साहित्य
एकता नाहर की कविता- सपाट सीने वाली लड़कियां
मध्यप्रदेश के दतिया जिले की रहने वाली एकता नाहर पत्रकारिता और लेखन से जुड़ी हुई हैं. उनका एक कविता संग्रह ‘सूली पर समाज’ आ चुका है. उनकी कविता- सपाट सीने वाली लड़कियां.... सोशल मीडिया पर जमकर वायरल हो रही है. यह कविता मरद नामक जात पर करारा तमाचा है.
सपाट सीने वाली लड़कियां हर जगह से ठुकराई गयीं
रिश्ते की बात करने आए लड़के वालों ने
जब नजर भर के उसे देखा तो फिर
उसका कोई और हुनर मायने न रहा
पुलिस की नौकरी में आवेदन करने से भी,
लोक सेवा आयोग ने शर्तों में लिखा है
कि कितने इंच का होना चाहिए सीना
किसी चित्रकार ने अपने खूबसूरत चित्रों में
जगह नहीं दी उस स्त्री को
जिसके सीने पे उभार न था
चित्र बनाने के लिए सुडौल शरीर का बिम्ब सबसे आकर्षक था.
आए दिन देखा तिरस्कार
सहेलियों की बातों में, पति की नज़रों में
अंतरंग क्षणों में भी वो प्रेमी के सामने सहमी-सहमी सी रही
कभी खुद को ही आइने में देख हुई शर्मिंदा
कभी पैडेड ब्रा में छिपाती रही खुद से खुद को ही
उसके लिए छाती पर दुपट्टा डालना
भरे बदन वाली लड़की जितना ही जरूरी था
ताकि वो बचा सके खुद को उस पर हंसती हुई लालची नज़रों से
हां...भरे बदन का मतलब भरी हुई छातियों से ही है शायद.
ये लोग नहीं कर सके उन्हें पूरा प्रेम
लेकिन इन सबने चुटकुले बना कर हंसा उन पर खूब
क्योंकि हम बड़े हुनर बाज हैं
हर चीज को अपने चुटकुलों में जगह देते हैं.
चाय पर शत्रु सैनिक... कविता लिखकर हलचल मचा देने वाले युवा कवि विहाग को दिया जाएगा भारत भूषण पुरस्कार
नई दिल्ली. युवा कवि विहाग वैभव को वर्ष 2018 का भारत भूषण पुरस्कार देने की घोषणा हुई है. तारसप्तक के कवि भारत भूषण की स्मृति में दिया जाने वाला यह पुरस्कार वाराणसी के युवा कवि विहाग वैभव को 'तद्भव' पत्रिका में प्रकाशित उनकी कविता 'चाय पर शत्रु-सैनिक' के लिए दिया गया है. इस बार निर्णायक प्रसिद्ध कवि अरूण कमल थे. कहते हैं कि चाय की ईज़ाद एक बौद्ध संत ने की थी. बौद्ध यानी अहिंसा का धर्म. जीवन-राग को बढ़ाने, उसमें मिठास घोलने में चाय महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, लेकिन यह भी सत्य है कि चाय पर चर्चा कूटनीति और राजनीति का एक हथियार भी है. कवि विहाग वैभव ने शत्रु खेमे में घुसकर जिस तरह चाय को 'अमन-राग' में बदला है उस वजह से कविता बेहद महत्वपूर्ण हो गई है. आइए यहां उनकी कविता पढ़ते हैं-
चाय पर शत्रु सैनिक
उस शाम हमारे बीच किसी युद्ध का रिश्ता नही था
मैनें उसे पुकार दिया –
आओ भीतर चले आओ बेधड़क
अपनी बंदूक और असलहे वहीं बाहर रख दो
आस-पड़ोस के बच्चे खेलेंगे उससे
यह बंदूकों के भविष्य के लिए अच्छा होगा
वह एक बहादुर सैनिक की तरह
मेरे सामने की कुर्सी पर आ बैठा
और मेरे आग्रह पर होंठों को चाय का स्वाद भेंट किया
मैंने कहा –
कहो कहाँ से शुरुआत करें ?
उसने एक गहरी साँस ली , जैसे वह बेहद थका हुआ हो
और बोला – उसके बारे में कुछ बताओ
मैंनें उसके चेहरे पर एक भय लटका हुआ पाया
पर नजरअंदाज किया और बोला –
उसका नाम समसारा है
उसकी बातें मजबूत इरादों से भरी होती हैं
उसकी आँखों में महान करुणा का अथाह जल छलकता रहता है
जब भी मैं उसे देखता हूँ
मुझे अपने पेशे से घृणा होने लगती है
वह जिंदगी के हर लम्हे में इतनी मुलायम होती है कि
जब भी धूप भरी छत पर वह निकल जाती है नंगे पाँव
तो सूरज को गुदगुदी होने लगती है
धूप खिलखिलाने लगती है
वह दुनिया की सबसे खूबसूरत पत्नियों में से एक है
मैंने उससे पलट पूछा
और तुम्हारी अपनी के बारे में कुछ बताओ ..
वह अचकचा-सा गया और उदास भी हुआ
उसने कुछ शब्दों को जोड़ने की कोशिश की –
मैं उसका नाम नहीं लेना चाहता
वह बेहद बेहूदा औरत है , और बदचलन भी
जीवन का दूसरा युद्ध जीतकर जब मैं घर लौटा था
तब मैंने पाया कि मैं उसे हार गया हूँ
वह किसी अनजाने मर्द की बाँहों में थी
यह दृश्य देखकर मेरे जंग के घाव में अचानक दर्द उठने लगा
मैं हारा हुआ और हताश महसूस करने लगा
मेरी आत्मा किसी अदृश्य आग में झुलसने लगी
युद्ध अचानक मुझे अच्छा लगने लगा था
मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा और और बोला –
नहीं मेरे दुश्मन ऐसे तो ठीक नहीं है
ऐसे तो वह बदचलन नहीं हो जाती
जैसे तुम्हारे सैनिक होने के लिए युद्ध जरूरी है
वैसे ही उसके स्त्री होने के लिए वह अनजाना लड़का
उसने मेरे तर्क के आगे समर्पण कर दिया
और किसी भारी दुख में सिर झुका दिया
मैंने विषय बदल दिया ताकि उसके सीने में
जो एक जहरीली गोली अभी घुसी है
उसकी कोई काट मिले –
मैं तो विकल्पहीनता की राह चलते यहाँ पहुँचा
पर तुम सैनिक कैसे बने ?
क्या तुम बचपन से देशभक्त थे ?
वह इस मुलाकात में पहली बार हँसा
मेरे इस देशभक्त वाले प्रश्न पर
और स्मृतियों को टटोलते हुए बोला –
मैं एक रोज भूख से बेहाल अपने शहर में भटक रहा था
तभी उधर से कुछ सिपाही गुजरे
उन्होंने मुझे कुछ अच्छे खाने और पहनने का लालच दिया
और अपने साथ उठा ले गए
उन्होंने मुझे हत्या करने का प्रशिक्षण दिया
हत्यारा बनाया
हमला करने का प्रशिक्षण दिया
आततायी बनाया
उन्होंने बताया कि कैसे मैं तुम्हारे जैसे दुश्मनों का सिर
उनके धड़ से उतार लूँ
पर मेरा मन दया और करुणा से न भरने पाए
उन्होंने मेरे चेहरे पर खून पोत दिया
कहा कि यही तुम्हारी आत्मा का रंग है
मेरे कानों में हृदयविदारक चीख भर दी
कहा कि यही तुम्हारे कर्तव्यों की आवाज है
मेरी पुतलियों पर टाँग दी लाशों से पटी युद्ध-भूमि
और कहा कि यही तुम्हारी आँखों का आदर्श दृश्य है
उन्होंने मुझे क्रूर होने में ही मेरे अस्तित्व की जानकारी दी
यह सब कहते हुए वह लगभग रो रहा था
आवाज में संयम लाते हुए उसने मुझसे पूछा –
और तुम किसके लिए लड़ते हो ?
मैं इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था
पर खुद को स्थिर और मजबूत करते हुए कहा –
हम दोनों अपने राजा की हवस के लिए लड़ते हैं
हम लड़ते हैं क्योंकि हमें लड़ना ही सिखाया गया है
हम लड़ते हैं कि लड़ना हमारा रोजगार है
वह हल्की हँसी मुस्कुराते मेरी बात को पूरा किया –
दुनियाँ का हर सैनिक इसी लिए लड़ता है मेरे भाई
वह चाय के लिए शुक्रिया कहते हुए उठा
और दरवाजे का रुख किया
उसे अपने बंदूक का खयाल न रहा
या शायद वह जानबूझकर वहाँ छोड़ गया
बच्चों के खिलौने के लिए
बंदूक के भविष्य के लिए
उसने आखिरी बार मुड़कर देखा तब मैंने कहा –
मैं तुम्हें कल युद्ध में मार दूँगा
वह मुस्कुराया और जवाब दिया –
यही तो हमें सिखाया गया है ।
विहाग वैभव
छत्तीसगढ़ के देमार गांव के कुमेश्वर कुमार ने लिखी मुंशी प्रेमचंद को चिट्ठी
प्रिय प्रेमचंद जी
मैं स्वस्थ प्रसन्न नहीं हूं. सांस्कृतिक भौगोलिक भिन्नताओं के बावजूद मेरी गति, धुन, गंध, सादगी और निश्छलता हिन्दुस्तान के किसी भी गांव की तरह है. लमही हो या कोई भी गांव. हमारा एक ही पेट हैं और हमारी एक ही पीड़ा है.
आपसे पहले किसी अदीब ने हमारी इतनी सुध नहीं ली. आपने हमें मान सम्मान दिया. हमारे सुख दुःख, आस निराश, जीवन मरण को महसूस किया. किसानों मज़दूरों की दशा गिनाई. हमारे शरीर में उभरी साम्प्रदायिकता, जातिवाद, छुआ छूत, भूख, गरीबी, अज्ञानता, अन्धविश्वास, शोषण जैसे घावों की ओर संकेत किया. नैतिकता की दुहाई दी.
लेकिन आज ग्लोबल विलेज के नाटक में आपके लिखित नाटक मुंह बाए खड़े हैं. हम गांव को खदेड़ कर शहर चले आ रहे हैं. किसानों के खेतों पर मिल और कारखाने अट्टहास कर रहे हैं. श्रमिकों की कराहती कोठरियों पर दुकानें खिलखिला रही हैं. चारागाह के अभाव में पशुओं के झुण्ड गौठान में दुबराते खड़े हैं. हर तरफ बाजार का हल्ला है. तुम्हारे उपन्यास और कहानी के पात्र आज सिर्फ उपभोक्ता हैं. तुम्हारे विचित्र पात्र इतने सालों बाद यथावत कैसे रह सकते हैं? सब काइयां और कपटी हो गए हैं। इन चरित्रों के मनोविज्ञान बड़े जटिल हो गए हैं. उनका ब्लैक एंड व्हाइट सरलीकरण असंभव है।
अलगू चौधरी और जुम्मन शेख अलग अलग राजनीतिक दलों के मॉडल हो गए हैं. पंच परमेश्वरों के नेतृत्व में सारे गांव दो फाड़ हो गए हैं. पंचायती राज का झुनझुना बजा रहे गंवार चुनावों में मांस मदिरा से लहालोट हैं. बड़े घर की बेटी हो या सोना रूपा, सुहानी प्रत्येक वर्ग की महिलाएं असुरक्षित हो गई हैं. बताते हैं, 'बूढी काकी' को वृद्धावस्था पेंशन मिलता है फिर वह भीख मांगती घूमती है ? और होरी की तो मत पूछो... वे बीज, रासायनिक खाद, ट्रैक्टर किराया और कीटनाशक दवाओं के कर्ज में डूबकर आत्महत्याएं कर रहे हैं...! धनियाओं की चूड़ी उतर रही है. गोबर ईंट भट्ठे में बंधुवा है. किसान अब मज़दूर हो रहे हैं और मज़दूर फाकों में दिन काट रहे हैं. हामिद और जानकीनाथ पढ़ना- लिखना भूलकर व्हाट्स एप्प पर गंदे जोक और नफरतों के सन्देश भेज रहे हैं... मोबाइल पर पोर्न देख रहे हैं.
ग्रामीण ढांचा पूरी तरह डांवांडोल है. हमें शहर बनाने पर तुले मतलबपरस्तों की शैली, सोच और व्यवहार में भारी तब्दीली आ गई है. आपके उपन्यास और कहानी के पात्र वहां की आपाधापी से तंग आकर हम गांव की गोद में गुजर बसर करते थे. कथा साहित्य का यह सुखान्त अब भयानक लगता है.
ज्यादा क्या लिखूं ... आप खुद समझदार हो. कम लिखे को ज्यादा समझना...
आपका
कुमेश्वर
देमार, थाना- अर्जुनी, जिला- धमतरी, पटवारी हल्का नंबर 19, छत्तीसगढ़
अरे वो हत्यारों... खून के प्यासे भेड़ियों ...जानते भी हो कि प्रेमचंद कौन थे ?
अंजन कुमार
वर्तमान भारतीय समाज सांप्रदायिक दौर से गुजर रहा है. ऐसे समय जब सांप्रदायिक शक्तियां धर्म, जाति और भाषा के नाम पर देश की एकता अखण्डता और समरसता को नष्ट करने पर तुली हुई है तब प्रेमचंद को याद करना और अधिक प्रासंगिक हो जाता है. इसकी एक वजह यह भी है कि प्रेमचंद का सारा संघर्ष भाई-चारे को तोड़ने वाली ताकतों के खिलाफ ही था.अपनी कालजयी रचनाओं में प्रेमचंद ने सांप्रदायिकता की जड़ों का, उसे पल्वित और पुष्पित करने वाली शक्तियों का, उसके विभिन्न छद्म रूपों तथा इन रुपों से किसके हित सधते हैं उसका बेहद बारीकी से विश्लेषण किया है.
