साहित्य
हरिओम राजोरिया की पांच कविताएं
मध्यप्रदेश के अशोक नगर में रहने वाले हरिओम राजोरिया हिंदी के एक बड़े कवि है. राजोरिया भारतीय जननाट्य संघ इप्टा से भी संबंद्ध है. कई सालों से वे बच्चों के लिए नाट्य कार्यशाला का आयोजन भी कर रहे हैं. यहां अपना मोर्चा डॉट कॉम की तरफ से पेश है उनकी पांच कविताएं.
लिखना
हर हाथ पर काम लिखना
हर रोटी पर नाम लिखना
झूठ-मूठ कुछ न लिखना
और जो लिखता हो
उसे बदनाम लिखना
पैसा लिखना
अहसान लिखना
परेशान को परेशान लिखना
ख़ामोश जो रहता हो
उसे ख़ामोशी का अंजाम लिखना
सुबह को सुबह लिखना
शाम को शाम लिखना
राम-राम करके जो गुज़र गया
थोड़ा तफ़सील से ठहरकर
उस वक़्त का कुछ हाल लिखना
पहले लिखना आंसू
फिर लिखना पसीना
लड़कर जो हार गया
हार कर भी जो लड़ता हो
उस आदमी का मेरा सलाम लिखना।
मनुष्य
एक शब्द ' हिन्दू ' लिखते-लिखते
अचानक हाथ रुक जाता है
अब मैं 'मनुष्य ' लिखना चाहता हूं
होने को मेरा नाम हरिओम है
और मैं हिन्दू हूं
पर अब इससे ज़्यादा
और हिन्दू होने की
आकांक्षा नहीं है मेरे भीतर
ज़्यादा हिन्दू होने के लिए
किसी से नफ़रत करनी पड़ेगी
इसलिए इतिहास के
पचड़े में ही नहीं पड़ना चाहता
हुंकार , विहान , स्वाभिमान , राष्ट्र , दहाड़
जैसी शब्दाबली डराने लगी है
भाषा और संस्कृति के पेंच में फंसाकर
आप एक
आभासी भय की संरचना करेंगे
और एक दिन
दंगाई बना देंगे मुझे ।
मैं गायक बनना चाहता था
शुरू किया जो बेटे ने गाने का अभ्यास
मेरे भीतर भी कुछ बजने लगा
काश ! मैं भी गा पाता
ओंठों तक आकर
ठहर गए शब्द
तन-मन में सिहरन सी दौड़ गई
एक लहर सी आई
भिगो कर चली गई
शब्द रहित लय तैर गई स्मृति में
समय को ठेलकर
चालीस साल पीछे लौट गया
छन-छन कर सुनाई पड़ी
एक बूढ़ी स्त्री की बुझी हुई आवाज़
तनिक जलकर बुझ गई
हवा में हिलती
टाँड़ पर धरी चिमनी की लौ
सुन्दर स्वप्न की तरह था एक गान
जो अकेले हो जाने की असहायता
और भीड़ में खो जाने से बचाता था
जो भीतर रह-रह कर कुरेदता रहता
और बाहर आते ही
हवा में कहीं बिखर जाता
जिसे गा ही न पाया कभी ठीक से
कैसी बिडम्बना रही कि मुझे पता ही नहीं
मैं गायक बनना चाहता हूँ
न गला , न वैसा अभ्यास
न कोई बाजा ही मेरे पास
गायक हो जाने का भरम भी नहीं
आज बेटे ने गाया तो
गाने का भरम आया
एक सपना आया
और बगल कम्बल में आकर दुबक गया
कोई बनाना चाहता अगर
हो न हो मैँ भी बन गया होता गायक
उस समय में भी इस देश में
लोग बनाये जा रहे थे जाने क्या-क्या
कुछ जो गायक बनना चाह रहे थे
बाद में तोता ही बनकर रह गये
कुछ बनते-बनते लोगों को बनाना सीख गये
कुछ एक बार जो कौआ बने तो
फिर उससे आगे कुछ बन ही न सके
कोई व्यवस्था में फिट होकर कुछ बन गया
