साहित्य
विनोद कुमार शुक्ल और आलोचना के प्रतिमान
ईश्वर सिंह दोस्त / अध्यक्ष साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़
विनोद कुमार शुक्ल बहुत ही सहज मगर अद्भुत वाक्यों के सर्जक हैं, जो पाठक को एक ही साथ आश्वस्ति और आश्चर्य की दुनिया में ले जाते हैं। इन वाक्यों की परस्परता से बनी एक ऐसी आत्मीय दुनिया, जहां से गुजरकर कोई भी ज्यादा नई अंतर्दृष्टियां हासिल कर सके और ज्यादा भाव-संपन्न हो जाए। ये वाक्य कथा, उपन्यास, कविता ही नहीं, बातचीत और संस्मरण का भेष भी धरे हो सकते हैं। कागज पर उभरे हुए हो सकते हैं और आवाज बन हवा में उभरते और विलीन होते हुए। एक वाक्य का कौतुक दूसरे की तरफ खींचता है। एक वाक्य का अर्थ दूसरे में घुल जाता है।
विनोद कुमार शुक्ल गद्य और पद्य के बने-बनाए साँचों की और तमाम दूसरे साँचों की भंगुरता के विधान के लेखक हैं। वे उन विरल रचनाकारों में हैं, जो आलोचना के प्रचलित प्रतिमानों के लिए चुनौती बन जाते हैं। आलोचना कभी ऐसी रचनाशीलता को खारिज करती है, कभी शर्तों के साथ स्वीकार करती है। मगर एक वक्त वह आता है, जब आलोचना अपनी ही प्रामाणिकता की खोज में खुद से सवाल करती है और अपने अधूरेपन की आत्म-चेतना के आलोक में नया रास्ता तलाशती है।
वैसे आलोचना का एक मुख्य काम प्रतिमान बनाना होता है। संस्कृति व साहित्य सिद्धांतों में बड़ी तबदीली से ये बनते हैं। मगर नई रचनाशीलता भी नए प्रतिमानों को गढ़ने का दबाव बनाती रहती है। विनोद कुमार शुक्ल हमारे वक्त के ऐसे ही रचनाकार हैं, जिनसे मुखातिब होकर आलोचना प्रतिमानों में उलट-फेर कर सकती है।
रचना के बरक्स आलोचना की मजबूरी यह होती है कि वह अवधारणाओं का सहारा लेती है। अवधारणाएं ऐसी सवारी है जो जल्द ही सवार पर सवार हो जा सकती है। अवधारणाओं का हश्र अकसर द्विभाजनों में होता रहा है। यथार्थवाद बनाम रूपवाद एक ऐसा ही अखाड़ा था, जहां रूप और यथार्थ (जानबूझ कर मैं यहां कथ्य नहीं कह रहा हूं) की द्वंद्वात्मकता को पीट-पीट कर इकहरा बना दिया जाता था। मानो रचना में यथार्थ और रूप का निबाह एक-दूसरे से विलगाव से ही हो सकता हो।
पहले शमशेर, मुक्तिबोध और अब विनोद कुमार शुक्ल ने यह सोचने के लिए मजबूर किया है कि यथार्थ इतना बहुस्तरीय, बहुलार्थी और अंतर्विरोधी हो सकता है कि किसी एक लेखन शैली की पकड़ में नहीं आ सके। साहित्य यथार्थ को मुट्ठी में भरता है, मगर रेत और समय की तरह हाथ से फिसलने भी देता है।
यूरोप में 18वीं-19वीं सदी में उभरा व भारत में 20वीं सदी में फला-फूला यथार्थवाद एक शिल्प के रूप में थक गया है। जिन रचनाकारों ने यथार्थ को इस शिल्प के पुराने चौखटे से बाहर निकाला और यथार्थ की समझ को नया व विस्तृत किया, उनमें विनोद जी एक प्रमुख नाम हैं।
विनोद जी के शिल्प में कामनाएं, फंतासी, निराशा और उम्मीद यथार्थ के परिसर से बाहर नहीं की जाती। फिर भी उनके संदर्भ में लातीनी अमेरिका में उदित हुआ जादुई यथार्थवाद नामक पद काफी अधूरा और अपर्याप्त लगता है, जिसे अकसर उनके साथ जोड़ दिया जाता है। फंतासी, जादुई कल्पनाशीलता ये सब कुछ तो विनोद जी के यहाँ हैं ही। मगर जो बात उनकी ही खालिस देन लगती है, वह है कथन की निश्चयात्मकता में भी संभावना की संभावना को खुला रखना। हम जानते हैं कि नाम देना और निरूपित करना यथार्थ में बिखरी बहुत सी संभावनाओं को सीमित कर देता है। मगर विनोद जी अपनी कविताओं, कथाओं व उपन्यासों में यथार्थ के कथन को एक प्रस्तावना की तरह रखते हैं, मानो पाठक उसमें सहज ही कुछ घटा या जोड़ सकता हो।
कहना न होगा कि विनोद कुमार शुक्ल के वाक्य कविता या उपन्यास, बातचीत जिस भी रूप में हों, पाठक को सोचने की जगह देते जाते हैं। वैसे भी साहित्य का काम ज्ञान बांटना नहीं, बल्कि नए अहसासों व दृष्टियों के जरिए सोचने के लिए नए परिप्रेक्ष्य मुहैया कराना होता है। ज्ञान का काम दूसरे अनुशासन पहले से बखूबी कर रहे हैं।
विनोद कुमार शुक्ल पाठक को नए अनुभव संसार में ले जाते हैं। जहां वह पहले से देखे और बरते गए और किन्हीं छवियों या मान्यताओं के रूप में रूढ़ हो गए अपने संसार से अपरिचित हो सकता है। यह बगैर कल्पना और/या फंतासी के संभव नहीं, मगर विनोद जी उसे यथार्थ की तरह ही सामने लाते हैं। नतीजे में पाठक रोजमर्रे के जीवन की किसी बंधी हुई वास्तविकता से बाहर कदम रख एक वैकल्पिक खिड़की के जरिए अपने ही होनेपन या अस्तित्व की नई संभावनाशीलता में दाखिल हो जाता है। जो है और जो होना चाहिए (‘इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए’) एक दूसरे में घुलमिलकर एक संभावनाशील यथार्थ खड़ा कर देते हैं।
हमारे समय में विनोद कुमार शुक्ल का रचना संसार बहुत से द्विभाजनों या बाइनरीज की अपर्याप्तता का विश्वसनीय संकेतक है। इनमें से एक द्विभाजन सत्य और सौंदर्य का भी है। यथार्थ व रूप की तरह विनोद जी राजनीति, लोकतंत्र, प्रकृति जैसी वास्तविकताओं को भी नया अर्थ विस्तार देते हैं। (जिस पर चर्चा फिर कभी।)
देश के नामचीन साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल को जनकवि नागार्जुन स्मृति सम्मान
रायपुर.जनकवि नागार्जुन स्मारक निधि, नई दिल्ली के निर्णायक मण्डल की ओर से वर्ष 2020 का जनकवि नागार्जुन स्मृति सम्मान प्रख्यात कवि और लेखक विनोद कुमार शुक्ल को प्रदान किया गया. जनकवि नागार्जुन स्मारक निधि के अध्यक्ष प्रख्यात आलोचक मैनेजर पाण्डेय, सचिव जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक और लेखक देवशंकर नवीन और उपाध्यक्ष वरिष्ठ कवि मदन कश्यप की ओर से उनके प्रतिनिधि के तौर पर आलोचक प्रोफेसर सियाराम शर्मा, कवि अंजन कुमार और युवा लेखक अम्बरीश त्रिपाठी ने रविवार को यहां विनोद कुमार शुक्ल के निवास पर जाकर उन्हें स्मारक निधि की ओर से शॉल, श्रीफल, स्मृति चिह्न एवं प्रशस्ति पत्र के साथ पन्द्रह हजार रुपए की सम्मान राशि का चेक भेंट किया.
ज्ञात हो जनकवि नागार्जुन स्मृति सम्मान की शुरुआत वर्ष 2017 में की गयी है. यह सम्मान अब तक वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना, राजेश जोशी, आलोक धन्वा को दिया जा चुका है. स्मारक निधि के अध्यक्ष, सचिव और उपाध्यक्ष के अलावा 2020 के आमंत्रित निर्णायक मण्डल के सदस्य महत्त्वपूर्ण कवि लीलाधर मंडलोई थे. यह सम्मान 2020 में नागार्जुन की पुण्य तिथि पर दिल्ली में एक आयोजित समारोह में विनोद कुमार शुक्ल को प्रदान किया जाना था, लेकिन कोरोना महामारी के चलते ऐसा नहीं हो पाया.
जनकवि नागार्जुन स्मारक निधि, नई दिल्ली के निर्णायक मण्डल के सदस्यों ने विनोद कुमार शुक्ल के रचनात्मक अवदान को रेखांकित करते हुए कहा है कि विनोद कुमार शुक्ल अनूठे शब्द परिष्कारक कवि हैं. उनका काव्य जगत अक्सर निरुद्वेग ढंग से जनसामान्य की पक्षधरता का गंभीर भाष्य रचता है. उनकी कविता में आस्वाद के सौन्दर्य का एक भिन्न लोक है, जो लोक शिक्षण के अपरिहार्य काम को क्रियारूप देता है. उनके खाते में लगभग जयहिन्द जैसी वर्गद्वन्द्व की कविता है, तो आधुनिक भावबोध की वह आदमी नया गरम कोट पहनकर चला गया विचार की तरह भी है. आत्म निर्वासन और विस्थापन के मार्मिक दृश्यों में उनकी कविताओं में आजादी का इतिहास बोलता सुनाई देता है. वे धरती की ही नहीं, अंतरिक्ष की सुरक्षा में फिक्रमन्द कवि हैं. इस सम्मान के लिए विनोद कुमार शुक्ल ने जनकवि नागार्जुन स्मारक निधि के प्रति आभार व्यक्त किया है. इस अवसर पर उनके परिवार के सदस्यों के साथ उनके पुत्र शाश्वत शुक्ल भी उपस्थित थे. .
देश के नामचीन कथाकार मनोज रुपड़ा की दो जबरदस्त कविता
देश के नामचीन कथाकार मनोज रुपड़ा की दो कविता अपना मोर्चा के पाठकों के लिए प्रस्तुत है.
फिलहाल नागपुर में निवासरत मनोज रुपड़ा का नंबर है- 9823434231
1- एक बार सोचना चाहिए
जब तकलीफ़ें बहुत बढ़ जाए
तब हमें रोना चाहिए
लेकिन अपने आप से थोड़ा बाहर निकलकर
तब ये लगता है कि हम
अपनी तकलीफ के लिए नहीं,
किसी और की तकलीफ़ों के लिये रो रहे हैं.
अपने गुमसुम खयालात से ज़िंदगी की
हलचल की तरफ़ बढ़ो
तो लगता है ,
किसी ने हमें अपने आगोश में ले लिया है.
फिर रुलाई के दूसरे दौर में
हमारी बांहें खुल जाती है
और वो आंखें भी ,
जो चीज़ों को वक़्त के साथ देखती है.
वे सब चीजें ,
जो आपस में एक – दूसरे से जुड़ी हैं
और एक दूसरे से अलग है
इन सब चीज़ों को
अपने आगोश में लेकर देखना चाहिए
वे जायज़ हो या न हों
वाज़िब हों या न हों
उन्हें अपने सीने से लगाए रखना चाहिए
हो सकता है कुछ चीजों से तुम्हारे दामन में दाग लग जाए
मगर बिना कुछ सोचे- समझे
उन चीज़ों से प्यार करना चाहिए
बहुत सी चीजें हैं
बहुत से लोग हैं
जरूरी नहीं कि सब के सब सभ्य हों
जरुरी नहीं कि सब के सब सदाचारी हों
इन में से कुछ अक्षम्य रूप से गंदे होंगे
कुछ छिछोरे छिनेरे और बदमाश
कुछ नशेड़ी हरामखोर और कमीने
कुछ लुच्चे – लफंगे और फूहड़ ;
स्त्रियां भी संभवत;
वैश्यालु ,धोखेबाज़ और धूर्त हों
लेकिन जरूरी नहीं है
कि जो बदनाम है
वह पापी भी हो
जरूरी नहीं है
कि जिसने पाप किया है
वह दुष्ट भी हो
जिस धरातल पर
वे सब के सब खड़े खडे हैं ,
उस धरातल को भी एक बार बार देखना चाहिए
जो उस धरातल पर खड़े है
उन्हें जनता समझने की भूल न करें
वह लंपटों का एक नारकीय,जड़हीन और आकृतिहीन समुदाय है
किसी भी तरह की निष्ठा में असमर्थ
किसी भी तरह के ज्ञान और श्रम का शत्रु
वे दलित हैं न सवर्ण
हिन्दू हैं न मुसलमान
जात-पात और मज़हबी दायरे से बाहर
इतने बेहिस
कि किसी भी तरह की सियासती हवस
उन्हें निगल नहीं सकती
वे पहले बीमार फटेहाल और पागल थे ,
जो तलछटी गाद में बिलबिला रहे थे
और अब खुले में आ रहे हैं
वे लूट पाट करेंगे
छीना झपटी करेंगे
चोरी और उठाईगिरी करेंगे
भौतिक वस्तुओं के कबाड़खानों
और डम्पिंग यार्डों में घुस कर संभोग करेंगे
चूहों की तरह बच्चे पैदा करेंगे
हर तरह के हरामों- नाजायज़ को अपना हक समझेंगे
प्रशासन कांटेदार बाड़ों के पीछे
इस महामारी को रोक नहीं सकता
इन्हें सिर्फ़ लुच्चे लफ़ंगे समझने की भूल न करें
यह एक रिज़र्व प्रेत आर्मी है
वीभत्स …. विकराल .... और विधर्मी ....
