साहित्य

संजय कुंदन, वासुकी प्रसाद उन्मत, अंजन कुमार, कमलेश्वर साहू और दिनकर शर्मा की कविताएं

संजय कुंदन, वासुकी प्रसाद उन्मत, अंजन कुमार, कमलेश्वर साहू और दिनकर शर्मा की कविताएं

- संजय कुंदन

1- यह सभ्यता 

महामारी से नष्ट नहीं होगी यह सभ्यता

महायुद्धों से भी नहीं

यह नष्ट होगी अज्ञान के भार से

अज्ञान इतना ताकतवर हो गया था 

कि अज्ञानी दिखना फैशन ही नहीं

जीने की जरूरी शर्त बन गया था

 

वैज्ञानिक अब बहुत कम वैज्ञानिक 

दिखना चाहते थे

अर्थशास्त्री बहुत कम अर्थशास्त्री

दिखना चाहते थे

इतिहासकार बहुत कम इतिहासकार

 

कई पत्रकार डरे रहते थे

कि उन्हें बस पत्रकार ही 

न समझ लिया जाए

वे सब मसखरे दिखना चाहते थे

 

हर आदमी आईने के सामने खड़ा

अपने भीतर एक मसखरा 

खोज रहा था

इस कोशिश में एक आदमी 

अपने दोस्तों के नाम भूल गया

एक को तो अपने गांव का ही नाम याद नहीं रहा

 

बुद्धि और विवेक को खतरनाक 

जीवाणुओं और विषाणुओं की तरह

देखा जाता था

 जो भयानक बीमारियां पैदा कर सकते थे

 इसलिए गंभीर लोगों को देखते ही

 नाक पर रूमाल रख लेने का चलन था

 

एक दिन अज्ञान सिर के ऊपर बहने लगेगा

तब उबरने की कोई तकनीक, कोई तरीका किसी 

को याद नहीं आएगा

तब भी मसखरेपन से बाज नहीं आएंगे कुछ लोग

एक विद्रूप हास्य गूंजेगा

फिर अंतहीन सन्नाटा छा जाएगा.

2- तानाशाह की जीत

वो जो तानाशाह की पालकी उठाए

सबसे आगे चल रहा है
मेरे दूर के रिश्ते का भाई है
और जो पीछे-पीछे आ रहा है
मेरा निकटतम पड़ोसी है
वो वक्त-बेवक्त आया है मेरे काम
और जो आरती की थाल लिए चल रहा है
वह मेरा दोस्त है
जिसने हमेशा की है मेरी मदद
और जो कर रहा प्रशस्ति पाठ
वह मेरा सहकर्मी है मेरा शुभचिंतक

मैं उस तानाशाह से घृणा करता रहा
लानतें भेजता रहा उसके लिए
पर एक शब्द नहीं कह पाया
अपने इन लोगों के खिलाफ
ये इतने भले लगते थे कि
कभी संदिग्ध नहीं लगे
वे सुख-दुख में इस तरह साथ थे कि
कभी खतरनाक नहीं लगे
हम अपने लोगों के लालच को भांप नहीं पाते
उनके मन के झाड़-झंखाड़ की थाह नहीं ले पाते
उनके भीतर फन काढ़े बैठे क्रूरता की
फुफकार नहीं सुन पाते
इस तरह टल जाती है छोटी-छोटी लड़ाइयां
और जिसे हम बड़ी लड़ाई समझ रहे होते हैं
असल में वह एक आभासी युद्ध होता है
हमें लगता जरूर है कि हम लड़ रहे हैं
पर अक्सर बिना लड़े ही जंगल जीत लेता है हमारा दुश्मन ।

 

 वासुकी प्रसाद उन्मत

1- उनमें शामिल नहीं हुआ

मैं उनमें शामिल नहीं हुआ

देखता रहा उनकी सामुदायिक कार्रवाई

अपील कम ,आदेश ज़्यादा था एक शातिर का

लोग अंधेरे की शक़्ल मे छा गए

अपनी पहचान गिनाने के लिए बुझा कर विज्ञान की बिजली

और सातवीं सदी के दौर मे हो गए शामिल

हाथों में दीए लिए.

 

उनकी आंखें मुझे भेद रही रही थीं

एक मसखरापन था वहां

मैंने उनके अंधेरे को चुनौती दी

विज्ञान की बिजली जलाए रख कर

 

उनके मन में गिर रहीं लाशें कहीं नहीं थीं,

वहां था उनके आक़ा का हांका

सो वो अपने स्तर पर हर कहीं  हर हाल मे समर्थन देकर

कर रहे थे उसे आश्वस्त

 

वो ख़ुद अपने आक़ा की हैवानियत की जद मे थे

उनके भी परखचे उड़ रहे थे,

होश उड़ रहे थे

लाशों की बढ़ती तादात को लेकर

फिर भी वो मस्त थे,उनका आक़ा जीत गया

जीत गया एक सांकेतिक लड़ाई

असली लड़ाई के पहले.

