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उजड़े चमन में नई बहार

उजड़े चमन में नई बहार

अंजन कुमार

हाल में ही मुझे अपूर्वधर बड़गैया के द्वारा निर्देशित फिल्म चमन बहार को देखने का अवसर मिला। कोई भी फिल्म अपने समय से अलग नहीं होती और समय से काटकर उसका मूल्यांकन भी नहीं  किया जा सकता हैं। इसलिए फिल्म पर बात करने से पहले थोड़ी-सी बात यदि वर्तमान संदर्भ पर कर ली जाए तो मुझे लगता है कि फिल्म को और भी बेतहर व नये ढंग से समझने के कुछ नए सूत्र मिल सकते हैं.

सबसे पहले हम अपने बाजारवाद से पनपे  उपभोक्तावादी संस्कृति की बात करते हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि बाजारवाद ने गांव और शहर के बीच एक गहरी खाई को जन्म दे रखा है. इसने साथ ही व्यक्ति के भीतर असंतोष की उस कुंठा को भी जो उसे कहीं न कहीं से हिंसक बनाती है. जब कोई बाजार आधारित जीवन के तमाम सुख-सुविधाओं से खुद को वंचित पाता है तो एक आधुनिक खूबसूरत लड़की से प्रेम की इच्छा उसके लिए स्वप्नमात्र बनकर रह जाती हैं। यह वंचित वर्ग आत्महीनता, घृणा, नफरत जैसी कुंठाओं से भरा हुआ है और असंतोष का जीवन जीने के लिए बाध्य है. इसी असंतोष के चलते स्त्रियों पर तथा दूसरे तरह के अपराध हो रहे हैं. उपभोक्तावादी संस्कृति ने मनुष्य को उपभोग की वस्तु या फिर उपभोक्ता पशु में तब्दील कर दिया हैं। मनुष्य के भीतर की संवेदना, संबंधों की गरिमा, प्रेम की कोमल भावना और सुंदरता जैसे महत्वपूर्ण जीवन मूल्यों को बुरी तरह विकृत कर दिया है। आजकल की अधिकतर फिल्में, वेब सीरिज इन्हीं विकृतियों का शिकार है और पैसा कमाने में लगी हुई है। इस तरह से यह समय कई तरह की विद्रूपताओं से भरा है।

 

