साहित्य
बस्तर से पूनम वासम की कविताएं
वे लोग : तय है जिनका जंगल में खो जाना
( एक )
उनके लोकगीतों में प्रेम बारिश की तरह नहीं आता
उनकी रुचि
सियाड़ी के पत्तों पर पान रोटी पकाने से ज्यादा
बोड़ा का स्वाद चखने में है
जंगल की सूखी पत्तियों में आग लगाने के लिए
माचिस का इस्तेमाल नहीं करते
उनकी नसों में दारू की तरह दौड़ता है महुआ!
बावजूद उसके
देर रात लौटती हैं जंगल मे खो चुके पुरखाओं की आत्माएं
कुछ गिनते हुए जोड़ते-घटाते वह भटक जाती हैं फिर से जंगल के अंधेरे सच की ओर
मर चुके कुनबे की गिनती का सच सुबह उतरता है बचे हुए कुनबे के चेहरे पर
वह थोड़ा और बासी हो जाते हैं
उनके हथियार अब पहले से कम हैं
जंगल की गोद मे नारों की गूंज बढ़ती है ऐसे
जैसे जिबह से पहले निकलती है जानवर की आखिरी चीख
उनके झोला में भूख मिटाने के सामान के साथ
शामिल होती है दिमाग़ को दुरुस्त करने की खुराक भी!
उनकी हथेलियां देर तक नहीं थकती चाकू की मुठ थामे
रोटियां तोड़ने से पहले वे लोग हड्डियां तोड़ते हैं
उनकी बंदूक की गोली निशाना लगाए बिना लौट कर नहीं आती
उनकी पीठ सुरक्षा कवच हैं उनके लिए
जिन्हें गणतंत्र दिवस के दिन दोनी भर बूंदी तक नसीब नहीं होती
ये कौन लोग हैं जिनकी भाषा के भीतर लिखा गया है विद्रोह का कहकहरा
जिनकी उंगलियां हमेशा खड़ी रहती है
किसी प्रश्नचिन्ह की मुद्रा में
( दो )
जहाँ महिलाएं दोनों हाथों में हथियार उठाये झाड़ती हैं
संविधान की पोथी पर पड़ी धूल
पूछती हैं भूख से बड़ी कोई विपदा का नाम
ट्रेन से कटकर मरी हुई आत्माएं कहाँ गईं
दर्द का बोझा उठा कर
रोटी की गोलाई नापते-नापते
जिनके पाँव के छाले फूट पड़े वह लोग अस्पताल का पता नहीं जानते
हजारों मील दूर
जिनके घरों में इंतजार की उम्मीद थामे बूढ़ी आँखें पत्थरा गईं
उन आँखों का पानी कहाँ उड़ गया?
ट्रकों के नीचे कुचले जिन अभागों की लाशों को अंतिम मुक्ति भी नसीब नहीं हुई
उनकी हत्या का मुकदमा कहाँ दर्ज होगा?
सात माह का पेट सम्भालते
अपने होने वाले बच्चे की सलामती के लिए
एक माँ की आह!भरी पुकार को नकारने वाले ईश्वर के पास से लौटी हुई प्रार्थनाएं कहाँ अर्जी देंगी?
जमलो की मौत का तमाशा बनाने वाले सरकारी तंत्र
से उबकाये लोगों का जुलूस कहाँ गया!
वह जितनी बार जंगल के सबसे ऊंचे टीले से दोहराते हैं-
सुनो साहब!
राजा मर गया, लेकिन प्रजा की मौत अभी बाकी है.
जंगल की सीमा पर हर बार एक सरकारी बयान चस्पा होता है
कि जंगलवाद सबसे बड़ा खतरा है देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए.
हर बार ऐसा उत्तर पाती एक सभ्यता घूरती है जंगल की देह
हड्डियों से बनी आँखों से!
उनकी आँखों में अब पानी नहीं उतरता.
