फिल्म

मनु भंडारी की रजनीगंधा

मनु भंडारी की रजनीगंधा

पहले रजनीगंधा फिल्म देखी थी, बाद में बीए हिंदी के पाठ्यक्रम में यही सच है नाम की कहानी पढ़ी. मेरे लिए दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है.खुले आसमान के नीचे बहती हवा सी हैं ये दोनों कृतियां. निःसंदेह इसके पीछे कहीं मन्नू भंडारी हैं.सत्तर के दशक में जब सिनेमा पर एंग्री यंग मैन का राज था, एक ऐसी फिल्म देखना जो पूरी कहानी को एक स्त्री की निगाह से कहती है, जिसे आज हम कहते द गेज़ ऑफ अ वुमन बिल्कुल अलग अनुभव रहा होगा. सिर्फ इतना ही नहीं उस स्त्री के चित्रण में जो ईमानदारी है, वह तो आज भी दुर्लभ है. उसकी दुविधा, उसका भय और उस स्त्री का अनुराग... सब कुछ कितना तटस्थ और सहज है फिल्म में.

नायिका दीपा (विद्या सिन्हा) के अवचेतन में छुपे एक डर से यह फिल्म आरंभ होती है, एक स्वप्न से... अकेले रह जाने, कहीं छूट जाने का भय. कहानी में ऐसा कोई प्रसंग नहीं है. मगर जब फिल्म स्वप्न से शुरू होती है तो दर्शक की यात्रा भी भीतर से बाहर की ओर होती है.नायिका की निगाह अहम हो जाती है.उसी निगाह से हम उसके जीवन में आए पुरुषों को भी देखते हैं. हिंदी सिनेमा की बहुत बोल्ड या रैडिकल फेमिनिस्ट फिल्मों में भी स्त्री को इतना सहज और स्पष्ट नहीं दिखाया गया है.संगम जैसी फिल्म में दो नायक यह तय करना चाहते हैं कि नायिका किससे प्रेम करे, रजनीगंधा में यह फैसला नायिका पर छोड़ दिया गया है.उसके सामने दोनों ही राहें खुली हुई हैं. अभी उसके जीवन में शामिल संजय (अमोल पालेकर) लापरवाह है. उसकी छोटी-छोटी चीजों की परवाह वैसे नहीं करता जैसे कि कभी नवीन (दिनेश ठाकुर) करता था. जब कलकत्ता जाने पर दीपा की दोबारा नवीन (मूल कथा में यह नाम निशीथ है) से मुलाकात होती है तो पुरानी स्मृतियां उसे घेरने लगती हैं. इस दौरान बड़े खूबसूरत से प्रसंग हैं. खास तौर पर यह गीत दोबारा मिलने के इस प्रसंग को विस्तार देता है- कई बार यूँ ही देखा है, ये जो मन की सीमा रेखा है. दिनेश ठाकुर इस रोल में खूब जंचे हैं. लंबे बाल, आंखों में काला चश्मा, होठों में दबी सिगरेट.एक छोटे से फासले के बीच तैरती विद्या सिन्हा की निगाहें बहुत कुछ कह जाती हैं. हर बार उनके देखने में कुछ ऐसा है जैसे कि वह पुराने नीशीथ को तलाश रही हों.

