साहित्य

गोबिन्द प्रसाद की पांच कविताएं

गोबिन्द प्रसाद की पांच कविताएं

जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में प्रोफेसर गोबिन्द प्रसाद की कविताएं बहुत गहरे जाकर अपना असर छोड़ती है. अपना मोर्चा डॉट कॉम के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनकी पांच कविताएं-

 

1. आने वाला दृश्य

 

आदमी पेड़ और कव्वे—

यह हमारी सदी का एक पुराना दृश्य रहा है

इसमें जो कुछ छूट गया है

मसलन पुरानी इमारतें, खण्डहरनुमा बुर्जियाँ और

किसी के इंतज़ार में झांकती टूटी हुई कोई मेहराब

शायद अब उन पर उल्लुओं और चमगादड़ों का क़ब्ज़ा हो गया है

 

हाँ, तो इस दृश्य में

कव्वों ने आदमी के साथ मिलकर

पेड़ काटने की साजिश की

पेड़ लगातार कट रहे हैं और आसमान

हमसे दूर बहुत दूर होता जा रहा है

 

अब कव्वों ने इनसानों के साथ रहना सीख लिया है

अब आदमी कव्वों से घिर गया है

घर में कव्वे, दफ़्तरों में कव्वे

सड़कों पर कव्वे, पार्क की बेंच पर—

जिधर देखो कव्वे ही कव्वे

 

कैसा लगेगा जब दुनिया का कारोबार

और कुछ लोगों का बाज़ार बंद हो जाएगा

और चले जाएंगे सब लोग

मुझे यक़ीन है तब भी कव्वे वहां दिखाई देंगे

 

अब पेड़ के बाद

दृश्य से आदमी भी ग़ायब हो गया है

आने वाला दृश्य सिर्फ़ और सिर्फ़ कव्वों का है

आदमी और पेड़ के बिना कव्वों का होना कैसा लगेगा

 

दोस्तों! पेड़ ज़रूर कट चुके हैं

लेकिन हारे नहीं हैं

वे नीचे गिरते भी हैं तो एक गरिमा के साथ

लेकिन अफ़सोस आदमी...

 

2. राजा बोला...

 

राजा बोला—

‘रात है’

मंत्री बोला— ‘रात है’

एक-एक कर फ़िर सभासदों की बारी आई

उबासी किसी ने, किसी ने ली अंगड़ाई

इसने, उसने— देखा-देखी फ़िर सबने बोला—

‘रात है...’

यह सुबह-सुबह की बात है...

 

3. लुटियन टीला

 

संसद की भाषा

आजकल खादी की भाषा बोलती है

वहां की हर कंकड़ी

अपने को

कमल-पत्र पर गिरी ओस की बूँद समझती है

 

तैंतीस गाँव के उजड़े हुए टीले पर

क़ब्ज़ा करके

वो समझते हैं कि

हिंदुस्तान की सरज़मीन के चारों तरफ़

ब्रह्माण्ड में उनकी तूती बोलती है

और...

और ख़ाकी रंग की जमाअत को गुमान है

कि वो देश के अन्तिम नागरिक को

इस ऊँचे टीले से वरदान बांटती है।

 

4. न्याय का व्याकरण

 

सड़क के बीचों-बीच
सुबह होने तक
क़ानून की ज़ुबान बोलने वाले घेर लेंगे
और एक एक कर
थोड़ी देर बाद सभी
अपने घर-दफ़्तरों या फिर
सिनेमाघरों के लिए (यूँ) चले जाएंगे
गोया मजमा ख़त्म हो गया हो!

क्या फ़र्क़ पड़ता है
सुबह की दुनिया को
कल रात हो गए हादसे से

क़ानून की ज़ुबान बोलने वालो
कायर, ...किराए के ट्टटूओं
हमें दिल की ज़ुबान बोलने दो
अपनी अक़्ल से सोचने के मौके दो

हमारी क़लम पर कुछ लोग सवार कर दिए गए हैं

आदिवासियों की ज़बान काट कर
वे हमें साक्षर करना चाहते हैं
हरिजनों के जिंदा जिस्मों को जलाकर
घरों में उजाला करने वाली ये क़ौम
हादसों का लिबास पहने
समाचारों की तरह घटती है आए दिन
सरकारी समाचारों का
इस से अधिक कोई महत्व होगा...
कि सुनने के बाद सिर्फ़ जानना चाहोगे

’ये समाचार किसने पढ़े!’
’उदघोषक कौन था! .... या वगैरह-वगैरह ।’

और कला पारखी जैसी उधार ली गई
दोयम दर्ज़े की ख़ामोशी में ख़ुद से कहोगे :
’उदघोषक का उच्चारण अच्छा था!’

उच्चारण की शुद्धता का खेल आख़िर कब तक चलेगा!

 

5. लड़कियों का अपना कोई घर...

 

लड़कियों का अपना कोई घर नहीं होता

लड़कियाँ इस घर से उस घर जाती हैं

लड़कियाँ अपने पिता के घर से

लड़के वालों के घर जाती हैं

ज़्यादा-से-ज़्यादा अपने पति के घर जाती हैं

चाहो तो उसे ससुराल कह लो

‘नाहक लाए गवनवा’ जैसी बातों का दर्द

अब समझ में आ रहा है

कि लडकियाँ बचपन ही से घर क्यों बनाती हैं

और, अकेले बंद कमरों में भी घर-घर क्यों खेलती हैं

और एक दिन

इसी खेल-खेल में वे अपने घर की नहीं

पराये घर की जीनत बनकर रह जाती हैं

 

इस घर से उस घर तक पहुँचने में ज़िंदगी

खेत-क्यार

न्यार-सानी,

चूल्हा-चौका, टूक-पानी

और शामें धुएँ की अनकही कहानी बनकर रह जाती हैं

 

बचपन का यही खेल

उम्र की आख़िरी साँस तक चलता है

कभी-कभी यह कहने को जी होता है

‘क्या लड़कियाँ भविष्य द्रष्टा होती हैं...!

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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