उनकी दृष्टि इस विषय पर बिल्कुल साफ थी. वे प्रारंभ से ही सांप्रदायिकता और उसके आर्थिक स्वार्थ के संबंधों को समझ रहे थे. यही कारण है कि प्रेमचंद के साहित्य का अधिकांश हिस्सा खुले तौर पर सांप्रदायिक ताकतों से विद्रोह करता हुआ दिखाई देता है. उन्होंने सेवासदन, कायाकल्प, प्रेमाश्रम, कर्मभूमि, रंगभूमि, गबन, गोदान जैसे उपन्यास तथा पंच परमेश्वर, विचित्र होली, जुलूस, मुक्तिधन, क्षमा, डिक्री के रूपए, मंदिर मस्जिद, लैला, न्याय, दो कब्रें, ईदगाह, जिहाद, तगादा, दिल की रानी, बौड़म जैसी कहानियों में पूरी शिद्दत के साथ सांप्रदायिकता पर करारा प्रहार किया है. उनकी रचनाओं के अधिकांश पात्र धर्म की संकुचित मानसिकता के दायरे से मुक्त होकर अपने-अपने धर्म पर आस्था रखते हुए दूसरे धर्म तथा उसको मानने वालों के प्रति उदार नजरिया रखते हैं.
प्रेमचंद धर्म के बारे लिखते हैं- धर्म का संबंध मनुष्य से और ईश्वर से है. उसके बीच में देश, जाति और राष्ट्र किसी को भी दखल देने का अधिकार नहीं हैं. हम इस विषय में स्वाधीन हैं. हम मस्जिद में जाए या मंदिर में. हिन्दी पढ़ें या ऊर्दू. धोती बांधे या पाजामा पहनें हम स्वाधीन हैं. धर्म के नाम पर राष्ट्र को भिन्न- भिन्न दलों में विभक्त करना ईश्वर और मनुष्य के संबंधों को राष्ट्रीय मामलों में घसीटकर लाना भारत कभी गंवारा नहीं करेगा.
उन्होंने आगे यहां तक लिखा है- अगर आपके धर्म में कुछ ऐसी बातें हैं जो राष्ट्रीयता की परीक्षा में पूरी नहीं उतरती. सभी के हितों में बाधक होती हैं तो उन्हें त्याज्य समझिए. उनके अनुसार समाज में जितनी अनीति है. उसमें सबसे घृणित धार्मिक पाखण्ड है.
वे बहुत अच्छी तरह जानते थे कि सांप्रदायिकता कभी संस्कृति, कभी इतिहास, कभी भाषा तो कभी क्षेत्रीयता का लबादा ओढ़कर आती है. उन्होंने अपने एक लेख में साफ तौर पर लिखा है- सांप्रदायिकता को अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है. इसलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति की खाल ओढ़कर आती है. हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है. मुसलमान अपनी संस्कृति को. मगर अब न मुस्लिम संस्कृति है न हिन्दू. अब संसार में केवल एक संस्कृति है-आर्थिक संस्कृति. मगर हम आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए जा रहे हैं. वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है. निरा पाखंड. और इसके जन्मदाता भी वही लोग हैं जो सांप्रदायिकता की शीतल छाया में बैठकर विहार करते हैं. संस्कृति अमीरों का, पेट भरे हुए लोगों का, बेफिक्रों का व्यसन है. द्ररिद्रों के लिए प्राण रक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है.
उन्होंने 1934 में ज्योतिप्रसाद निर्मल के एक निबंध के उत्तर में लिखा है- यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि जब तक यह सांप्रदायिकता और अंधविश्वास हमसे दूर न होगा. जब तक समाज को पाखण्ड से मुक्त न कर लेंगे तब तक हमारा उद्धार नहीं होगा. प्रेमचंद अपने पूरे साहित्य में सांप्रदायिकता की लड़ाई इसी वैचारिक धरातल में लड़ते हैं. उनकी कहानी के पात्र न तो हिन्दू हैं न मुसलमान और न ही इसाई. वे सही मायने में सिर्फ इंसान हैं. ऐसे इंसान जो अपने अधिकारों के संघर्ष में धर्म को बीच में आने नहीं देते.
कर्मभूमि का गजनबी कहता है- यह दौलत का जमाना है.अब कौम में अमीर और गरीब, जायदाद वाले और मरभूखे अपनी-अपनी जमात बनाएंगे. उनमें कहीं ज्यादा खूंरेजी होगी. आखिर एक दो सदी के बाद दुनिया में एक सल्तनत हो जाएगी. सबका कानून एक होगा. एक निजाम होगा, कौम के खादिम कौम पर हुकूमत करेंगे. मजहब शख्सी चीज होगी. इसी उपन्यास की पठानिन कहती है- धनी लोग हम गरीबों की बात क्या पूछेंगे. हालांकि हमारे नबी का हुक्म है कि शादी ब्याह में अमीर-गरीब का ख्याल न होना चाहिए. पर हुक्म को कौन मानता है... नाम के मुसलमान.
प्रेमचंद अच्छी तरह जानते थे अधिकांश जनता अनपढ़ और पिछड़ी हुई है. उसे सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा बहकाया जा सकता है. इसलिए उन्होंने आम जनता को शिक्षित करने के साथ-साथ इस दिशा में सोचने के लिए प्रेरित भी किया. अब यह काम आज के साहित्यकार कहां कर पाते हैं.उन्होंने कर्बला नाम का एक नाटक हिन्दू- मुस्लिम एकता को मजबूत करने के उद्देश्य से ही लिखा था.
उन्होंने कायाकल्प तथा अन्य कहानियों में सांप्रदायिक के बीच आपसी सौहार्द को बेहद खूबसूरत ढंग से प्रदर्शित किया है. बहुत से लोग मानते हैं कि प्रेमचंद केवल हिन्दूओं का विरोध करते थे जबकि वे बेहद मारक ढंग से मुस्लिम संप्रदायवाद के खिलाफ भी चोट करते थे. देखा जाय तो वे किसी भी वर्ग, वर्ण, जाति, धर्म, संप्रदाय के खिलाफ नहीं थे. बल्कि उनका विरोध टुच्चेपन से, अमीरी और गरीबी के फर्क से और फरेब से था.
आज जबकि देश भयावह संकट के दौर से गुजर रहा है. हर तरफ से यही आवाज आ रही है कि हम सबसे अंधेरे समय में जीने को मजबूर है तब प्रेमचंद का साहित्य हमारे भीतर उम्मीद की लौ जलाता है. भाईचारे की साझा संस्कृति और परंपरा पर चलने वाले संवेदनशील लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि मशाल कैसे जलानी है. हत्यारें और खून के प्यासे भेड़िए तो कभी नहीं जान पाएंगे कि प्रेमचंद कौन थे?
मोबाइल नंबर- 9179385983
किशनलाल की सात कविताएं
1. तीसरा विकल्प
इस मुगालते में मत रहो
कि जंगल तुम्हारा है
या पेड़ तुम्हारे हैं
जितनी देर तक
तुम हंडिय़ा में
सल्फी तक नहीं ढार सके थे
उतनी देर में तो
खरीदी-बिक्री के
सारे कारोबार हो चुके थे
तुम्हारा कोई हक नहीं
नदियों के पानी पर
इनकी लहरों पर
कब के हो चुके हैं हस्ताक्षर
पहले तुम कौतूहल थे
इसलिए खूबसूरत थे
निश्छलता के पर्याय
और भोलेपन के मूरत थे
अब तुम अबूझ नहीं
बोझ हो
बांस जितने सोझ हो
इसलिए तुम्हें कटना है
तुम क्या समझते हो
कि तीरथगढ़ या चित्रकोट के जलप्रपात
तुम्हारे इतिहास का गौरवगान करते हैं?
नहीं
ये झरने
अब मर्सिया पढ़ते हैं
इंद्रावती में कलकल नहीं
ए. के. 47 की गोलियों की तड़तड़ है
तुम्हारी चीखें
बस्तानार की घाटी में
घुटकर रह जाएंगी
कभी नहीं पहुंच पाएंगी
बचेली के हिलटॉप तक
इस धोखे में मत रहो
कि ये तुम्हारे रखवार हैं
गौर से देखो
इनके हाथों में तलवार है
इनके और तुम्हारे बीच
रायपुर से दंतेवाड़ा तक की दूरी है
तुम्हारी संस्कृति के गर्दन पर
इनकी सभ्यता की छुरी है
इनकी ऐयाशी के लिए
जितने मॉल, होटलें
पांच-पांच, सात-सात मंजिल हैं
तुम्हारे लिए
विकास, मुख्यधारा जैसे शब्द
उतने ही अश्लील हैं
अपने घर की महिलाओं से कहो
कुछ ढंकना भी सीखें
इतना खुलापन ठीक नहीं
क्योंकि खुलापन
सोवियत संघ के लिए जितना ग्लासनोश्त था
इनके लिए जिंदा गोश्त हैं
रखवाले तो ये भी नहीं हैं
जो तुम्हारे हितैषी बनकर
तुम्हारे ही घर में घुसपैठ जमाए हैं
तुम्हारा ही मांस खाते हैं
और तुम्हारे ही खून से अचोते हैं
कुआं और खाई के
घिसे-पिटे मुहावरे से बाहर निकलो
और देखो
एक तरफ शेर
दूसरी तरफ भेडि़ए हैं
तुम्हें खाने से पहले
अपने नुकीले दांतों से
तुम्हें वालीबाल की तरह फेंकते हैं
एक-दूसरे के पाले मेें
बारसूर-कुटुमसर की
अंधेरी गुफाओं से बाहर निकलो
और बीच का
रास्ता तलाशना छोड़कर
सोचो कि
जीने के लिए
कोई तीसरा विकल्प है क्या?
2. लोकतांत्रिक व्यवस्था
धूप और बारिश से
कन्नी काटकर
चलते हैं लोग यहां
आम को आम
और इमली को इमली
नहीं कह सकते
उनकी भावनाओं को
लग जाती है ठेस
पता नहीं
बाबा कबीर
कैसे कह गए
इतने ठेठ?
चलते-चलते
कहीं हो जाए रात
तो उस शहर के कोतवाल से
रुकने के लिए
लेनी पड़ती है इजाजत
क्या पढ़ें और क्या न पढ़ें
यह सरकार ही तय करती है
कुछ किताबों को
घर में रखना
राष्ट्रदोह के बराबर अपराध
पहले से निर्धारित
नियम-कानून, धर्म-आस्था
यह है मेरे महादेश की
महान् लोकतांत्रिक व्यवस्था!
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3. मारे जाएंगे सभी आदिवासी
कथन-
कुछ आदिवासी, नक्सली हैं
कुछ आदिवासी, पुलिस के मुखबिर हैं
निष्कर्ष-
एक-सभी आदिवासी नक्सली हैं
दो-आदिवासी न नक्सली हैं
और न ही पुलिस के मुखबिर
तीन-आदिवासी नक्सलियों का साथ देते हैं
चार-पुलिस के मुखबिर हैं आदिवासी
दोस्तो!
उलझ गए न!
बहुत आसान निष्कर्ष है-
मारे जाएंगे
सारे के सारे आदिवासी.
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4. एक पल के लिए
एक पल के लिए
यह मान भी लूं
कि मैं हिन्दू हूं
तो भी कैसे भूल जाऊं
रविशंकर के सितार-प्रेम में
बिस्मिल्ला खां को
जिनकी शहनाई की आवाज से
होती है मेरी सुबह
प्रेमचंद और निराला के बीच
कैसे विस्मृत कर दूं
गुलशेर खान शानी को
रजा, मंटो और फैज को
जिन्होंने मुझे
संस्कार दिया बराबर का
ओमपुरी और स्मिता पाटिल
बेशक बढिय़ा कलाकार सही
लेकिन शबाना और नसीरुद्दीन शाह
उनसे कमतर तो अदाकार नहीं
चंद्रशेखर आजाद, मंगल पांडे
और तमाम बलिदानियों के बीच
कैसे बिसरा दूं
अशफाक उल्ला खां
और अब्दुल हमीद की
शहादत को
अपने खास मित्रों के जिक्र में
बसंत त्रिपाठी और कुमेश्वर कुमार के बीच
कैसे भूला दूं
फरहत, सलीम और
नासिर अहमद सिकन्दर को
एक पल के लिए
यह मान भी लूं
कि मैं हिन्दू हूं
तो भी.........
5. बच्चों के होंठों पर
बहुत कुछ
बचाया जा सकता है
बावजूद इसके
कि खत्म हो रही है
एक-एक करके
बहुत सारी चीजें
जैसे बचाया जा सकता है
चकमक पत्थर की आग को
रगों में दौड़ रहे
खून को गरमाने के लिए
बचाया जा सकता है
धरती के दूध को
जो जड़ों से होकर
खुशबू का रूप
ले रहा है
उन सपनों को
बचाया जा सकता है
जो टूटकर
बिखर भले गए हों
फिर भी है जिनमें
जीवन की बहुत कुछ संभावनाएं
हम बचा सकते हैं
मॉं की ममता
पड़ोसियों का प्यार
प्रेमिका के चुंबन
और दोस्तों की गाली को
जब दिन-ब-दिन
कम होती जा रही है
हमारी हॅंसी
हम सहेजकर
रख सकते हैं उसे
बच्चों के होंठों पर.
