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चमन बहार: एक भयावह यथार्थ से परिचय

चमन बहार: एक भयावह यथार्थ से परिचय

हेमलता महिश्वर 

‘चमन बहार’ छत्तीसगढ़ के एक छोटे से कस्बेनुमा नगर की एक कहानी है जो जिला बन गया है। यहॉं का सारा समाज ग्रामीण परिवेश से शहरी परिवेश की ओर जाने को अग्रसर है। पर यह सोपान मूलत: भौतिक है। इसमें भावात्मकता तो है, भौतिक विकास की चाहत भी है पर वैचारिकता सिरे से नदारत है। 

यहॉं का युवा वर्ग इसी सपने में जी रहा है। वह सपने तो देख रहा है पर सपनों को पूरा करने के लिए उसके पास कोई दिशा-निर्देश नहीं है। ऐसी स्थिति में वह स्वत: जितना कुछ समझ पाता है, उतना ही करने के लिए न केवल प्रयासरत है बल्कि सन्नद्ध भी है। 

विवेच्य फ़िल्म के अनुसार छत्तीसगढ़ में यह युवा चार तरह का है -पहला तो वह जो निपट स्थानीय है, दूसरा वह जो बाहर से आया है और प्रभुत्व हासिल कर चुका है, तीसरा वह जो स्थानीय नेतागीरी में दाख़िला ले रहा है और चौथा वह जो इन दोनों के बीच तालमेल बिठाते हुए अपने पौ बारह करना चाहता है। सारी फ़िल्म इसी कथानक के इर्द-गिर्द बुनी गई है। 

फ़िल्म का नायक जो पहली तरह का युवा ‘बिल्लू’ है जो वन विभाग के चौकीदार पिता की तरह जीवन नहीं जीना चाहता। वह स्वप्नदर्शी है। वह सरकारी नौकरी करते हुए जीवन बीताना नहीं, जीवन जीना चाहता है इसलिए जंगल का सुरक्षाकर्मी बनने के बजाय अपनी दुकान खोलना चाहता है। चूँकि मुँगेली को शहर में तब्दील करने की योजना है, सो वह संभावित हाइवे पर एक पान की दुकान खोलता है। यह जगह उसे अचानक ही सस्ते में मिल जाती है। पर इस जगह की बहार उजाड़ में बदल जाती है और ग्राहक न मिलने के कारण वह मक्खी मारता, उंघता हुआ ट्रांजिस्टर सुनता है। जगह ऐसी बियाबान है कि ट्रांजिस्टर की फ़्रीक्वेंसी तक मैच नहीं करती। इस समय चौथी तरह के दो युवक उसके पास आते हैं और उसे सूचना देते हैं कि तुम्हें यह जगह सस्ते में बेचकर जानेवाला अपना मुनाफ़ा कमा गया। अब यहॉं हाइवे नहीं बनेगा और तुम्हारी दुकान पर कोई ग्राहक नहीं आएगा। इतनी सूचना देकर वे बिल्लू की दुकान से बिना पैसे दिए गुटका आदि ले लेते हैं और बिल्लू के पैसे माँगने पर उसे उल्टे धमका भी देते हैं। अब बिल्लू की चिंता शुरू होती है। एकाएक वह समझ नहीं पाता कि उसे करना क्या चाहिए। अगले दिन से वह फिर से दुकान में जाकर के बैठ जाता है। घूरे के दिन फिरते हैं - बिल्लू के दिन भी फिरने का अवसर आया। सड़क के दूसरी तरफ़ एकमात्र खड़े डुप्लेक्स मकान का रंग-रोगन होना आरंभ होता है। एक दिन वह देखता है कि एक परिवार उसकी दुकान के ठीक सामने सड़क पार बने इसी एकमात्र भवन में आकर उसे गुलज़ार करता है। 

