साहित्य

ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान

ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान

छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहर के रहवासी कैलाश बनवासी कथा की दुनिया में अपना एक अलग मुकाम रखते हैं. उनकी कहानियों में उनका और हम सबका आसपास तो रहता है, लेकिन वे कथाओं में जितने देशज रहते हैं उतने ही वैश्विक भी. उनकी कहानियों की सबसे बड़ी और खास बात यही है कि वे छोटी सी छोटी बात को विश्व पटल का हिस्सा बना देते हैं...। उनकी कहानियों को पढ़ते हुए हम सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि जो कुछ घट रहा है वह हमने देखा है...। जो कुछ भी हमसे होकर गुजरा है वह देश और किसी भी अन्य मुल्क का हिस्सा हो सकता है. लक्ष्य तथा अन्य कहानियां, बाजार में रामधन, पीले कागज की उजली इबारत, प्रकोप और उपन्यास लौटना नहीं है के जरिए कथा संसार में नए मुहावरे गढ़ने वाले कैलाश बनवासी को अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है. फिलहाल अपना मोर्चा डॉट कॉम के पाठकों के लिए पेश हैं उनकी एक बेजोड़ कहानी. इस  कहानी का शीर्षक उन्होंने विजय कृष्ण आचार्य की निर्देशित फिल्म ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान से लिया है. कहानी का शीर्षक भी यहीं है. कैलाश बनवासी का मोबाइल नंबर है- मो. 98279 93920

 

घर के बरामदे में,आदतन,सुबह मैं अख़बार पढने में डूबा हुआ था. इधर देश की लगातार बिगड़ती आर्थिक स्थिति को लेकर सरकार या विपक्षियों के बयानों, सवालों या भंडाफोड़ों को लेकर अखबारों को बहुत ध्यान से पढना पढ़ रहा है.रोज नए घोटाले या सांप्रदायिक नफरतों से भरे नेताओं की बयानबाजियाँ...

और फिर अख़बार में रोज ऐसी ख़बरें पढ़ते है,जिनमें धोखा दिया गया हो,लूटा गया हो,घपला किया गया हो,कि ठगा गया हो या भ्रष्टाचार किया गया हो... 
और माहौल ही कुछ ऐसा बन गया है कि हमें हर समय अपने ठगे,या लूटे जाने का डर सताता रहता है. कि घर बैठे-बठे ही आपके अकाउंट की जमा पूँजी कोई साइबर क्रिमिनल एक झटके में कब पार कर देगा,कोई ठिकाना नहीं! कि हर तरफ से ऐसे ही लूट-धोखाधडी-ठगी की लगातार बम-बारी करती  ख़बरें हमारे दिल-दिमाग में एकदम घर कर गयी हैं, कि लोग हर क्षण  इसी दहशत के साये में जी रहे हैं...


ख़ट-ख़ट-खट-खट!
अचानक, तभी किसी ने घर का गेट खटखटाया था. मैं एकदम चौंका. गेट में सामने ही ‘डोर-बेल’ है,लेकिन  ये कौन बेवकूफ है जो गेट की कुण्डी खटखटा रहा है? वो भी सुबह के आठ बजे !मैं थोडा चिंतित हुआ, मन में कुढ़न हुई,क्योंकि अक्सर बेल या कुण्डी खटखटाने वाले अपने धंधे-पानी में लगे लोग होते हैं—कभी अख़बार बदलवाने पर प्लास्टिक कुर्सी या टब का ऑफर देने वाले,कभी दरी-कारपेट बेचने वाले,तो कभी कोई  घरेलू उपयोगी चीजें बेचने वाले ,कभी दुर्गा-गणेश का चंदा मांगने वाले तो कभी रामायण-भागवत करने के नाम पर चंदा मांगने वाले. और इनसे उलझने- ,बहस करने में बहुत समय खपता है. मैंने  सोचा कि लो फिर कोई आ गया पैसा मांगने वाला !