6. नक्शे के बीच
क्षयग्रस्त बूढ़े के
खखार-सा निकलता है सूरज
और मरहा बैल की तरह
घिसटता है धीरे-धीरे
बैलों के उगले पुआल-सी
बदरंग झोपडिय़ां
जहां जंग खाते नांगर हैं
और भोथरी कुल्हाड़ी-हॅंसिया
वहां मल-मूत्र से लिथड़े
भिनभिनाती मक्खियों के बीच
रोते-बिलखते बच्चे
जैसे दीवारों पर टंगे
कुपोषण के शिकार
परिवार नियोजन के
डरावने ईश्तहार
खेतों की दरारों से
जो बच गए हैं
वे शहर में हैं
या दोजख में
बचा-खुचा सुख
साहूकार का बंधुआ मजदूर है
मुट्ठीभर अनाज के लिए
शांति अस्मत खोने को म•ाबूर है
रात के भयानक अंधेरे में
अभिशप्त पीपल
जब उल्लुओं के
डैनों में फडफ़ड़ाता है
बेचैनी और लाचारी के
दो पाटों के बीच
पिसती हुई बूढ़ी औरतें
मृत्यु के दिन गिनती हैं
नक्शे के बीच
मगर विकास से दूर
इस अकालग्रस्त गांव में
राहत कार्य जैसे शब्द
बेमानी है
लगता है गांव का
नरक से लागमानी है.
7. राजधानी में पगली औरत
कस्बा नहीं, अब यह महानगर है
यहां चोरी
शराफत समझी जाती है
और लूट रोमांचकारी आदत
जहां कत्ल कर
सरेआम घूमते हैं कातिल
छह साल की बच्ची
और सत्तर वर्षीया बुढिय़ा में
कोई फर्क नहीं
बलात्कार इसकी
दिनचर्या में शामिल
उम्र के सोलहवें बरस में
जब लड़कियां
देखती हैं सपने
घोड़े पर चढ़कर
आते राजकुमारों के
वह किसी मनहूस ऋषि से शापित
मानो मुक्ति के लिए
लड़ रही थी-भूख से,
बीड़ी कारखाने का
कसैला धुआं पीती
जगह-जगह से पैबंद लगी
साड़ी से लिपटी
पिछवाड़े राज मंदिर के
सराय में सोती
सुबह-सुबह
तालाब में नहाती हुई
वह जान गई
कि खुले स्तन को देखने में
बच्चे, बूढ़े और जवान
किसी की भी नीयत में
कोई अंतर नहीं होता
और एक दिन
पुजारी के
रोज-रोज के पापोच्चार से
वह पागल हो गई
वह नंगी देह
घूमती है महानगर में
यहां-वहां
लोग उपयोग करते हैं उसका
मूत्रालय-सा
पल भर देखते हैं
इधर-उधर
और चले जाते हैं मूतकर
गड्ढा भर चुका है-
वह गर्भिणी है
एक शिशु महानगर
पल रहा उसकी कोख में
और प्रसव-पीड़ा से
व्याकुल वह
छटपटा रही है
सुनो! सुनो ओ महानगर!
पल रहा है तुम्हारा वंश
उसकी कोख में
प्रसव हेतु जगह चाहिए
वह तड़प रही है
पीड़ा से
उसे जगह चाहिए
क्योंकि एक कुतिया का भी
हक बनता है
नर्म-नर्म पुआल पर
प्रसव के पहले
यह तो फिर भी औरत है
लेकिन हाय!
पगली है बेचारी
ओ! ऊंची अट्टालिकाओं में
रहने वाले महानगर!
उसे कम से कम
किसी पेड़ की
छाया तो दो
छाया तो दो......
गुनाहों की देवी निर्मला
मुंशी प्रेमचंद के एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण उपन्यास का सारांश बता रहे हैं लेखक चंद्रशेखर देवांगन. लेखक का कहना है कि अगर धर्मवीर भारती के उपन्यास में चंदर गुनाहों का देवता है तो मुंशी प्रेमंचद के उपन्यास में निर्मला गुनाहों की देवी है. इस सारांश को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए.
‘‘मुहल्ले के लोग जमा हो गए। लाश बाहर निकाली गई। कौन दाह करेगा, यह प्रश्न उठा। लोग इसी चिंता में थे कि सहसा एक बूढ़ा पथिक बकुचा लटकाये आकर खड़ा हो गया। यह मुंशी तोताराम थे (निर्मला के पति)।’’
निर्मला के पिता की अकाल मौत के बाद दहेज लोभी रिश्ते वालों नें निर्मला से सगाई तोड दी। आर्थिक बोझ से परेशान मॉ ने निर्मला का विवाह दहेज नहीं लेने वाले अधेड़ उम्र के विधुर किंतु धनी वकील मुंशी तोताराम से कर दी। जिसके पूर्व से ही तीन बेटे थे और वकील साहब की विधवा बहन भी साथ रहती थी। वकील साहब और निर्मला के साथ हंसने-बोलने से अधेड उम्र के तोताराम के मन में शक पैदा हो गया। शक से परेशान तोताराम ने बेटे को घर से दूर छात्रावास में रखवाने का उपाय खोजने लगे। मंशाराम जैसे-तैसे घर से दूर तो हुआ परंतु सौतेली मॉ को लेकर पिता के शक को ताड़ गया। मंशाराम पढ़ाई में होश्यार, सुंदर, स्वस्थ और आदर्शवादी बालक था। पिता के ऐसे घिनौने विचारों से मंशाराम इतना क्षुब्ध हुआ कि खाना-पीना छोड अपना शरीर ही त्याग दिया। मरते-मरते उसने निर्मला के चरणों में दण्डवत् प्रणाम कर पिता को अपने और निर्मला के मध्य माता और पुत्र के बीच पवित्र रिश्ते का विश्वास दिला गया। तोताराम इस अपराध बोध से भर गये कि उनके निराधार शक ने उनके जवान बेटे की जान ले ली।
अपराध बोध से ग्रसित तोताराम का स्वास्थ्य दिन-ब-दिन गिरता गया, वकालत भी ठप्प हो गई। तोताराम के युवा मित्र डॉ. साहब की पत्नी सुधा, निर्मला की सहेली बन गई थी। बातों ही बातों में सुधा को ज्ञात हुआ कि सुंदर-सुशील-गुणी निर्मला से सगाई तोडने वाला उसका पति डॉ. साहब ही थे। जब सुधा ने यह बात डॉ. साहब को बताई तो डॉ. साहब ने इसका प्रायश्चित बिना दहेज लिये अपने छोटे भाई के साथ निर्मला की छोटी बहन का विवाह करवाकर किया। निर्मला के रूप-गुण को देख-देख अब डॉ. साहब को निर्मला से विवाह नहीं हो पाने का बड़ा मलाल होने लगा।
इस बीच निर्मला की भी एक लड़की हो गई। अब तक वकील साहब के पुत्रशोक ने परिवार की आर्थिक संपन्नता को भी छिन लिया था। ऐसी स्थिति में निर्मला के गहने जेवर ही बेटी का भविष्य थे। वकील साहब का दूसरा बेटा जियाराम कुसंगत में पड़ गया था। जियाराम ने इन गहनों को चुरा लिया। चोर को जानते हुए भी कलंक के डर से निर्मला चुप थी परंतु वकील साहब ने तैश में पुलिस को बुला लिया। पुलिस ने वकील साहब को आरोपी का नाम बता दिया। पकडे जाने के भय से जियाराम सदा के लिये घर से भाग निकला।
बेटी के भविष्य की अतिशय चिंता और गरीबी ने निर्मला को कंजुस बना दिया था। वकील साहब का तीसरा बेटा सियाराम बड़ा सीधा-साधा, आज्ञाकारी था। नासमझी में निर्मला की बातों से एक दिन सियाराम बड़ा खिन्न हो गया और किसी साधु के बहकावे में आकर वह भी हमेशा के लिये घर छोड़कर चला गया। वकील साहब इसका सारा दोष निर्मला पे मड़ने लगे और सियाराम को खोजने दुखी मन से वह भी घर से निकल पडे।
अब घर में केवल निर्मला, उसकी नन्ही बिटिया और वकील साहब की विधवा बहन रह गये।
बीच-बीच में निर्मला मन बहलाने अपनी सहेली सुधा के पति डॉ. साहब के हृदय में निर्मला के लिये दबा प्रेम होठों पर आ गया। निर्मला के लिये ये उसकी पवित्रता पर आघात जैसा था। निगाह नीची किये निर्मला बड़ी तेजी से सुधा के घर से निकली, तभी सुधा घर पहुंची शायद सुधा ने निर्मला की आखों में कुछ पढ़ लिया। पीछे-पीछे सुधा भी निर्मला के घर आ गई और निर्मला के बिना कहे भी सच्चाई समझ के अपने घर आई और क्रोध में आग बबूला सुधा ने इस चरित्रहीनता के लिये डॉ. साहब को जमकर धिक्कारा। इस अपराधबोध में डॉ. साहब ने जहर खा कर आत्महत्या कर लिया।
यद्यपि सुधा के मन में अपने दुश्चरित्र पति के प्रति क्रोध और निर्मला के प्रति श्रद्धा अभी भी यथावत् थी।
अब तो निर्मला जीवन में हर तरफ से स्वयं को अपराधिन ही मानने लग गयी। जीवन से हताश हो निर्मला ने खाना-पीना ही छोड़ दिया और तीन दिनों तक रोते-रोते अपना जीवन त्याग दिया।
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पढ़िए...इंदौर वाले बल्लेबाज के लिए क्या लिख गए थे परसाई
दिल की बात दिल से...चंद्रशेखर देवांगन की रचनाएं
शायद ही कोई ऐसा हो जो छत्तीसगढ़ शासन के आबकारी मंत्री कवासी लखमा को पसंद न करता हो. राजनीति के जानकार कहते हैं कि अगर लखमा मंत्री नहीं भी होते तो भी उनकी सरलता और सहजता उनकी लोकप्रियता को कम नहीं करती. मंत्री लखमा के विशेष सहायक चंद्रशेखर देवांगन भी कुछ इसी तरह से है. उनका मिलनसार व्यवहार सबको अचंभे में डाल देता है और आकर्षित करता है. यकीन न हो तो कभी मिलकर देखिए... आपको निराशा नहीं होगी. दरअसल इस व्यवहार के पीछे चंद्रशेखर देवांगन की साहित्यिक अभिरुचि है. वे जब भी वक्त मिलता है लिखते-पढ़ते हैं. किसी ने सच ही कहा है कि साहित्य एक मनुष्य के भीतर मनुष्यता को जीवित रखने में मददगार होता है. यहां अपना मोर्चा डॉट कॉम की तरफ से प्रस्तुत है उनकी पांच रचनाएं. इन रचनाओं में ज्यादातर बात दिल की है, मगर दिल से हैं.
( एक )
कभी प्यार तो कभी परिवार की खातिर
मर मर के जी रहे हैं सरकार की खातिर.
ये जिन्दगी सहरा है कभी प्यास ना बुझेगी
जब तक ना जीयेंगे मरेंगे यार की खातिर.
अपनों के हुए हम ना गैरों के हो सके
क्या खूब हम जीये परवरदिगार की खातिर.
दिन तो किसी को दे दिए रात आई ही नहीं
रूत कोई ना आई मुझ गुनाहगार की खातिर.
बीपी शुगर दिल का भी रोग क्या कहें
लाखों मरज़ पाले दिन चार की खातिर.
प्रशस्ति से प्रेरित कभी सो-काज़ के चक्कर में
दिल अपना दुखाया महल औ दरबार की खातिर.
( दो )
हां...
मुझे भी करनी है ,
ढेर सारी गुफ्तगू.
कहना है हाल-ए दिल
सुनना है दर्द-ए दिल.
उलझनें
ना जाने कितनी
मन में ही उलझी हैं.
दो पल की फुरसत का
कर रहा
इन्तेज़ार मुद्दत से.
जाने कब कर पाऊंगा
ढेर सारी बातें
खुद से.
( तीन )
तुम ना मिलो ना चांद दिखे,
वो रात बेरहमी लगती है.
तुम क्या जानो तुम बिन सांसें
सहमी-सहमी लगती हैं.
तेरी आंखों की गहराई में
मैं ना जाऊं डूब कहीं
अब मेरे हाथों की लकीरें
बदली-बदली लगती हैं.
( चार )
भटकता ढूंढता रहा मैं
जिस गुलशन में रात भर.
वो सुबह सिराहने मिली
ओस की बूंद बनकर.
पूनम का चांद आया था
चुपके से रात मेरे घर
सुबह गया सूरज की
रोशनी बिखेरकर
( पांच )
तुम बिन
आंखों ने कोई ख्व़ाब ना देखा
तेरे जाने के बाद.
प्यार ने परवाज़ ना देखा
तेरे जाने के बाद.
मैंने तुमको टूटकर चाहा
उसका क्या अंजाम बताओ.
जीने का नहीं तो मौत सही
कुछ मेरे लिए सामान सजाओ.
अश्क़ों से अशआर लिखा
तेरे जाने के बाद.
आंखों ने कोई ख्व़ाब ना देखा
तेरे जाने के बाद.
खत ना लिखे ना तार किया
कोई तेरा सन्देश ना लाता
तुममें कुछ मेरा प्रेम बचा हो
कोई मुझको यकीन दिलाता.
तेरा कोई इश्तहार ना देखा
तेरे जाने के बाद.
आंखों ने कोई ख्व़ाब ना देखा
तेरे जाने के बाद.
