्वजनिक स्थानों पर धार्मिक संरचना में रोक लगाने को लेकर एक निर्देश दे रखा है. इस निर्देश के परिपालन में छत्तीसगढ़ शासन ने 25 सितम्बर 2010 को कमेटी बनाई थीं. इस कमेटी में कलेक्टर, अपर कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक, अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक, नजूल अधिकारी, नगर निगम आयुक्त, लोक निर्माण विभाग और बिजली कंपनी के अधिकारियों को शामिल किया गया है. यह कमेटी अब भी जीवित है. फिलहाल सतनामी समाज की जमीन पर कब्जे का मामला कमेटी के पास भी चला गया है.

पाठकों को याद होगा कि जब प्रदेश में भाजपा की सरकार थीं तब भाजपा के एक रखूखदार नेता ने महादेव घाट के पास अवैध कब्जा कर संगमरमर का बेशकीमती मंदिर बना लिया था. मंदिर की आड़ लेकर कई तरह की दुकानें भी निर्मित कर उन्हें बेच दिया गया था. एक सामाजिक कार्यकर्ता की पहल के बाद जैसे-तैसे कब्जा हट पाया था. देवपुरी की जमीन पर कब्जे के मामले में भी कुछ ऐसा ही रंग-ढंग नजर आ रहा है. यह साफ है कि कब्जे की जमीन पर निर्माण किया गया है,लेकिन दबाव में कार्रवाई नहीं हो पा रही है. खबर है कि जब भी कब्जे को हटाने की बात आती है एक पुलिस अधिकारी कब्जाधारियों को बचाने के उपक्रम में लग जाता है.

 

 

 

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भाइयों... उसका नाम भूपेश बघेल है

राजकुमार सोनी

चैनल वाले तो बेचारे निर्धारित एजेंडे के तहत तालिबान-तालिबान और मुसलमान-मुसलमान करने को मजबूर हैं, लेकिन आज सुबह से ही सारे पोर्टल वाले शांत है.

आज कोई यह नहीं लिख रहा है कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री के बीच जो रस्साकशी चली...उसका एक-एक बिंदु आपको क्यों जानना जरूरी है? आप भले ही जानने-समझने के इच्छुक नहीं रहे होंगे, लेकिन कट पेस्ट की कलाबाजी में माहिर पोर्टल का हरेक जाबांज पत्रकार आपको यह बताने में तो तुला ही हुआ था कि छत्तीसगढ़ की सियासत में आग लग चुकी है और अब-तब में नेतृत्व परिवर्तन हो जाएगा. नेतृत्व परिवर्तन मतलब...भूपेश बघेल मुख्यमंत्री नहीं रहेंगे.

नेतृत्व परिवर्तन क्यों हो जाएगा ? किसलिए हो जाना चाहिए ? ऐसा क्या हो गया जिससे नेतृत्व परिवर्तन कर देना चाहिए...यह बताने की फुसरत किसी के पास नहीं थीं. सबके पास बस... एक ही लाइन थीं कि कांग्रेस आलाकमान के गुप्त कमरे में कोई ढ़ाई-ढ़ाई साल फार्मूला बना था तो अब एक आदमी को खड़े रहना है और दूसरे को कुर्सी पर बैठना है.

राजनीति में चक्कलस का अपना महत्व तो होता है, लेकिन यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि छत्तीसगढ़ का पिछला एक सप्ताह एक अधपकी चक्कलस के चलते अस्थिरता के बुरे दौर से गुजरा है. हर कोई यह सोचने को मजबूर था कि अब क्या होगा ? देश हो या प्रदेश... राजनीति हर किसी के जीवन को प्रभावित करती है इसलिए चाहे अफसर हो नेता... मजदूर हो किसान...सबके दिमाग में यहीं चल रहा था कि पता नहीं क्या होने वाला है. कई तरह की बातों से सूबे का तापमान गर्म था. कोई कह रहा था कि कांग्रेस पैर पर कुल्हाड़ी नहीं बल्कि कुल्हाड़ी पर पैर मारने जा रही है तो किसी ने यह कहने में भी देर नहीं लगाई कि न चाहते हुए भी कांग्रेस में अजीत जोगी पैदा हो ही जाता है. घर को आग लग जाती है घर के चिराग से.

वैसे नेतृत्व परिवर्तन की कथित खबर को कव्हरेज करने के लिए दिल्ली के पत्रकार तो सक्रिय थे ही... छत्तीसगढ़ के पत्रकारों की टोली भी दिल्ली में डेरा डाली हुई थीं. कुछ पत्रकारों को तो उनके संस्थानों ने भेजा था जबकि कुछ पत्रकार विरोधी दल और असंतुष्ट नेताओं की सहायता प्राप्त योजना के तहत दिल्ली भेजे गए थे. ( हैरत की बात यह है कि इसमें कुछ वेब पोर्टल वाले भी शामिल है. खबर है कि अफवाह फैलाने में माहिर कुछ पोर्टल वालों को उस पीआर एजेंसी ने खास तौर पर आमंत्रित किया था जो दिल्ली में बैठकर एक नेताजी की छवि को चमकाने के लिए अच्छा-खासा चार्ज लेती है.)

अब बात अगर कथित तौर पर होने वाले नेतृत्व परिवर्तन की करें तो राहुल गांधी ने छत्तीसगढ़ आने का संकेत देकर साफ कर दिया है कि प्रदेश की एक बड़ी आबादी की तरह उन्हें भी भूपेश बघेल के कामकाज पर भरोसा है. वैसे नेतृत्व में किसी तरह का कोई परिवर्तन तो होना ही नहीं था, लेकिन कार्पोरेट या अन्य किसी दबाव में कोई गलत फैसला हो जाता तो यह भी साफ है कि छत्तीसगढ़ के मूल निवासियों यानी छत्तीसगढ़ियों का सपना चूर-चूर होकर बिखर जाता. पहली बार तो प्रदेश के छत्तीसगढ़िया ग्रामीण और उपेक्षा का जीवन जीने वाले किसानों-आदिवासियों यह लग रहा है कि उनका कोई अपना है. उनकी अपनी सरकार है. छत्तीसगढ़ में अब तक कोई नकली आदिवासी बनकर हावी रहा है तो कोई सामंती सोच के साथ छत्तीसगढ़ियों को खदेड़ने में यकीन करता रहा है. प्रदेश में नेताओं की शारीरिक भाषा से ही समझ में आ जाता है कि वे कितने प्रतिशत छत्तीसगढ़िया है. भूपेश बघेल के साथ एक अच्छी बात यही है कि वे ठेठ ( शुद्ध ) छत्तीसगढ़िया है.

बघेल का ठेठ छत्तीसगढ़िया और किसान होना ही उनके विरोधी दल और उनके अपने दल के कुछ लोगों के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है. किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि कोई एक आदमी आएगा और छत्तीसगढ़ के भीतरी तहों में कहीं कला-संस्कृति, तीज-त्योहार, खुरमी-ठेठरी के जरिए आपकी अस्मिता को जागृत करने का काम कर जाएगा. विरोधी दल के नेताओं के साथ एक सबसे बड़ी दिक्कत यह भी है कि वे छत्तीसगढ़िया बनने और दिखने की भरपूर कोशिश करते हैं, लेकिन न तो बन पाते हैं और न ही दिख पाते हैं. विधानसभा का आगामी चुनाव भाजपा अब किसी एक चेहरे को फोकस करके नहीं लड़ पाएगी. भाजपा फिलहाल एक ऐसे चेहरे की तलाश में हैं जो भूपेश बघेल के ठेठ छत्तीसगढ़ियापन को टक्कर दे सकें. उधर टक्कर देने के लिए मंथन पर मंथन चल रहा है और इधर अजीत जोगी स्टाइल में बल्ला घुमाया जा रहा है. वैसे कल के घटनाक्रम के बाद लोग यह कहते हुए भी मिले हैं कि भाइयों...उसका नाम भूपेश बघेल है...जब उसने पार्टी की जड़ों में मट्ठा डालने वाले जोगी को ठिकाने लगाने में देर नहीं लगाई तो फिर......? तो समझ लो कि फिर आगे क्या होने वाला है. अभी थोड़ी देर पहले एक साथी पत्रकार की बड़ी मजेदार टिप्पणी मिली है. पत्रकार ने लिखा है- नेतृत्व परिवर्तन के कथित घटनाक्रम के बाद यह मत सोचिए कि कुछ नहीं मिला.छत्तीसगढ़ के पास भी अब अपना एक आडवानी है. छत्तीसगढ़ की भूपेश सरकार को देर-सबेर मार्गदर्शन मंडल गठित करने की आवश्यकता पड़ सकती है.

 

 

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एक उसूल पसंद योद्धा

23 अगस्त को जन्मदिन पर विशेष

राजकुमार सोनी

मुझे उसूलों के साथ उसूलों के लिए लड़ने वाले लोग खूब पसन्द आते हैं. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को मैं एक उसूल पसन्द योद्धा के तौर पर ही देखता हूं. निजी तौर पर मेरा मानना है कि जो व्यक्ति भीतर से साहसी होता है वहीं उसूलों का पक्षधर भी होता है. वैसे साहस की कोई एक किस्म तो पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के भीतर भी विद्यमान थीं, लेकिन इस किस्म की दशा और दिशा विध्वंश को बढ़ावा देने वाली ज्यादा थीं. राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि अगर जोगी अपने ही लोगों के हौसले और घुटनों को तोड़ देने के खेल में माहिर नहीं रहते तो शायद प्रदेश में पंद्रह साल तक भाजपा के बजाय कांग्रेस की सरकार काबिज रहती. जोगी प्रखर राजनीतिज्ञ थे, लेकिन कई बार ( बल्कि अक्सर ) उनकी राजनीति का हिसाब-किताब अपने ही पैर में ही कुल्हाड़ी मारने वाले मुहावरे को चरितार्थ करने लगता था.

भूपेश बघेल के पास भी चमकदार और धारदार कुल्हाड़ी है...लेकिन उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी का इस्तेमाल कांग्रेस की डंगाल को काटने के लिए कभी नहीं किया. उनकी कुल्हाड़ी सांप्रदायिक ताकतों पर चोट करने का हुनर जानती है. वे अच्छी तरह से जानते हैं कि कब... कहां और कैसे भाजपा को मात देना है.