अचानक बारिश होती है जो इस बात का संकेत है कि उजाड़-बियाबान हरियाली में परिवर्तित होनेवाला है। सामानवाले ट्रक के पीछे एक कार आती है जिसमें से उस परिवार के सदस्य उतरते हैं। अचानक बारिश अच्छी तेज होती है और उस तेज बारिश में ही एक लड़की अपने कुत्ते के साथ उतरती है और दौड़कर मकान के भीतर चली जाती है। तेज बारिश के साथ लड़की का देखना एक फैंटेसी क्रिएट करता है, एक संकेत देता है। निर्देशक यहॉं पर पौराणिक कथा का आधार लेने से बिलकुल नहीं चूकता। ठीक इस समय यही बिल्लू अपनी दुकान में लक्ष्मी का फ़ोटो टाँगने के लिए कील ठोंकता भी है और सामने की तरफ़ देखता भी है जिससे हथौड़ी से उसे चोट लग जाती है। इसी समय चौथे नंबर के दो युवक है उससे कहते हैं कि लक्ष्मी आ गई है, लड़की आ गई है, अब दुकान चलेगी। इस तरह से निर्देशक जनता में निर्मित भाववाद को हरियाने में सफल हो जाता है। ये दोनों लड़के शहर के दूसरे और तीसरी श्रेणी के युवकों को बिल्लू की दुकान तक लाने के तरह-तरह के जतन करते हैं। बिल्लू की दुकान चल पड़ती है। 

निर्देशक युवकों में लहलहाती पितृसत्तात्मक मानसिकता की उपस्थिति दर्ज़ करने लगता है।  लड़की जो स्कूल गोइंग है, वह सारे शहर के युवा वर्ग का आई-टॉनिक बन जाती है। स्कूल गोइंग  लड़के हों या शहर के युवा नेता या शहर का युवा व्यवसायी कोई भी। कोई भी लड़का उस लड़की की झलक पाने के लिए, उसको अपना बताने के लिए इस पान की दुकान तक आता है और उस लड़की को अपना बताने का प्रयास करता है। ये लड़के साइकिल, पैदल, जीप या मोटरसाइकिल आदि जो हर तरह के वर्ग के संबंधित हैं, पान की दुकान पर अड्डेबाज़ी करने लगते हैं। यह युवा वर्ग इस बात की चिंता ही नहीं करता कि लड़की क्या चाहती है। लड़की और लड़की का परिवार बहुत ही पॉलिश्ड है और अड्डेबाज़ी करते युवकों के समूह में लड़की और लड़की के परिवार से मैच करता कुछ भी नहीं है। न रहन-सहन, न बोली-भाषा, न मानसिकता, पान चबाते, सिगरेट-शराब पीते, मॉं-बहन एक करते हर तरह के लड़के उस लड़की को पाने का ख़्वाब लिए पान की दुकान पर मंडराने लगे। चौथी श्रेणी के दो युवकों ने पूरे शहर के प्रभावशाली युवकों को बिल्लू की दुकान की ओर भेज दिया। इन दोनों लड़कों की लफुटई को इससे स्थायित्व प्राप्त हो रहा था। एक नेता और एक व्यवसायी को आपस में भिड़ाकर इनका उल्लू सीधा होने लगा था। ऐसा नहीं है कि यह बिल्लू नहीं समझ रहा था। बिल्लू की दुकान अच्छी चलने लगी। चौथी श्रेणी के युवकों ने दुकान के बाजू में कैरम बोर्ड भी रखवा दिया। सिगरेट, गुटका, कोल्डड्रिंक के अलावा प्रभावशाली लड़के शराब लेकर वहॉं जम जाते। बिल्लू को यह पसंद नहीं आ रहा था। एक बार लड़की उसकी तरफ़ देखकर मुस्कुराई थी क्योंकि एक आवारा कुत्ते से बिल्लू ने लड़की के कुत्ते को बचाया था। बिल्लू ने  लड़की के एक सहज मानवीय शिष्टाचार का ग़लत मतलब निकाला जो पुरुष मानसिकता ‘लड़की हँसी तो फँसी’ का द्योतक है। 