कोई अव्यवस्थाओं की बजह से कुछ न बन सका
कोई बनते-बनते तनिक रह गया
कोई बनते-बनते पूरा ही बन गया
कोई अभावों से हारकर चुप बैठ गया
कोई अभावों से लड़कर कुछ बन गया
पर मैं न बन सका गायक
उन बहुत सारे लोगों की तरह मुझे भी
बिलकुल भी पता न था
कि मैं गायक भी हो सकता हूँ
निज गौरव के लिए नहीं थी
मुझमें गायक हो जाने की आकांक्षा
पहले यूं ही गाता था
गाता तो गाता ही चला जाता
कभी पिता की घुड़की रोक देती
कभी बहिनों की न रुकने वाली हंसी
कभी कनारी के मुंह से मुंह मिलाकर गाता
कभी दरबाजे पर देर तक
उंगलियों से तीन ताल बजाता
देर तक गणित का सवाल अधूरा छोड़
टेबल ठोक-ठोक कर चिल्लाता
पर गाना मेरा कभी
गाने जैसा तो नहीं ही हो पाता
आज बेटे ने जब गाया तो
एक गीत बर्फ़ की तरह
पिघलने लगा भीतर ही भीतर
और चालीस साल बाद आंख की कोर से
आंसू बनकर रिस गया ।
वह लड़की
कहां चली गई वह लड़की
कोई नहीं करता उसका ज़िक्र
गीत भी चले गए उसके साथ
चला गया गांव का जस
सौदा करने गई थी हाट में
कोई खुद उसे
खरीद ले गया शायद
अबकी ऐसी गई
लौटकर नहीं आई
ऐसी परी तो नहीं थी
फूल सा नहीं था उसका शरीर
बड़ी - बड़ी आंखों
और पतली कमर वाली
वह सांवली-सी लड़की
काले-काले खेतों में खड़ी
गेंहू की हरी बाल थी
पहले भी जाती थी कई बार
चैत काटने
या मजूरी को दूर देश
गांव सोचता था
अबकी न फिरेगी
मर-खप जाएगी कहीं
उठा ले जाएगा जिनावर
या घास काटते वक़्त
डस लेगा उसे सांप
हुलसकर गाते हुए
वह लौट आती थी हर बार
चढ़ती नदी में कूदकर
निकल आती थी साबुत
फूले हैं टेसू
कुहुक-कुहुक उठती है कोयल
लौट आया बसंत
लौटकर नहीं आई वह लड़की ।
लक्ष्मी
स्कूल तो चली ही जाना
पहले भजियन डारी कड़ी बनाओ
लाल धधकते दिये से
कड़ी में बघार लगाओ
फिर रोटियों की जेठ बनाओ
खाना परसो
जाओ ! थोड़ा नमक ले आओ
चूल्हे के पास धरी
दियासलाई उठा लाओ
हैंडपम्प से चार डिब्बा पानी भर दो
काम निपट जाए फिर जी भर कर पढो
अब किताबें धर दो , झाड़ू उठा लो
दाल बीनो , दूध जमा दो डलिया भरी राख , घूरे पर फेंक आओ
देहरी पर बैठे कुत्ते को भगाओ
तुम्हारे होने से घर का होना है
सीना , पिरोना , लीपना , ढिग देना है
झटकारना , बुहारना ,फटकारना
छोटे भाई-बहिनों को पुचकारना
तेज धार में बहते चले जाना
कीक मारकर नहीं
धीरे-धीरे सुबकना
समय मिलते ही पाठ याद करना
दो-दो घरों में उजियारा जो करना है
रोना , झींकना , गिड़गिड़ाना है
मन की बात मन में छुपाना है
उपवास करके आरती गाना है
होम लगाकर टुनटुनी हिलाना है
एक सुकोमल सुंदर स्त्री
जैसे रंगीन केलेण्डर में
मंद-मंद मुस्काते
भगवान विष्णु के पैर दबाती है
और पैर दबाते - दबाते एक दिन
तस्बीर में तब्दील हो जाती है ।
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