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गमछा, जनता और जिंदगी

गमछा, जनता और जिंदगी

छत्तीसगढ़ के बलरामपुर में सहायक प्राध्यापक पीयूष कुमार के इस लेख को पढ़कर बंगाल के एक प्रसिद्ध कवि नीतिश रॉय की कविता गमछा की याद ताजा हो जाती है.कोरोना काल में जिस गरीब के पास मॉस्क खरीदने के लिए पैसे नहीं है वह गमछे का इस्तेमाल कर सकता है. नीतिश रॉय भी अपनी कविता में गमछे को कभी बाजू में बांध लेते हैं तो कभी कमर में लपेटकर लड़ने के लिए खुद को तैयार कर लेते हैं. गमछा आम आदमी की ताकत है.

गमछा सदा राखिए, ढांके अंग प्रत्यंग।

समय पर सिर चढे रात ओढिए संग।।

कहै कवि कविराय, नहाय ढँके अंग।

अंत समय भी रहे एक ही वस्त्र संग।।

 

पता नहीं उपर्युक्त पंक्तियां किसकी हैं, पर गमछे का महात्म्य भारतीय लोक में बहुत बड़ा है। यूं तो गमछा भारत मे बारहमासा है पर गर्मियों में अति आवश्यक कपड़ा है। यह परिधान नहीं है बल्कि उससे ऊपर की, आगे की चीज है। तीन वस्त्र आज भी महत्वपूर्ण हैं, कफन, साड़ी और गमछा। यह आज भी एक वस्त्रीय हैं और आगे भी रहेंगे।

मनुष्य ने जब वस्त्रों की आवश्यकता महसूस की होगी, सिलाई की मशीन के आविष्कार से पूर्व सारी दुनिया में यही एक वस्त्र अलग अलग ढंग से उसने पहना है। प्राचीन काल में 'वास' और 'अधिवास' कहानेवाला यह गमछा भारतीय ग्रामीण जनता का प्राण है या यूं कहें कि पहचान है। गले में या कांधे में डाल के चल दिए, तालाब या नदी मिली तो नहा लिए, फरिया लिए। बिछाने को कुछ नहीं तो यही काम आया और ओढ़ने का तो हइये है। तेज गर्मी है तो सिर पर बांध लिया जाता है। सिर पर बांधने से गरीब आदमी को भी राजा की फीलिंग आती है थोड़ी सी शायद। इस गमछे का एक प्रिय साथी है, लाठी। हालांकि यह दमखम वालों में या दबंगों में ताब के साथ देखने को मिलता है जबकि आम आदमी इसे सुरक्षा और सहयोग के नाम पर धारण करता है।

गमछे का ही एक रूप है अंगोछा। यह अंग को पोंछने की क्रिया से प्रचलित शब्द है। यह अंग पोंछा से उच्चारण सुविधा की दृष्टि से अंगोछा हुआ है। जब इंसान बीमार होता है तो इसी अंगोछे को गीला कर देह में फिरा दिया जाता है। कभी कभी किसी वजह से नही नहाने की दशा में शरीर को अंगोछ लिया जाता है। गमछा शब्द में धूप, हवा, पानी, बादर, आंधी - तूफान आदि परेशानी रूपी गम को जो पोंछ दे, निज़ात दे दे, इस भाव में यह गमपोछा से गमोछा होते गमछा हुआ प्रतीत होता है। उत्तर भारत में गर्मियों में सत्तू बहुत खाया जाता है। यहां यह गमछा थाली या पत्तल का काम देता है। श्रमिक, किसान और राहगीर गमछे पर ही सत्तू में पानी और नमक मिलाकर आटे जैसा सान लेते हैं और लाल मिर्च भरा अचार या मूली, हरी मिर्च या प्याज के साथ खाकर भर लोटा पानी पीकर छाँह में थोड़ा सुस्ता लेते हैं। श्रम के बीच के इस अवकाश और सभ्यता के विकास में गमछे का महत्व अब तक नही लिखा गया है।

यह गमछा बचपन के एक खेल में भी कोड़े के रूप में काम आता रहा है। यह खेल देश के अलग अलग हिस्सों में मारुल, कोड़ा पिटानी, कोड़ा मार, रुमाल चोर, गुर्दा, पटकू झपट और कोकला छिपाकी आदि नामों से प्रचलित है। विंध्य में इसे गुर्दा कहते हैं, वहीं मध्य छत्तीसगढ़ में यह फोदा या फोदका कहलाता है। इस खेल में जब दाम देते हैं और बच्चे गाते हैं, "घोड़ा लगाम खाए, पीछे देखे मार खाये..." तब उमेठ कर दोहरे किये गए गमछे की पीठ पर मार की आवाज भला किसे भूली होगी। मन करता है बचपन का कोई दोस्त अतीत से निकलकर इसी दोहरे किये गए कोड़े से फिर से मारे, बार बार मारे !

