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भूलन द मेज... अपनी शिकायत फाड़कर फेंकता हूं मैं

भूलन द मेज... अपनी शिकायत फाड़कर फेंकता हूं मैं

राजकुमार सोनी

संभावनाओं से भरे युवा फिल्मकार मनोज वर्मा की फिल्म भूलन द मेज अगर आपने नहीं देखी है तो पहली फुरसत में इसे देख लीजिए. यह फिल्म छत्तीसगढ़ में निर्मित होने वाली सुंदरानी और जैन मार्का फिल्मों से बेहद अलग और जानदार है. फिल्म में थोड़ी-बहुत खामियां भी है बावजूद इसके यह फिल्म अंत तक बांधकर रखती है और अपनी बात कहने में सफल रहती हैं.

यहां मैं बताना चाहूंगा कि मनोज वर्मा के फिल्मी कामकाज को लेकर मेरी धारणा अच्छी नहीं रही हैं. दरअसल उनकी पुरानी फिल्मों का नाम ही महूं दीवाना... तहूं दीवानी, मिस्टर टेटकूराम और लफाडू-फफाडू टाइप का रहा है तो मेरी क्या गलती है ? उन्हें लेकर जो कुछ भी फिल्मी प्रचार रहा है वह यहीं रहा है कि उनके भीतर  सतीश जैन का भूत सवार हैं और वे उनके नक्शे-कदम पर चलकर अपनी अच्छी-खासी सृजनात्मकता का गला घोंट रहे हैं.

लेकिन भूलन द मेज ने मेरी इस धारणा को ध्वस्त कर दिया है. कई बार धारणाओं का धवस्त हो जाना अच्छा भी होता है. 

मंगलवार को छत्तीसगढ़ के कला और संस्कृति प्रेमी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के सौजन्य से मेरी धारणा टूट गई. वे भूलन द मेज देखने गए तो मीडिया के अन्य साथियों के साथ मेरा भी जाना हो गया. हालांकि निर्देशक मनोज वर्मा शायद जानते थे कि मैं उनकी पुरानी फिल्मों को लेकर अच्छी राय नहीं रखता हूं इसलिए उन्होंने मुझसे एक मर्तबा पूरी विनम्रता से कह भी रखा था कि आप भूलन द मेज को अवश्य देखिए...शायद आपकी शिकायत दूर हो जाए.

यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं है कि भूलन द मेज को देखकर मेरी धारणा चकनाचूर हो गई हैं. मेरी शिकायत दूर हो गई हैं. मैं अपनी शिकायत को अपने जेब में वापस रखता हूं.

जेब में भी क्यों ? शिकायत को सीधे-सीधे फाड़कर फेंकता हूं.

मनोज वर्मा ने अंचल के बेहतरीन लेखक संजीव बख्शी की लिखी हुई शानदार सी कहानी पर शानदार और जानदार फिल्म बनाई है. यहां कहानी का जिक्र करना ठीक नहीं होगा क्योंकि इस बारे में सोशल मीडिया व प्रचार के अन्य माध्यमों पर काफी कुछ लिखा जा चुका है. बस...इतना बताना चाहूंगा कि यह फिल्म हमारी प्रशासनिक और न्याय व्यवस्था पर जबरदस्त चोट करती है. फिल्म को देखते हुए आप हंसते हैं. रोते हैं और मन ही मन अपने अराध्य या ईश्वर से यह प्रार्थना करने लग जाते हैं कि ' हे...ईश्वर...किसी भी भोले-भाले... सीधे-सादे इंसान को कोर्ट-कचहरी के दिन देखने के लिए मजबूर मत करना. हे परमपिता... परमेश्वर...आप जहां कहीं भी हो...आप यह सब देखो कि इस धरती के गांवों में...छोटे कस्बों में अपनी छोटी-छोटी खुशियों के साथ जीने वाले लोग भी रहते हैं. कौन हैं वे लोग जो उनकी खुशियों में खलल डालते हैं. कानून किसके लिए बनता है ? अगर बनता भी है तो उसकी शुद्धता को खत्म करने वाले लोग कौन हैं ? कानून थोपा क्यों जाता है ?