 

कुमार अंजन 

1-तानाशाह 

तानाशाह 

सबसे पहले चुनता है एक सम्बोधन

जैसे हिटलर ने चुना था फ्रेंड्स 

 

फिर वह चुनता है वह स्थान 

जो जनता की आस्था का केंद्र होता है

जैसे हिटलर ने चुना था म्यूनिख को

 

फिर वह चुनता है 

अपना एक धार्मिक दुश्मन 

जैसे हिटलर ने चुना था यहुदियों को 

 

फिर वह चुनता है अपने हितचिंतकों को 

जैसे हिटलर ने चुना था

चरम पूंजीपतियों को

 

फिर वह चुनता है

अपने सहयोगी को 

जैसे हिटलर ने चुना था कार्पोरेट को

 

फिर वह बनाता है अपना संगठन

जैसे हिटलर ने बनाया था 

मिलिशिया, यंग फासीवादी और नागरिक सेवा संगठन 

 

फिर वह चुनता है अपनी विचारधारा

जैसे हिटलर ने चुना था राष्ट्रवाद

 

फिर वह 

अपने सहयोगियों और संगठनों के माध्यम से 

पहले बढ़ाता है जनता की आस्था

फिर उठाते हुए उसी का फायदा

फैलाता है अंधराष्ट्रवाद, अफवाहें, भय और नफ़रत

करवाता है अपने दुश्मनों की हत्याएं 

अपने संगठन के हाथों 

जैसे हिटलर ने करवायी थीं

यहुदियों, कम्युनिस्टों, लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों 

और तमाम अपने विरोधियों की हत्याएं 

 

क्योंकि विरोध से डरता है वह

इसीलिए वह कभी नहीं करता संवाद 

किसी भी बात पर

पूछता नहीं किसी से

केवल जारी करता है फरमान 

वह भी इस तरह से

कि उसका हर निर्णय लगता है जनता को

जैसे उनके हित के लिए है 

 

वह झूठ को इस तरह कहता है बार-बार

की लोग उसे सच समझने लगते है

और करने लगते है उसका अनुशरण

इस तरह वह जनता की आँखों में 

बांधकर अंधराष्ट्रवाद की पट्टी

भेड़ों की भीड़ में कर देता है तब्दील 

और जब जैसे चाहे हांकता रहता है

 

फिर तोड़ देता उन तमाम 

पुराने सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक ढांचों को 

जो उसकी सत्ता में बाधक है 

ध्वस्त कर सारे सार्वजनिक उपक्रमों को 

कर देता है इजारेदारी पूंजी के हवाले 

क्योंकि वह जनता का नहीं

होता है केवल चरम पूंजीपतियों का हितैषी

 

इस तरह एक दिन 

लोकतंत्र की हत्या करके

वह सब पर कर लेता है कब्जा

और बन जाता है

सबसे प्रभुत्वशाली तानाशाह.

 

कमलेश्वर साहू

लौटना

उनका लौटना, लौटना नहीं था

भय था शासक का

 

वे सोचते हैं

उनके लौटने से

लौट जाएगा वायरस

और संक्रमण मुक्त हो जाएगा

उनका राज्य,

इस महा संक्रमण काल में लौटना उनका

लौटना नहीं था कतई

 

उन लौटने वालों के साथ

लौट रहे बच्चों को तो

यह भी नहीं था पता

कि क्यों लौट रहे हैं वे अचानक

लौट रहे हैं कहाँ

 

सिर पर लादे गठरी

कांधे पर थैला लटकाए

हालांकि लौट रहे थे वे

उनके लौटने में

शामिल नहीं थी उनकी इच्छा

 

पूछ रहे थे उन लौटते हुए लोगों के

लहूलुहान और फफोलों से भरे पांव

क्या लौटना ही नियति है हमारी

संकट की इस घड़ी में

क्या इस तरह लौटाया जाता है

 

क्या उनके न लौटने से

नाराज हो जाएगा वायरस

या उनके लौट जाने से

खत्म हो जाएगी यह महामारी

 

उनका लौटना पलायन नहीं था

काम की तलाश भी नहीं

काम की तलाश में ही तो आए थे वे

बहुत पहले यहां

जहां से लौटाया जा रहा है उन्हें

और बना भी लिए थे जैसे तैसे

दो वक्त की रोटी के जुगाड़

 

