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छत्तीसगढ़ी सिनेमा के दस खतरनाक दुर्भाग्य

छत्तीसगढ़ी सिनेमा के दस खतरनाक दुर्भाग्य

राजकुमार सोनी

रायपुर. हर दुर्भाग्य खतरनाक ही होता है, इसलिए एक पाठक की हैसियत से आप कह सकते हैं कि इस खबर के शीर्षक में खतरनाक शब्द नहीं होता तो भी काम चल सकता था. छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण हुए 19 साल हो गए हैं. जो बच्चा आज से 19 साल पहले पैदा हुआ था वह अब बालिग हो गया है, लेकिन छत्तीसगढ़ का सिनेमा बालिग ( समझदार ) नहीं बन पाया है. वैसे यह जरूरी भी नहीं है कि जो बालिग हो गया वह समझदार भी हो. यहां खतरनाक शब्द का इस्तेमाल जानबूझकर किया गया है क्योंकि अब यह कहने लायक स्थिति नहीं बची कि हम अभी-अभी कोख से जन्मे है. बहुत होते हैं- 19 साल. आइए जानते हैं कि दस खतरनाक दुर्भाग्य-

 

1- छत्तीसगढ़ में अच्छी कहानियों का टोटा नहीं है, लेकिन यहां के फिल्म निर्माता और निर्देशक किसी भी तरह का रिस्क लेना नहीं चाहते. वे मुबंई या यूपी बिहार की घिसी-पिटी कहानियों को परोसने में ही यकीन रखते हैं. आप छत्तीसगढ़ की किसी भी फिल्म को देख लीजिए आपको लगेगा- अरे... यह सीन तो कहीं देखा हुआ है. अरे... यह तो गोविंदा की फिल्म में था. ये तो डेविड धवन की फिल्म में था. मौलिक कहानियों का अभाव छत्तीसगढ़ी सिनेमा का दम घोंट रहा है. छत्तीसगढ़ में अब तक 230 से ज्यादा फिल्में बन चुकी है. इन फिल्मों में आठ-दस फिल्में ही ऐसी है जो बेहतर हैं और इन्हीं फिल्मों का उदाहरण देकर बार-बार यह दोहराया जाता है कि छत्तीसगढ़ का सिनेमा महान हो चुका है. स्मरण रहे महानता गलतियों से सबक लेकर आगे बढ़ने का नाम है. गलतियों से चिपक जाने पर महानता उपहास में तब्दील हो जाती है.

 

2- छत्तीसगढ़ी बोली-बानी-भाषा की अपनी एक मिठास है, लेकिन इस मिठास का क्षेत्र ग्रामीण इलाकों तक सिमटकर रह गया है. शहर में केवल कुछ पुराने इलाके हैं जहां छत्तीसगढ़ी बोली जाती है. नई पीढ़ी छत्तीसगढ़ी को हीनता की दृष्टि से देखती है. ( हालांकि कुछ बच्चे इस भाषा को बोलकर गौरव का अनुभव भी करते हैं. ) लेकिन ज्यादातर को लगता है कि छत्तीसगढ़ी को बोलने वाला गंवारू है. कपड़े की तरह बायफ्रेंड या गर्लफ्रेंड बदलने और छोटी सी छोटी सी बात पर चल हट ले... चल कट ले...कहकर ब्रेकअप करने वाली पीढ़ी छत्तीसगढ़ी सिनेमा से परहेज करती है. छत्तीसगढ़ के निर्माता और निर्देशक हर दूसरे रोज स्मार्टफोन फोन बदलने वाले यूथ को कुछ नया नहीं दे सके हैं.अब तक एक भी सिनेमा ऐसा नहीं बना जिसे यूथ अपना सिनेमा माने. छतीसगढ़ी सिनेमा में लंपटता हावी है और गांव-घर, खेत-खलिहान, किसान हाशिए पर चला गया है.