फिल्म का एक पात्र भकला और उसकी पत्नी प्रेमिन बाई अपने गांव के एक साथी को जेल से छुड़ाने के लिए शहर आते हैं. बाबुओं की वजह से काम नहीं बनता तो उन्हें फुटपाथ पर रात गुजारनी पड़ती हैं. दोनों आकाश की तरफ देखते हैं. आधा-अधूरा चांद तो नज़र आता है मगर तारा नहीं आता. दोनों के बीच संवाद में एक बात सामने आती हैं- शायद शहर में आने के बाद तारा नज़र नहीं आता है. यह संवाद भीतर तक हिला देता है. सच तो यह है कि शहर में इधर-उधर भटकते हुए लोग तो दिखते हैं लेकिन मददगार नज़र नहीं आते.फिल्म में जब गांव के सारे लोग जेल की सज़ा भुगतने को तैयार हो जाते हैं तो आंखें नम हो जाती हैं. अपने साथी को बचाने के लिए जब सारे गांव वाले जज को पैसा देने के लिए अपनी मेहनत की कमाई को एक गमछे में एक इकट्ठा करते हैं तो आंसू बह निकलते हैं. मैंने मुंबइया फिल्मों में कोर्ट के भीतर और बाहर गुंडे- माफियाओं के द्वारा गोली चलाने के सैकड़ों दृश्य देखें हैं, लेकिन कोर्ट के भीतर न्यायाधीश की कुर्सी के आसपास ग्रामीणों का सामूहिकता के साथ नाचना-गाना पहली बार देखा है. गाने के पहले एक बच्चा न्याय की मूर्ति की आंखों में बंधी हुई पट्टी उतारता है तो कई सवाल और जवाब खुद से टकराने लगते हैं. कोर्ट परिसर में गांव वालों के द्वारा भोजन पकाने और वहीं परिसर में ही ठहरकर जज का फैसला सुनने के लिए ग्रामीणों की बेचैनी को देखना आंखों को खारे पानी के समन्दर में बदल डालता है.

मनोज वर्मा ने फिल्म के एक-एक फ्रेम पर खूबसूरत काम किया है. फिल्म का एक-एक गीत और उसका संगीत जानदार है. बैकग्राउंड म्यूजिक देने वाले मोंटी शर्मा से भी उन्होंने ग्रामीण पृष्ठभूमि के मद्देनजर शानदार काम लिया है. नंदा जाही रे... जैसा गीत सैकड़ों बार सुना गया है, लेकिन मनोज और प्रवीण की आवाज में इसे फिल्म में सुनना अलग तरह के अनुभव से गुजरने के लिए बाध्य कर देता है.

वर्ष 2000 में जब से छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण हुआ है तब से अपसंस्कृति फैलाने वालों की बाढ़ आई हुई है. सतीश जैन की फिल्म मोर छइंया-भुइंया के संयोगवश हिट हो जाने के बाद से जिसे देखो वहीं डेविड धवन बनकर कचरा परोसने के खेल में लग गया था. हालांकि यह सिलसिला अभी भी थमा नहीं है. यह सब कुछ कब जाकर खत्म होगा और कहां जाकर खत्म होगा कहना मुश्किल है.

मनोज वर्मा अपनी इस फिल्म के जरिए धारा को मोड़ते हुए दिखते हैं. वे हमें यह आश्वस्त करते हैं कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है.वे सभी दर्शक जो सुंदरानी और जैन मार्का फिल्मों में कला-संस्कृति के नाम पर नकली पहनावा, नकली नाक-नक्श, नकली गांव-घर, नकली बोली-बानी और लोक धुनों में मिलावट को देख और सुनकर परेशान हो चुके हैं उन्हें असली मेला मंडई, स्थानीयता की रंगत, लोक के रंग, सुआ, नाचा गीत और शोक में बजने वाले बांस की धुन को शिद्दत से महसूस करने के लिए भूलन द मेज देख लेनी चाहिए. महबूब खान की फिल्म मदर इंडिया को भारतीय सिनेमा की आत्मा कहा जाता है. भूलन द मेज भी हमारी उस आत्मा से मुलाकात करवाती है जिसे हमने बिसरा दिया है.

