देश
गमछा, जनता और जिंदगी
छत्तीसगढ़ के बलरामपुर में सहायक प्राध्यापक पीयूष कुमार के इस लेख को पढ़कर बंगाल के एक प्रसिद्ध कवि नीतिश रॉय की कविता गमछा की याद ताजा हो जाती है.कोरोना काल में जिस गरीब के पास मॉस्क खरीदने के लिए पैसे नहीं है वह गमछे का इस्तेमाल कर सकता है. नीतिश रॉय भी अपनी कविता में गमछे को कभी बाजू में बांध लेते हैं तो कभी कमर में लपेटकर लड़ने के लिए खुद को तैयार कर लेते हैं. गमछा आम आदमी की ताकत है.
गमछा सदा राखिए, ढांके अंग प्रत्यंग।
समय पर सिर चढे रात ओढिए संग।।
कहै कवि कविराय, नहाय ढँके अंग।
अंत समय भी रहे एक ही वस्त्र संग।।
पता नहीं उपर्युक्त पंक्तियां किसकी हैं, पर गमछे का महात्म्य भारतीय लोक में बहुत बड़ा है। यूं तो गमछा भारत मे बारहमासा है पर गर्मियों में अति आवश्यक कपड़ा है। यह परिधान नहीं है बल्कि उससे ऊपर की, आगे की चीज है। तीन वस्त्र आज भी महत्वपूर्ण हैं, कफन, साड़ी और गमछा। यह आज भी एक वस्त्रीय हैं और आगे भी रहेंगे।
मनुष्य ने जब वस्त्रों की आवश्यकता महसूस की होगी, सिलाई की मशीन के आविष्कार से पूर्व सारी दुनिया में यही एक वस्त्र अलग अलग ढंग से उसने पहना है। प्राचीन काल में 'वास' और 'अधिवास' कहानेवाला यह गमछा भारतीय ग्रामीण जनता का प्राण है या यूं कहें कि पहचान है। गले में या कांधे में डाल के चल दिए, तालाब या नदी मिली तो नहा लिए, फरिया लिए। बिछाने को कुछ नहीं तो यही काम आया और ओढ़ने का तो हइये है। तेज गर्मी है तो सिर पर बांध लिया जाता है। सिर पर बांधने से गरीब आदमी को भी राजा की फीलिंग आती है थोड़ी सी शायद। इस गमछे का एक प्रिय साथी है, लाठी। हालांकि यह दमखम वालों में या दबंगों में ताब के साथ देखने को मिलता है जबकि आम आदमी इसे सुरक्षा और सहयोग के नाम पर धारण करता है।
गमछे का ही एक रूप है अंगोछा। यह अंग को पोंछने की क्रिया से प्रचलित शब्द है। यह अंग पोंछा से उच्चारण सुविधा की दृष्टि से अंगोछा हुआ है। जब इंसान बीमार होता है तो इसी अंगोछे को गीला कर देह में फिरा दिया जाता है। कभी कभी किसी वजह से नही नहाने की दशा में शरीर को अंगोछ लिया जाता है। गमछा शब्द में धूप, हवा, पानी, बादर, आंधी - तूफान आदि परेशानी रूपी गम को जो पोंछ दे, निज़ात दे दे, इस भाव में यह गमपोछा से गमोछा होते गमछा हुआ प्रतीत होता है। उत्तर भारत में गर्मियों में सत्तू बहुत खाया जाता है। यहां यह गमछा थाली या पत्तल का काम देता है। श्रमिक, किसान और राहगीर गमछे पर ही सत्तू में पानी और नमक मिलाकर आटे जैसा सान लेते हैं और लाल मिर्च भरा अचार या मूली, हरी मिर्च या प्याज के साथ खाकर भर लोटा पानी पीकर छाँह में थोड़ा सुस्ता लेते हैं। श्रम के बीच के इस अवकाश और सभ्यता के विकास में गमछे का महत्व अब तक नही लिखा गया है।
यह गमछा बचपन के एक खेल में भी कोड़े के रूप में काम आता रहा है। यह खेल देश के अलग अलग हिस्सों में मारुल, कोड़ा पिटानी, कोड़ा मार, रुमाल चोर, गुर्दा, पटकू झपट और कोकला छिपाकी आदि नामों से प्रचलित है। विंध्य में इसे गुर्दा कहते हैं, वहीं मध्य छत्तीसगढ़ में यह फोदा या फोदका कहलाता है। इस खेल में जब दाम देते हैं और बच्चे गाते हैं, "घोड़ा लगाम खाए, पीछे देखे मार खाये..." तब उमेठ कर दोहरे किये गए गमछे की पीठ पर मार की आवाज भला किसे भूली होगी। मन करता है बचपन का कोई दोस्त अतीत से निकलकर इसी दोहरे किये गए कोड़े से फिर से मारे, बार बार मारे !
लोक में गमछे का महात्म्य जीवन और सुख दुख से बेहद गहरे जुड़ा है। मेले मड़ई या बजार से लौट रहा पिता बच्चों के लिए चना चबैना, खजानी इसी गमछे में बांध लाता था। इस खजाने के घर मे खुलने पर बच्चों की आंखों में उपजी खुशी की चमक और मां बाप के चेहरे के सुकून की बराबरी दुनिया सारे धर्मग्रंथ नही कर सकते। गमछे में दया - मया भी गठिया के रखा जाता है जो कि हमेशा अदृश्य रहा है। श्रम से उपजे पसीने को इसी गमछे ने बरसों से सोखा है। बेटी के बिहाव में जब तेल चघनी के समय मोहरी (शहनाई) के साथ लोकवाद्यों की अन्तस् में उतरती मार्मिक धुन जब बज उठती है तो हर पिता के छलक उठे आंसुओं को इसी गमछे ने हर बार संभाला है। गमछे का एक बड़ा महत्व हमारे यहां छत्तीसगढ़ में बारात स्वागत के वक्त समधी भेंट में देखने को मिलता है। मुख्य समधी तो विनम्र रहते हैं, पीछे कका-बड़ा वाले भाई बड़े ताब में सिर में गमछा लपेटते नजर आते हैं। जिसके पास नही होता, वह दूसरे से मांगकर लपेट लेते हैं।
अब नेता लोग भी अपनी पार्टी के हिसाब से अनिवार्य रूप से धारण कर रहे हैं। अभी तो केसरिया और तिरंगे की किनारी वाली ज्यादा दिखती है। उधर ठंडे देशों के मार्क्स और लेनिन कोट वाले थे वरना वामपंथी नेता भी शुरू से लाल गमछा धारण करते शायद। हालांकि अभी अभी कुछेक वामपंथी युवा लाल गमछा लगाए दिखने लगे हैं। कुछेक सालों में नीला राजनीतिक गमछा भी दिखाई देने लगा है। बाकी राजनीतिक पार्टियां भी अपने झंडे के निशान को गमछे में छापकर गले मे डालने लगे हैं। इन सबका अर्थ है, गले मे गमछा डालने का दौर अभी लंबा चलेगा।
हमारे यहां छत्तीसगढ़ में गमछे को पटका कहते हैं जो तीन हाथ के माप का होता है। एक शिक्षक हैं जो रिटायर हो चुके हैं, उन्होंने जीवन भर यही पटका पहना। जमाना उन्हें पटकू गुरुजी के नाम से पुकारता और जानता है। ये है पटके का महत्व। इसी पटका से बड़ा पांच हाथ का पंछा होता है। पंछा छोटी धोती हुई जो गाँधीजी पहनते थे। गाँधीजी उस जमाने मे लंदन से बैरिस्टरी कर आए और यहां के आमजन की बराबरी के लिए जीवन भर यही पहना। आज कोई कल्पना भी नही कर सकता कि कोई महात्मा ऐसा भी हुआ था। गांधीजी से याद आया, हमारे यहां एक लाल धारियों वाला बड़ा ही सस्ता गमछा बहुप्रचलित है जो गांधी गमछा कहलाता है। लोक में पंछा से आगे हम देखते हैं तो एक और इससे बड़ा सात हाथ का कपड़ा दिखता है जो सतवारी कहलाता है। जी हां, यही तो है धोती !
गमछा पिछले कुछ सालों से लड़कियों के लिए वरदान साबित हुआ है अपने नए संस्करण 'स्टोल' के रूप में। गर्मी से या प्रदूषण से या बुरी नज़रों से बचने में यह बड़ा कारगर है उनके लिए। इसलिये अब फुटपाथ पर लंबे लंबे सूती के रंग - रंग के स्टोल बिकते मिल जाते हैं। स्टोल को या गमछे को नए ढंग से बांधना भी एक कला है। लगभग आधे दर्जन तरीकों से तो इसे लड़कियां बांध ही लेती हैं। गमछा आज पहचान छुपाने का भी साधन हो गया है। प्रदूषण से बचने के नाम पर गमछे या स्टोल में बंधे चेहरों की जाने कितनी प्रेम कहानियां अभी चल रही हैं। इधर जिस तरह जाड़े के दिनों में सूरज कोने - कोने होता छुप ही जाता है, वैसे ही गमछे की आड़ उधार दिए लोगों से बचने में भी कारगर सिद्ध हो रहा है। कामना है उनकी जेब में इतना आये की वे कर्ज चुका सकें।
हमने तो गमछे का उपयोग रस्सी की तरह किया है। जब दूसरी बाइक का तेल खत्म हो गया तो पहली बाइक से बांधकर उसे खींचा है। बतौर रस्सी गमछा प्राण ज्यादा ले रहा है इन दिनों। इससे कहीं गला घोंटा जा रहा है तो कहीं यह एक कपड़ा कहीं पड़ी लाश को ढंकने के भी काम आ रहा है। इधर किसान की जिनगी का संगवारी इस गमछे का साथ अंत तक हो चला है। कर्ज में डूबे किसान अब गले मे फंसाकर इसी में झूल रहे हैं। लगभग नब्बे बरस पहले ही की तो बात है, प्रेमचंद ने धनिया से कहलवाया था- "पांचो पोशाक काहे ले जाते हो, ससुराल जा रहे हो क्या?" पांचवां उतार दिया था... बस लाठी, लोटा, बटुआ, तम्भाख लिया गमछा था, वो भी साथ ले गए... ! "यही गोदान था !
हमारा आमजन गमछे सा ही सीधा है, सरल है। यह महादेश परिधानों में नहीं, इसी गमछे में जीता है। वह बचा रहे, यही कामना है।
पृथ्वी की ओर लौटती दुनिया
विनोद वर्मा
दुनिया को कोरोना ने भयभीत कर रखा है. हर व्यक्ति आशंका से कांप रहा है कि पता नहीं कल क्या होगा. कारोबार ठप्प है. उद्योगों में ताले लटक रहे हैं. कल तक हम ‘लॉक-डाउन’ से शायद परिचित न रहे हों. लेकिन अब बच्चे तक जानते हैं कि ये क्या है.
लेकिन बुरे के दौर में सब कुछ बुरा नहीं है. दुनिया भर से अच्छी ख़बरें भी आ रही हैं. कोरोना की मार से कराह रहे इटली, स्पेन, अमरीका से और दिल्ली, बंगलौर, मुंबई, रांची और रायपुर से भी.
ये अच्छी ख़बरें हैं प्रदूषण के कम होने की. आसमान के फिर से नीला दिखाई देने की. रात में चंद्रमा के साथ तारे देख पाने की. नदियों से साफ़ होने की. और जंगली पशुओं के शहरों तक पहुंच जाने की.
विभिन्न समाचार पत्रों व वेबसाइट पर प्रकाशित ख़बरों न्यूज़ एजेंसी की ख़बरों और सोशल मीडिया पर आई ख़बरों में जो कुछ पढ़ने को मिला उसकी एक झलक देखिए:
- गंगा साफ़ हो गई है. कानपुर में भी और वाराणसी में भी
- दिल्ली में हवा साफ़ हो गई है. प्रदूषण का स्तर 71 प्रतिशत तक कम हो गया है
- यमुना के पानी में आमतौर पर दिखने वाला झाग कम हो गया है
- नोएडा सेक्टर-18 में नील गाय दिखी
- सिक्किम की राजधानी गंगटोक में हिमालयन भालू शहर तक आ गया
- देहरादून तक हाथी आ पहुंचे
- केरल के कोझिकोड में आबादी वाले इलाक़े तक दुर्लभ मालाबार बिलाव-कस्तूरी पहुंचा
- ओडिशा के समुद्र तट पर पहली बार लाखों कछुए दिन में प्रजनन करते देखे गए
- गौर (भारतीय बायसन) कर्नाटक में दिन में सड़कों पर देखा गया
- मुंबई की सड़कों पर मोर दिखा
- बिहार में बख़्तियारपुर में नील गाय का झुंड खेतों के बीच से गुज़रता दिखा
- पटना में एयरपोर्ट बेस के पास तेंदुआ दिखा
- गाज़ियाबाद पिलखुआ में अस्पताल में बारहसिंगा दिखा
लगभग यही स्थिति विदेशों में भी दिखाई दे रही है:
- ब्रिटेन के उत्तरी वेल्स में शहरी इलाक़ों में पहाड़ी बकरियां दिखीं
- रॉमफ़र्ड, इंग्लैंड में हिरण शहरी बस्तियों में दिखे
- वेनिस, इटली की प्रसिद्ध नहरों में समुद्री पक्षी तैरते दिख रहे हैं, पानी भी साफ़ हो गया है
- सैंटियागो, चिली में शहर में प्यूमा (पहाड़ी बिलाव) दिखा
- पेरिस, फ़्रांस में सेन नदी से निकलकर बत्तखों का झुंड सड़कों पर घूमता दिखा
- लंदन के मिडिलसेक्स इलाक़े में शहरी बस्ती के बीच लोमड़ी घूमती हुई दिखी
- त्रिंकोमाली, श्रीलंका में बाज़ार में बारहसिंगा दिखाई पड़ा
- नारा, जापान में व्यस्त रहने वाली सड़क पर हिरण दिखाई पड़ा
- वैंकुअर, कनाडा में समुद्री तट पर ऑरका व्हेल दिखाई देने लगी
- कैगलियारी, इटली में डॉल्फ़िन दिखने लगीं
हालांकि करुणा और पीड़ा के समय में प्रकृति और पर्यावरण की बात करना थोड़ा अटपटा सा लगता है. लेकिन जो हो रहा है वह यही है.
कुछ बरस पहले एक कार्यक्रम में कवि, समीक्षक और संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी ने बहुत पीड़ा के साथ कहा था कि पिछले कुछ दशकों में हम पृथ्वी को लगातार दुनिया की ओर ले गए हैं. यह बात कम लोगों को समझ में आई थी. वो इसलिए कि हमने दुनिया को पृथ्वी का पर्यायवाची मान लिया है. एक कवि ने इसे अलग तरह से देखा. वास्तव में पृथ्वी और दुनिया को इसी नज़रिए से देखा जाना चाहिए.
इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि हमने अपनी अपनी सुविधा के लिए पृथ्वी के विनाश में कोई कसर नहीं छोड़ी है. हमने उसके साथ दुराचार किया है. हमने अपनी नदियों का सत्यानाश कर लिया. खनिज उत्खनन के नाम पर जंगल और पहाड़ ख़त्म कर दिए. हरे भरे पहाड़ों को नंगा कर दिया. जो जंगल हमारे पास बचे हैं उनका स्तर (क्वालिटी) भी ख़राब हो गया है. शहरों में इतना प्रदूषण है कि लोग तरह तरह की बीमारियों का शिकार हो रहे हैं.
जो लोग अधेड़ हो चुके हैं वो समझ सकते हैं कि अपने पशु पक्षियों के साथ हमने क्या किया है. बाघ, शेर, तेंदुआ, हाथी, व्हेल, शार्क को छोड़ दीजिए अब तो शहरों में गौरैया और कौव्वे तक नहीं दिखते.