लड़की की इच्छा हो या न हो, इसे जाने बग़ैर लड़के उसके आस-पास मंडराने लगते हैं। यह जिला मुंगेली की ही नहीं, पूरे भारत की ही दशा है। लड़की का यह परिवार मिडिल क्लास परिवार है। इस परिवार की यह लड़की स्कूल जाती है, स्कूटी चलाती है और अपने कुत्ते को लेकर घुमाने जाती है। कुल मिलाकर यह लड़की अपने घर से तीन बार ही निकलती है। बिल्लू यह नोटिस लेता है कि लड़की अपनी स्कूटी से पहले अपने छोटे भाई को स्कूल छोड़ने जाती है। दूसरी बार वो निकलती है तो स्कूटी से अपने स्कूल जाती है और तीसरी बार शाम को वो अपने कुत्ते को बाहर पैदल घुमाने ले जाती है। इस ताज़ा-ताज़ा जिला बने शहर में किसी लड़की का स्कूटी चलाना एक बड़ा आश्चर्य है, दूसरे लड़की का लंबे खुले सीधे बाल रखना बहुत बड़ा आश्चर्य है, तीसरा जो क़हर बरपाता हुआ आश्चर्य हैं कि लड़की शॉर्ट्स पहनती है और कुत्ते को घुमाने ले जाती है, फिर चौथी परेशानी यह है कि लड़की किसी की तरफ़ देखती तक नहीं। वह सिर्फ़ अपने काम से काम रखती है। अपना काम करती है और घर वापस चली जाती है। जिस जीवन स्तर को वो लड़की अपने परिवार के साथ जी रही है, समान जीवन स्तर तो दूर, इनके आस-पास एक भी घर भी नहीं है ताकि वह इधर-उधर कहीं जा सके। आज भी लड़कियों की कंडीशनिंग ऐसे ही होती है कि वह चुपचाप अपने घर से निकलकर चुपचाप अपना काम करके वापस आ जाए। उसका इधर-उधर देखने का मतलब चरित्र ढीला है। यह लड़की भी किसी की तरफ़ देखती तक नहीं है। लड़की की भूमिका सिर्फ़ इतनी है कि वह घर से निकलती है स्कूटी से और घर वापस आती है स्कूटी से। वह स्कूटी से ही स्कूल से भी निकलती दिखाई देती है। वहॉं भी उसके कोई दोस्त या सहेलियां नहीं हैं। निर्देशक इस मामले में ये बताने की कोशिश कर रहा है कि लड़की वाला पात्र उसके चित्रण का हिस्सा नहीं है, वो केवल और केवल युवकों की मानसिकता पर केंद्रित हो रहा है।

शहरी आबादी से दूर अकेला परिवार निपट अकेले मकान में है और सड़क के इस तरफ़ बिल्लू की दुकान जहॉं शहर के तमाम लड़के जमा होना शुरू हो जाते हैं। लड़के बिल्लू से यह पता करने का प्रयास करते हैं कि लड़की किस-किस समय घर से बाहर निकलती है पर बिल्लू अंजान बना रहता है। एक बार पूरे हुजूम के डटे रहने पर बिल्लू देखता है कि लड़की अपने कुत्ते को घुमाने बाहर लेजा रही है, वह लड़कों का पूरा ध्यान कैरम पर केंद्रित करवाता है। 

बिल्लू न तो ताक़तवर है न ही प्रभावशाली। सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट की तर्ज़ पर वह तरह- तरह के षडयंत्र रचता हुआ युवा नेता और युवा व्यवसायी को भिड़ाकर अपने लिए सुरक्षित स्थान बनाना चाहता है। वह अपने एकतरफ़ा प्यार में इतना सघन है कि वह यह चुनौती भी ले लेता है कि अपने ही पिता के बॉस को फ़ोन करता है और उससे कहता है कि अपने बेटे को सिगरेट पीने से मना करो। बॉस का यह बेटा भी लड़की के चक्कर में उसकी दुकान पर सिगरेट फूँकता बैठा रहता था। 