थूक घृणा का सबसे साफ़ समझ में आने वाला प्रतीक है
लेकिन उन पर थूकने से पहले सोचना चाहिए
कि तुम्हारे थूक में
मान्यता प्राप्त सामाजिक नैतिकता की मिलावट तो नहीं है ?
सोचने की और भी वजहें हो सकती है
जहरीले रसायनों
और रेडिएशन से दूषित इस पृथ्वी में
और भी कई पाप हैं
एन्थ्रेक्स बम
परमाणु बम
डिपथीरिया और नापाल्म बम की विध्वंसक शक्तियों के साथ
किन महाशक्तियों के अनैतिक संबंध हैं ?
खनिजों को हथियाना अगर कोई अपराध नहीं है
तो किसी जरूरतमंद जेबकतरे
और मालगाड़ी से कोयला चुराने वाले को
क्यो जेल में डाला जाए ?
किसी वेश्या को सुधारगृह में डालने से पहले
जरा उस महावेश्या की मटकती चाल को भी देखिए
जो संस्थानों के गलियारों में
केटवाक कर रही है रही है
जो अपने रक्तरंजित होंठों से
किसी घोटालेबाज़ का मुंह चूमती है
जिसकी जांघों के बीच से
मुक्तव्यापार का द्वार खुलता है
विक्षोभ से भरे भूगर्भ पर खड़ी होकर
धर्म और राजनीति के बीच
जो नंगी नाच रही है ,
एक बार उसके बारे में भी सोचना चाहिए.
हर बार सिर्फ़ विधर्मियों पर नहीं
धर्म और राज्य पर भी थूकना चाहिए
2- चेहरे के भाव
‘’ क्या हाल है ‘’ पूछे जाने पर
‘’ सब ठीक है ‘’ कहने का चलन है
चेहरे पर चाहे कितनी भी सरल मुस्कुराहट हो
लेकिन हर बार ‘’ सब ठीक है ‘’ का मतलब
सब कुछ ठीक है नहीं होता
ख़ुश होना और खुशमिजाज़ दिखना
दोनों अलग अलग चीजें हैं
अदाकारी एक दोधारी तलवार है
अगर तुम जैसे हो वैसे दिखना नहीं चाहते
तो तुम्हें तलवार की धार पर चलना पड़ेगा
अगर कोई सीटी बजाते हुए
किसी धांसू धुन पर थिरक रहा हो
तो ये मत समझ लेना
कि वह बहुत खुश है
अगर कोई अपना दुख- दर्द या ड़र छुपाने के लिए
नार्मल होने की एक्टिंग कर रहा हो
तो उसे ये अहसास मत दिलाना
कि तुम खराब अभिनेता हो
उसकी बजाय
तुम इस बात पर गौर कर सकते हो
कि वह किन वजहों से
अपने चेहरे के भाव छुपा नहीं पाया.
एक न एक दिन
हर किसी को अभिनेता बनना पड़ेगा
हमारे पुरखे हमलावरों से
अपनी जरूरी चीजें छुपना जानते थे
हमें भी चेहरे के भाव छुपाना आना चाहिए
हमारे पुरखे मुखौटेबाज़ थे
वे एकायामी नहीं थे
जब भी उन्हें एकाकार करने की साज़िश रची जाती थी
वे बहुरूपिए बन जाते थे.
वे यह जानते थे
कि विदूषक बनकर
कला और जीवन की सरहद पर
नृत्य करना क्यों जरूरी है
वे जानते थे कि
खुद हंसी का पात्र बनकर
किसी निरंकुश गंभीरता को कैसे खंडित किया जा सकता है
चालाकी पूर्वक फैलाये गए
किसी आधिकारिक झूठ को
झूठ-मूठ के किस्सों में उलझाकर
उसका वास्तविक अर्थ निकालना भी
वे अच्छी तरह जानते थे.
हमें खुद पर हँसना
मुखौटे बनाना
और किस्से गढ़ना आना चाहिए
किसी ‘’ आधार ‘’ से अपनी पहचान जोड़ने
और उसे अपना लेने से पहले
ख़ुद को पहचानना आना चाहिए
अब वो समय गया
जब एक कंट्रोल टावर केंद्र में होता था
और टावर में मौजूद पहरेदार
चारों और वृत्त में बनी कोठरियों पर निगाह रखता था
कोठरियों में क़ैद हमारे पुरखे
उसे देख नहीं पाते थे
लेकिन उन्हें आभास होता था
कि ‘’ वो ‘’ कहां देख रहा है
नई ताकतों ने
एक ऐसा क़ैद खाना बनाया है
जिसमें न कोठरियां है न कंट्रोल टावर
हम सीसीटीवी कैमरे की निगरानी में हैं
एक अज्ञात फेस रीडर सब को देख रहा है
हमें भी ‘’ उसे ‘’
बिना देखे
देखनाआना चाहिए.
बस्तर से पूनम वासम की कविताएं
वे लोग : तय है जिनका जंगल में खो जाना
( एक )
उनके लोकगीतों में प्रेम बारिश की तरह नहीं आता
उनकी रुचि
सियाड़ी के पत्तों पर पान रोटी पकाने से ज्यादा
बोड़ा का स्वाद चखने में है
जंगल की सूखी पत्तियों में आग लगाने के लिए
माचिस का इस्तेमाल नहीं करते
उनकी नसों में दारू की तरह दौड़ता है महुआ!
बावजूद उसके
देर रात लौटती हैं जंगल मे खो चुके पुरखाओं की आत्माएं
कुछ गिनते हुए जोड़ते-घटाते वह भटक जाती हैं फिर से जंगल के अंधेरे सच की ओर
मर चुके कुनबे की गिनती का सच सुबह उतरता है बचे हुए कुनबे के चेहरे पर
वह थोड़ा और बासी हो जाते हैं
उनके हथियार अब पहले से कम हैं
जंगल की गोद मे नारों की गूंज बढ़ती है ऐसे
जैसे जिबह से पहले निकलती है जानवर की आखिरी चीख
उनके झोला में भूख मिटाने के सामान के साथ
शामिल होती है दिमाग़ को दुरुस्त करने की खुराक भी!
उनकी हथेलियां देर तक नहीं थकती चाकू की मुठ थामे
रोटियां तोड़ने से पहले वे लोग हड्डियां तोड़ते हैं
उनकी बंदूक की गोली निशाना लगाए बिना लौट कर नहीं आती
उनकी पीठ सुरक्षा कवच हैं उनके लिए
जिन्हें गणतंत्र दिवस के दिन दोनी भर बूंदी तक नसीब नहीं होती
ये कौन लोग हैं जिनकी भाषा के भीतर लिखा गया है विद्रोह का कहकहरा
जिनकी उंगलियां हमेशा खड़ी रहती है
किसी प्रश्नचिन्ह की मुद्रा में
( दो )
जहाँ महिलाएं दोनों हाथों में हथियार उठाये झाड़ती हैं
संविधान की पोथी पर पड़ी धूल
पूछती हैं भूख से बड़ी कोई विपदा का नाम
ट्रेन से कटकर मरी हुई आत्माएं कहाँ गईं
दर्द का बोझा उठा कर
रोटी की गोलाई नापते-नापते
जिनके पाँव के छाले फूट पड़े वह लोग अस्पताल का पता नहीं जानते
हजारों मील दूर
जिनके घरों में इंतजार की उम्मीद थामे बूढ़ी आँखें पत्थरा गईं
उन आँखों का पानी कहाँ उड़ गया?
ट्रकों के नीचे कुचले जिन अभागों की लाशों को अंतिम मुक्ति भी नसीब नहीं हुई
उनकी हत्या का मुकदमा कहाँ दर्ज होगा?
सात माह का पेट सम्भालते
अपने होने वाले बच्चे की सलामती के लिए
एक माँ की आह!भरी पुकार को नकारने वाले ईश्वर के पास से लौटी हुई प्रार्थनाएं कहाँ अर्जी देंगी?
जमलो की मौत का तमाशा बनाने वाले सरकारी तंत्र
से उबकाये लोगों का जुलूस कहाँ गया!
वह जितनी बार जंगल के सबसे ऊंचे टीले से दोहराते हैं-
सुनो साहब!
राजा मर गया, लेकिन प्रजा की मौत अभी बाकी है.
जंगल की सीमा पर हर बार एक सरकारी बयान चस्पा होता है
कि जंगलवाद सबसे बड़ा खतरा है देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए.
हर बार ऐसा उत्तर पाती एक सभ्यता घूरती है जंगल की देह
हड्डियों से बनी आँखों से!
उनकी आँखों में अब पानी नहीं उतरता.
आमचो महाप्रभु मरलो
हिड़मा का दादा पारद में मिलने वाले हिस्से से अपनी भूख मिटा लेता था
हिड़मा की दादी महुआ का
दारू बना बेच आती थी साप्ताहिक बाजार में
हिड़मा का बाप जंगल साफ कर उगा लेता था
मंडिया, ज्वार
पेज से मिट जाती थी भूख
हिड़मा की माँ लन्दा के साथ साथ बेच आती थी इमली, तेंदू
जीने के लिए बहुत सोचने की जरूरत नहीं थी उनको
घोटुल का संगीत दिनभर की मेहनत से कसी हुई देह को
सुला देती थी गहरी नींद
हिड़मा तोड़ लाता था जंगल से हरा सोना
हरा सोना जो भर देता घर को
बुनियादी सुविधाओं से लबालब
हिड़मा का बेटा गायों के लिए हरी घास उगाता है
धान की फसल को ढेकी में कूट कर पकाता है
ढूटी कमर में लटकाए मेड़ की मछलियाँ पकड़ लाता है
हिड़मा की बहू मरका पंडुम मनाते हुए पीसती है
खट्टी चटनी
बीज पंडुम मनाते लिंगो से कहती है
भरा रहे धान से पुटका
हिड़मा का दादा धरती की उम्र बढ़ाने के नुक्से से वाकिफ था
हिड़मे की दादी जानती थी आनंदित हुए बिना जीना कितना कठिन है
हिड़मा का बाप समझता था भूख जितनी हो उतना ही लेना चाहिये धरती से उधार
हिड़मा की माँ पहचानती थी
जंगल की नरमी
जंगल फुट पड़ता था हर मौसम में
अपनी जंगली बेटियों के खोसे में उतना
जितने से खटास बनी रहे उनके जीवन में
हिड़मा को पता है पड़िया खोचने से पहले, उसकी प्रेमिका शरमा कर कहेगी "मयँ तुके खुबे मया करेंसे"
हिड़मा की पत्नी जानती है
पेड़ की टहनियों पर कितना लचकना है कि टहनियाँ झूल जाए उनकी बाँहों में
खाली नहीं रखती अपनी नाक को कभी कि
उनकी फुलगुना की चमक से तुरु मछलियाँ
मचल उठती हैं
धरती नहीं माँगती उनसे अपनी दी गई शुद्ध हवा का हिसाब
धरती निश्चिन्त रहती है वहाँ, जहाँ
पत्तियों के टूट कर गिरने भर से
छतोड़ी टूट जाने वाले दर्द से गुजरता है
हिड़मा का गाँव
धरती कभी नहीं कहना चाहेगी कि
आमचो महाप्रभु मरलो
धरती जानती है
हिड़मा का बेटा धरती के लिए आक्सीजन है
द वर्जिन लैंड तीन दरवाज़ों वाला गाँव
( एक )
जहाँ पेड़ों पर संकेत की भाषा में उगती हैं सीटियाँ
तनी हुई गुलेल छूटते ही मांगती हैं
नागरिकता का प्रमाण पत्र
तीर-धनुष, कुल्हाड़ी पूछते हैं कितना लोहा है तुम्हारी जुबान पर
चाकू की धार से उंगलियों का रक्त रिसते ही
लगाना होता है अंगूठा उनके संविधान पर किसी मुहर की तरह
पहले दरवाजे की चाभी फिंगरप्रिंट के बिना नहीं खुलती
मुझे याद है मेरा दूर का भाई कई दफा घूम आया है विदेश
बिना किसी वीज़ा और पासपोर्ट के
( दो )
शहर के जरा सा मुँह फेरते ही
तिरंगे का रंग उड़ने लगता है.
