साहित्य
किशनलाल की सात कविताएं
1. तीसरा विकल्प
इस मुगालते में मत रहो
कि जंगल तुम्हारा है
या पेड़ तुम्हारे हैं
जितनी देर तक
तुम हंडिय़ा में
सल्फी तक नहीं ढार सके थे
उतनी देर में तो
खरीदी-बिक्री के
सारे कारोबार हो चुके थे
तुम्हारा कोई हक नहीं
नदियों के पानी पर
इनकी लहरों पर
कब के हो चुके हैं हस्ताक्षर
पहले तुम कौतूहल थे
इसलिए खूबसूरत थे
निश्छलता के पर्याय
और भोलेपन के मूरत थे
अब तुम अबूझ नहीं
बोझ हो
बांस जितने सोझ हो
इसलिए तुम्हें कटना है
तुम क्या समझते हो
कि तीरथगढ़ या चित्रकोट के जलप्रपात
तुम्हारे इतिहास का गौरवगान करते हैं?
नहीं
ये झरने
अब मर्सिया पढ़ते हैं
इंद्रावती में कलकल नहीं
ए. के. 47 की गोलियों की तड़तड़ है
तुम्हारी चीखें
बस्तानार की घाटी में
घुटकर रह जाएंगी
कभी नहीं पहुंच पाएंगी
बचेली के हिलटॉप तक
इस धोखे में मत रहो
कि ये तुम्हारे रखवार हैं
गौर से देखो
इनके हाथों में तलवार है
इनके और तुम्हारे बीच
रायपुर से दंतेवाड़ा तक की दूरी है
तुम्हारी संस्कृति के गर्दन पर
इनकी सभ्यता की छुरी है
इनकी ऐयाशी के लिए
जितने मॉल, होटलें
पांच-पांच, सात-सात मंजिल हैं
तुम्हारे लिए
विकास, मुख्यधारा जैसे शब्द
उतने ही अश्लील हैं
अपने घर की महिलाओं से कहो
कुछ ढंकना भी सीखें
इतना खुलापन ठीक नहीं
क्योंकि खुलापन
सोवियत संघ के लिए जितना ग्लासनोश्त था
इनके लिए जिंदा गोश्त हैं
रखवाले तो ये भी नहीं हैं
जो तुम्हारे हितैषी बनकर
तुम्हारे ही घर में घुसपैठ जमाए हैं
तुम्हारा ही मांस खाते हैं
और तुम्हारे ही खून से अचोते हैं
कुआं और खाई के
घिसे-पिटे मुहावरे से बाहर निकलो
और देखो
एक तरफ शेर
दूसरी तरफ भेडि़ए हैं
तुम्हें खाने से पहले
अपने नुकीले दांतों से
तुम्हें वालीबाल की तरह फेंकते हैं
एक-दूसरे के पाले मेें
बारसूर-कुटुमसर की
अंधेरी गुफाओं से बाहर निकलो
और बीच का
रास्ता तलाशना छोड़कर
सोचो कि
जीने के लिए
कोई तीसरा विकल्प है क्या?
2. लोकतांत्रिक व्यवस्था
धूप और बारिश से
कन्नी काटकर
चलते हैं लोग यहां
आम को आम
और इमली को इमली
नहीं कह सकते
उनकी भावनाओं को
लग जाती है ठेस
पता नहीं
बाबा कबीर
कैसे कह गए
इतने ठेठ?
चलते-चलते
कहीं हो जाए रात
तो उस शहर के कोतवाल से
रुकने के लिए
लेनी पड़ती है इजाजत
क्या पढ़ें और क्या न पढ़ें
यह सरकार ही तय करती है
कुछ किताबों को
घर में रखना
राष्ट्रदोह के बराबर अपराध
पहले से निर्धारित
नियम-कानून, धर्म-आस्था
यह है मेरे महादेश की
महान् लोकतांत्रिक व्यवस्था!
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3. मारे जाएंगे सभी आदिवासी
कथन-
कुछ आदिवासी, नक्सली हैं
कुछ आदिवासी, पुलिस के मुखबिर हैं
निष्कर्ष-
एक-सभी आदिवासी नक्सली हैं
दो-आदिवासी न नक्सली हैं
और न ही पुलिस के मुखबिर
तीन-आदिवासी नक्सलियों का साथ देते हैं
चार-पुलिस के मुखबिर हैं आदिवासी
दोस्तो!
उलझ गए न!
बहुत आसान निष्कर्ष है-
मारे जाएंगे
सारे के सारे आदिवासी.
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4. एक पल के लिए
एक पल के लिए
यह मान भी लूं
कि मैं हिन्दू हूं
तो भी कैसे भूल जाऊं
रविशंकर के सितार-प्रेम में
बिस्मिल्ला खां को
जिनकी शहनाई की आवाज से
होती है मेरी सुबह
प्रेमचंद और निराला के बीच
कैसे विस्मृत कर दूं
गुलशेर खान शानी को
रजा, मंटो और फैज को
जिन्होंने मुझे
संस्कार दिया बराबर का
ओमपुरी और स्मिता पाटिल
बेशक बढिय़ा कलाकार सही
लेकिन शबाना और नसीरुद्दीन शाह
उनसे कमतर तो अदाकार नहीं
चंद्रशेखर आजाद, मंगल पांडे
और तमाम बलिदानियों के बीच
कैसे बिसरा दूं
अशफाक उल्ला खां
और अब्दुल हमीद की
शहादत को
अपने खास मित्रों के जिक्र में
बसंत त्रिपाठी और कुमेश्वर कुमार के बीच
कैसे भूला दूं
फरहत, सलीम और
नासिर अहमद सिकन्दर को
एक पल के लिए
यह मान भी लूं
कि मैं हिन्दू हूं
तो भी.........