... घर के गेट में प्लास्टिक शीट चार फिट हाइट तक ऐसे लगी है कि किसी व्यक्ति का चेहरा इसके ऊपर से दिख जाता है.लेकिन इस समय वहाँ मुझे कोई नहीं दिखा. मैं अख़बार हाथ में लिए हुए ही गेट तक आ गया.ध्यान आया,कई बार पड़ोस के झोपड़पट्टी के बच्चे भी बेल बजा के भाग जाते हैं, शरारतन--सिर्फ हमारी खीज का मजा लेने के लिए !
मैं बाहर आँगन में आया,तो आठ बज चुकने के बावजूद  अक्टूबर की नम-सी सुबह के हलके ठण्ड का आभास हुआ.गेट खोला,तो सामने सड़क बुहारने वाली नगर-निगम की स्वीपर दिखाई पड़ी,जो लम्बे डंडे वाली झाडू से बड़ी फुर्ती से सड़क बुहारने में जुटी थी.और गेट की दायीं तरफ दो बच्चे खड़े थे-- एक लड़की और एक लड़का.उनके चेहरे-पहनावे से ही नहीं,हाथ में लटके झोले और कटोरे में पड़े सूखे भात से ज़ाहिर था,ये भीख माँगनेवाले बच्चे हैं.


लड़की, जो एक ढीली और बहुत मैली फ्रॉक पहने थी, कहती है—पानी का बाटल दो ना..पानी पीना है.’ लड़की का स्वर एकदम सपाट है,बिलकुल भावहीन.फिर यह भी नोटिस किया कि उसके कहने में एक अधिकार भाव है,कोई करुणा ,कातरता,दया नहीं. याचना तो जैसे कोसो दूर! मांगनेवालों की जो छवि हमारे भीतर बनी होती है,यहाँ उससे इसका कोई मेल नहीं था. और सच बात ये है कि हम ऐसे मांगनेवाले को पसंद नहीं करते.हम अपेक्षा करते हैं कि प्रार्थी के चेहरे पर कातरता,याचना जैसे भाव हों....मैंने गौर से देखा, लड़की बमुश्किल दसेक साल की थी- उसकी सूखी, सूनी सपाट आँखों में ‘मांगने’ जैसा कोई भाव दूर-दूर तक नहीं था.वह तो बस जैसे किसी पुराने पड़ोसी की तरह मुझसे कह रही थी. 


  कुछ पल तक तो कुछ समझ ही नहीं पाया कि वह क्या मांग रही है. दूसरे मैं हैरान, कि कैसी  अजीब है ये लड़की ? दूसरी कोई होती तो रिरियाते हुए, किसी पुराने घिसे रिकॉर्ड के माफिक नॉनस्टॉप टेर लगाते रहती —बाबूजी, दो दिन से भूखी हूँ...!बाबूजी,कुछ खाने को दो..! पर ये लड़की सिर्फ़ पानी की बाटल माँग रही है.  
तभी मेरे पड़ोसी चंद्रवंशी अंकल अपने गेट से कहीं जाने को निकले. वे नमस्कार के बाद एक नजर मुझे और इन्हें देखते, एक ख़ास ढंग  मुस्कुराते हुए निकल गए.मैं जानता हूँ, सत्तर साल के चंद्रवंशी अंकल के इस मुस्कराहट का राज... वे कहना चाह रहे हैं कि आज तुम इन चालू बच्चों से  ठगे जा रहे हो....उन्हें कहीं जाने की जल्दी थी, नहीं तो वे यहीं खड़े होकर दस मिनट इनकी पेशी ले लेते,लेक्चर देते,...और आखिर में भगा देते. 