प्रभात फेरी के साथ 'भारत माता की जय'
उनके कानों तक स्पष्ट पहुँचती है.
हेलीकॉप्टर की आवाज से चौंक कर जाग जाता है छः माह का बच्चा,
जिसके बाप को नहीं पता पहिये के विकास की कहानी.
जंगल की डाक पर जब तक नहीं लिखा होगा तुम्हारा नाम
तुम सही पते पर कभी नहीं पहुँच सकते.
स्पाईक होल नई खेल विधि है
खुद के नाम से एक मुठ्ठी मिट्टी फेंक कर चाहो तो
पंजीयन करवा सकते हो तुम भी
कि दूसरे दरवाज़े की चाभी स्क्रीनटच की तरह खुलती है
( तीन )
कुकर में भात नहीं पकता
रपटों पर सब्बल के घाव पक कर मवाद से भर गए हैं
बिजली के तारों में विभागीय झटके नहीं आते.
छिंद तोड़ते बच्चों के कानों तक पहुँचती है
बाण्डागुडा के स्कूल में पढ़ाई जा रही 'वीर जवान तुम आगे बढ़े चलो' वाली कविता
बच्चे बढ़ते हैं गाय के झुंड की ओर
बकरी, मुर्गी, सुअर की बाड़ी की तरफ
मातागुड़ी वाली देवी की आँखों में रतौंधी है.
मन्नत का भार
बकरे के भार से हर बार ग्राम-मिलीग्राम कम पड़ जाता है.
जूतों की धमक के साथ टूटता है
गाँव के भीतर का सन्नाटा
टूटती हैं औरतें,
टूटते हैं पुरुष,
बच्चों को टूटना नहीं आता!
बच्चों को कोई नहीं बांधता यहाँ गले में ताबीज.
उन्हें भरा जाना है एक दिन खाली कारतूस में बारूद की तरह.
दो दिन के बच्चे को सूखी छाती से चिपकाये औरतें
भागती हैं शहर की ओर
लकड़ी का बोझा सिर पर लादे
औरतें जानती हैं
पोलियोड्राप से नहीं
दोनी भर मंडिया पेज से बची रहेंगी भविष्य के पैरों में जान.
औरतें बदलती हैं धान को चावल में, रुपयों को दैनिक सामानों में
पुरुष ढोता है सारा बोझ
पहले दरवाजे की चौखट तक
पुरुष राह तकते हैं सीमा रेखा पर औरतों के लौट आने की
ताकि धुंगिया चबा सके उनकी जीभ.
अर्जुन की आँखें ही भेद सकती हैं इस रहस्मयी तिलस्मी संसार की दुनिया को
लौट आने की किसी संभावना के बिना
पहुँचा जा सकता है उस पार
कि तीसरे दरवाजे की चाभी
यमराज के चाभी के गुच्छे में से कोई एक है.
( चार )
हाँड़-माँस के पुतले ही नहीं
देवता भी यहाँ थर-थर काँपते हैं
गाँव की परिधि पर रहस्यों की पोटली बांध कहीं खो जाते हैं वे लोग.
जहाँ आधा बागी-आधा बच्चा पूछता है मुझसे
आपको डर तो नहीं लग रहा!
वह चिंता भी करता है और सतर्क भी रहता है
पानी का लोटा थमाते हुए उसके हाथ 'अतिथि देवो भव'
की मुद्रा में होते हैं.
मैं पूछती हूँ उससे कई सवाल.
वो रहस्यमयी मुस्कान के साथ अपने हाथ की गुलेल
मेरी हथेलियों पर धर देता है
मैं डर के मारे काँपने लगती हूँ
वह हँसता है
गुलेल का भार तुम जैसे शहरी लोगों की हथेलियां नहीं उठा सकतीं.
तुम अपना काम करो, हम अपना!
उस वक्त मुझे उसकी आँखों मे पाश की कविता एक चमकीली आग सी चमकती नजर आती है
उस बच्चे ने नहीं पढ़ा है जबकि 'हम लड़ेंगे साथी उदास मौसमों के खिलाफ'
मेरी हथेलियाँ भारी हैं अब तक
घर की खिड़की से दिखता है उस गाँव का सबसे ऊंचा पेड़
रात के सन्नाटे को चीरती है उनके मांदर की आवाज.
ऐसे तो छः किलोमीटर दूर है 'मनकेली गोरना'
पर बिना अनुमति के प्रवेश वर्जित है वहाँ
कम होते आक्सीजन के अनुपात से अनुमान लगाया जा सकता है
कि पेड़ों के उस झुरमुट में कुछ लोग
अभी भी हवा के दम पर जिंदा हैं
अद्भुत है 'द वर्जिन लैंड तीन दरवाजों वाला गाँव'
और वहाँ के लोग
वहाँ की हवा
वहाँ का संविधान
अपनी सजगता में थर थर काँपती तनी हुई गुलेल
और वहाँ के सावधान बच्चे!
मिथक नही हैं जलपरियाँ
जलपरियों ने नहीं छोड़ा इस विकट समय में भी चित्रकुट जलप्रपात का साथ
कि दिख जाती हैं जलपरियाँ दिनभर की दिहाड़ी के बाद तेज धूप में झुलसी त्वचा पर खेत की गीली मिट्टी का लेप लगाती
एक ही बेड़ी से बंधे बालों का जी उकता जाने के डर से
अपने खोसा के मुरझाये फूलों को पानी की तेज धार संग छिटक कर कहीं दूर बहाती
घुटनों तक लिपटी उनकी लूगा की गाँठ खुलकर
जब फैल जाती है नदी में,
तब नदी का दिल हल्दी में लिपटी मोटियारिन की तरह धड़कने लगता है.
लूगा को इस तरह पटक-पटक कर धोती हैं
कि नदी की सारी मछलियाँ मदहोश हो उनकी लूगा से लिपटकर
कोई उन्मादी गीत गुनगुनाने लगती हैं.
इंद्रधनुष की छवियाँ भी देर तक टकटकी लगाये निहारती है जलपरियों के इस अदभुत सौंदर्य को
कभी-कभी लकड़ी के भारी गठ्ठर यहीं कहीँ किनारे पटक हाथों के छालों को अनदेखा कर
छिंद के पत्तो को चबा-चबा
अपने होठों को लाल कर
नदी के पानी में खुद को निहारती लाल होंठो को धीमे से भींचती बुदबुदाती हुई शर्माती हैं
शायद उस एक वक्त कोई मीठा सपना पल रहा होता है उनकी आँखों में
अक्सर दिख जाती है जलपरियां जाल फेंकती हुई
केकड़े का शिकार करती हुई
हांडी-बर्तन धोती
खेतों की मेड़ों पर नाचती
पत्थरों पर मेहंदी के ताजा पत्तों को पीसती
या फिर आम के वृक्षों से लाल चींटियाँ इकठ्ठा करती हुई
खोसा के लिए जंगल से पेड़ों की पत्तियाँ चुनती
जलपरियों का होना कोई मिथक बात नहीं है कि
सचमुच की होती है जलपरियाँ!
हिड़मे ,आयती, मनकी ,झुनकी,पायकी की देह के रूप में
'डोंगा चो डोंगी आन दादा रे' गीत गुनगुनाती
चित्रकुट जलप्रपात के बहते पानी में नृत्य करती
जलपरियों को निहारते हुये सूरज का चेहरा भी शर्म से लाल हो जाता है.
सांझ होने से पहले,
मुठ्ठी भर प्रेम लेकर अपने घरों की ओर भागती
इन जलपरियों को देखना
दुनिया की तमाम खूबसूरत घटनाओं में से एक है
नदी का पानी सूखता क्यों नहीं
सन्नाटे से भरी बस्तर की सड़कें
जिसके भाग्य में लिखा है भारत के दक्षिणी कोने पर
एन एच तिरसठ का आवरण ओढ़े सुबकते रहना.
जहाँ अक्सर फूटते हैं टिफिन-बम प्रेशर-बम,
बिना किसी कारण जला दी जाती है बारातियों से भरी बस
जल कर राख हो जाता है दुल्हन का जोड़ा
बच्चों को नहीं लुभाती डामर की चिकनी सड़कें
बीच सड़क पर लगती है जनअदालत
उन आकाओं की जिन्हें नहीं पंसद डामर की गन्ध.
जहाँ जब -तब सवारी बस के पहियों के साथ जल उठता है सारा जंगल
बेबस लाचार-सा
बस्तर की सड़कें उगलती हैं अपना गुस्सा.
महुए की मादकता पर
चिरौंजी, तेंदू की मिठास पर
इमली अमचूर की खटास पर,
मड़िया ज्वार के पेज पर,
चापड़ा के स्वाद पर ,
गौर सिंग की शान पर और मुर्गा लड़ाई की आन पर.
लिंगोपेन से आकाशगंगा की दूरी नापना चाहती हैं यहाँ की आदिम संस्कृतियाँ.
पर उपेक्षा की बाधा से टकराकर लौट आती हैं
ऐसे जैसे डामर की गंध को नथुनों में भरने मात्र को
आ रही हों जंगल से बाहर.
डामर की लाल लपटें जलाती हैं
धूँ-घूँ कर दिमाग़ की नसों को
तब कहीँ जाकर पांडु देख पाता है जिला अस्पताल का मुँह और झुनकी जान पाती है.
नमक-तेल सब कुछ नहीं होता कि
सूरज का गोला तीख़ी धूप के साथ चमकता भी है
जिस सड़क की कीमत सैकड़ों जवानों के गर्म लहू में
सालों तक पिघलता तारकोल हो.
वह सड़क इतिहास के पन्ने पर किसी फफोले की तरह ही दर्ज होगी
बरहहाल जो भी हो, इतना तो तय है.
जब भी अकेले होती है, खूब रोती है बस्तर की सड़कें. कितना कुछ कहना चाहती हैं पर कह नहीं पाती
जुबान बारूद की गंध से लड़खड़ाने लगती है
एन एच तिरसठ सड़क नहीं,
बल्कि उन तमाम उदास, हताश, निराश, अनाथ आँखों से टपकता आँसू है.
जिन्हें मोहरों की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा है.
तभी मैं सोचूँ
इंद्रावती नदी का पानी सूखता क्यों नहीं!
तुम्हारी जगह ही तुम्हारी चेतना है
( एक )
तुम छोड़ दो अपनी जगह और भूल जाओ अपनी आवाजें
उतारकर फेंक दो छानियों पर टँगा दांदर
कि मछलियां खेत के मेड़ो तक फुदकर नहीं आने वाली
तूम्बा को लटका आओ
सल्फी की किसी टहनी पर हमेशा के लिए
भूल जाओ चिपड़ी में उड़ेल कर महुए का रस.
ताड़ को दुःखी होने दो इस बात के लिए
कि तुम्हारा बेटा बाँधना भूल जाएगा अपनी शादी पर
उसकी पत्तियों का बना मौड़
( दो )
तुम भूल जाओ हथेलियों में झोकर पानी पीना
यहाँ तक कि उन दो हथेलियों की दो उंगलियों को भी
जिन्हें रोटी के टुकड़े पकड़ने में कम और
आदिमकाल से हाथो में पकड़े अपने धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए ज्यादा इस्तेमाल किया
तुम भूल जाओ जंगल की उन पत्तियों को चबाना
जिनको जीभ पर धरते ही बदल जाता था मन का मौसम
भूल जाओ
चिड़ियों की भाषा में आने वाली आपदाओं के संकेत
शिकार के वक्त बुदबुदाने वाले मंत्र!
मृतक के पैरों में चावल की पोटली बांध कर
विदा करने की परम्परा!
कि
मरने के बाद भी अपने प्रिय को भूखा न देख पाने की पीड़ा
तुम्हें किसी और मिट्टी में उगने नहीं देगी
तुम्हारी स्थानीयता ही तुम्हारी सँस्कृति की चेतना है.
( तीन )
तुम भूल जाओ एक दिन
पेन परब पर तिरडुडडी की छनक
एक दूसरे के हाथों को भींच कर पकड़ने की आदत
कदम से कदम मिलाकर चलने का कड़ा अनुशासन.
