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फिज़ा में घोल दिया गया था नफरत का जहर... अगर आप दोस्ती...भाई-चारे और मोहब्बत के झोंके से गुजरना चाहते हैं तो जाकर देख आइए राजामौली की फिल्म आरआरआर

फिज़ा में घोल दिया गया था नफरत का जहर... अगर आप दोस्ती...भाई-चारे और मोहब्बत के झोंके से गुजरना चाहते हैं तो जाकर देख आइए राजामौली की फिल्म आरआरआर

राजामौली की फिल्म आरआरआर कमाई के सारे रिकॉर्ड तोड़ रही है. इस फिल्म ने अपने प्रदर्शन के पहले ही दिन में वह कमाई कर ली जिसे छू पाना किसी भी दूसरी फिल्म के लिए थोड़ा मुश्किल हो सकता है. मीडिया की खबरों पर भरोसा करें तो फिल्म ने पहले ही दिन में पांच सौ करोड़ के आसपास का कलेक्शन कर लिया है. सत्तर और अस्सी के दशक में लोगों के भीतर  फिल्मों को लेकर जो क्रेज देखने को मिलता था कमोबेश वहीं क्रेज इस फिल्म को लेकर भी देखने को मिल रहा हैं. यह फिल्म सिंगल थियेटर और मॉल में जहां- जहां भी लगी हैं वहां नौ बजे सुबह का पहला शो भी हाउसफुल जा रहा है और रात का आखिरी शो भी. लोग रात को तीन बजे भी फिल्म देखकर अपने घर लौट रहे हैं.

आखिर ऐसा क्या है इस फिल्म में जिसके चलते थियेटर में भारी भीड़ उमड़ रही हैं. दरअसल यह फिल्म साधारण सी कहानी पर बनी आसाधारण फिल्म हैं. यह फिल्म तकनीक की दृष्टि से समृद्ध तो हैं ही...यह हिन्दुस्तान के भविष्य का सिनेमा भी हैं.

इस फिल्म की सबसे खास बात यह हैं कि इसमें कश्मीर फाइल्स की तरह एक कौम विशेष के लिए नफरत नहीं परोसी गई हैं. इस फिल्म में  हिन्दू चेहरे हैं तो सिक्ख, मुसलमान और दलित का चेहरा भी दिखाई देता है. इस फिल्म का एक पात्र राम है तो दूसरा महाभारत का भीम हैं. यहीं भीम अख्तर बनकर एक मुसलमान परिवार के यहां शरण लेता हैं और वह परिवार उसके क्रांतिकारी मसूंबों को पूरा करने में सहयोग करता है. फिल्म का एक नायक राम जब अंत में राम बनकर अंग्रेजों पर बाण चलाता है तो दर्शक भौचक होकर देखते रह जाता है. दर्शक के भीतर से आवाज़ आती हैं- इस देश में भी एक न एक रोज चमत्कार होगा. कोई न कोई राम बनकर लौटेंगा और देश को बरबाद करने वाले काले अंग्रेजों को अपने नुकीले बाणों से भेद डालेगा.

राजामौली एक ऐसे फिल्मकार हैं जिनके पास देश के इतिहास, भूगोल, पुरातत्व, धर्म और संस्कृति को समझने की एक अलग दृष्टि विद्यमान हैं. अपनी इसी दृष्टि के चलते वे अपनी हर फिल्म में कला का ऐसा तड़का लगाते हैं कि दर्शक वाह-वाह करने लगता है. अपनी इस फिल्म में उन्होंने ब्रिटिशकाल के दो स्वतंत्रता सेनानी अल्लूरी सीतारामा राजू और कोमाराम भीम की युवा दिनों की कहानी को अपनी रचनात्मकता से जानदार और शानदार बना दिया है. कैनवास पर नए ब्रश के साथ उन्होंने जो कुछ भी चित्रित किया है उसमें वीरता, ऊर्जा और धैर्य का विराट स्वरूप देखने को मिलता है. वे पहले भी अपनी कई फिल्मों में असंभव से लगने वाले दृश्यों को संभव बना चुके हैं इसलिए उनका हर पात्र अविश्वसनीय होते हुए विश्वसनीय लगने लगता है. इस फिल्म में भी उन्होंने असंभव से दिखने वाले कई दृश्य को अपनी कल्पनाशीलता से संभव बना दिया है. निर्देशक ने एक-एक फ्रेम पर काम किया है. क्या लाइट... क्या बैकग्राउंड म्यूजिक, क्या वेशभूषा और क्या लोकेशन. कोई ऐसा पक्ष नहीं है जो मजबूत नहीं हैं. एक-एक फ्रेम पर मेहनत दिखाई देती है.