करोना संकट की वजह से लोग घरों से नहीं निकल पा रहे हैं. या उन्हें नहीं निकलने दिया जा रहा है. वाहन नहीं चल रहे हैं. प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग न धुंआ उगल रहे हैं और न प्रदूषित पानी नदियों में बहा रहे हैं तो अंतर दिखने लगा है.
जीव जंतुओं को एकाएक लगने लगा है मानों यह पृथ्वी उनकी भी है. वरना तो मनुष्यों ने पृथ्वी और प्रकृति पर इतना एकाधिकार कर लिया है कि शेष जीव जंतु हाशिए पर भी नहीं जी पा रहे हैं. हमारे देखते ही देखते कितने पशु और कितने पक्षी विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गए. जंगल के स्वच्छंद जीवों को हमने चिड़ियाघरों तक सीमित कर दिया.
कोरोना महामारी का समय जीव जंतुओं को नए समय की तरह लग रहा है. और ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ जीव जंतुओं को ही ऐसा लग रहा है. मनुष्यों को भी लग रहा है. वे भी सांस लेते हुए समझ रहे हैं. वे भी आसमान की ओर देखते हुए महसूस कर रहे हैं.
यह दुनिया के पृथ्वी की ओर लौटने का समय है.
अल्पकाल के लिए ही सही.
- लेखक वरिष्ठ पत्रकार और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के राजनीतिक सलाहकार है.
महलों के लिए जलने वाला दीप
विनोद वर्मा
कल यानी रविवार को रात 9 बजे 9 मिनट के लिए सबको कोरोना प्रकाशोत्सव में शामिल होना है. अपने घरों के दरवाज़ों पर या बाल्कनी में खड़े होकर दीया, मोमबत्ती, टॉर्च या मोबाइल की फ़्लैश लाइट जलानी है.
लेकिन उससे पहले आपको अपने घरों की सारी बत्तियां बुझानी हैं. जैसा कि प्रधानमंत्री जी के निर्देश हैं, “हमें प्रकाश के तेज को चारों तरफ़ फ़ैलाना है.”
अब कई लोग पूछ रहे हैं कि इसका मतलब यह है कि पहले अंधेरा फैलाना है और फिर उजाला करना है. ये नादान लोग प्रधानमंत्री जी की बातों की भावनाओं को समझ नहीं रहे हैं. अगर लाइटें जलती रहीं तो दीए और मोमबत्ती की रोशनी दिखेगी कहां? फ़ोटो अपॉर्चुनिटी मिस हो जाएगी. कोरोना संकट के अंधकार को पता ही नहीं चलेगा कि लोगों ने उजाला फैलाया. कोरोना के संकट को बताना ज़रुरी है कि उजाला हुआ.
याद कीजिए मोदी जी ने राष्ट्र को दिए अपने वीडियो संदेश में क्या कहा, “जो इस कोरोना संकट से सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं, हमारे ग़रीब भाई बहन, उन्हें कोरोना संकट से पैदा हुई निराशा से आशा की तरफ़ ले जाना है.”
उन ग़रीबों की निराशा इस प्रकाशोत्सव से आशा की तरफ़ जाएगी या नहीं? जिसका रोज़गार बंद है, जिसके घर पर राशन नहीं है, जो नहीं जानता कि लॉक-डाउन ख़त्म होने के बाद उसे रोज़गार मिलेगा भी या नहीं उसकी निराशा और हताशा की पैमाइश कोई कैसे कर सकता है? भूखे व्यक्ति को रोटी चाहिए या भूख के समर्थन में देश की एकजुटता?
नरेंद्र मोदी जी 130 करोड़ लोगों की महाशक्ति की बात कर रहे हैं. वे शायद भूल रहे हैं कि इनमें से आधे से भी अधिक लोग इस वक़्त निराशा के गहरे गर्त में हैं. वे ले-देकर अपने परिवार के लिए राशन की व्यवस्था करने लायक शक्ति जुटा पा रहे हैं वे महाशक्ति का प्रदर्शन कैसे कर पाएंगे?
अगर ग़रीबों की इतनी ही चिंता थी तो आपके निवास लोकसेवक मार्ग से बमुश्किल दस किलोमीटर दूर जब दसियों हज़ार लोग पैदल अपने घरों के लिए चल पड़े थे तो आप कहां थे प्रधानमंत्री जी? उस रात चुप रहे, अगली सुबह चुप रहे. उन सबके अपने घरों तक पहुंच जाने (या रास्ते में दम तोड़ने तक) चुप रहे. आपने माफ़ी भी मांगी तो कड़े निर्णय की मांगी. ग़रीबों को हुई असुविधा के लिए नहीं मांगी.
दरअसल आप जब अंधेरे का डर दिखाते हैं प्रधानमंत्री जी तो याद रखना चाहिए कि इस अंधेरे में आपके राज का अंधेर भी शामिल है. आपके प्रकाशोत्सव के आव्हान पर लोगों को व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी की रचना याद आ रही है. टॉर्च बेचने वाला. इसमें उन्होंने लिखा है, “चाहे कोई दार्शनिक बने, संत बने, साधु बने, अगर वह अंधेरे का डर दिखाता है तो वह ज़रूर अपनी कंपनी का टॉर्च बेचना चाहता है.” आप भी तो अंधेरे का डर दिखा रहे हैं और रोशनी तो आप भी बेचना चाहते हैं. ग़रीब, बेरोज़गार, बेघरबार और भूखे लोगों को. टॉर्च तो आप भी बेचना चाह रहे हैं, बस कह नहीं पा रहे हैं.
दरअसल, जो आप कह नहीं पा रहे हैं वह यह है कि आप की चिंता में ग़रीब है ही नहीं. आपकी चिंता में वह मध्यमवर्ग है जिसके घर में बाल्कनी है. जिसके घर में दीया जलाने को तेल है या फिर मोमबत्ती, टॉर्च या फ़्लैश लाइट दिखाने वाला मोबाइल है. आपको चिंता है कि वह घर पर खाली बैठा अगर आपके छह बरसों का हिसाब कर बैठा तो अनर्थ हो जाएगा. आप जानते हैं कि कोरोना की मार अभी भले ही ग़रीब तबके पर पड़ी हो पर निशाने पर अगला व्यक्ति मध्यमवर्ग से आएगा. वही आपका वोटर है. वही आपका भक्त है. और वही इस समय इस देश का सबसे बड़ा मूर्ख वर्ग है. आप उनसे मुखातिब हैं. आप उनको साधे रखना चाहते हैं.
आपका दीप ऊंची इमारतों, अट्टालिकाओं और महलों के लिए है और चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चलता है. वह ग़रीबों और वंचित लोगों के लिए न है और न उनके लिए जलेगा.
मशहूर शायर हबीब जालिब की रचना याद आती है,
दीप जिसका महल्लात* ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चले
वो जो साए में हर मस्लहत** के पले
ऐसे दस्तूर को, सुब्ह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
*महल्लात = महलों, **मस्लहत = सुख-सुविधा
पांच अप्रैल को दीया और टार्च जलाने वाले भक्तों...जरा यह भी सोचना कि गरीब के घर का चूल्हा कैसे जलेगा ?
सोशल मीडिया में हो रही है जमकर आलोचना
रायपुर. देश लॉकडाउन के भयावह दौर से गुजर रहा है. अब यह निश्चित नहीं है कि खाली हाथों को काम का सवाल जो चमगादड़ की तरह उलटा लटक गया है कब तलक सीधा हो पाएगा ? देश कब पटरी पर लौटेगा इसकी कोई अवधि तय नहीं है ? इन सारे सवालों से परे देश के प्रधान सेवक ने खाली-पीली बैठे हुए लोगों को दीया-मोमबत्ती और टार्च जलाने का एक नया काम थमा दिया है. हालांकि प्रधान सेवक के इस काम से वे लोग गदगद हो गए हैं जो थाली-ताली और शंख फूंकने वाले इंवेट का हिस्सा थे. ऐसे लोगों को देश की एक बड़ी आबादी भक्त मानती हैं. बहरहाल नई जिम्मेदारी मिलते ही भक्तों की टोली सक्रिय हो गई है. वैसे तो प्रधान सेवक के हर भक्त को लालबत्ती का दर्जा प्राप्त है फिर कुछ भक्त विशिष्ट से भी ज्यादा विशिष्ट है. ऐसे सभी अतिविशिष्ट भक्तों ने सोशल मीडिया में राष्ट्रद्रोहियों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. ( यह प्रचारित है कि जो कोई भी प्रधान सेवक की चमचागिरी में शामिल नहीं है वह राष्ट्रद्रोही है. भक्तगण ऐसे तमाम देशद्रोहियों को दिन में दस-बीस बार पाकिस्तान भेजते रहते हैं. ) भक्तों को मोर्चा खोलने की जरूरत इसलिए भी आन पड़ी है क्योंकि प्रधान सेवक के नए इंवेट की जमकर आलोचना हो रही है. यहां हम कुछ तार्किक और गैर तार्किक टिप्पणियों को शामिल कर रहे हैं. इन टिप्पणियों के बाद अब आपको तय करना है कि पांच अप्रैल को आप किस भूमिका में रहेंगे ? अगर आपने प्रधान सेवक की बातों का अनुसरण करने का मन बना लिया है तब भी एक बार जरूर सोचिएगा कि क्या आपके एक दिन की दीया-बाती से गरीब के घर का अंधेरा दूर हो जाएगा. क्या गरीब के घर का चूल्हा जलने लगेगा ? क्या उसके घर से रोटी और दाल पकने की गंध आने लगेगी ?
एक भक्त ने लिखा है- हम अजर- अमर और अविनाशी आत्माएं है. हमारे असली स्वरूप में लाइट ही लाइट है... इसलिए दीया जलाने में कोई बुराई नहीं है. हम जो दीया जलाएंगे वह कोई मामूली दीया नहीं बल्कि प्रेम का दीया होगा.
एक भक्तन मंजू का विचार है- पांच तारीख को नौ बजे नौ मिनट के लिए दीया जलाने का सबसे बड़ा कारण यह है कि उस रोज आमद एकादशी है. जब मेघनाथ का वध नहीं हो पा रहा था तो इसी आमद एकादशी के दिन घी का दीपक जलाकर ऊर्जापूंज का निर्माण किया गया था. हमें अगर ऊर्जापूंज का निर्माण करना है तो दीया जलाना ही होगा.
एक भक्त का विचार कुछ इस तरह से वायरल हो रहा है- अगर हमारे प्रधान सेवक जी ने नौ बजे नौ मिनट के लिए मोमबत्ती जलाने को कहा है तो यूं ही नहीं कहा. विरोधियों को इसका सांइस हजम नहीं होगा. दरअसल कैंडल्टन यूर्निवर्सिटी के रिसर्चर कैंडलीन कलैंडर ने यह खोज काफी पहले कर ली थीं कि पिघलते हुए मोम में एक खास तरह का रसायन इवांकापेप्टाइट निकलता है. ये रसायन घातक कीटाणुओं को अपनी चपेट में ले लेता है. कल्पना कीजिए अगर करोड़ों मोमबत्ती एक साथ जलेगी तो कोरोना वायरस की लाश भी नहीं बचेगी. हमारे प्रधान सेवक जी भले ही स्कूल नहीं गए, लेकिन उनका दिमाग किसी प्रयोगशाला से कम नहीं है.
एक अन्य भक्त के महान उदगार है- 22 मार्च को जनता कर्फ्यू और पांच अप्रैल के बीच 14 दिन का अंतराल आता है. 22 तारीख को ताली-थाली बजाने से जो ध्वनि तरंग उत्पन्न हुई थी उससे 882 HZ फ्रीक्वेंसी की क्षमता वाले वायरस तो मर गए थे, लेकिन पांच प्रतिशत ऐसे वायरस बच गए हैं जो केवल प्रकाश तरंग से ही मरते हैं. ऐसे सभी वायरस को लाइट जला-जलाकर मारना है. हमारे प्रधानसेवक जी कोई भी निर्णय भावुकता में नहीं लेते बल्कि उनके हर निर्णय के पीछे विज्ञान छिपा होता है.
हमेशा की तरह बहुत से भक्तों ने यह मान लिया है कि प्रधान सेवक जी जो कहेंगे वे उनकी हर बात का पूरे मनोयोग से पालन करेंगे इसलिए अब कुछ तार्किक टिप्पणियां-
राजेश बिजारणियां लिखते हैं- यह फासिज्म का लिटमस टेस्ट है. 22 मार्च के थाली-ताली बजाओ अभियान की सफलता के बाद यह देखा जाएगा कि दिमाग को हाईजैक करने में कितने प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. आपत्ति को अगर इंवेट में नहीं बदला तो फिर क्या मतलब....। इस अभियान की यही टैगलाइन ताकि स्मृतियों से आपत्ति का लोप हो जाय और इंवेट कायम रहे.
अरुण खामख्वाह ने पुष्या मित्रा की एक पोस्ट शेयर की है- मेरी तरह कुछ बेवकूफ सोच रहे थे कि टेस्ट की संख्या बढ़ाने की बात होगी. डाक्टरों की पीपीई संख्या बढ़ने का ऐलान होगा. लॉकडाउन की समीक्षा और आगे की योजना पर बात होगी. ठप पड़े रोजगार और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के बारे में बात होगी. और ज्यादा नहीं तो जिनके चश्मे का शीशा टूट गया है. बाल बढ़ गए हैं. नल की टोंटी टूट गई है. पंखा बिगड़ गया है. चप्पल का फीता टूट गया है. रेफ्रिजरेटर खराब हो गया है उनके लिए कुछ बात होगी... लेकिन पंडित जी तो एक और कर्मकांड थमा गए. हर चतुर सरकार बेवकूफ जनता के साथ यही व्यवहार करती है. उसे इंवेट और एंटरटेनमेंट में उलझा देती है ताकि उसकी कमजोरियों पर कम बात हो.
देश के चर्चित कवि कुमार अंबुज ने लिखा है- ध्वनि और प्रकाश अमर है. बाकी दुनिया तो फानी है. बसंत त्रिपाठी की एक पोस्ट पर कवि राजेश जोशी ने लिखा है- शायद प्रधान सेवक जी ने देशवासियों से दिमाग की बत्ती बंद करने को कहा है.
एक सामाजिक कार्यकर्ता का कहना है- देश को पागलपन की तरफ लेकर जाने की कवायद चल रही है. इस इंवेट के जरिए यह देखा जाएगा कि लोग उनकी बात को कितना मानते हैं और फिर किसी एक दिन लोगों को कहा जाएगा कि गरीब की झोपड़ी में आग लगा दो. जो लोग कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं वे ऐसा कर सकते हैं. तानाशाह ऐसे ही हथकंडे अपनाता है.
