साहित्य

कमलेश्वर साहू की कविताएं

कमलेश्वर साहू की कविताएं

बस्तर के धुर माओवादी इलाके में पदस्थ कमलेश्वर साहू भले ही एक पुलिसकर्मी है, लेकिन उनकी संवेदना का स्तर बेहद ऊंचा और अलग है. देश की शायद ही कोई ऐसी पत्रिका हो जिसमें कमलेश्वर साहू की कविता न छपी हो. अमूमन हर छोटी-बड़ी पत्रिकाओं ने उनकी कविताओं को सम्मानजनक ढंग से स्थान दिया है. नाटकों के लिए गीत और संवाद लिखने वाले कमलेश्वर कई कविता संग्रह आ चुके हैं. पहले भिलाई और अब दुर्ग के निवासी कमलेश्वर साहू कभी पुलिस की नौकरी में जाएंगे यह उनके मित्रों ने भी नहीं सोचा था. सबको लगता था कि एक संवेदनशील इंसान पुलिस की नौकरी कैसे कर सकता है, लेकिन कमलेश्वर ने इस धारणा को बदलकर रख दिया है. अपना मोर्चा डॉट कॉम के लिए यहां उनकी कुछ कविताएं प्रस्तुत है. उम्मीद है आप सबको अच्छी लगेगी.

 

लिखा जाना चाहिए

नदी में पानी लिखा जाना चाहिए

पहाड़ पर चट्टान

जंगल में पेड़

खेत में फसल

 

यदि नदी में पानी लिखा जाना चाहिए

तो चट्टान में खनिज

पेड़ में पंछी

और फसल में किसान लिखा जाना चाहिए

 

यदि लिखा जाना चाहिए उपरोक्त

तो कुछ लोगों की नीयत पर 'शक' लिखा जाना चाहिए

लिखा जाना चाहिए

बिचौलिए, व्यापारी, उद्योगपति, राजनेता

और अंत में लिखा जाना चाहिए 'सांठ-गांठ'

 

लिखा जाना यहीं नहीं होता समाप्त

चूंकि समाप्त नहीं होती दुनियां यहीं

 

समाप्त नहीं होती दुनिया

तो दुनिया के तमाम लिखी जाने वाली चीजों पर

लिखा जाना चाहिए

ठोक-बजाकर, दावे से

 

और लिखे जाने के बाद

लिखा जाना चाहिए

सावधान !

यह जनसम्पति है !!

 

मुहावरे का वजन

 

चूंकि वह झूठ नहीं था इसलिए सच था

चूंकि वह सच था इसलिए कड़वा था

हालांकि सच का कड़वा होना मुहावरा था

 

सच को मुहावरा बनने में

हजारों वर्ष लगे थे

 

हजारों वर्षों से

मैं किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में हूँ

जो सच को तौलकर

मुहावरे का वजन बता दे

या फिर महाजनी सभ्यता से

मुक्त करा दे !

 

मानुष गंध की कविता

 

एक खास किस्म की खुश्बू थी वह कृत्रिम

सर्वथा अपरिचित, तीखी, अभिजात्य

जो आई थी

उसके कपड़ों में बसकर

देह के साथ

मजदूर के घर

 

एक खास किस्म की खुश्बू थी वह कृत्रिम

आते ही टकरा बैठी

पसीने की गंध से

 

रही कमरे में कुछ देर

और कुछ देर में ही

हार गई पसीने की गंध से

ध्वस्त हो गया उसका साम्राज्य

अहंकार हो गया नष्ट

सारा तीखापन रफूचक्कर

 

जिस देह से आ रही थी खुश्बू कृत्रिम

सर्वथा अपरिचित, तीखी, अभिजात्य

उस देह ने

कुछ ही देर पहले

स्वीकार किया

अपना मनुष्य होना !

 

अच्छा नहीं हो रहा है

 

पोस्टर का नारों में बदल जाना

नारों का         झंडों में

झंडों का।       लाठी में

लाठी का।       बंदूक में

 

बंदूक का          तानाशाह में

तानाशाह का     इतिहास में

इतिहास का       विचार में

विचार का          उपदेश में

 

उपदेश का         धर्म में

धर्म का              मंत्र में

मंत्र का              ताबीज में

 

ताबीजधारियों का नागरिक में

 

इस तरह हो रहा है यदि बदलाव

तो यकीन मानिए

देशहित में

अच्छा नहीं हो रहा है !

 

सुनें

सबसे ज्यादा पीछा करती है जो आवाज

चौकाती हुई, ललकारती सी

उस आवाज में घुला होता है 'सुनें'

 

खबरों के बाज़ार में

या यूं कहें संसार में

सुनने के लिए पैदा हुए हैं आप

कहने के लिए नहीं

 

इन दिनों हवा में नहीं

खबरों में सांस ले रहे हैं आप

जी रहे हैं

खबरों की न खत्म होने वाली

संक्रामक परतों में लिपटा हुआ जीवन

 

आप हर पल, हर घड़ी

'सुनें' की गिरफ्त में हैं

नकली है आपकी आजादी

आपका जनतंत्र

 

जब कोई कहता है

इस देश की जनता हो

तो आप सुनते हैं

'सुनें'

इस देश के नागरिक नहीं हैं आप

 

जब कोई विकास कहता है

जब कोई मुक्ति कहता है

जब कोई अधिकार कहता है

जब कोई संघर्ष कहता है

सही ही कहता है

मगर आप तक 'सुनें' ही पहुंचता है

 