लोक में गमछे का महात्म्य जीवन और सुख दुख से बेहद गहरे जुड़ा है। मेले मड़ई या बजार से लौट रहा पिता बच्चों के लिए चना चबैना, खजानी इसी गमछे में बांध लाता था। इस खजाने के घर मे खुलने पर बच्चों की आंखों में उपजी खुशी की चमक और मां बाप के चेहरे के सुकून की बराबरी दुनिया सारे धर्मग्रंथ नही कर सकते। गमछे में दया - मया भी गठिया के रखा जाता है जो कि हमेशा अदृश्य रहा है। श्रम से उपजे पसीने को इसी गमछे ने बरसों से सोखा है। बेटी के बिहाव में जब तेल चघनी के समय मोहरी (शहनाई) के साथ लोकवाद्यों की अन्तस् में उतरती मार्मिक धुन जब बज उठती है तो हर पिता के छलक उठे आंसुओं को इसी गमछे ने हर बार संभाला है। गमछे का एक बड़ा महत्व हमारे यहां छत्तीसगढ़ में बारात स्वागत के वक्त समधी भेंट में देखने को मिलता है। मुख्य समधी तो विनम्र रहते हैं, पीछे कका-बड़ा वाले भाई बड़े ताब में सिर में गमछा लपेटते नजर आते हैं। जिसके पास नही होता, वह दूसरे से मांगकर लपेट लेते हैं।

अब नेता लोग भी अपनी पार्टी के हिसाब से अनिवार्य रूप से धारण कर रहे हैं। अभी तो केसरिया और तिरंगे की किनारी वाली ज्यादा दिखती है। उधर ठंडे देशों के मार्क्स और लेनिन कोट वाले थे वरना वामपंथी नेता भी शुरू से लाल गमछा धारण करते शायद। हालांकि अभी अभी कुछेक वामपंथी युवा लाल गमछा लगाए दिखने लगे हैं। कुछेक सालों में नीला राजनीतिक गमछा भी दिखाई देने लगा है। बाकी राजनीतिक पार्टियां भी अपने झंडे के निशान को गमछे में छापकर गले मे डालने लगे हैं। इन सबका अर्थ है, गले मे गमछा डालने का दौर अभी लंबा चलेगा।

हमारे यहां छत्तीसगढ़ में गमछे को पटका कहते हैं जो तीन हाथ के माप का होता है। एक शिक्षक हैं जो रिटायर हो चुके हैं, उन्होंने जीवन भर यही पटका पहना। जमाना उन्हें पटकू गुरुजी के नाम से पुकारता और जानता है। ये है पटके का महत्व। इसी पटका से बड़ा पांच हाथ का पंछा होता है। पंछा छोटी धोती हुई जो गाँधीजी पहनते थे। गाँधीजी उस जमाने मे लंदन से बैरिस्टरी कर आए और यहां के आमजन की बराबरी के लिए जीवन भर यही पहना। आज कोई कल्पना भी नही कर सकता कि कोई महात्मा ऐसा भी हुआ था। गांधीजी से याद आया, हमारे यहां एक लाल धारियों वाला बड़ा ही सस्ता गमछा बहुप्रचलित है जो गांधी गमछा कहलाता है। लोक में पंछा से आगे हम देखते हैं तो एक और इससे बड़ा सात हाथ का कपड़ा दिखता है जो सतवारी कहलाता है। जी हां, यही तो है धोती ! 

गमछा पिछले कुछ सालों से लड़कियों के लिए वरदान साबित हुआ है अपने नए संस्करण 'स्टोल' के रूप में। गर्मी से या प्रदूषण से या बुरी नज़रों से बचने में यह बड़ा कारगर है उनके लिए। इसलिये अब फुटपाथ पर लंबे लंबे सूती के रंग - रंग के स्टोल बिकते मिल जाते हैं। स्टोल को या गमछे को नए ढंग से बांधना भी एक कला है। लगभग आधे दर्जन तरीकों से तो इसे लड़कियां बांध ही लेती हैं। गमछा आज पहचान छुपाने का भी साधन हो गया है। प्रदूषण से बचने के नाम पर गमछे या स्टोल में बंधे चेहरों की जाने कितनी प्रेम कहानियां अभी चल रही हैं। इधर जिस तरह जाड़े के दिनों में सूरज कोने - कोने होता छुप ही जाता है, वैसे ही गमछे की आड़ उधार दिए लोगों से बचने में भी कारगर सिद्ध हो रहा है। कामना है उनकी जेब में इतना आये की वे कर्ज चुका सकें।

हमने तो गमछे का उपयोग रस्सी की तरह किया है। जब दूसरी बाइक का तेल खत्म हो गया तो पहली बाइक से बांधकर उसे खींचा है। बतौर रस्सी गमछा प्राण ज्यादा ले रहा है इन दिनों। इससे कहीं गला घोंटा जा रहा है तो कहीं यह एक कपड़ा कहीं पड़ी लाश को ढंकने के भी काम आ रहा है। इधर किसान की जिनगी का संगवारी इस गमछे का साथ अंत तक हो चला है। कर्ज में डूबे किसान अब गले मे फंसाकर इसी में झूल रहे हैं। लगभग नब्बे बरस पहले ही की तो बात है, प्रेमचंद ने धनिया से कहलवाया था- "पांचो पोशाक काहे ले जाते हो, ससुराल जा रहे हो क्या?" पांचवां उतार दिया था... बस लाठी, लोटा, बटुआ, तम्भाख लिया गमछा था, वो भी साथ ले गए... ! "यही गोदान था !

हमारा आमजन गमछे सा ही सीधा है, सरल है। यह महादेश परिधानों में नहीं, इसी गमछे में जीता है। वह बचा रहे, यही कामना है।

 

 

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