हरिशंकर परसाई के किताबों की रायल्टी अब परिवार के बीच बंटेगी
बिलासपुर. प्रख्यात साहित्यकार हरिशंकर परसाई की रचनाओं पर मिलने वाली रायल्टी को लेकर एक महत्वपूर्ण फैसला न्यायालय से हुआ है. न्यायालय के आदेश के अनुसार रायल्टी की राशि अब परसाई परिवार के वैध उत्तराधिकारियों के बीच बराबर - बराबर बंटेगी । इसके लिए परसाई की भतीजी अमिता शर्मा ने लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी. अमिता परसाई के सगे भाई गौरीशंकर परसाई की बेटी है जो इन दिनों बिलासपुर में अपने पति सुशील शर्मा के साथ रहती है.
साहित्यकार हरिशंकर परसाई अविवाहित थे. उनकी बहन सीता दुबे का पुत्र यानी भानजा प्रकाश चंद्र दुबे एक वसीयत के आधार पर पिछले कई वर्षों से अकेले ही रायल्टी प्राप्त कर रहा था. परिजनों का कहना था कि स्व.परसाई ने ऐसी कोई वसीयत नहीं की थी, और जो वसीयत बताई जा रही है वह फर्जी है ,लेकिन प्रकाश दुबे ने किसी की बात नहीं मानी और न ही किसी की समझाइश का कोई असर ही हुआ. वह निर्बाध रूप से रायल्टी की राशि प्राप्त करते रहा.
ज्ञातव्य है कि हरिशंकर परसाई ख्यातिलब्ध साहित्यकार रहे हैं । खासकर व्यंग्य विधा को उन्होंने नया स्वरूप दिया. उन्होंने कहा कि जिस व्यंग्य से करूणा न उपजे वह व्यंग्य बेकार है. वे विसंगतियों के खिलाफ़ लगातार लिखते रहे . उन्हें सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार माना जाता है और उनकी रचनाएं आज भी प्रासंगिक और चर्चित हैं. परसाई की मृत्यु 10 अगस्त 1995 को हुई. उनकी रचनावली भी छप चुकी है साथ ही अनेक किताबें भी. उनकी रचनाओं पर नाटक भी तैयार हुए और इप्टा तथा अन्य नाट्य संस्थाओं ने उनका मंचन भी किया. उनकी रचनाओं पर प्रकाशकों द्वारा रायल्टी दी जाती है और रायल्टी सिर्फ उनके भांजे प्रकाश चंद्र दुबे को ही मिल रही थीं.प्रकाश का कहना था कि वह आखिरी दिनों तक परसाई जी की सेवा करते रहा है. जब तक परसाई जीवित रहे वे ही रायल्टी प्राप्त करते रहे क्योंकि आय का उनके पास और कोई साधन नहीं था. अपने जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने वसीयत की जिसमें मुझे (प्रकाश दुबे ) को उत्तराधिकारी बनाते हुए रायल्टी राशि प्राप्त करने का अधिकार दिया. वसीयत की यह बात उसने परसाई की मृत्यु के बाद बताई. इस पर किसी को विश्वास नहीं हुआ. उनकी भतीजी अमिता शर्मा ने आपत्ति की और कहा कि रायल्टी राशि पर उसका भी हक बनता है. अमिता ने सोलह वर्ष पहले 2003 में जिला न्यायालय बिलासपुर में एक मामला प्रस्तुत किया. इसमें उन्होंने कहा कि हरिशंकर परसाई को उनकी रचनाओं की रायल्टी से आय प्राप्त होती थी. वे नि:संतान थे. इसीलिए उनकी मिलने वाली रायल्टी राशि पर मेरा भी हक बनता है. साथ ही उन्होंने परसाई की वंशावली प्रस्तुत की. जिसके अनुसार वे दो भाई व तीन बहन थे. अमिता ने कहा कि प्राप्त होने वाली रायल्टी राशि पर इन सभी का हक बनता है. जबकि अभी उनका भांजा प्रकाश चंद्र दुबे ही समस्त राशि ले रहा है.
प्रकाश ने न्यायालय में एक वसीयत प्रस्तुत की और कहा कि उनके मामा हरिशंकर परसाई ने रायल्टी की संपूर्ण राशि प्राप्त करने का अधिकार उसे दिया है. अमिता ने इसे गलत बताया और कहा कि ऐसी कोई वसीयत मेरे बड़े पिता हरिशंकर परसाई ने नहीं की थी. प्रकाश दुबे इस बाबत न्यायालय में पर्याप्त साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सका और विद्वान न्यायाधीश ने वसीयत को शून्य घोषित कर दिया. साथ ही आदेश में कहा कि वादी अमिता स्व.हरिशंकर परसाई के भाई की पुत्री है. शेष प्रतिवादीगण स्व.हरिशंकर परसाई की बहनों के बच्चे हैं. हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के अनुसार बिना वसीयत किए मृत्यु होने पर भाई, बहन व भाई बहनों के बच्चों को संपत्ति में अधिकार मिलता है. इस प्रकार परसाई के भाई गौरी शंकर परसाई, एवं बहनें श्रीमती रुक्मणी दुबे , श्रीमती सीता दुबे और श्रीमती मोहिनी दीवान को स्व.हरिशंकर परसाई की संपत्ति में बराबर - बराबर का अंश प्राप्त होगा.
ज्ञात हो कि यह मामला 30 सितम्बर 2003 को जिला न्यायालय बिलासपुर में प्रस्तुत किया गया था. फिर उच्च न्यायालय के आदेश पर 28 मार्च 2011 को यह जिला न्यायालय जबलपुर में प्रस्तुत किया गया. इस मामले में अमिता शर्मा की ओर से बिलासपुर के अधिवक्त डी.दत्ता, जी पी कौशिक, संदीप द्विवेदी , देवेश वर्मा, कृष्णा राव , जमीर अख्तर लोहानी तथा जबलपुर के रजनीश पांडेय, संजय शर्मा और आशीष सिंघई ने पैरवी की ।
भारत में कम्प्यूटर और परसाई की वसीयत
इस मामले में वसीयत को लेकर एक बहुत महत्वपूर्ण और रोचक बात भी सामने आई. जिला न्यायालय में यह भी सवाल आया कि भारत में 1995 में लेजर प्रिंटर आ गया था या नहीं ? हालांकि प्रकाश दुबे ने कहा कि उसे इसकी जानकारी नहीं है. उसने यह स्वीकार किया कि वह भारतीय खाद्य निगम में प्रबंधक था. उसके कार्यालय में वर्ष 2000 के बाद कम्प्यूटर आया तो उसमें डाटमेट्रिक्स प्रिंटर था. जबकि वसीयत नामा लेज़र प्रिंटर से प्रिंट हुआ था. आदेश में विद्वान न्यायाधीश ने लिखा है कि प्रतिवादी एक बड़े पद पर पदस्थ था और उसके कार्यालय में कम्प्यूटर वर्ष 2000 के बाद आया है तो ऐसी दशा में भारत में 10 जुलाई 1995 की स्थिति में लेज़र प्रिंटर से वसीयत प्रिंट करने की बात के संबंध में आशंका पैदा होती है और प्रकाश दुबे की बात बिलकुल विश्वास करने योग्य नहीं लगती. अतः ऐसी दशा में वसीयत नामा शून्य और निष्प्रभावी है ।
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हरिओम राजोरिया की पांच कविताएं
मध्यप्रदेश के अशोक नगर में रहने वाले हरिओम राजोरिया हिंदी के एक बड़े कवि है. राजोरिया भारतीय जननाट्य संघ इप्टा से भी संबंद्ध है. कई सालों से वे बच्चों के लिए नाट्य कार्यशाला का आयोजन भी कर रहे हैं. यहां अपना मोर्चा डॉट कॉम की तरफ से पेश है उनकी पांच कविताएं.
लिखना
हर हाथ पर काम लिखना
हर रोटी पर नाम लिखना
झूठ-मूठ कुछ न लिखना
और जो लिखता हो
उसे बदनाम लिखना
पैसा लिखना
अहसान लिखना
परेशान को परेशान लिखना
ख़ामोश जो रहता हो
उसे ख़ामोशी का अंजाम लिखना
सुबह को सुबह लिखना
शाम को शाम लिखना
राम-राम करके जो गुज़र गया
थोड़ा तफ़सील से ठहरकर
उस वक़्त का कुछ हाल लिखना
पहले लिखना आंसू
फिर लिखना पसीना
लड़कर जो हार गया
हार कर भी जो लड़ता हो
उस आदमी का मेरा सलाम लिखना।
मनुष्य
एक शब्द ' हिन्दू ' लिखते-लिखते
अचानक हाथ रुक जाता है
अब मैं 'मनुष्य ' लिखना चाहता हूं
होने को मेरा नाम हरिओम है
और मैं हिन्दू हूं
पर अब इससे ज़्यादा
और हिन्दू होने की
आकांक्षा नहीं है मेरे भीतर
ज़्यादा हिन्दू होने के लिए
किसी से नफ़रत करनी पड़ेगी
इसलिए इतिहास के
पचड़े में ही नहीं पड़ना चाहता
हुंकार , विहान , स्वाभिमान , राष्ट्र , दहाड़
जैसी शब्दाबली डराने लगी है
भाषा और संस्कृति के पेंच में फंसाकर
आप एक
आभासी भय की संरचना करेंगे
और एक दिन
दंगाई बना देंगे मुझे ।
मैं गायक बनना चाहता था
शुरू किया जो बेटे ने गाने का अभ्यास
मेरे भीतर भी कुछ बजने लगा
काश ! मैं भी गा पाता
ओंठों तक आकर
ठहर गए शब्द
तन-मन में सिहरन सी दौड़ गई
एक लहर सी आई
भिगो कर चली गई
शब्द रहित लय तैर गई स्मृति में
समय को ठेलकर
चालीस साल पीछे लौट गया
छन-छन कर सुनाई पड़ी
एक बूढ़ी स्त्री की बुझी हुई आवाज़
तनिक जलकर बुझ गई
हवा में हिलती
टाँड़ पर धरी चिमनी की लौ
सुन्दर स्वप्न की तरह था एक गान
जो अकेले हो जाने की असहायता
और भीड़ में खो जाने से बचाता था
जो भीतर रह-रह कर कुरेदता रहता
और बाहर आते ही
हवा में कहीं बिखर जाता
जिसे गा ही न पाया कभी ठीक से
कैसी बिडम्बना रही कि मुझे पता ही नहीं
मैं गायक बनना चाहता हूँ
न गला , न वैसा अभ्यास
न कोई बाजा ही मेरे पास
गायक हो जाने का भरम भी नहीं
आज बेटे ने गाया तो
गाने का भरम आया
एक सपना आया
और बगल कम्बल में आकर दुबक गया
कोई बनाना चाहता अगर
हो न हो मैँ भी बन गया होता गायक
उस समय में भी इस देश में
लोग बनाये जा रहे थे जाने क्या-क्या
कुछ जो गायक बनना चाह रहे थे
बाद में तोता ही बनकर रह गये
कुछ बनते-बनते लोगों को बनाना सीख गये
कुछ एक बार जो कौआ बने तो
फिर उससे आगे कुछ बन ही न सके
कोई व्यवस्था में फिट होकर कुछ बन गया
कोई अव्यवस्थाओं की बजह से कुछ न बन सका
कोई बनते-बनते तनिक रह गया
कोई बनते-बनते पूरा ही बन गया
कोई अभावों से हारकर चुप बैठ गया
कोई अभावों से लड़कर कुछ बन गया
पर मैं न बन सका गायक
उन बहुत सारे लोगों की तरह मुझे भी
बिलकुल भी पता न था
कि मैं गायक भी हो सकता हूँ
निज गौरव के लिए नहीं थी
मुझमें गायक हो जाने की आकांक्षा
पहले यूं ही गाता था
गाता तो गाता ही चला जाता
कभी पिता की घुड़की रोक देती
कभी बहिनों की न रुकने वाली हंसी
कभी कनारी के मुंह से मुंह मिलाकर गाता
कभी दरबाजे पर देर तक
उंगलियों से तीन ताल बजाता
देर तक गणित का सवाल अधूरा छोड़
टेबल ठोक-ठोक कर चिल्लाता
पर गाना मेरा कभी
गाने जैसा तो नहीं ही हो पाता
आज बेटे ने जब गाया तो
एक गीत बर्फ़ की तरह
पिघलने लगा भीतर ही भीतर
और चालीस साल बाद आंख की कोर से
आंसू बनकर रिस गया ।
वह लड़की
कहां चली गई वह लड़की
कोई नहीं करता उसका ज़िक्र
गीत भी चले गए उसके साथ
चला गया गांव का जस
सौदा करने गई थी हाट में
कोई खुद उसे
खरीद ले गया शायद
अबकी ऐसी गई
लौटकर नहीं आई
ऐसी परी तो नहीं थी
फूल सा नहीं था उसका शरीर
बड़ी - बड़ी आंखों
और पतली कमर वाली
वह सांवली-सी लड़की
काले-काले खेतों में खड़ी
गेंहू की हरी बाल थी
पहले भी जाती थी कई बार
चैत काटने
या मजूरी को दूर देश
गांव सोचता था
अबकी न फिरेगी
मर-खप जाएगी कहीं
उठा ले जाएगा जिनावर
या घास काटते वक़्त
डस लेगा उसे सांप
हुलसकर गाते हुए
वह लौट आती थी हर बार
चढ़ती नदी में कूदकर
निकल आती थी साबुत
फूले हैं टेसू
कुहुक-कुहुक उठती है कोयल
लौट आया बसंत
लौटकर नहीं आई वह लड़की ।
लक्ष्मी
स्कूल तो चली ही जाना
पहले भजियन डारी कड़ी बनाओ
लाल धधकते दिये से
कड़ी में बघार लगाओ
फिर रोटियों की जेठ बनाओ
खाना परसो
जाओ ! थोड़ा नमक ले आओ
चूल्हे के पास धरी
दियासलाई उठा लाओ
हैंडपम्प से चार डिब्बा पानी भर दो
काम निपट जाए फिर जी भर कर पढो
अब किताबें धर दो , झाड़ू उठा लो
दाल बीनो , दूध जमा दो डलिया भरी राख , घूरे पर फेंक आओ
देहरी पर बैठे कुत्ते को भगाओ
तुम्हारे होने से घर का होना है
सीना , पिरोना , लीपना , ढिग देना है
झटकारना , बुहारना ,फटकारना
छोटे भाई-बहिनों को पुचकारना
तेज धार में बहते चले जाना
कीक मारकर नहीं
धीरे-धीरे सुबकना
समय मिलते ही पाठ याद करना
दो-दो घरों में उजियारा जो करना है
रोना , झींकना , गिड़गिड़ाना है
मन की बात मन में छुपाना है
उपवास करके आरती गाना है
होम लगाकर टुनटुनी हिलाना है
एक सुकोमल सुंदर स्त्री
जैसे रंगीन केलेण्डर में
मंद-मंद मुस्काते
भगवान विष्णु के पैर दबाती है
और पैर दबाते - दबाते एक दिन
तस्बीर में तब्दील हो जाती है ।
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कवितानुमा कुछ...