अजय कुमार लिखते हैं- भला बताइए... जब सारा देश त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रहा है तो कहा जा रहा है कि दीपदान करके दीवाली मनाइए. हद है तमाशे की. शैलेश नितिन त्रिवेदी ने लिखा है- तूफान आने पर शुतुरमुर्ग अपनी गर्दन रेत में डूबो लेता है और सोचता है कि उसे कुछ नहीं होगा. बत्ती बुझाना भी रेत में गर्दन डुबोने जैसा है. देवेश तिवारी अमोरा ने लिखा है- भक्तों पिछली बार ताली बजाने को कहा था तो आप लोग ड्रम पीटने निकल गए थे. इस बार मशाल रैली मत निकाल लेना. सुशील आनंद शुक्ला का कहना है- मानवता पर विपदा आन खड़ी है और प्रधान सेवक को नौटंकी सूझ रही है. श्री कुमार मेनन की एक विचारणीय टिप्पणी है- अगर सारे लोग एक साथ एक ही समय में बिजली गुल कर देंगे तो पॉवर ग्रिड का क्या होगा ? कहीं ऐसा न हो कि फिर दोबारा बत्ती ही न जलें. यह विचार कई लोगों ने व्यक्त किए हैं- अगली बार तेंदू की लकड़ी में काला धागा लपेटकर फेंकना है. दस तारीख को दस बजे... दस मिनट तक. मनजीत कौर बल ने लिखा है- थाली-ताली बजाने के बाद मोमबत्ती का आइडिया नया है. ऐसे नए-नए आइडिया लाते कहां से हो साहब. कहीं ऐसा न हो कि देश में मोमबत्ती की कमी हो जाय. जितेंद्र नारायण ने लिखा है- देश के किसी नामी मनोरोग चिकित्सक से प्रधान सेवक के दिमाग की जांच बेहद आवश्यक हो गई है. संजय पराते ने लिखा है- टोने-टोटके से केवल भूत भागते हैं. कोरोना नहीं. यह बताइए कि पीड़ितों के इलाज के लिए क्या तैयारियां चल रही है ?
पीसी रथ ने अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा है- कल छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने दीवाली तक कोरोना से सतर्कता बरतने की बात कही थी, लेकिन हमारे प्रधान सेवक ने कहा है कि दीवाली मनाओ. क्यों गरीबों और अर्थव्यवस्था का दीवाला निकाला जा रहा है ? चित्रकार रवींद्र कुंवर लिखते हैं- क्या मूर्खता वायरस से ज्यादा खतरनाक होता है कोरोना वायरस ? राजीव ध्यानी ने लिखा है- एक बात सीरियसली बताइए कि साहेब का दिमाग पूरी तरह से फिर गया है या फिर उन्हें किसी ने नया टोटका बताया है. दिनेश ध्रुव की टिप्णणी है- ताली और थाली इंवेट के बाद साहेब ने पेश किया है- अंधेरी रात में दीया तेरे हाथ में. भूलिएगा नहीं पांच अप्रैल ठीक रात के नौ बजे.
एक फेसबुकिए ने कुछ साधुओं और एक वरिष्ठ राजनेता की फोटो शेयर करते हुए लिखा है- देश के महान वैज्ञानिकों के साथ बैठक चल रही है. जल्द ही कोरोना की दवा मार्केट में आ जाएगी. महेश कुमार का कहना है- साहेब जी आप बोलने के पहले थोड़ा हिन्ट दे दिया करो. टीवी के एंकर एक से बढ़कर एक ऐलान करते रहते हैं और आप हो कि उनको जलील कर देते हो. कमल शुक्ला ने अपनी पोस्ट पर लिखा है- मूर्खों अगर इस बार भी इसकी बात मान लिए तो तय है कि अगले चरण में तुमको उलटा लटकाएगा. अमित कुमार चौहान- मित्रों.... केवल मोमबत्ती, टार्च और दीया जलाना है. ऐसा न हो कि चालीस रुपए वाली चायना की लाइट टांगने लग जाओ. सुशांत कहते हैं- जैसे ही अंधेरा होगा कोरोना घबरा जाएगा कि अरे साला... ये क्या हो गया. अंधेरे में कोरोना किसी को देख नहीं पाएगा और तभी हम बत्ती जला लेंगे और फिर उसको खोज-खोजकर मारेंगे. मनोज पांडेय ने लिखा है- अगली बार 12 तारीख को रात 12 बजे हम सबको 12 बार पड़ोसी की कुंडी खटखटानी है. पड़ोसी आपके भीतर के कोरोना की ऐसी-तैसी कर देगा. छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक लिखते हैं- माना कि अंधेरा घना है... पर बेवकूफ बनाना कहां मना है. दीया जलाएंगे... कोरोना भगाएंगे. व्यंग्यकार विनोद साव ने लिखा है- ये लोग कैंडल लाइट डिनर वाले लोग है. किशोर साहरिया ने लिखा है- अब लगने लगा है कि किसी आसुरी शक्ति ने द्वारपाल की बुद्वि हर ली है. प्रभात सिंह का कहना है- आज का ज्ञान यहीं है कि चिलम में गांजा नौ मिनट में ही खत्म हो जाता है. बम-बम भोले. आरपी सिंह ने लिखा है- देखना भाई... अस्पताल की लाइट मत बंद कर देना, वरना वेंटिलेटर वाले निपट जाएंगे. अजीत कुमार कहते हैं- क्या देश है अपना. टॉयलेट कहां करना है. हाथ कैसे धोना है. थाली इतने बजे पीटना है. दीया जलाना है. अरे कोई बताएगा कि विश्वगुरू बनने में और कितना दिन लगेगा. वहीद ने लिखा है- लगता है साहेब किसी बंगाली बाबा के चक्कर में पड़ गए है. ऐसी बकलोली कौन करता है भाई. प्रमोद बेरिया ने कहा है- वाह क्या बात है. मुझसे भी ज्यादा मूर्ख एक आदमी है इस देश में.
प्रधान सेवक के नए आदेश के बाद किसी को निर्मल बाबा की याद आ रही है तो किसी को बापू आशाराम की. एक ने लिखा है- हे बाबा... सीधे-सीधे बता दो कृपा कहां पर अटकी है. तरूण बघेल ने कहा है- ताली-थाली ग्रुप डांस के बाद अब अंधभक्त दीप नृत्य प्रस्तुत करने की तैयारी में हैं. पत्रकार शिवशंकर सारथी ने लिखा है- प्रभु को बता दिया जाय कि अभी देश के हर घर में बिजली नहीं पहुंची है. आरिफा एविस कहती है- शहर में आग लगाने वाले अब घर को रौशन करने का हुक्म दे रहे हैं.
भूपेंदर चौधरी ने लिखा है- पहले थाली और दीया-मोमबत्ती. हंसिए मत, हल्के में मत लीजिए. महामारी का इस्तेमाल कर भेड़ मानसिकता का निर्माण किया जा रहा है. संकट के समय लोग-बाग तार्किक सोच को खो बैठते हैं. ऐसा समाज संकट के समय एक गॉडफादर को तलाशता है. कल इन्हीं भेड़ों को भेड़ियों को में बदलकर उन लोगों पर छोड़ा जाएगा जो आज भेड़ बनने से इंकार कर रहे हैं. कवि पथिक तारक का भी मानना है कि हम सब एक भेड़तंत्र में बदले जा रहे हैं. यह सब एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है. नीलोत्पल शुक्ला की टिप्पणी सबसे ज्यादा गौर करने लायक है. उन्होंने लिखा है- वाह रे कॉन्फिडेंस... बत्ती चमकाने के लिए दो दिन का नोटिस और लॉकडाउन के लिए महज चार घंटे ?
संघ से जुड़े प्राध्यापकों का अड्डा बन गया था कुशभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय
रायपुर.भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन के प्रदेश सचिव हनी बग्गा ने कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम चंदूलाल चंद्राकर पत्रकारिता विश्वविद्यालय किए जाने का स्वागत किया है. एक बयान में उन्होंने कहा कि कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय संघ की विचारधारा को पल्वित- पुष्पित करने वाला केंद्र बन गया था. आज भी इस विश्वविद्यालय में अधिकांश प्राध्यापक ऐसे हैं जो संघ के एजेंडे के तहत ही अपने काम का संपादन करते हैं. उन्होंने कहा कि ऐसे सभी प्राध्यापकों की कार्यशैली की जांच कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखाना अनिवार्य है. बग्गा ने कहा कि जल्द ही वे मुख्यमंत्री से मुलाकात कर विश्वविद्यालय में संघ की विचारधारा से जुड़े प्राध्यापकों के बारे में जानकारी देंगे.
बग्गा ने कहा है कि संघ की विचारधारा के चलते ही यहां होनहार विद्यार्थी प्रवेश लेने से कतराते है. यहीं एक वजह है कि यहां प्रवेश लेने वालों की संख्या लगातार कम हो रही है. वर्ष 2008 में प्रारंभ हुए इस विश्वविद्यालय को आज तक विश्वविद्यालय का दर्जा हासिल नहीं हो पाया है. बल्कि सही मायनों में यह विश्वविद्यालय एक महाविद्यालय की तरह ही संचालित है.
हनी बग्गा ने कहा कि विश्वविद्यालय में अब तक जिस कुलपति की नियुक्ति हुई है उसकी पृष्ठभूमि संघ की ही रही है. इन कुलपतियों की नियुक्तियों को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि विश्वविद्यालय की स्थापना का उदेश्य क्या रहा होगा. ये बात भी गौर करने लायक है कि इस विश्वविद्यालय में स्थापना के बाद से आज तक कोई पाठ्यक्रम नही संचालित नहीं किया जा सका है जिससे इस विश्वविद्यालय की निजी आवक हो सके. आज 12 साल बाद भी इस विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों की संख्या नगण्य है. आज विद्यार्थियों को रोजगारमूलक शिक्षा की जरूरत है न कि संघ के प्रचार की. पिछली सरकार अगर पारदर्शी रहती तो विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों की संख्या में लगातार इजाफा होता. दूर-दराज के इलाकों के हजारों छात्र प्रवेश करने के लिए रायपुर आते और अध्ययन करते रहते. पत्रकारिता के साथ-साथ बीजेएलएलबी जैसे पाठ्यक्रम की शुरुआत हो चुकी रहती. बग्गा ने कहा कि विश्वविद्यालय के सारे अवैधानिक घटनाक्रम के बारे में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को जानकारी दी जाएगी.
गरीबों को भोजन वितरण करने के मामले में वाट्रसअप ग्रुप रक्षक ने कायम की मिसाल
दुर्ग. सामान्य तौर पर लोग वाट्सअप ग्रुप खोलकर एक-दूसरे की आलोचना करते हैं. वीडियो शेयर करते हैं या फिर झूठी खबरों का आदान-प्रदान करते हैं. एक वाट्सअप ग्रुप रक्षक इससे थोड़ा अलग है. हालांकि इस ग्रुप के सदस्यों के बीच भी तीखी-नोक-झोंक होती है, लेकिन फिर ग्रुप से जुड़े अधिकांश सदस्य मनमुटाव भूलकरअपने-अपने काम-धंधों में लग जाते हैं. इन दिनों जब पूरे देश में लॉकडाउन की स्थिति है तब यह ग्रुप दुर्ग शहर में गरीबों को भोजन का वितरण कर रहा है. सोमवार को रक्षक ग्रुप की भोजन सेवा का चौथा दिन था. इस रोज भी ग्रुप के सदस्यों ने भोजन के पांच सौ पैकेट का वितरण किया.
ग्रुप ने एक भोजन कार्यशाला भी खोल रखी है जहां हर रोज भोजन पकाया जाता है. सोमवार को दुर्ग नगर निगम के एक्जीक्टिव इंजीनियर श्री गोस्वामी एवं सभापति राजेश यादव ने कार्यशाला का जायजा लिया. ग्रुप की ओर से आज पांच परिवारों को चावल, गेहूं, धनिया, मिर्च, दाल सहित अन्य सभी आवश्यक सामानों का वितरण किया गया. सोमवार के भोजन वितरण कार्यक्रम में अजहर, फजल भाई, अजय गुप्ता, राजेश सराफ, आनंद बोथरा, गोलू चौहान, असलम, अंसार, संजय, चंद्रदीप,गोलू चौहान, आबिद, टीपू, राजू खान मितानीन लक्ष्मी साहू एवं पूर्व सभापति श्री तांडी का सक्रिय योगदान रहा.
गौ-मूत्र पीकर कोरोना गो- कोरोना गो करने वाले भक्त भी चाहे तो पढ़ सकते हैं यह आर्टिकल...
संजय पराते का यह आर्टिकल उन सभी लोगों को पढ़ना चाहिए जो वैज्ञानिक तरीके से सोचते-समझते हैं और मानते हैं कि कोरोना वायरस ताली और थाली बजाने से भागने वाला नहीं है. गौ-मूत्र पीकर गो-कोरोना-गो-कोरोना करने वाले भक्त भी चाहे तो इस आर्टिकल को पढ़ सकते हैं. इस आर्टिकल से अगर उनका ज्ञान चक्षु खुलता है तो देश का कल्याण ही होना है. ( हालांकि यह ना-मुमकिन है. )
गरीब किसान- मजदूर और रोज कमाने-खाने वालों की भी सोचिए मोदी जी !
कोरोना वायरस यदि विश्वव्यापी महामारी का जनक है, तो उससे लड़ने के लिए किसी भी देश के पूरे संसाधनों को झोंक देना चाहिए. भारत के लिए भी यही होना चाहिए. विभिन्न देशों ने इससे लड़ने के लिए सैकड़ों अरबों डॉलर मसलन अमेरिका ने 850 अरब डॉलर, यूनाइटेड किंगडम ने 440 अरब डॉलर (जीडीपी का 15%), स्पेन ने 220 अरब डॉलर, कनाडा ने 82 अरब डॉलर, फ्रांस ने 50 अरब डॉलर (जीडीपी का 2%) और स्वीडन ने 30 अरब डॉलर झोंक दिए हैं, ताकि स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाया जा सके और अर्थव्यवस्था में पहले से चली आ रही मंदी के ऊपर से आई इस विपदा की जो मार आम जनता के जीवन पर पड़ रही है, उससे अपने देश के नागरिकों को राहत दी जा सके. इस वायरस के हमले का सीधा संबंध शरीर की प्रतिरोधक क्षमता से है और यह जरूरी है कि इस संकटकाल में न केवल किसी व्यक्ति के शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बनाकर रखा जाए, बल्कि इस क्षमता को बढ़ाने की भी जरूरत है. कोरोना वायरस का मुकाबला भी तभी किया जा सकता है.
लेकिन प्रधानमंत्री मोदी का संदेश आश्वस्त करने लायक नहीं है कि वह अपने देश के नागरिकों की प्रतिरोधक क्षमता को बनाए रखने और उसे बढ़ाने के प्रति जरा भी चिंतित है. इस महामारी से निपटने के लिए किसी भी आर्थिक डोज के पक्ष में वह नहीं है और आम जनता को उसके हाल पर केवल 'संकल्प और संयम' के भरोसे छोड़ देना चाहते हैं.
अब यह सर्वज्ञात वैज्ञानिक तथ्य है कि इस बचाव का सबसे बेहतर और कारगर उपाय सोशल डिस्टेंसिंग है. जब तक कोरोना का प्रभाव हमारे देश में खत्म नहीं होता, लोग अधिकतम समय अपने घरों में बंद रहे और सामाजिक मेल-मिलाप और भीड़ में जाने को यथासंभव टालें. यही कारण है कि कोरोना-प्रभावित मरीज और उनके संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को आइसोलेशन में रखा जाता है. सवाल यही है कि हमारे जैसे विकासशील देश में इस उपाय को अमल में कैसे लाया जाए, जहां की जनता का 90% हिस्सा अपनी रोजी-रोटी की समस्या से रोज जूझता हो.
भारत में करोड़ों लोग हैं, जिनका कोई स्थाई ठिकाना नहीं है और रात की नींद भी उन्हें सड़क किनारे आसमान की चादर ओढ़ कर लेनी पड़ती है. करोड़ों किसान हैं, जो अर्ध-सर्वहारा की श्रेणी में पहुंच गए हैं और रोजगार की खोज में उन्हें 50 किलोमीटर की दूरी रोज तय करनी पड़ती है. करोड़ों लोग हैं, जिनके साल का आधा समय बंधुआ मजदूर के रूप में ठेकेदारों के तंबू में गुजरता है और बदले में वे केवल जिंदा रहने लायक मजदूरी पाते हैं. लाखों घरेलू कामगारनियां हैं. असंगठित क्षेत्र में कम से कम 10 करोड़ मजदूर परिवार हैं, जो रोज कमाने-खाने वाली जिंदगी ही जी पाते हैं. कुल मिलाकर 130 करोड़ की आबादी में 20 करोड़ परिवार ऐसे होंगे, जिनके लिए सोशल डिस्टेंसिंग के उपाय पर अमल करना आसान नहीं होगा.