तुम्हारे कंधे मजबूत जरूर हैं पर इतने भी नही
कि तुम उठा सको
हर गाँव-हर घर के देवता को अपने कंधों पर शहर तक साबुत.
जंगलो के देवता अपनी जगह नहीं बदलते.
( चार )
तुम्हारे देवता मंदिरों में नहीं
झाड़ के झुरमुट के नीचे, पहाड़ की ऊंची चोटी पर चौकन्ने विराजते हैं
तुम्हें जहर देकर नहीं मारा जा सकता
गला रेतकर नही की जा सकती तुम्हारी हत्या.
जंगल से हटा देना सबसे आसान तरीका है
तुम्हें जड़ से नष्ट करने का
तुम भूल जाओ
एक दिन वह सब कुछ
जिनके होने से तुम्हारे होने की गंध आती है.
( पांच )
तुम खटो कारखानों में, शहर की गलियों में देर रात तक लौटो
तुम्हें आदि बनाया जा रहा है
दस से पाँच का वाली फैक्टरी की अलार्म धुन का
पतला चावल पचाएँगी तुम्हारी आँते
खाओगे, पीओगे एक दिन थककर मर जाओगे
शहर के किसी कब्रिस्तान में दफन हो जाओगे
बिना किसी मृत्य-गीत के
उस दिन पूरी दुनिया की मछलियां तड़प कर मर जाएंगी.
पहाड़ भरभराकर गिर जायेंगे
चंदन की सारी लकड़ियां भाग जाएंगी जंगल से
सारे आंगा देव नंगे होकर भटकेंगे
बूढ़ा देव अचानक बदल जाएंगे शिवलिंग में.
धोती- कुर्ता पहनें ताँबा के लोटे से सूर्य देवता को जल चढ़ाते
कई-कई मंत्र
हवा में घुल-मिल जाएंगे
जिनमें तुम्हारी गन्ध कहीं नहीं होगी.
महुआ का पेड़ जानता है
महुआ का पेड़ जानता है
महुआ की उम्र कच्ची है
कच्ची उम्र में टपकते हुये महुये को रोकना संभव नहीं.
गुरुत्वाकर्षण बल नहीं बल्कि
धरती का संगीत खींचता है उसे अपनी ओर!
बाँस की टोकनी से लिपटने का मोह
महुये को छोटी उम्र में किसी जिम्मेदार मुखिया की तरह काम करने को उकसाता है.
महुये को प्रेम है पांडु की छोटी लेकी से
उसकी खुली देह के लिए किसी कवच की तरह टप से टपकता है महुआ.
महुआ इसलिए भी टपकता है
ताकि इस बार साप्ताहिक बाजार में आयती के लिए जुगाड़ कर सके लुगा का.
आयती के दिहाड़ी वाले काम के बारे में
महुआ को सब पता है.
बड़े छाप वाले फूल और गहरे रंग वाली सूती लुगा भी
कहाँ रोक पाती है उन आँखों की रेटिना को
आयती की देह का पारदर्शी चित्र उकेरने से.
शैतानी आँखे ताड़ जाती हैं
गदराई देह पर अंकित गहरे रंग की छाप कहाँ और कैसे फीकी पड़ जाती है.
चिमनियों से टकराकर आने वाली दूषित हवा
किसी फुलपैंट वाले के नथुनों से होकर घुल न जाये तालाब के पानी में.
महुआ का टपकना जरूरी हो जाता है उस वक्त
कि महुआ की मादकता बचाएं रखती है जलपरियों को खतरनाक संक्रमित बीमारियों से.
महुआ टपकता है
अपनी मिट्टी पर/अपनी बाड़ी में/अपने गाँव-घर के बीच.
थकी देह के लिए महुआ पंडुम
इंद्र देव के दरबार में रचाई गई रासलीला की तरह है.
महुआ के फूल से खेत-खलियान अटे रहें
मन्नत के साथ गायता देता है बलि सफेद मुर्गे की.
दोना भर मन्द पीते ही, पत्तल भर भात खाते ही
पांडु की इंद्रिया लंकापल्ली जलप्रपात के कुंड में डुबकी लगा आती हैं.
फुसफुसा आती है चिंतावागू नदी के कान में
अपनी मुक्ति का कोई संदेश गोदावरी के नाम!
काली शुष्क हड्डियों से चिपका हुआ.
उसका मांस सब कुछ भुला कर पंडुम गीत गुनगुनाने लगता है.
किसी मुटियारी का धरती से अचानक रूठकर
आसमान पर चमकने की जिद्द पूरी करने के लिए
महुआ को टपकना ही पड़ता है.
महुआ का टपकना
मिट्टी के भीतर संभावित बीज के पनपने का संकेत मात्र नहीं है.
कि महुआ का टपकना,
गाँव के सबसे बुजुर्ग हाथ की नसों में स्नेह की गर्माहट का बचा रहना भी है.
मछलियाँ गायेंगी एक दिन पंडुम गीत
तुम्हें छूते हुये थरथरा रहें हैं मेरे हाथ
कि कहीं किसी ताजे खून का धब्बा न लग जाए मेरी हथेलियों पर
सोचती हूँ तुम्हारी नींव रखी गई थी
तब भी क्या तुम इतनी ही डरावनी थी.
अत्ता बताती है तुम्हारे आने की खबर से
सारा गाँव हथेलियों पर तारे लिए घूम रहा था
उम्मीद की हजारों-हजार झालरें
लटक रही थी घर की छानियों पर
सुअर की बलि संग देशी दारू का भोग
लगाया गया था तुम्हें
खूब मान, जान के साथ आई थी तुम
तुम्हारे आने से तालपेरु का सीना
फूल कर और चौड़ा हो गया था.
तुम आई तो अपने संग , सड़क, बिजली, पानी, अस्पताल, स्कूल, हाट, बाजार के नए मायने लेकर आई
गाँव अचानक शहर की पाठशाला में दाखिल हो चुका था.
हित-अहित, अच्छा-बुरा, नफा-नुकसान, हिंसा-अहिंसा का पाठ पढकर
होमवर्क भी करने लगा था पूरा गाँव.
किसी कल्पवृक्ष की भांति
बाहें पसारे तुम खड़ी रहती
और पूरा गाँव दुबककर सो जाता
तुम्हारी बाहों के नरम गद्दे पर
एक निश्चिंतता भरी नींद
सूरज के उगने तक
सालों बाद लौट कर
जब आई हूँ तुमसे मिलने
तो देखती हूँ
हजारों गुनाहों की साक्षी बन तालपेरु की रेतीली छाती पर
खंडहर सी बिछी हो तुम.
साईं रेड्डी के खून के छींटे तुम्हारी निष्ठुरता की कहानी कहते हैं.
तुम्हारी सुखद कहानियाँ
इतिहास के पन्नों पर
किसी फफोले की तरह जल रही हैं.
क्या कभी लौटकर आओगी तुम
तालपेरु नदी के ठण्डे पानी का स्पर्श करने
बोलो कुछ तो बोलो
तुम्हारा यूँ निःशब्द होना
बासागुड़ा की आने वाली पीढ़ियों के मस्तिष्क में गर्म खून का बीज बोने जैसा है.
तुम चीखो, तुम चिल्लाओ, तुम रोओ, तुम मांगो इंसाफ
कि तुम्हारी चुप्पी तोड़ने से ही टूटेगा जंगल का चक्रव्यूह
तुम कुछ बोलो मेरे प्रिय पुल,
कि तुम्हारी खनकती आवाज़ सुनकर
जंगल से हिरणों का झुंड पानी पीने जरूर आयेगा.
उस दिन तालपेरु की सारी मछलियाँ तुम्हारे स्वागत में एक बार फिर पंडुम गीत गायेंगी.
तुम देखना,
एक दिन तुम सजोगी फिर किसी नई दुल्हन की तरह।
शब्दार्थ
बासागुड़ा का पुल ---
एक गाँव को जिले से जोड़ने के लिए बनाया गया खूबसूरत पुल, जिस पर कभी पूरा गाँव एकजुट होकर सुबह शाम गुजारा करता था. कहते हैं बहुत रौनक होती थी एक समय इस पुल पर, सलवाजुड़ुम के दौरान बासागुड़ा गाँव पूरी तरह खाली हो गया था अब धीरे-धीरे जीवन की कुछ उम्मीदें फिर से वहाँ पनपने लगी हैं पर अब भी कुछ कहना मुश्किल है ।
*अत्ता ----बुआ
*साईं रेड्डी ----बीजापुर के चर्चित पत्रकार जिनकी उसी पुल पर कुल्हाड़ी मार कर हत्या कर दी गई थी.
*तालपेरु--- बैलाडीला से निकलकर बासागुड़ा होते हुए बहने वाली नदी.
हेमंत की कविताएं
किसी और जन्म के लिए
अगर ,वेदना है
तो उसे पनपने दो
उन सपनों के लिए
जो पूरे नहीं हुए
हो भी नहीं सकते
और उन में जोड़ दो
मेरा व्याकुल
अस्वीकृत
दावानल प्यार
किसी और जन्म के लिए
बस इतना
*********
कार्तिक की जिन हवाओं ने
रात के सन्नाटे में आकर
मेरे कमरे में लगे बिस्तर पर
हरसिंगार के फूल बिखेरे थे
और सौंपी थी
तुम्हारे आने की खुशबू ..........बेतरह
संगमरमर के जिस टुकड़े ने
मेरे दिल में बैठकर
एक हँसी घर के ख़्वाब तराशे थे
हसीन चेहरे वाले तुम्हारे होठों ने
चुपके से मेरे गीत गुनगुनाए थे
उन हवाओं ,उन फूलों
और बेदार बदन वाले
प्यार के देवता तुमने
अपने सारे वादे भुला दिए
कसमें तोड़ दीं
और ऐलान कर दिया
कि वफ़ा तुम्हारी एक फरेब थी
और फरेब थी इसलिए
तुम वफादार न थे
और मैं
अपने कमरे में
सूखे चरमराये दिल के टुकड़ों को
हवा में उड़ता देखता रहा
और ठीक मेरे सामने
मेरे बिस्तर पर आकर बैठ गया
प्यार का बेवफा देवता तू
जिसे छूने को बढे मेरे हाथ को
तूने यह कहकर झटक दिया
यहाँ वफा का क्या काम?
क्या काम है ख्वाबों का ?
टूट जाने के सिवा
जीवनक्रम
*********
हम सब
इस त्रिकाल ठहरे जल में
जलकुंभियों की तरह डोलते हैं
हमारी जड़े जमीन में नहीं जातीं
जल के ऊपर उतराती हैं
फिर घोर आतप से
सब कुछ सूख जाता है
जल भी ,जल का अस्तित्व भी
तब हम धरती में पड़ी दरारों में
समा जाते हैं
हम मरते नहीं
अपने अंदर जल का स्रोत छुपाए
धरती की कोख में छुपे रहते हैं
फिर मेह बरसता है
फिर धरती की दरार से हम
बाहर निकल आते हैं
जलकुंभी बन
पानी की सतह पर
खिल पड़ते हैं
यही क्रम चलता रहता है
चलता रहेगा लगातार
धरती के अस्तित्व तक
क्यों
****
माँएं क्यों मनाती है तीजे ,गणगौर
क्यों करती है मन्नत
रखती है उपवास
शिवरात्रि का ,नवरात्रि का ,
सोलह सोमवार का
क्यों कामना जगाती है बेटियों में
करवा चौथ की ,वटसावित्री की
मेहंदी की,महावर की
क्यों जोहती हैं बाट
बेटियों को जलाने वाले रिश्तों की
क्यों नहीं चेतती माँएं
धुएं की चुभन
***********
बर्फीली घाटियों में
शाम के वक्त
लकड़ियां जलाकर
जब हम साथ बैठे थे
कितने ही लम्हे
तुम्हारी, मेरी आंखों में तैरे थे
तुम्हारी आंखों में देखी थी
मैंने
सीली लकड़ियों के धुएं की चुभन
दूर आसमान में
कितने ही रंग पिघले थे
फिर
उन्ही रंगों को हमने
स्याह होते देखा था
तुम चुप थी
मैं चुप था
बस एक गीली गर्माहट थी
हमारे बीच
शाम के वक्त
उन बर्फीली वादियों में
गरीब की बेटी
************
गरीब की बेटी
तपेदिक की शिकार
घुल घुल कर मरती रही
नमक डली जौंक की तरह
इलाज से बच जाती
पर खर्च था
हजारों का
दवाइयां ,इंजेक्शन टॉनिक,फल
डॉक्टर की फीस
सेनेटोरियम का किराया
बच जाती फिर शादी?
खर्च था हजारों का
गरीब का
सोचना ही कितना
मुंह से पेट तक !