 वह आम लड़कों की तरह अपनी साक्षरता बस इतना सा लाभ ले पाता है कि जगह-जगह दिल का तीर लगा निशान अपने और रिंकू के नाम के साथ उकेर देता है। वह ‘आर’ अक्षर अपने हाथ में गुदवा लेता है। वह पिता द्वारा पसंद की गई लड़की से शादी नहीं करना चाहता। यहॉं पिता एक सूत्र वाक्य कहता है-“औरत है तो समाज है।” स्त्री की ऐसी ही महत्ता बुद्ध भी स्थापित करते हैं। 

बिल्लू अपना प्यार जताने के लिए लड़की को एक लव-कार्ड देना चाहता है। लड़की को वह कार्ड नहीं दे पाता तो उसकी बालकनी की तरफ़ उछाल देता है। निर्देशक ने यहॉं लड़के की मनोदशा को बड़ी ही ख़ूबसूरती से चित्रित किया है। पर यह कॉर्ड लड़की के पिता के हाथ लगता है। पिता के द्वारा पूछे जाने पर कि कार्ड किसने डाला, बिल्लू साफ़ नट लेता है और अपनी अनभिज्ञता ज़ाहिर करता है। 

अब पुलिस आती है और बिल्लू की खूब पिटाई करती है और अन्य लड़कों की भी पिटाई करती है। इसके बाद जब एक दिन लड़की रस्सी पर सूख रहे कपड़े भितराने के लिए टैरेस पर आती है तो बिल्लू को अपनी ओर देखता पाकर तुरंत वापस चली जाती है। बिल्लू का एक तरफ़ा प्यार इस उपेक्षा को बर्दाश्त नहीं कर पाता। वह दुकान नहीं खोलता, उधारी सामान देनेवाले तगादा करते हैं। पर वह तो अब लड़की से बदला लेने को आतुर है। वह लड़की का पीछा करता है और कुछ करने के पहले ही नाकाम हो जाता है। वह ‘सोनम गुप्ता बेवफ़ा है’ की तर्ज़ पर ‘रिंकू नोनारिया बेवफ़ा है’ नोटों पर लिखता है, तगादा करनेवालों को वही नोट देकर लड़की को बदनाम करता है। पुलिस को इस हरकत का पता चलते ही वह उसे न केवल पकड़कर ले जाती है अपितु उसकी दुकान भी तोड़ देती है। अब तो शहर की पितृसत्ता जाग जाती है और ख़ुद को बचाए रखने के लिए मानवाधिकार के छद्म में अपनी आवाज़ बुलंद करती है। बिल्लू की दुकान का न होना मतलब नैन सुख का अवसर न होना। सारे दुष्ट मर्द इकट्ठे होकर पुलिस थाने में अपनी मॉंग दर्ज करते हैं कि बिल्लू निर्दोष है, कमज़ोर पर पुलिस रौब झाड़ती है। स्थानीय न्यूज़ चैनल इसे हॉट टॉपिक बनाते हैं। अंतत: लड़की का पिता ही उसकी बेल कराता है। इससे यह ज़ाहिर होता है कि यह परिवार किसी का बुरा नहीं चाहता। ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटे को उत्पात’ की तर्ज़ पर या बुद्ध दर्शन की करूणा पर संचालित होता हुआ यह परिवार बिल्लू को सुधार का अवसर देना चाहता है। बिल्लू के जेल से रिहा होने पर उसे हीरो बनाकर युवा राजनेता द्वारा अपनी राजनीति चमकाने का प्रयास किया जाता है। इसमें युवा राजनेता की मॉं भी शामिल है। पितृसत्ता उन महिलाओं को खुलकर सामने आने देती है जो पितृसत्ता की जड़ें मज़बूत करने में सक्रिय सहयोग देती हैं। 