आमचो महाप्रभु मरलो
हिड़मा का दादा पारद में मिलने वाले हिस्से से अपनी भूख मिटा लेता था
हिड़मा की दादी महुआ का
दारू बना बेच आती थी साप्ताहिक बाजार में
हिड़मा का बाप जंगल साफ कर उगा लेता था
मंडिया, ज्वार
पेज से मिट जाती थी भूख
हिड़मा की माँ लन्दा के साथ साथ बेच आती थी इमली, तेंदू
जीने के लिए बहुत सोचने की जरूरत नहीं थी उनको
घोटुल का संगीत दिनभर की मेहनत से कसी हुई देह को
सुला देती थी गहरी नींद
हिड़मा तोड़ लाता था जंगल से हरा सोना
हरा सोना जो भर देता घर को
बुनियादी सुविधाओं से लबालब
हिड़मा का बेटा गायों के लिए हरी घास उगाता है
धान की फसल को ढेकी में कूट कर पकाता है
ढूटी कमर में लटकाए मेड़ की मछलियाँ पकड़ लाता है
हिड़मा की बहू मरका पंडुम मनाते हुए पीसती है
खट्टी चटनी
बीज पंडुम मनाते लिंगो से कहती है
भरा रहे धान से पुटका
हिड़मा का दादा धरती की उम्र बढ़ाने के नुक्से से वाकिफ था
हिड़मे की दादी जानती थी आनंदित हुए बिना जीना कितना कठिन है
हिड़मा का बाप समझता था भूख जितनी हो उतना ही लेना चाहिये धरती से उधार
हिड़मा की माँ पहचानती थी
जंगल की नरमी
जंगल फुट पड़ता था हर मौसम में
अपनी जंगली बेटियों के खोसे में उतना
जितने से खटास बनी रहे उनके जीवन में
हिड़मा को पता है पड़िया खोचने से पहले, उसकी प्रेमिका शरमा कर कहेगी "मयँ तुके खुबे मया करेंसे"
हिड़मा की पत्नी जानती है
पेड़ की टहनियों पर कितना लचकना है कि टहनियाँ झूल जाए उनकी बाँहों में
खाली नहीं रखती अपनी नाक को कभी कि
उनकी फुलगुना की चमक से तुरु मछलियाँ
मचल उठती हैं
धरती नहीं माँगती उनसे अपनी दी गई शुद्ध हवा का हिसाब
धरती निश्चिन्त रहती है वहाँ, जहाँ
पत्तियों के टूट कर गिरने भर से
छतोड़ी टूट जाने वाले दर्द से गुजरता है
हिड़मा का गाँव
धरती कभी नहीं कहना चाहेगी कि
आमचो महाप्रभु मरलो
धरती जानती है
हिड़मा का बेटा धरती के लिए आक्सीजन है
द वर्जिन लैंड तीन दरवाज़ों वाला गाँव
( एक )
जहाँ पेड़ों पर संकेत की भाषा में उगती हैं सीटियाँ
तनी हुई गुलेल छूटते ही मांगती हैं
नागरिकता का प्रमाण पत्र
तीर-धनुष, कुल्हाड़ी पूछते हैं कितना लोहा है तुम्हारी जुबान पर
चाकू की धार से उंगलियों का रक्त रिसते ही
लगाना होता है अंगूठा उनके संविधान पर किसी मुहर की तरह
पहले दरवाजे की चाभी फिंगरप्रिंट के बिना नहीं खुलती
मुझे याद है मेरा दूर का भाई कई दफा घूम आया है विदेश
बिना किसी वीज़ा और पासपोर्ट के
( दो )
शहर के जरा सा मुँह फेरते ही
तिरंगे का रंग उड़ने लगता है.
प्रभात फेरी के साथ 'भारत माता की जय'
उनके कानों तक स्पष्ट पहुँचती है.
हेलीकॉप्टर की आवाज से चौंक कर जाग जाता है छः माह का बच्चा,
जिसके बाप को नहीं पता पहिये के विकास की कहानी.
जंगल की डाक पर जब तक नहीं लिखा होगा तुम्हारा नाम
तुम सही पते पर कभी नहीं पहुँच सकते.