कर डाला फैसला
जिंदगी और मौत में से
चुन ली मौत
अपनी चुनमुनिया की
वह मंजर था
मौत की तरफ डग भरते
कुल जमा सालों का
पीली ,मुरझाई
रफ्ता-रफ्ता छीजती, गलती
गरीब की बेटी
शून्य में समा गई
दे गई कुछ और निवाले
पेट भरने को
अपने जन्मदाता को
अपने जन्म के एवज़
मैंने प्यार चाहा है
**************
मैंने प्यार चाहा है
क्योंकि वह
ताकत देता है जीने की,
जिंदा रहने की
अकेलेपन से मुक्ति की
उस अथाह गहराई को
देखते रहने की
जो दुनिया के नर्क की
सच्चाई है
मैंने प्यार चाहा है
क्योंकि
प्यार के आलिंगन में
एक नन्हा
स्वर्ग बसा है
जिसकी चाह में
तपस्वियों ने तपस्या की
पीर फकीरो ने
अलख जगाई
कवियों ने कविताएं रची
इस प्यार को पाकर मैं
बस जाना चाहता हूं
उन दिलों में
जो जानना चाहते हैं
ग्रह ,नक्षत्रों ,
आकाशगंगाओं का
रहस्य
पाताल की गहराई
और स्वर्ग का सत्य
इस प्यार को पाकर मै
समा जाना चाहता हूं
मानव की पीड़ा में
चीत्कार ,भूख ,
बदहाली ,
अत्याचार से
पिसते
निर्बल जख्मी पाँव
उपेक्षित वजूद
खून होता
टपकता पसीना
असमय बुढ़ाती जवानी
मैं इस सब को
मिटा नहीं सकता
इसीलिए
समा जाना चाहता हूं
इन बुराइयों में,
पीड़ाओं में
इसीलिए मैंने
प्यार चाहा है
अपने अंदर
ताकत जगाने को
ड्रैक्युला
*******
कल रात
मेरे अचेतन मन में
सहसा जीवित हो उठा ड्रैक्युला
उसका अट्टहास
खून पीने को उतावले
नुकीले दो दांत
मेरी गर्दन पर चुभते से लगे
कोई नहीं था आसपास
सिवा ड्रैक्युला के
जो सदियों से
रात के अंधेरे में
ढूंढ रहा है गर्दन
एक गढ़ा हुआ
सत्य है ड्रैक्युला
या ड्रैक्युला ने
सत्य गढ़ा है
न जाने कितनी गरदनो का
पी कर रक्त
ओह !कहां ड्रैक्युला?
कार की हेडलाइट की
मरियल सी रोशनी में
डोलती हैं कुछ परछाइयां
कुछ टहलते कदम
मरीन ड्राइव में
रोशनियों का
नौलखा हार पहने
सजी है दुल्हन सी मुंबई
और मैं निकला हूं
एक डिस्कोथेक से खिसककर
कार में तनहा
देखने मुंबई को
रात की बाहों में
लेकिन यहां तो तड़प है
उन गरदनों की
जिन्हें अभी अभी डँसा है ड्रैक्युला ने
तो क्या सत्य है
ड्रैक्युला सदियों से ?
बस इतना
*********
कार्तिक की जिन हवाओं ने
रात के सन्नाटे में आकर
मेरे कमरे में लगे
बिस्तर पर
हरसिंगार के फूल
बिखेरे थे
और सौंपी थी
तुम्हारे आने की
खुशबू ..........बेतरह
संगमरमर के
जिस टुकड़े ने
मेरे दिल में बैठकर
एक हंसी घर के ख़्वाब
तराशे थे
हसीन चेहरे वाले
तुम्हारे होठों ने
चुपके से मेरे गीत
गुनगुनाए थे
उन हवाओं
,उन फूलों
और बेदार बदन वाले
प्यार के देवता तुमने
अपने सारे वादे
भुला दिए
कसमें तोड़ दी
और ऐलान कर दिया
कि वफ़ा तुम्हारी
एक फरेब थी
और फरेब थी
इसलिए तुम
वफादार न थे
और मैं अपने कमरे में
सूखे चरमराये
दिल के टुकड़ों को
हवा में उड़ता
देखता रहा
और ठीक मेरे सामने
मेरे बिस्तर पर आकर
बैठ गया
प्यार का बेवफा
देवता तू
जिसे छूने को बढे
मेरे हाथ को तूने
यह कहकर झटक दिया
यहां वफा का
क्या काम?
क्या काम है ख्वाबों का ?
बस इतना कि टूट जाएं
मज़दूर
*******
मज़दूर के
उस स्वेद को सलाम है
जो रक्त बनकर
धरती पर गिरता है
इस रक्त से उगेंगी फसलें
जो देश को बिठाएँगी
विकासशील देशों की
कतार में
जो समझौतों के लिये
तैयार करेंगी गोल मेजें
और चमकते फर्श
मज़दूर के
उस स्वेद को सलाम है
जो मौन चीख बनकर
धरती पर गिरता है
और भूखी नंगी नस्लें
विवश हैं जुटाने में
लक्ष्मी पुत्रों के
ऐश्वर्य के खज़ाने
मैं इस मेहनत को
गहरे महसूस कर सकता हूँ
मैं न चीख मिटा सकता ,न दर्द
लेकिन इंतज़ार कर सकता हूँ
तपते लोहे से बने उस हथौडे का
जो मज़दूर की बेडियाँ काटकर
उन हाथों को कुचले
जिन्होने बेडियाँ लगाईं
केवल ये बताने को कि
किस हद्द तक पशु बन जाते हैं
वे हाथ
सलाम है उस मिट्टी को
जहाँ मज़दूर का स्वेद
रक्त बनकर गिरा है
मेरे रहते
********
ऐसा कुछ भी नही होगा मेरे बाद
जो न था मेरे रहते
वही भोर के धुँधलके में
लगेंगी डुबकियाँ
दोहराये जायेंगे मंत्र श्लोक
वही ऐन सिर पर
धूप के चढ जाने पर
बुझे चेहरे और चमकते कपडों में
भागेंगे लोग दफ्तरों की ओर
वही द्वार पर चौक पूरे जायेंगे
और छौंकी जायेगी सौंधी दाल
वही काम से निपटकर
बतियाएँगी पडोसिनें
सुख दुख की बातें
वही दफ्तर से लौटती
थकी महिलाएँ
जूझेंगी एक रुपये के लिये
सब्जी वाले से
वही शादी ब्याह,पढाई, कर्ज और
बीमारी के तनाव से
जूझेगा आम आदमी
सट्टा,शेयर,दलाली,
हेरा फेरी में डूबा रहेगा
खास आदमी
गुनगुनाएँगी किशोरियाँ
प्रेम के गीत
वेलेंटाइन डे पर
गुलाबों के साथ
प्रेम का प्रस्ताव लिये
ढूँढेंगे किशोर मन का मीत
सब कुछ वैसे ही होगा....
जैसा अभी है
मेरे रहते
हाँ,तब ये अजूबा ज़रूर होगा
कि मेरी तस्वीर पर होगी
चन्दन की माला
और सामने अगरबत्ती
जो नहीं जलीं मेरे रहते
हेमंत
छिछले प्रश्न गहरे उत्तर
बच्चा लाल उन्मेष
कौन जात हो भाई?
"दलित हैं साब!"
नहीं मतलब किसमें आते हो?
आपकी गाली में आते हैं
गन्दी नाली में आते हैं
और अलग की हुई थाली में आते हैं साब!
मुझे लगा हिन्दू में आते हो!
आता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।
क्या खाते हो भाई?
"जो एक दलित खाता है साब!"
नहीं मतलब क्या क्या खाते हो?
आपसे मार खाता हूँ
कर्ज़ का भार खाता हूँ
और तंगी में नून तो कभी अचार खाता हूँ साब!
नहीं मुझे लगा कि मुर्गा खाते हो!
खाता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।
क्या पीते हो भाई?
"जो एक दलित पीता है साब!
नहीं मतलब क्या क्या पीते हो?
छुआ-छूत का गम
टूटे अरमानों का दम
और नंगी आँखों से देखा गया सारा भरम साब!
मुझे लगा शराब पीते हो!
पीता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।
क्या मिला है भाई?
"जो दलितों को मिलता है साब!
नहीं मतलब क्या क्या मिला है?
ज़िल्लत भरी जिंदगी
आपकी छोड़ी हुई गंदगी
और तिस पर भी आप जैसे परजीवियों की बंदगी साब!
मुझे लगा वादे मिले हैं!
मिलते हैं न साब! पर आपके चुनाव में।
क्या किया है भाई?
"जो दलित करता है साब!
नहीं मतलब क्या क्या किया है?
सौ दिन तालाब में काम किया
पसीने से तर सुबह को शाम किया
और आते जाते ठाकुरों को सलाम किया साब!
मुझे लगा कोई बड़ा काम किया!
किया है न साब! आपके चुनाव का प्रचार..।
लॉकडाउन में लेखक
सुधीर विद्यार्थी
लेखक और लॉकडाउन का पुराना संबंध है। यह न हो तो रचना की उत्पत्ति संभव नहीं। श्रेष्ठ साहित्य का जन्म हमेशा लॉकडाउन की स्थिति में ही होता है। जेल के भीतर रहकर दुनिया भर के रचनाकारों ने उत्कृष्ट और कालजयी रचनाओं को कागज पर उतारने में सफलता प्राप्त की है। कोरोना समय लेखकों और कवियों के लिए वरदान सरीखा है। हर रोज नई-नई कविताएं, दोहे, गीत और ग़ज़लों का जन्म हो रहा है। कहानियां और उपन्यास लिखे जा रहे हैं। रचनाकार खुश हैं। फेसबुक पर हलचलें है। मौसम त्योहार सरीखा हो गया है। सुखानुभूति की गंगा बहने लगी है। लॉकडाउन अगर कुछ दिन और रहा तो हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि में जल्दी ही चार चांद लग जाएंगे। यह हिंदी भाषा के इतिहास का स्वर्णिम कोरोना काल है। प्रकाशक चाहें, तो सिर्फ कोरोना के इस दौर की रचनाओं पर अनेक तरह के आयोजन-समारोह किए जा सकते हैं। रचनावलियां छप सकती हैं। विमोचन-अभिनंदन सम्पन्न हो सकते हैं। लग रहा है कि कोरोना समय में रचनात्मकता का भयंकर विस्फोट हुआ है। जो लेखक अनुर्वर थे वे भी इन दिनों गंभीर रूप से सृजनरत हैं। इस वैश्विक महामारी ने कलमकारों को नई संजीवनी सौंप दी है। इधर कोरोना संक्रमित मरीजों और उससे मरने वालों की गिनती में इजाफा हो रहा है तो दूसरी ओर कविताएं उमंग भरी उछालें मार रही हैं। व्यंग्य बरस रहा है। दोहे और ग़ज़लें फूट रही हैं।
रंगकर्म की दुनिया में कवारंटाइन थियेटर फेस्टिवल का भी आगाज़ हो चुका है। कुछ भी रूका और ठहरा नहीं है। कविता फेसबुक पर ऑनलाइन है। ’सदी की कविता’ का पाठ होने लग गया है जिसमें जीवित कवि अपना नाम और मुकाम तलाश कर रहे हैं। इस कोरोना समय में जिनके लिए रचनाकर्म संभव नहीं है वे अपना समय रसोईघर में नई-नई रेसिपी तैयार करने में लगा रहे हैं। ऐसा करते हुए जनवादी उम्रदराज रचनाकारों के चेहरे पर भी नवसृजन का भाव तैर रहा है। वे लाइव कबाब बनाते हुए अपनी वॉल पर दिखाई दे रहे हैं। अगले दिन वहां छोले-भटूरे की तस्वीर चस्पां होती हैं और फिर इतराते हुए‘चखना’ की भरी-पूरी प्लेटों के बाद अपने हाथों से पहली बार बनाया ‘चिकन विद कर्ड’ नज़र आने लगता है। यही सचमुच का रचनाकर्म है।
मैं इन दिनों खामोश हूं। लगभग सन्नाटे में। कुछ लिखा नहीं जा रहा। मि़त्र पूछते हैं--भई, कुछ रच नहीं रहे।
इस कठिन समय में क्या रचा जा सकता है जबकि पूरी दुनिया पर अस्तित्व संकट है। गरीब कोरोना और भूख दोनों से मर रहा है... मैं धीरे-से कहता हूं।
कठिन दौर रचनात्मकता के लिए बहुत मौजूं भी होता है। आप लॉकडाउन का जमकर उपयोग करिए। कुछ लिखिए। इतिहास बनाइए। यह नहीं करेंगे तो समय आपको माफ नहीं करेगा... मित्र प्रवचन के मूड में आ जाते हैं।
उनके सुझाव पर मैं कागज-कलम उठाता हूं। तभी दिल्ली से अपने शहर आते हुए रास्ते में मजदूरों के झुंड मेरा पीछा करने लगते हैं। उनके सिर पर बोझा है। औरतों की गोद में दुधमुंहे बच्चे हैं। कोई एक पैर से अशक्त आदमी मेरी ओर देखता है और मैं विचलित हो जाता हूं। मैं कार नहीं रोकता। दृश्य पीछे चला जाता है। मन में आई कविता का सिरा भी गोया हाथ से छूट जाता है। भीतर उपजी संवेदना ज्यादा देर ठहर नहीं पाती। ‘वह तोड़ती पत्थर’ के कवि से मैं माफी मांग लेता हूं। अब अंदर कहीं ग़़ज़ल का एक शेर कुलबुलाता है तभी उस बच्ची का मुरझाया चेहरा आंखों के सामने क्रंदन करने लगता है जो सौ मील पैदल चलते हुए थकान और भूख से दम तोड़ देती है। मेरी शायरी बेदम हो जाती है। एक गीत फूटने को होता है कि ‘आंचल में है दूध’ वाली कविता के शब्द मेरे सामने सिर के बल खड़े हो जाते हैं। उस नवप्रसूता को कई दिनों बाद आज थोड़ा चावल खाने को नसीब हुआ है। उसके स्तनों में दूध नहीं उतारता जिसे वह जन्मे शिशु को पिला सके। उसके आंचल से दूध लापता है और आंखों का पानी दुःखों के ताप से वाष्प में तब्दील हो गया है।
कवि ही मजदूर पर कविता लिखता है। किसान पर रचना करता है। बेघरों को शब्दों की छत सौंपता है। गरीब कभी अपने भोगे हुए यथार्थ को नहीं रचता। उसके भीतर विचार आते हैं। कोरोना त्रासदी को भी वह अपने शरीर की रूखी त्वचा और बुझे मन पर दर्ज कर रहा है। क्या सचमुच पढ़ेंगे उसे हम ?