छत्तीसगढ़ के दुर्ग में रहने वाले कैलाश बनवासी मूलतः कथाकार है, लेकिन इसी महीने 11 जून 2019 को उन्होंने एक कविता लिखी और फिर उसे कविता मानने से इंकार भी कर दिया. सच भी है. जो कुछ भी उन्होंने लिखा है वह सिर्फ कविता नहीं बल्कि हमारे भयावह समय का भयावह सच है.
यहां एक हत्या हुई है
--सरासर हत्या!
खून से लिथड़ी लाश आंगन में पड़ी है
मौके पर चीख-पुकार मची है
(टीवी स्क्रीन पर लाइव रिपोर्ट)
लेकिन अंदाजा लगाना मुश्किल है
कितना है आक्रोश और कितनी है खुशी
क्योंकि अभी-अभी मकतूल और क़ातिल के धर्मों की पहचान हो गई है
और यह खोज फरार हत्यारे की खोज से कहीं ज़्यादा बड़ी है
और ज़रूरी
यहां तक कि उसे सज़ा दिलाने से भी ज़्यादा ज़रूरी!
मृतक के पास एक दल का झंडा मिला है
हत्यारे के घर पर दूसरे दल का
दोनों जगहों के प्रत्यक्ष गवाह कैमरे में कह रहे हैं--यह साजिश है!
भरोसा किस पर करना है- यह आप तय करें
भीड़ अपना फैसला तय कर चुकी है।
- कैलाश बनवासी
मुंबई में गूंज उठी बस्तर की दास्तां
रायपुर. उदारीकरण के इस दौर में जहां हर कहीं पैसा बोलता है, वैसे में मुंबई जैसे महानगरों में भौतिक संसाधन के लिए मची होड़ के बीच विकास के क्रम में पिछले पायदान पर अबतक रहने वाले बस्तर की दास्तां गूंज उठी. दरअसल, बीते दिनों मुंबई प्रेस क्लब में श्रुति संवाद कला अकादमी की ओर से आयोजित सम्मान समारोह में बस्तर के रहने वाले देश के प्रसिद्ध प्रगतिशील किसान व संवेदनशील जनकवि डॉ राजाराम त्रिपाठी ने अपनी कविता ‘मैं बस्तर बोल रहा हूं’ के माध्यम से बस्तर की दशा-दिशा से लोगों को परिचित कराया. कविता मानों शब्दचित्र गढ़ रही हो. डॉ त्रिपाठी ने इसके इतर कई अन्य कविताओं का भी पाठ किया. कविता की पंक्ति – ‘हां मै बस्तर बोल रहा हूं., अपने जलते जख्मों की कुछ परतें खोल रहा हूं...जल जंगल जमीन के बदले, मुफ्त का चावल तौल रहा हूं, हां मैं बस्तर बोल रहा हूं.../ लोगों को बस्तर की दर्द के साथ एकाकार कर दिया.
सम्मान समारोह में डॉ. त्रिपाठी को साहित्य व पत्रकारिता के क्षेत्र में योगदान के लिए प्रशस्ति-पत्र देकर सम्मानित किया गया. डॉ त्रिपाठी के सम्मान में प्रशस्ति-पत्र डॉ मेधा श्रीमाली ने पढ़ा. उल्लेखनीय है कि डॉ त्रिपाठी की ‘मैं बस्तर बोल रहा हूं’ प्रतिनिधि कविता है, डॉक्टर त्रिपाठी की इस कविता के बाद ही रचनाकारों में बस्तर की व्यथा कथा को कविता इस तेवर में ढालने का चलन चल निकला है. इसके अलावा उन्होंने पद्य और गद्य में भी काफी लेखन किया है. जनजातीय समुदाय पर केंद्रित साहित्यिक व समाचार पत्रिका ‘ककसाड़’ व वैश्विक मामलों की अंग्रेजी पत्रिका ‘कल्ट करंट’ का संपादन करते हुए देश-विदेश के पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन करते रहे हैं. समारोह में श्रुति संवाद कला अकादमी के अध्यक्ष अरविंद राही ने डॉ. त्रिपाठी के साहित्यिक उपलब्धियों से लोगों को रू-ब-रू कराया.
डॉ. त्रिपाठी ने समारोह को संबोधित करते हुए कहा कि कविता अनुभवों के झंझावात से छन कर स्वतः बहती है. कोई भी कविता आस-पड़ोस, गांव-समाज, रिश्ते-भावनाओं के नम धरातल पर अंकुरित होती है. मैं बस्तर के सुदूर गांव कहें या जंगल, मैं वहीं रहता हूं. आस पास जो चीजें घटित होती हैं, वह मुझे संवेदित करती है. मेरी कविताएं या अन्य लेखन का विषय ज्यादातर गांव-खेती-किसानी से संवंधित है. मैं स्वयं एक किसान हूं.
उन्होंने आगे कहा कि अगर देश की कृषि के बारे में बात की जाए, तो यह भारत के कृषि का कृष्णपक्ष है. कृषि आईसीयू में है. इसके उद्धार के लिए संजीदा इलाज की जरुरत है. उन्होंने कहा कि उनके नेतृत्व अकिल भारतीय किसान महासंघ ने किसानों की आर्थिक स्थिति में बेहतरी के लिए किसानों के पेंशन के लिए सरकार को सुझाव दी थी, जिसे सरकार ने मान लिया और किसान पेंशन योजना की शुरुआत हुई है. इसके लिए उन्होंने सरकार को बधाई तो दी लेकिन उन्होंने कहा कि कृषि क्षेत्र को आईसीयू से निकालने के लिए नीतिगत स्तर पर बड़े फैसले लेने की आवश्यकता है. इसके बगैर हम भारतीय कृषि के शुक्लपक्ष की कल्पना नहीं कर सकते.
सम्मान समारोह के पश्चात आयोजित कवि गोष्ठी में वरिष्ठ कवि पं. किरण मिश्र ‘अयोध्यावासी’, चित्रा देसाई, नीलम दीक्षित, रासबिहारी पांडे, अरविंद राही, अलका पाण्डे, रीता दास, सुरेश शुक्ल ने काव्य पाठ किया. हिंदी पत्रकार संघ के महासचिव विजय सिंह ने डॉ त्रिपाठी की कृषि क्षेत्र की उपलब्धियों पर प्रकाश डाला. अतिथियों का स्वागत सुरेश शर्मा तथा डॉ रश्मि पटेल ने किया।
नीरज मनजीत की कविताएं
नीरज मनजीत की कविताएं चिलचिलाती धूप, जोरदार बारिश, बादलों के शामियाने और पहाड़ के आशियाने से टकराकर अपनी बात कहती है. मनजीत अपनी कविताओं में प्रकृति को बेहद सम्मान देते हैं और उसके साथ चलना पसन्द करते हैं. जीवन के संघर्ष के दौरान मनुष्य और प्रकृति का रिश्ता कितना खूबसूरत होता है यह मनजीत की कविताओं को पढ़कर समझा जा सकता है. मूलतः कवर्धा के रहने वाले मनजीत का लंबा वक्त पत्रकारिता में गुजरा है. वे घुमक्कड़ भी है, इसलिए उनकी कविताएं हमें पहाड़ पर छलांग मारने और नदियों को फलांगने काआमंत्रण देती है. अपना मोर्चा डॉट कॉम की तरफ से पेश हैं उनकी चार कविताएं.
( एक )
राग - ज़िंदगी
ज़िंदगी रोज़ लिखी जा रही
किताब की तरह खुलती है
हमारे नज़दीक ,
क्योंकि वो पहले से लिखा जा चुका
सिलसिलेवार उपन्यास नहीं है
हमने रचे हैं पात्र जिसके
और जिसका अंतिम अध्याय वही है
जो हमने लिखा है ।
ज़िंदगी किताब से निकलकर
खुशबू में लिपटी हवाओं की तरह
फ़ैल जाती है
गाँवों में शहरों में ,
पठारों पहाड़ों बाग़-बग़ीचे जंगलों में ,
बर्फ़ से ढँकी वादियों में ,
नदियों के जल में
महासागरों की उत्ताल तरंगों में ,
मरुस्थल से उठती
रेत की आँधियों में ।
विचरती है
अंतरिक्ष के विस्तार में ।
ज़िंदगी चली जाती है
चाय बागानों में पत्तियाँ तोड़ती
टोकरियाँ पीठ से बाँधे औरतों के बीच ,
खेतों में बीज बो रहे
किसानों के बीच ,
सड़कों पर हाथ ठेला खींच रहे
मजूरों के बीच ,
फैक्टरियों में मशीनें चला रहे
कामगारों के बीच ,
कतारों में खड़े आम आदमी के साथ
खड़ी हो जाती है ,
अभावों की मस्ती में जी रहे
लोगों की बस्तियों में जाती है
उनसे बातें करती है
उनका हाथ पकड़ती है
उन्हें दिलासा देती है
और उन्हें सौंपती है
बेहतर कल के सपने ।
और लौट आती है
कुछ अनुभव लेकर ज़िंदगी
फिर से हमारी कविताओं में
कहानियों में
और उस किताब में
जिसे अभी-अभी
हमने लिखना शुरू किया है ।
( दो ) ॉ
बारिश का पानी
कल रात
खिड़की के शीशे पर
बारिश की बौछार पड़ी थी,
उसकी कुछ बूँदें समेटकर मैंने
अपनी डायरी के पन्नों में
रख ली हैं।
डायरी खोली थी
कुछ रोज़ पहले,
देखा कि
उसमें लिखी
बहुत-सी कविताएँ
मेरी
बहुत-सी नज़्में
गरमी की धूप में
खुश्क हो गयी हैं
और फ़ीके पड़ गए हैं
उनके चेहरे।
उनके अक्षर
उनके शब्द
उनकी पंक्तियाँ,
दिल को तसल्ली देनेवाले
उनके जज़्बात,
नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़
तनकर खड़ी होने की
उनकी हिम्मत--
सबकुछ
कुम्हला गया है।
सावन के बादलों से
कुछ टुकड़े काट लिये हैं
और
एक शामियाना बनाकर
उनके ऊपर
तान दिया है,
ताकि बहता रहे उनके भीतर
बारिश का पानी।
( तीन )
तुम्हारे भीतर
वे सारे समुन्दर
जो तुम्हारे भीतर
तरंगित होते थे,
तुमने उन्हें चित्रों में बाँधकर
दीवार से टाँग दिया है।
वो नदियाँ
जो तुम्हारे अंतर्मन में
प्रवाहित होती थीं,
वे अब
तुम्हारी किताबों में
बहती हैं।
लेकिन तुम रीते नहीं हो
मेरे मित्र!