झीरम के माओवादी हमले में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता नंद कुमार पटेल और अन्य दिग्गज नेताओं के शहीद हो जाने के बाद जब प्रदेश की बड़ी आबादी यह मानकर चल  रही थीं कि रमन सरकार से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा तब भाजपा ने जीत का परचम फहराकर कांग्रेस को गहन चिकित्सा कक्ष में भेज दिया था. अब भी जब कभी राजनीति की समझ रखने वाले लोग चर्चा करते हैं तो यह सवाल जरूर करते हैं कि झीरम जैसी बड़ी घटना के बाद भी कांग्रेस क्यों हारी ? बघेल के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने से कुछ पहले सब कुछ बरबाद हो चुका था. बड़ी लीडरशिप खत्म हो गई थीं. खेमे में बंटे हुए नेता टूट चुके थे और संगठन लगभग बिखर गया था. बघेल ने राजधानी के वातानुकूलित कमरे में बैठकर राजनीति करने के बजाय गांव-गांव की खाक छानी. जमीन का रास्ता नापा और धुंआधार दौरों को अंजाम दिया. थोड़े ही दिनों में उनकी सांगठनिक क्षमता, कार्यकर्ताओं को साधकर चलने वाले दिमाग और आक्रामक तेवर से यह साफ हो गया कि चाहे जो हो कम से कम वे भाजपा के हाथों बिकने वाले नहीं है. बघेल के अध्यक्ष बनने के पहले कांग्रेस के एक नेता को भाजपा का 13-14 वां मंत्री कहा जाता था तो कुछ ऐसे थे जो रमन सरकार से छोटी-मोटी सुविधाएं हासिल करने के लिए जी-हजूरी करते नजर आते थे. 

टीएस सिंहदेव के साथ उनकी जुगलबंदी यह भरोसा पैदा करने में कामयाब रही कि सबको साथ लेकर चलने से हारी हुई बाजी को पलटा जा सकता है. धनबल के आगे जनबल तभी टिकता है जब लक्ष्य को पाने का इरादा मजबूत होता है. अन्यथा जुलूस तो हर दूसरी सड़क पर निकलता है और अमूमन हर रोज निकलता है. यकीनन जुलूस में सबसे मजबूत इरादा होता है और कोई मजबूत इरादा ही जुलूस का नेतृत्व करता है.

एनसीपी नेता रामवतार जग्गी की हत्या और झीरम हमले के बाद भले ही अजीत जोगी अपनी साख को बचाने की जुगत में लगे हुए थे, लेकिन अंतागढ़ टेपकांड में उनकी और अमित जोगी की संलिप्तता सामने आने के बाद एक आम राय यह कायम हुई कि वे भाजपा के लिए कार्यरत थे. जब कांग्रेस के तमाम बड़े दिग्गज उन पर कार्रवाई करने से घबरा रहे थे तब बघेल आलाकमान को यह विश्वास दिलाने में कामयाब रहे कि जोगी परिवार के बगैर भी कांग्रेस की नैय्या पार लग सकती है. पिता-पुत्र के पार्टी से बाहर होने के बाद यह कयास लगाए जा रहे थे कि विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस को जबरदस्त नुकसान होगा, लेकिन इसके उलट बघेल यह साबित करने में कामयाब रहे कि जोगी  बीता हुआ कल थे. अगर पार्टी में रहते तो कांग्रेस ज्यादा नुकसान में रहती.

अपने इरादों और कामकाज के तौर-तरीकों में मजबूती के चलते भूपेश बघेल ने देश के बड़े राजनीतिज्ञों के बीच अपना एक खास मुकाम बनाया है. देश के बहुत से लेखक मित्र जब कभी भी फोन करते हैं तो बगैर किसी लंबी-चौड़ी भूमिका के कहते हैं-यार आपके यहां के मुख्यमंत्री तो जबरदस्त काम कर रहे हैं. एक बार मिलकर इस बात के लिए बधाई देनी है कि उन्होंने आदिवासियों की जमीन लौटाकर अच्छा काम किया है. संस्कृतिकर्मी मानते हैं कि वे करीना कपूर के साथ सेल्फी लेकर छत्तीसगढ़ के स्थानीय कलाकारों को अपमानित करने वाले सीएम नहीं है. उनका ठेठ देसी अंदाज छत्तीसगढ़ की संस्कृति-परम्परा और यहां के तीज-त्योहार को मानने-जानने वाले लोगों को लुभाता है. ऐसे सैकड़ों काम है जिसका जिक्र यहां कर सकता हूं... लेकिन यह सूची थोड़ी लंबी हो जाएगी.

ऐसा भी नहीं है कि उनके आलोचक नहीं है. फिलहाल इस काम में वे ही लोग सक्रिय है जो पिछली सरकार में ठेकेदार-कांट्रेक्टर बनकर सरकारी खजाने को हड़पने के खेल में लगे थे. भाजपा से संबंद्ध बहुत से उद्योगपति, ठेकेदार और धंधेबाज अपनी पूरी ताकत के साथ इस प्रचार में जुटे हुए हैं कि भूपेश सरकार महज चंद दिनों की मेहमान है. टीएस बाबा के साथ उनकी पटरी नहीं बैठ रही है. कोई ढ़ाई साल का फार्मूला है जो छत्तीसगढ़ में लागू हो जाएगा. आदि-आदि. दुष्प्रचार के इस उपक्रम में जनवाद का छेद वाला कंबल ओढ़कर जिंदाबाद-जिंदाबाद करने वाले लोग भी शामिल है. इसके अलावा कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं से जुड़े लोग, पूर्ववर्ती सरकार के प्रति वफादार रहने वाले अफसर और हर महीने वजीफा पाने वाले पत्रकारों की जमात भी इन दिनों सक्रिय है. ऐसे तमाम शेयर होल्डर जो सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों में नकारात्मक माहौल बनाते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि अभी सांप्रदायिक ताकतों से बड़ी और असली लड़ाई होनी बाकी है.

इससे इतर गांव और परिवार के एक मुखिया जैसी उनकी छवि को पसन्द करने वालों का बड़ा वर्ग भी मौजूद है. किसी गांव वाले से पूछकर देखिएगा तो कहेगा- अब लाल भाजी खाने का मजा आ रहा है. कहना न होगा कि छत्तीसगढ़ बेहद खूबसूरत है. यह राज्य अपने खांटी देसी स्वाद की वजह से भी जाना जाता है. जब कभी आप बाहर जाएंगे तो लोग आपसे तीजन बाई के बारे में पूछेंगे. सुरूजबाई खांडे, हबीब तनवीर के बारे में पूछेंगे. यहां के धान और उगने वाली साग-सब्जियों की जानकारी पाकर भी लोग आश्चर्य से भर जाते हैं. दुर्भाग्य से पंद्रह साल तक छत्तीसगढ़ का देसी स्वाद गायब कर दिया गया था. यहां के छत्तीसगढ़ियों को ही नहीं लग रहा था कि कोई उनके अपने बीच का है. भूपेश बघेल ठेठ छत्तीसगढ़िया है तो उन्हें गांव में रहने वाली बड़ी आबादी का दिल जीतने में देरी नहीं लगी. जहां तक भाजपा और उनके नेताओं की बात है तो ज्यादातर अब भी छत्तीसगढ़ की बोली-बानी और यहां के रहन-सहन को हिकारत के भाव से देखते है. भाजपा का कोई भी नेता ( एक-दो को छोड़कर ) अगर छत्तीसगढ़ी में बोलता और बतियाता है तो उसका व्यापारिक और बनावटी अंदाज साफ नजर आता है. 

मेरा किसी जाति विशेष से कोई विरोध नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि गत पंद्रह सालों से प्रदेश में ठकुराई हावी थीं. प्रदेश के ज्यादातर भाजपा नेताओं और अफसरों का तौर-तरीका सामंती हो गया था. दूर-दराज गांवों में बसने वाले लोगों को लगता था कि पता नहीं कब जमींदार कोड़े लेकर आ जाएंगे और खेत-खार से बेदखल कर देंगे. फूल जैसी बिटिया को उठाकर ले जाएंगे. होता भी यहीं था. बस्तर में पदस्थ रहा एक पुलिस अफसर पुरानी सरकार के इशारों पर कुछ इसी तरह के कृत्य में संलिप्त भी रहता था. आतंक का पर्याय बन चुके पुलिस अफसर मुकेश गुप्ता पर कार्रवाई भी आसान नहीं थीं. सब जानते हैं कि पिछली सरकार में वे किस तरह के पॉवरफुल थे. जानकार कहते हैं कि पिछली सरकार में मंत्रिमंडल के प्रत्येक सदस्य की कुंडली उनके पास थी और इसी आधार पर वे समय-असमय सबको यह कहकर धौंस देते थे कि ज्यादा उलझोगे तो नाप दिए जाओगे. लेकिन बघेल ने हत्या, साजिश सहित कई तरह के गंभीर आरोपों से घिरे इस खतरनाक अफसर को भी इधर-उधर भागने और छिपकर जीने के लिए मजबूर कर दिया है. पूर्व मुख्यमंत्री डाक्टर रमन सिंह, उनके दामाद पुनीत गुप्ता तथा अन्य कई रसूखदार नेताओं पर उनकी कार्रवाई को भले ही विपक्ष बदलापुर की कार्रवाई मानता है, लेकिन निजी तौर पर मैं इसे साहस का काम मानता हूं. पंद्रह साल के खौफ को भूपेश बघेल अपने देशज अंदाज से धीरे-धीरे खत्म करने का काम किया है. इस खौफ को कम करने के लिए उन्हें न तो लाठी भांजने की जरूरत पड़ी है और न ही अजीत जोगी वाले हथकंड़े को अपनाने की.

अब कोई कह सकता है कि जब आदमी सत्ता में होता है तो साहसी बन ही जाता है, लेकिन शायद यह सही नहीं है. भूपेश बघेल जब विपक्ष का हिस्सा थे तब भी बगैर किसी भय और दबाव के अपनी बात दमदारी के साथ रखते थे. बहुत से लोग बस्तर के माओवाद को लेकर डराने-धमकाने का काम करते हैं. मुझे याद है एक रोज वे खुली जीप में सवार होकर माओवादियों के सैन्य इलाके जगरगुड़ा जा धमके थे. इस खौफनाक इलाके में पुरानी सरकार के किसी भी मंत्री और नेता ने कभी दस्तक नहीं दी थी. कभी-कभार कुछ अफसर हेलिकाफ्टर से वहां जाने की हिम्मत दिखाते थे तो नक्सली हेलिकाफ्टर पर फायरिंग कर देते थे. यह सब लिखते हुए एक और बात याद आ रही है जो उनके बचपन से जुड़ी हुई है. एक बार उनके पैतृक गांव के मित्रों के बीच इस बात की शर्त लगी कि कौन बिच्छू का डंक तोड़ सकता है. भूपेश बघेल ने गांव के बाहर और भीतर पत्थरों के नीचे और पोखर के आसपास छिपे हुए सैकड़ों बिच्छुओं के डंक तोड़कर अपनी जेब के हवाले कर दिया था. 