पोस्ट-ऑफिस से रिटायर्ड क्लर्क चंद्रवंशी अंकल को देखते ही फिर उनकी बातें मेरे दिल-दिमाग में गूंजने लगी,जो वो हर तीसरे-चौथे दिन दोहराते रहते हैं, कि इस कॉलोनी में आके बहुत पछता रहा हूँ. मेरे बच्चे मेरे को कोसते रहते हैं,पूरे शहर में और कोई जगह नहीं मिली आपको,जो इस चोर मोहल्ले में प्लाट ले लिया?अरे,बगल में जो झोपडपट्टी है, साला पूरा मोहल्ला चोरों का है!और ऐसा कौन-सा काम है जो यहाँ नहीं होता! ये जो  मांगने आते हैं ना,इनको इतना सीधा मत समझना! ऐसे ही मेरे घर मांगने आने के बहाने घर की रेकी कर डाली,और रात को गेट से कूदकर बेटे का नया जूता--जो मुश्किल से पन्द्रह दिन हुए थे ख़रीदे हुए--चुरा लिए!...छत पे कपडे सूख रहे थे,उसको पार कर दिए...कम से कम पाँच हजार का नुकसान हुआ था हमको! फाइव थाउज़ेंड !! कभी इनकी शकल पे मत जाना, कम नहीं होते ये ! 


इसी के साथ, ऐसे न जाने कितने किस्से मेरे दिमाग में नाचने लगे...मित्रों,परिचितों या अन्य लोगों से जब-तब सुने.आए दिन होने वाले चोरियाँ,...लूटने-ठगने के किस्से.फ्रॉड,चार सौ बीसी और धोखेबाजी के किस्से! जिसमें से एक तो मुझे कुछ ज्यादा ही याद है..कि कैसे किसी स्टेशन पर ऐसे ही भूखे लड़के पर एक अधेड़ दम्पति ने तरस खाकर अपनी रोटी सब्जी दे दी,और लड़का रोटी खाते–खाते ही वहीँ,दम्पति के खिड़की के नीचे प्लेटफार्म पर गिरकर ऐंठने-छटपटाने लगा,फिर  तुरंत उसके कुछ साथी योजनाबद्ध तरीके से वहाँ पहुँचे,और दम्पति से झगड़ने लगे -—थाने-कचहरी की धमकी! सीधे-सादे दंपत्ति को अपनी जान छुड़ाने हजार रुपये उसके इलाज के नाम पर देने पड़े थे...वो भी उन्होंने ऐसे लिए मानो उन पर बहुत अहसान कर  रहे हों...
 ऐसे किस्सों का अपने यहाँ कोई अंत नहीं ! 


--दो ना पानी! लड़की ने फिर कहा. वह मुझे कोई संबोधन नहीं दे रही थी...बाबूजी,अंकल या सर,या ऐसा ही कुछ.मुझे लगा,यह उसकी अपनी पेशेगत अज्ञानता ही हो सकती है.जिसमें उसने अभी ठीक से ‘मांगना’ भी नहीं सीखा है.  
इसी क्षण उसके साथ के आठ बरस के लड़के—शायद उसका भाई -- ने भी मुझसे कुछ कहा,जो मेंरी समझ में बिलकुल नहीं आया. 
  मैं भौचक उन्हें देख रहा था जो यों अनायास सुबह मेरे दरवाजे पर खड़े थे. दोनों के बाल बेहद रूखे, भूरे और उलझे हुए,जैसे महीनों-से तेल-कंघी से संपर्क ही न हुआ हो. उनके चेहरों में भी जैसे एक जन्मजात रूखापन और भावहीनता थी..जैसे वे बचपन से ही ऐसे दर-दर मांगने के आदी  हो चुके हों.बचपने का दूर-दूर तक कोई भाव नहीं. मानो उन्हें केवल अपने काम से ही मतलब था,और अपने जीवन की इस असलियत को बखूबी जानते हुए कि उन्हें आगे भी ऐसे ही रहना है...