मगर इस खौफनाक समय में जब हम चमन बहार से गुजरते हैं तो पाते हैं कि यह फिल्म सारी विकृतियों से बचते हुए और उसका बेहद सुंदर ढंग से प्रतिरोध करती हैं। इस फिल्म का नायक बिल्लू इसी प्रतिरोध का प्रतीक है। जो पढ़ा-लिखा होने के बावजूद बाजार के इन सारे प्रभावों से मुक्त एक स्वप्नजीवी पात्र हैं। जो फिल्म की नायिका को लगातार उन बाजारू नजरों से बचाने की कोशिश करता नजर आता है जो उसे एक आकर्षक वस्तु की तरह देखते है। बिल्लू इस समाज का वही वंचित वर्ग है जो किसी आधुनिक सुंदर लकड़ी से प्रेम करने का स्वप्न देखता है, लेकिन उन कुंठाओं से मुक्त है जो उसे हिंसक बना सकती थीं...क्योकि बिल्लू के जीवन में रिंकू उसके स्वप्न को साकार करने वाली एक आशा या उम्मीद की तरह आती हैं। इस बात को समझने के लिए फिल्म के एक दृश्य याद करना पड़ेगा। बिल्लू अपने ठेले पर माता लक्ष्मी की फोटो को टांगने के लिए कील ठोंक रहा होता है तब रिंकू अपनी गाड़ी से कुत्ते को लेकर उतरती है. बारिश होती है. फिल्म का पात्र सोमू डैडी बिल्लू से कहता है - ’’लड़की शुभ है तेरे लिए डैडी’’। फिर लक्ष्मी की तस्वीर की तरफ कैमरा घूमता है। बिल्लू की आंखों में अपने स्वप्न के पूरे होने की उम्म्मीद की चमक तैर जाती है। बिल्लू, रिंकू को अपने पहचान की आशा के रूप में देखता है और उससे मन ही मन प्यार करने लगता है। यह प्रेम बाजारू संस्कृति के दुष्प्रभाव से मुक्त बेहद स्वभाविक और कोमल भावों से युक्त प्रेम है। जिससे वंचित हो जाने का डर उसे लगातार उन छुटभैय्ये नेता शीला, आशु और अन्य आवारा लड़कों से बना रहता है। जिसे फिल्म बीच-बीच में चल रहे एक गाने - ‘भौरें ने खिलाया फूल, फूल को ले गया राजकुंवर’ के माध्यम से समझा जा सकता हैं। प्रेम भावनाओं के साथ कैसे राजनीतिक समझ को भी विकसित करता हैं। इसे बिल्लू के द्वारा अपने प्रतिद्वंद्वियों को रास्ते से हटाने की चालों से समझा जा सकता हैं। निम्न वर्ग का बिल्लू संभ्रात परिवार की रिंकू को प्रेमपत्र के रूप में ग्रिटिंग देना चाहता है, लेकिन उसकी गरीबी उसे कमजोर बनाती है तो वह गले में एक लॉकेट अपने आत्मविश्वास को बढ़ाने उद्देश्य से पहनता है। क्योंकि उसके जीवन ऐसा कुछ भी नहीं जो उसे आत्मविश्वास से भर सकें. जिसे बाद में उतारकर भी फेंक देता है। पुलिस के द्वारा पीटे जाने के बाद उसका प्रेम से भरा संवेदनशील हृदय अपनी आत्महीनता के और गहरे तल में जा गिरता हैं। पिता उसकी शादी कर देना चाहते है। वे कहते हैं - ‘‘एक स्त्री समाज से जोड़ती है। शादी कर लेगा तो समाज से फिर जुड़ जायेंगे’’  यह संवाद स्त्री के महत्व के साथ ही उनकी सामाजिक स्थिति व पीड़ा को भी उजागर करता है। इसी तरह साधु और उसके बीच का संवाद जहां साधु, बिल्लू से कहता है - ‘‘जीवन कुछ नहीं नदिया का पानी है, या तो खुद को नाव बना लें या धारा के साथ हो जाओ, उल्टा तैरेगा तो मारा जायेगा’’ यह कहते हुए साधु अपने प्रेम की विफलता अपनी प्रेमिका के बेवफा हो जाने को बताता हैं। जिसका जिक्र करते हुए साधु मर जाता है। बिल्लू  छाती पर उसकी प्रेमिका का नाम खुदा हुआ देखता है और फिर अपने हाथ को जिसमें रिंकू के नाम का पहला अक्षर आर खुदा रहता हैं। यहां साधु के प्रेम और अपने प्रेम की विफलता को वह एक साथ महसूस करता है...और वह रिंकू को बेवफा के रूप में प्रचारित करने के लिए पूरे गांव में जगह-जगह और नोट में लिख देता कि रिंकू बेवफा है। अपने इस कृत्य के कारण वह पुलिस की पिटाई भी खाता है। उसका पान ठेला पलट दिया जाता हैं। फिल्मकार ने इस दृश्य को बहुत अच्छे से फिल्माया है। उसे जेल में डाल दिया जाता है। जिस पर शीला भईया और उसकी मां आंटी जी राजनीति करने लगती हैं। रिंकू के पिता सारा कुछ हो जाने के बावजूद बिल्लू को थाने से छुड़ाते हैं। यह उनकी मानवीय संवेदना को दर्शाता है। थाने से राजनीतिक रैली निकाली जाती है। बिल्लू अपने घर से सीधा रिंकू के घर जाता है। जहां वह उसके घरवालों का व्यवहार और घर में लगी रिंकू और उसके परिवार की तस्वीरों को देखता हैं और अपने किए गलती पर आत्मग्लानि से भर जाता है। घर से निकलकर रास्ते भर वह खुद को चप्पल से मारता है और रोते हुए पश्चाताप करता है। यह दृश्य भी बेहद  ही संवेदनशील है। कुछ दिनों के बाद रिंकू के घरवाले गांव छोड़कर चले जाते है। बिल्लू अपने ठेले पर उदास बैठा रहता है। तेज हवा चलती वह उस खाली पड़े घर में जाता है, जहां उसे गुलाबी रंग का एक कागज हवा में लटका हुआ मिलता हैं। जिसके एक तरफ विज्ञान का कोई चित्र और दूसरी तरफ उसके पान ठेले में खडे़ होने की एक खास मुद्रा का चित्र बना होता हैं। जिससे रिंकू के भी प्रेम में होने का पता चलता है। कुछ दिन बाद फिर उस घर में एक नया परिवार उतरता है। एक स्कूटी ट्रक से उतारी जाती है। बिल्लू फिर अपनी उसी मुद्रा में खड़ा हुआ, उस घर की तरफ देखता रहता हैं।

 

फिल्म फिर एक उम्मीद की तरफ इशारा करते हुए खत्म हो जाती है। लेकिन दर्शक बिल्लू की इस उम्मीद को अपने साथ घर लेकर जाता है कि एक न एक दिन बिल्लू का जीवन संवर जाएगा. इस तरह यह फिल्म प्रेम को उसकी स्वभाविकता के साथ बहुत ही सुंदर व यथार्थ पूर्ण ढंग में प्रस्तुत करती है। जो प्रेम की कई सुंदर कहानियों और बेहतरीन फिल्मों की याद ताजा कर देती है। इसके साथ ही यह फिल्म स्त्री को एक उपभोग की वस्तु के रूप में देखे जाने वाली सामंती और बाजार की मानसिकता का प्रतिरोध भी करती है। इस फिल्म के सभी दृश्यों को कैमरे के माध्यम से बहुत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया हैं। फिल्म में सभी कलाकारों ने बहुत शानदार अभिनय किया है। इसके सारे संवाद रचनात्मक और रोचक है। फिल्म के गानों को भी एक नए ढंग से इस्तेमाल किया गया है उसकी अर्थवत्ता के साथ। फिल्म को इस तरह से बुना गया है कि दर्शक अंत तक इस फिल्म से अपना जुड़ाव बनाए रखता है। यह फिल्म एक क्षेत्र विशेष में फिल्माए जाने के बावजूद देश के हर हिस्से में मौजूद गांव-कस्बे की कहानी बन जाती हैं। इस फिल्म को क्षेत्र विशेष की सीमा में रखकर देखना उचित नहीं है. कुल मिलाकर यह फिल्म इस हिंसक और विद्रूप समय में प्रेम को, सुंदरता को, मानवीय संवेदनाओं को उसकी स्वभाविकता में पुर्नस्थापित करती एक खूबसूरत फिल्म है। जिसमें निर्देशन की एक नई दृष्टि देखने को मिलती जो इस फिल्म को अलग व महत्वपूर्ण बनाती है। यह फिल्म उजड़ते हुए चमन में एक नये बहार की शुरूआत है। संवेदनशील और समझदार दर्शकों को इस नए अनुभव से अवश्य गुजरना चाहिए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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