बहरहाल छत्तीसगढ़ियों के भीतर साहस और सम्मान का भाव भरने वाले भूपेश बघेल नए ढंग से छत्तीसगढ़ को गढ़ने में लगे हुए हैं. प्रदेश की एक बड़ी आबादी उनके कामकाज और तौर-तरीकों पर भरोसा करती है. राजनीति के धुंरधर मानते हैं कि छत्तीसगढ़ में उनकी पारी बेहद लंबी रहने वाली है. छत्तीसगढ़िया भी अपनी उम्मीद को बरकरार रखना चाहते हैं. उम्मीद है तो सब कुछ है. उम्मीद पर दुनिया टिकी है.

उन्हें जन्मदिन की खूब सारी बधाई. 

 

9826895207

 

 

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अमित जोगी की नैय्या भंवर में ?

राजकुमार सोनी

रायपुर. छत्तीसगढ़ में मरवाही विधानसभा उपचुनाव को लेकर उठा-पटक का दौर प्रारंभ हो गया है. फिलहाल चुनावी तैयारी के मामले में कांग्रेस की बढ़त दिखाई देती है. कोरबा के विधायक एवं राजस्व मंत्री जयसिंह अग्रवाल अपना मोर्चा डॉट कॉम से चर्चा में कहते हैं- आज किसी डायरी में लिखकर रख लीजिए. मरवाही से कांग्रेस ही जीत का परचम फहराएगी. जीत की वजह क्या होगी...पूछने पर जयसिंह कहते हैं- मैं इलाके के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हूं. क्षेत्र की जनता अमित जोगी को पसंद नहीं करती.

जयसिंह अग्रवाल की बातों में कितनी सच्चाई है इसका पता तो तब चलेगा जब चुनाव का परिणाम आएगा, लेकिन राजनीतिक प्रेक्षक भी मानते हैं कि जो इमेज पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की थीं वह अमित जोगी की नहीं है. नाम न छापने की शर्त पर कांग्रेस के एक वरिष्ठ सदस्य कहते हैं- जब अजीत जोगी चुनाव लड़ते थे तब भी इलाके के अधिकांश कार्यकर्ता अमित जोगी के खराब व्यवहार को लेकर शिकायत किया करते थे. वे तो अजीत जोगी थे जो सबको संभालकर चलने का हुनर जानते थे. अमित जोगी अपने पिता की इस कला से वाकिफ नहीं है. अब भी उनका व्यवहार वैसा ही है जैसा पहले था. कार्यकर्ताओं को झिड़क देना... उन पर क्रोधित हो जाना उनका शगल बन चुका है. कार्यकर्ता का मानना है कि अगर अमित जोगी अपनी अतिरिक्त बुद्धि का परिचय नहीं देते तो छत्तीसगढ़ में भाजपा के बजाय कांग्रेस लंबे समय तक सत्ता में रहती. कार्यकर्ता का कहना है कि अजीत जोगी के देहांत के बाद अमित जोगी को सहानुभूति के थोड़े-बहुत वोट तो मिल सकते हैं, लेकिन यह वोट इतने ज्यादा भी नहीं होंगे कि  कांग्रेस को नुकसान हों. कांग्रेस के मीडिया प्रभारी शैलेश नितिन त्रिवेदी कहते हैं-पेंड्रा-गौरेला-मरवाही के जिला बन जाने के बाद क्षेत्र के लोगों को उनकी समस्याओं का समाधान मिल गया है. इसके अलावा क्षेत्र की पब्लिक कांग्रेस के विकास कामों से भी खुश है. त्रिवेदी आगे कहते हैं- मरवाही कांग्रेस की परम्परागत सीट है. चाहे कोई सूरत हो इस सीट पर कांग्रेस ही जीत दर्ज करेगी.

अभी कई कार्यकर्ता आएंगे कांग्रेस में

हालांकि अभी चुनाव तिथि की घोषणा नहीं हुई है बावजूद इसके जनता कांग्रेस के कार्यकर्ता कांग्रेस में लौटकर आ रहे हैं. अजीत जोगी के चुनाव संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ज्ञानेंद्र उपाध्याय के कांग्रेस में लौटकर आने के बाद जनता कांग्रेस में भगदड़ जैसी स्थिति कायम है. माना जा रहा है कि चुनाव आते-आते तक जनता कांग्रेस लगभग खाली हो जाएगी. इधर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी हर रोज मरवाही चुनाव की तैयारियों से अपडेट हो रहे हैं. क्षेत्र की प्रत्येक गतिविधि पर उनकी पैनी नजर है. कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम ने अपने दौरे में बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं को मजबूत करने पर जोर दिया है. उनका मानना है कि जब प्रत्याशी अच्छा होता है तो कार्यकर्ता भी जी-जान लगाकर काम करता है. मरकाम कहते हैं- इस बार मरवाही की जनता को कांग्रेस एक ऐसा प्रत्याशी देगी जो उनके सुख-दुख का साथी होगा.

चुनाव बेहद अहम

बहरहाल विधानसभा चुनाव के बाद दंतेवाड़ा और चित्रकोट के उपचुनाव में भी जीत का परचम फहरा चुकी कांग्रेस के लिए मरवाही का चुनाव बेहद मायने रखता है. पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी को कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखाने में तब के कांग्रेस अध्यक्ष एवं वर्तमान मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थीं. उनसे पहले कांग्रेस के जितने भी अध्यक्ष थे वे सब अजीत जोगी के सामने भींगी बिल्ली बने रहते थे, लेकिन भूपेश बघेल ने बेहद दमदार ढंग से उनके खिलाफ मोर्चा खोला और साबित किया कि जोगी के नाम का तिलिस्म एक भ्रम के अलावा और कुछ नहीं है. राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि यदि कांग्रेस मरवाही में जीत दर्ज कर लेती है तो भूपेश बघेल के कामकाज और उनकी राजनीतिक क्षमता पर न केवल मुहर लग जाएगी बल्कि सरकार के लंबे समय तक टिके रहने का संदेश भी दूर तक जाएगा. प्रेक्षकों का मानना है कि मरवाही चुनाव में मुख्य मुकाबला कांग्रेस और जोगी कांग्रेस के प्रत्याशी के बीच ही होगा. प्रदेश में अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत भाजपा भी चुनाव समर में उतरेगी, लेकिन वह तीसरे क्रम में होगी. पिछले चुनाव में भाजपा दूसरे क्रम में थीं.

 

 

 

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बेगुनाह आदिवासियों को मौत के घाट उतारने वाले कल्लूरी की जेब से पैसा निकालो और मुकदमा दर्ज करो !

रायपुर. बस्तर में अपनी पदस्थापना के दौरान फर्जी मुठभेड़ के जरिए आतंक का पर्याय रहे एसआरपी कल्लूरी एक बार फिर सुर्खियों में है. अभी हाल के दिनों में उनके नाम की चर्चा इस बात को लेकर है कि भाजपा के शासनकाल उन्होंने जिन सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हत्या का फर्जी मुकदमा दर्ज करवाया था उन सभी को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने निर्दोष मानते हुए कांग्रेस की मौजूदा सरकार को मुआवजा देने को कहा है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के इस निर्देश के बाद यह सवाल भी उठ रहा है कि क्यों न मुआवजे की रकम कल्लूरी और उनके साथ अपराधिक कृत्य में लिप्त रहे अफसरों से वसूली जाय. सामान्य तौर पर किसी भी घटना के लिए सरकार ही सीधे तौर पर जवाबदेह होती है, लेकिन कई मामलों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर शामिल रहे अंग को भी जवाबदेह माना जाता है. अब से कुछ बरस पहले जब नर्मदा बचाओ आंदोलन में शामिल रहे ग्रामीणों को फर्जी मुकदमों के तहत जेल में ठूंसा गया था तब मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के जस्टिस श्री पटनायक ने उस समय के एसडीएम और लाठी चार्ज में शामिल रहे अफसरों से जुर्माना वसूलने का ऐतिहासिक निर्णय दिया था. कांग्रेस की मौजूदा सरकार भी चाहे तो कल्लूरी और उनके सहयोगी अफसरों की तनख्वाह से कटौती कर पीड़ितों को मुआवजे की राशि प्रदान कर सकती है. अगर ऐसा होता है तो यह उदाहरण झूठे मामले गढ़ने और बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतारने वाले अफसरों के लिए एक सबक होगा.

गौरतलब है कि वर्ष 2016 में दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर नंदिनी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर अर्चना प्रसाद, माकपा के राज्य सचिव संजय पराते, सामाजिक कार्यकर्ता विनीत तिवारी, मंजू कोवासी और मंगल कर्मा आदिवासियों के मौलिक अधिकारों पर हनन और ज्यादतियों की शिकायतों का जायजा लेने के लिए बस्तर दौरे पर थे. दौरे के दौरान पहले तो उन्हें डराया-धमकाया गया, लेकिन जब सामाजिक कार्यकर्ता गांव-गांव घूमकर तथ्य एकत्रित करने लगे तब कुछ ग्रामीणों के जरिए दरभा थाने में इस बात की शिकायत दर्ज करवाई गई कि दिल्ली से आए हुए लोग ग्रामीणों को शासन के खिलाफ भड़काने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि जिन दिनों कार्यकर्ताओं का बस्तर दौरा चल रहा था तब यह चर्चा भी कायम थीं कि कल्लूरी और अग्नि संस्था से जुड़े हुए लोग हत्या जैसी घटना को भी अंजाम दे सकते हैं. यही एक वजह थीं कि टीम के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर को अपनी पहचान और नाम बदलकर रहना पड़ा था. सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ ऐसा कोई वाक्या तो नहीं हुआ, लेकिन पांच नवम्बर 2016 को सभी के खिलाफ सुकमा जिले के नामा गांव के आदिवासी शामनाथ बघेल की हत्या के मामले में एफआईआर दर्ज कर ली गई. हालांकि यह एफआईआर शामनाथ की विधवा विमला बघेल की शिकायत पर दर्ज की गई थीं, लेकिन मामले की हकीकत यह थीं कि विमला ने अपनी रिपोर्ट में किसी भी शख्स का नाम नहीं लिया था.