'सुनें'

लाठी है मानो

जिससे हकालते हैं वे आपको

उनकी नज़रों में

भेड़ों से ज्यादा नहीं महत्व आपका

भीड़ हैं आप उनके लिए

 

भगवा             सुनें

खादी              सुनें

खाकी             सुनें

 

विपक्षी            सुनें

विरोधी            सुनें

षड्यंत्र            सुनें

 

और तो और

फैशन              सुनें

नग्नता             सुनें

प्रतिस्पर्धा         सुनें

 

ना-ना प्रकार के अदृश्य हाथ हैं

आपके गिरेबान पर

झिंझोड़ते हुए-  'सुनें'

 

जुलूस                सुनें

नारे                    सुनें

खबरें                 सुनें

सुनने के लिए अभिशप्त 'सुनें'

 

वैसे भी

जिस ज़मीन पर खड़े हैं आप

उस जमीन से

सुना ही जा सकता है

कहा नहीं जा सकता-

 

'सुनें'

 

 

आधा

 

आधी दुनिया अस्पताल में बदल चुकी है

दुनिया के आधे लोग मरीज में

आधे डॉक्टर कसाई में, क्रूर तानाशाह में

आधे ऑपरेशन थियेटर गैस चेम्बर में

ऑपरेशन के आधे उपकरण हथियार में बदल चुके हैं

 

आधी सफेदी हमें अंधा बनाने में लगी हुई है

आधे परीक्षण मुनाफे के लिए हैं

आधी दवाईयां जानलेवा हैं, जहर में बदल चुकी हैं

 

आधी-आधी रात जागते रहते हैं

आधे लोग

इस उधेड़बुन में

कि क्या करें

बचे हुए इस आधे का !

 

ये वही तिकड़मी लोग हैं जो

बचे हुए आधे लोगों को

मरीज में बदलकर

अस्पताल में बदल देना चाहते हैं

बची हुई आधी दुनिया को !!

 

 

मगर  जब गोली चली

 

जिनके हाथ में बंदूक थी

उनके निशाने पर दिल्ली थी

 

मगर जब गोली चली

दिल्ली नहीं

मारा गया मजूर

मारा गया किसान

मारा गया इस देश का आदमी आम

 

दू.... र 

दिल्ली तो खड़ी रही

अपने पूरे वैभव के साथ

 

अड़ी रही !

 

 

(जब भी लड़ना)

 

हजारों लोगों को कर बेघर

बनाते हैं बंगला आलीशान

हजारों लोगों की मेहनत को

भुनाते हैं अपने हित में

हजारों लोगों को रखकर भूखा

मिटाते हैं अपनी भूख

हजारों लोगों के सपनों में कर सेंधमारी

करते हैं अपना। सपना साकार

 

जरूरत है

उन्हें पहचानने की

उनके खिलाफ तनने की

 

बदलाव के लिए जरूरी है

उनका बिगड़ना

जब भी लड़ना

मेरे मित्र, मेरे साथी

बदहाली से बदलाव की बहाली के लिए

उन्हीं खिलाफ लड़ना !

 

हर बार बाजी

 

जन के जीवन का

सबसे बड़ा यथार्थ है यह

और सबसे बड़ी त्रासदी

कि हर बार या तो

मसखरा          राजा होता है

या फिर

राजा           मसखरा

जो गाता है-

 

जनता के हाथ में है अधिकार

जनता ही बदलती है सरकार

जनता ही पहनाती है मुकुट या ताज

जनता ही चुनती है अपना राजा

अपना पालनहार

 

हर बार दांव लगाकर

हर बार बाजी

जनता ही हारती है

 

न मसखरे का कुछ बिगड़ता है

न राजा का कुछ जाता है !

 

बिना पते की चिट्ठी

 

चिट्ठी लिखने के जमाने में

लिखी गई थी चिट्ठी

पता लिखना भूल गया था शायद

लिखने वाला

या फिर था भविष्यद्रष्टा

जानता था

चिट्ठी लिखने का जमाना

छूट जाएगा पीछे

बहुत पीछे, बहुत जल्द

 

और फिर जानबूझकर

बिना पता लिखे ही

डाल गया वह

पोस्ट ऑफिस के सामने टंगे

लाल डिब्बे में

बिना पते की  चिट्ठी

 

चिट्ठी लिखने के जमाने में

लिखी गई चिट्ठी वह

भटक रही है आज के इस

चिट्ठी न लिखने के जमाने में उस पते की तलाश में

जो लिखा जाना चाहिए था उस पर

 

भटक रही है बरसों से

इस डाकघर से उस डाकघर

उस डाकघर से, उस डाकघर

इस डाकिए के हाथ से उस डाकिए के हाथ

उस डाकिए के हाथ से उस डाकिए के हाथ

 

बिना पते की चिट्ठी वह

लगती जिस डाकिए के हाथ

देखता वह उसे आश्चर्य से

उलटता-पलटता बार-बार

 

बिना पते की चिट्ठी वह

चिट्ठी लिखने के

ऐतिहासिक जमाने की याद दिलाती

 

जिस डाकिए के हाथ लगती चिट्ठी

हो जाता उदास

उदासी में बुदबुदाता बरबस-

चिट्ठी लिखने का भी

अपना एक जमाना था ! 

 

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