तुम खुद हो
अपने भीतर,
और वे सारी नदियाँ
और वे सारे समुन्दर
और सद्यस्क सृजन की संभावना।
***********
( चार )
काँच की किताब
वो जो कहानियाँ
वो जो कविताएँ
लिखी गई हैं
लिखी जा रही हैं
प्यार की,
वो काँच के शब्दों से
काँच के सफ़हों पे
लिखी जा रही हैं।
प्यार के लिए
काँच की एक किताब
लिखी जा रही है,
काँच के शब्दों से।
इसे आँखों के सामने रखकर देखो
तो वो सबकुछ दिखता है
जो हम देख सकते हैं।
लेकिन इसे
पढ़ नहीं सकते।
अंतर्मन में महसूस करो
इसके शब्दों का स्पर्श।
वो जो किताब
लिखी जा रही है
प्यार की,
उसके कुछ सफ़हे
कुछ पाठ गिरकर टूट चुके हैं।
फिर भी वो किताब
लिखी जा रही है
लिखी जाती रहेगी सदा।
नए वरक़ जुड़ते रहेंगे उसमें
नए पाठ लिखे जाएँगे
प्यार के।
काँच के शब्दों से।
परिचय
नीरज मनजीत
साहित्यकार, स्वतंत्र पत्रकार
जन्म-- 26 मई 1952, कवर्धा में।
नियमित लेखन 1970 से।
आकाशवाणी रायपुर से रचनाओं का नियमित प्रसारण 1975 से।
पाँच बार रेडियो साहित्य पत्रिका पल्लवी का संपादन।
1985 से पत्रकारिता में।
सम-सामयिक राजनीति, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र, साहित्य, अध्यात्म, खेल, सिनेमा,
कारोबार तथा अन्य कई विषयों पर एक हजार से अधिक लेख प्रकाशित। कॉलम राइटिंग भी।
एक कविता संग्रह तथा संपादन में एक यात्रा-वृत्तांत संग्रह प्रकाशित।
फिलहाल स्वतंत्र लेखन और व्यवसाय।
संपर्क-- हैप्पीनेस प्लाजा, नवीन मार्केट, कवर्धा 491995
मोबाइल -- 96694 10338
ईमेल --- [email protected]
कमलेश्वर साहू की कविताएं
बस्तर के धुर माओवादी इलाके में पदस्थ कमलेश्वर साहू भले ही एक पुलिसकर्मी है, लेकिन उनकी संवेदना का स्तर बेहद ऊंचा और अलग है. देश की शायद ही कोई ऐसी पत्रिका हो जिसमें कमलेश्वर साहू की कविता न छपी हो. अमूमन हर छोटी-बड़ी पत्रिकाओं ने उनकी कविताओं को सम्मानजनक ढंग से स्थान दिया है. नाटकों के लिए गीत और संवाद लिखने वाले कमलेश्वर कई कविता संग्रह आ चुके हैं. पहले भिलाई और अब दुर्ग के निवासी कमलेश्वर साहू कभी पुलिस की नौकरी में जाएंगे यह उनके मित्रों ने भी नहीं सोचा था. सबको लगता था कि एक संवेदनशील इंसान पुलिस की नौकरी कैसे कर सकता है, लेकिन कमलेश्वर ने इस धारणा को बदलकर रख दिया है. अपना मोर्चा डॉट कॉम के लिए यहां उनकी कुछ कविताएं प्रस्तुत है. उम्मीद है आप सबको अच्छी लगेगी.
लिखा जाना चाहिए
नदी में पानी लिखा जाना चाहिए
पहाड़ पर चट्टान
जंगल में पेड़
खेत में फसल
यदि नदी में पानी लिखा जाना चाहिए
तो चट्टान में खनिज
पेड़ में पंछी
और फसल में किसान लिखा जाना चाहिए
यदि लिखा जाना चाहिए उपरोक्त
तो कुछ लोगों की नीयत पर 'शक' लिखा जाना चाहिए
लिखा जाना चाहिए
बिचौलिए, व्यापारी, उद्योगपति, राजनेता
और अंत में लिखा जाना चाहिए 'सांठ-गांठ'
लिखा जाना यहीं नहीं होता समाप्त
चूंकि समाप्त नहीं होती दुनियां यहीं
समाप्त नहीं होती दुनिया
तो दुनिया के तमाम लिखी जाने वाली चीजों पर
लिखा जाना चाहिए
ठोक-बजाकर, दावे से
और लिखे जाने के बाद
लिखा जाना चाहिए
सावधान !
यह जनसम्पति है !!
मुहावरे का वजन
चूंकि वह झूठ नहीं था इसलिए सच था
चूंकि वह सच था इसलिए कड़वा था
हालांकि सच का कड़वा होना मुहावरा था
सच को मुहावरा बनने में
हजारों वर्ष लगे थे
हजारों वर्षों से
मैं किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में हूँ
जो सच को तौलकर
मुहावरे का वजन बता दे
या फिर महाजनी सभ्यता से
मुक्त करा दे !
मानुष गंध की कविता
एक खास किस्म की खुश्बू थी वह कृत्रिम
सर्वथा अपरिचित, तीखी, अभिजात्य
जो आई थी
उसके कपड़ों में बसकर
देह के साथ
मजदूर के घर
एक खास किस्म की खुश्बू थी वह कृत्रिम
आते ही टकरा बैठी
पसीने की गंध से
रही कमरे में कुछ देर
और कुछ देर में ही
हार गई पसीने की गंध से
ध्वस्त हो गया उसका साम्राज्य
अहंकार हो गया नष्ट
सारा तीखापन रफूचक्कर
जिस देह से आ रही थी खुश्बू कृत्रिम
सर्वथा अपरिचित, तीखी, अभिजात्य
उस देह ने
कुछ ही देर पहले
स्वीकार किया
अपना मनुष्य होना !
अच्छा नहीं हो रहा है
पोस्टर का नारों में बदल जाना
नारों का झंडों में
झंडों का। लाठी में
लाठी का। बंदूक में
बंदूक का तानाशाह में
तानाशाह का इतिहास में
इतिहास का विचार में
विचार का उपदेश में
उपदेश का धर्म में
धर्म का मंत्र में
मंत्र का ताबीज में
ताबीजधारियों का नागरिक में
इस तरह हो रहा है यदि बदलाव
तो यकीन मानिए
देशहित में
अच्छा नहीं हो रहा है !
सुनें
सबसे ज्यादा पीछा करती है जो आवाज
चौकाती हुई, ललकारती सी
उस आवाज में घुला होता है 'सुनें'
खबरों के बाज़ार में
या यूं कहें संसार में
सुनने के लिए पैदा हुए हैं आप
कहने के लिए नहीं
इन दिनों हवा में नहीं
खबरों में सांस ले रहे हैं आप
जी रहे हैं
खबरों की न खत्म होने वाली
संक्रामक परतों में लिपटा हुआ जीवन
आप हर पल, हर घड़ी
'सुनें' की गिरफ्त में हैं
नकली है आपकी आजादी
आपका जनतंत्र
जब कोई कहता है
इस देश की जनता हो
तो आप सुनते हैं
'सुनें'
इस देश के नागरिक नहीं हैं आप
जब कोई विकास कहता है
जब कोई मुक्ति कहता है
जब कोई अधिकार कहता है
जब कोई संघर्ष कहता है
सही ही कहता है
मगर आप तक 'सुनें' ही पहुंचता है
'सुनें'
लाठी है मानो
जिससे हकालते हैं वे आपको
उनकी नज़रों में
भेड़ों से ज्यादा नहीं महत्व आपका
भीड़ हैं आप उनके लिए
भगवा सुनें
खादी सुनें
खाकी सुनें
विपक्षी सुनें
विरोधी सुनें
षड्यंत्र सुनें
और तो और
फैशन सुनें
नग्नता सुनें
प्रतिस्पर्धा सुनें
ना-ना प्रकार के अदृश्य हाथ हैं
आपके गिरेबान पर
झिंझोड़ते हुए- 'सुनें'
जुलूस सुनें
नारे सुनें
खबरें सुनें
सुनने के लिए अभिशप्त 'सुनें'
वैसे भी
जिस ज़मीन पर खड़े हैं आप
उस जमीन से
सुना ही जा सकता है
कहा नहीं जा सकता-
'सुनें'
आधा
आधी दुनिया अस्पताल में बदल चुकी है
दुनिया के आधे लोग मरीज में
आधे डॉक्टर कसाई में, क्रूर तानाशाह में
आधे ऑपरेशन थियेटर गैस चेम्बर में
ऑपरेशन के आधे उपकरण हथियार में बदल चुके हैं
आधी सफेदी हमें अंधा बनाने में लगी हुई है
आधे परीक्षण मुनाफे के लिए हैं
आधी दवाईयां जानलेवा हैं, जहर में बदल चुकी हैं
आधी-आधी रात जागते रहते हैं
आधे लोग
इस उधेड़बुन में
कि क्या करें
बचे हुए इस आधे का !
ये वही तिकड़मी लोग हैं जो
बचे हुए आधे लोगों को
मरीज में बदलकर
अस्पताल में बदल देना चाहते हैं
बची हुई आधी दुनिया को !!
मगर जब गोली चली
जिनके हाथ में बंदूक थी
उनके निशाने पर दिल्ली थी
मगर जब गोली चली
दिल्ली नहीं
मारा गया मजूर
मारा गया किसान
मारा गया इस देश का आदमी आम
दू.... र
दिल्ली तो खड़ी रही
अपने पूरे वैभव के साथ
अड़ी रही !
(जब भी लड़ना)
हजारों लोगों को कर बेघर
बनाते हैं बंगला आलीशान
हजारों लोगों की मेहनत को
भुनाते हैं अपने हित में
हजारों लोगों को रखकर भूखा
मिटाते हैं अपनी भूख
हजारों लोगों के सपनों में कर सेंधमारी
करते हैं अपना। सपना साकार
जरूरत है
उन्हें पहचानने की
उनके खिलाफ तनने की
बदलाव के लिए जरूरी है
उनका बिगड़ना
जब भी लड़ना
मेरे मित्र, मेरे साथी
बदहाली से बदलाव की बहाली के लिए
उन्हीं खिलाफ लड़ना !
हर बार बाजी
जन के जीवन का
सबसे बड़ा यथार्थ है यह
और सबसे बड़ी त्रासदी
कि हर बार या तो
मसखरा राजा होता है
या फिर
राजा मसखरा
जो गाता है-
जनता के हाथ में है अधिकार
जनता ही बदलती है सरकार
जनता ही पहनाती है मुकुट या ताज
जनता ही चुनती है अपना राजा
अपना पालनहार
हर बार दांव लगाकर
हर बार बाजी
जनता ही हारती है
न मसखरे का कुछ बिगड़ता है
न राजा का कुछ जाता है !
बिना पते की चिट्ठी
चिट्ठी लिखने के जमाने में
लिखी गई थी चिट्ठी
पता लिखना भूल गया था शायद
लिखने वाला
या फिर था भविष्यद्रष्टा
जानता था
चिट्ठी लिखने का जमाना
छूट जाएगा पीछे
बहुत पीछे, बहुत जल्द
और फिर जानबूझकर
बिना पता लिखे ही
डाल गया वह
पोस्ट ऑफिस के सामने टंगे
लाल डिब्बे में
बिना पते की चिट्ठी
चिट्ठी लिखने के जमाने में
लिखी गई चिट्ठी वह
भटक रही है आज के इस
चिट्ठी न लिखने के जमाने में उस पते की तलाश में
जो लिखा जाना चाहिए था उस पर
भटक रही है बरसों से
इस डाकघर से उस डाकघर
उस डाकघर से, उस डाकघर
इस डाकिए के हाथ से उस डाकिए के हाथ
उस डाकिए के हाथ से उस डाकिए के हाथ
बिना पते की चिट्ठी वह
लगती जिस डाकिए के हाथ
देखता वह उसे आश्चर्य से
उलटता-पलटता बार-बार
बिना पते की चिट्ठी वह
चिट्ठी लिखने के
ऐतिहासिक जमाने की याद दिलाती
जिस डाकिए के हाथ लगती चिट्ठी
हो जाता उदास
उदासी में बुदबुदाता बरबस-
चिट्ठी लिखने का भी
अपना एक जमाना था !
अंजन कुमार की कविताएं
भिलाई के कल्याण महाविद्यालय में बतौर सहायक प्राध्यापक कार्यरत अंजन कुमार ने नाट्य संस्था कोरस से जुड़कर कई नाटकों में अभिनय किया. धीरे-धीरे वे कविताओं की ओर मुड़ गए. उनकी कविताएं खौफनाक समय से मुठभेड़ करती है. यहां अपना मोर्चा डॉट कॉम की तरफ से प्रस्तुत है उनकी कुछ चुनिंदा-बेजोड़ कविताएं.
आवाज
जब धुंध गिर रही हो चारों तरफ
रास्ते सुरंग में
और आदमी सायों में
बदल रहे हो
धुंध और सन्नाटा
कुछ इस तरह
बुन रही हो रात
कि किसी को पहचानना भी
मुश्किल हो रहा हो
तब
एक आवाज ही बच जाती है
जिसके सहारे
पहचाना जा सकता है आदमी।
हाथ
रोशनी चली जाये अगर
और अंधेरा हो जाये
अंधेरा इतना
कि रास्ता तक दिखाई न दे
चलना तक हो जाये मुश्किल
तब हाथ ही होते हैं
जो आँखों का काम करते हैं
जिसके सहारे ढूँढते हैं रास्ता
बढ़ते हैं आगे
अंधेरे में
ये हाथ ही होते हैं
जे ढूँढ निकालते हैं
हमारी खोई हुई रोशनी
बस, हाथों को
रोशनी का पता होेना चाहिए ।
बाघ
अपनी शानदार खाल
चाटता हुआ
खुश था बाघ
कि सारा जंगल डरता है
उसके मजबूत दाँतों से
और तेज नाखूनों से
बाघ
इतना खुश था
कि बाघ ही रहा
निकला नहीं
कभी जंगल से बाहर
और एक दिन
अपनी शानदार खाल
मजबूत दाँत
और तेज नाखूनों के कारण ही
वह मारा गया.