मनोज वर्मा को लेकर मेरी उम्मीद और अधिक  बढ़ गई हैं. मैं उनसे सिर्फ़ इतना ही कहना चाहता हूं कि छत्तीसगढ़ के गांव-देहात और जंगलों में सैकड़ों-हजारों कहानियां बिखरी हुई हैं. जरूरत है उन कहानियों में से कुछ चुनिंदा कहानियों को समेटने की. जब सत्यजीत रे यहां छत्तीसगढ़ आकर प्रेमचंद की कहानी पर सदगति जैसे फिल्म बना सकते हैं. जब राजकुमार राव की फिल्म न्यूटन की शूटिंग छत्तीसगढ़ में हो सकती हैं और आस्कर में जा सकती हैं तो फिर यहां के निर्माता निर्देशक चल हट कोनो देख लिही और हंस झन पगली फंस जाबे से ऊपर क्यों नहीं उठ सकते हैं ?

यह सही है कि व्यवसायिकता भी फिल्म का एक जरूरी पार्ट है, लेकिन क्या सिनेमा के इतिहास में किसी भी तरह का कोई रेखांकन सिर्फ पैसे और पैसों के दम पर ही किया जाना ठीक होगा ? या किया जा सकता है ?

स्मरण रहे कि आपकी अपनी मौलिकता ही आपको स्थापित करती है और पहचान दिलाती है. भूलन द मेज में काम करने वाले मास्टर जी यानि अशोक मिश्र को कौन नहीं जानता. उन्होंने भी एक से बढ़कर एक फिल्में लिखी है. वे स्थापित हैं और लोग उन्हें अलग तरह की लकीर खींचकर काम करने वाला लेखक मानते हैं. लोग अगर आज राजमौली की फिल्मों के दीवाने हैं तो उसके पीछे भी भेड़चाल नहीं है.

मनोज वर्मा को मैं निकट भविष्य में भेड़चाल से बचने की सलाह दूंगा. ( यह आवश्यक नहीं है कि मेरी सलाह मानी जाय )

एक बात और मनोज वर्मा चुस्त-दुरुस्त कहानी और पटकथा के बावजूद कुछ कलाकारों से ही बेहतर काम ले पाए है. पूरी फिल्म में ओंकार दास मानिकपुरी, अशोक मिश्र, राजेन्द्र गुप्ता, मुकेश तिवारी, आशीष शेंद्रे, भकला की पत्नी प्रेमिन बाई यानी अणिमा पगारे, कोटवार बने संजय महानंद, मुखिया की पत्नी गौंटनिन अनुराधा दुबे और सुरेश गोंडाले का अभिनय ही याद रह जाता है. फिल्म में कुछ कलाकार ऐसे भी हैं जिन्हें देखकर लगा कि मनोज वर्मा ने संबंधों के चलते उनके लिए गुंजाइश निकाली है. जब कोई काम बड़ा हो और लगे कि पूरी ताकत झोंकने से ही असर पैदा होगा तो गुंजाइश निकालने और गुंजाइश निकालने के लिए मजबूर कर देने वाले लोगों से बचा जाना चाहिए.

यार...उसको बुरा लग जाएगा... यार... वो क्या सोचेगा...यार उसको रख लेने से अपना काम बन जाएगा जैसी स्थिति फिल्म में ब्रेकर का काम करती है.

सच कह रहा हूं मैं

ह...हह...हव....हव

एकदम सच..... हव....हव....हहहहव

 

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