  उफ़! कितना भयानक और क्रूर है ऐसे अहसास का होना ! बचपन से बचपन का छिन जाना!
लेकिन दूसरे ही पल, मेरे मन में कुछ दूसरी ही आशंका तत्काल सक्रिय हो गयी. कि आजकल चोरी करने,लूटने के लिए गिरोह के लोग बच्चों को मोहरे बनाकर अपना काम करने लगे हैं.इस ख्याल के आते ही मेरी नज़र स्वाभाविक रूप से आस-पास देखने लगी,सड़क के कोने-किनारों पे—कि कहीं इनके गिरोह का कोई और साथी कहीं छिपा तो नहीं?
लड़की ने फिर माँगा—पानी का बाटल दोगे क्या,...पानी पीना है...
अब मैं उसकी बात समझा,और कहने ही वाला था कि अरे ये तो सामने आँगन में नल लगा है.उससे पी लो.तभी वो लड़का फिर कुछ बोला. उसकी बोली फिर मुझे समझ नहीं आई. लहजे से यह ज़रूर जान गया कि ये बच्चे इधर के नहीं हैं,किसी दूसरे राज्य के हैं...
मैंने लड़के से कहा—अरे साफ़ साफ़ बोल न! 
--रात की तरकारी दो ना!
  तब मैंने गौर किया,लड़के के दाहिने कंधे पर एक थैला लटका है,प्लास्टिक का,जिसमे जरूर यहाँ-वहाँ से मिले सामान होंगे,और उसके हाथ की पोलीथिन झिल्ली में भात था-जिसके लिए ही वह मुझसे रात की तरकारी मांग रहा है . मुझे ध्यान आया.इधर छत्तीसगढ़ में सब्जी को तरकारी आम तौर पर नहीं बोला जाता.साग या सब्जी कहा जाता है. तरकारी शायद महाराष्ट्र में या...
मुझे बात करते देख पत्नी भी बाहर गेट पे चली आई .पहले तो उसने भी अपनी स्वाभाविकता में उन्हें भरपूर शंका से देखा,फिर पूछा, क्या मांग रहे हैं ये ?
मैंने बताया,’रात की सब्जी मांग रहे हैं.’


पत्नी ऐसे मौके पे मुझसे कहीं ज्यादा सजग रहती है.वह जांच-पड़ताल के बाद ही आश्वस्त होती है,मेरी तरह झट से दया नहीं करने लग जाती.उसने जब  उनके थैले-कटोरे में सूखा भात देखा,तभी आश्वस्त हुई.वापस रसोई में जाते हुए बोली, रुको,रात की सब्जी बची है,लाती हूँ’. 
  मैं उनसे पूछने लगा,’इधर कहाँ रहते हो ?’
‘बस स्टैंड पे’. लड़की ने  फिर वैसे ही सूखा और सपाट जवाब दिया.इस उम्र में भी इनका बचपन इस कदर सूख चला है, सोचकर मैं सिहर गया. उनकी आँखों या चेहरों में मुस्कान एक कतरा अब तक नहीं लहराया था,पल भर के लिए भी.
   मैंने उनसे आगे पूछा—माँ-बाप हैं ?
  --नहीं हैं. लड़की ने ही कहा.
  मैं और डर गया. इस भयानक,समय में बच्चियों से रेप की ख़बरें रोज की सुर्खियाँ बनी हुई हैं,हैवानियत की तमाम हदें पार की जा रही हैं,बहुत छोटी-छोटी बच्चियों के साथ दरिंदगी की जा रही है,ऐसे में ये बिना माँ-बाप की बच्ची...?इनको तो किसी सरकारी आश्रम में होना चाहिए...मैं सोच रहा था.
‘ अरे साब ,झूठ बोलते हैं ये!’, सामने झाड़ू लगाती  स्वीपर महिला बोली, ‘ये सब स्टेशन के पास रुके हुए हैं,इनका पूरा कुनबा है !..वहीं से आये हैं...बस ऐसे ही मांग-मांग के खाते हैं’.
. स्वीपर ने उनका भांडा फोड़ दिया था. लेकिन इससे भी उनके चेहरों पर कोई फर्क नहीं पड़ा . ना ही उसकी बात के विरोध में कुछ बोले.उन्हें जैसे ऐसे ताने-उलाहने या गालियाँ सुनने की आदत हो गयी हो.वे जस के तस थे. स्वीपर की बात से मेरे भीतर फिर इनके किसी गिरोह के सदस्य होने का भय जग गया था.कोई भरोसा नहीं.
  मैंने स्वीपर से पूछा,--तुम देखी हो इनको?
  ‘हाँ.स्टेशन के गोडाउन के तरफ पड़े रहते हैं दिन-दिन भर. ये सब उधर से ही आते हैं.’ उसने बताया, बिलकुल निरपेक्ष भाव से.
  तब तक पत्नी उनके लिए पानी की एक  बाटल और रात की बची दाल और सब्जी कटोरे में लेकर चली आई. दोनों के भात में दाल-सब्जी डाल दिए. फिर वे दोनों चुपचाप चल दिए--बिना एक शब्द बोले.दरअसल इस समय उनका सारा ध्यान अपने भात-साग पर था.वे जाते हुए भी अपने भात-साग  देखते  जा रहे थे...शायद दोनों को अब भूख सताने लगी थी. मैं सिर्फ़ अनुमान ही लगा सकता था कि दाल-सब्जी और पानी मिल जाने से उनके सूखे-मुरझाए चेहरों पर थोड़ी-सी तरलता एक पल को कौंध गयी होगी...शायद. या फिर यह भी नहीं. बचपन से मिलते यों दर-दर की ठोकरों ने उनका यह सुख भी एकदम छीन ही लिया हो जैसे. 