इस घटना के बाद सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपने बचाव के लिए सुप्रीम कोर्ट की शरण ली. पूरे प्रकरण में जब छत्तीसगढ़ की पुलिस ने भी नए सिरे से पड़ताल की तो यह पाया कि सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हत्या का झूठा मामला दर्ज किया गया है. यही एक वजह थीं कि फरवरी 2019 में सभी के आरोप वापस लेते हुए एफआईआर से नाम हटा लिया गया. इधर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं को मानसिक प्रताड़ना दिए जाने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार को मुआवजा देने को कहा है. आयोग ने यह निर्देश तेलंगाना के अधिवक्ताओं और उस तथ्यान्वेषी दल के लिए भी दिया है जिन्हें माओवादियों की मदद करने के आरोप में सुकमा की जेल में बंद कर दिया गया था. मानवाधिकार आयोग के इस फैसले माकपा सहित अन्य कई संगठनों ने स्वागत किया है. माकपा के सचिव संजय पराते का कहना है कि भाजपा के शासनकाल में आदिवासियों के हितों के लिए काम करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को बर्बर तरीके से कुचला गया था. जो कोई भी बस्तर की हकीकत को सामने लाने का प्रयास करता था उसे संघी गिरोह के लोग अपने राजनीतिक निशाने पर रखते थे और देशद्रोही होने का ठप्पा लगा देते थे. सामाजिक कार्यकर्ता विनीत तिवारी कहते हैं- मानवाधिकार आयोग का फैसला साबित करता है कि सांप्रदायिक ताकतों को बढ़ावा देने वाली भाजपा सरकार पूरी तरह से गलत थीं. उनका कहना है कि वरवर राव, सुधा भारद्वाज जैसे प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी निशाना बनाया गया है. विनीत तिवारी कहते हैं- कल्लूरी के साथ वे सभी अफसर जो फर्जी रिपोर्ट के खेल में शामिल थे उनसे मुआवजा तो वसूलना ही चाहिए...सभी पर मुकदमा भी दर्ज होना चाहिए.

 

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अगर वे ईसाई है तो क्या जीना हराम कर देंगे उनका ?

कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम का संज्ञान लेना बेहद जरूरी

रायपुर. छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल जिले कोण्डागांव के माकड़ी थाने के अधीन एक गांव है मोहन बेड़ा. इस गांव में गत चार महीनों से ईसाई धर्म को मानने वाले लोगों पर प्रताड़ना का दौर चल रहा है. जाहिर सी बात है कि जब भी इस तरह की स्थिति पैदा होती है तो सबसे पहले अतिवादी संगठन से जुड़े लोग सक्रिय होते हैं. इस गांव में भी वही लोग सक्रिय हुए और उनका साथ दिया ग्राम पंचायत ने.

देश का संविधान इस बात की इजाजत देता है कि कोई भी व्यक्ति अपनी निजी स्वतंत्रता के तहत किसी भी धर्म को स्वीकार कर सकता है. संविधान का सम्मान करते हुए ही इस गांव के राम वट्टी, लक्ष्मण वट्टी, पगनी वट्टी, तिहारिन वट्टी, लक्ष्मी वट्टी और चमारिन बाई वट्टी ने लगभग छह साल पहले ईसाई धर्म को अंगीकार कर लिया था. गांव के उक्त लोगों ने जब ईसाई धर्म स्वीकार किया तब किसी ने किसी भी तरह की आपत्ति नहीं जताई, लेकिन अचानक एक दिन उक्त सभी लोगों को पंचायत ने बुलाकर इस बात की धमकी दी कि यदि उन्होंने ईसाई धर्म को नहीं छोड़ा तो परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना होगा. पंचायत का साफ-साफ कहना था कि या तो धर्म को छोड़ना होगा या फिर गांव ?

सामाजिक बहिष्कार

जब गांव उक्त लोगों ने पंचायत का फरमान मानने से इंकार कर दिया तो पंचायत ने सामाजिक बहिष्कार का फरमान सुना दिया. उन्हें गांव के हैडपंप से पानी लेने से रोक दिया गया. किराना दुकान वालों ने राशन व अन्य सामाग्री को बेचने से मना कर दिया. यहां तक जो किसान अपनी खेती पर अनाज उगाना चाहते थे उन्हें ऐसा नहीं करने दिया गया. प्रताड़ना से परेशान उक्त लोगों ने कई मर्तबा कलक्टर, पुलिस अधीक्षक व तहसीलदार को लिखित में शिकायत भेजी... लेकिन इस शिकायत का कोई असर नहीं हुआ. अभी हाल के दिनों में छत्तीसगढ़ क्रिश्चयन फोरम की फैक्ट फाइडिंग टीम ने गांव का दौरा किया तब पता चला कि अधिकारी भी प्रताड़ित लोगों को ही ईसाई धर्म छोड़ने की धमकी-चमकी देते रहे हैं.

भाजपा शासनकाल से चल रहा है प्रताड़ना का दौर

कोण्डागांव में जो कुछ हुआ वह केवल एक बानगी है. मसीही समाज के साथ प्रताड़ना का यह दौर तब से चल रहा है जब प्रदेश में भाजपा की सरकार थीं. कांग्रेस की सरकार बनने के बाद यह उम्मीद थी कि प्रदेश में रहने वाले सभी लोगों को अपने-अपने हिसाब से धर्म को चुनने और उसे मानने की आजादी रहेगी, लेकिन लगता तो यही है कि सरकार को बदनाम करने के लिए अफसर अतिवादी संगठनों की ही मदद कर रहे हैं. कोण्डागांव से मोहन मरकाम प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और विधायक भी है. उनकी छवि एक निर्विवाद और जुझारू नेता के तौर पर बनी हुई है. कोण्डागांव के ग्राम मोहन बेड़ा की घटना से जाहिर होता है कि कतिपय अतिवादी संगठन अफसरों के साथ मिली-भगत कर छवि को बट्टा लगाने के फेर में हैं. गांव में प्रताड़ित लोग अब भी अपनी खेती-बाड़ी करना चाहते हैं, लेकिन अतिवादी लोग घातक हथियारों से लैस होकर उन्हें रोकते हैं. पीड़ित लोगों ने थोड़ा प्रयास भी किया तो उनके साथ मारपीट की गई. उनका घर तोड़ दिया गया. यहां तक घर की महिला सदस्यों के साथ अभद्रता की गई. फैक्ट फाइड़िंग टीम ने सारे तथ्यों को एकत्र कर पीड़ित लोगों के साथ थाने जाकर रिपोर्ट करनी चाही तो वहां मौजूद थानेदार ने कह दिया- गांव का मामला है. गांव वाले आपस में निपट लेगें. आप लोग काहे नेतागिरी करते हो. जब टीम के सदस्यों ने रिपोर्ट के लिए जोर दिया तब भी कोई बात नहीं बनी. फोरम के सदस्यों की शिकायत एक सादे कागज में ले ली गई और कह दिया गया कि जांच करके बताएंगे. इस गांव में इसी महीने एक जुलाई को पीड़ित लोगों पर जयलाल,जगत,कौशल, जगदेव, मधली सहित कुछ और लोगों ने हमला किया था. पीड़ित पक्ष और फोरम की शिकायत के बाद भी पुलिस ने अब किसी तरह की कोई कार्रवाई नहीं की है.

गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ क्रिश्चन फोरम ने प्रदेश के बस्तर सहित अन्य इलाकों के 17 से ज्यादा मामलों में उच्च न्यायालय में याचिका लगाई थीं. फोरम की याचिका के बाद उच्च न्यायालय ने मसीही समाज के अधिकार को सुनिश्चित करने का आदेश दिया था. फोरम ने इस आदेश की प्रति प्रदेश के सभी थानों और पुलिस विभाग के प्रमुख अफसरों को भेजी है, बावजूद इसके ईसाई समुदाय पर प्रताड़ना का दौर खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है. अभी कुछ समय पहले ही कोण्डागांव में ईसाई धर्म को मानने वाली एक महिला के साथ दुष्कर्म की घटना सामने आई थीं. पुलिस ने इसे जंगली जानवरों का हमला बताकर रफा-दफा कर दिया. ग्राम सोनाबेड़ा में भी कुछ लोगों को इसलिए प्रताड़ित किया गया क्योंकि वे ईसाई धर्म को मानने वाले है.छत्तीसगढ़ क्रिश्चियन फोरम के अध्यक्ष अरुण पन्नालाल का आरोप है कि शासन के अधिकारी जान-बूझकर प्रताड़ना के मामलों में गंभीरता नहीं दिखा रहे हैं. उनका कहना है जो भी अधिकारी इस तरह के कृत्य में लिप्त हैं उन्हें अदालत का सामना करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए.

 

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नामचीन साहित्यकारों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अर्णब पर एफआईआर को जायज ठहराया

रायपुर. सांप्रदायिक उन्माद और वैमनस्यता फैलाने में जुटे एक टीवी चैनल के संपादक अर्णब गोस्वामी पर विभिन्न राज्यों में की गई एफआईआर को नामचीन साहित्यकारों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जायज ठहराया है. ज्यादातर लोगों का मानना है कि अर्णब को केंद्र की सत्ता का संरक्षण हासिल है इसलिए वे देश की गंगा-जमुनी तहजीब को नष्ट करने में लगे हुए हैं.

प्रख्यात पत्रकार पकंज चतुर्वेदी का कहना है- अर्णब और उनकी तरह के अन्य लोग जो पत्रकारिता का मुखौटा लगाकर नफरत और सांप्रदायिकता फैलाने के खेल में लगे हुए हैं उन पर नियंत्रण बेहद जरूरी है. ऐसे लोग देश और समाज का नुकसान कर रहे हैं. भले ही सुप्रीम कोर्ट ने अर्णब गोस्वामी को सोनिया गांधी के बारे में की गई टिप्पणी के लिए तीन हफ्ते की मोहलत दे दी है, लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि छत्तीसगढ़ में उनके खिलाफ एक मुकदमा राहुल गांधी के बयान को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करने का भी है. यह बिल्कुल सटीक समय कि उस प्रकरण में अर्णब पर ठोस कार्रवाई कर दी जाय. उसे कम से कम तीन दिन जेल में रहने का अवसर मिलेगा तो दिमाग ठीक हो जाएगा.

