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कोविड- 19 और स्कूली शिक्षा का बदलता प्रतिमान

कोविड- 19 और स्कूली शिक्षा का बदलता प्रतिमान

विविध गैर सरकारी संगठनों के साथ कार्यरत रही  नेहा रूपडा किशोरी स्वास्थ्य और जेंडर के मुद्दों पर काम करती है. यहां प्रस्तुत उनका यह लेख कई तरह के सवाल खड़े करता है.

"वर्तमान शिक्षा पद्धति सड़क पर पड़ी हुई कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है।" - श्रीलाल शुक्ल

वर्ष 1968 में प्रकाशित उपन्यास 'राग दरबारी' का यह कथन आज भी प्रासंगिक है। इस बार शिक्षा तंत्र को लताड़ा है कोविड-19 ने। हालाँकि कोविड-19 ने तो समूची दुनिया, विज्ञान और तकनीक, अर्थव्यवस्था और जीवनशैली को भी लताड़ा है। इस लेख में हम स्कूली शिक्षा पर पड़ने वाले संभावित परिणामों की पड़ताल करेंगे।

स्कूली शिक्षातंत्र अकादमिक एवं प्रशासनिक कार्य के आधार पर अलग-अलग विभागों में बँटा हुआ है। ज़िला स्तर पर ज़िला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान (डाइट) अकादमिक कार्यों के लिए उत्तरदायी है। सेवा-पूर्व और सेवाकालीन, दोनों तरह के शिक्षक प्रशिक्षण का दायित्व डाइट पर है। जैसा कि अनुमान लगाया जा रहा है, सोशल डिस्टेंसिंग शायद लंबा चल सकता है। इस परिपेक्ष्य में शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थान की कार्यप्रणाली को बदलना पड़ सकता है। हमने देखा है कि डाइट में सेवा-पूर्व प्रशिक्षण ले रहे विद्यार्थी-शिक्षकों की संख्या के अनुपात में व्याख्याताओं की काफी कमी है। इस कारण अक्सर दो कक्षाओं को मिलाकर एक कक्षा-कक्ष में बैठा दिया जाता है। कक्षा में हो रही इस भीड़ को सम्हालने के लिए कई प्रशासनिक कदम उठाने की दरकार है। सेवापूर्व शिक्षक प्रशिक्षण में कक्षा-शिक्षण के पारंपरिक तरीके काफी हद तक बदल जाएँगे। ज़्यादातर कक्षाएँ ऑनलाइन होंगी, जिसमें व्याख्याता अपने विषय से संबंधित विडियो बनाकर विद्यार्थी-शिक्षकों को भेजेंगे और ग्रुप चैटिंग या टैली कॉन्फ्रेंसिंग जैसी तकनीकों के माध्यम से समूह चर्चाएँ आयोजित होंगी।

व्यवस्थित प्रशिक्षण कक्ष और समुचित स्रोत व्यक्तियों के अभाव में कई बार एक कक्ष में 100शिक्षकों को सेवाकालीन प्रशिक्षण दिया जाता है। मौजूदा हालात में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए प्रशिक्षण आयोजित किया जाना लगभग असंभव है। भविष्य में शायद विडियो कांफ्रेसिंग के माध्यम से शिक्षक प्रशिक्षण आयोजित करना पड़े।

अधिकांश शैक्षिक प्रक्रियाएँ ऑनलाइन होने का एक सकारात्मक पक्ष यह है कि इसके जरिए शिक्षा तंत्र में अधिक पारदर्शिता आ सकती है। व्याख्याताओं को अपने विषय के पढ़ाने के लिए अधिक रचनात्मक व नवाचारी होना पड़ेगा, ताकि वे लॉकडाउन जैसी स्थितियों में विद्यार्थी-शिक्षकों को सीखने में मदद कर सकें। इस दृष्टि से विद्यार्थी-शिक्षकों की अपेक्षाओं को पूरा कर पाना चुनौतिपूर्ण हो सकता है। शिक्षक-प्रशिक्षकों को इसके लिए अतिरिक्त तैयारी और परिश्रम करने की दरकार होगी।