स्पाईक होल नई खेल विधि है
खुद के नाम से एक मुठ्ठी मिट्टी फेंक कर चाहो तो
पंजीयन करवा सकते हो तुम भी
कि दूसरे दरवाज़े की चाभी स्क्रीनटच की तरह खुलती है
( तीन )
कुकर में भात नहीं पकता
रपटों पर सब्बल के घाव पक कर मवाद से भर गए हैं
बिजली के तारों में विभागीय झटके नहीं आते.
छिंद तोड़ते बच्चों के कानों तक पहुँचती है
बाण्डागुडा के स्कूल में पढ़ाई जा रही 'वीर जवान तुम आगे बढ़े चलो' वाली कविता
बच्चे बढ़ते हैं गाय के झुंड की ओर
बकरी, मुर्गी, सुअर की बाड़ी की तरफ
मातागुड़ी वाली देवी की आँखों में रतौंधी है.
मन्नत का भार
बकरे के भार से हर बार ग्राम-मिलीग्राम कम पड़ जाता है.
जूतों की धमक के साथ टूटता है
गाँव के भीतर का सन्नाटा
टूटती हैं औरतें,
टूटते हैं पुरुष,
बच्चों को टूटना नहीं आता!
बच्चों को कोई नहीं बांधता यहाँ गले में ताबीज.
उन्हें भरा जाना है एक दिन खाली कारतूस में बारूद की तरह.
दो दिन के बच्चे को सूखी छाती से चिपकाये औरतें
भागती हैं शहर की ओर
लकड़ी का बोझा सिर पर लादे
औरतें जानती हैं
पोलियोड्राप से नहीं
दोनी भर मंडिया पेज से बची रहेंगी भविष्य के पैरों में जान.
औरतें बदलती हैं धान को चावल में, रुपयों को दैनिक सामानों में
पुरुष ढोता है सारा बोझ
पहले दरवाजे की चौखट तक
पुरुष राह तकते हैं सीमा रेखा पर औरतों के लौट आने की
ताकि धुंगिया चबा सके उनकी जीभ.
अर्जुन की आँखें ही भेद सकती हैं इस रहस्मयी तिलस्मी संसार की दुनिया को
लौट आने की किसी संभावना के बिना
पहुँचा जा सकता है उस पार
कि तीसरे दरवाजे की चाभी
यमराज के चाभी के गुच्छे में से कोई एक है.
( चार )
हाँड़-माँस के पुतले ही नहीं
देवता भी यहाँ थर-थर काँपते हैं
गाँव की परिधि पर रहस्यों की पोटली बांध कहीं खो जाते हैं वे लोग.
जहाँ आधा बागी-आधा बच्चा पूछता है मुझसे
आपको डर तो नहीं लग रहा!
वह चिंता भी करता है और सतर्क भी रहता है
पानी का लोटा थमाते हुए उसके हाथ 'अतिथि देवो भव'
की मुद्रा में होते हैं.
मैं पूछती हूँ उससे कई सवाल.
वो रहस्यमयी मुस्कान के साथ अपने हाथ की गुलेल
मेरी हथेलियों पर धर देता है
मैं डर के मारे काँपने लगती हूँ
वह हँसता है
गुलेल का भार तुम जैसे शहरी लोगों की हथेलियां नहीं उठा सकतीं.
तुम अपना काम करो, हम अपना!
उस वक्त मुझे उसकी आँखों मे पाश की कविता एक चमकीली आग सी चमकती नजर आती है
उस बच्चे ने नहीं पढ़ा है जबकि 'हम लड़ेंगे साथी उदास मौसमों के खिलाफ'
मेरी हथेलियाँ भारी हैं अब तक
घर की खिड़की से दिखता है उस गाँव का सबसे ऊंचा पेड़
रात के सन्नाटे को चीरती है उनके मांदर की आवाज.
ऐसे तो छः किलोमीटर दूर है 'मनकेली गोरना'
पर बिना अनुमति के प्रवेश वर्जित है वहाँ
कम होते आक्सीजन के अनुपात से अनुमान लगाया जा सकता है
कि पेड़ों के उस झुरमुट में कुछ लोग
अभी भी हवा के दम पर जिंदा हैं
अद्भुत है 'द वर्जिन लैंड तीन दरवाजों वाला गाँव'
और वहाँ के लोग
वहाँ की हवा
वहाँ का संविधान
अपनी सजगता में थर थर काँपती तनी हुई गुलेल
और वहाँ के सावधान बच्चे!