रायगढ़ में रहने वाले साहित्यकार रमेश शर्मा का कहना है कि अगर अर्णब गोस्वामी पालघर घटना पर कुछ पूछना या बहस करवाना चाहते थे तो उन्हें महाराष्ट्र सरकार से या केंद्र सरकार से सवाल करना चाहिए था क्योंकि किसी भी अप्रिय घटना के लिए शासन-प्रशासन ही जिम्मेदार हो सकते हैं, पर पत्रकार अर्नब गोस्वामी ने ऐसा न करके इस बहस में देश की एक सम्मानित महिला सोनिया गांधी को बेवजह लपेट लिया. यहां तक कि इस घटना को इटली से जोड़ देना और इसे सांप्रदायिक रूप देना अत्यंत आपत्तिजनक मामला है. सोनिया गांधी न केवल एक सम्मानित परिवार से हैं जिनका कि देश के लिए बलिदान का इतिहास रहा है, साथ साथ वे एक महिला भी हैं और यह देश महिलाओं के सम्मान के लिए जाना भी जाता है. समूची बहस में अर्णब गोस्वामी की भाषा शैली भी अमर्यादित और अशोभनीय रही जिसके कारण एक महिला का सार्वजनिक रूप से सरासर अपमान भी हुआ,इससे लोग भी भीतर से आहत हुए। इस लिहाज से देखा जाए तो यह एफआईआर उचित है, क्योंकि अगर समय रहते ऐसी अमर्यादित बहसों पर अंकुश नहीं लगाया गया तो इसके दुष्परिणाम भी देश और समाज को आगे भुगतने होंगे. 

देश के चर्चित कवि आलोक वर्मा का कहना है कि अर्णव जैसे लोग एक रात में नहीं बनते. इन पर मिलकर सामूहिक शांतिपूर्ण असहमति और विरोध धर्मनिरपेक्ष दलों और लोगों को बहुत पहले ही दर्ज करना था. आज हमारी बहुआयामी बहुधर्मी सांस्कृतिक विरासत को आघात पहुंचाने वाले ऐसे लोग भारतीय समाज में फैल गए हैं. योजनाबद्ध तरीकों से  इन्हें बनाया और फैलाया भी गया है. इन पर  सारी जनता की मिलकर शांतिपूर्ण सामूहिक कार्यवाहियां हमारे देश को बचाने के लिए हर हाल में जरूरी हैं. हर शहर मे"सर्वधर्म सेना "या संगठन बनाने की जरूरत है जो पूर्णतया अराजनीतिक और शांतिपूर्ण होने के साथ सारे धार्मिक समुदायों के लोगों को साथ ले उनमे आपसी संवाद बढ़ा सके  औऱ आपसी भ्रम दूर कर सके. सब सबके त्योहारों,दुखों में शामिल हों ताकि साम्प्रदायिक शक्तियां कामयाब न हो सकें. यह संगठन पीड़ित जन के साथ होकर उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कानूनी,आर्थिक  सहयोग भी दे ताकि ऐसे लोग न डरें ,न अकेले पड़ें. आज यदि सब साथ न होंगे तो आगे खतरा सारी सीमाएं लांघ जाएगा,,,।

देश के एक प्रमुख कथाकार मनोज रुपड़ा का कहना है कि अर्नब गोस्वामी बहुत पहले से अनर्गल गोस्वामी बन गए थे, लेकिन उनकी अनर्गल बातों पर आपत्ति उठाने की बात सिर्फ सोशल मीडिया में ही होती रही. किसी तरह की ठोस जमीनी कार्रवाही किसी ने नहीं की. अब बात सिर्फ़ अर्णब गोस्वामी तक बात सीमित न रह जाए बल्कि पूरे मीडिया की भाषा उनके भड़काऊ तेवरों और गैर जिम्मेदार और लोकतंत्र विरोधी रवैए की भी सभी स्तर पर ख़बर लेने की जरूरत है .पहले भड़काऊ बयानबाजी सिर्फ़ नेता करते थे अब नेताओं ने चुप्पी ओढ ली है और कुछ एंकरों को ये जिम्मेदारी दी दी है. अर्नब और उनके जैसे अन्य एंकरो को पत्रकार मानना पत्रकारिता की तौहीन है .

देश के नामचीन कथाकार कैलाश बनवासी कहते हैं- जैसी स्तरहीन,मूल्यहीन और तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर चरित्र हनन या सांप्रदायीकरण की घटिया पत्रकारिता गोस्वामी अर्णब या अन्य नामधारी पत्रकार  बेखौफ होकर कर रहे हैं,वह आज और भविष्य की बेहद डराने वाली वर्चस्ववादी, अहमंन्यतावादी और अलोकतांत्रिक पत्रकारिता का नमूना है.असहमति और विरोध को इस निम्नस्तर पर लाकर की जाने वाली पत्रकारिता इन दिनों 'जहरबाद'--परजीवी बेल--की तरह सत्ता-वृक्ष के सहारे फल-फूल रही है. यह लोकतंत्र के लिए  बहुत घातक है. प्रश्न यह है कि इनकी ऐसी तथाकथित अभिव्यक्ति पर लगाम कैसे लगे ? किसी राजनैतिक दल के द्वारा किया गया ऐसा प्रयास-एफआईआर 'राजनैतिक दुर्भावनावश' की भेंट चढ़ जाता है. इसके बावजूद ऐसा समाज-देश के हित चिंता में लगे लोगों या संस्थाओं द्वारा किया जाना बेहद जरूरी है ताकि इनके काम-काज के तौर-तरीकों को जनता के सामने चर्चा में लाया जा सके. यह जनता के चिंतन का विषय बने और इससे समाज की बेहतरी के नतीजे सामने आए. मैं अर्नब पर हमले का समर्थन नहीं करता वह हर हाल में निंदनीय है. जरुरत इस बात की ज्यादा हो गई है कि लोगों की विज्ञान सम्मत तर्कशीलता,विवेक, सामाजिकता और न्याय चेतना अधिकाधिक उन्नत और मुखर हो. जो किसी भी मीडिया के गोदी मीडिया बन जाने का प्रबल विरोध करें. मुझे लगता है गोस्वामी पर की गई एफआईआर को राजनैतिक विद्वेष के चश्मे से नहीं बल्कि सुदृढ़ लोकतंत्र और स्वस्थ पत्रकारिता के बचाव के एक उपक्रम के रुप में देखा जाना चाहिए. इसके दायरे में सिर्फ वही नहीं उस जैसे तमाम लोग आने चाहिए. 

युवा कवि, कथाकार और आलोचक बसन्त त्रिपाठी कहते हैं- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लेखक, कलाकार या पत्रकार का ही नहीं बल्कि हर नागरिक का मौलिक अधिकार है. लेकिन इसमें अन्य नागरिक या समुदाय की गरिमा का सम्मान भी अंतर्निहित है. भारत के कई मीडिया घरानों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर घृणा-वमन का जो रूप विकसित किया है उसका ताज़ा उदाहरण है अर्नव गोस्वामी का संतों की लिंचिंग से संबंधित रपट. कहा जाता है कि राजा से अधिक निष्ठावान उसके वफादार होते हैं. अर्नव गोस्वामी जैसे लोग पत्रकार के भेस में ऐसे ही वफादार लोग हैं. पत्रकार का काम खबर देना होता है लेकिन अर्नव जैसे लोग खबर देने की बजाय खबर बनाने की राजनीतिक योजना में आकंठ डूबे हुए हैं. इन लोगों ने अपनी रिपोर्ट को नस्ली और सामुदायिक हिंसा के प्रचार का परचम बना रखा है और उदासीन और असावधान लोगों को नफरत के अग्नि-कुंड में ढकेल रहे हैं. यदि जनता चैनल बदलने का अपना विवेक खो चुकी है तो बहुत आसानी से इनके जाल में फँस सकती है, फँसती है. और फिर उनका राजनीतिक इस्तेमाल करने के लिए सत्ताएँ तो खड़ी ही हैं ! ये लोग पत्रकार नहीं हैं भाड़े के टट्टू हैं. ये उन शैतानों की तरह हैं जो लोगों को डसकर उनके खून में अपनी शैतानियत रोप कर, उन्हें भी अपने जैसा बना देते हैं. ऐसे तमाम लोगों को, जो किसी भी धर्म अथवा समुदाय के प्रति विष उगलते हैं, कोर्ट के कटघरे में खींच लाना ज़रूरी है. इन पर नकेल कसना ज़रूरी है. अन्यथा आने वाले दिनों में 'अन्यों' के खून के प्यासे दरिंदे हर जगह घूमते हुए दिखाई पड़ेंगे.

समकालीन जनमत के संपादक केके पांडेय का कहना है- अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले होना दुर्भाग्यपूर्ण है और किसी ख़बरनवीस को  सही खबर लिखने या दिखाने के लिए प्रताड़ित किया जाना जिसमें मानसिक उत्पीड़न से लेकर हत्या तक शामिल है, गलत है. लेकिन जब ख़बरनवीसी या पत्रकारिता खबर को खबर की तरह नहीं बल्कि इस या उस पक्ष का पक्षकार दिखने की कोशिश में लग जाए तो उस पर प्रतिक्रिया भी जरूरी है. फिलहाल जो मामला रिपब्लिक टीवी और उससे जुड़े अर्णव गोस्वामी का है, वह इस दायरे से भी बाहर का है. यहां मामला खबरनवीसी का है ही नहीं. यहां तो एक मीडिया समूह और उसका पत्रकार, पत्रकारिता की जगह अपनी स्थिति का फायदा उठाकर न सिर्फ गलत बयानी बल्कि समाज के भीतर घृणा फैलाने और तमाम  व्यक्तियों और समुदायों को नफ़रत जनित हिंसा में धकेल देने की साजिशाना हरकत करते हुए दिखाई देता है और यह लगातार हो रही प्रक्रिया है. ऐसे में न सिर्फ ख़बरनवीसी की साख को धक्का लगता है बल्कि यह आपराधिक कृत्य की तरह सामने आता है. खबरनवीसी का यह चेहरा तमाम पत्रकारों और पत्रकारिता के पेशे पर खतरा बन कर आया है। हमें इसका मुकाबला करना ही होगा।

क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच के महासचिव तुहिन देब कहते हैं- अर्णब गोस्वामी  सत्ताधारी संघी कॉर्पोरेट फॉसिस्टों का गोएबल्स की तरह का भोम्पू प्रचारक है. अर्नब ,सुधीर और दीपक चौरसिया जैसे शर्मनाक गोदी मीडिया के कारण ही आज जारी प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत का स्थान दो पायदान नीचे चले गया है. अर्णब  जैसे तथाकथित पत्रकार जो आरएसएस और बीजेपी का तलवा चाटते हैं उनपर अंकुश लगाना जरूरी है. लेकिन उनके खिलाफ एफआईआर या जनमत तैयार करने का काम तो बहुत पहले हो जाना चाहिए था. सिर्फ सोनिया ग़ांधी के खिलाफ विषवमन करने पर ही क्यों ये किया गया? मुसलमानों और प्रगतिशील लोगों  के खिलाफ नफरत पैदा करने का अपराध तो ये सत्ता के दलाल पिछले छह सालों से कर रहे हैं.