5. बच्चों के होंठों पर
बहुत कुछ
बचाया जा सकता है
बावजूद इसके
कि खत्म हो रही है
एक-एक करके
बहुत सारी चीजें
जैसे बचाया जा सकता है
चकमक पत्थर की आग को
रगों में दौड़ रहे
खून को गरमाने के लिए
बचाया जा सकता है
धरती के दूध को
जो जड़ों से होकर
खुशबू का रूप
ले रहा है
उन सपनों को
बचाया जा सकता है
जो टूटकर
बिखर भले गए हों
फिर भी है जिनमें
जीवन की बहुत कुछ संभावनाएं
हम बचा सकते हैं
मॉं की ममता
पड़ोसियों का प्यार
प्रेमिका के चुंबन
और दोस्तों की गाली को
जब दिन-ब-दिन
कम होती जा रही है
हमारी हॅंसी
हम सहेजकर
रख सकते हैं उसे
बच्चों के होंठों पर.
6. नक्शे के बीच
क्षयग्रस्त बूढ़े के
खखार-सा निकलता है सूरज
और मरहा बैल की तरह
घिसटता है धीरे-धीरे
बैलों के उगले पुआल-सी
बदरंग झोपडिय़ां
जहां जंग खाते नांगर हैं
और भोथरी कुल्हाड़ी-हॅंसिया
वहां मल-मूत्र से लिथड़े
भिनभिनाती मक्खियों के बीच
रोते-बिलखते बच्चे
जैसे दीवारों पर टंगे
कुपोषण के शिकार
परिवार नियोजन के
डरावने ईश्तहार
खेतों की दरारों से
जो बच गए हैं
वे शहर में हैं
या दोजख में
बचा-खुचा सुख
साहूकार का बंधुआ मजदूर है
मुट्ठीभर अनाज के लिए
शांति अस्मत खोने को म•ाबूर है
रात के भयानक अंधेरे में
अभिशप्त पीपल
जब उल्लुओं के
डैनों में फडफ़ड़ाता है
बेचैनी और लाचारी के
दो पाटों के बीच
पिसती हुई बूढ़ी औरतें
मृत्यु के दिन गिनती हैं
नक्शे के बीच
मगर विकास से दूर
इस अकालग्रस्त गांव में
राहत कार्य जैसे शब्द
बेमानी है
लगता है गांव का
नरक से लागमानी है.
7. राजधानी में पगली औरत
कस्बा नहीं, अब यह महानगर है
यहां चोरी
शराफत समझी जाती है
और लूट रोमांचकारी आदत
जहां कत्ल कर
सरेआम घूमते हैं कातिल
छह साल की बच्ची
और सत्तर वर्षीया बुढिय़ा में
कोई फर्क नहीं
बलात्कार इसकी
दिनचर्या में शामिल
उम्र के सोलहवें बरस में
जब लड़कियां
देखती हैं सपने
घोड़े पर चढ़कर
आते राजकुमारों के
वह किसी मनहूस ऋषि से शापित
मानो मुक्ति के लिए
लड़ रही थी-भूख से,
बीड़ी कारखाने का
कसैला धुआं पीती
जगह-जगह से पैबंद लगी
साड़ी से लिपटी
पिछवाड़े राज मंदिर के
सराय में सोती
सुबह-सुबह
तालाब में नहाती हुई
वह जान गई
कि खुले स्तन को देखने में
बच्चे, बूढ़े और जवान
किसी की भी नीयत में
कोई अंतर नहीं होता
और एक दिन
पुजारी के
रोज-रोज के पापोच्चार से
वह पागल हो गई
वह नंगी देह
घूमती है महानगर में
यहां-वहां
लोग उपयोग करते हैं उसका
मूत्रालय-सा
पल भर देखते हैं
इधर-उधर
और चले जाते हैं मूतकर
गड्ढा भर चुका है-
वह गर्भिणी है
एक शिशु महानगर
पल रहा उसकी कोख में
और प्रसव-पीड़ा से
व्याकुल वह
छटपटा रही है
सुनो! सुनो ओ महानगर!
पल रहा है तुम्हारा वंश
उसकी कोख में
प्रसव हेतु जगह चाहिए
वह तड़प रही है
पीड़ा से
उसे जगह चाहिए
क्योंकि एक कुतिया का भी
हक बनता है
नर्म-नर्म पुआल पर
प्रसव के पहले
यह तो फिर भी औरत है
लेकिन हाय!
पगली है बेचारी
ओ! ऊंची अट्टालिकाओं में
रहने वाले महानगर!
उसे कम से कम
किसी पेड़ की
छाया तो दो
छाया तो दो......