साहित्य

देश के नामचीन कथाकार मनोज रुपड़ा की दो जबरदस्त कविता

देश के नामचीन कथाकार मनोज रुपड़ा की दो जबरदस्त कविता

देश के नामचीन कथाकार मनोज रुपड़ा की दो कविता अपना मोर्चा के पाठकों के लिए प्रस्तुत है.

 फिलहाल नागपुर में निवासरत मनोज रुपड़ा का नंबर है- 9823434231

 

 

1- एक बार सोचना चाहिए 


जब तकलीफ़ें बहुत बढ़ जाए
तब हमें रोना चाहिए
लेकिन अपने आप से थोड़ा बाहर निकलकर
तब ये लगता है कि हम
अपनी तकलीफ के लिए नहीं,
किसी और की तकलीफ़ों के लिये रो रहे हैं.

अपने गुमसुम खयालात से ज़िंदगी की

हलचल की तरफ़  बढ़ो

तो लगता है ,
किसी ने हमें अपने आगोश में ले लिया है.

फिर रुलाई के दूसरे दौर में
हमारी बांहें खुल जाती है
और वो आंखें भी ,
जो चीज़ों को वक़्त के साथ देखती है.

वे सब चीजें  ,
जो आपस में एक – दूसरे से जुड़ी हैं
और एक दूसरे से अलग है
इन सब चीज़ों को
अपने आगोश में लेकर देखना चाहिए
वे जायज़ हो या न हों
वाज़िब हों या  न हों
उन्हें अपने सीने से लगाए रखना चाहिए
हो सकता है कुछ चीजों से तुम्हारे दामन में दाग लग जाए
मगर बिना कुछ सोचे- समझे
उन चीज़ों से प्यार करना चाहिए

बहुत सी चीजें हैं
बहुत से लोग हैं
जरूरी नहीं कि सब के सब सभ्य हों
जरुरी नहीं कि सब के सब सदाचारी हों
इन में से कुछ अक्षम्य रूप से गंदे होंगे
कुछ छिछोरे छिनेरे और बदमाश 
कुछ नशेड़ी हरामखोर और कमीने
कुछ लुच्चे – लफंगे और फूहड़ ;
स्त्रियां भी संभवत;
वैश्यालु  ,धोखेबाज़ और धूर्त हों
लेकिन जरूरी नहीं है
कि जो बदनाम है
वह पापी भी हो
जरूरी नहीं है
कि जिसने पाप किया है
वह दुष्ट भी हो
जिस धरातल पर
वे सब के सब खड़े खडे हैं ,
उस धरातल को भी एक बार  बार देखना चाहिए

जो उस धरातल पर खड़े है
उन्हें जनता समझने की भूल न करें
वह लंपटों का एक नारकीय,जड़हीन और आकृतिहीन समुदाय है
किसी भी तरह की निष्ठा में असमर्थ
किसी भी तरह के ज्ञान और श्रम का शत्रु
वे दलित हैं न सवर्ण
हिन्दू हैं न मुसलमान
जात-पात और मज़हबी दायरे से बाहर
इतने बेहिस
कि किसी भी तरह की सियासती हवस
उन्हें निगल नहीं सकती
वे पहले बीमार फटेहाल और पागल थे ,
जो तलछटी गाद में बिलबिला रहे थे
और अब खुले में आ रहे हैं
वे लूट पाट करेंगे
छीना झपटी करेंगे
चोरी  और उठाईगिरी करेंगे
भौतिक वस्तुओं के कबाड़खानों
और डम्पिंग यार्डों में घुस कर संभोग करेंगे
चूहों की तरह बच्चे पैदा करेंगे
हर तरह के हरामों- नाजायज़ को अपना हक समझेंगे
प्रशासन कांटेदार बाड़ों  के पीछे
इस महामारी को रोक नहीं सकता
इन्हें सिर्फ़ लुच्चे लफ़ंगे समझने की भूल न करें
यह एक रिज़र्व प्रेत आर्मी है
वीभत्स …. विकराल .... और विधर्मी ....

थूक घृणा का सबसे साफ़ समझ में आने वाला प्रतीक है
लेकिन उन पर थूकने से पहले सोचना चाहिए
कि तुम्हारे थूक में
मान्यता प्राप्त सामाजिक नैतिकता की मिलावट तो नहीं है ?