पर बिल्लू लड़की के पिता की सह्रदयता से प्रभावित है। वह लड़की के घर जाता है। लड़की की मॉं बग़ैर किसी द्वेष के बिल्लू को ससम्मान भीतर बुलाती है। बिल्लू अपने जूते उतारने लगता है, वह उसे जूतों सहित अंदर बुलाती है। सोफ़े पर लड़की के पिता के सामने उसे बैठने को कहती है। बिल्लू के लिए यह एक नई दुनिया है। वह पूरे कमरे को झिझकती नज़र से देखता है। लड़की के माता-पिता का सामने बैठना, लड़के का सामने टेबल पर पढ़ाई करना, दीवार पर पूरे परिवार की तस्वीर का अलग-अलग अंदाज़ में होना, परिवार के सदस्यों का पोर्ट्रेट होना, लड़की का पोर्ट्रेट होना यह सब देखता हुआ वह पर्दे के पीछे खड़ी लड़की को देखते रह जाता है। यहॉं निर्देशक ने क़माल किया कि कोई सीन क्रियेट नहीं किया। मॉं यह भाँपकर अपनी बेटी से कहती है-“बेटा, चाय लाना तो।” और निर्देशक ने दिखाया कि बिल्लू जैसे ज़मीन में गड़ गया। उसकी नज़रें उठती ही नहीं जबकि लड़की चाय देकर भी चली जाती है। परिवार बिल्लू को सूचना देता है कि यह शहर उनके लायक़ नहीं है। वे अपना परिवार वापस बिलासपुर शिफ़्ट कर देंगे। बिल्लू वापस होता है और पश्चाताप करता है। वह अपनी ही चप्पल से अपने ही सिर को मारता है। स्थिर होकर पुनः उसी जगह पर अपनी वही दुकान खोलता है और वैसे ही मक्खी मारता ट्रॉंजिस्टर सुनता है। एक दिन मकान में वह एक गुलाबी काग़ज़ फड़फड़ाते हुए देखता है। वह उस काग़ज़ को ले आता है और देखता है कि काग़ज़ के एक तरफ़ कोई डायग्राम बना है और दूसरी तरफ़ उसी की तस्वीर है जिसमें वह अपनी विशिष्ट मुद्रा में अपनी दुकान के सामने खड़ा रहता था। इससे यह ज़ाहिर होता है कि जिसने भी लाइव पेंटिंग की थी, उसने बिल्लू को अपना सब्जेक्ट बनाया था। निर्देशक ने बड़े चातुर्य के साथ इसे संशय की तरह उपस्थित करने का प्रयास किया है। जैसी पात्रता होगी, वही ग्रहण किया जा सकेगा। मेरे नज़रिए से इस निर्जन स्थान में यही एक जीवन था जिसे लाइव पेंटिंग में दर्ज किया गया। अपनी दुकान में मक्खी मारता बिल्लू एक दिन देखता है कि सामनेवाले मकान में फिर कोई सामान से लदा ट्रक आकर खड़ा हुआ है, स्कूटी उतारी जा रही है और बिल्लू पुन: उसी पेंटिंग वाली मुद्रा में खड़ा है। 

यह फ़िल्म छत्तीसगढ़ के युवकों की स्थिति पर सोचने के लिए बाध्य करती है। छत्तीसगढ़ भारत का वह राज्य है जहाँ आज भी स्त्री और पुरुष जनसंख्या का अनुपात लगभग बराबर है और ग्रामीण क्षेत्र में तो और भी समानुपातिक जनसंख्या है। इसका मतलब है कि वहॉं लड़की का पैदा होना सामाजिक शर्म का कारण नहीं है। छत्तीसगढ़ की औरतें दाम्पत्य जीवन का निर्वाह करने में अभी भी काफ़ी स्वतंत्र हैं। यदि पति से पटरी नहीं बैठ रही है तो उसे यह सामाजिक अधिकार प्राप्त है कि वह पति का घर छोड़ सकती है। साथ ही, उसे यह अधिकार भी प्राप्त है कि वह दूसरा विवाह रचा सकती है। उत्तर भारत की औरतें यह सोच भी नहीं सकतीं। उनकी संस्कृति तो पति के घर में जाने के बाद अर्थी उठने की ही है। पितृसत्ता का जैसा शिकंजा और जकड़न उनके भीतर कसा हुआ है यह छत्तीसगढ़ की औरतों के साथ नहीं है। छत्तीसगढ़ में तमाम पितृसत्ताक व्यवस्था के बावजूद स्त्री सहमति/असहमति मायने रखती है। 

