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विकृत मानसिकता का महिमामंडन है फिल्म कबीर

विकृत मानसिकता का महिमामंडन है फिल्म कबीर

हरिओम राजोरिया

कबीर सिंह फ़िल्म देखी. फ़िल्म में तीन चरणों में चलने वाली पिटी-पिटाई प्रेम कहानी है । पहले चरण में प्रेमी-प्रेमिका मिलते हैं , दूसरे चरण में अलग हो जाते हैं और तीसरे और अंतिम चरण में फिर से मिल जाते हैं. इस तरह फ़िल्म का सुखद अंत होता है । पर फ़िल्म का ट्रीटमेन्ट पूर्ववर्ती प्रेम कहानियों पर एकाग्र हिंदी फिल्मों से बहुत भिन्न है . फ़िल्म का नायक कबीर सिंह ( शाहिद कपूर ) पढ़ने में तो तेज है पर अहंकारी , नशेड़ी , स्वार्थी , संवेदनहीन , मुंहफट , गुस्सैल, व्यभिचारी और इच्छाचारी है । पूरी फ़िल्म में वह अपने उन मित्रो को अपमानित करता रहता है जो हमेशा उसकी हर टुच्ची और फूहड़ हरकतों का समर्थन करते हैं और ज़्यादातर झूठी लड़ाइयों में उसके पक्ष में खड़े रहते हैं । फ़िल्म में एक लंपट व्यक्ति के अतिरंजित चरित्र गठन की निर्मिति बड़ी चालाकी और धूर्तता के साथ की गई है । फ़िल्म में फूहड़ताओं और मूर्खताओं का क्रमिक विकास दिखाया गया है । फ़िल्म की मुख्य स्त्री पात्र जड़ और गतिहीन है , जो संरक्षण प्राप्ति की काल्पनिक ज़रूरत के चलते अकारण ही एक कुंठित व्यक्ति ( फ़िल्म का नायक ) से प्रेम करने लगती है ।

यह फ़िल्म अनेक स्तरों पर स्त्रियों , प्रेमियों , मानवीय व्यक्तियों , छात्रों , खिलाड़ियों , डॉक्टरों , घरेलू महिला श्रमिको आदि को अपमानित करती है । फ़िल्म में शाहिद कपूर जिस लड़की से प्यार करता है उस लड़की को लड़कियों के हास्टल से उठाकर लड़कों के हॉस्टल में ले आता है और इस दरम्यान उस लड़की से 400 से ज़्यादा बार संभोग करता है (नायक स्वयं इन आंकड़ों का उल्लेख फ़िल्म में करता है ) । कॉलेज प्रशासन उसकी इन अनुशासनहीनताओं पर बिलकुल ध्यान नहीं देता , फ़िल्म में चिकित्सा शिक्षा का तबीयत से मजाक बनाया गया है । नायक के टॉपर होने का उल्लेख फ़िल्म में बार बार किया जाता है , क्योंकि फ़िल्म में नायक के होशियार होने की ओट में उसकी तमाम अराजकताओं को छुपाया जा सके । मेडिकल कॉलेज की किसी भी कक्षा में वह बेझिझक घुस जाता है और मूर्खतापूर्ण हरकतें करता है । फ़िल्म का नायक दादी , पिता , मां , भाई , होने वाले ससुर , सास , साला , साली और सहपाठियों का भावनात्मक स्तर पर अपमान तो करता ही है और अपनी उन स्थापनाओं और मूल्यों के लिये मुंहफट संवाद करता है जिन मूल्यों लिए उसने फ़िल्म में कोई आत्म संघर्ष नहीं किया । इस तरह फ़िल्म उथली और इकहरी है । फ़िल्म का मुख्य स्वर स्त्री और मनुष्य विरोधी है । अपने समय के आधुनिक और क्रांतिकारी कवि कबीर के नाम से बनाई गई यह फ़िल्म बीमार और विकृत मानसिकता का महिमामण्डन अतिरिक्त चालाकी के साथ करती है । इस तरह की फिल्मों की अकेली आलोचना करने से काम नहीं चलेगा । हमारी भी जवाबदेही है कि इन फिल्मों के माध्यम से फैलाई जा रही अपसंस्कृति की पहचान करें और इसका प्रतिरोध करें । इस तरह की फिल्में आज हमारे संसार में उसी रास्ते से प्रवेश कर रही हैं जहां से हिंसा और मनुष्य विरोधी राजनीति की विचारधारा ने प्रवेश किया है ।

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