साहित्य

हेमंत की कविताएं

हेमंत की कविताएं

किसी और जन्म के लिए 

अगर ,वेदना है 

तो उसे पनपने दो 

उन सपनों के लिए 

जो पूरे नहीं हुए 

हो भी नहीं सकते

 

और उन में जोड़ दो 

मेरा व्याकुल 

अस्वीकृत 

दावानल प्यार 

किसी और जन्म के लिए

 

बस इतना 

********* 

कार्तिक की जिन हवाओं ने 

रात के सन्नाटे में आकर 

मेरे कमरे में लगे बिस्तर पर 

हरसिंगार के फूल बिखेरे थे 

और सौंपी थी 

तुम्हारे आने की खुशबू ..........बेतरह

 

संगमरमर के जिस टुकड़े ने 

मेरे दिल में बैठकर 

एक हँसी घर के ख़्वाब तराशे थे 

हसीन चेहरे वाले तुम्हारे होठों ने 

चुपके से मेरे गीत गुनगुनाए थे

 

उन हवाओं ,उन फूलों 

और बेदार बदन वाले 

प्यार के देवता तुमने 

अपने सारे वादे भुला दिए 

कसमें तोड़ दीं 

और ऐलान कर दिया 

कि वफ़ा तुम्हारी एक फरेब थी 

और फरेब थी इसलिए 

तुम वफादार न थे

 

और मैं 

अपने कमरे में 

सूखे चरमराये दिल के टुकड़ों को 

हवा में उड़ता देखता रहा 

और ठीक मेरे सामने 

मेरे बिस्तर पर आकर बैठ गया 

प्यार का बेवफा देवता तू

 

जिसे छूने को बढे मेरे हाथ को 

तूने यह कहकर झटक दिया 

यहाँ वफा का क्या काम? 

क्या काम है ख्वाबों का ?  

टूट जाने के सिवा

 

 जीवनक्रम 

*********

हम सब 

इस त्रिकाल ठहरे जल में 

जलकुंभियों की तरह डोलते हैं 

हमारी जड़े जमीन में नहीं जातीं 

जल के ऊपर उतराती हैं 

फिर घोर आतप से 

सब कुछ सूख जाता है 

जल भी ,जल का अस्तित्व भी 

तब हम धरती में पड़ी दरारों में 

समा जाते हैं 

हम मरते नहीं 

अपने अंदर जल का स्रोत छुपाए 

धरती की कोख में छुपे रहते हैं 

फिर मेह बरसता है 

फिर धरती की दरार से हम 

बाहर निकल आते हैं 

जलकुंभी बन 

पानी की सतह पर 

खिल पड़ते हैं 

यही क्रम चलता रहता है 

चलता रहेगा लगातार 

धरती के अस्तित्व तक 

 

क्यों

****

माँएं क्यों मनाती है तीजे ,गणगौर 

क्यों करती है मन्नत 

रखती है उपवास 

शिवरात्रि का ,नवरात्रि का ,

सोलह सोमवार का 

क्यों कामना जगाती है बेटियों में

करवा चौथ की ,वटसावित्री की 

मेहंदी की,महावर की 

क्यों जोहती हैं बाट

बेटियों को जलाने वाले रिश्तों की

क्यों नहीं चेतती माँएं 

 

धुएं की चुभन 

***********

बर्फीली घाटियों में 

शाम के वक्त 

लकड़ियां जलाकर 

जब हम साथ बैठे थे 

कितने ही लम्हे 

तुम्हारी, मेरी आंखों में तैरे थे 

 

तुम्हारी आंखों में देखी थी 

मैंने 

सीली लकड़ियों के धुएं की चुभन 

दूर आसमान में 

कितने ही रंग पिघले थे 

फिर 

उन्ही रंगों को हमने 

स्याह होते देखा था

 

तुम चुप थी 

मैं चुप था 

बस एक गीली गर्माहट थी 

हमारे बीच 

शाम के वक्त 

उन बर्फीली वादियों में 

 

गरीब की बेटी

************

गरीब की बेटी 

तपेदिक की शिकार 

घुल घुल कर मरती रही 

नमक डली जौंक की तरह

 

इलाज से बच जाती 

पर खर्च था 

हजारों का 

दवाइयां ,इंजेक्शन टॉनिक,फल 

डॉक्टर की फीस 

सेनेटोरियम का किराया 

 

बच जाती फिर शादी?