 

3- जो लोग छत्तीसगढ़ी बोलने और समझने में गर्व महसूस करते हैं उनके आसपास सिनेमाघर ही नहीं है. छत्तीसगढ़ी से प्रेम करने वाले लोगों को अपनी पसन्द का सिनेमा देखने के लिए गांव या कस्बे से निकलकर शहर तक आना पड़ता है. एक तो सिनेमा की टिकट उस पर कुमार शानू का गाना बजाने वाली खटारा बस में धक्का खाने वाली सवारी बनकर शहर तक पहुंचना मंहगा पड़ जाता है. एक ग्रामीण फिल्म देखने के लिए जितने पैसे खर्च करता है उससे कम खर्च में गांव के आसपास की भट्ठी में अपना मनोरंजन तलाश कर लेता है. वहां उबले चने और अंडे के साथ देश-दुनिया के मसले पर शानदार किस्म की गोष्ठी भी हो जाती है.

 

4- छत्तीसगढ़ी फिल्म के निर्माता को अपना सिनेमा लगाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है. छत्तीसगढ़ सिने संघ के आंदोलन के बाद अब जाकर यह स्थिति बनी है कि कुछ मल्टीफ्लैक्स वाले छत्तीसगढ़ी सिनेमा लगाने को तैयार हो गए हैं. अन्यथा टाकीज वाले किसी हिंदी फिल्म की रिलीज के साथ ही छत्तीसगढ़ी सिनेमा उतार देते हैं. एक निर्माता अपनी फिल्म के प्रदर्शन के लिए छविगृह किराए पर लेता है. निर्माता को जो थोड़ी-बहुत कमाई होती है वह छबिगृह के किराए में चली जाती है या निर्माता की तरफ कभी लौटती ही नहीं. ज्यादातर निर्माताओं को यह कहकर बेवकूफ बना दिया जाता है कि आपके सिनेमा से कुछ मिला ही नहीं... घाटा हो गया.

 

5-छत्तीसगढ़ में जितने पत्रकार या लेखक नहीं है उससे कहीं ज्यादा सिनेमा लिखने वाले पैदा हो गए हैं. यकीन मानिए जिसने पूरी जिंदगी में कभी ढंग का एक पोस्टकार्ड भी नहीं लिखा होगा या किसी लड़की को प्रेम पत्र देना जरूरी नहीं समझा होगा वह भी यहां सलीम-जावेद का बाप बनकर घूम रहा है. दो-ढाई घंटे के सिनेमा की कहानी से दर्शकों को जोड़े रखना हंसी-मजाक का खेल नहीं है. इसके लिए सिनेमा के सभी पक्षों का विशद अध्ययन और सिनेमा लिखने का प्रारम्भिक ज्ञान अनिवार्य है, लेकिन छत्तीसगढ़ी सिनेमा में इसे आवश्यक नहीं समझा जाता.

 

6-छत्तीसगढ़ के अमूमन सभी सिने ( एक-दो को छोड़कर ) कलाकार आत्ममुग्धता के शिकार है. यहां कोई भी शख्स कलाकार बने रहने में फक्र महसूस नहीं करता बल्कि वह चाहता है कि उसके नाम के आगे या पीछे सुपर स्टार, सुपर खलनायक, सुपर कामेडियन, सुपर खलनायिका, सुपर सहनायक, सुपर हीरो का भाई, सुपर हीरो का बाप, सुपर हिरोइन की सहेली, सुपर डांसर, सुपर चिलमची, सुपर डायरेक्टर जैसा तमगा चस्पा रहे. जब सारे लोग सुपर-सुपर है तो फिल्म को भी सुपर-डुपर होना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पा रहा है.

 

7-कई निर्माता छत्तीसगढ़ी सिनेमा में अपने अलग तरह के काम धंधों को लेकर घुस आए हैं. इन निर्माताओं को न तो कहानी से मतलब है और न ही स्क्रिप्ट से. उन्हें छत्तीसगढ़ की संस्कृति और सभ्यता से भी कोई लेना-देना नहीं है. ऐसे लोगों को आप बड़ी आसानी से अपने आसपास देख समझ सकते हैं. ऐसे लोग सिर्फ ग्लैमर और उसकी खूशबू के दीवाने हैं. यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि खूशबू के दीवाने किस तरह के पवित्र काम पर यकीन करते हैं.