मिथक नही हैं जलपरियाँ
जलपरियों ने नहीं छोड़ा इस विकट समय में भी चित्रकुट जलप्रपात का साथ
कि दिख जाती हैं जलपरियाँ दिनभर की दिहाड़ी के बाद तेज धूप में झुलसी त्वचा पर खेत की गीली मिट्टी का लेप लगाती
एक ही बेड़ी से बंधे बालों का जी उकता जाने के डर से
अपने खोसा के मुरझाये फूलों को पानी की तेज धार संग छिटक कर कहीं दूर बहाती
घुटनों तक लिपटी उनकी लूगा की गाँठ खुलकर
जब फैल जाती है नदी में,
तब नदी का दिल हल्दी में लिपटी मोटियारिन की तरह धड़कने लगता है.
लूगा को इस तरह पटक-पटक कर धोती हैं
कि नदी की सारी मछलियाँ मदहोश हो उनकी लूगा से लिपटकर
कोई उन्मादी गीत गुनगुनाने लगती हैं.
इंद्रधनुष की छवियाँ भी देर तक टकटकी लगाये निहारती है जलपरियों के इस अदभुत सौंदर्य को
कभी-कभी लकड़ी के भारी गठ्ठर यहीं कहीँ किनारे पटक हाथों के छालों को अनदेखा कर
छिंद के पत्तो को चबा-चबा
अपने होठों को लाल कर
नदी के पानी में खुद को निहारती लाल होंठो को धीमे से भींचती बुदबुदाती हुई शर्माती हैं
शायद उस एक वक्त कोई मीठा सपना पल रहा होता है उनकी आँखों में
अक्सर दिख जाती है जलपरियां जाल फेंकती हुई
केकड़े का शिकार करती हुई
हांडी-बर्तन धोती
खेतों की मेड़ों पर नाचती
पत्थरों पर मेहंदी के ताजा पत्तों को पीसती
या फिर आम के वृक्षों से लाल चींटियाँ इकठ्ठा करती हुई
खोसा के लिए जंगल से पेड़ों की पत्तियाँ चुनती
जलपरियों का होना कोई मिथक बात नहीं है कि
सचमुच की होती है जलपरियाँ!
हिड़मे ,आयती, मनकी ,झुनकी,पायकी की देह के रूप में
'डोंगा चो डोंगी आन दादा रे' गीत गुनगुनाती
चित्रकुट जलप्रपात के बहते पानी में नृत्य करती
जलपरियों को निहारते हुये सूरज का चेहरा भी शर्म से लाल हो जाता है.
सांझ होने से पहले,
मुठ्ठी भर प्रेम लेकर अपने घरों की ओर भागती
इन जलपरियों को देखना
दुनिया की तमाम खूबसूरत घटनाओं में से एक है
नदी का पानी सूखता क्यों नहीं
सन्नाटे से भरी बस्तर की सड़कें
जिसके भाग्य में लिखा है भारत के दक्षिणी कोने पर
एन एच तिरसठ का आवरण ओढ़े सुबकते रहना.
जहाँ अक्सर फूटते हैं टिफिन-बम प्रेशर-बम,
बिना किसी कारण जला दी जाती है बारातियों से भरी बस
जल कर राख हो जाता है दुल्हन का जोड़ा
बच्चों को नहीं लुभाती डामर की चिकनी सड़कें
बीच सड़क पर लगती है जनअदालत
उन आकाओं की जिन्हें नहीं पंसद डामर की गन्ध.
जहाँ जब -तब सवारी बस के पहियों के साथ जल उठता है सारा जंगल
बेबस लाचार-सा
बस्तर की सड़कें उगलती हैं अपना गुस्सा.
महुए की मादकता पर
चिरौंजी, तेंदू की मिठास पर
इमली अमचूर की खटास पर,
मड़िया ज्वार के पेज पर,
चापड़ा के स्वाद पर ,
गौर सिंग की शान पर और मुर्गा लड़ाई की आन पर.