सोचने की और भी वजहें हो सकती है
जहरीले रसायनों
और रेडिएशन से दूषित इस पृथ्वी में
और भी कई पाप हैं
एन्थ्रेक्स बम
परमाणु बम
 डिपथीरिया और नापाल्म बम की विध्वंसक शक्तियों के साथ 
किन महाशक्तियों के अनैतिक संबंध हैं ?
खनिजों को हथियाना अगर कोई अपराध नहीं है 
तो किसी जरूरतमंद जेबकतरे 
और मालगाड़ी से कोयला चुराने वाले को 
क्यो जेल में डाला जाए ? 


किसी वेश्या को सुधारगृह में डालने से पहले
जरा उस महावेश्या  की मटकती चाल को भी देखिए 
जो संस्थानों के गलियारों में  
केटवाक  कर रही है  रही है 
जो अपने रक्तरंजित होंठों से
किसी घोटालेबाज़ का मुंह चूमती  है
जिसकी जांघों के बीच से
मुक्तव्यापार  का द्वार खुलता है
विक्षोभ से भरे भूगर्भ पर खड़ी  होकर
धर्म और राजनीति के बीच
जो नंगी नाच रही है ,
एक बार उसके बारे में भी सोचना चाहिए.

हर बार सिर्फ़ विधर्मियों पर नहीं
धर्म और राज्य पर भी थूकना चाहिए



2- चेहरे के भाव 


‘’ क्या हाल है ‘’ पूछे जाने पर
‘’ सब ठीक है ‘’ कहने का चलन है
चेहरे पर चाहे कितनी भी सरल मुस्कुराहट हो
लेकिन हर बार ‘’ सब ठीक है ‘’ का मतलब
सब कुछ ठीक है नहीं होता

ख़ुश होना और खुशमिजाज़ दिखना
दोनों अलग अलग चीजें हैं
अदाकारी एक दोधारी तलवार है 
अगर तुम जैसे हो वैसे दिखना नहीं चाहते 
तो तुम्हें तलवार की धार पर चलना पड़ेगा 


अगर कोई सीटी बजाते हुए 
किसी धांसू धुन पर थिरक रहा हो 
तो ये मत समझ लेना 
कि वह बहुत खुश है 
अगर कोई अपना दुख- दर्द या ड़र छुपाने के लिए 
नार्मल होने की एक्टिंग कर रहा हो 
तो उसे ये अहसास  मत  दिलाना 
कि तुम खराब अभिनेता हो 
उसकी बजाय 
तुम इस बात पर गौर कर सकते हो 
कि वह किन वजहों से 
अपने चेहरे के भाव छुपा नहीं पाया. 

एक न एक दिन 
हर किसी को अभिनेता बनना पड़ेगा 
हमारे पुरखे हमलावरों से 
अपनी जरूरी चीजें छुपना जानते थे 
हमें भी चेहरे के भाव छुपाना आना चाहिए


हमारे पुरखे मुखौटेबाज़  थे
वे एकायामी नहीं थे 
जब भी उन्हें एकाकार करने की साज़िश रची जाती थी 
वे बहुरूपिए बन जाते थे.


वे यह जानते थे 
कि विदूषक बनकर
कला और जीवन की सरहद पर
नृत्य करना क्यों जरूरी है
वे जानते थे कि
खुद हंसी का पात्र बनकर
किसी निरंकुश गंभीरता को कैसे खंडित किया जा सकता है  
चालाकी पूर्वक फैलाये गए 
किसी आधिकारिक झूठ को 
झूठ-मूठ के किस्सों में उलझाकर 
उसका वास्तविक अर्थ निकालना भी 
वे अच्छी तरह जानते थे.


हमें खुद पर हँसना 
मुखौटे बनाना 
और किस्से गढ़ना आना चाहिए 
किसी ‘’ आधार ‘’ से अपनी पहचान जोड़ने 
और उसे अपना लेने से पहले 
ख़ुद को पहचानना आना चाहिए  

अब वो समय गया
जब एक कंट्रोल टावर केंद्र में होता था
और टावर में मौजूद पहरेदार
चारों और वृत्त में बनी कोठरियों पर निगाह रखता था
कोठरियों में क़ैद हमारे पुरखे
उसे देख नहीं पाते थे
लेकिन उन्हें आभास होता था
कि ‘’ वो ‘’ कहां देख रहा है

नई ताकतों ने 
एक ऐसा क़ैद खाना बनाया है
जिसमें न कोठरियां है न कंट्रोल टावर
हम सीसीटीवी कैमरे की निगरानी में हैं
एक अज्ञात फेस रीडर सब को देख रहा है
हमें भी ‘’ उसे ‘’
बिना देखे

देखनाआना चाहिए.


 

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