 

8- छत्तीसगढ़ी सिनेमा को लेकर अखबारों या चैनलों में जो कुछ परोसा जाता है वह बेहद नकली होता है. छत्तीसगढ़ का मीडिया छत्तीसगढ़ी की कचरा से कचरा फिल्मों की आलोचना करने बचता है. स्मरण रहे कि जब तक आलोचना नहीं होती है तब तक श्रेष्ठ सृजन सामने नहीं आता है. आलोचना का अपना दबाव होता है और यही दबाव एक श्रेष्ठ सृजनकार को तैयार करता है.छत्तीसगढ़ में फिल्म या फिल्म के कलाकारों की आलोचना इसलिए नहीं होती क्योंकि ज्यादातर कलाकारों के अपने पालित रिपोर्टर है और उनका अपना ग्रुप है. कुछ लोग मैग्जीन भी निकाल रहे हैं. एक-दो मैग्जीन ठीक-ठाक है, लेकिन अधिकांश में झूठी सूचनाएं प्रकाशित होती है. पिछले दिनों फिल्मी खबरों को कव्हरेज करने वाले एक ऐसे पत्रकार का मामला भी प्रकाश में आया जो बेहद शर्मनाक था. पत्रकार ने खुलेआम एक निर्माता को यह कहकर धमकाया था कि अगर पैसे दोगे तो अच्छा लिखूंगा और पैसे नहीं मिले तो फिल्म की बैंड बजा दूंगा.अब बताइए... क्या ऐसी स्थिति में छत्तीसगढ़ी सिनेमा को फायदा पहुंच सकता है.

 

9-इसमें कोई दो मत नहीं कि इस देश के हर नागरिक को अच्छे काम के लिए सम्मान हासिल करने का हक है. जो फिल्मी कलाकार अच्छा काम करते हैं उन्हें प्रोत्साहन और पुरस्कार तो मिलना ही चाहिए लेकिन जब कोई पुरस्कार देता है तो उसके बारे में यह देखना ठीक होगा कि वह है कौन. यहां तो कोयला चोर, लोहा चोर और वसूलीबाज मैग्जीन के लोग भी अवार्ड बांट रहे हैं. अवार्ड बांटना भी एक तरह का धंधा हो गया है.

 

10-छत्तीसगढ़ी सिनेमा को बढ़ावा देने के नाम पर कई मूर्धन्य लोगों ने संगठन खड़ा कर लिया है. अभी हाल के दिनों में भिलाई-दुर्ग में भी एक नया संगठन तैयार हो गया है.संगठन के लोग केवल इस फिराक में रहते हैं कि कैसे सरकार से सुविधा करें. इन संगठनों के लोगों को आज तक किसी ने भी इस बात पर चर्चा करते हुए नहीं देखा कि फिल्म की गुणवत्ता में सुधार कैसे किया जाय. किसी भी फिल्म निर्माता-निर्देशक ने शासन के समक्ष इस बात का प्रस्ताव नहीं दिया है कि वह लेखन-अभिनय या तकनीकी पक्षों से समृद्ध होने के लिए कार्यशाला करना चाहता है. है तो उसकी मदद की जाय. बस... कूदा-फांदी चल रही है और इसी कूदा-फांदी को ही सृजन मान लिया गया है.

 

वैसे तो छत्तीसगढ़ी सिनेमा का बेड़ा गर्क करने वाले और भी बहुत से  कारण है. एक कारण यह भी है कि अगर कोई छत्तीसगढ़ी सिनेमा को लेकर आलोचना करता  है तो उससे कहा जाता है- बात तो बहुत बड़ी-बड़ी करते हो.अगर दम है तो 60 लाख के बजट में एक सिनेमा बनाकर दिखाओ.... और फिर निर्माता के चेले-चपाटी यही राग अलापने लगते हैं- दम है तो सिनेमा बनाकर दिखाओ... सिनेमा बनाकर दिखाओ. यह आवाज वाट्सअप, फेसबुक के अलावा दसों दिशाओं से गूंजने लगती है.

 

पर क्या.... भीड़ के फैसले को आप कोई फैसला मानते हैं. शायद मानते भी हो... क्योंकि जाने-अनजाने में हमें भी अब भीड़ का हिस्सा तो बना ही दिया गया है.

 

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