लिंगोपेन से आकाशगंगा की दूरी नापना चाहती हैं यहाँ की आदिम संस्कृतियाँ.
पर उपेक्षा की बाधा से टकराकर लौट आती हैं
ऐसे जैसे डामर की गंध को नथुनों में भरने मात्र को
आ रही हों जंगल से बाहर.
डामर की लाल लपटें जलाती हैं
धूँ-घूँ कर दिमाग़ की नसों को
तब कहीँ जाकर पांडु देख पाता है जिला अस्पताल का मुँह और झुनकी जान पाती है.
नमक-तेल सब कुछ नहीं होता कि
सूरज का गोला तीख़ी धूप के साथ चमकता भी है
जिस सड़क की कीमत सैकड़ों जवानों के गर्म लहू में
सालों तक पिघलता तारकोल हो.
वह सड़क इतिहास के पन्ने पर किसी फफोले की तरह ही दर्ज होगी
बरहहाल जो भी हो, इतना तो तय है.
जब भी अकेले होती है, खूब रोती है बस्तर की सड़कें. कितना कुछ कहना चाहती हैं पर कह नहीं पाती
जुबान बारूद की गंध से लड़खड़ाने लगती है
एन एच तिरसठ सड़क नहीं,
बल्कि उन तमाम उदास, हताश, निराश, अनाथ आँखों से टपकता आँसू है.
जिन्हें मोहरों की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा है.
तभी मैं सोचूँ
इंद्रावती नदी का पानी सूखता क्यों नहीं!
तुम्हारी जगह ही तुम्हारी चेतना है
( एक )
तुम छोड़ दो अपनी जगह और भूल जाओ अपनी आवाजें
उतारकर फेंक दो छानियों पर टँगा दांदर
कि मछलियां खेत के मेड़ो तक फुदकर नहीं आने वाली
तूम्बा को लटका आओ
सल्फी की किसी टहनी पर हमेशा के लिए
भूल जाओ चिपड़ी में उड़ेल कर महुए का रस.
ताड़ को दुःखी होने दो इस बात के लिए
कि तुम्हारा बेटा बाँधना भूल जाएगा अपनी शादी पर
उसकी पत्तियों का बना मौड़
( दो )
तुम भूल जाओ हथेलियों में झोकर पानी पीना
यहाँ तक कि उन दो हथेलियों की दो उंगलियों को भी
जिन्हें रोटी के टुकड़े पकड़ने में कम और
आदिमकाल से हाथो में पकड़े अपने धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए ज्यादा इस्तेमाल किया
तुम भूल जाओ जंगल की उन पत्तियों को चबाना
जिनको जीभ पर धरते ही बदल जाता था मन का मौसम
भूल जाओ
चिड़ियों की भाषा में आने वाली आपदाओं के संकेत
शिकार के वक्त बुदबुदाने वाले मंत्र!
मृतक के पैरों में चावल की पोटली बांध कर
विदा करने की परम्परा!
कि
मरने के बाद भी अपने प्रिय को भूखा न देख पाने की पीड़ा
तुम्हें किसी और मिट्टी में उगने नहीं देगी
तुम्हारी स्थानीयता ही तुम्हारी सँस्कृति की चेतना है.
( तीन )
तुम भूल जाओ एक दिन
पेन परब पर तिरडुडडी की छनक
एक दूसरे के हाथों को भींच कर पकड़ने की आदत
कदम से कदम मिलाकर चलने का कड़ा अनुशासन.
तुम्हारे कंधे मजबूत जरूर हैं पर इतने भी नही
कि तुम उठा सको
हर गाँव-हर घर के देवता को अपने कंधों पर शहर तक साबुत.
जंगलो के देवता अपनी जगह नहीं बदलते.
( चार )
तुम्हारे देवता मंदिरों में नहीं
झाड़ के झुरमुट के नीचे, पहाड़ की ऊंची चोटी पर चौकन्ने विराजते हैं
तुम्हें जहर देकर नहीं मारा जा सकता
गला रेतकर नही की जा सकती तुम्हारी हत्या.