प्रशासनिक कार्यों के लिए ज़िला स्तर पर ज़िला शिक्षा अधिकारी का कार्यालय होता है, जो उस ज़िले के प्रशासनिक कार्यों जैसे - डाटा कलेक्ट करना, उसका विश्लेषण करना, डाटा को राज्य स्तर पर भेजना, छात्रवृत्ति वितरण, शिक्षकों आदि के अवकाश संबंधी कार्य, वेतन संबंधी कार्य, राज्य स्तर से आने वाले आदेशों-निर्देशों को शालाओं तक पहुँचाना, आदि के लिए जिम्मेदार होता है। वर्तमान में इस संस्था के काफी कार्य ऑनलाइन ही किए जा रहे हैं। हो सकता है कि यह तंत्र अधिक विकेन्द्रित हो जाए। यानी राज्य से सीधे ब्लॉक या उससे भी नीचे संकुल या सीधे शाला स्तर पर ही सूचनाओं का आदान-प्रदान हो। ऐसे में ज़िला स्तर की यह इकाई शायद अप्रासंगिक हो जाएगी। ज़िला और उससे नीचे स्तर के की सभी इकाइयाँ और कर्मचारी, जिनमें शिक्षक भी शामिल हैं, वर्क फ्रॉम होम के युग में प्रवेश कर सकते हैं।

शिक्षातंत्र की बुनियादी इकाई है शाला। जो हालात अभी देश मे निर्मित हैं उन्हें देखकर नहीं लगता है कि अब तक शालाएँ जिस तरह से संचालित हो रही थीं, आगे भी उसी तरह से संचालित रह पाएँगी। विभिन्न विचारक इशारा करते हुए कह रहे हैं कि अक्सर लॉकडाउन या सोशल डिस्टेसिंग जैसे आपातकाल के दौरान जो व्यवस्थाएँ लागू होती हैं, वह दीर्धकालीन व स्थायी व्यवस्थाओं का रूप ले लेती हैं। समस्त स्कूली विद्यार्थियों के लिए लॉकडाउन के दौरान अधिकतर राज्यों में ऑनलाइन कक्षाएँ आयोजित की जा रही हैं। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा बच्चों की घर बैठे पढ़ाई के लिए ऑनलाईन एजुकेशन पोर्टल "पढ़ई तुहर दुआर ” का शुभारंभ यह कहते हुए किया गया है - "लॉकडाउन के साथ ही आने वाले समय में भी बच्चों की निरंतर पढ़ाई में यह कार्यक्रम बहुत उपयोगी साबित होगा।" इससे यह अंदेशा होता हैं यह व्यवस्था शायद लंबे समय तक बनी रहे। मुमकिन है कि रोज़ाना शाला जाकर पढ़ाई करने का दस्तूर ही खत्म हो जाए। आने वाली पीढ़ियाँ शायद इस बात पर हँसेंगी कि पहले के विद्यार्थी रोज़ाना स्कूल जाकर पढ़ाई करते थे।

प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के स्कूलों को लम्बे समय तक बन्द नहीं रखा जा सकता। इस स्तर के विद्यार्थियों को विडियो आदि के तरीके पढ़ाना, खास तौर पर ग्रमीण अंचलों में नामुमकिन है। शालाओं में विद्यार्थियों की बैठक व्यवस्था में भी सोशल डिस्टेंसिंग के लिहाज से परिवर्तन होगा। हम जानते हैं कि शासकीय शालाओं में सीमित संसाधन हैं एवं बुनियादी अधोसंरचना का नितान्त अभाव है। कई गाँवों में बिजली या मोबाइल नेटवर्क नहीं है। इसलिए सोचना होगा कि सोशल डिस्टेंसिंग के प्रावधानों को लागू करते हुए स्कूली शिक्षा स्वरूप क्या हो सकता है? विडियो कक्षाएँ और इस तरह की अन्य तकनीकों का उपयोग भी किस हद तक किया जा सकेगा? पोडकास्ट के रूप में किसी अज्ञात स्थान से किसी अज्ञात व्यक्ति की आवज़ सुनकर या स्क्रीन पर चलती-फिरती तस्वीरों के माध्यम से सीख पाना प्राथमिक कक्षाओं के विद्यार्थियों के लिए किस हद तक मुमकिन और लाज़मी है? अनुमान लगाना कठिन है कि शिक्षक के अभाव में सीखने की प्रक्रिया का प्राथमिक कक्षाओं के विद्यार्थियों के संज्ञानात्मक विकास पर क्या असर होगा?