मित्र मेरी बात पर खिन्न हो जाते हैं, तो क्या हम भी भूखों मरें ? वे जोर देकर मुझसे कहते हैं--भूखा आदमी चिल्लाता ज्यादा है।
हां, खाली पेट ढोल की तरह बजता है--मैं धीरे-से बुदबुदाता हूं।
पर मित्र इस बेहद कठिन और डरावने समय मे मैं लिख नहीं सकता। मेरे घर से थोड़ी दूर पर अभावों और दुर्दिनों का घना जंगल है जहां से उठती सायं-सायं की आवाज मेरी कलम को भोंथरा कर देती है।
6, फेज-5 विस्तार, पवन विहार पो0 रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली-243006 मोबाइल- 9760875401
विजय मानिकपुरी की कविता पत्थर
हे पत्थर
तू नादान है,
तू भोला है,
तू सीधा है,
तू सरल है,
तू कठोर होकर भी
नरम है,
हे पत्थर,
इस कथित इंसान का दिल
तुझ से कठोर है,
वो ज्यादा निष्ठुर है,
वो ज्यादा मतलबी है,
वो ज्यादा फरेबी है...!
हे पत्थर,
वो क्या जाने
तेरी वजह से
करोड़ों पेट की
आग बुझती है,
करोड़ों लोग
तुम्हारे सामने शीश झुकाते हैं...!
हे पत्थर,
तू सचमुच
नादान है,
कठोर दिल के
सामने तू
भोला है....।
हे पत्थर,
इस बात पर
मत रो कि
तू पत्थर है,
बल्कि इस बात पर
खुश हो कि
पथरली पग का
मुकाम है तू,
बहते आंसू की
मुस्कान है तू,
मंदिर-मस्जिद की नींव है तू
चर्च, गुरुद्वारा का आधार है तू
हे पत्थर,
तू परवाह मत कर
तू चट्टान तो है,
लेकिन उम्मीद की
बरसात हो तुम,
ऋषि-मुनियों का
वास हो तुम..।
हे पत्थर,
हिमालय की चोटी है तू,
महासागर का भरोसा है तू
हे पत्थर,
तू घबरा मत,
तू डर मत
तेरा साथ तो
तेरा वजूद है,
तेरा ईमान है..!!
विजय मानिकपुरी रायपुर
मैं बहुत सेंसिटिव हूं
मोहन देस
बार-बार मत दिखाओ
सैकड़ों तपे हुए मील के पत्थरों
और उन झुलसे हुए लोगों को
मत दिखाओ उनके बाल-बच्चों को
उनके छालों भरे पांवों को
देखा नहीं जाता यह सब...
मैं बहुत सेंसिटिव हूं!
मैं अर्थात्,
महज़ मैं ही नहीं...
हम सब देशवासी...
वे, जो कल्चर्ड हैं
जिनके पास घर है
दरवाज़ा है
दरवाज़े पर बंदनवार है
रंगोली है
खिड़की में थाली, चम्मच
तालियां हैं
दीए में तेल है
देह में योग है
प्राणायाम है
छंद है
गंध है
मद्धिम संगीत है
मेडिटेशन है
धुर आनंद है,
इस तरह
आप की तरह
मैं भी बहुत सेंसिटिव हूं!
इसीलिए कहा पत्नी से
बाई नहीं है,
मैं मांज देता हूं बर्तन
झाडू-पोंछा कर देता हूं
उससे कहीं बेहतर...
तुम देखना !
स्त्री -मुक्ति !
और साथ-साथ व्यायाम भी...
सुनते ही पत्नी भी
घर में मटर की गुजिया
बनाने के लिए
खुशी-खुशी तैयार हो गई
कितना मोहक और कुरकुरा रिश्ता है हमारे बीच!
बहुत सेंसिटिव हूं मैं !
फिर भी बेकार में वे लोग
बार-बार
नज़र के सामने आ ही जाते हैं...
अरे, कोई न कोई इंतज़ाम
हो ही जाएगा उनका
सरकार उन्हें खिचड़ी दे तो रही है न
तो और क्या चाहिए उन्हें?
बैठे रहना चाहिए न चुपचाप
जहां कहा जाए...
जल्द से जल्द उन्हें
नज़रों से ओझल हो जाना चाहिए
देखा नहीं जाता
पीड़ा होती है
बहुत सेंसिटिव हूं जी मैं !
सच कहूं तो उनके बगैर शहर
सुंदर साफ-सुथरे और शांत लगने लगे हैं
और हां, सामाजिक अंतर या दूरियां
तो ज़रूरी ही है न?
अरे, यह सब तो सनातन है
हमारी पुरानी चिर-परिचित संस्कृति में
पहले से ही
यह विद्यमान है,
इस सच को छिपाया नहीं जा सकता.
आजकल के प्रगतिशील,
लिबरल्स, वामपंथी, शहरी नक्सल, टुकड़े टुकड़े गैंग वाले...
कहते हैं, नासा ने अब इन शब्दों को
ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में शामिल कर लिया है...
और वो...
क्या कहते हैं उसे...
ओह, याद नहीं आ रहा...
क्या है!
हां, मानवाधिकार वाले...
इनमें से कोई भी नकार नहीं सकता
इस सच को !
अमेरिका में बसा हुआ मेरा भांजा बताता है
वहां इस तरह के लोग नहीं मिलते
घरेलू काम, बागवानी मैं ही करता हूं
घर में रंगरोगन पत्नी-बच्चे करते हैं
मामा, घर भी हमने खुद ही बनाया है
अरे, सब की किट्स मिलती हैं ऑनलाइन...
डॉग को भी हम ही ले जाते हैं बाहर घुमाने
उसकी टट्टी-पेशाब ‘सक’ करने की मशीन लेकर.
सभी काम मशीन से ही होते हैं यहां...
हम भी काम करते हैं मशीन की तरह ही
समय बेहतर गुज़रता है !
भाग्यशाली है मेरा भांजा...
भारत भी बहुत जल्द हो जाए सुपर पॉवर
साथ ही विश्वगुरू भी
इस मामले में मैं ज़्यादा सेंसिटिव हूं...
अरे ओ बीवी !
ज़रा रिमोट तो देना...
क्यों दिखाते हैं ये फालतू बातें बिकाऊ मीडियावाले
दुनिया में भारत को बदनाम करते हैं...
बंद करो !
इन पैदल चलने वालों
और उनके छालेभरे पैरों को दिखाना...
क्या ज़रूरत है?
एक बात बहुत अच्छी है
कि
यह रिमोट मेरे जैसा ही सेंसिटिव है.
मराठी से अनुवाद: उषा वैरागकर आठले
विष्णु नागर की दो कविता- 1- मोदी 2- गांव की ओर
1- मोदी
मोदी के घर में उसके कई सेवक हैं
उसका वहां कोई भाई, कोई बहन नहीं
उसके आंगन में खेलता कोई बच्चा नहीं
उसके अनुयायी लाखों में है
उसका कहने को भी कोई मित्र नहीं
वह जब आधी रात को चीख़ पड़ता है भय से कांप कर
उसे हिलाकर, जगाकर
‘क्या हुआ’, यह पूछने वाला कोई नहीं
‘कुछ नहीं हुआ’ यह उत्तर सुनने वाला कोई नहीं
ऐसा भी कोई नहीं जिसकी चिन्ता में
वह रात-रात भर जागे
ऐसा कोई नहीं
जिसकी मौत उसे दहला सके
किसी दिन उसे उलटी आ जाए
तो उसकी पीठ सहलाने वाला कोई नहीं
आधी-आधी रात जागकर
उसके दुख सुन सके, उसके सुख साझा कर सके
ऐसा कोई नहीं
कोई नहीं जो कह सके आज तो तुम्हें
कोई फ़िल्मी गाना सुनाना ही पड़ेगा
उसकी एक मां ज़रूर हैं
जो उसे आशीर्वाद देते हुए फ़ोटो खिंचवाने के काम
जब-तब आती रहती हैं
यूं तो पूरा गुजरात उसका है
मगर उसके घर पर उसका इन्तज़ार करने वाला कोई नहीं
उसे प्रधानमंत्री बनाने वाले तो बहुत हैं
उसको इंसान बना सके, ऐसा कोई नहीं.
2- गांव की ओर
जैसे आंधी से उठी धूल हो
लोग शहर से गांव चले जा रहे हैं
जैसे 1947 फिर आ गया हो
लोग चले जा रहे हैं
भूख चली जा रही है
आंधी चली जा रही है
गठरियां चली जा रही हैं
झोले चले जा रहे हैं
पानी से भरी बोतलें चली जा रही हैं
जिन्होंने अभी खड़े होना सीखा है
दो कदम चलना सीखा है
जिन्होंने अभी- अभी घूंघट छोड़ना सीखा है
जिन्होंने पहली बार जानी है थकान
सब चले जा रहे हैं गांव की ओर
कड़ी धूप है ,लोग चले जा रहे हैं
बारिश रुक नहीं रही है
लोग भी थम नहीं रहे हैं
भूख रोक रही है
लोग उससे हाथ छुड़ा कर भाग रहे हैं
महानगर से चली जा रही है उसकी नींव
उसका मूर्ख आधार हँस रहा है
उसका बेटा चला जा रहा है
मेरी बेटी चली जा रही है
आस टूट चुकी है
आंखों में आंसू थामे
चले जा रहे हैं लोग
बदन तप रहा है
लोग चले जा रहे हैं
चले जा रहे हैं कि कोई
उन्हें देख कर भी नहीं देखे
चले जा रहे हैं लोग
आधी रात है
आंखें आसरा ढूंढना चाहती हैं
पैर थकना चाहते हैं
भूख रोकना चाहती है
कहीं छांव नहीं है
रुकने की बित्ता भर जमीन नहीं है
लोग चले जा रहे हैं
सुबह तब होगी
जब गांव आ जाएगा
रोना तब आएगा
जब गांव आ जाएगा
थकान तब लगेगी
बेहोशी तब छाएगी
जब गांव आ जाएगा
हाथ में बीड़ी नहीं
चाय का सहारा नहीं होगा
800 मील दूरी फिर भी
पार हो जाएगी
गांव आ जाएगा
एक नर्क चला जाएगा
एक नर्क आ जाएगा
अपना होकर भी
जो कभी अपना नहीं रहा
वह आसमान आ जाएगा
गांव आ जाएगा
एक दिन फिर लौटने के लिए
गांव आ जाएगा
फिर आंधी बन लौटने के लिए
गांव आएगा
मौत आ जाएगी
शहर की आड़ होगी
गांव छुप जाएगा.
मितरों...
योगिनी राउल
पांच तारीख को
रात के ठीक नौ बजे
आप ने दीए जलाए या नहीं...