अंधेरे की उजली गुफा
उदास चेहरों के बीच
एक लालटेन थी
जिसमें अंधेरा नहीं
समय जल रहा था
अंधेरा
उजाले की मोटी दीवार के पीछे खड़ा हंस रहा था
उन कटे हुए हाथों पर
जो जमीन में हाथ गड़ाये
ढंूढ रहे थे अपनी घड़ी
जिसमें समय न जाने कब से
दफ्न पड़ा था
उन बूढ़ी आँखों पर
जो ढूंढते हुए अपनी आँखों की रोशनी
ले आये थे मुफ्त में
जीवनभर का अंधेरा अपने लिए
उन स्त्रियों पर
जो गई थी देश के विकास में नसबंदी कराने
और दे आई थी अपनी जानें
उन तमाम लोगों पर
जो सायों की तरह उतरते सीढ़ियाँ
अपने घरों की
और गुम हो जाते भीड़ में
अपने खो चुके चेहरों की तरह
अंधेरा हंस रहा था
जिस उजाले पर
एक अंतहीन अंधेरे की उजली गुफा थी
एक तिलस्म अनंत इच्छाओं और भूख का
जिसकी मोहपाश में बंधें
गिरते है जहाँ, एक-एक कर
ठगे, पर फूले हुए चेहरे लिए
आश्चर्य लोक के यात्री बन सभी
उजाले के शोर में गुम
बाँधें हुए आँखों पर रंगीन चमकदार पट्टी
सब दिखते एक से
एक से भाव और उत्तेजना में लिप्त
अपने को ही उधेड़ते
खोलते आदिम वासनाओं के द्वार
भटकते रिक्तता के मरूस्थल में
उजाले की चमकती मृगमरीचिकाओं के साथ
रेत होते जीवन तक
जहां पाने के लिए कुछ भी नहीं
एक और नई इच्छा के सिवा
और इच्छा भी किसी इच्छाधारी सर्प की तरह
अपना रूप बदल-बदलकर डसने को तैयार
जहर बुझे तीरों की तरह आँखों को बेधती हुई
विषाक्त करती पूरे जीवन को
मैं गिरता हूँ इस उजली गुफा में
सूखी चाम पर
चूसी गई हड्डियों पर
पथराई आँखों पर
क्षत-विक्षत भूखी नंगी सैकड़ों मृत देहों पर
दबी हुई योजनाओं के बड़े-बड़े
विज्ञापनों के नीचे
जो कभी खबर नहीं बन पायी
किसी भी अखबार की मुख्य पृष्ठ की
ना ही दिखाई गई बार-बार किसी भी टी.वी. चैनल पर
जैसे दिखा दी जाती है अक्सर
किसी माडल के अधोवस्त्र के गिरने की खबर
बार-बार लगातार पूरी रोचकता के साथ
एक उजली और चमकदार गुफा है यह
जिसमें हर बड़ा चेहरा
प्रेतआत्माओं-सा घेरे हुए
लगातार लगा हुआ है
आत्महीन
विवेकहीन
चरित्रहीन
और व्यक्तित्व विहीन
करने में हमें।
मृत्यु के संगीत पर
एक नयी भाषा में
रची जा रही है दुनियाँ
जिसमें न हमारी आत्मा होगी
न हमारी संस्कृति
और न ही हमारे जमीन की गंध
बदल जायेंगी जहाँ
जीवन की सारी परिभाषाएँ
बदल जायेगें स्वप्नों के अर्थ
स्वाद
जीभ तक सिमटकर रह जायेंगे
और भूख निकल आयेगी
पेट से बाहर
आदर्श
जूते की तरह
पहने जायेंगे
बदले जायेंगे मूल्य
कपड़ों की तरह
जहाँ विकास और विनाश में
कोई फर्क नहीं होगा
रात
जहाँ दिन से अधिक
चमकदार होगी
और
जीवन जहाँ नाचेगा
प्रेत की तरह
मृत्यु के संगीत पर।
एक रंग
एक रंग
ऐसा भी है
जिसे देख
अब श्रद्धा नहीं
उपजती है घृणा
उपतजा है क्रोध
उपजता है असंतोष
आती है उबकाई-सी
जिसने तमाम रंगों को
बांट दिया
रहने नहीं दिया
रंगों को रंगों की तरह
जीवन में
मिल-जुल कर
प्रेम से।
दीवार घड़ी
( एक )
रोज सुबह
आदत के मुतााबिक
जब देखता हूँ दीवार की तरफ
तो याद आता है
अरे, यह तो बंद पड़ी है कई दिनों से
रोज सोचता हूँ
किसी अच्छे घड़ीसाज से
सुधारवा लूँ इसे
और अक्सर भूल जाता हूँ
अपनी व्यस्तता में
क्या करूँ
ऐसा लगता है मानों
किसी ने इसके कांटे निकालकर
दिमाग में फिट कर दिए हों
ताकि इसे देखने की जरूरत ही न पड़े
और चाबी अपने पास रख ली हो
जैसे समय के कांटों पर
उसी का हक हो
कांटों से याद आया
घड़ी का सबसे सुन्दर
वह छोटा-सा सेकण्ड का कांटा
जो सबसे तेज चलता था
जिसके कारण ही
घंटे और मिनट के कांटे आगे बढ़ते थे
जिसके कारण
घड़ी के चलने का पता चलता था
जिसके चलने की आवाज से
लगता था मानो
घर की धड़कने चल रही हों
रात घर की कोई पहरेदारी कर रहा हो
कोई खामोशी को तोड़
खालीपन को भर रहा हो
इसके यंू बंद पड़ने से
सन्नाटा सा पसर गया है घर में
हर चीेज जैसे ठहर सी गई हो घर की
यहाँ तक की हवा भी
इसकी आवाज के बिना
कितनी गहरी लग रही है रात
कितना वीरान लग रहा है घर
कितना खालीपन महसूस कर रहा हूँ मैं
दीवार पर
अनापेक्षित-सा टंगा होने के बावजूद
एक जरूरी हिस्सा था यह घर का
जिसे यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता इस हालत में
इसे ठीक करना ही होगा
ढूँढना ही होगा
कोई अच्छा घड़ीसाज।
( दो )
जिस घड़ीसाज को
मैंने घड़ी ठीक करने के लिए दी थी
उसने बदल दिये हैं
मेरी घड़ी के कांटे
निकाल दिया है उसने
मेरी घड़ी से सेकण्ड का वह कांटा
जो सबसे छोटा था
लेकिन सबसे तेज चलता था
पूछने पर बताया उसने-
कि बेकार हो गया था वह
और उसी की वजह से
बार-बार बंद पड़ जाती थी घड़ी
वैसे भी
जब उसके बिना भी देखा जा सकता है समय
तो क्या जरूरत है उसकी
बाजार में अब तो
ऐसी सैकड़ों घड़ियाँ आ गई हैं
जिनमें सेकण्ड का कांटा होता ही नहीं
पर जिन्हें खरीदते हैं लोग
ले जाते हैं बड़े शौक से
देखते हैं समय
घड़ीसाज से
मैं अपनी घड़ी ले तो आया हूँ
पर जब भी देखता हूँ उसे
तो याद आता है मुझे
सेकण्ड का वह सबसे छोटा कांटा
जिसके बिना कितनी अधूरी लगती है यह घड़ी
यह घड़ी
जिसमें समय तो दिखता है
पर नहीं दिखता
सेकण्ड का वह छोटा-सा कांटा
जो बिना रूके, बिना थके
लगातार चलता रहता है।
मौतें
कुछ मौंते इतनी
क्रमिक और सुनियोजित ढंग से होती है कि
मरने वालों को पता ही नहीं चलता
कि वह कब मर गया
वह अपने हत्यारों के ही हाथों से
होता है सम्मानित
पाता है ढेरों पुरस्कार
उसके हत्यारें ही बन जाते हैं
उसके घनिष्ट मित्र
और उसे अपनी मौत का एहसास ही
नहीं होता
अखबार और टी.वी. चैनलों में
दिखाई देते हैं उसके
ढेरों जिन्दा तस्वीरें
और छुपा ली जाती है
उसकी मौत की खबर
जबकि
ऐसे मौतों की संख्या
होती है सर्वाधिक
और बढ़ती जा रही है लगातार.
नाम - डा. अंजन कुमार
जन्मतिथि वर्ष 1976
शिक्षा - एम.ए.(हिन्दी), बी.एड., एम.फिल, नेट, सेट, पी. एच. डी.
शोध कार्य - पाब्लो नेरूदा और शमशेर बहादुर सिंह की रचनाओं का तुलनात्मक विवेचन
संप्रति - सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, कल्याण स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सेक्टर-7,
भिलाई नगर, जिला-दुर्ग, (छ.ग.), पिन-490006
प्रकाशन - विभिन्न राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं एवं समीक्षाएं प्रकाशित।
अन्य - लम्बे समय तक रंगकर्म में सक्रिय।
पता - क्वा. नं.-4 , सड़क नं.-1, सेक्टर-8, भिलाई नगर,
जिला-दुर्ग, (छ.ग.) , पिन-490006,
मोबा. नं.- 9179356307, 9179385983
ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान
छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहर के रहवासी कैलाश बनवासी कथा की दुनिया में अपना एक अलग मुकाम रखते हैं. उनकी कहानियों में उनका और हम सबका आसपास तो रहता है, लेकिन वे कथाओं में जितने देशज रहते हैं उतने ही वैश्विक भी. उनकी कहानियों की सबसे बड़ी और खास बात यही है कि वे छोटी सी छोटी बात को विश्व पटल का हिस्सा बना देते हैं...। उनकी कहानियों को पढ़ते हुए हम सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि जो कुछ घट रहा है वह हमने देखा है...। जो कुछ भी हमसे होकर गुजरा है वह देश और किसी भी अन्य मुल्क का हिस्सा हो सकता है. लक्ष्य तथा अन्य कहानियां, बाजार में रामधन, पीले कागज की उजली इबारत, प्रकोप और उपन्यास लौटना नहीं है के जरिए कथा संसार में नए मुहावरे गढ़ने वाले कैलाश बनवासी को अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है. फिलहाल अपना मोर्चा डॉट कॉम के पाठकों के लिए पेश हैं उनकी एक बेजोड़ कहानी. इस कहानी का शीर्षक उन्होंने विजय कृष्ण आचार्य की निर्देशित फिल्म ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान से लिया है. कहानी का शीर्षक भी यहीं है. कैलाश बनवासी का मोबाइल नंबर है- मो. 98279 93920
घर के बरामदे में,आदतन,सुबह मैं अख़बार पढने में डूबा हुआ था. इधर देश की लगातार बिगड़ती आर्थिक स्थिति को लेकर सरकार या विपक्षियों के बयानों, सवालों या भंडाफोड़ों को लेकर अखबारों को बहुत ध्यान से पढना पढ़ रहा है.रोज नए घोटाले या सांप्रदायिक नफरतों से भरे नेताओं की बयानबाजियाँ...
और फिर अख़बार में रोज ऐसी ख़बरें पढ़ते है,जिनमें धोखा दिया गया हो,लूटा गया हो,घपला किया गया हो,कि ठगा गया हो या भ्रष्टाचार किया गया हो...
और माहौल ही कुछ ऐसा बन गया है कि हमें हर समय अपने ठगे,या लूटे जाने का डर सताता रहता है. कि घर बैठे-बठे ही आपके अकाउंट की जमा पूँजी कोई साइबर क्रिमिनल एक झटके में कब पार कर देगा,कोई ठिकाना नहीं! कि हर तरफ से ऐसे ही लूट-धोखाधडी-ठगी की लगातार बम-बारी करती ख़बरें हमारे दिल-दिमाग में एकदम घर कर गयी हैं, कि लोग हर क्षण इसी दहशत के साये में जी रहे हैं...
ख़ट-ख़ट-खट-खट!
अचानक, तभी किसी ने घर का गेट खटखटाया था. मैं एकदम चौंका. गेट में सामने ही ‘डोर-बेल’ है,लेकिन ये कौन बेवकूफ है जो गेट की कुण्डी खटखटा रहा है? वो भी सुबह के आठ बजे !मैं थोडा चिंतित हुआ, मन में कुढ़न हुई,क्योंकि अक्सर बेल या कुण्डी खटखटाने वाले अपने धंधे-पानी में लगे लोग होते हैं—कभी अख़बार बदलवाने पर प्लास्टिक कुर्सी या टब का ऑफर देने वाले,कभी दरी-कारपेट बेचने वाले,तो कभी कोई घरेलू उपयोगी चीजें बेचने वाले ,कभी दुर्गा-गणेश का चंदा मांगने वाले तो कभी रामायण-भागवत करने के नाम पर चंदा मांगने वाले. और इनसे उलझने- ,बहस करने में बहुत समय खपता है. मैंने सोचा कि लो फिर कोई आ गया पैसा मांगने वाला !
... घर के गेट में प्लास्टिक शीट चार फिट हाइट तक ऐसे लगी है कि किसी व्यक्ति का चेहरा इसके ऊपर से दिख जाता है.लेकिन इस समय वहाँ मुझे कोई नहीं दिखा. मैं अख़बार हाथ में लिए हुए ही गेट तक आ गया.ध्यान आया,कई बार पड़ोस के झोपड़पट्टी के बच्चे भी बेल बजा के भाग जाते हैं, शरारतन--सिर्फ हमारी खीज का मजा लेने के लिए !
मैं बाहर आँगन में आया,तो आठ बज चुकने के बावजूद अक्टूबर की नम-सी सुबह के हलके ठण्ड का आभास हुआ.गेट खोला,तो सामने सड़क बुहारने वाली नगर-निगम की स्वीपर दिखाई पड़ी,जो लम्बे डंडे वाली झाडू से बड़ी फुर्ती से सड़क बुहारने में जुटी थी.और गेट की दायीं तरफ दो बच्चे खड़े थे-- एक लड़की और एक लड़का.उनके चेहरे-पहनावे से ही नहीं,हाथ में लटके झोले और कटोरे में पड़े सूखे भात से ज़ाहिर था,ये भीख माँगनेवाले बच्चे हैं.