प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े कवि संजय शाम कहते हैं- अर्णब गोस्वामी पर देश भर में हो रहे एफआईआर को समझने के लिए यह समझना भी जरूरी है कि किसी लोकतांत्रिक देश में कोई  पत्रकार बेमतलब के राग द्वेष के साथ पत्रकारिता कैसे कर सकता है ? एक पत्रकार काम समाचार देना उसका विश्लेषण करना और जनता तक खबर की पूरी सच्चाई को पहुंचाना होता है. शायद इसी जिम्मेदारी के कारण पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है. किसी भी अधिकार के साथ उसका दायित्व बराबर जुड़ा होता है और अगर किसी पत्रकार को सूचना प्रदान करने का अधिकार है तो जाहिर है उसका दायित्व भी है कि वह सच बताएं ना कि एक राजनीतिक पार्टी के अंध भक्तों की तरह दूसरी विचारधारा के लोगों दलों और नेताओं पर  भाषा की सारी तमीज को दरकिनार कर अमर्यादित अनर्गल आरोप लगाएं. दुर्भाग्य से आज ज्यादातर मीडिया सत्ता और सत्ता प्रतिष्ठानों के मोहपाश या किसी भय के अधीन पत्रकारिता की मर्यादाओं को तक में रखकर  अपने आकाओं  को खुश करने के लिए दूसरे पर कुछ भी भद्दे असंसदीय आरोप लगाने के खेल में लगे हुए हैं.आज की मीडिया का यह आम चरित्र हो गया है जिसे किसी भी न्यूज को देखते- सुनते हुए सहज ही महसूस किया जा सकता है. ऐसे में जब दूसरा वर्ग लोकतांत्रिक रूप से अपने सम्मान को चोट पहुंचाने वाले के विरुद्ध कानून का सहारा लेकर न्याय संगत ,विधि सम्मत विरोध दर्ज करता है तो यह एक वाजिब रास्ता है. लोकतंत्र में विरोध का सम्मान अति आवश्यक है लेकिन इसकी एक सीमा है जाहिर है अर्णब जैसे लोगों की वजह से सब्र का बांध टूट गया है.

प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता संकेत ठाकुर अर्णब गोस्वामी के न्यूज पढ़ने पर ही प्रतिबंध लगाने की मांग करते हैं. वे कहते हैं- अर्णब की आक्रामक और अपमानजनक शैली ने पत्रकारिता के मापदंडों को निम्नतम स्तर पर उतार दिया है. एक न्यूज एंकर जब स्वयं ही अदालत लगाकर फैसला सुनाने लगता है तो यह प्रश्न स्वाभाविक ढंग से कौंधता है कि फैसला सुनाने वाला अदालत में वकील क्यों नहीं बन जाता? यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के बड़े राजनीतिज्ञों पर ओछी टिप्पणी करके सस्ती लोकप्रियता और टीआरपी बढ़ाने का  शर्मनाक तरीका अर्नब गोस्वामी  ने टीवी पत्रकारिता में स्थापित कर दिया है. आज जबकि उच्च मापदंडों को पत्रकारिता के क्षेत्र में स्थापित करने की आवश्यकता है तो ऐसा पत्रकार, पत्रकार ही बना रहे चाटुकार नहीं. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर निजी टिप्पणी व बाद में निम्नस्तरीय बातें करना सामाजिक-राजनैतिक मर्यादा के प्रतिकूल है.अर्णब गोस्वामी जैसे पत्रकारों को तत्काल पत्रकार जगत से विदा करने की आवश्यकता है. बेहतर होता कि माननीय न्यायालय  कोई ऐसा फैसला सुनाती  जिसमें अर्नब जैसे लोगों पर न्यूज़ पढ़ने का प्रतिबंध लगता.

युवा कवि अंजन कुमार कहते हैं- किसी भी लोकतांत्रिक देश का मुख्य आधार उसकी जनता होती है. लोकतंत्र को बनाए और बचाए  रखने के लिए जनता को उसके के प्रति जागरूक और सचेत बनाये रखने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी मीडिया और उससे जुड़े पत्रकारों की होती है. लेकिन इधर पिछले कई वर्षों से हुए तमाम घटनाओं और उस पर मीडिया के नजरिए से ये साफ देखा जा रहा है कि मीडिया अपने  सामाजिक सरोकारों को भूलकर जनता के हित में कार्य करने की जगह झूठे खबरों और उत्तेजक बयानबाजी में लगी हुई है. जिसके कारण जनता ग़ुमराह होकर उन्मादी भीड़ में तब्दील होती जा रही है। झूठे और फर्जी खबरे इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि  आज पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया  है. अब लोगों का भरोसा पूरी तरह से मीडिया से उठ चुका है. उसकी निष्पक्षता अब बची नहीं रह गई. मीडिया की यह खराब स्थिति धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लोकतांत्रिक व्यवस्था लिए सबसे अधिक घातक है. जिसे बचाये रखने के लिए अर्नब गोस्वामी जैसे तमाम पत्रकारों पर अंकुश लगाने की बेहद जरूरत है. ताकि पत्रकार अपनी मर्यादा में रहकर संयमित और निष्पक्ष पत्रकारिता करे.

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आखिरकार नफरत फैलाने के आरोप में अर्णब गोस्वामी पर मामला पंजीबद्ध

स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव और कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम ने दर्ज करवाई एफआईआर

रायपुर. अपनी भड़काऊ और नफरत फैलाने वाली खबरों के लिए मशहूर रिपब्लिक टीवी और उसके प्रमुख एकंर ( एडिटर ) अर्णब गोस्वामी पर छत्तीसगढ़ पुलिस ने बुधवार को भारतीय दंड संहिता की धारा 153- ए, 295 ए और 505 ( 2 ) के तहत मामला पंजीबद्ध कर लिया है. राज्य के स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष मोहन मरकाम की शिकायत के बाद पुलिस ने देर शाम यह एफआईआर दर्ज की है.

स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव और अध्यक्ष मोहन मरकाम ने सिविल लाइन थाने में शिकायत करते हुए कहा कि अर्णब गोस्वामी ने अपने टीवी चैनल रिपब्लिक भारत में पूछता भारत शीर्षक से एक कार्यक्रम चलाया था. इस कार्यक्रम के बहाने उन्होंने पालघर में घटित हुई घटना का जिक्र करते हुए कहा कि इस घटना के बाद सोनिया गांधी खामोश क्यों है. अर्णब ने अपने इस कार्यक्रम में समुदाय विशेष के बीच नफरत फैलाने के लिहाज से कई ऐसी बातों का जिक्र किया जिसका उल्लेख इस समाचार में नहीं किया जा सकता है. ( यह लिखा जाना भी एक तरह से सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने जैसा है. )

शिकायतकर्ताओं ने कहा कि ऐसे समय जबकि पूरा देश कोरोना जैसी महामारी से जूझ रहा है तब अर्णब गोस्वामी ने पूरे देश को धर्म के आधार पर दंगा करने के लिए उकसाया और उन्माद पैदा किया. शिकायतकर्ताओं ने बतौर सबूत रिपब्लिक भारत टीवी का वीडियो भी सौंपा है.

मुख्यमंत्री ने कहा- फर्जी रिपल्बिक को सबक सिखाने में सक्षम है

इधर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने एक टिव्हट में कहा है- रिपल्बिक और भारत टीवी के संपादक अर्णब गोस्वामी के इस अनर्गल बकवास को क्या पत्रकारिता कह सकते हैं. यह तो सांप्रदायिक हिंसा भड़काने का कुत्सित प्रयास है. न भाषा की मर्यादा और न ही किसी मान मर्यादा का ध्यान. यह तो अपराध है. संज्ञेय और दंडनीय अपराध. भूपेश बघेल ने आगे लिखा है- हमारे रिपब्लिक का कानून फर्जी रिपल्बिक को सबक सिखाने में सक्षम है.

वायरस का इलाज जरूरी

मंगलवार को भी कांग्रेसजनों रायपुर के सिविल लाइन में अर्णब गोस्वामी के खिलाफ एफआईआर करने के लिए शिकायत सौंपी थीं. यह शिकायत इस बात पर आधारित है कि अर्नब गोस्वामी ने राहुल गांधी की पत्रकार वार्ता को गलत ढंग से प्रस्तुत किया जिसकी वजह से लोग गुमराह हुए. खबर है कि पुलिस ने चंद्रशेखर शुक्ला और गिरीश दुबे की शिकायत पर इस मामले में भी अपराध पंजीबद्ध कर लिया है. 

छत्तीसगढ़ में इन दिनों अफवाह आधारित खबरों से लोगों को गुमराह करने और भ्रम फैलाने वालों की शामत आई हुई है. महाराष्ट्र में एक चैनल के संवाददाता की गिरफ्तारी के बाद छत्तीसगढ़ में भाजपा से जुड़ी विश्वनंदिनी पांडेय और फेसबुक पर निशा जिंदल बनकर सांप्रदायिक पोस्ट करने वाले रवि पुजार पर अपराध पंजीबद्ध किया गया है. इधर कोरोना काल में एक पोर्टल और एक अन्य टीवी चैनल के खिलाफ भी मामला दर्ज कर लिया गया है. छत्तीसगढ़ सरकार की ताबड़तोड़ कार्रवाई को देखते हुए लगता तो यही है कि खबरों के जरिए नफरत का जहर फैलाने और जनसामान्य को गुमराह करने वाले बहुत से अखबार और टीवी चैनलों के मालिक- संवाददाताओं पर गाज गिर सकती है. छत्तीसगढ़ सरकार की इस तरह की कार्रवाई को देश की एक बड़ी आबादी बेहद अच्छे ढंग से देख रही है और उनकी सकारात्मक प्रतिक्रिया भी मिल रही है. सोशल मीडिया में सरकार के साहस भरे कदम की सराहना हो रही है. जबकि मुख्यधारा का कथित मीडिया इस तरह की खबरों को छापने से डर रहा है कि न जाने कल क्या हो? समुदाय विशेष के बीच नफरत का जहर बोने वाले कतिपय मीडियाकर्मी और राजनेता बुरी तरह से बिलबिला भी रहे हैं. वे दूरभाष के जरिए इस चर्चा में भी तल्लीन है कि सरकार मीडियाकर्मियों पर शिकंजा कस रही है. जबकि बहुत से लोगों का मानना है कि मीडिया में कोरोना से भी ज्यादा खतरनाक वायरस मौजूद है. ऐसे सभी वायरस का इलाज अब जरूरी हो चला है. छत्तीसगढ़ ने ऐसे वायरसों से निपटने में एक नई राह दिखाई है.