जंगल से हटा देना सबसे आसान तरीका है
तुम्हें जड़ से नष्ट करने का
तुम भूल जाओ
एक दिन वह सब कुछ
जिनके होने से तुम्हारे होने की गंध आती है.
( पांच )
तुम खटो कारखानों में, शहर की गलियों में देर रात तक लौटो
तुम्हें आदि बनाया जा रहा है
दस से पाँच का वाली फैक्टरी की अलार्म धुन का
पतला चावल पचाएँगी तुम्हारी आँते
खाओगे, पीओगे एक दिन थककर मर जाओगे
शहर के किसी कब्रिस्तान में दफन हो जाओगे
बिना किसी मृत्य-गीत के
उस दिन पूरी दुनिया की मछलियां तड़प कर मर जाएंगी.
पहाड़ भरभराकर गिर जायेंगे
चंदन की सारी लकड़ियां भाग जाएंगी जंगल से
सारे आंगा देव नंगे होकर भटकेंगे
बूढ़ा देव अचानक बदल जाएंगे शिवलिंग में.
धोती- कुर्ता पहनें ताँबा के लोटे से सूर्य देवता को जल चढ़ाते
कई-कई मंत्र
हवा में घुल-मिल जाएंगे
जिनमें तुम्हारी गन्ध कहीं नहीं होगी.
महुआ का पेड़ जानता है
महुआ का पेड़ जानता है
महुआ की उम्र कच्ची है
कच्ची उम्र में टपकते हुये महुये को रोकना संभव नहीं.
गुरुत्वाकर्षण बल नहीं बल्कि
धरती का संगीत खींचता है उसे अपनी ओर!
बाँस की टोकनी से लिपटने का मोह
महुये को छोटी उम्र में किसी जिम्मेदार मुखिया की तरह काम करने को उकसाता है.
महुये को प्रेम है पांडु की छोटी लेकी से
उसकी खुली देह के लिए किसी कवच की तरह टप से टपकता है महुआ.
महुआ इसलिए भी टपकता है
ताकि इस बार साप्ताहिक बाजार में आयती के लिए जुगाड़ कर सके लुगा का.
आयती के दिहाड़ी वाले काम के बारे में
महुआ को सब पता है.
बड़े छाप वाले फूल और गहरे रंग वाली सूती लुगा भी
कहाँ रोक पाती है उन आँखों की रेटिना को
आयती की देह का पारदर्शी चित्र उकेरने से.
शैतानी आँखे ताड़ जाती हैं
गदराई देह पर अंकित गहरे रंग की छाप कहाँ और कैसे फीकी पड़ जाती है.
चिमनियों से टकराकर आने वाली दूषित हवा
किसी फुलपैंट वाले के नथुनों से होकर घुल न जाये तालाब के पानी में.
महुआ का टपकना जरूरी हो जाता है उस वक्त
कि महुआ की मादकता बचाएं रखती है जलपरियों को खतरनाक संक्रमित बीमारियों से.
महुआ टपकता है
अपनी मिट्टी पर/अपनी बाड़ी में/अपने गाँव-घर के बीच.
थकी देह के लिए महुआ पंडुम
इंद्र देव के दरबार में रचाई गई रासलीला की तरह है.
महुआ के फूल से खेत-खलियान अटे रहें
मन्नत के साथ गायता देता है बलि सफेद मुर्गे की.
दोना भर मन्द पीते ही, पत्तल भर भात खाते ही
पांडु की इंद्रिया लंकापल्ली जलप्रपात के कुंड में डुबकी लगा आती हैं.
फुसफुसा आती है चिंतावागू नदी के कान में
अपनी मुक्ति का कोई संदेश गोदावरी के नाम!
काली शुष्क हड्डियों से चिपका हुआ.
उसका मांस सब कुछ भुला कर पंडुम गीत गुनगुनाने लगता है.
किसी मुटियारी का धरती से अचानक रूठकर
आसमान पर चमकने की जिद्द पूरी करने के लिए
महुआ को टपकना ही पड़ता है.
महुआ का टपकना
मिट्टी के भीतर संभावित बीज के पनपने का संकेत मात्र नहीं है.