माध्यमिक स्तर और उससे ऊपर की कक्षाओं में अभी हर विषय के लिए शालाओं में अलग-अलग शिक्षक होना अपेक्षित है। यदि ऑनलाइन कक्षाओं का चलन बढ़ता है. तो फिर तो शालाओं में शिक्षकों की आवश्यकता बेहद कम हो सकती है। एक शिक्षक का पोडकास्ट या विडियो-कक्षा संकुल या ज़िले से लेकर राज्य तक के सभी विद्यार्थी देख सकते हैं। अगर भाषा की दिक्कत न हो तो सारे देश या दुनिया के विद्यार्थियों तक उस एक शिक्षक की पहुँच हो सकती है। हाँ, विद्यार्थियों से चर्चा करने, उनकी समस्याओं को सुनने और फिर उनके समाधान, सुझाव आदि के लिए शायद कुछ व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ेगी। परंतु यह प्रबल संभावना है कि इस तरह की तकनीक आधारित व्यवस्थाएँ अनेक शिक्षकों को बेरोज़गार कर सकती हैं।

जब पढ़ाई ऑनलाइन होगी तो क्या शिक्षा विभाग पाठ्यपुस्तकों का प्रकाशन करेगा? पाठ्यपुस्तकों की छपाई और वितरण एक बड़़ा कारोबार है। वैसे भी शिक्षा विभाग के पोर्टल में सभी कक्षाओं के किताब ऑनलाइन उपलब्ध होती ही है। मोबाइल फोन, टैबलेट आदि पर चलने वाले एप, पोडकास्ट, विडियो, ऑलनाइन वर्कशीट आदि पाठ्यपुस्तकों की जगह ले लेंगे तो पाठ्यपुस्तकों का पुरा करोबार संकट में आ जाएगा। शिक्षा और तकनीक का यह मेल एक नए उद्योग को जन्म दे रहा है। एप आधिरित शिक्षण सामग्री के निर्माण और विपणन एक नया खड़ा उद्योग है।

विचारणीय है कि पढ़ने-पढ़ाने और सीखने-सिखाने के इन नए तौर-तरीकों का बच्चों के मानसिक एवं शारीरिक विकास पर क्या असर होगा? कंधे पर बाँह रखकर चलने वाले दोस्त अब एक-दूसरे से दूरी बनाकर चलेंगे। साथ घूमना, खेलना आदि गतिविधियाँ बच्चों शारीरिक-मानसिक विकास के लिए बेहद ज़रूरी हैं। बाल-मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चों का विकास अन्य बच्चों के साथ घुलने-मिलने से बेहतर होता है। अब अगर बच्चे एक-दूसरे के साथ मिलकर खेलने के बदले ऑनलाइन गेम खेलेंगे तो इससे उनका मानसिक विकास बाधित होने और यहाँ तक कि कुछ विकार हो जाने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता।