 

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अर्नब गोस्वामी के खिलाफ थाने में शिकायत... गिरफ्तारी के लिए टीम जल्द रवाना होगी दिल्ली

रायपुर. अफवाह आधारित खबरों से सांप्रदायिकता फैलाने और लोगों को गुमराह करने वाले अखबार तथा टीवी चैनलों के मालिक- संवाददाताओं के बुरे दिन आ गए हैं. देश की एक बड़ी आबादी का भी मानना है कि देश की गोदी मीडिया गंगा-जमुनी तहजीब से खिलवाड़ करने में जुटी है, इसलिए नफरत का जहर उगलने वाले हर उस शख्स के खिलाफ सख्त कार्रवाई बेहद जरूरी है जो भाई-चारे का खात्मा करने में लगी हुई है. महाराष्ट्र में एक चैनल के संवाददाता की गिरफ्तारी के बाद हाल के दिनों में छत्तीसगढ़ पुलिस ने भी भाजपा से जुड़ी विश्वनंदिनी पांडेय और फेसबुक पर निशा जिंदल बनकर सांप्रदायिक पोस्ट करने के आरोप में रवि पुजार पर मामला दर्ज किया है. इधर मंगलवार को छत्तीसगढ़ कांग्रेस ने रिपल्बिक भारत टीवी के प्रमुख एंकर अर्नब गोस्वामी के खिलाफ सिविल लाइन थाने में एक शिकायत दी है. हालांकि यह शिकायत इस बात पर आधारित है कि अर्नब गोस्वामी ने राहुल गांधी की पत्रकार वार्ता को गलत ढंग से प्रस्तुत किया. कांग्रेस का आरोप है कि अर्नब गोस्वामी ने करोना महामारी के दौरान देश के लोगों को गुमराह किया है फलस्वरूप उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 153 बी 188 290 500 504 और 505 के साथ-साथ डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट के तहत मामला दर्ज किया जाय. पुलिस सूत्रों का कहना है कि शिकायत की पड़ताल के बाद गोस्वामी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज की जा सकती है. सूत्र बताते कि रिपोर्ट दर्ज होने के बाद ही पुलिस टीम अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी के लिए दिल्ली रवाना होगी.

उल्लेखनीय है कि 16 अप्रैल को राहुल गांधी ने कोरोना बीमारी पर पत्रकारों के सवालों का जवाब देने के लिए एक वीडिया वार्ता आयोजित की थी.इस पत्रकार वार्ता की पूरी रिकॉर्डिंग यूट्यूब पर उपलब्ध है. उन्होंने इस पत्रकार वार्ता में कहा था कि टेस्टिंग को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन की गाइडलाइन का अनुसरण किया जाना चाहिए और सरकार को टेस्टिंग बढ़ाना चाहिए ताकि कोरोना के फैलाव का सही आकलन कर उसे रोका जा सके. उन्होंने यह भी कहा था कि टेस्टिंग बढ़ाए बिना किसी के लिए भी यह संभव नहीं होगा कि फैलाव किस तरह से हो रहा है कहां हो रहा है और लॉक डाउन हटने के बाद यह महामारी फिर से फैलना शुरु कर देगी. उन्होंने दक्षिण कोरिया और जर्मनी जैसे देशों के मुकाबले भारत में टेस्टिंग सुविधा और टेस्टिंग करने वाले लोग बढ़ाए जाने की आवश्यकता पर भी जोर दिया था.

राहुल गांधी के द्वारा कोरोना से लड़ने को लेकर जो तथ्य बताए गए थे उनकी पुष्टि प्रोफेसर स्टीव हैंग जॉन हापकिंस यूनिवर्सिटी जैसे अन्य विशेषज्ञों के द्वारा भी पूरे विश्व में की गई जो कि करोना महामारी को फैलने से रोकने के काम में लगे हुए हैं. उनकी यह राय भी थी कि बिना समुचित टेस्टिंग सुविधाओं के केवल देश को लॉक डाउन करना करोना  महामारी से उत्पन्न समस्या का समाधान नहीं हो सकता. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने गरीबों के खाते में सीधे धन जमा किए जाने की जरूरत पर भी बल दिया था ताकि महामारी के कारण आ रही आर्थिक कठिनाइयों से गरीब वर्ग निपट सकें.

कांग्रेस का कहना है कि राहुल गांधी की इस खबर को सही ढंग से प्रस्तुत करने के बजाए अर्णव गोस्वामी ने जानबूझकर पूरी पत्रकार वार्ता को गलत प्रस्तुत किया और कोरोना महामारी के खिलाफ लड़ाई में देश के लोगों को गुमराह किया. अर्णव गोस्वामी ने अपने एक कार्यक्रम में यह बताया कि राहुल गांधी का टेस्ट बढ़ाने का सुझाव पूरी तरीके से गलत है. कांग्रेसजनों ने यह माना कि यदि लोग अर्नब गोस्वामी और उनके टीवी चैनलों पर भरोसा करके  टेस्टिंग को अनावश्यक समझ लेंगे तो इससे देश के करोड़ों लोगों के स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ेगा.

कांग्रेस का यह भी मानना है कि पूरे देश में अपनी जान जोखिम में डालकर करोना की टेस्टिंग में लगे चिकित्सकों और स्वास्थ्य कर्मचारियों पर लगातार हमले की घटनाएं घटित हो रही है. यह अर्नब गोस्वामी और उनके टीवी चैनल के गलत प्रचार की वजह से भी हो सकता है.

कांग्रेस संचार विभाग के अध्यक्ष शैलेश नितिन त्रिवेदी का कहना है कि अपने राजनैतिक स्वामियों के हित साधन और निर्देशों के पालन में अर्नब गोस्वामी ने जानबूझकर महामारी की टेस्टिंग के मामले में गलत रिपोर्टिंग की जिसके कारण भारत की करोना महामारी के खिलाफ लड़ाई पर दुष्प्रभाव पड़ा है. त्रिवेदी का कहना है कि गोस्वामी ने अपनी रिपोर्ट में यह भी बताया कि राहुल गांधी लॉकडाउन के खिलाफ हैं जो पूरी तरीके से आधारहीन और असत्य है. बहराल कांग्रेस के प्रभारी महामंत्री चंद्रशेखर शुक्ला, शहर जिला अध्यक्ष गिरीश दुबे और वरिष्ठ कांग्रेस नेत्री अधिवक्ता किरणमयी नायक ने सिविल लाइन थाने में शिकायत देकर कार्रवाई की मांग की है.

 

 

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कोरोना से युद्ध में इस्लामोफोबिया ने भारत के वार को बनाया भोथरा

- राणा अयूब

कोरोनावाइरस के खिलाफ़ युद्ध में भारत के वार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रवादी शासन के लक्षण- भेदभाव और इस्लामोफाबिया- की भेंट चढ़ते देर नहीं लगी। ट्विटर पर कोरोनाजिहाद और बायोजिहाद की बाढ़ आ गयी है। मुसलमानों के एक समारोह में कोविद-19 के मामलों से इसकी शुरुआत हुयी है।

रविवार को भारत सरकार ने एक हजार से अधिक मामले एक मुस्लिम मिशनरी समूह तबलीगी जमात से जोड़ दिये। भारत सरकार द्वारा स्वास्थ्य आपातकाल और उसके बाद राष्ट्रव्यापी लाॅक डाउन घोषित किये जाने के कई दिन पहले, 8 से 10 मार्च तक इस समूह ने निजामुद्दीन के एक सामुदायिक भवन में अपना वार्षिक सम्मेलन किया था। हाँलाकि मुसलमानों समेत अधिकतर लोग इस बात से सहमत हैं कि वार्षिक सम्मेलन आयोजित करना गैर-जिम्मेदाराना और अनेकों के जीवन को खतरे में डालना था, पर इसकी आलोचना में इतना ज़हर उँडेला गया कि उस सम्मेलन के प्रति ज्यादती हो गयी। सच पूछें तो मुसलमान रातोंरात भारत में कोरोनावइरस फैलाने के गुनाहगार बन गये।

इस बात पर कोई तवज्जुह नहीं दिया जा रहा है कि इसी दौरान कई ज़िन्दगियों को ज़ोखिम में डालते हुये पूरे भारत में विभिन्न धार्मिक समूहों ने मन्दिरों में भी भीड़ इकट्ठा की थी। मध्यप्रदेश में दुबई से आये हुये एक युवक ने 20 मार्च को 1200 लोगों के साथ हिन्दू कर्मकांड किये थे जिसके चलते 25,000 लोगों को क्वारैंटाइन करना पड़ा। टाइम पत्रिका के अनुसार कोरोनाजिहाद का हैशटैग लगभग 3,00,000 बार देखा गया और इसे 16.5 करोड़ लोगों ने देखा। इसके अलावा रबायो जिहाद जैसे हैशटैग भी चले हैं।
इसके बाद जब मोदी-मंत्रिमंडल के केन्द्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने तबलीगी जमात को ‘‘तालीबानी अपराध’’ घोषित कर दिया तो इस नफ़रत को आधिकारिक समर्थन मिल गया।

अनेकों समाचार चैनलों के लिये हमले वाली खबर के रूप में पर्याप्त मसाला मिल गया। फ़र्ज़ी कहानियां चलने लगीं कि वाइरस को फैलाने के लिये मुसलमान, लोगों के ऊपर थूक रहे हैं। बताया गया कि अस्पतालों में महिला कर्मचारियों के सामने मुसलमान अपना नंगा बदन दिखा रहे हैं। जबतक इन कहानियों का पर्दाफ़ाश किया जाता, उससे पहले ही ये लाखों लोगों में फैल गयीं।

मेरी अपनी बिल्डिंग में ही एक पड़ोसी ने एक सामुदायिक व्हाट्सऐप समूह में लिख दिया कि पूरे दिन के कर्फ्यू  के बाद अपनी बालकनी में थालियां बजाने के मोदी के आह्वान का मतलब है कि हिन्दू मस्जिदों के अजान के शोर को अब और अधिक बर्दाश्त नहीं किया जायेगा।

भारत के एक बड़े समाचार चैनल, इंडिया टुडे ने एक ग्राफिक चलाया जिसमें एक गोल टोपी और मास्क पर लाल रंग में बड़ा सा वाइरस बना था और दावा किया गया था कि भारत में कोरोनावाइरस मुसलमानों के द्वारा ही फैलाया गया है। न्यूज़लाॅन्ड्री वेबसाइट के मालिक मशहूर सम्पादक मधु त्रेहन ने भी फ़र्ज़ी दावा किया है कि देश के 60 प्रतिशत कोरोनावाइरस के मामलों के लिये मुसलमानों की जमात ही जिम्मेदार है और मुसलमानों का यह कहते हुये मजाक उड़ाया है कि ‘‘आप तो मस्त रहिये।’’ (यू कैन हैव योर वर्जिन्स)।