प्रधानमंत्री मोदी के भाषण में इस तबके के लिए ऐसा क्या है, जिसके बल पर यह विशाल तबका सोशल डिस्टेंसिंग पर अमल कर लें? क्या केवल एक दिन के 'जनता कर्फ्यू' से सोशल डिस्टेंसिंग का मकसद पूरा हो जाएगा और कोरोना महामारी हार जाएगी?
सोशल मीडिया में भक्तों द्वारा प्रधानमंत्री-आहूत जनता कर्फ्यू को एक ऐसे क्रांतिकारी कदम के रूप में पेश किया जा रहा है, जो सोशल डिस्टेंसिंग के लक्ष्य को पूरा करके हमारे देश को वायरस मुक्त कर देगा. इसे प्रधानमंत्री की ऐसी वैज्ञानिक दूरदर्शिता के रूप में चाटुकारों द्वारा फैलाया जा रहा है, जिसके बारे में दुनिया का कोई वैज्ञानिक अभी तक नहीं सोच पाया और जिसका आविष्कार करने का श्रेय आर्यभट्ट के शून्य की तरह नरेंद्र मोदी को ही जाता है. एक ओर प्रधानमंत्री इसे लाइलाज बीमारी बता रहे हैं, वहीं दूसरी ओर भक्तों की टोली गौमाता के प्रसाद के रूप में आम जनता को गौ-मूत्र पिलाने का अभियान चला रही है.
यदि जनता कर्फ्यू सोशल डिस्टेंसिंग का विकल्प होता, तो इन तीन दिनों के भीतर पूरी दुनिया इस नायाब खोज या आविष्कार को ले उड़ी होती, क्योंकि अभी तक प्रधानमंत्री ने इसके पेटेंट का दावा नहीं किया है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इस वायरस से निपटने के लिए भारत की तैयारियों की आलोचना करते हुए कहा है कि रेंडम सैंपलिंग से वायरस का संक्रमण नहीं रोका जा सकता और आईसीएमआर ने चेतावनी दे दी है कि बहुत जल्दी ही भारत महामारी के तीसरे चरण कम्युनिटी ट्रांसमिशन (सामुदायिक संक्रमण) में पहुंचने वाला है.
जब इस स्तर तक महामारी पहुंच गई हो, तो जनता कर्फ्यू का आइडिया दुनिया में भारत की जगहंसाई ही कर सकता है, क्योंकि कोरोना वायरस एक जगह तो बैठे नहीं रहते कि 14 घंटे की वीरानी के बाद फिर उस जगह मिलेंगे ही नहीं! यह तो पूरी दुनिया में देश-काल की भौगोलिक और राजनीतिक सीमाओं के पार जाकर हमला कर रहे हैं. थाली और ताली बजाने से डरकर कोरोना वायरस यदि मर जाते, तो इस आइडिया को आए अब तक 72 घंटे बीत चुके हैं.
स्पष्ट है कि जनता कर्फ्यू का आइडिया एक राजनैतिक आईडिया तो हो सकता है, लेकिन कोरोना संकट से निपटने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग की शर्त को पूरा नहीं करता. तो फिर वही सवाल कि क्या किया जाए ? इसका जवाब भी वही कि देश के संसाधनों का उपयोग इस तरह से हो कि जो लोग 'वर्क फ्रॉम होम' के दायरे में नहीं आते, उन्हें रोजी-रोटी कमाने के लिए घर के बाहर जाने की मजबूरी ना रहे और कम से कम एक-दो माह तक वे इस चिंता से मुक्त रहें और अपने स्वास्थ्य की देखभाल करें. लेकिन इसके लिए करना वही होगा, जिसे मोदी का अर्थशास्त्र इजाजत नहीं देता.
पूरी दुनिया के सकारात्मक अनुभव और हमारे देश की जरूरतों के आधार पर निम्न कदम सोशल डिस्टेंसिंग पर अमल के लिए उठाए जाने चाहिए-
एक- सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को मजबूत करने और मुफ्त में जांच की सुविधा के विस्तार, अस्पतालों की सुविधाओं, आइसोलेशन वार्डस और वेंटिलेटर्स की व्यवस्था के लिए स्वास्थ्य के क्षेत्र में व्यय में बढ़ोत्तरी की जानी चाहिए, ताकि अधिकतम लोगों की जांच, खासकर उनकी जिनमें सर्दी, बुखार और खांसी जैसे लक्षण दिखाई दे रहे हैं, संभव हो सके. करोना-संदिग्धों को निजी अस्पतालों से लौटाए जाने को देखते हुए उन्हें भी कोरोना वायरस के मरीजों की मुफ्त इलाज के लिए बाध्य किया जाना चाहिए. स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजीकरण की नीतियां अपनाए जाने के बाद सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का जो खचड़ा बैठा है, उसके मद्देनजर यह कदम बहुत जरूरी है. इस समय देश में कोरोना जांच के लिए केवल 1.5 लाख किट ही उपलब्ध है, जो कि चिंताजनक है. इससे सभी प्रभावितों को आइसोलेशन में रखने का उद्देश्य ही पूरा नहीं हो पायेगा. अतः इस किट का बड़े पैमाने पर आयात करना होगा।
दो- सभी नागरिकों की प्रतिरोध क्षमता बनाये रखने के लिए उन्हें महीने भर का राशन मुफ्त दिया जाए. इसके लिए केवल एक करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी, जबकि देश के सरकारी गोदामों में 7.5 करोड़ टन अनाज पड़े-पड़े सड़ रहा है. खाद्यान्न का यह विपुल भंडार अभी नहीं, तो और कब काम आएगा? इसी के साथ महीने भर का पानी और बिजली भी मुफ्त देना चाहिए. कालाबाज़ारी से निपटने रोजमर्रा की सभी आवश्यक वस्तुओं को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे में लाना पड़ेगा. इसी तरह स्कूलों की छुट्टियों के चलते मध्यान्ह भोजन की जगह बच्चों के घरों/परिवारों में राशन किट पहुंचाने की जरूरत है.
तीन- गरीब ग्रामीण रोजगार की खोज में शहरों में न भटके, इसके लिए उन्हें गांवों में ही काम उपलब्ध कराना होगा. मनरेगा और 'काम के बदले अनाज' योजना का प्रभावी क्रियान्वयन इसमें मददगार हो सकता है.
चार- ये समय किसानों की फसल का बाजार में आने का है. सरकार को आश्वस्त करना होगा कि महामारी का प्रकोप खत्म होने के बाद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर इसे खरीदने की जिम्मेदारी सरकार लेगी. लेकिन फसल बिक्री में देरी से साहूकारों व बैंकों का दबाव किसानों पर पड़ेगा. इन कर्ज़ों की वसूली पर भी सरकार को रोक लगानी होगी. अगले मौसम के लिए खेती-किसानी के काम के लिए नए ऋण भी उन्हें उपलब्ध करवाना होगा.
पांच- इस आपदा से प्रभावित सभी क्षेत्रो के लिए वित्तीय पैकेज लाया जाए. यह वित्तीय सहयोग इस शर्त पर होना चाहिए कि ये कंपनियां और संस्थान अगले तीन महीने तक अपनी ईकाईयों में तालाबंदी नहीं करेंगे और किसी को भी रोजगार से नहीं हटाएंगे. जो मजदूर-कर्मचारी कोरोना वायरस के चलते काम पर नहीं जा पा रहे हैं, उन्हें सवैतनिक बीमारी की छुट्टी भी देनी पड़ेगी. सारे खुदरा व्यापारियों और छोटे मंझोले उद्यमों के बैंक कर्जों में वसूली को एक साल का स्थगन दे दिया जाए.
छह-इस महामारी के चलते अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और गरीब किसानों की जिंदगी पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों का मुकाबला करने के लिए एक कोष की स्थापना की जानी चाहिए. फिलहाल समस्त जनधन खातों और बीपीएल लाभार्थियों के खाते में 5000 रूपये डाले जाएं और राज्य सरकारों को यह राशि केंद्र सरकार दे.
सात- लेकिन इन उपायों की कीमत क्या होगी? एक गणना के अनुसार, एक-दो लाख करोड़ रुपये ही, जो हमारे देश की जीडीपी का मात्र एक-डेढ़ प्रतिशत ही होगा. केरल सरकार ने अपने राज्य के लिए इस महामारी से निपटने 20000 करोड़ रुपयों का पैकेज घोषित किया है, तो केंद्र सरकार जिसके हाथ में देश के सारे वित्तीय संसाधन है, इतना आर्थिक पैकेज क्यों नहीं दे सकती? जब देश के 130 करोड़ लोगों की जिंदगियां दांव पर लगी हो और आर्थिक गतिविधियां ठप्प होने का खतरा सामने हो, तो देश के समस्त संसाधन देश को बचाने में लगने चाहिए।
मोदीजी, थाली और ताली बजाने की प्रतीकात्मकता से बाहर आ जाइए. इससे कोरोना वायरस भागने वाले नहीं है. यह खतरा खत्म होगा सोशल डिस्टेंसिंग के मकसद को पूरा करने से, जिसके लिए इस देश को एक बड़े आर्थिक पैकेज की जरूरत है और जिसके लिए इस देश में पर्याप्त संसाधन मौजूद भी है.
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मुख्यमंत्री बघेल ने खाद्य मंत्री राम विलास पासवान से साधा संपर्क तब जाकर 24 लाख मीट्रिक चावल खरीदी पर लगी मुहर
रायपुर. धान खरीदी को लेकर चल रहे विवाद के बीच केंद्र छत्तीसगढ़ का चावल खरीदने को तैयार नहीं था, लेकिन इस मामले को मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अपने प्रयासों से बेहद आसान बना दिया. वे लगातार केंद्रीय खाद्य मंत्री राम विलास पासवान के संपर्क में थे. मुख्यमंत्री ने चावल की खरीदी के लिए कई मर्तबा पासवान से फोन पर संपर्क साधा. हर बार उनका यही कहना होता था कि यह छत्तीसगढ़ के किसानों से जुड़ा बेहद गंभीर मामला है. अततः उन्होंने खाद्यमंत्री को 24 लाख मीट्रिक टन चावल खरीदने के लिए केंद्र को तैयार कर लिया. मुख्यमंत्री की कवायद में मुख्य सचिव आरपी मंडल भी अपनी अहम भूमिका निभाई. मुख्य सचिव मंडल गत दो दिनों से एक अहम बैठक के सिलसिले में दिल्ली में ही थे. मुख्यमंत्री से मिले निर्देश के बाद उन्होंने केंद्रीय खाद्य सचिव को चावल की खरीदी के विशेष आग्रह किया. प्रदेश के खाद्य सचिव कमलप्रीत भी उनके साथ थे. आखिरकार गुरुवार को केंद्रीय खाद्य एवं उपभोक्ता मंत्रालय ने छत्तीसगढ़ को पत्र लिखकर यह सूचना दी कि भारतीय खाद्य निगम 24 लाख मीट्रिक टन उसना चावल खरीदेगा.
राज्य की मांग है 32 लाख मीट्रिक टन
सेंट्रल पुल में 24 लाख मीट्रिक टन चावल खरीदी पर सहमति तो बन गई है, लेकिन छत्तीसगढ़ राज्य की मांग 32 लाख मीट्रिक टन है. खबर है कि इस मांग की पूर्ति के लिए मुख्य सचिव आरपी मंडल खाद्य विभाग के अफसरों को लेकर जल्द ही दिल्ली का रुख करेंगे. वैसे गुरुवार को केंद्रीय मंत्रालय की नरमी के बाद छ्त्तीसगढ़ ने राहत की सांस ली है.
प्रार्थना का साम्प्रदायीकरण और जवाबी छात्र-सत्याग्रह
कैलाश बनवासी
देश के क्या स्कूलों में अब सब कुछ वही होगा जो फिरकापरस्त संगठन चाहेंगे?प्रार्थना से लेकर सिलेबस तक क्या सब कुछ उन्हीं के मन-मुताबिक़ ही होगा?साम्प्रदायिक ताकतें अब किस कदर लोगों के दिल-दिमाग को हिंदुत्व-रक्षा के नाम पर जड़ बनाने पर तुला हुआ है उसका यह सीधा और ज्वलंत उदाहरण है.इसे एक छोटी घटना के रूप में देखना हमारी नासमझी होगी.
उत्तर प्रदेश से लगातार दलितों,अल्पसंख्यकों और आदिवासियों पर हमले –हत्याओं की खबरें इधर आती रही हैं.फिर इधर जागरूक पत्रकारों को भी सच कहने /दिखाने के इलज़ाम में जेल भेजा गया है. और अब एक प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर को सस्पेंड करने की खबर है. पीलीभीत जिले के बिसालपुर ब्लॉक के घयास्पुर के एक सरकारी प्राइमरी स्कूल में प्रार्थना के तौर पर बच्चों से प्रसिद्ध शायर अल्लामा इकबाल के प्रसिद्ध गीत—‘लब पे आती है दुआ’ को गवाने पर एक स्थानीय विश्व हिन्दू परिषद् सदस्य की शिकायत पर वहाँ के हेड मास्टर फुरकान अली को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया गया.यह बात जितनी हास्यास्पद है उससे कहीं अधिक शर्मनाक और चिंतनीय है. विडम्बना यह है कि हिन्दू राष्ट्रवाद के चल रहे अंधे जूनून में अब केवल धर्म के कथित ठेकेदार ही नहीं, वरन प्रशासन भी शामिल हो गया हैं. यह अजब-गजबऔर भयावह चीजें अब हमारे रोजमर्रा की बात हो जा रही है.
लब पे आती है दुआ’ यह प्रार्थना,जिसे 1902 में अल्लामा इकबाल ने बच्चों के दुआ के रूप में लिखा था.यह बरसों से विभिन्न स्कूलों या मदरसों में गवाया जाता रहा है. इसमें शायर ने बच्चों के हवाले से कहा है--
लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी
ज़िंदगी शम्मा की सूरत हो खुदाया मेरी
हो मेरे दम से यूँ हीं मेरे वतन की ज़ीनत
जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत
ज़िंदगी हो मेरी परवान की सूरत या रब
इल्म की शम्मा से हो मुझको मुहब्बत या रब
हो मेरा काम गरीबों की हिमायत करना
दर्दमंदों से ज़इफों से मुहब्बत करना
मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको
नेक जो राह हो उस रह पे चलाना मुझको
इस प्रार्थना में भला ऐसी कौन-सी आपत्तिजनक बात है कि शिक्षा विभाग ने शिक्षक को सस्पेंड कर दिया? क्या सिर्फ इसलिए कि यह ‘उनकी’ भाषा उर्दू में लिखी गई है और इसे ‘वही’ लोग गाते हैं? इस प्रार्थना को मैंने पहली बार ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह द्वारा संगीतबद्ध एलबम ‘क्राइ फॉर क्राइ’ में सुना था. इस एलबम की सारी रायल्टी अनाथ बच्चों की मददगार संस्थाओं को समर्पित थी. एक बालिका की ही आवाज़ में रिकॉर्ड यह प्रार्थना मेरा विश्वास है,अपने हर सुननेवाले को शिक्षा के बेहद गहरे और ज़रूरी मानवीय सरोकारों से जोड़ता है,जिसमें बच्चों को ज्ञान की रोशनी से अपना जीवन रौशन करने की बात कही गई है,जिसमें अपने बदौलत इस देश की शोभा उसी तरह बढ़ाने की बात कही गई है जैसे बगीचे में फूलों से शोभा होती है, पीड़ितों से मुहब्बत और गरीबों की हिमायत करने की बात कही गई है. जिसमें बच्चों को नेक राह पर चलने की प्रेरणा दी गई है. अब ऐसे साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत उत्कृष्ट और संवेदनशील तथा भलाई और परोपकार की प्रेरणा देने वाली प्रार्थना क्या महज इसीलिए नहीं गाई जानी चाहिए कि वह उर्दू में लिखी गई है,और जिसे मदरसों में गवाया जाता है? शिक्षक को ‘तय शुदा प्रार्थना से हटकर’ प्रार्थना कराने के कारण सस्पेंड कर दिया गया . विद्वेषपूर्ण और वर्चस्वकारी धार्मिक-भाषाई राजनीति के चलते इसे ‘हिन्दू बच्चों पर अपनी धर्म और संस्कृति थोपने’ का इलज़ाम लगा कर बंद कराया गया है. जबकि हेड मास्टर बता रहे हैं कि स्कूल में इसके अलावा ‘वह शक्ति हमें दो दयानिधे’ भी गवाया जाता है और राष्ट्रगान तो गवाया ही जाता है, नारे भी लगवाये जाते हैं.