फिल्म आरआरआर में ऐसे कई दृश्य मौजूद हैं जिसके चलते आप दांतों तले ऊंगली दबा लेते हैं. फिल्म में शेर हैं. अंग्रेज हैं.तीर है.भाला है. गोला-बारूद है तो बंदूक भी हैं. फिल्म में बघ्घी भी हैं तो अंग्रेजों के जमाने में चलने वाली मोटरसाइकिल भी है. क्रांति की मशाल और आग के जोरदार दृश्यों के साथ जबरदस्त घुड़सवारी भी है. प्यार, मोहब्बत, दोस्ती और भाई-चारे का संदेश तो हैं ही.

इस फिल्म को देखने के लिए किसी भी भक्त को चौक-चौराहे पर पोस्टर चिपकाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी. इस फिल्म के लिए किसी भी उन्मादी को हॉल बुक करके फ्री में टिकट बांटने की भी जरूरत नहीं है. फिल्म को हर वर्ग का दर्शक स्वस्फूर्त ढंग से थियेटर जाकर देख रहा है. हॉल में सीटियां बज रही हैं. लोग-बाग सीट से खड़े होकर जोरदार तालियां बजा रहे हैं. फिल्म को देखने के दौरान हर दर्शक अपने भीतर एक सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव कर रहा है. किसी को भी नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे जैसी प्रार्थना गाने की आवश्यकता नहीं पड़ रही है और ना ही जोर-जोर से जय-जय श्री राम का नारा लगाने की. उन्मादी भक्तों और तथाकथित राष्ट्रवादियों के लिए यह बुरी खबर है कि आरआरआर ने महज एक दिन में ही कश्मीर फाइल्स का डिब्बा गुल कर दिया है. आरआरआर को मिल रही बेतहाशा कामयाबी के बाद नफरती  चिंटू कह रहे हैं कि कश्मीर फाइल्स के बजट और आरआरआर के बजट में बहुत फर्क हैं. ऐसे चिन्टुओं के लिए एक ही जवाब है कि फिल्म शोले के समय प्रदर्शित हुई जय संतोषी मां भी दस-बीस लाख में बनी थीं. इस फिल्म ने भी कमाई का रिकार्ड तोड़ डाला था. कश्मीर फाइल्स ने भले ही बिजनेस कर लिया है, लेकिन देर-सबेर यह फिल्म इतिहास के कूड़ेदान में ही फेंकी जाने वाली है.

यह देश सबका है. इसलिए सबके लिए फिल्म बनाई जानी चाहिए. यदि किसी एक वर्ग के लिए भी फिल्म बनती हैं तो कम से कम उस फिल्म से नफरत और शत्रुता को बढ़ावा नहीं मिलना चाहिए. सच तो यह है कि नफरती चिन्टुओं के लिए फिल्म बनाकर खुद को देश का महान फिल्मकार समझने वाले अग्निहोत्री को भी आरआरआर जैसी फिल्म बनाने के लिए सात जन्म लेने पड़ेंगे. वे जितनी बार भी जन्म लेंगे उतनी बार उनकी खराब नीयत उन्हें कामयाब होने से रोक देगी.

जो लोग भी सिनेमा और कला से मोहब्बत करते हैं उन्हें राजामौली की आरआरआर जल्द से जल्द देख लेनी चाहिए. क्योंकि यह फिल्म ऐसी हैं कि जो कोई भी देख रहा है वह इसकी कहानी सुनाने लगता है. दृश्यों की भव्यता और उसके फिल्मांकन के बारे में बात करने लगता है. इस फिल्म को देखकर जो भी दर्शक बाहर निकल रहा है वह कह रहा है- यार...काम हो तो ऐसा.भई वाह... क्या बात है.

राजकुमार सोनी

9826895207

 

 

 

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