यही सच है में दो शहरों का बार-बार जिक्र आता है, जैसे वह नायिका के बंटे हए मन को परिभाषित कर रहा हो, तो वहीं बासु चटर्जी ने रजनीगंधा में समय, शारीरिक दूरियों और शहर के बीच दूरियों के फासलों से कविता रच दी है. कहानी में मन्नू कलकत्ता में निशीथ से मुलाकातों के प्रसंग को कुछ इस तरह लिखती हैं, विचित्र स्थिति मेरी हो रही थी. उसके इस अपनत्व-भरे व्यवहार को मैं स्वीकार भी नहीं कर पाती थी, नकार भी नहीं पाती थी. सारा दिन मैं उसके साथ घूमती रही; पर काम की बात के अतिरिक्त उसने एक भी बात नहीं की. मैंने कई बार चाहा कि संजय की बात बता दूं, पर बता नहीं सकी. दीपा के मन में सचमुच यह दुविधा है कि वह किसे प्रेम करती है? उसको अपने जीवन में किसे चुनना चाहिए? मन्नू लिखती हैं- ढलते सूरज की धूप निशीथ के बाएं गाल पर पड़ रही थी और सामने बैठा निशीथ इतने दिन बाद एक बार फिर मुझे बड़ा प्यारा-सा लगा. कलकत्ता से वापसी का कहानी में कुछ इस तरह जिक्र है, गाड़ी के गति पकड़ते ही वह हाथ को ज़रा-सा दबाकर छोड़ देता है। मेरी छलछलाई आंखें मुंद जाती हैं. मुझे लगता है, यह स्पर्श, यह सुख, यह क्षण ही सत्य है, बाक़ी सब झूठ है; अपने को भूलने का, भरमाने का, छलने का असफल प्रयास है. दीपा कलकत्ता से जब कानपुर लौटती है तो अकेली नहीं, अपने साथ थोड़ा सा कलकत्ता भी साथ लेकर आती है. दुविधा, दो फांक में बंटा हुआ मन. संजय से मुलाकात नहीं होती है क्योंकि वह कहीं बाहर गया हुआ है. एक दिन तार आता है कि उसकी नियुक्ति कलकत्ता में हो गई. निशीथ का एक छोटा सा खत भी आता है. लेकिन जब संजय लौटता है तो... मन्नू ने इसे बयान किया है- बस, मेरी बांहों की जकड़ कसती जाती है, कसती जाती है.रजनीगंधा की महक धीरे-धीरे मेरे तन-मन पर छा जाती है. तभी मैं अपने भाल पर संजय के अधरों का स्पर्श महसूस करती हूँ, और मुझे लगता है, यह स्पर्श, यह सुख, यह क्षण ही सत्य है, वह सब झूठ था, मिथ्या था, भ्रम था...

फिल्म देखते वक्त शब्दों की यही अनुभूति एक गुनगुनाती हुई धुन में बदल जाती है. रजनीगंधा फूल तुम्हारे, महके यूँ ही जीवन में...यूँ ही महके प्रीत पिया की, मेरे अनुरागी मन में. सत्तर के दशक में विद्या सिन्हा ने जिस तरह का किरदार निभाया था, वह अपने-आप में अनूठा था.एक स्वतंत्र, आत्मनिर्भर स्त्री. उसके परिचय के लिए किसी पुरुष की दरकार नहीं थी. न हम उसके घर-परिवार के बारे में जानते हैं, न कोई अन्य रिश्ता. बस, वह शहर में एक किराए के मकान में रहती है. उसमें अपने करियर और जीवन के प्रति एक आश्वस्ति है. उसके अपने भय हैं, अपनी दुविधाएं हैं, उसका अपना अधूरापन है.वह परफेक्ट होने के बोझ से नहीं दबी है. फिल्म देखते समय, जीवन में आए दो पुरुषों के बीच आवाजाही करते उसके मन के प्रति हम जजमेंटल नहीं होते. उसे तो खुद नहीं पता है कि कौन सही है कौन गलत? मन्नू ने उसके मन पर नैतिकता का कोई बोझ नहीं रखा है. अंततः उसको ही अपना पुरुष चुनना है. मन्नू भंडारी ने इस कहानी के माध्यम से जो स्त्री रची है, वह इतनी ज्यादा सच है, इतनी साधारण है कि असाधारण बन गई है. राजेंद्र यादव ने स्त्री विमर्श में देह से मुक्ति की खूब बातें कीं, मगर कितनी रचनाओं में मन से मुक्त ऐसी स्त्रियां दिखती हैं? वापस फिल्म की तरफ लौटता हूँ तो योगेश का लिखा वह गीत याद आ जाता है, जो यही सच है कहानी की खुशबू को हम तक किसी हवा के झोंके की तरह पहुँचा जाता है. कई बार यूँ भी देखा है ये जो मन की सीमा रेखा है मन तोड़ने लगता है अनजानी प्यास के पीछे अनजानी आस के पीछे मन दौड़ने लगता है.

दिनेश श्रीनेत का लेख

ये भी पढ़ें...