खर्च था हजारों का 

गरीब का 

सोचना ही कितना 

मुंह से पेट तक !

 

कर डाला फैसला 

जिंदगी और मौत में से 

चुन ली मौत 

अपनी चुनमुनिया  की 

 

वह मंजर था 

मौत की तरफ डग भरते 

कुल जमा सालों का 

पीली ,मुरझाई 

रफ्ता-रफ्ता छीजती, गलती

गरीब की बेटी 

शून्य में समा गई

दे गई कुछ और निवाले 

पेट भरने को 

अपने जन्मदाता को 

अपने जन्म के एवज़

 

 

मैंने प्यार चाहा है 

**************

मैंने प्यार चाहा है

क्योंकि वह 

ताकत देता है जीने की,

जिंदा रहने की 

अकेलेपन से मुक्ति की 

उस अथाह गहराई को 

देखते रहने की 

जो दुनिया के नर्क की

सच्चाई है 

 

मैंने प्यार चाहा है 

क्योंकि 

प्यार के आलिंगन में 

एक नन्हा 

स्वर्ग बसा है 

जिसकी चाह में

तपस्वियों ने तपस्या की 

पीर फकीरो ने 

अलख जगाई 

कवियों ने कविताएं रची

 

इस प्यार को पाकर मैं 

बस जाना चाहता हूं 

उन दिलों में 

जो जानना चाहते हैं 

ग्रह ,नक्षत्रों ,

आकाशगंगाओं का 

रहस्य 

पाताल की गहराई 

और स्वर्ग का सत्य 

 

इस प्यार को पाकर मै

समा जाना चाहता हूं 

मानव की पीड़ा में 

चीत्कार ,भूख ,

बदहाली ,

अत्याचार से 

पिसते 

निर्बल जख्मी पाँव

उपेक्षित वजूद 

खून होता 

टपकता पसीना 

असमय बुढ़ाती जवानी 

 

मैं इस सब को 

मिटा नहीं सकता 

इसीलिए 

समा जाना चाहता हूं 

इन बुराइयों में, 

पीड़ाओं में 

इसीलिए मैंने 

प्यार चाहा है 

अपने अंदर 

ताकत जगाने को 

 

 

ड्रैक्युला

*******

कल रात 

मेरे अचेतन मन में 

सहसा जीवित हो उठा ड्रैक्युला

 

उसका अट्टहास 

खून पीने को उतावले 

नुकीले दो दांत 

मेरी गर्दन पर चुभते से लगे

 

कोई नहीं था आसपास 

सिवा ड्रैक्युला के 

जो सदियों से 

रात के अंधेरे में 

ढूंढ रहा है गर्दन 

 

एक गढ़ा हुआ  

सत्य है ड्रैक्युला 

या ड्रैक्युला ने 

सत्य गढ़ा है 

न जाने कितनी गरदनो का

पी कर रक्त 

 

ओह !कहां ड्रैक्युला? 

कार की हेडलाइट की 

मरियल सी रोशनी में

डोलती हैं कुछ परछाइयां 

कुछ टहलते कदम

 

मरीन ड्राइव में 

रोशनियों का 

नौलखा हार पहने 

सजी है दुल्हन सी मुंबई 

और मैं निकला हूं 

एक डिस्कोथेक से खिसककर 

कार में तनहा 

देखने मुंबई को 

रात की बाहों में 

 

लेकिन यहां तो तड़प है 

उन गरदनों की 

जिन्हें अभी अभी डँसा है ड्रैक्युला ने

 

तो क्या सत्य है

ड्रैक्युला सदियों से ?