आप ने उर्जा महसूस की या नहीं?
की....
तो मितरों
चलो आज
सर्वश्रेष्ठ भक्त की जयंती पर
पूरी दुनिया को दिखाते हैं कि
दवाईयां कैसे दी जाती है मरीज को ?
क्या दिखाना है?
दवाईयां....
किस को देनी है?
मरीज को....
कैसे देंगे?
आप सब मिल कर,
हम सब मिल कर
आज आठ तारीख को
रात को ठीक आठ बजे
याद रहे रात को आठ बजकर आठ मिनट पर
अपनी अपनी बालकनी में
कहां?....
बालकनी में....
सब के घर को बालकनी है या नहीं है?
है ना...
तो
अपनी-अपनी बालकनी में
खड़े रह के
अपनी छोटी से छोटी
उंगली उठा के...
याद रहें,
हाथ की उंगली.
दाहिने हाथ की... बाए हाथ की नहीं.
छोटी से छोटी
उंगली उठा के
उस पर
संजीवनी परबत की कागज की प्रतिमा चिपकाएंगे.
कागज तो अपने घर में होता ही है,
नहीं है तो
अपने बच्चों की कापियां फाड़े
रद्दी में से निकाले,
कबाडी से उधार मांगे...
लेकिन संजीवनी परबत की छवि जरूर बनाए...
हमारी परंपरा में
संजीवनी परबत का बडा योगदान है,
अगर हम नहीं समझते
असली दवाई क्या है,
हम पूरे परबत को खोजेंगे
पूरे विश्व की छलांग लगाएंगे
जब तक हमें सही दवाई नहीं मिलती
हम सर्वश्रेष्ठ भक्त का जाप करेंगे
और उस वक्त
आठ मिनट के लिए
आप के हाथ में क्या होगा?
संजीवनी परबत !
सब देशवासियों के हाथ में क्या होगा?
एक संजीवनी परबत...
जरा सोचो मेरे मितरों
जिस रफ्तार से संकट बढ रहा है
क्या एक-एक टेस्टिंग किट से काम चलेगा?
नहीं चलेगा...
हमें दवाई का परबत चाहिए... परबत...
वो कौन लाएगा ?
हम लाएंगे,
सब साथ मिलकर लाएंगे !
कैसे लाएंगे?
आसान है....
अपनी-अपनी बालकनी में
अपनी-अपनी उंगली पर
एक कागज का संजीवनी परबत हमें उठाना है
ठीक आठ बजे...
आज लाइट चालू रखें
दुनिया को देखने दे
हमारे पास कितनी संजीवनी है...
दवाईयों के परबत है !
दुनिया आज हंसेगी
कल आपसे इस महान परंपरा का रहस्य पूछेगी.
हम जरूर बताएंगे
हमारा ज्ञान बांटने के लिए हैं,
छुपाने के लिए नहीं.
चलो विश्व को ज्ञान बांटते है
अपनी-अपनी बालकोनी को
विश्वविद्यालय बनाते हैं.
अपनी छोटी से छोटी उंगली का
सही इस्तेमाल करते हैं.
जगत के सर्वश्रेष्ठ भक्त का
उचित सम्मान करते हैं.
वो दिन दूर नहीं मितरों...
जब यहां सिर्फ दवाईयां ही दवाईयां होगी
और एक भी मरीज नहीं बचेगा !
जयहिंद !
गोबिन्द प्रसाद की पांच कविताएं
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में प्रोफेसर गोबिन्द प्रसाद की कविताएं बहुत गहरे जाकर अपना असर छोड़ती है. अपना मोर्चा डॉट कॉम के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनकी पांच कविताएं-
1. आने वाला दृश्य
आदमी पेड़ और कव्वे—
यह हमारी सदी का एक पुराना दृश्य रहा है
इसमें जो कुछ छूट गया है
मसलन पुरानी इमारतें, खण्डहरनुमा बुर्जियाँ और
किसी के इंतज़ार में झांकती टूटी हुई कोई मेहराब
शायद अब उन पर उल्लुओं और चमगादड़ों का क़ब्ज़ा हो गया है
हाँ, तो इस दृश्य में
कव्वों ने आदमी के साथ मिलकर
पेड़ काटने की साजिश की
पेड़ लगातार कट रहे हैं और आसमान
हमसे दूर बहुत दूर होता जा रहा है
अब कव्वों ने इनसानों के साथ रहना सीख लिया है
अब आदमी कव्वों से घिर गया है
घर में कव्वे, दफ़्तरों में कव्वे
सड़कों पर कव्वे, पार्क की बेंच पर—
जिधर देखो कव्वे ही कव्वे
कैसा लगेगा जब दुनिया का कारोबार
और कुछ लोगों का बाज़ार बंद हो जाएगा
और चले जाएंगे सब लोग
मुझे यक़ीन है तब भी कव्वे वहां दिखाई देंगे
अब पेड़ के बाद
दृश्य से आदमी भी ग़ायब हो गया है
आने वाला दृश्य सिर्फ़ और सिर्फ़ कव्वों का है
आदमी और पेड़ के बिना कव्वों का होना कैसा लगेगा
दोस्तों! पेड़ ज़रूर कट चुके हैं
लेकिन हारे नहीं हैं
वे नीचे गिरते भी हैं तो एक गरिमा के साथ
लेकिन अफ़सोस आदमी...
2. राजा बोला...
राजा बोला—
‘रात है’
मंत्री बोला— ‘रात है’
एक-एक कर फ़िर सभासदों की बारी आई
उबासी किसी ने, किसी ने ली अंगड़ाई
इसने, उसने— देखा-देखी फ़िर सबने बोला—
‘रात है...’
यह सुबह-सुबह की बात है...
3. लुटियन टीला
संसद की भाषा
आजकल खादी की भाषा बोलती है
वहां की हर कंकड़ी
अपने को
कमल-पत्र पर गिरी ओस की बूँद समझती है
तैंतीस गाँव के उजड़े हुए टीले पर
क़ब्ज़ा करके
वो समझते हैं कि
हिंदुस्तान की सरज़मीन के चारों तरफ़
ब्रह्माण्ड में उनकी तूती बोलती है
और...
और ख़ाकी रंग की जमाअत को गुमान है
कि वो देश के अन्तिम नागरिक को
इस ऊँचे टीले से वरदान बांटती है।
4. न्याय का व्याकरण
सड़क के बीचों-बीच
सुबह होने तक
क़ानून की ज़ुबान बोलने वाले घेर लेंगे
और एक एक कर
थोड़ी देर बाद सभी
अपने घर-दफ़्तरों या फिर
सिनेमाघरों के लिए (यूँ) चले जाएंगे
गोया मजमा ख़त्म हो गया हो!
क्या फ़र्क़ पड़ता है
सुबह की दुनिया को
कल रात हो गए हादसे से
क़ानून की ज़ुबान बोलने वालो
कायर, ...किराए के ट्टटूओं
हमें दिल की ज़ुबान बोलने दो
अपनी अक़्ल से सोचने के मौके दो
हमारी क़लम पर कुछ लोग सवार कर दिए गए हैं
आदिवासियों की ज़बान काट कर
वे हमें साक्षर करना चाहते हैं
हरिजनों के जिंदा जिस्मों को जलाकर
घरों में उजाला करने वाली ये क़ौम
हादसों का लिबास पहने
समाचारों की तरह घटती है आए दिन
सरकारी समाचारों का
इस से अधिक कोई महत्व होगा...
कि सुनने के बाद सिर्फ़ जानना चाहोगे
’ये समाचार किसने पढ़े!’
’उदघोषक कौन था! .... या वगैरह-वगैरह ।’
और कला पारखी जैसी उधार ली गई
दोयम दर्ज़े की ख़ामोशी में ख़ुद से कहोगे :
’उदघोषक का उच्चारण अच्छा था!’
उच्चारण की शुद्धता का खेल आख़िर कब तक चलेगा!
5. लड़कियों का अपना कोई घर...
लड़कियों का अपना कोई घर नहीं होता
लड़कियाँ इस घर से उस घर जाती हैं
लड़कियाँ अपने पिता के घर से
लड़के वालों के घर जाती हैं
ज़्यादा-से-ज़्यादा अपने पति के घर जाती हैं
चाहो तो उसे ससुराल कह लो
‘नाहक लाए गवनवा’ जैसी बातों का दर्द
अब समझ में आ रहा है
कि लडकियाँ बचपन ही से घर क्यों बनाती हैं
और, अकेले बंद कमरों में भी घर-घर क्यों खेलती हैं
और एक दिन
इसी खेल-खेल में वे अपने घर की नहीं
पराये घर की जीनत बनकर रह जाती हैं
इस घर से उस घर तक पहुँचने में ज़िंदगी
खेत-क्यार
न्यार-सानी,
चूल्हा-चौका, टूक-पानी
और शामें धुएँ की अनकही कहानी बनकर रह जाती हैं
बचपन का यही खेल
उम्र की आख़िरी साँस तक चलता है
कभी-कभी यह कहने को जी होता है
‘क्या लड़कियाँ भविष्य द्रष्टा होती हैं...!
संजय कुंदन, वासुकी प्रसाद उन्मत, अंजन कुमार, कमलेश्वर साहू और दिनकर शर्मा की कविताएं
- संजय कुंदन
1- यह सभ्यता
महामारी से नष्ट नहीं होगी यह सभ्यता
महायुद्धों से भी नहीं
यह नष्ट होगी अज्ञान के भार से
अज्ञान इतना ताकतवर हो गया था
कि अज्ञानी दिखना फैशन ही नहीं
जीने की जरूरी शर्त बन गया था
वैज्ञानिक अब बहुत कम वैज्ञानिक
दिखना चाहते थे
अर्थशास्त्री बहुत कम अर्थशास्त्री
दिखना चाहते थे
इतिहासकार बहुत कम इतिहासकार
कई पत्रकार डरे रहते थे
कि उन्हें बस पत्रकार ही
न समझ लिया जाए
वे सब मसखरे दिखना चाहते थे
हर आदमी आईने के सामने खड़ा
अपने भीतर एक मसखरा
खोज रहा था
इस कोशिश में एक आदमी
अपने दोस्तों के नाम भूल गया
एक को तो अपने गांव का ही नाम याद नहीं रहा
बुद्धि और विवेक को खतरनाक
जीवाणुओं और विषाणुओं की तरह
देखा जाता था
जो भयानक बीमारियां पैदा कर सकते थे
इसलिए गंभीर लोगों को देखते ही
नाक पर रूमाल रख लेने का चलन था
एक दिन अज्ञान सिर के ऊपर बहने लगेगा
तब उबरने की कोई तकनीक, कोई तरीका किसी
को याद नहीं आएगा
तब भी मसखरेपन से बाज नहीं आएंगे कुछ लोग
एक विद्रूप हास्य गूंजेगा
फिर अंतहीन सन्नाटा छा जाएगा.
2- तानाशाह की जीत
वो जो तानाशाह की पालकी उठाए
सबसे आगे चल रहा है
मेरे दूर के रिश्ते का भाई है
और जो पीछे-पीछे आ रहा है
मेरा निकटतम पड़ोसी है
वो वक्त-बेवक्त आया है मेरे काम
और जो आरती की थाल लिए चल रहा है
वह मेरा दोस्त है
जिसने हमेशा की है मेरी मदद
और जो कर रहा प्रशस्ति पाठ
वह मेरा सहकर्मी है मेरा शुभचिंतक
मैं उस तानाशाह से घृणा करता रहा
लानतें भेजता रहा उसके लिए
पर एक शब्द नहीं कह पाया
अपने इन लोगों के खिलाफ
ये इतने भले लगते थे कि
कभी संदिग्ध नहीं लगे
वे सुख-दुख में इस तरह साथ थे कि
कभी खतरनाक नहीं लगे
हम अपने लोगों के लालच को भांप नहीं पाते
उनके मन के झाड़-झंखाड़ की थाह नहीं ले पाते
उनके भीतर फन काढ़े बैठे क्रूरता की
फुफकार नहीं सुन पाते
इस तरह टल जाती है छोटी-छोटी लड़ाइयां
और जिसे हम बड़ी लड़ाई समझ रहे होते हैं
असल में वह एक आभासी युद्ध होता है
हमें लगता जरूर है कि हम लड़ रहे हैं
पर अक्सर बिना लड़े ही जंगल जीत लेता है हमारा दुश्मन ।
वासुकी प्रसाद उन्मत
1- उनमें शामिल नहीं हुआ
मैं उनमें शामिल नहीं हुआ
देखता रहा उनकी सामुदायिक कार्रवाई
अपील कम ,आदेश ज़्यादा था एक शातिर का
लोग अंधेरे की शक़्ल मे छा गए
अपनी पहचान गिनाने के लिए बुझा कर विज्ञान की बिजली
और सातवीं सदी के दौर मे हो गए शामिल
हाथों में दीए लिए.