कि महुआ का टपकना,
गाँव के सबसे बुजुर्ग हाथ की नसों में स्नेह की गर्माहट का बचा रहना भी है.
मछलियाँ गायेंगी एक दिन पंडुम गीत
तुम्हें छूते हुये थरथरा रहें हैं मेरे हाथ
कि कहीं किसी ताजे खून का धब्बा न लग जाए मेरी हथेलियों पर
सोचती हूँ तुम्हारी नींव रखी गई थी
तब भी क्या तुम इतनी ही डरावनी थी.
अत्ता बताती है तुम्हारे आने की खबर से
सारा गाँव हथेलियों पर तारे लिए घूम रहा था
उम्मीद की हजारों-हजार झालरें
लटक रही थी घर की छानियों पर
सुअर की बलि संग देशी दारू का भोग
लगाया गया था तुम्हें
खूब मान, जान के साथ आई थी तुम
तुम्हारे आने से तालपेरु का सीना
फूल कर और चौड़ा हो गया था.
तुम आई तो अपने संग , सड़क, बिजली, पानी, अस्पताल, स्कूल, हाट, बाजार के नए मायने लेकर आई
गाँव अचानक शहर की पाठशाला में दाखिल हो चुका था.
हित-अहित, अच्छा-बुरा, नफा-नुकसान, हिंसा-अहिंसा का पाठ पढकर
होमवर्क भी करने लगा था पूरा गाँव.
किसी कल्पवृक्ष की भांति
बाहें पसारे तुम खड़ी रहती
और पूरा गाँव दुबककर सो जाता
तुम्हारी बाहों के नरम गद्दे पर
एक निश्चिंतता भरी नींद
सूरज के उगने तक
सालों बाद लौट कर
जब आई हूँ तुमसे मिलने
तो देखती हूँ
हजारों गुनाहों की साक्षी बन तालपेरु की रेतीली छाती पर
खंडहर सी बिछी हो तुम.
साईं रेड्डी के खून के छींटे तुम्हारी निष्ठुरता की कहानी कहते हैं.
तुम्हारी सुखद कहानियाँ
इतिहास के पन्नों पर
किसी फफोले की तरह जल रही हैं.
क्या कभी लौटकर आओगी तुम
तालपेरु नदी के ठण्डे पानी का स्पर्श करने
बोलो कुछ तो बोलो
तुम्हारा यूँ निःशब्द होना
बासागुड़ा की आने वाली पीढ़ियों के मस्तिष्क में गर्म खून का बीज बोने जैसा है.
तुम चीखो, तुम चिल्लाओ, तुम रोओ, तुम मांगो इंसाफ
कि तुम्हारी चुप्पी तोड़ने से ही टूटेगा जंगल का चक्रव्यूह
तुम कुछ बोलो मेरे प्रिय पुल,
कि तुम्हारी खनकती आवाज़ सुनकर
जंगल से हिरणों का झुंड पानी पीने जरूर आयेगा.
उस दिन तालपेरु की सारी मछलियाँ तुम्हारे स्वागत में एक बार फिर पंडुम गीत गायेंगी.
तुम देखना,
एक दिन तुम सजोगी फिर किसी नई दुल्हन की तरह।
शब्दार्थ
बासागुड़ा का पुल ---
एक गाँव को जिले से जोड़ने के लिए बनाया गया खूबसूरत पुल, जिस पर कभी पूरा गाँव एकजुट होकर सुबह शाम गुजारा करता था. कहते हैं बहुत रौनक होती थी एक समय इस पुल पर, सलवाजुड़ुम के दौरान बासागुड़ा गाँव पूरी तरह खाली हो गया था अब धीरे-धीरे जीवन की कुछ उम्मीदें फिर से वहाँ पनपने लगी हैं पर अब भी कुछ कहना मुश्किल है ।
*अत्ता ----बुआ
*साईं रेड्डी ----बीजापुर के चर्चित पत्रकार जिनकी उसी पुल पर कुल्हाड़ी मार कर हत्या कर दी गई थी.
*तालपेरु--- बैलाडीला से निकलकर बासागुड़ा होते हुए बहने वाली नदी.