 

 

बस इतना 

*********

कार्तिक की जिन हवाओं ने 

रात के सन्नाटे में आकर 

मेरे कमरे में लगे 

बिस्तर पर 

हरसिंगार के फूल 

बिखेरे थे 

और सौंपी थी 

तुम्हारे आने की 

खुशबू ..........बेतरह

 

संगमरमर के 

जिस टुकड़े ने 

मेरे दिल में बैठकर 

एक हंसी घर के ख़्वाब 

तराशे थे

 

हसीन चेहरे वाले 

तुम्हारे होठों ने 

चुपके से मेरे गीत 

गुनगुनाए थे 

उन हवाओं 

,उन फूलों 

और बेदार बदन वाले 

प्यार के देवता तुमने 

अपने सारे वादे 

भुला दिए 

कसमें तोड़ दी 

और ऐलान कर दिया 

कि वफ़ा तुम्हारी 

एक फरेब थी 

और फरेब थी 

इसलिए तुम 

वफादार न थे 

 

और मैं अपने कमरे में 

सूखे चरमराये 

दिल के टुकड़ों को 

हवा में उड़ता 

देखता रहा 

और ठीक मेरे सामने 

मेरे बिस्तर पर आकर 

बैठ गया 

प्यार का बेवफा 

देवता तू 

जिसे छूने को बढे 

मेरे हाथ को तूने 

यह कहकर झटक दिया 

यहां  वफा का 

क्या काम? 

क्या काम है ख्वाबों का ?

बस इतना कि टूट जाएं

 

मज़दूर

*******             

मज़दूर के 

उस स्वेद को सलाम है

जो रक्त बनकर 

धरती पर गिरता है

इस रक्त से उगेंगी फसलें

जो देश को बिठाएँगी

विकासशील देशों की

कतार में

जो समझौतों के लिये 

तैयार करेंगी गोल मेजें 

और चमकते फर्श

 

मज़दूर के 

उस स्वेद को सलाम है

जो मौन चीख बनकर 

धरती पर गिरता है

और भूखी नंगी नस्लें

विवश हैं जुटाने में

लक्ष्मी पुत्रों के 

ऐश्वर्य के खज़ाने

 

मैं इस मेहनत को 

गहरे महसूस कर सकता हूँ

मैं न चीख मिटा सकता ,न दर्द

लेकिन इंतज़ार कर सकता हूँ

तपते लोहे से बने उस हथौडे का

जो मज़दूर की बेडियाँ काटकर

उन हाथों को कुचले

जिन्होने बेडियाँ लगाईं

केवल ये बताने को कि

किस हद्द तक पशु बन जाते हैं

वे हाथ

सलाम है उस मिट्टी को

जहाँ मज़दूर का स्वेद

रक्त बनकर गिरा है

 

 

मेरे रहते

********

                 

ऐसा कुछ भी नही होगा मेरे बाद

जो न था मेरे रहते

वही भोर के  धुँधलके में 

लगेंगी डुबकियाँ

दोहराये जायेंगे मंत्र श्लोक

 

वही ऐन सिर पर 

धूप के चढ जाने पर

बुझे चेहरे और चमकते कपडों में

भागेंगे लोग दफ्तरों की ओर

वही द्वार पर चौक पूरे जायेंगे

और छौंकी जायेगी सौंधी दाल

 

वही काम से निपटकर

बतियाएँगी पडोसिनें 

सुख दुख की बातें

वही दफ्तर से लौटती 

थकी महिलाएँ

जूझेंगी एक रुपये के लिये 

सब्जी वाले से

 

वही शादी ब्याह,पढाई, कर्ज और

बीमारी के तनाव से 

जूझेगा आम आदमी

सट्टा,शेयर,दलाली,

हेरा फेरी में डूबा रहेगा

खास आदमी

 

गुनगुनाएँगी किशोरियाँ 

प्रेम के गीत

वेलेंटाइन डे पर

गुलाबों के साथ 

प्रेम का प्रस्ताव लिये

ढूँढेंगे किशोर मन का मीत

सब कुछ वैसे ही होगा....

जैसा अभी है

मेरे रहते

 

हाँ,तब ये अजूबा ज़रूर होगा

कि मेरी तस्वीर पर होगी 

चन्दन की माला

और सामने अगरबत्ती

जो नहीं जलीं मेरे रहते

 

हेमंत

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