मैं खुद पर बुरी तरह कुढ़ रहा था,कि हम लोगों के दिल-दिमाग कितने ज्यादा शक्की हो चुके हैं! कि अपने आसपास के लोगों पर,गरीब-गुरबों पर इतना अविश्वास,इतना संदेह, इतना डर, इतनी शंका !कि इन सबसे डेढ़-होशियारी के साथ-साथ एक भयंकर कांइयापन जैसे स्थायी तौर पर हमारे भीतर कुंडली मारकर बैठ  गया है !
  और ऐसे ही लोगों को चोरी-डकैती-लूट के लिए हमारे दिमाग सबसे पहले इलज़ाम देते हैं! और उनका क्या,जो देश के हजारों करोड़ रूपये बैंकों से कर्ज के नाम पर लूटकर यहाँ से भाग चुके हैं? ...या उन अरबपति औद्योगिक घरानों का क्या,जिनकी जेबों में तथाकथित उद्योगों और डेवलपमेंट के नाम पर कॉरपोरेट-हितैषी नीतियों से बैंकों या दूसरे आर्थिक संस्थानों के कोई दस लाख करोड़ --देश की जनता की गाढ़ी कमाई -- कर्ज़ के रूप में भरे जा चुके हैं ? जिन्हें वसूला भी नहीं जा सकता! तिस पर भी उन्हें सरकार से और-और रियायत की माँग है !
....या, हमारे ही चुने हुए उन जन-प्रतिनिधियों का क्या, जिनकी प्रॉपर्टी सत्ता में आने के बाद दिन दूनी-रात चौगुनी बढती ही जाती है ?
....या उन भ्रष्ट अधिकारियों-ठेकेदारों का क्या,जो रात-दिन अपनी तिजोरी भरने में लगे हुए हैं ? 
  इन सवालों का मेरे पास कोई जवाब नहीं है. 
  सिर भारी हो गया था ये सब सोचते-सोचते.
           

गेट बंद करते समय मेरी नज़र अनायास सड़क किनारे पास के नीम पेड़ की तरफ चली गयी.और वहाँ जो देखा, उससे,न जाने क्यों, मुझे राहत की छोटी फुरहरी महसूस हुई...गमले के किसी सूखते नन्हें पौधे को मानो थोड़ा जल नसीब हो गया हो...
पेड़ के नीचे वे दोनों बच्चे बहुत इत्मीनान से खाना खाने में मगन थे...                                                  

 

 

 

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