कुछ चीज़ें सकारात्मक हैं, जैसे बड़े निजी शिक्षण संस्थान भव्य अधोसंरचना में निवेश करके तगड़ी फीस बच्चों से वसूलते हैं। जब अधिकांश शैक्षिक गतिविधियाँ ऑनलाइन होंगी तो ये भव्य इमारतें शायद क्वारेंटाइन सेंटर बन जाएँगी। भारत की स्कूली शिक्षा व्यवस्था सामाजिक-आर्थिक वर्गों की तरह विभाजित और श्रेणीबद्ध है। कुछ निजी स्कूल बेहद महंगे हैं, जिनकी फीस लाखों रूपए है। कुछ मध्यम श्रेणी के स्कूल हैं, जिनकी फीस हज़ारों में है। कुछ गली-मोहल्ले के निजी स्कूल है, इनकी फीस तो कम होती है, लेकिन गुणवत्ता के विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। फिर शासकीय शालाओं की अलग श्रेणियाँ हैं, केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, एकलव्य एकल विद्यालय, उत्कृष्ठ विद्यालय और आम शासकीय शालाएँ। फिर इनके अलावा देश के कुछ हिस्सों में गैर-सरकारी संगठन या चैरीटेबल ट्रस्टों द्वारा चलाए जाने वाले स्कूल हैं, जो मुफ्त हैं या बहुत कम फीस लेते हैं। लेकिन इनका विस्तार और पहुँच सीमित है। तकनीक आधारित शिक्षण प्रक्रिया इस विभाजन को कम करेगी या और ज़्यादा बढ़ा देगी, यह देखना रोचक होगा।

जब सारी कक्षाएँ ऑनलाइन होंगी तो मुमकिन है कि महंगी फीस वहन न कर सकने वाले विद्यार्थी किसी भी स्कूल के शिक्षक की वीडियो कक्षा, पोडकास्ट या पठन सामग्री का इस्तेमाल करते हुए सीख सकते हैं। हो सकता है कि शिक्षक-स्कूल का रिश्ता ही बदल जाए और शिक्षक किसी स्कूल से बन्धे न रहें। इस रूप में शिक्षा सामग्री की पायरेसी की सम्भावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। यद्यपि हो सकता है कि यह चलन हमें स्कूली शिक्षा के लोकतांत्रीकरण की ओर ले जाए और विद्यार्थियों को अधिक स्वायत्त बनाए।

कुछ शालाओं में निम्न मानी जाने वाली जातियों से आने वाले के विद्यार्थियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता रहा है। हो सकता है कि अब वैसा व्यवहार उन विद्यार्थियों के साथ नहीं होगा। हालाँकि यह भी मुमकिन है कि कोरोना संक्रमित परिवार से आने वाले विद्यार्थियों को एक नई तरह की अस्पृश्यता या बहिष्करण का सामना करना पड़े।

कुछ बातें पर सोचने पर मज़बूर भी करती हैं, जैसे - ज़्यादातर सरकारी शालाओं में संसाधन सीमित होते हैं। सहायक शिक्षण सामग्री का एक ही किट का उपयोग सभी बच्चों द्वारा किया जाता है। तो क्या यह संभव है कि हर एक विद्यार्थी के किट उपयोग किए जाने के बाद उसे सेनिटाइज़ किया जाए और फिर दूसरा विद्यार्थी उसे उपयोग करे? या शायद शालाओं में विद्यार्थियों के साथ समूह गतिविधि करना बंद हो जाए। विद्यार्थियों द्वारा समूह में मिलकर कार्य करना सीखने-सीखाने की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण अंग है। शालाओं में होने वाले सांस्कृति कार्यक्रम, वार्षिक उत्सव, खेल प्रतियोगिताएँ भी क्या ऑनलाइन होंगी? एक-दूसरे के बात करना, एक-दूसरे के विचारों को सुनना, नेतृत्व, सहयोग की भावना, सभी का सम्मान, सबको अवसर देना आदि मूल्यों के विकास में इस तरह की सहभागी प्रक्रिया और सामूहिक अन्तर्क्रिया एक कारगर साधन है। सामाजिक अंतर्संबंधों और मानवीय स्पर्श का कोई विकल्प नहीं है। विद्यार्थियों के लिए शिक्षक द्वारा पीठ थपथपाना सिर्फ शाबासी देने की स्थूल प्रक्रिया नहीं, बल्कि उसकी कई भावनात्मक व मानवीय परतें हैं। क्या अब शिक्षक बच्चों की पीठ थपथपा पाएँगे? विद्यार्थी के सामाजिक-भावनात्मक विकास पर सामाजिक और मानवीय अंतर्क्रिया के अभाव का क्या असर हो सकता है? भावी विद्यार्थी कहीं एकाकी और स्वकेन्द्रीत न बन जाएँ?