अब तक

भूल चुके थे लगभग

उस जगह को

जहां लौटाया जा रहा है  उन्हें

धकेला जा रहा है

भविष्य के जिस अंधकार में

जिस अंधेरे भविष्य की ओर

 

लौटना नहीं था, लौटना उनका

अदेखे अरण्य की ओर हकाला जाना था

 

अचानक हो गए इतने बेगाने

इतने पराए

इस कदर अपरिचित

इतने अविश्वासी

इस हद तक अनुपयोगी

इस कदर अप्रासंगिक

कि अचानक रच दिया गया

इतना बड़ा नेपथ्य

 

उनका लौटना

पास-पड़ोस से लौटना नहीं था

नहीं था लौटना किसी यात्रा से

काम से लौटना तो कतई नहीं

स्कूल से लौटना नहीं था

बच्चों का लौटना,

उनका लौटना

किसी उम्मीद की ओर लौटना नहीं था

नहीं था अंधेरे से उजाले की ओर लौटना

किसी सुनहरे भविष्य की ओर लौटना तो

बिल्कुल भी नहीं

 

इस तरह लौटकर

नहीं लौट पाएंगे वे

जैसे लौट आते हैं

मौसम के बदलते ही

पेड़ पर हरे पत्ते

उनका लौटना

ग्रीष्म के बाद

वर्षा का लौटना नहीं था

नहीं था 

किसी प्रेम कहानी का

समय को लांघकर

लौटना वर्तमान में

 

लौटाते हुए

यह भी नहीं सोचा उन्होंने

कि उनके लौटने से

लौटा दिए गए स्थल पर

कब तक खिला रहेगा उनका श्रम

उनके श्रम से खिली हुई  दुनिया

आखिर कब तक रहेगी खिली हुई, तरोताजा

 

जो लौट रहे हैं

उनके साथ लौट रहा है उनका श्रम

उनका हुनर

श्रमशील हुनरमंद हाथ लौट रहे हैं

शायद हमेशा के लिए

जिन्हें नहीं थी उम्मीद

कि इस तरह भी लौटाया जाएगा उन्हें

एक दिन

 

उनका लौटना

उनका लौटना नहीं था

उनके श्रम और हुनर का लौटना था

उनके लौटने से

लौटाने वालों की दुनिया में

बदरंगी, बदहाली और अंधेरे का लौटना था

जिसे शायद देख नहीं पा रहे हैं वे

इस आपाधापी में

 

उनके लौटने में खुशी नहीं थी

वे यह कहकर नहीं लौट रहे थे

हाथ हिलाते हुए-

आप निश्चिंत रहिए

कुछ ही दिनों में लौटता हूँ ना !

 

दिनकर शर्मा

नायक

कान खोलो अपनी !

और, मैं जो कहता हूँ वो करो ।

बग़ैर सवाल के करो ।

चुपचाप करो ।

सिर्फ करो ।

 

जानता हूँ, अनगिनत मौतें हुई हैं

जानता हूँ, दिल दहलाने वाली बातें हुईं हैं

पर मैं कहता हूँ, हँसो !

अनगिनत दुख पर हँसो ।

अनगिनत चीख़ पर हँसो ।

और हो सके तो,

अनगिनत मौत पर भी हँसो ।

 

मैं जो कहता हूँ वो करो ।

बग़ैर सवाल के करो ।

चुपचाप करो ।

 

अगर हंँसने में तकलीफ है,

तो हौले से हँसो ।

आदत नही है हंसने की,

तो आदत बनाकर हँसो ।

सुर में हंसते हो, तो सुर में हँसो ।

बेसुरे हो तो, बे-सुर हँसो ।

 

मैं जो कहता हूँ वो करो ।

बग़ैर सवाल के करो ।

चुपचाप करो ।

 

दुख पर तुम्हें हावी होना है,

इसलिए हँसो ।

हर ग़म पे तुम्हें राजी होना है,

इसलिए हँसो ।

इन चीखों में , चिल्लाहटों में,

एक डर छुपा है माना ,

इस डर से तुम्हें बिल्कुल पार होना है,

इसलिए हँसो ।

 

मैं जो कहता हूँ वो करो ।

बग़ैर सवाल के करो ।

चुपचाप करो ।

 

तुम बिलख-बिलख कर रोने न लगो,

तब तक हँसो ।

जब तक चीखें निःशब्द नही हो जाती,

तब तक हँसो ।

रोने की पराकाष्ठा तक, रोते बिलखते चिल्लाते हुए भी,

जब तक मातम उत्सव में बदल न जाये

तब तक हँसो ।

 

 

लेकिन हँसो ।

खूब हँसो ।

जोर जोर से हँसो ।

         

 

 

 

 

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