लड़की, जो एक ढीली और बहुत मैली फ्रॉक पहने थी, कहती है—पानी का बाटल दो ना..पानी पीना है.’ लड़की का स्वर एकदम सपाट है,बिलकुल भावहीन.फिर यह भी नोटिस किया कि उसके कहने में एक अधिकार भाव है,कोई करुणा ,कातरता,दया नहीं. याचना तो जैसे कोसो दूर! मांगनेवालों की जो छवि हमारे भीतर बनी होती है,यहाँ उससे इसका कोई मेल नहीं था. और सच बात ये है कि हम ऐसे मांगनेवाले को पसंद नहीं करते.हम अपेक्षा करते हैं कि प्रार्थी के चेहरे पर कातरता,याचना जैसे भाव हों....मैंने गौर से देखा, लड़की बमुश्किल दसेक साल की थी- उसकी सूखी, सूनी सपाट आँखों में ‘मांगने’ जैसा कोई भाव दूर-दूर तक नहीं था.वह तो बस जैसे किसी पुराने पड़ोसी की तरह मुझसे कह रही थी.
कुछ पल तक तो कुछ समझ ही नहीं पाया कि वह क्या मांग रही है. दूसरे मैं हैरान, कि कैसी अजीब है ये लड़की ? दूसरी कोई होती तो रिरियाते हुए, किसी पुराने घिसे रिकॉर्ड के माफिक नॉनस्टॉप टेर लगाते रहती —बाबूजी, दो दिन से भूखी हूँ...!बाबूजी,कुछ खाने को दो..! पर ये लड़की सिर्फ़ पानी की बाटल माँग रही है.
तभी मेरे पड़ोसी चंद्रवंशी अंकल अपने गेट से कहीं जाने को निकले. वे नमस्कार के बाद एक नजर मुझे और इन्हें देखते, एक ख़ास ढंग मुस्कुराते हुए निकल गए.मैं जानता हूँ, सत्तर साल के चंद्रवंशी अंकल के इस मुस्कराहट का राज... वे कहना चाह रहे हैं कि आज तुम इन चालू बच्चों से ठगे जा रहे हो....उन्हें कहीं जाने की जल्दी थी, नहीं तो वे यहीं खड़े होकर दस मिनट इनकी पेशी ले लेते,लेक्चर देते,...और आखिर में भगा देते.
पोस्ट-ऑफिस से रिटायर्ड क्लर्क चंद्रवंशी अंकल को देखते ही फिर उनकी बातें मेरे दिल-दिमाग में गूंजने लगी,जो वो हर तीसरे-चौथे दिन दोहराते रहते हैं, कि इस कॉलोनी में आके बहुत पछता रहा हूँ. मेरे बच्चे मेरे को कोसते रहते हैं,पूरे शहर में और कोई जगह नहीं मिली आपको,जो इस चोर मोहल्ले में प्लाट ले लिया?अरे,बगल में जो झोपडपट्टी है, साला पूरा मोहल्ला चोरों का है!और ऐसा कौन-सा काम है जो यहाँ नहीं होता! ये जो मांगने आते हैं ना,इनको इतना सीधा मत समझना! ऐसे ही मेरे घर मांगने आने के बहाने घर की रेकी कर डाली,और रात को गेट से कूदकर बेटे का नया जूता--जो मुश्किल से पन्द्रह दिन हुए थे ख़रीदे हुए--चुरा लिए!...छत पे कपडे सूख रहे थे,उसको पार कर दिए...कम से कम पाँच हजार का नुकसान हुआ था हमको! फाइव थाउज़ेंड !! कभी इनकी शकल पे मत जाना, कम नहीं होते ये !
इसी के साथ, ऐसे न जाने कितने किस्से मेरे दिमाग में नाचने लगे...मित्रों,परिचितों या अन्य लोगों से जब-तब सुने.आए दिन होने वाले चोरियाँ,...लूटने-ठगने के किस्से.फ्रॉड,चार सौ बीसी और धोखेबाजी के किस्से! जिसमें से एक तो मुझे कुछ ज्यादा ही याद है..कि कैसे किसी स्टेशन पर ऐसे ही भूखे लड़के पर एक अधेड़ दम्पति ने तरस खाकर अपनी रोटी सब्जी दे दी,और लड़का रोटी खाते–खाते ही वहीँ,दम्पति के खिड़की के नीचे प्लेटफार्म पर गिरकर ऐंठने-छटपटाने लगा,फिर तुरंत उसके कुछ साथी योजनाबद्ध तरीके से वहाँ पहुँचे,और दम्पति से झगड़ने लगे -—थाने-कचहरी की धमकी! सीधे-सादे दंपत्ति को अपनी जान छुड़ाने हजार रुपये उसके इलाज के नाम पर देने पड़े थे...वो भी उन्होंने ऐसे लिए मानो उन पर बहुत अहसान कर रहे हों...
ऐसे किस्सों का अपने यहाँ कोई अंत नहीं !
--दो ना पानी! लड़की ने फिर कहा. वह मुझे कोई संबोधन नहीं दे रही थी...बाबूजी,अंकल या सर,या ऐसा ही कुछ.मुझे लगा,यह उसकी अपनी पेशेगत अज्ञानता ही हो सकती है.जिसमें उसने अभी ठीक से ‘मांगना’ भी नहीं सीखा है.
इसी क्षण उसके साथ के आठ बरस के लड़के—शायद उसका भाई -- ने भी मुझसे कुछ कहा,जो मेंरी समझ में बिलकुल नहीं आया.
मैं भौचक उन्हें देख रहा था जो यों अनायास सुबह मेरे दरवाजे पर खड़े थे. दोनों के बाल बेहद रूखे, भूरे और उलझे हुए,जैसे महीनों-से तेल-कंघी से संपर्क ही न हुआ हो. उनके चेहरों में भी जैसे एक जन्मजात रूखापन और भावहीनता थी..जैसे वे बचपन से ही ऐसे दर-दर मांगने के आदी हो चुके हों.बचपने का दूर-दूर तक कोई भाव नहीं. मानो उन्हें केवल अपने काम से ही मतलब था,और अपने जीवन की इस असलियत को बखूबी जानते हुए कि उन्हें आगे भी ऐसे ही रहना है...
उफ़! कितना भयानक और क्रूर है ऐसे अहसास का होना ! बचपन से बचपन का छिन जाना!
लेकिन दूसरे ही पल, मेरे मन में कुछ दूसरी ही आशंका तत्काल सक्रिय हो गयी. कि आजकल चोरी करने,लूटने के लिए गिरोह के लोग बच्चों को मोहरे बनाकर अपना काम करने लगे हैं.इस ख्याल के आते ही मेरी नज़र स्वाभाविक रूप से आस-पास देखने लगी,सड़क के कोने-किनारों पे—कि कहीं इनके गिरोह का कोई और साथी कहीं छिपा तो नहीं?
लड़की ने फिर माँगा—पानी का बाटल दोगे क्या,...पानी पीना है...
अब मैं उसकी बात समझा,और कहने ही वाला था कि अरे ये तो सामने आँगन में नल लगा है.उससे पी लो.तभी वो लड़का फिर कुछ बोला. उसकी बोली फिर मुझे समझ नहीं आई. लहजे से यह ज़रूर जान गया कि ये बच्चे इधर के नहीं हैं,किसी दूसरे राज्य के हैं...
मैंने लड़के से कहा—अरे साफ़ साफ़ बोल न!
--रात की तरकारी दो ना!
तब मैंने गौर किया,लड़के के दाहिने कंधे पर एक थैला लटका है,प्लास्टिक का,जिसमे जरूर यहाँ-वहाँ से मिले सामान होंगे,और उसके हाथ की पोलीथिन झिल्ली में भात था-जिसके लिए ही वह मुझसे रात की तरकारी मांग रहा है . मुझे ध्यान आया.इधर छत्तीसगढ़ में सब्जी को तरकारी आम तौर पर नहीं बोला जाता.साग या सब्जी कहा जाता है. तरकारी शायद महाराष्ट्र में या...
मुझे बात करते देख पत्नी भी बाहर गेट पे चली आई .पहले तो उसने भी अपनी स्वाभाविकता में उन्हें भरपूर शंका से देखा,फिर पूछा, क्या मांग रहे हैं ये ?
मैंने बताया,’रात की सब्जी मांग रहे हैं.’
पत्नी ऐसे मौके पे मुझसे कहीं ज्यादा सजग रहती है.वह जांच-पड़ताल के बाद ही आश्वस्त होती है,मेरी तरह झट से दया नहीं करने लग जाती.उसने जब उनके थैले-कटोरे में सूखा भात देखा,तभी आश्वस्त हुई.वापस रसोई में जाते हुए बोली, रुको,रात की सब्जी बची है,लाती हूँ’.
मैं उनसे पूछने लगा,’इधर कहाँ रहते हो ?’
‘बस स्टैंड पे’. लड़की ने फिर वैसे ही सूखा और सपाट जवाब दिया.इस उम्र में भी इनका बचपन इस कदर सूख चला है, सोचकर मैं सिहर गया. उनकी आँखों या चेहरों में मुस्कान एक कतरा अब तक नहीं लहराया था,पल भर के लिए भी.
मैंने उनसे आगे पूछा—माँ-बाप हैं ?
--नहीं हैं. लड़की ने ही कहा.
मैं और डर गया. इस भयानक,समय में बच्चियों से रेप की ख़बरें रोज की सुर्खियाँ बनी हुई हैं,हैवानियत की तमाम हदें पार की जा रही हैं,बहुत छोटी-छोटी बच्चियों के साथ दरिंदगी की जा रही है,ऐसे में ये बिना माँ-बाप की बच्ची...?इनको तो किसी सरकारी आश्रम में होना चाहिए...मैं सोच रहा था.
‘ अरे साब ,झूठ बोलते हैं ये!’, सामने झाड़ू लगाती स्वीपर महिला बोली, ‘ये सब स्टेशन के पास रुके हुए हैं,इनका पूरा कुनबा है !..वहीं से आये हैं...बस ऐसे ही मांग-मांग के खाते हैं’.
. स्वीपर ने उनका भांडा फोड़ दिया था. लेकिन इससे भी उनके चेहरों पर कोई फर्क नहीं पड़ा . ना ही उसकी बात के विरोध में कुछ बोले.उन्हें जैसे ऐसे ताने-उलाहने या गालियाँ सुनने की आदत हो गयी हो.वे जस के तस थे. स्वीपर की बात से मेरे भीतर फिर इनके किसी गिरोह के सदस्य होने का भय जग गया था.कोई भरोसा नहीं.
मैंने स्वीपर से पूछा,--तुम देखी हो इनको?
‘हाँ.स्टेशन के गोडाउन के तरफ पड़े रहते हैं दिन-दिन भर. ये सब उधर से ही आते हैं.’ उसने बताया, बिलकुल निरपेक्ष भाव से.
तब तक पत्नी उनके लिए पानी की एक बाटल और रात की बची दाल और सब्जी कटोरे में लेकर चली आई. दोनों के भात में दाल-सब्जी डाल दिए. फिर वे दोनों चुपचाप चल दिए--बिना एक शब्द बोले.दरअसल इस समय उनका सारा ध्यान अपने भात-साग पर था.वे जाते हुए भी अपने भात-साग देखते जा रहे थे...शायद दोनों को अब भूख सताने लगी थी. मैं सिर्फ़ अनुमान ही लगा सकता था कि दाल-सब्जी और पानी मिल जाने से उनके सूखे-मुरझाए चेहरों पर थोड़ी-सी तरलता एक पल को कौंध गयी होगी...शायद. या फिर यह भी नहीं. बचपन से मिलते यों दर-दर की ठोकरों ने उनका यह सुख भी एकदम छीन ही लिया हो जैसे.
मैं खुद पर बुरी तरह कुढ़ रहा था,कि हम लोगों के दिल-दिमाग कितने ज्यादा शक्की हो चुके हैं! कि अपने आसपास के लोगों पर,गरीब-गुरबों पर इतना अविश्वास,इतना संदेह, इतना डर, इतनी शंका !कि इन सबसे डेढ़-होशियारी के साथ-साथ एक भयंकर कांइयापन जैसे स्थायी तौर पर हमारे भीतर कुंडली मारकर बैठ गया है !
और ऐसे ही लोगों को चोरी-डकैती-लूट के लिए हमारे दिमाग सबसे पहले इलज़ाम देते हैं! और उनका क्या,जो देश के हजारों करोड़ रूपये बैंकों से कर्ज के नाम पर लूटकर यहाँ से भाग चुके हैं? ...या उन अरबपति औद्योगिक घरानों का क्या,जिनकी जेबों में तथाकथित उद्योगों और डेवलपमेंट के नाम पर कॉरपोरेट-हितैषी नीतियों से बैंकों या दूसरे आर्थिक संस्थानों के कोई दस लाख करोड़ --देश की जनता की गाढ़ी कमाई -- कर्ज़ के रूप में भरे जा चुके हैं ? जिन्हें वसूला भी नहीं जा सकता! तिस पर भी उन्हें सरकार से और-और रियायत की माँग है !
....या, हमारे ही चुने हुए उन जन-प्रतिनिधियों का क्या, जिनकी प्रॉपर्टी सत्ता में आने के बाद दिन दूनी-रात चौगुनी बढती ही जाती है ?
....या उन भ्रष्ट अधिकारियों-ठेकेदारों का क्या,जो रात-दिन अपनी तिजोरी भरने में लगे हुए हैं ?
इन सवालों का मेरे पास कोई जवाब नहीं है.
सिर भारी हो गया था ये सब सोचते-सोचते.
गेट बंद करते समय मेरी नज़र अनायास सड़क किनारे पास के नीम पेड़ की तरफ चली गयी.और वहाँ जो देखा, उससे,न जाने क्यों, मुझे राहत की छोटी फुरहरी महसूस हुई...गमले के किसी सूखते नन्हें पौधे को मानो थोड़ा जल नसीब हो गया हो...
पेड़ के नीचे वे दोनों बच्चे बहुत इत्मीनान से खाना खाने में मगन थे...