साहित्य
नीरज मनजीत की कविताएं
नीरज मनजीत की कविताएं चिलचिलाती धूप, जोरदार बारिश, बादलों के शामियाने और पहाड़ के आशियाने से टकराकर अपनी बात कहती है. मनजीत अपनी कविताओं में प्रकृति को बेहद सम्मान देते हैं और उसके साथ चलना पसन्द करते हैं. जीवन के संघर्ष के दौरान मनुष्य और प्रकृति का रिश्ता कितना खूबसूरत होता है यह मनजीत की कविताओं को पढ़कर समझा जा सकता है. मूलतः कवर्धा के रहने वाले मनजीत का लंबा वक्त पत्रकारिता में गुजरा है. वे घुमक्कड़ भी है, इसलिए उनकी कविताएं हमें पहाड़ पर छलांग मारने और नदियों को फलांगने काआमंत्रण देती है. अपना मोर्चा डॉट कॉम की तरफ से पेश हैं उनकी चार कविताएं.
( एक )
राग - ज़िंदगी
ज़िंदगी रोज़ लिखी जा रही
किताब की तरह खुलती है
हमारे नज़दीक ,
क्योंकि वो पहले से लिखा जा चुका
सिलसिलेवार उपन्यास नहीं है
हमने रचे हैं पात्र जिसके
और जिसका अंतिम अध्याय वही है
जो हमने लिखा है ।
ज़िंदगी किताब से निकलकर
खुशबू में लिपटी हवाओं की तरह
फ़ैल जाती है
गाँवों में शहरों में ,
पठारों पहाड़ों बाग़-बग़ीचे जंगलों में ,
बर्फ़ से ढँकी वादियों में ,
नदियों के जल में
महासागरों की उत्ताल तरंगों में ,
मरुस्थल से उठती
रेत की आँधियों में ।
विचरती है
अंतरिक्ष के विस्तार में ।
ज़िंदगी चली जाती है
चाय बागानों में पत्तियाँ तोड़ती
टोकरियाँ पीठ से बाँधे औरतों के बीच ,
खेतों में बीज बो रहे
किसानों के बीच ,
सड़कों पर हाथ ठेला खींच रहे
मजूरों के बीच ,
फैक्टरियों में मशीनें चला रहे
कामगारों के बीच ,
कतारों में खड़े आम आदमी के साथ
खड़ी हो जाती है ,
अभावों की मस्ती में जी रहे
लोगों की बस्तियों में जाती है
उनसे बातें करती है
उनका हाथ पकड़ती है
उन्हें दिलासा देती है
और उन्हें सौंपती है
बेहतर कल के सपने ।
और लौट आती है
कुछ अनुभव लेकर ज़िंदगी
फिर से हमारी कविताओं में
कहानियों में
और उस किताब में
जिसे अभी-अभी
हमने लिखना शुरू किया है ।
( दो ) ॉ
बारिश का पानी
कल रात
खिड़की के शीशे पर
बारिश की बौछार पड़ी थी,
उसकी कुछ बूँदें समेटकर मैंने
अपनी डायरी के पन्नों में
रख ली हैं।
डायरी खोली थी
कुछ रोज़ पहले,
देखा कि
उसमें लिखी
बहुत-सी कविताएँ
मेरी
बहुत-सी नज़्में
गरमी की धूप में
खुश्क हो गयी हैं
और फ़ीके पड़ गए हैं
उनके चेहरे।
उनके अक्षर
उनके शब्द
उनकी पंक्तियाँ,
दिल को तसल्ली देनेवाले
उनके जज़्बात,
नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़
तनकर खड़ी होने की
उनकी हिम्मत--
सबकुछ
कुम्हला गया है।
सावन के बादलों से
कुछ टुकड़े काट लिये हैं
और
एक शामियाना बनाकर
उनके ऊपर
तान दिया है,
ताकि बहता रहे उनके भीतर
बारिश का पानी।
( तीन )
तुम्हारे भीतर
वे सारे समुन्दर
जो तुम्हारे भीतर
तरंगित होते थे,
तुमने उन्हें चित्रों में बाँधकर
दीवार से टाँग दिया है।
वो नदियाँ
जो तुम्हारे अंतर्मन में
प्रवाहित होती थीं,
वे अब
तुम्हारी किताबों में
बहती हैं।
लेकिन तुम रीते नहीं हो
मेरे मित्र!
तुम खुद हो
अपने भीतर,
और वे सारी नदियाँ
और वे सारे समुन्दर
और सद्यस्क सृजन की संभावना।
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( चार )
काँच की किताब
वो जो कहानियाँ
वो जो कविताएँ
लिखी गई हैं
लिखी जा रही हैं
प्यार की,
वो काँच के शब्दों से
काँच के सफ़हों पे
लिखी जा रही हैं।
प्यार के लिए
काँच की एक किताब
लिखी जा रही है,
काँच के शब्दों से।
इसे आँखों के सामने रखकर देखो
तो वो सबकुछ दिखता है
जो हम देख सकते हैं।
लेकिन इसे
पढ़ नहीं सकते।
अंतर्मन में महसूस करो
इसके शब्दों का स्पर्श।
वो जो किताब
लिखी जा रही है
प्यार की,
उसके कुछ सफ़हे
कुछ पाठ गिरकर टूट चुके हैं।
फिर भी वो किताब
लिखी जा रही है
लिखी जाती रहेगी सदा।
नए वरक़ जुड़ते रहेंगे उसमें
नए पाठ लिखे जाएँगे
प्यार के।
काँच के शब्दों से।
परिचय
नीरज मनजीत
साहित्यकार, स्वतंत्र पत्रकार
जन्म-- 26 मई 1952, कवर्धा में।
नियमित लेखन 1970 से।
आकाशवाणी रायपुर से रचनाओं का नियमित प्रसारण 1975 से।
पाँच बार रेडियो साहित्य पत्रिका पल्लवी का संपादन।
1985 से पत्रकारिता में।
सम-सामयिक राजनीति, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र, साहित्य, अध्यात्म, खेल, सिनेमा,
कारोबार तथा अन्य कई विषयों पर एक हजार से अधिक लेख प्रकाशित। कॉलम राइटिंग भी।
एक कविता संग्रह तथा संपादन में एक यात्रा-वृत्तांत संग्रह प्रकाशित।
फिलहाल स्वतंत्र लेखन और व्यवसाय।
संपर्क-- हैप्पीनेस प्लाजा, नवीन मार्केट, कवर्धा 491995
मोबाइल -- 96694 10338
ईमेल --- [email protected]