फिल्म

हे समीक्षकों... हम दर्शकों से भी तो पूछ लीजिए कि कैसी लगी चमन-बहार

हे समीक्षकों... हम दर्शकों से भी तो पूछ लीजिए कि कैसी लगी चमन-बहार

सत्यप्रकाश सिंह

ये तो अपने कांकेर जैसा है यार...जब आपके और हमारे लबों पर ऐसी कोई बात किसी फिल्म को या किसी स्टोरी को पढ़ते- पढते मचल जाये तो समझ लीजिये रचनाकार का पसीना मोती में तब्दील हो रहा है. 

मै बात कर रहा हूँ चमनबहार फिल्म की जिसने मुझे तारूण्य की स्मृतियों के उन लम्हातों  से जोड़ दिया जहाँ कस्बाई जीवन की भावनाएं इसी प्रकार जीवन्त होती है जो परदे पर उतारी गई  है !

मैं एक आम दर्शक हूं

हम पूरी फैमिली के साथ ही कोई मूवी देखते है और जब गृहस्वामिनी ने कहा कि नेटफ्लिक्स पर छत्तीसगढ़ के एक लड़के की मूवी देखनी है तो मेरा पहले मेरा साहस डगमगा गया.दरअसल आजकल नेटफ्लिक्स हो या अमेज़न इन पर सस्ती उत्तेजना का नशीला बाज़ार सजा हुआ है.  बहरहाल बात जब छत्तीसगढ़ की हो तो सारा परिवार था स्क्रीन के सामने था. फिल्म के प्रारंभ होते ही मै उसकी सहजता से जुड़ता चला गया. एक आम दर्शक चाहता है कि स्वस्थ मनोरंजन हो. यही इस फिल्म की बुनियाद है.एक साधारण सी कहानी कैसे असाधारण बन जाती है. यह मुझे चमनबहार में नजर आया. सच कहूं तो मुझे बेहद खुशी हुई अपनी माटी की इस अशेष प्रतिभा के लिए जिसनें मुट्ठी भर लाई को जीवन की सहजताओं के साथ पिरों कर आसमां में बिखेर दिया है.

अप्रतिम अपूर्व ! 

आंचलिकता के नाम पर यहां की छत्तीसगढ़ी फिल्मों में जो फूहड़ता चल रही है अपूर्व ने उस फूहड़ता से अपनी फिल्म के कथानक को बचाकर रखा है.फिल्म को जब हम देखने बैठते है तो ऐसा नहीं कि इसमें कमी नहीं दिखती मगर खूबियां इतनी है कि कमियां नजरअंदाज हो जाती है और वह भी तब  जब निर्देशक की यह प्रथम फिल्म हो. कम से कम संवाद में मुखर संसार का सृजन इस फिल्म की एक ख़ास विशेषता भी है. ग़ौरतलब है नायिका का एक भी संवाद ना होना इस फ़िल्म की सबसे बड़ी खूबसूरती है.दरअसल निर्देशक ने नायिका की भाव-भंगिमाओं और उसके चेहरे के एक्सप्रेशन को ही संवाद का सेतु बना दिया है. फिल्म के नायक ने अपने कसे हुए अभिनय के साथ कस्बों में या कह ले शहरों के गली-मुहल्लों के उस किरदार को जिंदा कर दिया है जिससे हम और आप अक्सर मिलते रहते है.  इस फिल्म से एक बड़ा दर्शक इसलिए भी जुड़ रहा है क्योंकि ज्यादातर लोगों ने यह यथार्थ भोगा है.

फ़िल्म को लेकर समीक्षकों के बीच बहस का दौर जारी है. कोई आदर्शवाद की दुहाई दे रहा है कोई पितृसत्ता का परचम लहरा रहा है और कोई बस अपने नज़रिए की बात कर रहा है. एक बार जनाब हम दर्शकों से भी तो पूछ लीजिए हमें यह फिल्म क्यों अच्छी लग रही है.क्या चमनबहार की कहानी मेरे और आपके समाज में रोज घटने वाली सच्ची कहानी नही है? कौन इस कहानी को बढ़ावा देना चाहेगा मगर इस सच को छत्तीसगढ़ के अपूर्वधर ने जिन बारीक़ियों के साथ परदे पर उकेरा है वो अद्भुत है. हम सबके लिए गर्व की बात है कि छत्तीसगढ़ के इस युवा को आज पूरे देश में उसकी इस फिल्म के लिए सम्मान मिल रहा है और उसके काम पर बाते हो रही है. हबीब साहब की माटी  पर अपूर्व का यह आगाज़ नयी इबादत रचेगा यह तो तय है.

अगर मेरी तरह आप भी उनचास के है और बीस-तीस बरस पुराने दिनों को एकबार फ़िर से जीना चाहते है तो चमनबहार हाज़िर है. अगर आप जीना नहीं जानते. जीना नहीं चाहते तो सड़ते रहिए. मरते रहिए. मरने से कौन रोकता है.

 

 

 

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