प्रश्न यह है कि स्कूल में क्या किसी अन्य भाषा के श्रेष्ठ प्रार्थना करना/कराना प्रतिबंधित है? जबकि यह उन्हीं अल्लामा इकबाल का गीत है जिन्होंने कभी लिखा था-
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा,
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसितां हमारा
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा
यह बहुत ही दुखद बात है की जिले के शिक्षा अधिकारी की अनुसंशा पर डी.एम.(कलेक्टर) ने इसे तय शुदा प्रार्थना से हटकर प्रार्थना कराने,इससे छात्रों और अभिभावकों में डर का माहौल बनाने, अपनी मनमानी और हठधर्मी करना मानते हुए जाँच के आदेश के साथ सस्पेंड कर दिया. वहीं,इसी वीडियो में राज्य के बेसिक शिक्षामंत्री अपनी बाईट में इसे किसी तंत्र-मन्त्र की बात बता रहे हैं.सब कुछ इतने पर ही नहीं रुक जा रहा .पीलीभीत के विधायक रामशरण वर्मा संविधान में अनुच्छेद 29,30 और 31--जो विभिन्न समुदायों को अपनी भाषा,लिपि और संस्कृति को सुरक्षित और विकसित करने का अधिकार देता है--,उसे ही संविधान से हटाये जाने की मांग कर रहे हैं.(स्रोत: एनडीटीवी पर 17 अक्टूबर को ‘प्राइम टाइम’ में प्रसारित)
इस कवरेज से देशभक्ति और हिंदुत्व के नाम पर किये जा रहे अज्ञानता,संकीर्णता और धर्मान्धता की पोल खुल जाती है. इससे भी बढ़कर चिंतनीय है इस देश की जो साझा संस्कृति और विरासत रही है,उसे तोड़ने का काम लगातार किया जा रहा है.धर्मान्धता और अंध राष्ट्रवाद को साजिशन पूरे उफान पर ले आया गया है. क्या अब स्कूलों में कोई भी अच्छी बात भी किसी दूसरी भाषा की स्वीकार नहीं की जाएगी? यह गैर कानूनी होगा? यह शिक्षा और भाषा के प्रति निहायत साम्प्रदायिक दृष्टिकोण है. इस प्रार्थना के गाए जाने की विश्व हिन्दू परिषद् के स्थानीय कार्यकर्ताओं की शिकायत इतनी बड़ी और भारी हो गई कि प्रशासन नीचे से ऊपर तक तुरंत ऐसे मुस्तैद हो गया जैसे यह कोई हिंसा,घृणा फैलाने वाली देशद्रोही प्रार्थना हो! या बच्चों के साथ बड़ा भारी अन्याय हो गया हो! यह हद दर्जे की घृणित और साम्प्रदायिक सोच है कि बच्चों को अपने देश की बहुभाषी,बहुरंगी संस्कृति के ज्ञान से वंचित कर उन्हें महज एक ही तरह से बोलना–पढ़ना सिखाया जाय. भाषा जन गण की संपदा होती है.जबकि एक रूसी लोकोक्ति है: “जितनी भाषाएं मैं जानता हूँ, उतनी ही बार मैं मनुष्य हूँ”. स्कूल की अवधारणा सदैव विचारों की एक ऐसी खुली जगह की रही है,जिसमें बच्चे नई भाषा,नया ज्ञान,नई तकनीक सीखते हैं.इसीलिए भारत सरकार की एक प्रतिष्ठित संस्था ‘सांस्कृतिक स्रोत एवं प्रशिक्षण केंद्र’(CCRT) पिछले कई बरसों से इस देश की बहुरंगी संस्कृति,कलाओं,धरोहरों,भाषाओं से स्कूली बच्चों को जोड़ने और इनका महत्व समझाने के लिए काम कर रही है,जिसमें देश के हर भाग के शिक्षकों को इन्हें सुरक्षित-संरक्षित रखने की ट्रेनिंग दी जाती है. मैं भी एक स्कूली शिक्षक हूँ,जिसने यहाँ ट्रेनिंग पाई है. यहाँ अपने विद्यालयों में बच्चों को गवाने-सिखाने देश की लगभग सभी भाषाओं के गीत भी सिखाए जाते हैं.जिसमें नीरज का लिखा एक बहुत लोकप्रिय गीत भी शामिल है -- हिन्द देश के निवासी सभी जन एक हैं,रंग-रूप वेश भाषा चाहे अनेक हैं.’
ऐसी संकीर्णता और जड़ता उस भारत के उस भविष्य के ख़िलाफ़ है जिसका सपना यहाँ के महापुरुषों ने देखा था. स्कूल या शिक्षा में ऐसी संकीर्णताओं की जगह नहीं होनी चाहिए. यह कोई राष्ट्र-विरोधी काम नहीं था कि आनन-फानन में सस्पेंड कर दिया जाए. स्कूल में सबकुछ बिलकुल तयशुदा और अंतिम तो नहीं होता. मान लीजिये, इस पर आपत्ति ही थी तो इसकी पूरी जाँच-पड़ताल के बाद कार्यवाही होनी चाहिए थी. दरअसल जिस तरह से इधर धर्म आधारित उग्र नफरत की अंधी और हिंसक राजनीति की जा रही है,अच्छे और ऊंचे आदर्शों व जीवनमूल्यों को छोड़ा जा रहा है, उसके चलते उस हमारे उस समृद्ध साझे विरासत और संस्कृति को कुछ साल के बाद मानो एक बीती हुई बात हो जानी है.तब सबकुछ वही और वैसा ही होगा जो ये चाहते हैं.
ऊपर उल्लेखित प्रार्थना इतनी अच्छी है कि मैंने अपने स्कूल में बच्चों को इसे सिखाया और गवाया है. क्या इसे सीखकर बच्चे एक और भाषा में थोड़ा ही सही, जानकार नहीं हुए होंगे.क्या यह कोई नुकसानदायक चीज़ है? ज्ञान के क्षेत्र असीमित हैं. यह तो ऐसा महासागर है जिसमें दुनिया की तमाम अच्छी बातें समाहित हैं-चाहे वह किसी भी देश या भाषा की हो. शिक्षा को ऐसा व्यापक और उदार होना ही चाहिए. तभी बच्चों में उस सहृदयता,उदारता, सहनशीलता और परस्पर सहयोग जैसे आदर्श मानवीय मूल्य स्थापित हो सकेंगे जो शिक्षा का एक बेहद महत्वपूर्ण आयाम है. अपना पूरा जीवन प्राथमिक शाला के बच्चों की शिक्षा-दीक्षा में लगाने वाले रूस के प्रसिद्द शिक्षक वसीली सुखोम्लिन्स्की मानते हैं: “शिक्षा बच्चों के लिए रोचक और मनपसंद काम तभी हो सकती है जब वह विचारों,भावनाओं,सृजन,सौन्दर्य और खेलों की उज्जवल किरणों से आलोकित हो ”.
इस मामले में अच्छी बात यह हुई कि उस स्कूल के छात्र अपने उस शिक्षक के सस्पेंशन के विरोध में,उनकी बहाली की मांग को लेकर स्कूल से बाहर आ गए. वे मान रहे हैं कि उनके शिक्षक के साथ गलत और अन्याय हुआ है. ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में 19 अक्टूबर 2019 को प्रकाशित असद रहमान की रिपोर्ट के अनुसार, विरोध करनेवाले ग्रुप के कक्षा 5 के एक छात्र का कहना है, “जब हमने इसे अपनी उर्दू पुस्तक में पढ़ा,हमने इसे पसंद किया तब हेड मास्टर से इसे गाने की अनुमति मांगी. दोनों धर्म के--हिन्दू और मुस्लिम छात्रों-- ने ही मांग की. और हेड मास्टर ने इसे हर एक दिन छोड़कर गाने की अनुमति दे दी ”.वहीं उस स्कूल के चौथी कक्षा के एक छात्र का बयान बहुत तार्किक है: “यदि उन्हें इस कविता को हमारे गाने के कारण सस्पेंड किया गया है तो यह सरकार की गलती है जो इसे हमारे पाठ्यक्रम में रखा है. तो क्या इसका मतलब इस सरकार को सस्पेंड कर देना चाहिए?”
अब प्रदेश के बेसिक शिक्षा मंत्री भी डी.एम. द्वारा जल्दबाजी में किए गए उनके सस्पेंशन को जल्द ही हटाने की बात कर रहे हैं
लेखक का संपर्क पता- 41,मुखर्जी नगर,सिकोलाभाठा ,दुर्ग छतीसगढ़ पिन-49100 फोन नंबर- 9827993920
ईसाई समाज ने दिया भूपेश को धन्यवाद
रायपुर. अभी हाल के दिनों में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने ईसाई समाज को लाभांडी में क्रबिस्तान के लिए जगह आवंटित की है. ईसाई समाज की यह मांग काफी पुरानी थीं जिस पर भाजपा की सरकार कोई फैसला नहीं ले पाई थीं. ऐसा नहीं है कि प्रदेश में ईसाई समुदाय के अंतिम क्रिया-कलाप ( बरियल ) के लिए क्रबिस्तान नहीं है, लेकिन फिर भी इस समुदाय का नया कब्रिस्तान आवंटित नहीं हो पाया था. इस समुदाय को अपने अंतिम क्रिया-कलापों के लिए काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था. पन्द्रह साल पुरानी सरकार में कई बार धर्म की रक्षा करने के नाम पर ईसाई समाज के लोगों को बरियल करने से भी रोका गया. यहां तक जमीन से ताबूत को उखाड़कर बाहर फेंकने की घटनाएं भी हुई. मुंगेली और बस्तर इलाके में ऐसी घटनाएं सामने आ चुकी है. इधर सरकार की ओर से कब्रिस्तान के लिए जमीन आवंटित करने पर छत्तीसगढ़ क्रिश्यन फोरम के अनेक सदस्यों ने ग्रास मेमोरियल सेंटर में एक कार्यक्रम आयोजित कर कृतज्ञता जाहिर की है.
छत्तीसगढ़ क्रिश्यन फोरम के महासचिव रेव्ह अंकुश बरियेकर ने बताया कि बैठक में कब्रिस्तान के सुचारू ढंग से संचालन के लिए एक तदर्थ समिति बनाई गई है. इस समिति में आशीष गारडिया, पीके बाघ, सतीश गगराडे,किशोर सेनापति, तथा श्री फ्रांसिस डेविड, जेम फ्रांसिस, अमनदास आनन्द एव अशोक कुमार को शामिल किया गया है. जो कहा सो किया कार्यक्रम में सरकार के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के साथ-साथ छत्तीसगढ़ क्रिश्चियन फोरम की सदस्यता समिति के गठन का प्रस्ताव भी पारित किया गया. बैठक में निर्णय लिया गया कि समस्त चर्चों की सूची सात अक्टूबर तक अनिवार्य रुप से फोरम के पास जमा हो जाय.
जब मीडिया ही सिटिज़न के खिलाफ हो जाए, तो फिर सिटिज़न को मीडिया बनना ही पड़ेगा.
रैमॉन मैगसेसे पुरस्कार के दौरान रवीश कुमार के भाषण का प्रमुख अंश
दुनियाभर में सूरज की आग में जलते लोकतंत्र को चांद की ठंडक चाहिए. यह ठंडक आएगी सूचनाओं की पवित्रता और साहसिकता से, न कि नेताओं की ऊंची आवाज़ से. सूचना जितनी पवित्र होगी, नागरिकों के बीच भरोसा उतना ही गहरा होगा. देश सही सूचनाओं से बनता है. फेक न्यूज़, प्रोपेगंडा और झूठे इतिहास से भीड़ बनती है. रैमॉन मैगसेसे फाउंडेशन का शुक्रिया, मुझे हिन्दी में बोलने का मौका दिया, वरना मेरी मां समझ ही नहीं पातीं, कि क्या बोल रहा हूं. आपके पास अंग्रेज़ी में अनुवाद है और यहां सब-टाइटल हैं.
दो महीने पहले जब मैं ‘Prime Time’ की तैयारी में डूबा था, तभी सेलफोन पर फोन आया. कॉलर आईडी पर फिलीपीन्स फ्लैश कर रहा था. मुझे लगा कि किसी ट्रोल ने फोन किया है. यहां के नंबर से मुझे बहुत ट्रोल किया जाता है. अगर वाकई वे सारे ट्रोल यहीं रहते हैं, तो उनका भी स्वागत है, मैं आ गया हूं.
ख़ैर, फिलीपीन्स के नंबर को उठाने से पहले अपने सहयोगियों से कहा कि ट्रोल की भाषा सुनाता हूं. मैंने फोन को स्पीकर फोन पर ऑन किया, लेकिन अच्छी-सी अंग्रेज़ी में एक महिला की आवाज़ थी, “May I please speak to Mr Ravish Kumar…?” हज़ारों ट्रोल में एक भी महिला की आवाज़ नहीं थी. मैंने फोन को स्पीकर फोन से हटा लिया. उस तरफ से आ रही आवाज़ मुझसे पूछ रही थी कि मुझे इस साल का रैमॉन मैगसेसे पुरस्कार दिया जा रहा है. मैं नहीं आया हूं, मेरी साथ पूरी हिन्दी पत्रकारिता आई है, जिसकी हालत इन दिनों बहुत शर्मनाक है. गणेश शंकर विद्यार्थी और पीर मूनिस मोहम्मद की साहस वाली पत्रकारिता आज डरी-डरी-सी है. उसमें कोई दम नहीं है. अब मैं अपने विषय पर आता हूं.
यह समय नागरिक होने के इम्तिहान का है. नागरिकता को फिर से समझने का है और उसके लिए लड़ने का है. यह जानते हुए कि इस समय में नागरिकता पर चौतरफा हमला हो रहे हैं और सत्ता की निगरानी बढ़ती जा रही है, एक व्यक्ति और एक समूह के तौर पर जो इस हमले से ख़ुद को बचा लेगा और इस लड़ाई में मांज लेगा, वही नागरिक भविष्य के बेहतर समाज और सरकार की नई बुनियाद रखेगा. दुनिया ऐसे नागरिकों की ज़िद से भरी हुई है. नफ़रत के माहौल और सूचनाओं के सूखे में कोई है, जो इस रेगिस्तान में कैक्टस के फूल की तरह खिला हुआ है. रेत में खड़ा पेड़ कभी यह नहीं सोचता कि उसके यहां होने का क्या मतलब है, वह दूसरों के लिए खड़ा होता है, ताकि पता चले कि रेत में भी हरियाली होती है. जहां कहीं भी लोकतंत्र हरे-भरे मैदान से रेगिस्तान में सबवर्ट किया जा रहा है, वहां आज नागरिक होने और सूचना पर उसके अधिकारी होने की लड़ाई थोड़ी मुश्किल ज़रूर हो गई है. मगर असंभव नहीं है.