इस्लामोफोबिया के ज़हरीले प्रदर्शन को शीघ्र ही न्यायालयों के आदेशों में भी जगह मिल गयी। गुजरात उच्च न्यायालय के 3 अप्रैल के आदेश में कहा गया कि इस महामारी को देश में फैलाने के लिये मुसलमानों की जमात ही जिम्मेदार है।

समाचार चैनलों और सोशल मीडिया में चल रहे नफ़रतों के दौर के वास्तविक परिणाम भी रहे। बताया जाता है कि एक नवजात की मृत्यु एम्बुलेंस में ही इसलिये हो गयी कि उसके परिवार के मुसलमान होने के कारण अस्पताल ने उसे भर्ती करने से मना कर दिया था। उसके पति इरफान खान ने अखबार को बताया कि ‘‘मेरी गर्भवती पत्नी पूरे दिन से थी। उसे सीकरी से जिला मुख्यालय के जनाना अस्पताल के लिये रिफर कर दिया गया था, लेकिन यहाँ डाॅक्टरों ने कहा कि हम लोग मुसलमान हैं इसलिये हमें जयपुर जाना होगा।’’

3 अप्रैल को एक मुसलमान ने इसलिये आत्महत्या कर ली क्योंकि उसके गाँव के लोगों ने उसका यह कहते हुये सामाजिक बहिष्कार कर दिया था कि उसके सम्पर्क दिल्ली में मुस्लिम जमात के उन सदस्यों के साथ थे जिनको बाद में टेस्ट में पाॅजिटिव पाया गया था।

सच तो यह है कि इस्लामोफोबिया कोई नयी चीज नहीं है। अभी फरवरी में ही नयी दिल्ली में मुस्लिम विरोधी दंगे भड़क उठे थे जिसमें 50से अधिक लोगों की मृत्यु हो गयी थी। जिस समय हमारा पड़ोसी चीन इस महामारी से दो-दो हाथ कर रहा था, उस समय भारत मोदी की सत्तारूढ़ पार्टी के सदस्यों के नफ़रती भाषणों की आग में जलता हुआ अन्तर्राष्ट्रीय सुर्खियों में था। एक भी अपराधी पकड़ा नहीं गया। लेकिन मुस्लिम जमात के सदस्यों पर क्रूर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून थोप देने में भारतीय पुलिस को केवल एक दिन लगा।

15 मार्च को मैंने ट्विटर पर लिखा थाः ‘‘नैतिक रूप से भ्रष्ट देश में वाइरस के लिये किसी को मार डालने लायक बचा ही क्या है।’’ मैं सत्तारूढ़ पार्टी के उन सदस्यों द्वारा फैलायी गयी नफ़रत पर अपनी हताशा और अवसाद का इज़हार कर रही थी जिन्होंने सारे गुनाह माफ की व्यापक अवधारणा के साथ दिल्ली में दंगे भड़काये थे। मेरी इस नाराजगी का फौरी असर यह हुआ कि एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के साथ न्याय का गर्भपात हो गया। मेरी नाराजगी का निशाना वे लोग थे जो सत्ता में थे, जिनकी जनता में कोई आवाज़ थी लेकिन इस नाइन्साफी के सामने उन्होंने खामोशी ओढ़ ली। दिल्ली दंगों को मुस्लिम विरोधी नरसंहार कहे जाने पर सभी मेरे पीछे हाथ धोकर पड़ गये थे, चाहे वे उदारवादी हों या दक्षिणपंथी। एक टेलीविज़न एंकर ने मेरे ऊपर तंज किया किः ‘‘एक बार तो मुसलमान की तरह नहीं, भारतीय की तरह व्यवहार करो।’’

मेरा डर सभी नागरिकों के प्रति है, लेकिन मुझे पता है कि बहुत से लोग मेरे बारे में और मेरे समुदाय के बारे में ऐसा नहीं सोचते।

पिछले 10 दिनों में मैंने भारत की झुग्गी बस्तियों से समाचार दिये हैं जहाँ सोशल डिस्टेंसिंग एक विशेषाधिकार है, यह बहुत सारे लोेगों की क्षमता से बाहर है। इस महामारी के दौर में भुखमरी, यंत्रणा, गरीबों के खिलाफ संरचनात्मक भेदभाव ही समसामयिक मुद्दे हैं। भारत और पूरी दुनिया इसी के बारे में सुनना चाहती है और इसी पर काम करना चाहती है।

लेकिन इस समय, जबकि लाॅकडाउन के लगभग दो हफ्ते हो चुके हैं, आस्था, वर्ग, लिंग से परे हर भारतीय का जीवन खतरे में है, तो मुझे मजबूरन पूर्वाग्रह और बहुसंख्यकवाद पर, जिसपर मैं इस स्तम्भ में लगातार लिखती आ रही हूँ, एकबार फिर लिखना है। यह दुर्भाग्य ही है कि इस वैश्विक संकट के दौरान, जब हमें नफरतों को ताक पर रख देना चाहिये, मेरा देश और उसके नेता मुझे मजबूर कर रहे हैं कि एक बार फिर पूर्वाग्रह पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करूँ और नैतिकता के एक तीव्र और बेचैनी भरे संकट का पर्दाफ़ाश करूँ।

 

- यह लेख वाशिंगटन पोस्ट में 7 अप्रैल को प्रकाशित हुआ है. इसका हिंदी अनुवाद किया है दिनेश अस्थाना ने.

- समकालीन जनमत से साभार

 

 

 

 

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गिरोह का खेल...कुशाभाऊ ठाकरे की प्रतिमा बनाने वाले मूर्तिकार से मांगी गई थी एक लाख की रिश्वत

राजकुमार सोनी

रायपुर. छत्तीसगढ़ के काठाडीह में स्थापित कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम अब चंदूलाल चंद्राकर पत्रकारिता विश्वविद्यालय कर दिया गया है. यह अलग बात है कि विश्वविद्यालय के परिसर में अब भी संघ की पृष्ठभूमि से जुड़े ठाकरे की प्रतिमा स्थापित है. पिछले दिनों एक गिरोह विशेष के सदस्यों ने यह कहते हुए हो-हल्ला मचाया था कि जिस जगह पर प्रतिमा स्थापित है भला उस जगह का नाम कैसे और किस आधार पर बदला जा सकता है?  इधर ठाकरे की प्रतिमा का निर्माण करने वाले मूर्तिकार नेलसन ने अपना मोर्चा डॉट कॉम को बताया कि विश्वविद्यालय के तात्कालिक रजिस्ट्रार ने प्रतिमा बनाने के एवज में एक लाख रुपए की रिश्वत मांगी थीं. यह चढ़ावा उन्हें इसलिए भी देना पड़ा क्योंकि पांच लाख का भुगतान तो अग्रिम मिल गया था, लेकिन चार लाख रुपए अटके पड़े थे. 

रजिस्ट्रार खुद आए थे पैसा लेने

पद्मश्री मूर्तिकार नेलसन का नाम देश में अंजाना नहीं है. उनके हाथों से निर्मित अनेक प्रतिमाएं छत्तीसगढ़ के कोने-कोने में स्थापित है. वर्ष 2010 से कुछ पहले उन्हें कुशाभाऊ ठाकरे की प्रतिमा बनाने का काम सौंपा गया था. इस काम के लिए उन्होंने कुल नौ लाख रुपए का व्यय बताया था. विश्वविद्यालय प्रबंधन इसके लिए तैयार भी हो गया था, लेकिन जब भुगतान की बारी आई तब विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार ने साफ शब्दों में कहा कि भुगतान तो हो जाएगा... लेकिन कुलपति महोदय को एक लाख रुपए का चढ़ावा देना होगा. नेलसन ने बताया कि रजिस्ट्रार चढ़ावे को लेकर इतनी हड़बड़ी में थे कि वे खुद ही उनसे मिलने के लिए उस जगह ( भिलाई ) चले आए जहां प्रतिमा का निर्माण हो रहा था. मूर्तिकार ने बताया कि रजिस्ट्रार साहब अपने साथ शेष बाकी रकम ( चार लाख ) का चेक लेकर आए थे और भुगतान हासिल करने के लिए उनके साथ स्टेट बैंक तक गए थे. उन्होंने एक लाख रुपए नगद उनके हाथों में थमाया था. इस तरह प्रतिमा को बनाने के एवज में मात्र आठ लाख का भुगतान ही मिल पाया.नेलसन ने बताया कि 28 जून 2010 को प्रतिमा का काम पूरा हो गया था. अब विश्वविद्यालय परिसर में यह प्रतिमा किस तिथि को स्थापित हुई और किसने अनावरण किया इसकी जानकारी उनके पास नहीं है.

स्व. शुक्ल के कार्यकाल को भी किया याद

मूर्तिकार ने छत्तीसगढ़ विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष स्व. राजेंद्र प्रसाद शुक्ल और सचिव भगवान देव इसरानी के कार्यकाल को भी याद किया. नेलसन ने बताया कि भगवान देव इसरानी तो सचमुच भगवान ही थे. जब यह तय हुआ विधानसभा में महात्मा गांधी की प्रतिमा लगायी जानी है तब उनके द्वारा काम हासिल करने के लिए महज सात लाख रुपए में कोटेशन भर दिया गया था. बाद में स्व. शुक्ल यानी बाबूजी ने बुलाकर कहा कि इतनी कम धनराशि में भला प्रतिमा कैसे बन पाएगी. नेलशन बताया कि निश्चिच रुप से सात लाख में प्रतिमा का निर्माण करना कठिन होता. तब इस दुविधा को भांपकर स्व. शुक्ल ने 12 लाख रुपए स्वीकृत किए. इस काम में विधानसभा के सचिव भगवान देव इसरानी ने भी खूब मदद की. बाद में भी उनका व्यवहार सहयोगात्मक रहा. नेलशन ने बताया कि उनके हाथों ने विधानसभा के दो मोनो, अशोक स्तंभ और विवेकानंद की प्रतिमा का निर्माण भी किया है. अशोक स्तंभ के लिए उन्हें 13 लाख और विवेकानंद की प्रतिमा के लिए 16 लाख रुपए का भुगतान किया गया. इसके एवज में किसी भी शख्स ने उनसे कोई चढ़ावा नहीं मांगा.

( नेलशन से की गई बातचीत का रिकार्ड उपलब्ध है. ) 

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