साहित्य

लॉकडाउन में लेखक

लॉकडाउन में लेखक

सुधीर विद्यार्थी

लेखक और लॉकडाउन का पुराना संबंध है। यह न हो तो रचना की उत्पत्ति संभव नहीं। श्रेष्ठ साहित्य का जन्म हमेशा लॉकडाउन की स्थिति में ही होता है। जेल के भीतर रहकर दुनिया भर के रचनाकारों ने उत्कृष्ट और कालजयी रचनाओं को कागज पर उतारने में सफलता प्राप्त की है। कोरोना समय लेखकों और कवियों के लिए वरदान सरीखा है। हर रोज नई-नई कविताएं, दोहे, गीत और ग़ज़लों का जन्म हो रहा है। कहानियां और उपन्यास लिखे जा रहे हैं। रचनाकार खुश हैं। फेसबुक पर हलचलें है। मौसम त्योहार सरीखा हो गया है। सुखानुभूति की गंगा बहने लगी है। लॉकडाउन अगर कुछ दिन और रहा तो हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि में जल्दी ही चार चांद लग जाएंगे। यह हिंदी भाषा के इतिहास का स्वर्णिम कोरोना काल है। प्रकाशक चाहें, तो सिर्फ कोरोना के इस दौर की रचनाओं पर अनेक तरह के आयोजन-समारोह किए जा सकते हैं। रचनावलियां छप सकती हैं। विमोचन-अभिनंदन सम्पन्न हो सकते हैं। लग रहा है कि कोरोना समय में रचनात्मकता का भयंकर विस्फोट हुआ है। जो लेखक अनुर्वर थे वे भी इन दिनों गंभीर रूप से सृजनरत हैं।  इस वैश्विक महामारी ने कलमकारों को नई संजीवनी सौंप दी है। इधर कोरोना संक्रमित मरीजों और उससे मरने वालों की गिनती में इजाफा हो रहा है तो दूसरी ओर कविताएं उमंग भरी उछालें मार रही हैं। व्यंग्य बरस रहा है। दोहे और ग़ज़लें फूट रही हैं।

रंगकर्म की दुनिया में कवारंटाइन थियेटर फेस्टिवल का भी आगाज़ हो चुका है। कुछ भी रूका और ठहरा नहीं है। कविता फेसबुक पर ऑनलाइन है। सदी की कविताका पाठ होने लग गया है जिसमें जीवित कवि अपना नाम और मुकाम तलाश कर रहे हैं। इस कोरोना समय में जिनके लिए रचनाकर्म संभव नहीं है वे अपना समय रसोईघर में नई-नई रेसिपी तैयार करने में लगा रहे हैं। ऐसा करते हुए जनवादी उम्रदराज रचनाकारों के चेहरे पर भी नवसृजन का भाव तैर रहा है। वे लाइव कबाब बनाते हुए अपनी वॉल पर दिखाई दे रहे हैं। अगले दिन वहां छोले-भटूरे की तस्वीर चस्पां होती हैं और फिर इतराते हुएचखनाकी भरी-पूरी प्लेटों के बाद अपने हाथों से पहली बार बनाया चिकन विद कर्डनज़र आने लगता है। यही सचमुच का रचनाकर्म है। 

मैं इन दिनों खामोश हूं। लगभग सन्नाटे में। कुछ लिखा नहीं जा रहा। मि़त्र पूछते हैं--भई, कुछ रच नहीं रहे।

इस कठिन समय में क्या रचा जा सकता है जबकि पूरी दुनिया पर अस्तित्व संकट है। गरीब कोरोना और भूख दोनों से मर रहा है... मैं धीरे-से कहता हूं।

कठिन दौर रचनात्मकता के लिए बहुत मौजूं भी होता है। आप लॉकडाउन का जमकर उपयोग करिए। कुछ लिखिए। इतिहास बनाइए। यह नहीं करेंगे तो समय आपको माफ नहीं करेगा... मित्र प्रवचन के मूड में आ जाते हैं।

उनके सुझाव पर मैं कागज-कलम उठाता हूं। तभी दिल्ली से अपने शहर आते हुए रास्ते में मजदूरों के झुंड मेरा पीछा करने लगते हैं। उनके सिर पर बोझा है। औरतों की गोद में दुधमुंहे बच्चे हैं। कोई एक पैर से अशक्त आदमी मेरी ओर देखता है और मैं विचलित हो जाता हूं। मैं कार नहीं रोकता। दृश्य  पीछे चला जाता है। मन में आई कविता का सिरा भी गोया हाथ से छूट जाता है। भीतर उपजी संवेदना ज्यादा देर ठहर नहीं पाती। वह तोड़ती पत्थरके कवि से मैं माफी मांग लेता हूं। अब अंदर कहीं ग़़ज़ल का एक शेर कुलबुलाता है तभी उस बच्ची का मुरझाया चेहरा आंखों के सामने क्रंदन करने लगता है जो सौ मील पैदल चलते हुए थकान और भूख से दम तोड़ देती है। मेरी शायरी बेदम हो जाती है। एक गीत फूटने को होता है कि आंचल में है दूधवाली कविता के शब्द मेरे सामने सिर के बल खड़े हो जाते हैं। उस नवप्रसूता को कई दिनों बाद आज थोड़ा चावल खाने को नसीब हुआ है। उसके स्तनों में दूध नहीं उतारता जिसे वह जन्मे शिशु को पिला सके। उसके आंचल से दूध लापता है और आंखों का पानी दुःखों के ताप से वाष्प में तब्दील हो गया है।

कवि ही मजदूर पर कविता लिखता है। किसान पर रचना करता है। बेघरों को शब्दों की छत सौंपता है। गरीब कभी अपने भोगे हुए यथार्थ को नहीं रचता। उसके भीतर विचार आते हैं। कोरोना त्रासदी को भी वह अपने शरीर की रूखी त्वचा और बुझे मन पर दर्ज कर रहा है। क्या सचमुच पढ़ेंगे उसे हम ?

मित्र मेरी बात पर खिन्न हो जाते हैं, तो क्या हम भी भूखों मरें ? वे जोर देकर मुझसे कहते हैं--भूखा आदमी चिल्लाता ज्यादा है।

हां, खाली पेट ढोल की तरह बजता है--मैं धीरे-से बुदबुदाता हूं।

पर मित्र इस बेहद कठिन और डरावने समय मे मैं लिख नहीं सकता। मेरे घर से थोड़ी दूर पर अभावों और दुर्दिनों का घना जंगल है जहां से उठती सायं-सायं की आवाज मेरी कलम को भोंथरा कर देती है।

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