विद्यार्थियों की अकादमिक क्षमताओं के आकलन के लिए क्या तरीके अपनाए जाएँगे? क्या अब भी विद्यार्थी उत्तर-पुस्तिका में उत्तर लिखकर परीक्षा देंगे? क्या शिक्षक अब उत्तर-पुस्तिकाओं को जाँचने का कार्य करेंगे? यदि कोरोना वायरस हमारे साथ लम्बे समय तक बना रहता है तो क्या शिक्षक प्रत्येक उत्तर-पुस्तिका को जाँचने से पूर्व सेनिटाइज़ करेगें? क्या व्यवहारिक रूप से यह संभव है? शायद हमें मौखिक और ऑनलाइन परीक्षा पद्धति की ओर जाना पड़े।

सरकारी शालाओं में शौचालयों की स्थिति आम तौर पर बदतर होती है। देखा गया कि वहाँ न तो नियमित सफाई हो पाती है और नहीं इसकी ज़रूरत समझी जाती है। समुचित स्टाफ और संसाधनों की कमी इसकी एक प्रमुख वजह है। आजकल हर जगह को सेनिटाइज किया जा रहा है। ऐसे में मुमकिन है कि शालाओं में सफाई व्यवस्था दुरूस्त हो जाए।

शासकीय शालाओं में मिलने वाला मध्यान्ह भोजन गरीब परिवारों से आने वाले बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य के बीच एक सेतू की तरह है। कोराना महामारी के दौर में इस व्यवस्था पर भी संकट के बादल मंडरा सकते हैं। शालाओं में सीमित संसाधन एवं सीमित स्थान के चलते किस प्रकार सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए भोजन बनाना और विद्यार्थियों को खिलाना लगभग नामुनकिन है। यदि यह व्यवस्था बंद होती है तो बच्चों में कुपोषण और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ बढ़ना मुमकिन है। हो सकता है कि अभिभावकों की गरीबी बच्चों की पढ़ाई छुड़ाकर उन्हें कमाई पर लगा दें। यह भी संभव है कि सालभर का राशन अभिभावकों को दे दिया जाए। यदि ऐसा होता है तो विद्यार्थियों की शाला में उपस्थिति कम हो सकती है। पोषण आहार का बच्चों तक पहुँच पाना और उसकी निगरानी करना सम्भव नहीं है।

विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा के लिए प्रशासनिक और अकादिमक स्तर पर अलग ही कवायद करनी होती है। सोशल डिस्टेंसिंग से होने वाले बदलावों के बीच विशेष आवश्यता वाले बच्चों को स्कूली शिक्षा में कैसे समाविष्ट किया जाएगा, यह एक बड़ा प्रश्न है।

बहुत से और भी सवाल हैं जिनका कोई स्पष्ट जवाब अभी नज़र नहीं आ रहा है। शायद आने वाला समय ही इसका उत्तर देगा। परंतु यह तय है कि आने वाला समय स्कूली शिक्षातंत्र के लिए काफी चुनौतिपुर्ण होने वाला है। डिजिटल शिक्षा क्रांति क्या मानवीय मूल्य और भावनाएँ हमारे विद्यार्थियों मे पोषित कर पाएगी? कहीं हम आभासी संसार के लिए मानव-रोबोट तो तैयार नहीं करने जा रहे? बहरहाल इन सारी संभावनाओं के बावजूद कोरोना का दौर को हमें शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ और व्यापक करने के एक अवसर के रूप में देखना चाहिए।

 

 

 

 

       

 

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