इस फ़िल्म को देखने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि उत्तर भारतीय जनता जो छत्तीसगढ़ में निवासरत है, अपनी कुसंस्कृति की जड़ें जमा रही है। 

कितने ही समझदार माता-पिता क्यों ना यदि लड़की के लिए इतना प्रोटेक्टिव होना पड़ेगा तो ऑनर किलिंग की नौबत आते देर न लगेगी। छत्तीसगढ़ के लड़के स्त्री को इस तरह से वस्तु में बदल देंगे? 

छत्तीसगढ़ में बेरोज़गारी और शिक्षा का दर और स्तर क्या है कि युवकों की इतनी बड़ी संख्या एक लड़की के पीछे पड़ जाएगी? 

इस फ़िल्म का कथानक भयावह है। फ़िल्म के निर्देशक ने एक भयावह सचाई सामने रखी है। हमें छत्तीसगढ़ की सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, आर्थिक, राजनीतिक पड़ताल वर्तमान संदर्भ में करने की अनिवार्य आवश्यकता है। इन सारे मुद्दों पर चिंतन करने के लिए बाध्य करना ‘चमन बहार’ के निर्देशक की सफलता है। फ़िल्म यथास्थिति से परिचय कराती है। 

बाक़ी कलाकारों का अभिनय उम्दा है, कहीं भी नकलीपन ज़ाहिर नहीं होता। गीत-संगीत, संवाद यथावसर उचित हैं। 

 

परिचय- 
प्रोफ़ेसर एवं पूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली 
जन्म तिथि - नवम्बर 5, 1966
जन्म स्थान- बालाघाट, मध्य प्रदेश
शिक्षा- एम.ए., बी.एड., एम.फिल., पीएच.डी.
माता - प्रेमलता मेश्राम 
पिता - रामप्रसाद मेश्राम 
 
संस्थापक सदस्य -अखिल भारतीय दलित लेखिका मंच 
 
प्रकाशित ग्रंथ
1. स्त्री लेखन और समय के सरोकार, चिंतन, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली
2. नील, नीले रंग के- कविता संग्रह, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली 
सह लेखन
 
धम्म परित्तं - सम्यक् प्रकाशन 
 
संपादित ग्रंथ
1. समय की शिला पर, मुकुटधर पाण्डेय पर केन्द्रित, गुरु घासीदास विश्वविद्यालय, बिलासपुर 
2. उनकी जिजीविषा, उनका संघर्ष - शिल्पायन प्रकाशन, नई दिल्ली 
3. रजनी तिलक : एक अधूरा सफ़र 
 
पत्रिका
संपादन 
1. उड़ान 
संपादक सदस्य 
1. हाशिए उलाँघती स्त्री- युद्धरत आम आदमी का विशेषांक 
 
इनके अतिरिक्त विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र- पत्रिकाओं जैसे आलोचना, कथादेश, हंस, वर्तमान साहित्य, अनभैं साँचा, युद्धरत आम आदमी, दलित अस्मिता, स्त्री काल  आदि में आलोचनात्मक लेख, कविता, कहानी प्रकाशित 
 
कुछ कहानी, कविताओं और लेखों का मराठी, पंजाबी, अंग्रेज़ी में अनुवाद। 
कहानी जैन विश्वविद्यालय, बैंगलोर और इटली के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जा रही हैं। 
 
 
 
संपर्क 
9560454760 
H-18, Jasola Hight, Pocket 9 A, Jasola Vihar, New Delhi 110025

 

 

 

 

 

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