नागरिकता के लिए ज़रूरी है कि सूचनाओं की स्वतंत्रता और प्रामाणिकता हो. आज स्टेट का मीडिया और उसके बिज़नेस पर पूरा कंट्रोल हो चुका है. मीडिया पर कंट्रोल का मतलब है, आपकी नागरिकता का दायरा छोटा हो जाना. मीडिया अब सर्वेलान्स स्टेट का पार्ट है. वह अब फोर्थ एस्टेट नहीं है, बल्कि फर्स्ट एस्टेट है. प्राइवेट मीडिया और गर्वनमेंट मीडिया का अंतर मिट गया है. इसका काम ओपिनियन को डायवर्सिफाई नहीं करना है, बल्कि कंट्रोल करना है. ऐसा भारत सहित दुनिया के कई देशों में हो रहा है.
न्यूज़ चैनलों की डिबेट की भाषा लगातार लोगों को राष्ट्रवाद के दायरे से बाहर निकालती रहती है. इतिहास और सामूहिक स्मृतियों को हटाकर उनकी जगह एक पार्टी का राष्ट्र और इतिहास लोगों पर थोपा जा रहा है. मीडिया की भाषा में दो तरह के नागरिक हैं – एक, नेशनल और दूसरा, एन्टी-नेशनल. एन्टी नेशनल वह है, जो सवाल करता है, असहमति रखता है. असहमति लोकतंत्र और नागरिकता की आत्मा है. उस आत्मा पर रोज़ हमला होता है. जब नागरिकता ख़तरे में हो या उसका मतलब ही बदल दिया जाए, तब उस नागरिक की पत्रकारिता कैसी होगी. नागरिक तो दोनों हैं. जो ख़ुद को नेशनल कहता है, और जो एन्टी-नेशनल कहा जाता है.
दुनिया के कई देशों में यह स्टेट सिस्टम, जिसमें न्यायपालिका भी शामिल है, और लोगों के बीच लेजिटिमाइज़ हो चुका है. फिर भी हम कश्मीर और हांगकांग के उदाहरण से समझ सकते हैं कि लोगों के बीच लोकतंत्र और नागरिकता की क्लासिक समझ अभी भी बची हुई है और वे उसके लिए संघर्ष कर रहे हैं. आख़िर क्यों हांगकांग में लोकतंत्र के लिए लड़ने वाले लाखों लोगों का सोशल मीडिया पर विश्वास नहीं रहा. उन्हें उस भाषा पर भी विश्वास नहीं रहा, जिसे सरकारें जानती हैं. इसलिए उन्होंने अपनी नई भाषा गढ़ी और उसमें आंदोलन की रणनीति को कम्युनिकेट किया. यह नागरिक होने की रचनात्मक लड़ाई है. हांगकांग के नागरिक अपने अधिकारों को बचाने के लिए उन जगहों के समानांतर नई जगह पैदा कर रहे हैं, जहां लाखों लोग नए तरीके से बात करते हैं, नए तरीके से लड़ते हैं और पल भर में जमा हो जाते हैं. अपना ऐप बना लिया और मेट्रो के इलेक्ट्रॉनिक टिकट ख़रीदने की रणनीति बदल ली. फोन के सिमकार्ड का इस्तेमाल बदल लिया. कंट्रोल के इन सामानों को नागरिकों ने कबाड़ में बदल दिया. यह प्रोसेस बता रहा है कि स्टेट ने नागरिकता की लड़ाई अभी पूरी तरह नहीं जीती है. हांगकांग के लोग सूचना संसार के आधिकारिक नेटवर्क से ख़ुद ही अलग हो गए.
कश्मीर में दूसरी कहानी है. वहां कई दिनों के लिए सूचना तंत्र बंद कर दिया गया. एक करोड़ से अधिक की आबादी को सरकार ने सूचना संसार से अलग कर दिया. इंटरनेट शटडाउन हो गया. मोबाइल फोन बंद हो गए. सरकार के अधिकारी प्रेस का काम करने लगे और प्रेस के लोग सरकार का काम करने लग गए. क्या आप बग़ैर कम्युनिकेशन और इन्फॉरमेशन के सिटिज़न की कल्पना कर सकते हैं…? क्या होगा, जब मीडिया, जिसका काम सूचना जुटाना है, सूचना के तमाम नेटवर्क के बंद होने का समर्थन करने लगे, और वह उस सिटिज़न के खिलाफ हो जाए, जो अपने स्तर पर सूचना ला रहा है या ला रही है या सूचना की मांग कर रहा है.
यह उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत के सारे पड़ोसी प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में निचले पायदान पर हैं. पाकिस्तान, चीन, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार और भारत. नीचे की रैंकिंग में भी ये पड़ोसी हैं. पाकिस्तान में एक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी है, जो अपने न्यूज़ चैनलों को निर्देश देता है कि कश्मीर पर किस तरह से प्रोपेगंडा करना है. कैसे रिपोर्टिंग करनी है. इसे वैसे तो सरकारी भाषा में सलाह कहते हैं, मगर होता यह निर्देश ही है. बताया जाता है कि कैसे 15 अगस्त के दिन स्क्रीन को खाली रखना है, ताकि वे कश्मीर के समर्थन में काला दिवस मना सकें. जिसकी समस्या का पाकिस्तान भी एक बड़ा कारण है.
दूसरी तरफ, जब ‘कश्मीर टाइम्स’ की अनुराधा भसीन भारत के सुप्रीम कोर्ट जाती हैं, तो उनके खिलाफ प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया कोर्ट चला जाता है. यह कहने कि कश्मीर घाटी में मीडिया पर लगे बैन का वह समर्थन करता है. मेरी राय में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और पाकिस्तान के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी का दफ्तर एक ही बिल्डिंग में होना चाहिए. गनीमत है कि एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने कश्मीर में मीडिया पर लगी रोक की निंदा की और प्रेस कांउंसिल ऑफ इंडिया की भी आलोचना की. पी.सी.आई. बाद में स्वतंत्रता के साथ हो गया. दोनों देशों के नागरिकों को सोचना चाहिए, लोकतंत्र एक सीरियस बिज़नेस है. प्रोपेगंडा के ज़रिये क्या वह एक दूसरे में भरोसा पैदा कर पाएंगे…? होली नहीं है कि इधर से गुब्बारा मारा, तो उधर से गुब्बारा मार दिया. वैसे, भारत के न्यूज़ चैनल परमाणु हमले के समय बचने की तैयारी का लेक्चर दे रहे हैं. बता रहे हैं कि परमाणु हमले के वक्त बेसमेंट में छिप जाएं. आप हंसें नहीं. वे अपना काम काफी सीरियसली कर रहे हैं.
अब आप इस संदर्भ में आज के विषय के टॉपिक को फ्रेम कीजिए. यह तो वही मीडिया है, जिसने अपने खर्चे में कटौती के लिए ‘सिटिज़न जर्नलिज़्म’ को गढ़ना शुरू किया था. इसके ज़रिये मीडिया ने अपने रिस्क को आउटसोर्स कर दिया. मेनस्ट्रीम मीडिया के भीतर सिटिज़न जर्नलिज़्म और मेनस्ट्रीम मीडिया के बाहर के सिटिज़न जर्नलिज़्म दोनों अलग चीज़ें हैं. लेकिन जब सोशल मीडिया के शुरुआती दौर में लोग सवाल करने लगे, तो यही मीडिया सोशल मीडिया के खिलाफ हो गया. न्यूज़रूम के भीतर ब्लॉग और वेबसाइट बंद किए जाने लगे. आज भी कई सारे न्यूज़रूम में पत्रकारों को पर्सनल ओपिनियन लिखने की अनुमति नहीं है. यह अलग बात है कि उसी दौरान बगदाद बर्निंग ब्लॉग के ज़रिये 24 साल की छात्रा रिवरबेंड (असल नाम सार्वजनिक नहीं किया गया) की इराक पर हुए हमले, युद्ध और तबाही की रोज की स्थिति ब्लॉग पोस्ट की शक्ल में आ रही थी और जिसे साल 2005 में ‘Baghdad Burning: Girl Blog from Iraq’ शीर्षक से किताब की शक्ल में पेश किया गया, तो दुनिया के प्रमुख मीडिया संस्थानों ने माना कि जो काम सोशल मीडिया के ज़रिये एक लड़की ने किया, वह हमारे पत्रकार भी नहीं कर पाते. यह सिटिजन ज़र्नलिज़्म है, जो मेनस्ट्रीम मीडिया के बाहर हुआ.
आज कोई लड़की कश्मीर में ‘बगदाद बर्निंग’ की तरह ब्लॉग लिख दे, तो मेनस्ट्रीम मीडिया उसे एन्टी-नेशनल बताने लगेगा. मीडिया लगातार सिटिज़न जर्नलिज़्म के स्पेस को एन्टी-नेशनल के नाम पर डि-लेजिटिमाइज़ करने लगा है, क्योंकि उसका इंटरेस्ट अब जर्नलिज़्म में नहीं है. ज़र्नलिज़्म के नाम पर मीडिया स्टेट का कम्प्राडोर है, एजेंट है. मेरे ख़्याल से सिटिज़न ज़र्नलिज़्म की कल्पना का बीज इसी वक्त के लिए है, जब मीडिया या मेनस्ट्रीम जर्नलिज़्म सूचना के खिलाफ हो जाए. उसे हर वह आदमी देश के खिलाफ नज़र आने लगे, जो सूचना पाने के लिए संघर्ष कर रहा होता है. मेनस्ट्रीम मीडिया नागरिकों को सूचना से वंचित करने लगे. असमहति की आवाज़ को गद्दार कहने लगे. इसीलिए यह टेस्टिंग टाइम है.
जब मीडिया ही सिटिज़न के खिलाफ हो जाए, तो फिर सिटिज़न को मीडिया बनना ही पड़ेगा. यह जानते हुए कि स्टेट कंट्रोल के इस दौर में सिटिज़न और सिटिज़न जर्नलिज़्म दोनों के ख़तरे बहुत बड़े हैं और सफ़लता बहुत दूर नज़र आती है. उसके लिए स्टेट के भीतर से इन्फॉरमेशन हासिल करने के दरवाज़े पूरी तरह बंद हैं. मेनस्ट्रीम मीडिया सिटिज़न जर्नलिज़्म में कॉस्ट कटिंग और प्रॉफिट का स्कोप बनाना चाहता है और इसके लिए उसका सरकार का PR होना ज़रूरी है. सिटिज़न जर्नलिज़्म संघर्ष कर रहा है कि कैसे वह जनता के सपोर्ट पर सरकार और विज्ञापन के जाल से बाहर रह सके.
भारत का मेनस्ट्रीम मीडिया पढ़े-लिखे नागरिकों को दिन-रात पोस्ट-इलिटरेट करने में लगा है. वह अंधविश्वास से घिरे नागरिकों को सचेत और समर्थ नागरिक बनाने का प्रयास छोड़ चुका है. अंध-राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता उसके सिलेबस का हिस्सा हैं.
यह स्टेट के नैरेटिव को पवित्र-सूचना (प्योर इन्फॉरमेशन) मानने लगा है. अगर आप इस मीडिया के ज़रिये किसी डेमोक्रेसी को समझने का प्रयास करेंगे, तो यह एक ऐसे लोकतंत्र की तस्वीर बनाता है, जहां सारी सूचनाओं का रंग एक है. यह रंग सत्ता के रंग से मेल खाता है. कई सौ चैनल हैं, मगर सारे चैनलों पर एक ही अंदाज़ में एक ही प्रकार की सूचना है. एक तरह से सवाल फ्रेम किए जा रहे हैं, ताकि सूचना के नाम पर धारणा फैलाई जा सके. इन्फॉरमेशन में धारणा ही सूचना है. (perception is the new information), जिसमें हर दिन नागरिकों को डराया जाता है, उनके बीच असुरक्षा पैदा की जाती है कि बोलने पर आपके अधिकार ले लिए जाएंगे. इस मीडिया के लिए विपक्ष एक गंदा शब्द है.
जब मेनस्ट्रीम मीडिया में विपक्ष और असहमति गाली बन जाए, तब असली संकट नागरिक पर ही आता है. दुर्भाग्य से इस काम में न्यूज़ चैनलों की आवाज़ सबसे कर्कश और ऊंची है. एंकर अब बोलता नहीं है, चीखता है.
भारत में बहुत कुछ शानदार है, एक महान देश है, उसकी उपलब्धियां आज भी दुनिया के सामने नज़ीर हैं, लेकिन इसके मेनस्ट्रीम और TV मीडिया का ज़्यादतर हिस्सा गटर हो गया है. भारत के नागरिकों में लोकतंत्र का जज़्बा बहुत ख़ूब है, लेकिन न्यूज़ चैनलों का मीडिया उस जज़्बे को हर रात कुचलने आ जाता है. भारत में शाम तो सूरज डूबने से होती है, लेकिन रात का अंधेरा न्यूज चैनलों पर प्रसारित ख़बरों से फैलता है.
भारत में लोगों के बीच लोकतंत्र ख़ूब ज़िंदा है. हर दिन सरकार के खिलाफ ज़ोरदार प्रदर्शन हो रहे हैं, मगर मीडिया अब इन प्रदर्शनों की स्क्रीनिंग करने लगा है. इनकी अब ख़बरें नहीं बनती. उसके लिए प्रदर्शन करना, एक फालतू काम है. बगैर डेमॉन्स्ट्रेशन के कोई भी डेमोक्रेसी डेमोक्रेसी नहीं हो सकती है. इन प्रदर्शनों में शामिल लाखों लोग अब खुद वीडियो बनाने लगे हैं. फोन से बनाए गए उस वीडियो में खुद ही रिपोर्टर बन जाते हैं और घटनास्थल का ब्योरा देने लगते हैं, जिसे बाद में प्रदर्शन में आए लोगों के व्हॉट्सऐप ग्रुप में चलाया जाता है. इन्फॉरमेशन का मीडिया उन्हें जिस नागरिकता का पाठ पढ़ा रहा है, उसमें नागरिक का मतलब यह नहीं कि वह सरकार के खिलाफ नारेबाज़ी करे. इसलिए नागरिक अपने होने का मतलब बचाए रखने के लिए व्हॉट्सएप ग्रुप के लिए वीडियो बना रहा है. आंदोलन करने वाले सिटिज़न जर्नलिज़्म करने लगते हैं. अपना वीडियो बनाकर यूट्यूब पर डालने लगते हैं.
जब स्टेट और मीडिया एक होकर सिटिज़न को कंट्रोल करने लगें, तब क्या कोई सिटिज़न जर्नलिस्ट के रूप में एक्ट कर सकता है…? सिटिज़न बने रहने और उसके अधिकारों को एक्सरसाइज़ करने के लिए ईको-सिस्टम भी उसी डेमोक्रेसी को प्रोवाइड कराना होता है. अगर कोर्ट, पुलिस और मीडिया होस्टाइल हो जाएं, फिर सोसायटी का वह हिस्सा, जो स्टेट बन चुका है, आपको एक्सक्लूड करने लगे, तो हर तरह से निहत्था होकर एक नागरिक किस हद तक लड़ सकता है…? नागरिक फिर भी लड़ रहा है.
मुझे हर दिन व्हॉट्सएप पर 500 से 1,000 मैसेज आते हैं. कभी-कभी यह संख्या ज़्यादा भी होती है. हर दूसरे मैसेज में लोग अपनी समस्या के साथ पत्रकारिता का मतलब भी लिखते हैं. मेनस्ट्रीम न्यूज़ मीडिया भले ही पत्रकारिता भूल गया है, लेकिन जनता को याद है कि पत्रकारिता की परिभाषा कैसी होनी चाहिए. जब भी मैं अपना व्हॉट्सएप खोलता हूं, यह देखने के लिए कि मेरे ऑफिस के ग्रुप में किस तरह की सूचना आई है, मैं वहां तक पहुंच ही नहीं पाता. मैं हज़ारों लोगों की सूचना को देखने में ही उलझ जाता हूं, इसलिए मैं अपने व्हॉट्सएप को पब्लिक न्यूज़रूम कहता हूं. देशभर में मेरे नंबर को ट्रोल ने वायरल किया कि मुझे गाली दी जाए. गालियां आईं, धमकियां भी आईं. आ रही हैं, लेकिन उसी नंबर पर लोग भी आए. अपनी और इलाके की ख़बरों को लेकर. ये वे ख़बरें हैं, जो न्यूज़ चैनलों की परिभाषा के हिसाब से ख़त्म हो चुकी हैं, मगर उन्हीं चैनलों को देखने वाले ये लोग जब ख़ुद परेशानी में पड़ते हैं, तो उन्हें पत्रकार का मतलब पता होता है. उनके ज़हन से पत्रकारिता का मतलब अभी समाप्त नहीं हुआ है.
जब रूलिंग पार्टी ने मेरे शो का बहिष्कार किया था, तब मेरे सारे रास्ते बंद हो गए थे. उस समय यही वे लोग थे, जिन्होंने अपनी समस्याओं से मेरे शो को भर दिया. जिस मेनस्ट्रीम मीडिया ने सिटिज़न जर्नलिज़्म के नाम पर ज़र्नलिज़्म और सत्ता के खिलाफ बोलने वाले तक को आउटसोर्स किया था, जिससे लोगों के बीच मीडिया का भ्रम बना रहे, सिटिज़न के इस समूह ने मुझे मेनस्ट्रीम मीडिया में सिटिज़न जर्नलिस्ट बना दिया. मीडिया का यही भविष्य होना है. उसके पत्रकारों को सिटिज़िन जर्नलिस्ट बनना है, ताकि लोग सिटिज़न बन सकें.
ठीक उसी समय में, जब न्यूज़ चैनलों से आम लोग ग़ायब कर दिए गए, और उन पर डिबेट शो के ज़रिये पोलिटिकल एजेंडा थोपा जाने लगा, एक तरह के नैरेटिव से लोगों को घेरा जाने लगा, उसी समय में लोग इस घेरे को तोड़ने का प्रयास भी कर रहे थे. गालियों और धमकियों के बीच ऐसे मैसेज की संख्या बढ़ने लगी, जिनमें लोग सरकार से डिमांड कर रहे थे. मैं लोगों की समस्याओं से ट्रोल किया जाने लगा. क्या आप नहीं बोलेंगे, क्या आप सरकार से डरते हैं…? मैंने उन्हें सुनना शुरू कर दिया.
‘Prime Time’ का मिजाज़ (नेचर) बदल गया. हज़ारों नौजवानों के मैसेज आने लगे कि सेंट्रल गर्वनमेंट और स्टेट गर्वनमेंट सरकारी नौकरी की परीक्षा दो से तीन साल में भी पूरी नहीं करती हैं. जिन परीक्षाओं के रिज़ल्ट आ जाते हैं, उनमें भी अप्वाइंटमेंट लेटर जारी नहीं करती हैं. अगर मैं सारी परीक्षाओं में शामिल नौजवानों की संख्या का हिसाब लगाऊं, तो रिज़ल्ट का इंतज़ार कर रहे नौजवानों की संख्या एक करोड़ तक चली जाती है. ‘Prime Time’ की ‘जॉब सीरीज़’ का असर होने लगा और देखते-देखते कई परीक्षाओं के रिज़ल्ट निकले और अप्वाइंटमेंट लेटर मिला. जिस स्टेट से मैं आता हूं, वहां 2014 की परीक्षा का परिणाम 2018 तक नहीं आया था. बस मेरा व्हॉट्सऐप नंबर पब्लिक न्यूज़रूम में बदल गया. सरकार और पार्टी सिस्टम में जब मेरे सीक्रेट सोर्स किनारा करने लगे, तब पब्लिक मेरे लिए ओपन सोर्स बन गई.
‘Prime Time’ अक्सर लोगों के भेजे गए मैसेज के आधार पर बनने लगा है. ये व्हॉट्सऐप का रिवर्स इस्तेमाल था. एक तरफ राजनीतिक दल का आईटी सेल लाखों की संख्या में सांप्रदायिकता और ज़ेनोफोबिया फैलाने वाले मैसेज जा रहे थे, तो दूसरी तरफ से असली ख़बरों के मैसेज मुझ तक पहुंच रहे थे. मेरा न्यूज़रूम NDTV के न्यूज़रूम से शिफ्ट होकर लोगों के बीच चला गया है. यही भारत के लोकतंत्र की उम्मीद हैं, क्योंकि इन्होंने न तो सरकार से उम्मीद छोड़ी है और न ही सरकार से सवाल करने का रास्ता अभी बंद किया है. तभी तो वे मेनस्ट्रीम में अपने लिए खिड़की ढूंढ रहे हैं. जब यूनिवर्सिटी की रैंकिंग के झूठे सपने दिखाए जा रहे थे, तब कॉलेजों के छात्र अपने क्लासरूम और टीचर की संख्या मुझे भेजने लगे. 10,000 छात्रों पर 10-20 शिक्षकों वाले कॉलेज तक मैं कैसे पहुंच पाता, अगर लोग नहीं आते. जर्नलिज़्म इज़ नेवर कम्प्लीट विदाउट सिटिज़न एंड सिटिज़नशिप. मीडिया जिस दौर में स्टेट के हिसाब से सिटिज़न को डिफाइन कर रहा था, उसी दौर में सिटिज़न अपने हिसाब से मुझे डिफाइन करने लगे. डेमोक्रेसी में उम्मीदों के कैक्टस के फूल खिलने लगे.
मुझे चंडीगढ़ की उस लड़की का मैसेज अब भी याद है. वह ‘Prime Time’ देख रही थी और उसके पिता TV बंद कर रहे थे. उसने अपने पिता की बात नहीं मानी और ‘Prime Time’ देखा. वह भारत के लोकतंत्र की सिटिज़न है. जब तक वह लड़की है, लोकतंत्र अपनी चुनौतियों को पार कर लेगा. उन बहुत से लोगों का ज़िक्र करना चाहता हूं, जिन्होंने पहले ट्रोल किया, गालियां दीं, मगर बाद में ख़ुद लिखकर मुझसे माफ़ी मांगी. अगर मुझे लाखों गालियां आई हैं, तो मेरे पास ऐसे हज़ारों मैसेज भी आए हैं. महाराष्ट्र के उस लड़के का मैसेज याद है, जो अपनी दुकान पर TV पर चल रहे नफरत वाले डिबेट से घबरा उठता है और अकेले कहीं जा बैठता है. जब घर में वह मेरा शो चलाता है, तो उसके पिता और भाई बंद कर देते हैं कि मैं देशद्रोही हूं. मेनस्ट्रीम मीडिया और आईटी सेल ने मेरे खिलाफ यह कैम्पेन चलाया है. आप समझ सकते हैं कि इस तरह के कैम्पेन से घरों में स्क्रीनिंग होने लगी है.
यह मैं इसलिए बता रहा हूं कि आज सिटिज़न जर्नलिस्ट होने के लिए आपको स्टेट और स्टेट की तरह बर्ताव करने वाले सिटिज़न से भी जूझना होगा. चुनौती सिर्फ स्टेट नहीं है, स्टेट जैसे हो चुके लोग भी हैं. सांप्रदायिकता और अंध-राष्ट्रवाद से लैस भीड़ के बीच दूसरे नागरिक भी डर जाते हैं. उनका जोखिम बढ़ जाता है. आपको अपने मोबाइल पर यह मैसेज देखकर घर से निकलना होता है कि मैसेज भेजने वाला मुझे लिंच कर देना चाहता है. आज का सिटिज़न दोहरे दबाव में हैं. उसके सामने चुनौती है कि वह इस मीडिया से कैसे लड़े. जो दिन-रात उसी के नाम पर अपना धंधा करता है.
हम इस मोड़ पर हैं, जहां लोगों को सरकार तक पहुंचने के लिए मीडिया के बैरिकेड से लड़ना ही होगा. वर्ना उसकी आवाज़ व्हॉट्सऐप के इनबॉक्स में घूमती रह जाएगी. पहले लोगों को नागरिक बनना होगा, फिर स्टेट को बताना होगा कि उसका एक काम यह भी है कि वह हमारी नागरिकता के लिए ज़रूरी निर्भीकता का माहौल बनाए. स्टेट को क्वेश्चन करने का माहौल बनाने की ज़िम्मेदारी भी सरकार की है. एक सरकार का मूल्यांकन आप तभी कर सकते हैं, जब उसके दौर में मीडिया स्वतंत्र हो. इन्फॉरमेशन के बाद अब अगला अटैक इतिहास पर हो रहा है, जिससे हमें ताकत मिलती है, प्रेरणा मिलती है. उस इतिहास को छीना जा रहा है.
आज़ादी के समय भी तो ऐसा ही था. बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, डॉ अम्बेडकर, गणेश शंकर विद्यार्थी, पीर मुहम्मद मूनिस – अनगिनत नाम हैं. ये सब सिटिज़न जर्नलिस्ट थे. 1917 ईस्वी में चंपारण सत्याग्रह के समय महात्मा गांधी ने कुछ दिनों के लिए प्रेस को आने से रोक दिया. उन्हें पत्र लिखा कि आप चंपारण सत्याग्रह से दूर रहें. गांधी ख़ुद किसानों से उनकी बात सुनने लगे. चंपारण में गांधी के आस-पास पब्लिक न्यूज़रूम बनाकर बैठ गई. वह अपनी शिकायतें प्रमाण के साथ उन्हें बताने लगी. उसके बाद भारत की आज़ादी की लड़ाई का इतिहास आप सबके सामने है.
मैं ऐसे किसी दौर या देश को नहीं जानता, जो ख़बरों के बग़ैर धड़क सकता है. किसी भी देश को ज़िंदादिल होने के लिए सूचनाओं की प्रामाणिकता बहुत ज़रूरी है. सूचनाएं सही और प्रामाणिक नहीं होंगी, तो नागरिकों के बीच का भरोसा कमज़ोर होगा. इसलिए एक बार फिर सिटिज़न जर्नलिज़्म की ज़रूरत तेज़ हो गई है. वह सिटिजन जर्नलिज्म, जो मेनस्ट्रीम मीडिया की कारोबारी स्ट्रेटेजी से अलग है. इस हताशा की स्थिति में भी कई लोग इस गैप को भर रहे हैं. कॉमेडी से लेकर इन्डिविजुअल यूट्यूब शो के ज़रिये सिटिजिन जर्नलिज़्म के एसेंस को ज़िंदा किए हुए हैं. उनकी ताकत का असर यह है कि भारत के लोकतंत्र में अभी सब कुछ एकतरफा नहीं हुआ है. जनता सूचना के क्षेत्र में अपने स्पेस की लड़ाई लड़ रही है, भले ही वह जीत नहीं पाई है.
महात्मा गांधी ने 12 अप्रैल, 1947 की प्रार्थनासभा में अख़बारों को लेकर एक बात कही थी. आज के डिवाइसिव मीडिया के लिए उनके प्रवचन काम आ सकते हैं. गांधी ने एक बड़े अख़बार के बारे में कहा, जिसमें ख़बर छपी थी कि कांग्रेस की वर्किंग कमेटी में अब गांधी की कोई नहीं सुनता है. गांधी ने कहा था कि यदि अख़बार दुरुस्त नहीं रहेंगे, तो फिर हिन्दुस्तान की आज़ादी किस काम की. आज अख़बार डर गए हैं. वे अपनी आलोचना को देश की आलोचना बना देते हैं, जबकि मैं मेनस्ट्रीम मीडिया और खासकर न्यूज़ चैनलों की आलोचना अपने महान देश के हित के लिए ही कर रहा हूं. गांधी ने कहा था – आप इन निकम्मे अखबारों को फेंक दें. कुछ ख़बर सुननी हो, तो एक दूसरे से पूछ लें. अगर पढ़ना ही चाहें, तो सोच-समझकर अख़बार चुन लें, जो हिन्दुस्तानवासियों की सेवा के लिए चलाए जा रहे हों. जो हिन्दू और मुसलमान को मिलकर रहना सिखाते हों. भारत के अखबारों और चैनलों में हिन्दू-मुसलमान को लड़ाने-भड़काने की पत्रकारिता हो रही है. गांधी होते, तो यही कहते, जो उन्होंने 12 अप्रैल, 1947 को कहा था और जिसे मैं यहां आज दोहरा रहा हूं.
आज बड़े पैमाने पर सिटिज़न जर्नलिस्ट की ज़रूरत है, लेकिन उससे भी ज्यादा ज़रूत है सिटिज़न डेमोक्रेटिक की…
DEMOCRACY NEED MORE CITIZEN JOURNALISTS, MORE THAN THAT, DEMOCRACY NEEDS DEMOCRATIC CITIZEN .
मैं NDTV के करोड़ों दर्शकों का शुक्रिया अदा करता हूं. NDTV के सभी सहयोगी याद आ रहे हैं. डॉ प्रणय रॉय और राधिका रॉय ने कितना कुछ सहा है. मैं हिन्दी का पत्रकार हूं, मगर मराठी, गुजराती से लेकर मलयालम और बांग्लाभाषी दर्शकों ने भी मुझे ख़ूब प्यार दिया है. मैं सबका हूं. मुझे भारत के नागरिकों ने बनाया है. मेरे इतिहास के श्रेष्ठ शिक्षक हमेशा याद आते रहेंगे. मेरे आदर्श महानतम अनुपम मिश्र को याद करना चाहता हूं, जो मनीला चंडीप्रसाद भट्ट जी के साथ आए थे. अनुपम जी बहुत ही याद आते हैं. मेरा दोस्त अनुराग यहां है. मेरी बेटियां और मेरी जीवनसाथी. मैं नॉयना के पीछे चलकर यहां तक पहुंचा हूं. काबिल स्त्रियों के पीछे चला कीजिए. अच्छा नागरिक बना कीजिए.
क्या आप बगैर कपड़ों के गाड़ी चलाने वाले इस शख्स को जानते हैं?
राजकुमार सोनी
रायपुर. इस चित्र को गौर से देखिए...। अरे भाई... इसमें गौर से देखने लायक क्या बात है. साफ तौर पर दिख रहा है कि चित्र में नजर आने वाले शख्स ने हेलमेट पहन रखा है, लेकिन उसके कपड़े गायब है. यह शख्स कौन है? क्या करता है? इसकी जानकारी किसी के पास नहीं है. बहुत से लोगों को लग रहा है बगैर कपड़ों के गाड़ी चलाने वाला जो भी है उनका अपना है. कुछ लोग इस चित्र को अश्लील और शैतानी दिमाग की उपज बता रहे हैं, लेकिन नागरिक पत्रकारिता ( सोशल मीडिया ) से जुड़े मानते हैं कि केंद्र ने जो नया ट्रैफिक नियम बनाया है वह इस चित्र से ज्यादा अश्लील और अभद्र है.
नया ट्रैफिक नियम कहता है कि आप भारत के किसी भी कोने में गाड़ी चलाने के दौरान नियमों का उल्लंघन करते हुए पकड़े गए तो दस गुना ज्यादा जुर्माना चुकाना पड़ेगा. सोशल मीडिया में इस जैसे हजारों-हजारों चित्रों और कमेंट के जरिए लोग ट्रैफिक के नए कठोर नियमों के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कर रहे हैं. लोगों के पास इसके अलावा और कोई दूसरा तरीका भी नहीं है. मुख्यधारा का कथित मीडिया धरती पर कीड़े-मकोड़ों सी जिंदगी व्यतीत करने वाले इंसानों को छोड़कर मोदी और चंदामामा की स्तुति में लगा है तो लोग क्या करेंगे ?आखिर उनका गुस्सा कहीं न कहीं तो निकलेगा. कोई कार्टून बनाकर विरोध प्रकट कर रहा है तो कोई सनी लियोनी की फोटो लगाकर अपना गम दूर कर रहा है. यहां हम सनी लियोनी की तस्वीर नहीं दे रहे हैं, लेकिन एक शख्स ने शिक्षक दिवस के दिन लियोन की बेहद कामुक तस्वीर को पोस्ट करते हुए लिखा है- आपने मुझे जीना सिखाया है. मैं आपको बहुत मानता हूं.आप मेरी असली टीचर हो. बस... एक बार चालान से बचने का तरीका भी सीखा दीजिए.
अगर आप बात-बात में खानदान-खानदान और संस्कार-संस्कार चिल्लाते रहते हैं, और खुद को परमपिता परमेश्वर की शुद्ध और असली संतान मानते हैं तो शायद आपको सनी लियोनी की तस्वीर के साथ की गई यह टिप्पणी अश्लील लग सकती है, लेकिन मनोविज्ञान कहता है कि सभ्य समाज के भीतर भी अभद्रता विद्यमान रहती है. जब किसी एक का दुख सबका दुख बन जाता है तो गाली विकार निकालने का सबसे अच्छा जरिया साबित होती है.
.... तो लोग गालियां दे रहे हैं. केंद्र को दे रहे हैं. नियम-कानून बनाने वाले को दे रहे हैं. ( अब यह बताने की जरूरत नहीं है कि सबसे ज्यादा गाली किसे दी जा रही है.)
1- भले ही अब ज्यादातर लोग दहेज की बात नहीं करते, लेकिन ट्रैफिक कानून के बाद एक पोस्ट आई है. इस पोस्ट में लिखा है- पहली सितम्बर से दूल्हे के नए रेट- इंजीनियर का दस लाख. डाक्टर बीस लाख और ट्रैफिक हवलदार-पचास लाख.
2- अभिताभ बच्चन कौन बनेगा करोड़पति में - आप बहुत बड़ी राशि जीत चुके हैं. क्या कीजिएगा इतनी बड़ी धनराशि का.प्रतिभागी- जमकर ऐसी-तैसी हो गई है सर... चालान भरूंगा और क्या.
3- पति- मैं शराब पीने जा रहा हूं...। पत्नी- हां... हां... बिल्कुल जाओ... लेकिन सुनो जी... साइकिल लेकर जाना
4-अपने लड़के को छुड़वाना चाहते हो तो एक लाख रुपए लेकर आ जाओ. लड़के की मां- कमीने रुक मैं अभी पुलिस को फोन करती हूं. मैडम... हम पुलिसवाले ही बोल रहे हैं.
5-अगर किसी को श्राप देना हो तो अवश्य दीजिए. एक नया श्राप- जा हरामजादे... आज तेरा चालान कट जाय.
6-अबे सालों... अगर लोगों के पास 20-25 हजार रुपए चालान भरने के लिए होते क्या उनके बच्चे हास्पिटल में बगैर आक्सीजन के मरते ?
7-अगर कोई पुलिसवाला चालान काटे तो उसके सामने ही अपनी गाड़ी को आग लगा दो. आजकल सैंकड़हैंड गाड़ी दस-बारह हजार में मिल जाती है.
8-भक्तों... और बनाओ दढ़ियल को हीरो. जब अर्थव्यवस्था चौपट हो गई तो चालान काटकर हमारी जेब पर डाका डालने लगे. अबे अब तो सुधर जाओ कमीनों.
9- सड़क क्या तुम्हारा बाप बनाएगा. हर साल टैक्स पटाता हूं. चले हो चालान काटने. दूंगा कान के नीचे खींचकर
10- एक भक्त की अपील- पुलिसवालों ने आज मेरे परिवार की चार गाड़ियों का चालान बना दिया. एक लाख का चूना लग गया... फिर भी राष्ट्रहित में पीछे नहीं हटूंगा.... बोलो... भारत माता की जय.
सोशल मीडिया में इससे भी ज्यादा भयानक कमेंट और चित्र विचरण कर रहे हैं. फिलहाल इतने से काम चलाइए और एक बार फिर ऊपर दिए गए चित्र को गौर से देखिए....। क्या आपको लगता है कभी ऐसा आपके साथ हो सकता है. हो सकता है... क्योंकि.............. है तो मुमकिन है.
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की यह तस्वीर हो रही है जमकर वायरल
भ्रम फैलाना ठीक नहीं... तेल और कोयले की कीमत में इजाफे के चलते उपभोक्ताओं पर लगा है वीसीए चार्ज
रायपुर. छत्तीसगढ़ के बिजली उपभोक्ताओं को कोयले एवं तेल की कीमत में बढ़ोतरी होने के कारण आगामी दो माह तक 13 पैसा वेरियबल कास्ट एडजस्टमेंट (वीसीए) चार्ज देना होगा. इस चार्ज के निर्धारण का प्रावधान इलेक्ट्रिसिटी एक्ट की धारा 62(4) के तहत राज्य नियामक आयोग द्वारा जारी नियमों के अनुसार किया गया है. इसके निर्धारण में बिजली कंपनी अथवा राज्य शासन की कोई भूमिका नहीं है. इधर वीसीए चार्ज में मामूली सी बढ़ोतरी को भाजपा ने सरकार के मत्थे मढ़ने की कोशिश की है. भाजपा का आरोप है कि सरकार उपभोक्ताओं को लूट रही है.छत्तीसगढ़ स्टेट पावर कंपनीज के अध्यक्ष शैलेंद्र शुक्ला का कहना है कि वीसीए चार्ज का समायोजन देश की सभी बिजली कंपनियों द्वारा समय-समय पर किया जाता है. इसका भुगतान उपभोक्ताओं को करना ही होता है. ऐसा नहीं है कि केवल छत्तीसगढ़ के बिजली उपभोक्ताओं से ही वीसीए चार्ज लिया जा रहा है. छत्तीसगढ़ में 30 जून 2012 से बिजली उपभोक्ताओं से वीसीए चार्ज लेना आरंभ किया गया था. यह चार्ज समय-समय पर कम-ज्यादा होता रहता है.
उन्होंने स्पष्ट किया कि बिजली का उत्पादन करने के लिए कोयले एवं तेल की आवश्यकता होती है और इन दोनों प्रमुख घटकों की कीमत बाजार में घटती और बढ़ती रहती है. इसका निर्धारण केंद्र सरकार के द्वारा किया जाता है जबकि बिजली की दरों का निर्धारण राज्य नियामक आयोग द्वारा किया जाता है. बिजली की दरों के निर्धारण के उपरांत कोयले एवं तेल की कीमत में परिवर्तन का प्रभाव बिजली की दरों पर भी पड़ता है. अतः इन घटकों की बढ़ी अथवा घटी हुई कीमत का समायोजन बिजली दरों में करने के लिए प्रत्येक तीन माह में इसका आंकलन किया जाता है और घटी-बढ़ी राशि को वीसीए (वेरियबल कास्ट एडजस्टमेंट) चार्ज के रूप में बिजली बिल में जोड़कर अथवा घटाकर उपभोक्ताओं से परिवर्तित राशि ली जाती है।
उन्होंने बताया कि वीसीए की दर की गणना मई 2012 से लेकर सितम्बर 2015 तक त्रैमासिक आधार पर की जाती रही है. अब यह दर द्विमासिक आधार पर की जा रही है. प्रदेश में अब तक अधिकतम 51 पैसा प्रति यूनिट वीसीए चार्ज समायोजित करने का निर्णय किया गया है जो कि अप्रैल तथा मई 2017 के बिलों में समायोजित किया गया था. वर्तमान में यह दर केवल 13 पैसे प्रति यूनिट है जिसे जुलाई 19 तथा अगस्त 19 के बिल में समायोजित किया जायेगा. प्रदेश की नवगठित सरकार द्वारा एक मार्च से हाफ दर पर बिजली भुगतान की योजना लागू की गई है जिसके अन्तर्गत घरेलू उपभोक्ताओं को प्रथम 400 यूनिट की बिजली खपत पर आधे दर से भुगतान करना है. इस योजना का लाभ भी वीसीए चार्ज पर मिलेगा.
किसानों को बड़ी राहत दे सकती है एग्री एम्बुलेंस... विजय बुधिया ने दिया सुझाव
रायपुर. जिस प्रकार से मरीजों को लाने-ले जाने के लिए एम्बुलेंस होती है ठीक वैसी ही खेती-किसानी से संबंधित समस्याओं के समाधान के लिए भी एम्बुलेंस तैयार की जा सकती है. एक स्वयंसेवी संस्था के जरिए सामाजिक कार्यों में जुटे सामाजिक कार्यकर्ता विजय बुधिया ने इसे लेकर मुख्यमंत्री को लिखित में सुझाव भेजा है.
उन्होंने कहा है कि छोटे एवं मध्यम श्रेणी के किसानो को फसलों को उत्पादन के दौरान कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. यदि कभी फसलों पर कीट-प्रकोप लगने जैसी स्थिति पैदा होती है तब किसान अपने फसल के बचाव को लेकर चिंताग्रस्त हो जाते हैं. अगर किसानों को उचित समय पर फसलों के रख-रखाव करने वाले डाक्टर की सहायता मिल जाय तो इससे बड़ी राहत कोई और दूसरी नहीं हो सकती.
उनका कहना है कि सरकार आठ-दस गांवों को शामिल कर एक एग्री एम्बुलेंस तैयार कर सकती है. यह एम्बुलेंस सभी प्रकार की फसलों के कीटनाशक और अन्य औजारों से लैस रहेगी. जैसे ही किसी किसान से यह जानकारी मिलेगी कि उसके खेत को कीट-पतंगों से नुकसान पहुंच रहा है... एम्बुलेंस वहां पहुंचकर किसान को राहत दे सकती है. सरकार की यह सहायता छत्तीसगढ़ के अन्नदाताओं को बड़ी राहत दे सकती है. आज भी छत्तीसगढ़ के किसान कीटनाशक दवाईयों को खरीदने के लिए शहरों का रुख करते हैं और दुकानदार अपनी मर्जी के हिसाब से उन्हें दवाओं का डिब्बा थमा देते हैं. कई बार दवाईयां काम कर जाती है, लेकिन अक्सर किसान महंगे कीटनाशकों को खरीदकर खुद को लुटा बैठता है.
विजय बुधिया ने कहा कि एक ट्रैक्टर ट्राली के ऊपर पांच हजार लीटर की पानी टंकी, एक दवा सिंचाई करने वाले यंत्र, एक होस पाइप रोल, एक दवा पाइप रोल, दवा मिलाने का ड्रम और एक इन्वर्टर मोटर लगाकर बड़ी आसानी से एग्री एम्बुलेंस को तैयार किया जा सकता है. इस एम्बुलेंस के निर्माण से ग्रामीणों को रोजगार भी मुहैया होगा और इसे देश का पहला अनोखा प्रयास भी माना जाएगा. बुधिया ने बताया कि अगर किसी खेत को पर्याप्त पानी नहीं मिल पा रहा है तो भी इस एग्री एम्बुलेंस का इस्तेमाल जल एकत्रित करने के लिए किया जा सकता है.
छत्तीसगढ़ का वो अफसर जब जेल जाएगा तो लोग टिफिन बाक्स लेकर मिलना चाहते हैं ?
रायपुर. इस खबर का शीर्षक पढ़कर आपके चेहरे पर एक मुस्कान तैर सकती हैं, विशेषकर उन बेगुनाह लोगों के चेहरों पर जो अफसर के जुल्म और ज्यादातियों के शिकार रहे हैं. जो बिल्कुल नए और भोले-भंडारी किस्म के पाठक है, उनकी सुविधा के लिए यहां एक चित्र भी चस्पा है. इस चित्र को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह अफसर कौन है जिसके जेल जाने का इंतजार बड़ी बेसब्री से हो रहा हैं ?
जी हां... यह सच है और छत्तीसगढ़ की बड़ी जनभावना भी.
छत्तीसगढ़ में एक विवादित अफसर है. छत्तीसगढ़ जब अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा था तब भी इस अफसर ने एक से बढ़कर एक कारनामों के अंजाम दिया था. छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माण के बाद जब तक अजीत जोगी सत्ता में रहे तब तक इस अफसर की खूब चली. पिछले पन्द्रह साल जब प्रदेश में भाजपा की सरकार थीं तब तो इस अफसर ने इतना उत्पात मचाया कि पूछिए मत. हर कोई डरा और सहमा रहता था. जिन लेखकों और पत्रकारों ने इस अफसर को वर्दी वाला गुंडा लिखा उन्हें ऐन-केन-प्रकारेण झूठे मामलों में फंसा दिया गया.
इस अफसर के पास कितने अरब की संपत्ति है इसकी कोई ठीक-ठाक और विधिवत जानकारी किसी के पास उपलब्ध नहीं है, लेकिन अफसर के साथ काम कर चुके सीनियर अफसर का कहना है- एक बार जब मैंने कहा कि गलत तो गलत होता है... अगर कभी गलत काम करते हुए फंस गए तो कैसे बचोंगे ? उसने जवाब दिया- फंसने की चिंता गरीब आदमी करता है. तुम अपनी सोचो. मैं ढ़ाई हजार करोड़ का मालिक हूं.नौकरी को जूते की नोंक पर रखता हूं.
बहरहाल छत्तीसगढ़ में सताए हुए लोग उस अफसर के जेल जाने का इंतजार कर रहे हैं. लोग इस बात की भी मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं कि भूपेश बघेल पहले ऐसे छत्तीसगढ़िया मुख्यमंत्री है जिसने एक जालिम की गर्दन जोर से पकड़ ली है, लेकिन बहुत से लोग पुलिस विभाग की पूछताछ पर पूछताछ और तारीख पर तारीख... वाली कार्रवाई से नाखुश भी है.ऐसे लोगों का कहना है कि भूपेश बघेल जालिम अफसरों को ठिकाने लगाना चाहते हैं, मगर पुलिस महकमे में बैठे हुए लोग आततायी अफसर को कानूनी दांव-पेंच से बचने का मार्ग प्रशस्त किए हुए हैं. छत्तीसगढ़ के बहुत से सरकारी अफसर इस बात को लेकर आश्वस्त है कि एक दिन आततायी अफसर को जेल की सजा अवश्य होगी तब वे टिफिन बाक्स ( लंच बाक्स ) लेकर जेल में मिलने जाएंगे. छत्तीसगढ़ में पत्रकारों का एक वर्ग जेल में ही उनका इंटरव्यूह करने की तमन्ना रखता है. अब आप समझ गए होंगे कि यहां खबर में किस अफसर के बारे में बात हो रही है. अगर आप उस अफसर के बारे में जान गए हैं तो दूसरों को भी बताए कि छत्तीसगढ़ का वह नाम कमाऊं अफसर कौन है. वैसे यह पहली मर्तबा है जब लोग एक अफसर को लेकर ऐसा सोच रहे हैं.