उनकी आंखें मुझे भेद रही रही थीं
एक मसखरापन था वहां
मैंने उनके अंधेरे को चुनौती दी
विज्ञान की बिजली जलाए रख कर
उनके मन में गिर रहीं लाशें कहीं नहीं थीं,
वहां था उनके आक़ा का हांका
सो वो अपने स्तर पर हर कहीं हर हाल मे समर्थन देकर
कर रहे थे उसे आश्वस्त
वो ख़ुद अपने आक़ा की हैवानियत की जद मे थे
उनके भी परखचे उड़ रहे थे,
होश उड़ रहे थे
लाशों की बढ़ती तादात को लेकर
फिर भी वो मस्त थे,उनका आक़ा जीत गया
जीत गया एक सांकेतिक लड़ाई
असली लड़ाई के पहले.
कुमार अंजन
1-तानाशाह
तानाशाह
सबसे पहले चुनता है एक सम्बोधन
जैसे हिटलर ने चुना था फ्रेंड्स
फिर वह चुनता है वह स्थान
जो जनता की आस्था का केंद्र होता है
जैसे हिटलर ने चुना था म्यूनिख को
फिर वह चुनता है
अपना एक धार्मिक दुश्मन
जैसे हिटलर ने चुना था यहुदियों को
फिर वह चुनता है अपने हितचिंतकों को
जैसे हिटलर ने चुना था
चरम पूंजीपतियों को
फिर वह चुनता है
अपने सहयोगी को
जैसे हिटलर ने चुना था कार्पोरेट को
फिर वह बनाता है अपना संगठन
जैसे हिटलर ने बनाया था
मिलिशिया, यंग फासीवादी और नागरिक सेवा संगठन
फिर वह चुनता है अपनी विचारधारा
जैसे हिटलर ने चुना था राष्ट्रवाद
फिर वह
अपने सहयोगियों और संगठनों के माध्यम से
पहले बढ़ाता है जनता की आस्था
फिर उठाते हुए उसी का फायदा
फैलाता है अंधराष्ट्रवाद, अफवाहें, भय और नफ़रत
करवाता है अपने दुश्मनों की हत्याएं
अपने संगठन के हाथों
जैसे हिटलर ने करवायी थीं
यहुदियों, कम्युनिस्टों, लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों
और तमाम अपने विरोधियों की हत्याएं
क्योंकि विरोध से डरता है वह
इसीलिए वह कभी नहीं करता संवाद
किसी भी बात पर
पूछता नहीं किसी से
केवल जारी करता है फरमान
वह भी इस तरह से
कि उसका हर निर्णय लगता है जनता को
जैसे उनके हित के लिए है
वह झूठ को इस तरह कहता है बार-बार
की लोग उसे सच समझने लगते है
और करने लगते है उसका अनुशरण
इस तरह वह जनता की आँखों में
बांधकर अंधराष्ट्रवाद की पट्टी
भेड़ों की भीड़ में कर देता है तब्दील
और जब जैसे चाहे हांकता रहता है
फिर तोड़ देता उन तमाम
पुराने सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक ढांचों को
जो उसकी सत्ता में बाधक है
ध्वस्त कर सारे सार्वजनिक उपक्रमों को
कर देता है इजारेदारी पूंजी के हवाले
क्योंकि वह जनता का नहीं
होता है केवल चरम पूंजीपतियों का हितैषी
इस तरह एक दिन
लोकतंत्र की हत्या करके
वह सब पर कर लेता है कब्जा
और बन जाता है
सबसे प्रभुत्वशाली तानाशाह.
कमलेश्वर साहू
लौटना
उनका लौटना, लौटना नहीं था
भय था शासक का
वे सोचते हैं
उनके लौटने से
लौट जाएगा वायरस
और संक्रमण मुक्त हो जाएगा
उनका राज्य,
इस महा संक्रमण काल में लौटना उनका
लौटना नहीं था कतई
उन लौटने वालों के साथ
लौट रहे बच्चों को तो
यह भी नहीं था पता
कि क्यों लौट रहे हैं वे अचानक
लौट रहे हैं कहाँ
सिर पर लादे गठरी
कांधे पर थैला लटकाए
हालांकि लौट रहे थे वे
उनके लौटने में
शामिल नहीं थी उनकी इच्छा
पूछ रहे थे उन लौटते हुए लोगों के
लहूलुहान और फफोलों से भरे पांव
क्या लौटना ही नियति है हमारी
संकट की इस घड़ी में
क्या इस तरह लौटाया जाता है
क्या उनके न लौटने से
नाराज हो जाएगा वायरस
या उनके लौट जाने से
खत्म हो जाएगी यह महामारी
उनका लौटना पलायन नहीं था
काम की तलाश भी नहीं
काम की तलाश में ही तो आए थे वे
बहुत पहले यहां
जहां से लौटाया जा रहा है उन्हें
और बना भी लिए थे जैसे तैसे
दो वक्त की रोटी के जुगाड़
अब तक
भूल चुके थे लगभग
उस जगह को
जहां लौटाया जा रहा है उन्हें
धकेला जा रहा है
भविष्य के जिस अंधकार में
जिस अंधेरे भविष्य की ओर
लौटना नहीं था, लौटना उनका
अदेखे अरण्य की ओर हकाला जाना था
अचानक हो गए इतने बेगाने
इतने पराए
इस कदर अपरिचित
इतने अविश्वासी
इस हद तक अनुपयोगी
इस कदर अप्रासंगिक
कि अचानक रच दिया गया
इतना बड़ा नेपथ्य
उनका लौटना
पास-पड़ोस से लौटना नहीं था
नहीं था लौटना किसी यात्रा से
काम से लौटना तो कतई नहीं
स्कूल से लौटना नहीं था
बच्चों का लौटना,
उनका लौटना
किसी उम्मीद की ओर लौटना नहीं था
नहीं था अंधेरे से उजाले की ओर लौटना
किसी सुनहरे भविष्य की ओर लौटना तो
बिल्कुल भी नहीं
इस तरह लौटकर
नहीं लौट पाएंगे वे
जैसे लौट आते हैं
मौसम के बदलते ही
पेड़ पर हरे पत्ते
उनका लौटना
ग्रीष्म के बाद
वर्षा का लौटना नहीं था
नहीं था
किसी प्रेम कहानी का
समय को लांघकर
लौटना वर्तमान में
लौटाते हुए
यह भी नहीं सोचा उन्होंने
कि उनके लौटने से
लौटा दिए गए स्थल पर
कब तक खिला रहेगा उनका श्रम
उनके श्रम से खिली हुई दुनिया
आखिर कब तक रहेगी खिली हुई, तरोताजा
जो लौट रहे हैं
उनके साथ लौट रहा है उनका श्रम
उनका हुनर
श्रमशील हुनरमंद हाथ लौट रहे हैं
शायद हमेशा के लिए
जिन्हें नहीं थी उम्मीद
कि इस तरह भी लौटाया जाएगा उन्हें
एक दिन
उनका लौटना
उनका लौटना नहीं था
उनके श्रम और हुनर का लौटना था
उनके लौटने से
लौटाने वालों की दुनिया में
बदरंगी, बदहाली और अंधेरे का लौटना था
जिसे शायद देख नहीं पा रहे हैं वे
इस आपाधापी में
उनके लौटने में खुशी नहीं थी
वे यह कहकर नहीं लौट रहे थे
हाथ हिलाते हुए-
आप निश्चिंत रहिए
कुछ ही दिनों में लौटता हूँ ना !
दिनकर शर्मा
नायक
कान खोलो अपनी !
और, मैं जो कहता हूँ वो करो ।
बग़ैर सवाल के करो ।
चुपचाप करो ।
सिर्फ करो ।
जानता हूँ, अनगिनत मौतें हुई हैं
जानता हूँ, दिल दहलाने वाली बातें हुईं हैं
पर मैं कहता हूँ, हँसो !
अनगिनत दुख पर हँसो ।
अनगिनत चीख़ पर हँसो ।
और हो सके तो,
अनगिनत मौत पर भी हँसो ।
मैं जो कहता हूँ वो करो ।
बग़ैर सवाल के करो ।
चुपचाप करो ।
अगर हंँसने में तकलीफ है,
तो हौले से हँसो ।
आदत नही है हंसने की,
तो आदत बनाकर हँसो ।
सुर में हंसते हो, तो सुर में हँसो ।
बेसुरे हो तो, बे-सुर हँसो ।
मैं जो कहता हूँ वो करो ।
बग़ैर सवाल के करो ।
चुपचाप करो ।
दुख पर तुम्हें हावी होना है,
इसलिए हँसो ।
हर ग़म पे तुम्हें राजी होना है,
इसलिए हँसो ।
इन चीखों में , चिल्लाहटों में,
एक डर छुपा है माना ,
इस डर से तुम्हें बिल्कुल पार होना है,
इसलिए हँसो ।
मैं जो कहता हूँ वो करो ।
बग़ैर सवाल के करो ।
चुपचाप करो ।
तुम बिलख-बिलख कर रोने न लगो,
तब तक हँसो ।
जब तक चीखें निःशब्द नही हो जाती,
तब तक हँसो ।
रोने की पराकाष्ठा तक, रोते बिलखते चिल्लाते हुए भी,
जब तक मातम उत्सव में बदल न जाये
तब तक हँसो ।
लेकिन हँसो ।
खूब हँसो ।
जोर जोर से हँसो ।
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नथमल शर्मा की तीन कविताएं
चिड़िया
देखो बहेलिया
फिर आया है
और
दाना डाल कर
जाल बिछाया है
पर इस बार तुम
दाने के लालच में न आओ
और
सारा का सारा
जाल लेकर ही उड़ जाओ ।
सफर
चारों तरफ हरियाली
झरनों के बहने का शोर
दूर तक दिखता
बेहद साफ़ चमकता रास्ता
पर सारा रास्ता
और सारा जंगल बिलकुल सूनसान
ख़त्म हो चुके
जानवरों के अस्थि पंजर
पांवों के निशान
छोड़ते चले जा रहा था इंसान
यह रास्ता कहां जाता है ?
इस प्यारी दुनिया में मगर
एक दिन जब
इस बहुत प्यारी दुनिया में
बहुत प्यार करने वाले
नहीं रह जाएंगे
तब तुम करोगे क्या
प्यार करने की बात
और प्यार न करने की चिंता
मित्र रामकुमार की बात
जल में मगर के डर से
ज़्यादा भयावह है
जल में मगर के न होने का डर
कहते तो ठीक है
मित्र रामकुमार
लेकिन सच कहना
अब जल में मगर से
डरते हैं क्या लोग ?
अब तो लोग खुद ही
मगर के और ज़्यादा
करीब हो गए हैं
और
दोस्ती के स्वांग से
शुरू हुई दोस्ती को ही
दोस्ती मान बैठे हैं
पर
स्वांग तो कुछ देर ही सुहाता है
और फ़िर
दोस्ती का स्वांग करने वाले
ये क्यों भूल रहे हैं कि
मगर भी तो
भूलने का स्वांग कर सकता है
यानी
मित्र रामकुमार के
मगर के न होने के डर के साथ ही
चिंता अब मगर को
पहचानने की भी है ।
- नथमल शर्मा ( यहां प्रस्तुत कविताएं उनके संग्रह "उसकी आंखों में समुद्र ढूंढता रहा " से )
-सप्रतिः बिलासपुर मोबाइल- 9617166655
अंधेरे में जो बैठे हैं, नज़र उन पर भी कुछ डालो अरे ओ रोशनी वालों
अंधेरे में जो बैठे हैं, नज़र उन पर भी कुछ डालो
अरे ओ रोशनी वालों
बुरे हम हैं नहीं इतने, ज़रा देखो हमें भालो
अरे ओ रोशनी वालों ...
कफ़न से ओढ़ कर बैठे हैं, हम सपनों की लाशों को
जो किस्मत ने दिखाए, देखते हैं उन तमाशों को
हमें नफ़रत से मत देखो, ज़रा हम पर रहम खालो
अरे ओ रोशनी वालों ...
हमारे भी थे कुछ साथी, हमारे भी थे कुछ सपने
सभी वो राह में छूटे, वो सब रूठे जो थे अपने
जो रोते हैं कई दिन से, ज़रा उनको भी समझा लो
अरे ओ रोशनी वालों ...
गीतकार- प्रदीप
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट
गोली खाकर
एक के मुंह से निकला-
'राम'।
दूसरे के मुंह से निकला-
'माओ'
लेकिन
तीसरे के मुंह से निकला-
'आलू'
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है
कि पहले दो के पेट
भरे हुए थे.
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना