फिल्म

अब लव के पीछे लट्ठ लेकर पड़ गए हैं छत्तीसगढ़ के फिल्मकार

राजकुमार सोनी

अमीर परिवार से ताल्लुक रखने वाली हीरोइन, गरीब परिवार का हीरो, हीरोइन का तालाब में गिरना, हीरो का उसे बचाना, प्यार का इकरार, फिर दो प्यार करने वालों के बीच छिछोरे किस्म के खलनायक की इंट्री... बेमतलब की बारिश में लपड़-झपड़ और ढिशुंम- ढिशुंम...

हिंदी फिल्मों के ये सारे फार्मूले भले ही मुंबई में बासी पड़ गए हों, लेकिन छत्तीसगढ़ी सिनेमा में अब भी इनकी धूम बरकरार है. छत्तीसगढ़ में हर दूसरे पखवाड़े जेमिनी और एवीएम प्रोडक्शन की मद्रासी तासीर वाली फिल्मों का प्रदर्शन होता है. खेती-खार, आटो-ट्रैक्टर बेचकर और ज्यादा हुआ तो एक-दूसरे को टोपी पहनाकर फिल्म का निर्माण करने वाले फिल्मकार चोरी-चकारी से निर्मित फिल्म को ही अपने जीवन की उपलब्धि मान बैठे हैं और अपनी दुनिया में खुश है. सच तो यह है कि छत्तीसगढ़ का एक भी सुधि दर्शक चोरी-चकारी करने वाले फिल्मकार को गंभीरता से नहीं लेता है. सुधि दर्शक अगर कभी गलती से फिल्म देखने चला गया तो खुद पर हंसता है. खुद को गालियां देता है कि कहां फंस गया. कोसता है. अपने माथे को लहू-लुहान करने के लिए दीवार की तलाश करता है, लेकिन इससे आत्ममुग्ध निर्माता-निर्देशकों को फर्क नहीं पड़ता... उनका अपना संसार है. वे गदगद रहते हैं और निर्बाध गति से मरियल- सड़ियल सी कहानी में सेंध मारने के काम में लगे रहते हैं. अगर गलती से किसी ने उन्हें टोका तो वे लामबंद हो जाते हैं और नारे लगाते हैं-ज्यादा आलोचना करने की खुजली लगी है तो फिल्म बनाकर दिखाओ....?

राज्य निर्माण के बाद यहां लगभग साढ़े तीन-सौ के आसपास फिल्में रिलीज हो चुकी हैं, लेकिन सात-आठ फिल्मों को छोड़कर ज्यादातर फिल्में अपनी लागत तक वसूल नहीं पाई है. किसी निर्माता से पूछो कि भइया... ऐसा क्यों हो रहा है तो वह तुरन्त रटा-रटाया उत्तर देगा- देखिए... छत्तीसगढ़ में सिंगल थियेटर की कमी है. छबिगृह बंद हो रहे हैं. सरकार सब्सिडी नहीं देती, लेकिन कभी नहीं कहेगा कि भाई साहब... हम लोग मौलिक कहानी पर काम नहीं करते.घटिया फिल्में बनाते हैं... हद दर्जें केअलाल है और मेहनत से जी चुराते हैं.

वर्ष 2000 में जब राज्य का निर्माण हो रहा था तब मोर छंइया-भुइंया जैसी एक फिल्म आई थी. एक गांव की पारिवारिक कहानी पर बनी यह फिल्म इसलिए चल निकली क्योंकि जिस दौरान राज्य बना उस समय हर तरफ खुशी का माहौल था. प्रदेश के हर दूसरे व्यक्ति को यह लग रहा था कि अब उसे एक नई पहचान मिलने जा रही है. फिल्म में स्थानीयता की जबरदस्त रंगत और उमंग के वातावरण की वजह से लोग-बाग थियेटर तक खिंचे चले आए. इस फिल्म की सफलता के बाद पंद्रह से बीस लाख लगाकर करोड़ों रुपए कमाने का नुस्खा लोगों को इतना अधिक भा गया कि हर गली-कूचे में आड़े-तेड़े निर्माता-निर्देशकों की फौज दिखाई देने लगी. जिसे देखो वहीं फिल्म बनाने के काम-धंधे में लग गया था.हर निर्माता और निर्देशक अपनी फिल्म के नाम के आगे-पीछे मोर ( मेरा ) शब्द का इस्तेमाल करने लगा- मोर संग मितवा, मोर धरती मैया, मोर संग चलव, मोर गांव- मोर धरम, माटी मोर महतारी, मोर सपना के राजा, मोर गंवई, ए मोर बांटा, अब मोर पारी हे, मोर सैंया, सुंदर मोर छत्तीसगढ़, मोर जोड़ीदार.... ( और भी न जाने कितने मोर ??? )

जब लोग मोर से बोर गए तो प्रेम चंद्राकर फिल्मों में मया ( प्रेम ) की बहार लेकर आए. उनकी फिल्म मया देदे- मया लेले औसत कहानी के बावजूद हिट रही. उसके बाद  परदेसी के मया, मया देदे मयारु, मया ने भी ठीक-ठाक व्यवसाय किया. बस फिर क्या था... मया ब्रांड की फिल्मों की कतार लग गई. मया होगे रे, तोर मया के मारे, मया के बरखा, मया म फूल मया मा कांटे, तोर मया मा जादू हे... और भी न जाने कितनी मया... मगर बाद में किसी भी मया ने टिकट खिड़की पर पानी नहीं मांगा.

अब लव की बारी

वैसे तो छत्तीसगढ़ की हर फिल्मों में एक प्रेम कहानी चलती है, लेकिन पिछले कुछ समय से मया-फया का स्थान अंग्रेजी शब्द लव ने ले लिया है. कुछ समय पहले निर्माता मोहन सुंदरानी ने आईलवयू नाम की फिल्म बनाई थी. इस फिल्म ने टिकट खिड़की पर धमाल मचाया तो उन्होंने आईलवयू टू बना डाली.  बताते हैं कि उनकी दूसरी फिल्म ने पहले जैसा व्यवसाय नहीं किया, बावजूद इसके लागत निकल गई. उनकी इस सफलता के बाद लव ब्रांड फिल्मों का ट्रेंड चल निकला है. अभी छबिगृह में मुंबई के पाव बड़ा और मद्रास के मसाला दोसा का अजीबो-गरीब स्वाद देने वाली फिल्म लव दीवाना चल रही है. इस फिल्म के बाद यह भी प्रचारित हो रहा है कि छत्तीसगढ़ को उनका अपना सलमान खान मिल गया है. ( हकीकत यह है कि छत्तीसगढ़ अपना नायक कुमार गौरव या सलमान खान में नहीं बल्कि गांव के मजदूर और किसान में ही तलाश करता रहा है.)

बहरहाल किसान-मजदूर की समस्याओं से दूर शहर के चौराहें लव-लव से पटे हुए हैं. आने वाले दिनों में भी शायद ऐसा ही हो क्योंकि आ रही है फिल्म- सारी लव यू जान, लव लेटर, लव मैरिज, मोला लव होगें, तोर-मोर लव स्टोरी....... ( और भी न जाने कितने प्रकार के लव )

इतना ज्यादा लव हो गया है कि ट्रैफिक जाम हो गया है.

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दर्शकों के दिल पर निशाना लगा गई सांड की आंख

चंद्रशेखर देवांगन शेखर

दो महिलाएं.... उम्र 60 साल... हाथ में पहली बार पिस्टल... सामने निशानेबाजी का गोल गत्ता.......धांय.......सर्किल के बीचों-बीच..... परफेक्ट निशाना....। आवाज आई-दादी जरा एक बार फिर से’’... ’’तो लो फिर’’...धांय....धांय....धांय।  ’’दादी तूने दे मारा बुल्स आई’’... बुलसाई... ना.. रे... ’’सांड की आंख’’।

    हरियाणा के अति पारंपरिक सामाजिक संरचना वाले छोटे से गांव की विश्व की सबसे बुजुर्ग शार्प शूटर  महिलाओं चंद्रो तोमर और प्रकाशी तोमर के निशानेबाजी की विजय गाथा पर हालिया रिलीज़ फिल्म ’’सांड की आंख’’ बायोपिक श्रेणी में एक अलग तरह की फिल्म है।

गांव में निशानेबाजी का एक ट्रेनिंग सेंटर खुलता है। बेटियों को निशानेबाजी की स्पर्धा जीतने पर सरकारी नौकरी मिल सकती ऐसा पता चलने पर अपने बेटियों को निशानेबाजी सीखाने उनका हौसला हफजाई करने चंद्रो और प्रकाशी हाथ में पिस्टल लेते हैं.... जिंदगी में पहली बार...और निशाना सीधे बुल्स आई में....। ट्रेनर ने कोयले में छुपे हीरों को पहचान लिया। अब शुरू होती है असली जंग–ए  आज़ादी। सख्त पाबंदियों के बीच छुपते–छुपाते साठ साल के  चंद्रो और प्रकाशी कैसे निशानेबाजी की बारीकियां सीखते हैं और परिवारिक दंगल के बीच रोज पटखनी खाते चंद्रो और प्रकाशी बुढ़ापे में अपने निशानेबाजी से  कैसे पूरे देश और दुनिया भर में तीस-तीस मेडल अपने नाम कर लेते हैं। 

दिल्ली में एक शूटिंग स्पर्धा में अनपढ़ प्रकाशी तोमर ने पुलिस के डीआईजी को हराया तो डीआईजी साहब ने यह बोलकर प्रकाशी के साथ फोटो खिंचवाने से इंकार कर दिया कि ’’आज उसे एक औरत ने उन्हें अपमानित कर दिया’’। भारत में स्त्री होना तो किसी गुनाह से कम नहीं है. स्वामी विवेकानन्द जब शिकागो से भारत लौटे तो उन्होंने कहा कि पाश्चात्य मुल्कों में औरतों को पुरुषों के पैर की जूती नहीं समझा जाता। भारत में पुरुषों द्वारा अपनी पूरी क्षमता का प्रदर्शन नहीं कर पाने का बड़ा कारण भी यही रहा कि उन्होंने अपनी क्षमता का आधा हिस्सा तो स्त्रियों को दबाने में लगा दिया। वर्ना हमारा देश आज चंद्रयान क्या, सूर्ययान भेज रहा होता।

           लेखक जगदीप सिद्धू ने बेहतरीन पटकथा लिखी तो तुषार हीरानंदानी का निर्देशन भी कमाल का रहा... हां फिल्म का कलापक्ष थोड़ा कमजोर है। संगीत प्रभावशाली नहीं बन पाया। किसी भी फिल्म का दर्शकों पर  सबसे पहला प्रभाव नाम से पड़ता है, और ’’सांड की आंख" इस मामले में बचकाना प्रभाव डालती है। अन्यथा फिल्म बाक्स आफिस पर थोड़ा और ज्यादा धमाल मचाती. प्रकाश झा अच्छे शोमैन हैं परन्तु अभिनय में कमजोर। तापसी पन्नू और भूमि पेडणेकर इस अति व्यावसायिक दौर में सार्थक कलाकार हैं। तापसी पन्नू तो नए दौर की स्मिता पाटिल है। ओवरआल ’’सांड की आंख" बड़ी ही प्रेरक फिल्म हैं। एक बार अवश्य देखी जानी चाहिए। फिल्म ’’सांड की आंख" कहती हैं, कि ’’जिनकी आंखो में हरदम जुगनू टिमटिमाते हैं, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि दिन का उजाला है या रात का घना अंधेरा’’।

 

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रंगोबती को देखते हुए कुमार गौरव और उनकी फ्लाप फिल्मों की याद हो जाती है ताजा

राजकुमार सोनी

एक निर्माता है अशोक तिवारी. सुना है कि उन्होंने तीन फिल्में बना ली है. पहली फिल्म का तो पता नहीं, लेकिन दूसरी फिल्म रंगरसिया के बारे में यह खबर अवश्य मिली थीं कि उसने बाक्स आफीस पर थोड़ा-बहुत धमाल मचाया था.अब आई है उनकी तीसरी फिल्म-रंगोबती.

रंगोबती ओ रंगोबती... यह ओड़िशा के संबलपुर इलाके के लोक गायक  हरिपाल का बेहद प्रसिद्ध गाना है. यह गाना आज भी इतना ज्यादा पापुलर है कि झुग्गी बस्तियों में होने वाली शादी-ब्याह में अक्सर सुनने को मिल जाता हैं. अब तो इस गाने को पूरे तामझाम के साथ नामचीन कलाकार भी गाते हैं. ( रामसंपत के निर्देशन में इस गाने को सोना महापात्रा की आवाज में यू ट्यूब में सुन सकते हैं. ) ...

...तो फिल्म में इस गाने के नाम ( रंगोबती ) की लोकप्रियता को भुनाने की असफल कोशिश की गई है. लोकगायक हरिपाल की गाने की जो नायिका है वह लाजे.. मोहे लाजे.. लाजे... कहकर शर्माती है. मगर फिल्म वाली रंगोबती... लात-घूंसा चलाती है.

फिल्म के निर्देशक पुष्पेंद्र सिंह रंगमंच से जुड़े हुए एक जानदार अभिनेता है. रंगमंच के अलावा छत्तीसगढ़ की फिल्मों में उनका अभिनय सर चढ़कर बोलता है, मगर एक बासी कहानी और थके हुए कलाकारों के साथ बनाई गई यह फिल्म उनके काम पर सवाल खड़ा करती है. सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या एक अच्छे अभिनेता को सड़ियल और मरियल सी कहानी पर अभिनय के नाम पर खानापूर्ति करने वाले कलाकारों के साथ फिल्म बनाने के बारे में विचार करना चाहिए था ? फिल्म को देखते हुए आपको कमाल हसन की चाची 420, गोविंदा की आंटी नंबर वन और हिंदी की वे सब फिल्में याद आ जाती है जिनमें हीरो ने महिला किरदार निभाया है. अगर यह फिल्म हिंदी की कुछ बेहतरीन फिल्मों का ठीक-ठाक मिश्रण होती तो भी कोई बात बन सकती थीं, लेकिन फिल्म  का हर फ्रेम जाना-पहचाना और बासी है जिसकी वजह से उब होने लगती है. (  मैं इस फिल्म को इंटरवेल के बाद छोड़कर चला गया. )

कल रविवार को जब मैं यह फिल्म देखने गया तब बालकनी में थोड़े-बहुत दर्शक थे. नीचे की अधिकांश सीटें खाली थी. जैसे-तैसे केवल इंटरवेल तक झेल पाया. हाल के बाहर निकला तो निर्देशक पुष्पेंद्र मिल गए. मैंने उन्हें भी बताया कि झेलना थोड़ा कठिन हो रहा है. ( वे मुस्कुराते रहे और फिर उन्होंने कहा- अगर फिल्म खराब है तो खराब लिखिएगा...मैं सुधार करूंगा ताकि अगली बार दर्शकों को निराशा का सामना न करना पड़े. मैं उनकी साफगोई का कायल हूं और इस साफगोई के लिए उन्हें बधाई देता हूं. छत्तीसगढ़ में फिल्म बनाने वाले निर्माता-निर्देशकों, कलाकारों को केवल चमचागिरी पसन्द है, लेकिन पुष्पेंद्र इससे अलग है. वे अपनी आलोचना को भी सीखने का उपक्रम मानते हैं. )

 

फिल्म में इंटरवेल के बाद की क्या कहानी है इसकी जानकारी मेरे पास उपलब्ध नहीं है. ( फिल्म में इंटरवेल के पहले की भी जो कहानी है वह भी ऐसी नहीं है कि उसे स्मृति का हिस्सा बनाकर रखा जाए. )

फिल्म में कुमार गौरव और उनकी फ्लाप फिल्मों की याद दिलाने वाला एक अभिनेता अनुज है जो शहर से गांव आता है. गांव में वह अपनी पुरानी प्रेमिका जो एक अमीर आदमी ( प्रदीप शर्मा ) की बेटी हैं से मिलता है. दोनों के प्रेम में बाधा उत्पन्न होती है तो कुमार गौरव मतलब अनुज शर्मा लड़की का भेष धारण कर अमीर आदमी के घर भोजन पकाने का काम करने लगता है. रंगोबती पर अमीर आदमी का दिल आ जाता है और उसके मुनीम का भी. फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने के लिए एक बंगाली और एक ओड़िशा की महिला पात्र के साथ तीन पुरूष किरदार और है. फिल्म की मरी और लचर कहानी को ये पांच पात्र अपने अभिनय से खींचने का प्रयास करते हैं. हालांकि फिल्म में उनके हास्य प्रधान दृश्यों का कहानी से कोई सीधा रिश्ता नहीं बनता, लेकिन यह भी सच है कि अगर ये पांच पात्र नहीं होते तो मैं पंद्रह मिनट के बाद हॉल छोड़कर चला जाता.

फिल्म में अनुज शर्मा का अभिनय बेहद कमजोर है. महिला के किरदार को जीने के लिए जो मेहनत करनी चाहिए थीं वह  दिखाई नहीं देती. यहां तक आवाज पर भी काम नहीं किया गया. फिल्म के सारे पात्र इंटरवेल तक चीख-चीखकर और खींच-खींचकर संवाद बोलते हैं. अभिनय के नाम पर प्रदीप शर्मा जैसे अभिनेता इन दिनों केवल अपने मुंह को आड़ा-तेड़ा कर रहे हैं. उनकी आड़ी-तेड़ी भाव भंगिमाओं को देखने से बेहतर है कि आप बगल में बैठे हुए दर्शक को देखिए कि वह अंधेरे में क्या कर रहा है. ( दुर्भाग्य से कल कोई आजू-बाजू में भी नहीं था. ) मुनीम बने निशांत उपाध्याय के बारे में यह विख्यात है कि वह छत्तीसगढ़ी फिल्मों का सबसे बेहतरीन कोरियोग्राफर है. लेकिन रंगोबती में न तो ठीक-ठाक कोरियाग्राफी दिखाई दी और न ही मुनीम के रुप में उनका अभिनय. फिल्म की अभिनेत्री को न तो ढंग से हंसने का मौका मिला और न ही ढंग से रोने का.

( नोट- फिल्म पर यह राय केवल इंटरवेल तक है. हो सकता है इंटरवेल के बाद फिल्म अच्छी हो और दर्शकों के लायक हो,लेकिन मेरे लिए यह फिल्म किसी लायक नहीं है. कल इस फिल्म को देखकर मैंने अपना वक्त बरबाद किया. आज लिखकर कर रहा हूं. मुझसे गलती हुई... मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था. )

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लेखक अंजन कुमार का कहना है-अगर कला को जिंदा रखना है तो देखी जानी चाहिए मंदराजी

अंजन कुमार पिछले कई वर्षों से छत्तीसगढ़ी सिनेमा संस्कृति के नाम पर बम्बईया छाप फिल्म की नकल ही कर रही है। इन फिल्मों में कुछ नया या मौलिक काम देखने को नहीं मिलता। घोर व्यवसायिक मानसिकता और सस्ती लोकप्रियता की आत्ममुग्धता में लीन यह फिल्में छत्तीसगढ़ी सिनेमा को कोई दिशा या ऊँचाई दे पायेगी फिलहाल ऐसा कुछ दिख नहीं रहा। जबकि छत्तीसगढ़ में अच्छे लेखक, अच्छे कलाकार, अच्छे विषयो और फिल्मों के अच्छे जानकारों की कोई कमी नहीं है। बस कमी है तो उस गंभीरता और बैचेनी की जिससे अच्छी फिल्मों का सृजन होता है और वैश्विक पहचान मिलती है। छत्तीसगढ़ी सिनेमा अपनी इस कूपमंडूकता से बाहर निकलकर कब कोई महत्वपूर्ण फिल्म बना पायेगी और छत्तीसगढ़ को एक पहचान दे पायेगी, फिलहाल इसका इंतजार हैं। लेकिन इसी बीच हाल में ही रिलीज हुई विवेक सारवा द्वारा निर्देशित छत्तीसगढ़ की लोककला नाचा के जनक दाऊ दुलार सिंह मंदराजी पर बनी पहली बायोपिक फिल्म ‘दाऊ मंदराजी’को देखने का अवसर मिला। छत्तीगढ़ के ऐसे फिल्मी माहौल में जब किसी भी सामाजिक सरोकार से परे फिल्म का मतलब कुछ भी परोसकर पैसा कामना हो। ऐसे व्यवसायिक समय में यदि कोई फिल्म निर्देशक बाजारु और चालु टाइप की छत्तीसगढ़ी फिल्म के बरअक्स छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति नाचा के जनक महान कलाकार दाऊ मंदरा जी पर बायोपिक फिल्म बनाने का जोखिम उठाता है तो निश्चित तौर पर यह काबिले तारीफ है। यह अपने आप में एक साहसिक एवं चुनौती पूर्ण कदम है। जिसकी सहराना की जानी चाहिए। और वैसे भी वह कलाकार और फिल्म ही क्या जो जोखिम उठाने का साहस न रखती हो। क्योंकि किसी भी कला को बनने में सदिया लग जाती है, पर उसे खत्म होने में कोई समय नहीं लगता। और कला को सही मायने में बचाने वाले वही लोग होते हैं। जिनका जीवन मंदराजी की तरह कला को रचने, विकसित करने और बचाने के लिए समर्पित होता हैं। कोई सच्चा कलाकार कला के लिए कितना बैचेन और संघर्षरत होता है। उसके भीतर कितनी मानवीय संवेदना होती है। जिसकी चिंता में कला के साथ समाज भी शामिल होता है। वह कला जिसका सीधा संबंध जनता से होता है। और जनता को शिक्षित करना ही कला का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य होता है। इस उद्देश्य को यह फिल्म बहुत अच्छे से दिखाती है। दाऊ मंदरा जी का जीवन संघर्ष वस्तुतः एक सच्चे कलाकार का जीवन संघर्ष है जो कला के लिए सही मायनों में प्रतिबद्ध है। यहाँ जाकर यह कहानी विश्व की उन सभी प्रतिबद्ध कलाकारों के जीवन की कहानी से जुड़ जाती है। जिनके जीवन का अंत कला को जीवित रखने की चिंता और संघर्ष में ऐसी ही विषम व त्रासदपूर्ण स्थितियों में हुआ। यह फिल्म दाऊ मंदराजी के जीवनसंघर्ष के साथ ही छत्तीसगढ़ी नाचा जैसी महत्वपूर्ण लोक कला के संघर्ष और विकास की गाथा को भी दिखाती है। मंदराजी ने रवेली नाचा के माध्यम से नाचा का कैसे विकास किया उसे लोकप्रियता की ऊँचाई तक किस तरह पहुँचाया और उसके बाद कैसे व्यवसायिकता ने लोक कलाकारों को प्रभावित किया और लोककला अपनी सामाजिक भूमिका से कैसे भटक गई। इन सारी स्थितियों-परिस्थितियों के यथार्थ को यह फिल्म बेहद संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती है। बायोपिक फिल्मों में घटनाओं का विशेष महत्व होता है, क्योंकि इन्हीं घटनाक्रमों के माध्यम से किसी के चरित्र का निर्माण व विकास दिखाया जाता है। यह फिल्म भी ऐसे ही घटनाक्रम को प्रारंभ से प्रस्तुत करती चलती है। फिल्म के पहले भाग में यह घटनाक्रम कुछ बिखरा-सा जरूर प्रतीत होता है लेकिन दूसरे भाग में घटनाओं का निर्वाह बहुत अच्छे से किया गया है। जिससे दाऊ मंदराजी के सम्पूर्ण व्यकित्व के विकास का पता चलता हैं। नाचा और नाचा के कलाकारों के प्रति उनका जो गहरा लगाव है। उसे इस फिल्म में बहुत ही खूबसूरती और संवेदनशीलता के साथ दिखाया गया है। कला के संबंध में जो उनके संवाद है। वह कहीं-कहीं इतने काव्यात्मक है कि कला का जीवन और जगत के साथ जो गहरा संबंध है, उसे बहुत सुंदर ढंग से अभिव्यक्त करते है। मंदराजी ने नाचा को केवल मनोरंजन के उद्देश्य तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि कला को उसकी सामाजिकता के साथ जोड़कर देखा और उसका उसी रूप में विकास किया। कोई भी कला अपनी सामाजिकता में ही सार्थक और प्रासंगिक होती है। तथा सामाजिक हित में तथा अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध के रूप में उसका प्रयोग किस प्रकार किया जाना चाहिए। इसे इस फिल्म में बहुत ही सार्थक ढंग से दिखाया गया हैं। फिल्म का वातावरण समय सापेक्ष दिखाने का प्रयास किया गया हैं। बायोपिक फिल्म की एक बड़ी चुनौती फिल्म के नायक की होती है। जिसे उस व्यक्तित्व को अपने भीतर जीते हुए अपने अभिनय से जीवंत करना होता है। जिस पर पूरी बायोपिक फिल्म केन्द्रित होती हैं। इस दृष्टि से देखा जाये तो फिल्म के नायक करन खान ने निश्चित तौर पर एक चुनौती पूर्ण कार्य किया है और अपने अभिनय की कला से मंदराजी के चरित्र को बहुत अच्छी तरह से जीवंत किया है। उनका अभिनय इस फिल्म में देखने लायक है। फिल्म के अन्य कलाकार अमर सिंह, हेमलाल कौशिक, वेदप्रकाश चंदेल, नरेश यादव आदि बेहतरीन कलाकारों ने काफी अच्छा अभिनय किया है। और फिल्म को बाँधे रखने में सफल रहे हैं। लोक कला का श्रम के साथ गहरा संबंध होता है। क्योंकि यह श्रमजीवी वर्ग के द्वारा ही सृजित और विकसित होता हैं। इस फिल्म में एक लोहार के द्वारा मंदराजी का बचपन से बड़े होने तक तबला बजाने की शिक्षा देना। लोककला और श्रमजीवी वर्ग के इसी संबंध को बहुत खूबसूरती से दिखाता हैं। इस फिल्म में लौहार का किरदार भी दर्शकों को याद रह जाने वाला किरदार है। यह फिल्म अपने अंत तक जाते-जाते मंदराजी के जीवन की उस त्रासदपूर्ण और संवेदनशील स्थितियों को बहुत अच्छे से दिखाता है। जिसमें उनके जीवन का बेहद मार्मिक और दुखद अंत होता है। जहाँ दर्शक का हृदय संवेदना से भर जाता है। जिसे करन खान ने बेहद खूबसूरती से निभाया है। इस फिल्म की एक और बड़ी उपलब्धि इस फिल्म का गीत और संगीत भी है। इसमें लक्ष्मण मस्तुरिया के पाँच गीतों को लिया गया हैं। वे छत्तीसगढ़ के एक ऐसे महान गीतकार है। जिनके गीतों में छत्तीसगढ़ का जीवन अपने सम्पूर्ण यथार्थ की गंभीरता और रचनात्मक सुंदरता के साथ अभिव्यक्त होता हैं। इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि खुमान साव और गोंविद साव जैसे गंभीर लोक कलाकारों ने इस फिल्म में संगीत दिया हैं। छत्तीसगढ़ के लोक संस्कृति के महान कलाकारों और रचनाकारों को इस फिल्म में शामिल किया जाना यह बताता है कि इस फिल्म के निर्देशक विवेक सारवा छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति के अच्छे कलाकारों के प्रति काफी गंभीर समझ रखते हैं। आज छत्तीसगढ़ी सिनेमा को ऐसे ही समझदार और गंभीर निर्देशकों की जरूरत है। जो इस तरह के विषयों पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाये और भविष्य में छत्तीसगढ़ी सिनेमा को अपने सफल निर्देशन में एक दिशा और ऊँचाई दे पाये। क्योंकि किसी भी फिल्म का इतिहास आर्थिक रूप से सफल नहीं, बल्कि सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति में सफल फिल्मों से बनता है। और ऐसे ही फिल्मों को इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज और याद किया जाता हैं। हर फिल्म में कोई न कोई कमी जरूर रह जाती है। इस फिल्म में भी कुछ व्यहारिक तकनीकी कमियां जरूर हैं। बावजूद इसके बम्बईया छाप फिल्मों की बनी-बनाई मानसिकता को थोड़ी देर के लिए छोड़कर इस फिल्म को हर किसी को जरूर देखना चाहिए। क्योकि यह दाऊ मंदराजी के जीवन और नाचा जैसी महत्वपूर्ण लोककला के महत्व और उसके संघर्ष से हमें परिचित कराता है। जिससे छत्तीसगढ़ की वर्तमान पीढ़ी पूरी तरह अछूती है। इस फिल्म का अपना एक सांस्कृतिक महत्व है। इसलिए छत्तीसगढ़ सरकार को भी चाहिए कि इस तरह की फिल्मों को गंभीरता लेते हुए टैक्स फ्री करे ताकि इस तरह की फिल्मों को महत्व मिल सके और इस तरह की अच्छे विषयों पर भविष्य में और भी अच्छी फिल्में बनाने के लिए लोग प्रेरित हों तथा छत्तीसगढ़ी सिनेमा का बेहतर विकास हो पाये। यह प्रयास निरंतर छत्तीसगढ़ सरकार और छत्तीसगढ़ के समस्त गंभीर कलाकारों की तरफ से होते रहना चाहिए। क्योकि यह छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक अस्मिता का भी प्रश्न है। और कला के प्रति कलाकारों का सच्चा दायित्व भी। जिसे हर हाल बचाये और बनाये रखने की कोशिश बेहद जरूरी हैं। मोबाइल नंबर - 9179385983
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छत्तीसगढ़ी फिल्मों के जनक मनु नायक को पद्मश्री देने की मांग... मुख्यमंत्री से मिला प्रतिनिधिमंडल

रायपुर. गुरूघासीदास सेवादार संघ के अध्यक्ष लखन कुर्रे सुबोध की अगुवाई में शनिवार को सामाजिक कार्यकर्ता लाखन सिंह, फिल्मकार अनुज श्रीवास्तव, अशोक ताम्रकार और पत्रकार राजकुमार सोनी ने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से मुलाकात कर छत्तीसगढ़ी फिल्मों के जनक मनु नायक को पद्मश्री देने की मांग की. इस मौके पर विशेष रुप से  फिल्मकार मनु नायक भी मौजूद थे. मुख्यमंत्री ने उनके स्वास्थ्य की जानकारी ली और विस्तारपूर्वक चर्चा की. मुख्यमंत्री ने कहा कि वे स्वयं मनु नायक जी के प्रशंसक है और फिल्मी दुनिया में उनके संघर्ष और साहसपूर्ण काम से परिचित है.

प्रतिनिधिमंडल ने मुख्यमंत्री को अवगत कराया कि भाजपा के शासनकाल में भी मनु नायक को पद्मश्री देने की मांग उठी थीं, लेकिन तब कई ऐसे नामों पर विचार किया गया जिन्हें लेकर आज तक सवाल उठ रहे हैं. पूर्ववर्ती सरकार में दो-चार योग्य लोग ही पद्मश्री काबिल थे, लेकिन ऐसे-ऐसे लोग पद्मश्री पाने में सफल हो गए है कि पद्मश्री का मजाक उड़ने लगा. . छत्तीसगढ़ के बहुत से पद्मश्री अब छद्मश्री की उपाधि से भी नवाजे जाते हैं. प्रतिनिधिमंडल की बातों से अवगत होने के बाद मुख्यमंत्री ने भारत शासन को मनु नायक का नाम प्रस्तावित करने एवं पत्र लिखने का निर्देश दिया.

गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ में जन्मे मनु नायक ने वर्ष 1965 में पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म कहि देबे संदेश का निर्माण किया था. उन्हें इस फिल्म के निर्माण में काफी कठिनाइयों को सामना करना पड़ा था. छुआछुत, ऊंच-नीच और भेदभाव जैसे विषय पर फिल्म बनाना कोई सरल काम नहीं था. जब फिल्म रीलिज हुई तब एक समुदाय विशेष ने जगह-जगह विरोध जताया. कई जगह पोस्टर फाड़े गए और कुछ छबिगृहों में फिल्म को प्रदर्शित ही नहीं होने दिया गया. एक समुदाय विशेष के लोग जब विरोध करने दिल्ली पहुंचे तब तात्कालिक सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने विज्ञान भवन में फिल्म का विशेष शो देखा. इस फिल्म को देखने के बाद श्रीमती गांधी ने इसे सामाजिक ताने-बाने को मजबूत करने वाली बेहतर फिल्म बताया था.

मुख्यमंत्री से मुलाकात के बाद नुक्कड़ स्टूडियो में सीजी बास्केट के लिए मनु नायक का एक विशेष इंटरव्यूह भी रिकार्ड किया गया. लगभग आधे घंटे की बातचीत में मनु नायक ने कई विषयों पर चर्चा की. उन्होंने छत्तीसगढ़ के फिल्मकारों से आग्रह किया कि अगर वे सच में नवा छत्तीसगढ़ गढ़ना चाहते हैं तो उन्हें यहां के रीति-रिवाज, परम्परा और समस्याओं को वैज्ञानिक ढंग से अपनी फिल्म में जगह देनी चाहिए. एक नवा छत्तीसगढ़ तब ही बन सकता है जब सांस्कृतिक चेतना को संपन्न करने वाली फिल्मों का निर्माण होगा और यह तभी संभव है जब फिल्मकार केवल मनोरंजन और पैसा कमाने को ही अपना ध्येय नहीं मानेंगे.

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घोर व्यावसायिक और यथास्थितिवादी फिल्म- हंस झन पगली फंस जबे.

देश के प्रसिद्ध कथाकार कैलाश बनवासी बता रहे हैं कि हंस झन पगली फंस जबे... महज एक मुनाफा बटोरने वाली फिल्म है. इसका छत्तीसगढ़ के कठोर यथार्थ से जरा भी लेना-देना नहीं है. यह एक घोर यथास्थितिवादी फिल्म है. फिल्म को लेकर कैलाश बनवासी की यह लंबी टिप्पणी बहुत सारे सवाल खड़ा करती है.

 

कैलाश बनवासी

छोटेलाल साहू द्वारा निर्मित और सतीश जैन द्वारा निर्देशित ‘छत्तीसगढ़ी’(?) फिल्म ‘हंस झन पगली फंस जबे’ को रिलीजिंग दिन ही देखकर पत्रकार राजकुमार सोनी ने अपने वेबसाइट अपना मोर्चा डाट काम में समीक्षा करते हुए टाइटल में लिखा था—‘एक बण्डल फिल्म जो सुपर हिट हो सकती है.तब मैंने सवाल उठाया था कि भला एक बंडल फिल्म कैसे सुपर हिट हो सकती है? लेकिन राजकुमार सोनी का आंकलन बिलकुल सही निकला. यह फिल्म थिएटरों में रिलीज के एक महीने बाद भी बालीवुड की फिल्मों को मात देते हुए जबरदस्त कमाई कर रही है.इसके  इतने ज्यादा हिट होने के कारण इसके वास्तविक कारणों को जानने मैं यह फिल्म देखने गया.और पाया कि राजकुमार सोनी की दोनों बातें सही हैं—फिल्म सुपर हिट हो चुकी है.लेकिन वास्तव में बंडल है. लेकिन मेरी राय उस टिप्पणी से सहमत होते हुए भी कुछ अलग है.

  सतीश जैन मुख्यरूप से सिने व्यवसायी हैं,उन्होंने ऐसी फ़िल्में बनाई जिन्हें दर्शक देखने थिएटर जा रहा है. सिनेमा उद्योग में जिस तरह बड़ी-बड़ी फ़िल्में मुंह के बल गिर रही हैं,तमाम लटकों-झटकों के बाद भी फ्लॉप हो रही हैं,ऐसे में ‘हंस झन पगली फंस जबे’ जैसी फिल्म का हिट होना,मुझे एक सामान्य छत्तीसगढ़ी’ दर्शक की हैसियत से ‘अपील’ तो करता ही है. फिल्म में नया कुछ भी नहीं है. एक प्रेम कहानी और नायक-नायिका के पिताओं की आपसी दुश्मनी की कहानी दर्शक बॉबी’ के समय से देखते आ रहे हैं.फिल्म डेविड धवन मार्का हिट करने- कराने के तमाम फार्मूलों- एक्शन,ड्रामा,कॉमेडी -- से लैस है जो कभी ‘मैंने प्यार किया’ की याद दिलाती है तो कभी ‘फूल और कांटे’ की तो कभी ‘हम आपके हैं कौन’ या ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे ’ की.यानि कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा,भानुमती ने कुनबा जोड़ा’.स्वीकारना होगा,निर्माता-निर्देशक अपने उद्देस्श्य में सफल हैं. प्रश्न मेरे सामने यही है की छत्तीसगढ़ी दर्शकों ने इसे हाथो- हाथ क्यों लिया? हिंदी की हर दूसरी फिल्म की तर्ज पर बनी इस फिल्म में उन्हें ऐसा क्या नया अनोखा मिल गया जो किसी और फिल्म में नहीं था ? इसका जवाब हमारे सांस्कृतिक स्तर पर छिपा है. क्योंकि यहांं फिल्म की भाषा ही सबसे बड़ा आकर्षण है.लोग अपनी बोली-भाषा में हीरो-हिरोइन को बोलते देखना चाहते हैं,इसलिए,जरा-सा क्लिक मिलते ही लोग टूट पड़े हैं जो लोग इसे देखने जा रहे हैं,देखा जाय तो वे कौन लोग हैं? इसके सबसे बड़े दर्शक वे छत्तीसगढ़ी युवक-युवतियां हैं जो गांवों से कट चुके हैं. जिनका समय के साथ बहुत तेजी से शहरीकरण हो चुका है,और जो मनोरंजन के नाम पर सिनेमाई छल-प्रपंचों के गहरे शिकार हैं. ये छोटे-मोटे अस्थायी कामों में लगे लोग हैं,जिन्हें रोज खाना और रोज कमाना है. ज़ाहिर है ये अपनी संस्कृति से जुड़े होने  का भ्रम तो बनाए हुए हैं,जबकि वास्तव में उससे कटते जा रहे हैं.ये वे लोग हैं जिन्हें अपनी भाषा-बोली से बहुत प्यार है लेकिन इस समूह का सांस्कृतिक स्तर अभी भी बीस साल पुराना और पिछड़ा हुआ है. है. दूसरे,इस फिल्म ने अपने केंद्र में छत्तीसगढ़ी जनता या लोगों को तो रखा ही नहीं है! ना यहांं गांव हैं,ना किसान हैं,ना खेतखार,ना बारी-बखरी! ना ही गाय-बैल! कुछ भी तो दूर-दूर तक नहीं है. ना ही उन भीषण समस्याओं की कोई झलक है जिनसे छत्तीसगढ़ आज भी दो-चार है--- किसान या खेती की समस्या, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार,शोषण,,गांवों में आते बदलाव,कुछ भी तो नहीं है. फिर इसे भला छत्तीसगढ़ी फिल्म क्यों कहें? ना ही यहांं की लोक-परम्परा या रीति-रिवाज, ना नाच-गीत हैं ना संस्कृति ! फिर भी सब पसंद कर रहे हैं तो क्या यह नही मान लिया जाय कि लोगों में अपनी स्थानीयता,और संस्कृति के लिए अब वह पहले वाला प्रेम रहा ही नहीं, जो कभी चंदैनी-गोंदा या खुमान साव ने अपने समय में जगाने की कोशिश की थी.इसमें संस्कृति के नाम पर मात्र विवाह के चंद फुटेज हैं. सच तो यह है कि ऐसी फ़िल्में भोजपुरी या पंजाबी किसी भी भाषा में डब की जा सकती है और इससे इसके आंचलिक सौन्दर्य पर कोई खतरा नहीं रहेगा. इस फिल्म में जिसका 40 प्रतिशत हिस्सा बोलेरो-जाइलो-बुलेट जैसी गाड़ियों के दौड़ते रहने,भागमभाग,जबरदस्त हिंसा और नफरत से भरी हुई है,इसमें छत्तीसगढ़ी के नाम पर अगर आप कुछ खोजने निकलेंगे तो सिर्फ निराशा ही हाथ लगेगी.

  फिल्म की असली ताकत इसका लोकप्रिय गीत-संगीत है,जिसमें लोकधुनों की छौंक बघारी गई है. संगीत निर्देशक सुनील सोनी और गीतकार रामेश्वर वैष्णव की इस बात के लिए प्रसंशा की जानी चाहिए. यही बात फिल्म के कोरियोग्राफी के बारे में कही जा सकती है. फिल्म नाटक की तरह एक सामूहिक काम है.इसलिए फिल्म बनाना आर्थिक रूप से मुश्किल तो है ही.अपना पैसा लगाकर डूबाना कोई नहीं चाहता. इसलिए व्यावसायिकता सिनेमा की सबसे पहली शर्त हो जाती है.इसे यों कह सकते हैं,कि इन निर्माता-निर्देशकों को अपना व्यवसाय करना अच्छे से आता है.सतीश जैन जब कहते हैं कि मैं वही फ़िल्में बनता हूँ जो लोग पसंद करते हैं, तो इस कथन में उनकी एजेंडे को बखूबी देखा जा सकता है.

 लेकिन जैसे ही आप इस फिल्म को कला के मानदंडों पर रखने लगेंगे तो यह रेत  की दीवार की तरह भरभराकर गिर जाती है.इसे वस्तुतः छत्तीसगढ़ी मूल्यों-मान्यताओं,संस्कृति या जागृति से कुछ भी लेना-देना नहीं है. अगर होता,तो ऐसी वाहियात फिल्म नहीं बनाते. अपनी विचारधारा में यह फिल्म बहुत हिंसक है और ‘मसल-पावर’ को ही स्थापित करती है. इसमें जिस किस्म की घृणा,घमंड,गुस्सा और नफरत को दिखाया गया है,इससे यह छत्तीसगढ़ी फिल्म कम यूपी-हरियाणा-राजस्थान  के घोर सामंती खाप पंचायतों की याद ज्यादा दिलाती है जो बेटे-बेटियों के प्रेम-विवाह पर अपने कथित सम्मान के लिए ‘ऑनरकिलिंग’ तक चले जाते हैं. यह किसी बदलाव की बात नहीं करती,बस दोनों ठेकेदारों की आपसी व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा और खूनी रंजिश को ही उभारती है. एक समय तो लगने लगता है कि यह ‘ऑनरकिलिंग’ की तरफ बढ़ रही है. यही इस घोर फार्मूला फिल्म में परोसा गया है. हीरो प्रेम के लिए लम्पटई का सहारा लेता है. जिसमें दर्शकों को खुश होते देखा जा सकता है.इस फिल्म को यहांं के बड़े परिवारों में प्रचलित दाऊगिरी और दादागिरी के संदर्भ में ही देख सकते हैं जो कि अब पुरानी बात हो गई है.ऐसे माता-पिता को आज के बदले छत्तीसगढ़ की नयी पीढ़ी खुद ही रिजेक्ट कर देती है. फिल्म में ऐसे जालिम पिताओं को याद करके नायिका का उनका चित्र बनाना ही नहीं,बल्कि भगवान् शंकर और विष्णु का रूप दे देना बेहद हास्यास्पद ही नहीं,दयनीय है. लेकिन चूंकि वह पिता है,और दर्शकों की पितृभक्ति की भावनाओं को कैश करना है,इसलिए उन्हें भगवान् का दर्जा देते दिखा दिया गया है.वस्तुतः यही छत्तीसगढ़ की पिछड़ी मानसिकता है,जिसे बदलने की जरूरत है. रिश्ने-नाते के नाम पर भावात्मक रूप दिखाकर जल्लाद जैसे बापों को सम्मान देना कहांं तक न्यायसंगत है?फिल्म में किसी तार्किकता की तो बात ही नहीं की जाए तो अच्छा होगा. अंधाधुंध फायरिंग हो रही है. हत्या हो रही है और पुलिस का नामोनिशान नहीं .यह समाज में प्रचलित पितृसत्ता को ही मजबूत नहीं करती,प्रेम या कॉमेडी के नाम पर लम्पटई  को जगह देती है.इस फिल्म का टाइटल ही लड़की को फंसने-फंसाने के रूप में ही व्यक्त कर रहा है.यह स्त्रीविरोधी भी इस मायने में है कि छत्तीसगढ़ में स्त्रीशक्ति बहुत मजबूत और मुखर है -तीजन बाई,सुरूजबाई खांडे फूलबासन बाई,इत्यादि. लेकिन यहांं नायिका समेत सभी स्त्रियांं दब्बू हैं और महज शो पीस हैं. जो है वह केवल रस्मों को निभाने के लिए. 

  अगर यह फिल्म लोगों को पसंद आ रही है,तो इसमें निर्माता-निर्देशकों से ज्यादा दर्शकों का दोष है,जो सही फिल्म देखने का स्तर नहीं पा सके हैं. यह घोर यथास्थितिवादी फिल्म है,जो किसी बदलाव के लिए नहीं,वरन सिर्फ मनोरंजन के लिए है.जो अच्छे निर्देशक होते हैं,वे अपनी फिल्म के माध्यम से अपने दर्शकों की सोच,चेतना का स्तर उठाने के लिए प्रयास करते हैं.छत्तीसगढ़  में यहांं की पिछड़ी हुई सोच को बदलने के लिए अच्छे निर्माता-निर्देशकों को इस दिशा में अभी बहुत काम करने की जरूरत है.लेकिन यह ऐसे ही व्यावसायिक फार्मूले से घिरे रहें तो इनसे किसी भी तरह की उम्मीद करना बेमानी है. अभी भी यहांं की उच्चतर भावनाओं का संधान कर, प्रगतिशील जीवन मूल्यों को स्थापित करने वाले फिल्मों की बेहद जरूरत है.जो इसे सिर्फ मुनाफा बटोरने का साधन मात्र नहीं समझे. वैसे ही लोगों से कोई उम्मीद की जा सकती है.

 कैलाश बनवासी का दूरभाष नंबर है-  98279 93920 

    

 

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क्या एक लड़की को पगली-सगली और फंस जबे कहना उसके वजूद का अपमान नहीं है...?

रायपुर. गुरू घासीदास सेवादार संघ और लोक समता शिक्षण समिति के बैनर तले राजधानी रायपुर में आयोजित एक विचार गोष्ठी में मंगलवार को प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और फिल्मकार रिनचिन ने छत्तीसगढ़ की संस्कृति को दरकिनार कर  फिल्म बनाने वाले फिल्मकारों को जमकर आड़े हाथों लिया. रिनचिन ने कहा कि कोई फिल्म बनाए और करोड़ों रुपए कमाए हमें उससे आपत्ति नहीं है, लेकिन किसी भी फिल्मकार को छत्तीसगढ़ की लड़कियों और स्त्रियों को अपमानित करने का अधिकार नहीं है. रिनचिन ने कहा कि जब हम किसी लड़की को हंस मत पगली... फंस जबे कहते हैं तो उसके वजूद को चुनौती देते हैं. क्या किसी लड़की को हंसने का अधिकार नहीं है? और फिर फंस जबे शब्द क्या एक लड़की को अपमानित करने वाला शब्द नहीं है? रिनचिन ने कहा कि छत्तीसगढ़ की संस्कृति किसी को अपमानित करने की नहीं है.

पत्रकार राजकुमार सोनी ने सवाल उठाया कि क्या छत्तीसगढ़ी फिल्मों में हमें संस्कृति के नाम पर मुंबई का कचरा ही देखने को मिलता रहेगा? क्या छत्तीसगढ़ के फिल्मकार कभी शंकरगुहा नियोगी, तीजनबाई, हबीब तनवीर, लाल श्याम सिंह, रितु वर्मा, सूरुज बाई खांडेकर, झाडूराम देवांगन, बिलासपुर के लाल खदान मस्तूरी के श्रमिक नेता दरसराम साहू जैसे मूर्धन्यों के जीवन संघर्ष और माओवाद की समस्या से निदान के लिए भी कोई फिल्म बनाएंगे ? सोनी ने कहा कि पंडवानी गायिका तीजनबाई बाई पर अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्धकी की पत्नी फिल्म बना रही है, लेकिन छत्तीसगढ़ के फिल्मकारों ने इस महान शख्सियत पर फिल्म बनाने की जहमत उठाने की जरूरत नहीं समझी है. प्रसिद्ध फिल्मकार सतीश जैन ने कहा कि वे केवल मनोरंजन के लिए फिल्म बनाते है और मनोरंजन को ही अपना ध्येय मानते हैं. उन्होंने कि कहा जनता की पसंद पर किसी भी दूसरी तरह की पसंद को थोपना उचित नहीं है.उन्होंने बताया कि उनकी नई फिल्म हंस झन पगली फंस जबे रिकार्ड तोड़ बिजनेस कर रही है और आगे भी तगड़ा व्यवसाय होगा इसकी पूरी संभावना है.

फिल्मकार अजय टीजी ने कहा कि छत्तीसगढ़ की अधिकांश फिल्मों पर मुंबईयां फिल्मों की छाप देखने को मिलती है. किसी फिल्म से प्रेरणा लेना अलग बात हैं और नकल करना अलग मसला है.उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ के फिल्मकारों को मौलिक विषय पर फिल्म निर्माण करने के बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए.

फिल्मकार योग मिश्रा ने कहा कि सब कुछ एकाएक नहीं हो जाता है. बंबई की फिल्म इंडस्ट्री भी धीरे-धीरे खड़ी हुई थीं और छत्तीसगढ़ की इंडस्ट्री भी अपने बूते पर खड़ी हो रही है. 

फिल्मकार संतोष जैन ने कहा कि पहले धार्मिक और ऐतिहासिक फिल्में बनती थीं. महाराष्ट्र में दादा कोड़के का वर्चस्व रहा...मगर अब जाकर अच्छी फिल्में बनने लगी है. जैन ने कहा कि आज पब्लिक की जेब से पैसा निकालना कठिन हो गया है. छत्तीसगढ़ में लोग अपनी जेब से पैसा लगाकर फिल्म बना रहे हैं. जैन ने कहा कि छत्तीसगढ़ के फिल्मकारों को भी सरकार की ओर से सब्सिडी मिलनी चाहिए.

पीयूसीएल के पूर्व अध्यक्ष लाखन सिंह ने कहा कि जो फिल्म लोगों के भीतर जागृति पैदा करती है वहीं फिल्म जिंदा भी रहती है. उन्होंने कहा कि फिल्मों में महिलाओं और बच्चों के सम्मान का खास ख्याल रखा जाना चाहिए. प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता दुर्गा झा ने भी अपने वक्तव्य में सामाजिक सरोकार को बढ़ावा देने की बात कही. उन्होंने कहा कि किसी भी टूरी को आइसक्रीम खाकर फरार नहीं होने देना है. यह एक निष्कृष्ट सोच को बढ़ावा देने वाला गाना है.

गोष्ठी में कवियित्री एवं अभिनेत्री नीलू मेघ ने दर्शक दीर्घा से कहा कि छत्तीसगढ़ की माटी कला,संस्कृति और नैसर्गिक कलाकारों से अटी पड़ी है.राज्य बनने के बाद फ़िल्मकारों  ने भली बुरी सब तरह की फ़िल्में बनाई और अपनी तिजोरी को भरने का काम किया है. अफसोस इस बात का है कि यहां के कलाकारों को न यथायोग्य मेहनताना मिलता है न यश .यह कलाकारों का सीधा सीधा अपमान और शोषण है. लाखों करोड़ों  का मुनाफा कमा रहे फिल्मकार छत्तीसगढ़ के भोले भाले कलाकारों को चांस देने के बहाने पारिश्रमिक न देकर आर्थिक शोषण ही करते हैं. फ्री में काम करवा कर करोड़ो रूपये कमाना यह छोटी बात नहीं हैं. छत्तीसगढ़ की फिल्मों का यह स्याह पक्ष है जिस पर संज्ञान लेने के बजाय मुद्दा ही गायब कर दिया जाता है. रंगकर्मी निसार अली ने सवाल उठाया कि हाल के दिनों में धमतरी के एक छबिगृह में फिल्म की टिकट को लेकर चाकूबाजी हो गई थी. इस घटना का जिम्मेदार किसे माना जाना चाहिए.

 

छत्तीसगढ़ी सिनेमा के सामने चुनौतियां और निदान विषय पर आयोजित यह गोष्ठी  वृंदावन हाल में आयोजित की गई थीं. इस गोष्ठी में खास तौर पर छत्तीसगढ़ी सिनेमा के जनक मनु नायक मौजूद थे. इस मौके पर उन्होंने अपने अनुभव से भी जनसमूह को समृद्ध किया. 

सभाकक्ष में कुछ ऐसे तत्वों का भी प्रवेश हो गया था जो विचारहीन सवालों के जरिए गोष्ठी की दशा और दिशा बदलना चाहते थे. ऐसे तत्वों के सवाल साफ तौर पर प्रायोजित लग रहे थे. इन तत्वों ने बेमतलब के सवालों के जरिए हंगामा मचाने की कोशिश भी की, लेकिन गुरूघासीदास सेवादार संघ के केंद्रीय  अध्यक्ष लाखन सुबोध और उनके जिम्मेदार सदस्य तामेश्वर अनंत, एनडी सतनाम, दिनेश सतनाम तथा अपार जनसमूह की वजह माहौल बिगाड़ने वाले तत्वों की कोशिश नाकाम हो गई. सारे विघ्नकारी तत्वों को सभाकक्ष से खदेड़ दिया गया. गोष्ठी के अंत में छत्तीसगढ़ी सिनेमा के जनक मनु नायक को पदमभूषण देने की मांग भी की गई.

   
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छत्तीसगढ़ी सिनेमा को लेकर गंभीर मंथन 16 जुलाई को रायपुर में

रायपुर. क्या छत्तीसगढ़ी फिल्मों में संस्कृति के नाम पर मुंबई का कचरा ही परोसा जाता रहेगा ? क्या छत्तीसगढ़ के फिल्मकार कभी शंकरगुहा नियोगी, तीजनबाई, हबीब तनवीर, लाल श्याम सिंह, रितु वर्मा, सूरुज बाई खांडेकर, झाडूराम देवांगन, बिलासपुर के लाल खदान मस्तूरी के श्रमिक नेता दरसराम साहू जैसे मूर्धन्यों के जीवन संघर्ष को लेकर फिल्म निर्माण करने के बारे में विचार करेंगे ? क्या चुनौतियों के नाम पर फिल्मकार... थियेटर कम है ? संसाधन कम है ? अच्छे कलाकार नहीं मिलते ? तकनीक के लिए मुंबई जाना पड़ता है ?  सरकार मदद नहीं करती ? इसी बात का रोना रोते रहेंगे ? 16 जुलाई मंगलवार को राजधानी रायपुर के वृदांवन हाल में शाम चार बजे से इसी बात को लेकर मंथन होगा कि आखिरकार छत्तीसगढ़ का सिनेमा किस तरह की चुनौतियों से गुजर रहा है?  कोई चुनौती है भी या नहीं ? और अगर कोई चुनौती या दिक्कत है तो उसका समाधान क्या हो सकता है?

 गुरूघासीदास सेवादार संघ और लोक समता शिक्षण समिति के बैनर तले आयोजित किए जाने वाले इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि होंगे संस्कृति मंत्री अमरजीत भगत. कार्यक्रम की अध्यक्षता लखनलाल कुर्रे करेंगे. कार्यक्रम में विशेष रुप से छत्तीसगढ़ी सिनेमा के जनक मनु नायक मौजूद रहेंगे. इस मौके पर छत्तीसगढ़ी सिने एंड  टीवी प्रोग्राम प्रोडयूशर एसोसियेशन के अध्यक्ष संतोष जैन, लेखिका और फिल्मकार रिनचिन, फिल्मकार योग मिश्रा, छत्तीसगढ़ी राज्य निर्माण आंदोलन के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर अशोक ताम्रकार, पीयूसीएल के पूर्व अध्यक्ष लाखन सिंह एवं पत्रकार राजकुमार सोनी अपना वक्तव्य देंगे. छत्तीसगढ़ी सिनेमा की चुनौतियां और निदान विषय पर आयोजित इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम का संचालन एमडी सतनाम एवं तामेश्वर अनंत करेंगे. गुरूघासीदास सेवादार संघ के केंद्रीय संयोजक लखनलाल कुर्रे ने छत्तीसगढ़ के सभी सिने प्रेमियों और संस्कृतिकर्मियों से उपस्थिति का अनुरोध किया है.

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अगर- हंस झन पगली फंस जबे के फूहड़पन से दिल भर गया हो तो जाइए देख आइए आर्टिकल-15

क्या आपको पता है कि आपके शहर में एक उम्दा फिल्म लगी है. दिल और दिमाग को झकझोर देने वाली फिल्म, लेकिन माफ करिएगा इस उम्दा फिल्म का नाम हंस झन पगली फंस जबे.... नहीं है. देश और दुनिया का मीडिया जिस फिल्म की बगैर पैसा खाए समीक्षा और तारीफ कर रहा है उस फिल्म का नाम है- आर्टिकल-15 ( अगर आपके भीतर मोदी वाला राष्ट्रवाद मौजूद नहीं है और आप अपने अलावा इस देश के शोषित, पीड़ित और कमजोर लोगों के बारे में थोड़ा-बहुत भी सोचते हैं तो आपको आर्टिकल 15 अवश्य देखनी चाहिए. ) इस फिल्म के बारे देश-दुनिया के तमाम बड़े लेखकों और पत्रकारों ने अपनी सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है और अब भी लगातार लिख रहे हैं. फिल्म की कुछ विशेषताओं के बारे में बेहद सरल ढंग से यहां बता रहे हैं- लेखक अंजन कुमार.

अनुभव सिन्हा द्वारा निर्देशित एवं गौरव सोलंकी द्वारा लिखित फिल्म ‘आर्टिकल 15’ कई अर्थों में एक महत्वपर्ण फिल्म है. इस फिल्म को देखते हुए कहीं नहीं लगता कि आप फिल्म देख रहें हैं. फिल्म प्रारंभ से ही दर्शक को इस कदर जोड़ लेती है कि दर्शक फिल्म का हिस्सा बनकर भीतर और बाहरी दोनों स्तर पर जीने लगता है.  

इस फिल्म के दृश्य, पात्रों के संवाद, गांव का सारा वातावरण जबरदस्त ढंग की प्रकाश व्यवस्था में इतना वास्तविक प्रतीत होता है कि दर्शक यथार्थ के इस धरातल से सहज ढंग से जुड़ जाता है. यह फिल्म दर्शकों से लगातार संवाद करते हुए भारतीय समाज की वर्णवादी संकीर्ण व्यवस्था, मानसिकता और राजनीति के उस क्रूर, अमानवीय और घृणित यथार्थ को उजागर करती है, जो सदियों से इस भारतीय समाज की व्यवस्था और मानसिकता में आज भी कहीं पैबस्त है. इस फिल्म को देखते हुए लगता है कि हम आजाद भारत के अत्याधुनिक समय के डिजिटल इंडिया के स्मार्ट युग में जी रहें हैं या गुलामी के दौर के भी बहुत पीछे किसी सामंती युग में?

फिल्म को देखकर बरबस ही मुझे धूमिल की कविता याद आती है- ‘‘आजादी का मतलब/क्या तीन रंग है/जिसे एक थका हुआ पहिया ढोता है/या इसका कोई खास मतलब है।’’

पूरी फिल्म मनुष्य की आजादी, समानता और अधिकारों की लड़ाई की कहानी है. जिसमें प्रत्येक पात्र किसी न किसी जाति व वर्ग का प्रतिनिधित्व करता हुआ सामाजिक ताने-बाने को खोलता दिखाई देता है. यह फिल्म परोक्ष और अपरोक्ष रूप से भारतीय सामाजिक, प्रशासनिकऔर राजनीतिक व्यवस्था की उन विसंगतियों और जटिलताओं को परत तर परत खोलती है जिससे पूरा का पूरा समाज आज आक्रांत है. पूरी फिल्म दर्शक को कहीं ठहरने नहीं देती बल्कि घटनाक्रम एवं दृश्यों के सूक्ष्म विश्लेश्षण के साथ-साथ चलने को विवश कर देती है. इस फिल्म के कई दृश्य इतने भयावह, त्रासदीपूर्ण और मार्मिक है कि दर्शक उससे अपने आपको अछूता नहीं रख पाता. ऐसे तमाम दृश्य मन के भीतर किसी कील की तरह गढ़ते हैं और फिर टीस बाकी रह जाती है.

जब इस भयावह समय में संवाद को खत्म करने की पुरजोर कवायद चल रही हो, ऐसे समय में यह फिल्म के संवाद की आवश्यकता बताते हुए विमर्श को जन्म देती है. पूरी फिल्म आर्टिकल 15 के माध्यम से भारतीय संविधान के महत्व को स्थापित करने की जबरदस्त कोशिश है. आर्टिकल 15 प्रत्येक भारतीय नागरिक को समानता और आजादी का अधिकार प्रदान करता है. यह आर्टिकल यह बताता है कि भारतीय संविधान किसी भी सामाजिक जातिगत, धर्मगतव्यवस्था से ज्यादा महत्वपूर्ण है, जिसे बनाए और बचाए रखना बेहद जरूरी है.

इस फिल्म में नायक-नायिका के छोटे-छोटे संवाद सामाजिक यथार्थ को बहुत ही  सुंदर ढंग से अभिव्यक्त करते हैं. नायिका संवाद के माध्यम से सामंती व्यवस्था के उस महानायक के मिथक को भी तोड़ती है. पुलिस के रोल में मनोज के संवाद के माध्यम से सोशल मीडिया हमारे गुस्से को सड़कों में आने से पहले ही कैसे पी लेता है उस पर करारा व्यंग्य है. फिल्म के नायक आयुष्मान खुराना के द्वारा कहा जाना-‘‘कौन है वे लोग ?’’ हमें सोचने के लिए बाध्य करता है कि सच में कौन हैं वे लोग जिनके साथ हम पशुओं से भी बुरा व्यवहार करते हैं, और उनकी जगह कुत्तों को बिस्कुट खिलाना ज्यादा बेहतर समझते हैं. क्या वे इंसान नहीं है? ऐसे कई प्रश्न इस फिल्म की कहानी में प्रमुखता से उठाए गए हैं। मजदूरी में मात्र तीन रूपए ज्यादा देने की मांग करने पर छोटी-छोटी लड़कियों की उनकी औकात दिखाने के लिए सामूहिक बलात्कार कर बेरहमी से जिंदा पेड़ पर लटका दिया जाता है, और जिसे हमने उनकी यथास्थिति में मरने के लिए छोड़ दिया है वे यह कहते हुए कि - ‘‘ये तो ऐसे ही है साहब!’’

यह फिल्म बाजार के उपभोक्तावादी संस्कृति के फैशनेबल प्रेम के बरअक्स फिल्म के नायक-नायिका तथा निषाद और गौरा के माध्यम से एक ऐसे प्रेम को भी दिखाती है जो सामाजिक हित में संघर्षरत व्यक्ति के लिए बेहद जरूरी है. यह प्रेम विपरीत परिस्थितियों में मनुष्य को ताकत और सहारा देने का काम करता है. यह प्रेम देह से परे भावनात्मक संबंल का परिचायक बनता है. यह प्रेम अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने की ताकत देता है. जीवन के संघर्ष में प्रेम की कितनी अहम भूमिका होती है इसे भी फिल्म में पूरी संवेदनशीलता के साथ दिखाया गया है.

कुल मिलाकर पूरी फिल्म अपनी कहानी और निर्देशन की वजह से बेहद सशक्त बन गई है. जिसमें हर चीज का इतना बखूबी इस्तेमाल किया गया है कि फिल्म पकड़ बनाए रखती है. निर्देशक अनुभव सिन्हा और लेखक गौरव सोलंकी ने कहीं भी फिल्म को लेकर कोई समझौता नहीं किया है.  सबसे बड़ी बात की ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में ऐसी फिल्म का आना और उसे पूरी सफलता मिलना अपने आपमें महत्वपूर्ण है. यह फिल्म हिन्दी सिनेमा और फिल्म को लेकर गंभीर लोगों के भीतर एक आशा जगाती है और हमसे-आपसे-सबसे संवाद की मांग करती है.  

 

 

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विकृत मानसिकता का महिमामंडन है फिल्म कबीर

हरिओम राजोरिया

कबीर सिंह फ़िल्म देखी. फ़िल्म में तीन चरणों में चलने वाली पिटी-पिटाई प्रेम कहानी है । पहले चरण में प्रेमी-प्रेमिका मिलते हैं , दूसरे चरण में अलग हो जाते हैं और तीसरे और अंतिम चरण में फिर से मिल जाते हैं. इस तरह फ़िल्म का सुखद अंत होता है । पर फ़िल्म का ट्रीटमेन्ट पूर्ववर्ती प्रेम कहानियों पर एकाग्र हिंदी फिल्मों से बहुत भिन्न है . फ़िल्म का नायक कबीर सिंह ( शाहिद कपूर ) पढ़ने में तो तेज है पर अहंकारी , नशेड़ी , स्वार्थी , संवेदनहीन , मुंहफट , गुस्सैल, व्यभिचारी और इच्छाचारी है । पूरी फ़िल्म में वह अपने उन मित्रो को अपमानित करता रहता है जो हमेशा उसकी हर टुच्ची और फूहड़ हरकतों का समर्थन करते हैं और ज़्यादातर झूठी लड़ाइयों में उसके पक्ष में खड़े रहते हैं । फ़िल्म में एक लंपट व्यक्ति के अतिरंजित चरित्र गठन की निर्मिति बड़ी चालाकी और धूर्तता के साथ की गई है । फ़िल्म में फूहड़ताओं और मूर्खताओं का क्रमिक विकास दिखाया गया है । फ़िल्म की मुख्य स्त्री पात्र जड़ और गतिहीन है , जो संरक्षण प्राप्ति की काल्पनिक ज़रूरत के चलते अकारण ही एक कुंठित व्यक्ति ( फ़िल्म का नायक ) से प्रेम करने लगती है ।

यह फ़िल्म अनेक स्तरों पर स्त्रियों , प्रेमियों , मानवीय व्यक्तियों , छात्रों , खिलाड़ियों , डॉक्टरों , घरेलू महिला श्रमिको आदि को अपमानित करती है । फ़िल्म में शाहिद कपूर जिस लड़की से प्यार करता है उस लड़की को लड़कियों के हास्टल से उठाकर लड़कों के हॉस्टल में ले आता है और इस दरम्यान उस लड़की से 400 से ज़्यादा बार संभोग करता है (नायक स्वयं इन आंकड़ों का उल्लेख फ़िल्म में करता है ) । कॉलेज प्रशासन उसकी इन अनुशासनहीनताओं पर बिलकुल ध्यान नहीं देता , फ़िल्म में चिकित्सा शिक्षा का तबीयत से मजाक बनाया गया है । नायक के टॉपर होने का उल्लेख फ़िल्म में बार बार किया जाता है , क्योंकि फ़िल्म में नायक के होशियार होने की ओट में उसकी तमाम अराजकताओं को छुपाया जा सके । मेडिकल कॉलेज की किसी भी कक्षा में वह बेझिझक घुस जाता है और मूर्खतापूर्ण हरकतें करता है । फ़िल्म का नायक दादी , पिता , मां , भाई , होने वाले ससुर , सास , साला , साली और सहपाठियों का भावनात्मक स्तर पर अपमान तो करता ही है और अपनी उन स्थापनाओं और मूल्यों के लिये मुंहफट संवाद करता है जिन मूल्यों लिए उसने फ़िल्म में कोई आत्म संघर्ष नहीं किया । इस तरह फ़िल्म उथली और इकहरी है । फ़िल्म का मुख्य स्वर स्त्री और मनुष्य विरोधी है । अपने समय के आधुनिक और क्रांतिकारी कवि कबीर के नाम से बनाई गई यह फ़िल्म बीमार और विकृत मानसिकता का महिमामण्डन अतिरिक्त चालाकी के साथ करती है । इस तरह की फिल्मों की अकेली आलोचना करने से काम नहीं चलेगा । हमारी भी जवाबदेही है कि इन फिल्मों के माध्यम से फैलाई जा रही अपसंस्कृति की पहचान करें और इसका प्रतिरोध करें । इस तरह की फिल्में आज हमारे संसार में उसी रास्ते से प्रवेश कर रही हैं जहां से हिंसा और मनुष्य विरोधी राजनीति की विचारधारा ने प्रवेश किया है ।

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भूपेश बघेल ने हंस झन पगली फंस जबे को देखकर की जोरदार टिप्पणी

रायपुर. छत्तीसगढ़ी सिनेमा के निर्माता और निर्देशकों के आग्रह पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भले ही सतीश जैन की फिल्म हंस झन पगली फंस जबे को देखने के लिए थियेटर हॉल चले गए लेकिन टिव्हटर पर जो कुछ उन्होंने लिखा वह उनकी साफगोई को प्रदर्शित करता है. एक फिल्म बड़ी मेहनत के बाद बनती है इसलिए उन्होंने फिल्म बनाने वालों को निराश नहीं किया, और यह लिखा कि फिल्म साफ-सुथरी है और मनोरंजन प्रदान करती है, लेकिन छत्तीसगढ़ी फिल्म को लेकर एक बड़े दर्शक वर्ग की जो शिकायत है उसे ध्यान में रखकर वे यह कहने से भी नहीं चूके कि फिल्म में बॉलीवुड के फार्मूले का जरूरत से ज्यादा प्रभाव है. उन्होंने यह भी लिखा कि उम्मीद है आने वाले दिनों में छत्तीसगढ़ का सिनेमा अपनी अलग छवि गढ़ेगा. सरकार हर तरह का सहयोग करेगी.

अपना मोर्चा डॉट कॉम ने फिल्म की रीलिज के दिन ही यह लिखा था कि हंस झन पगली एक बंडल फिल्म है बावजूद इसके फिल्म के हिट होने के पूरे चांस है. इसमें कोई दो मत नहीं कि फिल्म में थोड़े विशेष तरह के दर्शक वर्ग को लुभाने का पूरा मसाला मौजूद है. सतीश जैन की फिल्म बॉबी, प्यार किया तो डरना क्या...मैंने प्यार किया, फूल और कांटे, सौदागर और मराठी की हिट फिल्म सैराट की खिचड़ी है. जो भी समझदार दर्शक फिल्म को देखकर थियेटर के बाहर निकलता है वह यह जरूर कहता है- यार... चोरी करना भी एक आर्ट है. ( जिसे मुख्यमंत्री ने प्रभाव कह दिया है. )

बहरहाल मुख्यमंत्री मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की टिव्हटर पर की गई टिप्पणी के गूढ़ अर्थ को यदि यहां के निर्माता-निर्देशक समझ सकें तो उन्हें इसका लाभ मिल सकता है. मुख्यमंत्री की टिप्पणी का साफ अर्थ यही है कि एक मनोरंजक फिल्म बना लेना अलग बात है. छत्तीसगढ़ की पहचान को प्रदर्शित करने वाली फिल्म बनाना अलग मसला है. ऐसी फिल्म बनाइए जो छत्तीसगढ़ की छवि को गढ़ने का काम करें. प्रभाव में बिगाड़ने का नहीं.  उम्मीद की जानी चाहिए कि यहां के निर्माता और निर्देशक आत्ममुग्धता से बाहर निकलकर अपनी समझ को जल्द ही विकसित कर लेंगे.

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हंस झन पगली फंस जबे... एक बंडल फिल्म जिसके सुपरहिट होने के पूरे चांस हैं...

राजकुमार सोनी

शीर्षक को देखकर आपका माथा घूम सकता है कि भला एक बंडल फिल्म सुपरहिट कैसे हो सकती है, लेकिन ऐसा हो सकता है... जानिए कैसे.

रायपुर. सतीश जैन की नई फिल्म हंस झन पगली फंस जबे को देखते हुए आपको हिंदी की कई सुपरहिट फिल्मों की याद आती है. फिल्म का अंतिम दृश्य राजकपूर की बॉबी की याद दिलाता है जब प्रेमनाथ और प्राण अपनी-अपनी औलाद ( डिंपल कपाड़िया और ऋषि कपूर )  को बचाने के लिए गुंडों से भिंड जाते हैं. फिल्म की शुरूआत में सलमान खान और काजोल अभिनीत प्यार किया तो डरना क्या... की भी याद आती है. आपको शायद याद हो कि इस फिल्म में काजोल का भाई अरबाज खान बेहद कठोर स्वभाव का है और अपनी बहन की रक्षा के लिए मर मिटने को तैयार रहता है. हंस झन पगली में भी एक अरबाज खान टाइप का पात्र है जिसकी बॉडी सलमान खान जैसी है. इंटरवेल के बाद  हंस  झन पगली में... सूरज  बाड़जात्या की फिल्म मैंने प्यार किया का फ्लेवर घुस जाता है. एक बड़े घर का लड़का है जो हिरोइन के लिए गढ्ढे खोदता है. सीमेंट की बोरियां उठाता है और राजमिस्त्री का काम करता है. याद करिए मैंने प्यार किया में सलमान खान ने भी भाग्यश्री के लिए कुछ इसी तरह का काम किया था. इस फिल्म को देखते हुए आपको विवेक मुश्रान और मनीषा कोइराला की फिल्म सौदागर की भी याद आती है. सौदागर में दो परिवारों के बीच खांटी दुश्मनी थी. फिल्म के एक गीत को सुनकर अजय देवगन की फिल्म फूल और कांटे की याद भी आती है. धीरे-धीरे प्यार को बढ़ाना है हद से गुजर जाना है....यानी एक ही गाने में शादी और एक ही गाने में बच्चा. फंसे जबे पगली मराटी की सुपरहिट फिल्म सैराट से होकर भी गुजरती है.फिल्म में कई फिल्मों का मिश्रण होने के बावजूद हंस झन पगली...खास तरह के दर्शकों की सीटियां, चीखें और सिसकारियां बटोरने में कामयाब रहती है.

सतीश जैन के बारे में यह बात प्रचारित है वे आम जन के लिए फिल्म निर्माण करने वाले एक बड़े डायरेक्टर है. यह भी माना जाता है कि जब कभी भी छत्तीसगढ़ी सिनेमा आईसीयू में शिफ्ट हो जाता है तब अचानक सतीश जैन अवतरित होते हैं और सिनेमा को आईसीयू से निकालकर सामान्य वार्ड में शिफ्ट कर देते हैं. यह अलग बात है कि सामान्य वार्ड में शिफ्ट होने के दौरान भी सिनेमा पर ऑक्सीजन सिलेंडर चढ़ा रहता है. छत्तीसगढ़ी सिनेमा से जुड़े कतिपय लोग सतीश जैन को भीष्म पितामह भी कहते हैं.

भीष्म पितामह की नई फिल्म हंस झन पगली फंस जबे एक फैमली ड्रामा है जिसमें हर तरह का मसाला मौजूद है. इस फिल्म में हीरो है. हिरोइन है. मुसीबत में काम आने वाले हीरो के कॉमेडियन दोस्त है तो मुसीबत के समय साथ देने वाली हिरोइन की सहेलियां भी है. दो परिवार है जिनमें एक सड़क निर्माण के टेंडर को लेकर विवाद उपजता है और फिर दुश्मनी पनप जाती है. दो परिवार के बीच खानदानी दुश्मनी होने के बावजूद हीरो और हिरोइन एक-दूसरे को दिलो-जान से चाहते हैं. छत्तीसगढ़ की संस्कृति के नाम पर इस फिल्म में केवल एक-दो जगह बिहाव के दृश्य है और अंग्रेजी मिश्रित छत्तीसगढ़ी बोली. बाकी फिल्म में बड़ा सा घर है. रायल इनफील्ड है. खुली जीप में लाठी-डंडे, तलवार लेकर घूमने वाले गुंडे हैं. ( फिल्म में तीन-चार बार इस दृश्य को देखकर यह सवाल कौंधने लगता है कि हम छत्तीसगढ़ में रहते हैं या बिहार में. पता नहीं यहां के फिल्मकार कैसा छत्तीसगढ़ देखना चाहते है.) हीरो के बदन पर एक से बढ़कर एडिडॉस की टी शर्ट है. भले ही हिराइन का परिवार बेटियों की पढ़ाई का विरोधी है, लेकिन हिरोइन गुलाबी टॉवेल लपेटकर सीढ़ियों से उतरती है. मुंबईयां फिल्मों की तरह इस फिल्म में भी कई जगह बेमतलब की दनादन गोलियां चलती है और अंत में मद्रास की पुरानी पारिवारिक फिल्मों की तरह सब कुछ ठीक-ठाक हो जाता है. यानी सुखद दी एंड. कुल मिलाकर फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे हजारों-हजारों बार हिंदी फिल्म में न देखा गया हो.

देश-दुनिया में अभी यथार्थ ने दम नहीं तोड़ा है और उसका धरातल भी कायम है. यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि यथार्थ के धरातल पर जिस तरह के सिनेमा को देखा-समझा और पसंद किया जा रहा है, जैन का सिनेमा उससे कई हजार किलोमीटर दूर है. यह फिल्म कोरी भावुकता की चाशनी में लिपटी हुई एक प्रेम कहानी है जिसे देखकर दर्शक हंसता है और कई जगह जमकर रोता है. शायद यही विशेष दर्शकों का आनंद भी है. यश चोपड़ा, राजश्री प्रोडक्शन और करण जौहर की फिल्मों की तरह इस फिल्म में एक खास तरह का संगीत बार-बार गूंजता है. हालांकि पूरी फिल्म का यही सबसे मजबूत पक्ष है.

मीडिया को दिए गए इंटरव्यूह में सतीश जैन कई मर्तबा यह कह चुके हैं कि वे केवल मनोरंजन के लिए फिल्म बनाते हैं, लेकिन दिमाग को खूंटी पर टांगकर भला कोई कितनी देर तक दांत निपोर सकता है, बावजूद इसके हंस झन पगली  विशेष दर्शक वर्ग को थोड़ा हंसाती है. रुलाती और गुदगुदाती है. इस फिल्म को देखने के बाद आदम जमाने की कहानी को पसंद करने वाले दर्शक फीलगुड का अनुभव कर सकते हैं, लेकिन इस खबर को लिखने वाले ने फिल्म को देखने के दौरान यह महसूस किया कि वह एक बी ग्रेड मूवी के चक्कर में फंस गया है.

इस लंबी सी टिप्पणी में लेखक की अपनी राय है. एक दर्शक की हैसियत से ( और अगर छत्तीसगढ़ी फिल्मकार है तो भी ) आप लेखक की राय से सहमत या असहमत हो सकते हैं, लेकिन लेखक इस बात की अपील नहीं करता है कि फिल्म हंस झन पगली फंस जबे को बिल्कुल भी देखने मत जाइए. एक फिल्म काफी मेहनत के बाद तैयार होती है इसलिए निर्माता या निर्देशक के उत्साह पर ठंड़े पानी का छींटा नहीं पड़ना चाहिए. ( कई बार खराब फिल्मों में भी मनोरंजक तत्व निहित होते हैं. बात केवल स्वाद यानी जायके की होती है. अगर दर्शकों को बंडल सी बंडल फिल्मों से भी मनोरंजन और आनंद हासिल होता है तो उन्हें अपने तरीके से मनोरंजन और आनंद को हासिल करने का पूरा अधिकार है. सतीश जैन की फिल्म को पसन्द करने वाले सभी दर्शकों के साथ लेखक संवेदना प्रकट करता है और सहानुभूति रखता है. )

यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि हंस झन पगली फंस जबे... एक बंडल फिल्म है और उसके सुपरहिट होने के पूरे चांस है. अब आप कहेंगे कि भला बंडल फिल्म कैसे सुपरहिट हो सकती है. गोविंदा छाप फिल्मों का भी एक स्तर तो होता ही है. हकीकत यह  है कि यह फिल्म सबके लिए नहीं है. सतीश जैन ने जिस तरह के खास दर्शक वर्ग पर अपना कब्जा कर रखा है यह फिल्म उसी दर्शक वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई गई है. ये खास दर्शक पहले भी उनकी फिल्मों को हिट बनाते रहे हैं. वे दर्शक कौन है. कैसे दिखते हैं. क्या करते हैं. क्या राजश्री गुटखा खाते है. क्या बेरोजगारी के बावजूद उनके हाथों में मोबाइल है. उनके अपने सपने किस तरह के है. क्या वे भी किसी अमीर लड़की से प्यार करना चाहते हैं. क्या उनके भीतर लंपटता हावी है. इन सारे सवालों का जवाब आपको  छबिगृह में जाए  बगैर नहीं मिल पाएगा. अगर आप छविगृह गए तो वहां इस बात पर हैरत में पड़ सकते हैं कि अरे... ये लोग किस बात पर हंस रहे हैं. किस बात पर रो रहे हैं. किस बात पर गाने का वीडियो बना रहे हैं. किस बात पर पर्दे के सामने जाकर कूदा-फांदी कर रहे हैं.

घिसी-पिटी कहानी पर बनाई गई इस फिल्म में कई तरह की कमियां है मगर खास तरह के दर्शकों के उत्साह को देखकर लगता है कि फिल्म चमत्कार पैदा कर सकती है. तमाम तरह की असहमतियों के बावजूद यह तो मानना ही होगा कि जैसे किसी समय मिथुन चक्रवर्ती के फैन उनकी आयं-बाय-साय फिल्मों को देखने के लिए टूट पड़ते थे ठीक वैसे ही सतीश जैन की फिल्म को देखने के लिए भी टिकट खिड़की पर टूट पड़ते हैं. बहरहाल विशेष तरह के दर्शक वर्ग के लिए खास तरह के ट्रीटमेंट के साथ  फिल्म बनाने वाले सतीश जैन को बधाई तो दी जा सकती है. उन्हें बधाई. फिल्म में किस अभिनेता का काम अच्छा है यह मत पूछिए. बस दो चरित्र अभिनेता पुष्पेंद्र सिंह और आशीष सेंद्रे के काम में परिपक्वता नजर आती है. फिल्म में एक जगह हीरो और हिरोइन को दोसे का ठेला खोलकर दोसा बनाते हुए देखना सुखद लगता है. इस दृश्य को देखकर यह ख्याल भी आता है कि मोदी ने यूं ही पकौड़ा तलने के काम को रोजगार से नहीं जोड़ा था. 

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छत्तीसगढ़ी सिनेमा के दस खतरनाक दुर्भाग्य

राजकुमार सोनी

रायपुर. हर दुर्भाग्य खतरनाक ही होता है, इसलिए एक पाठक की हैसियत से आप कह सकते हैं कि इस खबर के शीर्षक में खतरनाक शब्द नहीं होता तो भी काम चल सकता था. छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण हुए 19 साल हो गए हैं. जो बच्चा आज से 19 साल पहले पैदा हुआ था वह अब बालिग हो गया है, लेकिन छत्तीसगढ़ का सिनेमा बालिग ( समझदार ) नहीं बन पाया है. वैसे यह जरूरी भी नहीं है कि जो बालिग हो गया वह समझदार भी हो. यहां खतरनाक शब्द का इस्तेमाल जानबूझकर किया गया है क्योंकि अब यह कहने लायक स्थिति नहीं बची कि हम अभी-अभी कोख से जन्मे है. बहुत होते हैं- 19 साल. आइए जानते हैं कि दस खतरनाक दुर्भाग्य-

 

1- छत्तीसगढ़ में अच्छी कहानियों का टोटा नहीं है, लेकिन यहां के फिल्म निर्माता और निर्देशक किसी भी तरह का रिस्क लेना नहीं चाहते. वे मुबंई या यूपी बिहार की घिसी-पिटी कहानियों को परोसने में ही यकीन रखते हैं. आप छत्तीसगढ़ की किसी भी फिल्म को देख लीजिए आपको लगेगा- अरे... यह सीन तो कहीं देखा हुआ है. अरे... यह तो गोविंदा की फिल्म में था. ये तो डेविड धवन की फिल्म में था. मौलिक कहानियों का अभाव छत्तीसगढ़ी सिनेमा का दम घोंट रहा है. छत्तीसगढ़ में अब तक 230 से ज्यादा फिल्में बन चुकी है. इन फिल्मों में आठ-दस फिल्में ही ऐसी है जो बेहतर हैं और इन्हीं फिल्मों का उदाहरण देकर बार-बार यह दोहराया जाता है कि छत्तीसगढ़ का सिनेमा महान हो चुका है. स्मरण रहे महानता गलतियों से सबक लेकर आगे बढ़ने का नाम है. गलतियों से चिपक जाने पर महानता उपहास में तब्दील हो जाती है.

 

2- छत्तीसगढ़ी बोली-बानी-भाषा की अपनी एक मिठास है, लेकिन इस मिठास का क्षेत्र ग्रामीण इलाकों तक सिमटकर रह गया है. शहर में केवल कुछ पुराने इलाके हैं जहां छत्तीसगढ़ी बोली जाती है. नई पीढ़ी छत्तीसगढ़ी को हीनता की दृष्टि से देखती है. ( हालांकि कुछ बच्चे इस भाषा को बोलकर गौरव का अनुभव भी करते हैं. ) लेकिन ज्यादातर को लगता है कि छत्तीसगढ़ी को बोलने वाला गंवारू है. कपड़े की तरह बायफ्रेंड या गर्लफ्रेंड बदलने और छोटी सी छोटी सी बात पर चल हट ले... चल कट ले...कहकर ब्रेकअप करने वाली पीढ़ी छत्तीसगढ़ी सिनेमा से परहेज करती है. छत्तीसगढ़ के निर्माता और निर्देशक हर दूसरे रोज स्मार्टफोन फोन बदलने वाले यूथ को कुछ नया नहीं दे सके हैं.अब तक एक भी सिनेमा ऐसा नहीं बना जिसे यूथ अपना सिनेमा माने. छतीसगढ़ी सिनेमा में लंपटता हावी है और गांव-घर, खेत-खलिहान, किसान हाशिए पर चला गया है.

 

3- जो लोग छत्तीसगढ़ी बोलने और समझने में गर्व महसूस करते हैं उनके आसपास सिनेमाघर ही नहीं है. छत्तीसगढ़ी से प्रेम करने वाले लोगों को अपनी पसन्द का सिनेमा देखने के लिए गांव या कस्बे से निकलकर शहर तक आना पड़ता है. एक तो सिनेमा की टिकट उस पर कुमार शानू का गाना बजाने वाली खटारा बस में धक्का खाने वाली सवारी बनकर शहर तक पहुंचना मंहगा पड़ जाता है. एक ग्रामीण फिल्म देखने के लिए जितने पैसे खर्च करता है उससे कम खर्च में गांव के आसपास की भट्ठी में अपना मनोरंजन तलाश कर लेता है. वहां उबले चने और अंडे के साथ देश-दुनिया के मसले पर शानदार किस्म की गोष्ठी भी हो जाती है.

 

4- छत्तीसगढ़ी फिल्म के निर्माता को अपना सिनेमा लगाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है. छत्तीसगढ़ सिने संघ के आंदोलन के बाद अब जाकर यह स्थिति बनी है कि कुछ मल्टीफ्लैक्स वाले छत्तीसगढ़ी सिनेमा लगाने को तैयार हो गए हैं. अन्यथा टाकीज वाले किसी हिंदी फिल्म की रिलीज के साथ ही छत्तीसगढ़ी सिनेमा उतार देते हैं. एक निर्माता अपनी फिल्म के प्रदर्शन के लिए छविगृह किराए पर लेता है. निर्माता को जो थोड़ी-बहुत कमाई होती है वह छबिगृह के किराए में चली जाती है या निर्माता की तरफ कभी लौटती ही नहीं. ज्यादातर निर्माताओं को यह कहकर बेवकूफ बना दिया जाता है कि आपके सिनेमा से कुछ मिला ही नहीं... घाटा हो गया.

 

5-छत्तीसगढ़ में जितने पत्रकार या लेखक नहीं है उससे कहीं ज्यादा सिनेमा लिखने वाले पैदा हो गए हैं. यकीन मानिए जिसने पूरी जिंदगी में कभी ढंग का एक पोस्टकार्ड भी नहीं लिखा होगा या किसी लड़की को प्रेम पत्र देना जरूरी नहीं समझा होगा वह भी यहां सलीम-जावेद का बाप बनकर घूम रहा है. दो-ढाई घंटे के सिनेमा की कहानी से दर्शकों को जोड़े रखना हंसी-मजाक का खेल नहीं है. इसके लिए सिनेमा के सभी पक्षों का विशद अध्ययन और सिनेमा लिखने का प्रारम्भिक ज्ञान अनिवार्य है, लेकिन छत्तीसगढ़ी सिनेमा में इसे आवश्यक नहीं समझा जाता.

 

6-छत्तीसगढ़ के अमूमन सभी सिने ( एक-दो को छोड़कर ) कलाकार आत्ममुग्धता के शिकार है. यहां कोई भी शख्स कलाकार बने रहने में फक्र महसूस नहीं करता बल्कि वह चाहता है कि उसके नाम के आगे या पीछे सुपर स्टार, सुपर खलनायक, सुपर कामेडियन, सुपर खलनायिका, सुपर सहनायक, सुपर हीरो का भाई, सुपर हीरो का बाप, सुपर हिरोइन की सहेली, सुपर डांसर, सुपर चिलमची, सुपर डायरेक्टर जैसा तमगा चस्पा रहे. जब सारे लोग सुपर-सुपर है तो फिल्म को भी सुपर-डुपर होना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पा रहा है.

 

7-कई निर्माता छत्तीसगढ़ी सिनेमा में अपने अलग तरह के काम धंधों को लेकर घुस आए हैं. इन निर्माताओं को न तो कहानी से मतलब है और न ही स्क्रिप्ट से. उन्हें छत्तीसगढ़ की संस्कृति और सभ्यता से भी कोई लेना-देना नहीं है. ऐसे लोगों को आप बड़ी आसानी से अपने आसपास देख समझ सकते हैं. ऐसे लोग सिर्फ ग्लैमर और उसकी खूशबू के दीवाने हैं. यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि खूशबू के दीवाने किस तरह के पवित्र काम पर यकीन करते हैं.

 

8- छत्तीसगढ़ी सिनेमा को लेकर अखबारों या चैनलों में जो कुछ परोसा जाता है वह बेहद नकली होता है. छत्तीसगढ़ का मीडिया छत्तीसगढ़ी की कचरा से कचरा फिल्मों की आलोचना करने बचता है. स्मरण रहे कि जब तक आलोचना नहीं होती है तब तक श्रेष्ठ सृजन सामने नहीं आता है. आलोचना का अपना दबाव होता है और यही दबाव एक श्रेष्ठ सृजनकार को तैयार करता है.छत्तीसगढ़ में फिल्म या फिल्म के कलाकारों की आलोचना इसलिए नहीं होती क्योंकि ज्यादातर कलाकारों के अपने पालित रिपोर्टर है और उनका अपना ग्रुप है. कुछ लोग मैग्जीन भी निकाल रहे हैं. एक-दो मैग्जीन ठीक-ठाक है, लेकिन अधिकांश में झूठी सूचनाएं प्रकाशित होती है. पिछले दिनों फिल्मी खबरों को कव्हरेज करने वाले एक ऐसे पत्रकार का मामला भी प्रकाश में आया जो बेहद शर्मनाक था. पत्रकार ने खुलेआम एक निर्माता को यह कहकर धमकाया था कि अगर पैसे दोगे तो अच्छा लिखूंगा और पैसे नहीं मिले तो फिल्म की बैंड बजा दूंगा.अब बताइए... क्या ऐसी स्थिति में छत्तीसगढ़ी सिनेमा को फायदा पहुंच सकता है.

 

9-इसमें कोई दो मत नहीं कि इस देश के हर नागरिक को अच्छे काम के लिए सम्मान हासिल करने का हक है. जो फिल्मी कलाकार अच्छा काम करते हैं उन्हें प्रोत्साहन और पुरस्कार तो मिलना ही चाहिए लेकिन जब कोई पुरस्कार देता है तो उसके बारे में यह देखना ठीक होगा कि वह है कौन. यहां तो कोयला चोर, लोहा चोर और वसूलीबाज मैग्जीन के लोग भी अवार्ड बांट रहे हैं. अवार्ड बांटना भी एक तरह का धंधा हो गया है.

 

10-छत्तीसगढ़ी सिनेमा को बढ़ावा देने के नाम पर कई मूर्धन्य लोगों ने संगठन खड़ा कर लिया है. अभी हाल के दिनों में भिलाई-दुर्ग में भी एक नया संगठन तैयार हो गया है.संगठन के लोग केवल इस फिराक में रहते हैं कि कैसे सरकार से सुविधा करें. इन संगठनों के लोगों को आज तक किसी ने भी इस बात पर चर्चा करते हुए नहीं देखा कि फिल्म की गुणवत्ता में सुधार कैसे किया जाय. किसी भी फिल्म निर्माता-निर्देशक ने शासन के समक्ष इस बात का प्रस्ताव नहीं दिया है कि वह लेखन-अभिनय या तकनीकी पक्षों से समृद्ध होने के लिए कार्यशाला करना चाहता है. है तो उसकी मदद की जाय. बस... कूदा-फांदी चल रही है और इसी कूदा-फांदी को ही सृजन मान लिया गया है.

 

वैसे तो छत्तीसगढ़ी सिनेमा का बेड़ा गर्क करने वाले और भी बहुत से  कारण है. एक कारण यह भी है कि अगर कोई छत्तीसगढ़ी सिनेमा को लेकर आलोचना करता  है तो उससे कहा जाता है- बात तो बहुत बड़ी-बड़ी करते हो.अगर दम है तो 60 लाख के बजट में एक सिनेमा बनाकर दिखाओ.... और फिर निर्माता के चेले-चपाटी यही राग अलापने लगते हैं- दम है तो सिनेमा बनाकर दिखाओ... सिनेमा बनाकर दिखाओ. यह आवाज वाट्सअप, फेसबुक के अलावा दसों दिशाओं से गूंजने लगती है.

 

पर क्या.... भीड़ के फैसले को आप कोई फैसला मानते हैं. शायद मानते भी हो... क्योंकि जाने-अनजाने में हमें भी अब भीड़ का हिस्सा तो बना ही दिया गया है.

 

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सवाल मत पूछिए पद्मश्री... दबंग दरोगा अनुज शर्मा से... वरना

राजकुमार सोनी

जब कोई  सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़कर ऊंचे मुकाम पर पहुंच जाता है तब सीढ़ी के नीचे खड़े लोग अपेक्षा करते हैं कि जो ऊपर पहुंचा है वह विनम्रता के साथ ऊपर चढ़ने में उनकी भी मदद करेगा, लेकिन ऊंचाई में पहुंचा शख्स अगर नीचे खड़े लोगों को कीड़ा-मकोड़ा समझकर थूकने लगे तब...... जी हां तब.... एक दिन लोग सीढ़ी हटा लेते हैं या सीढ़ी लेकर भाग जाते हैं.

यह पूरा कोटेशन किसी महान दार्शनिक का है, लेकिन इसे राजनीति, समाज और अन्य कई संदर्भ में लोग अलग-अलग तरीके से देखते और समझते हैं. इस वाक्य को यहां लिखने की जरूरत इसलिए भी पड़ गई क्योंकि शुक्रवार  को छत्तीसगढ़ के पद्मश्री दबंग दरोगा ( एक छत्तीसगढ़ी फिल्म )अभिनेता अनुज शर्मा ने अपने से एक जूनियर अभिनेता सुनील तिवारी के लिए एक शर्मनाक बयान दिया है. अनुज शर्मा के इस बयान के बाद हर कोई हतप्रभ है. शुक्रवार को दिनभर इस बात की चर्चा होती रही कि क्या एक अभिनेता को नेताओं के जैसी घमंड भरी भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए.अनुज शर्मा को यह बयान क्यों देना पड़ा इसकी जानकारी आगे की लाइनों में हैं,लेकिन पहले यह जान लेते हैं कि अनुज शर्मा ने का बयान क्या है-

उसके ( सुनील तिवारी )  पास कुछ काम नहीं है. उसने पब्लिसिटी पाने के लिए सब किया है. वो कौन होता है मेरे से सवाल पूछने वाला. मुझे उसके सवालों का जवाब देने की जरूरत नहीं है. वो है क्या. ज्यादा से ज्यादा एक-दो फिल्मों में काम किया होगा. इससे वह बड़ा कलाकार नहीं बन जाता. हम काम करने वाले हैं.

दरअसल मल्टीफ्लैक्स में छत्तीसगढ़ी फिल्म लगाए जाने की मांग को लेकर उपजे विवाद के बाद प्रदेश के संस्कृति विभाग के आडिटोरियम में मंत्री ताम्रध्वज साहू ने एक गुरुवार को एक बैठक बुलाई थी. इस बैठक में सिने कलाकारों, निर्माताओं और निर्देशकों से सुझाव देने को कहा गया था. बताते है कि इस बैठक में अनुज शर्मा ने कहा कि राज्य के सभी छबिगृहों में लगने वाला सर्विस चार्ज खत्म किया जाना चाहिए. अनुज शर्मा के इस सुझाव पर अभिनेता सुनील तिवारी ने यह कहकर आपत्ति जताई कि यह मामला एक्जीबिटर-डिस्ट्रीब्यूटर  एसोसिएशन का है. उन्होंने यह भी कहा कि प्रदेश में जब भाजपा की सरकार थीं तब स्वयं अनुज शर्मा ने एक्जीबिटर-डिस्ट्रीब्यूटर एसोसिएशन के साथ मिलकर मुख्यमंत्री डाक्टर रमन सिंह से मुलाकात की थी और सर्विस चार्ज बढ़ोतरी करवा ली थी. सुनील तिवारी का कहना था कि पहले छविगृह वाले हर टिकट के साथ प्रोड्यूशर से मात्र तीन रुपए सर्विस चार्ज वसूलते थे, लेकिन बाद में दस रुपए वसूला जाने लगा. सुनील का कहना था कि कभी सर्विस चार्ज में बढ़ोतरी तो कभी सर्विस चार्ज खत्म करने की बात करने से कलाकारों का नुकसान होगा और मल्टीफ्लैक्स के खिलाफ चल रहा आंदोलन टूट जाएगा. सुनील तिवारी के इस बयान पर अनुज शर्मा ने कहा- तुम मुझसे सवाल पूछने वाले कौन होते हो.... और फिर वगैरह-वगैरह.

अनुज शर्मा के इस बयान के बाद सिने जगत से जुड़े लोग खुद को आहत महूसस कर रहे हैं. हालांकि बहुत से लोग सार्वजनिक वक्तव्य देने से बचते रहे, लेकिन अधिकांश लोगों ने माना कि अनुज शर्मा का बयान शर्मनाक है. छत्तीसगढ़ सिने एवं टेलीविजन एसोसिएशन के अध्यक्ष संतोष जैन ने अनुज के इस बयान को पद्मश्री की गरिमा के खिलाफ बताया. उन्होंने कहा कि उन्हें अपने साथी कलाकार से बातचीत के दौरान संयम रखना चाहिए था. संतोष जैन ने कहा कि सुनील तिवारी की बात इसलिए वाजिब लगती है क्योंकि यह बात सच है कि अनुज शर्मा ने एक्जीबिटर-डिस्ट्रीब्यूटर एसोसिएशन के साथ मिलकर डाक्टर रमन सिंह से मुलाकात की और सर्विस चार्ज को 20 रुपए बढ़ाने की मांग की थी. हालांकि बाद में दस रुपए पर जाकर सहमति बनी थी. जैन ने कहा कि अगर हिंदी फिल्मों की तुलना में छत्तीसगढ़ी फिल्मों का सर्विस चार्ज अधिक रहेगा तो छत्तीसगढ़ के सिनेमाघर वाले ज्यादा से ज्यादा छत्तीसगढ़ी फिल्में लगाएंगे. फिल्म निर्माता अनुमोद राजवैद्य ने अनुज शर्मा के बयान को घमंड से भरा बताया. उन्होंने कहा- अगर कोई स्पॉट बाय भी है तो उसे बेहतरी के लिए सवाल पूछने का हक है. अनुज शर्मा खुद को सीनियर कलाकार बताते हैं तो उनका व्यवहार भी सीनियर जैसा होना चाहिए. लेकिन उनके बयान यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि उन्हें पद्मश्री कैसे मिल गई. फिल्म निर्देशक क्षमानिधि मिश्रा की भी कमोबेश यही राय है. वे कहते हैं- मल्टीफ्लैक्स में छत्तीसगढ़ी सिनेमा लगाने जाने की मांग को लेकर जब कलाकार आंदोलन के दौरान गिरफ्तार कर लिए गए थे तब पुलिस प्रशासन ने यह बताया था कि सब पर धारा 151 लगेगी, लेकिन मंत्री जी ने साफ कर दिया था कि किसी पर कोई धारा नहीं लगेगी बावजूद इसके अनुज शर्मा हीरोगिरी करते हुए बैठक में मंत्री जी से निवेदन कर रहे थे कि सारे कलाकारों के ऊपर से धारा हटा ली जाए. क्षमानिधि ने कहा कि सुनील तिवारी की आपत्ति जायज थी क्योंकि भाजपा के शासनकाल में अनुज शर्मा ने एक्जीबिटर-डिस्ट्रीब्यूटर  एसोसिएशन को लेकर रमन सिंह से मुलाकात की थी.

इधर अनुज शर्मा ने अपना मोर्चा डॉट कॉम से कहा कि वे अपने बयान पर कायम है. शर्मा ने कहा- कम से कम सुनील तिवारी को मुझसे सवाल पूछने का हक नहीं है. मैं जो कुछ भी करता हूं उसे तकलीफ होती है. अगर मुझे पद्मश्री मिलती है तो भी वह विरोध करता है. मैं मंत्री को सुझाव दे रहा था अगर सुनील तिवारी कोई सुझाव देना था तो मंत्री को देना था. यहीं कारण है कि मंत्री ने उसे डपट दिया था. अनुज शर्मा ने कहा कि उसने कभी भी सर्विस चार्ज को हटा लेने की बात नहीं की थी बल्कि कहा था कि हिंदी फिल्मों की तुलना में छत्तीसगढ़ी फिल्मों का सर्विस चार्ज ज्यादा होना चाहिए.

अनुज शर्मा के वक्तव्य से आहत सुनील तिवारी ने कहा- अनुज शर्मा से मेरा कोई विरोध नहीं है. जिन मांगों को वे मंत्री जी के सामने रख रहे थे वह कलाकारों का विषय ही नहीं है. अनुज शर्मा ने मुझे छोटा- मोटा कलाकार बताया है. मैं छोटा-मोटा कलाकार ही सही,अपने छत्तीसगढ़ का माथा ऊंचा करने के लिए लगातार प्रत्यनशील रहूंगा. अपनी बात के समर्थन के लिए सुनील तिवारी ने एक फोटो के साथ कुछ लिंक भी भेजी. फोटो में पद्मश्री अनुज शर्मा फिल्म डिस्ट्रीब्यूटरों के साथ दिखाई दे रहे हैं. इस तस्वीर में प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक और डिस्ट्रीब्यूटर जय प्रकाश चौकसे भी नजर आ रहे हैं. एक सिने कलाकार ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि अनुज शर्मा न तो डिस्ट्रीब्यूटर है और न ही एक्जीबिटर है... फिर वे डाक्टर रमन सिंह से मिलने क्यों गए थे. कलाकार ने कहा- पूर्व मुख्यमंत्री डाक्टर रमन सिंह के पुत्र अभिषेक सिंह से उनके रिश्ते जग-जाहिर है. सबको पता है कि भाजपा शासनकाल में वे क्या-क्या काम करते थे. खरसिया से भाजपा प्रत्याशी ओपी चौधरी के लिए उन्होंने क्या- क्या किया था. कलाकार ने कहा कि अनुज शर्मा को फिल्मों में योगदान देने के लिए नहीं ब्लकि सामाजिक काम के लिए पद्मश्री दी गई थी, लेकिन आज तक यह पता नहीं चल पाया कि उन्होंने कौन सा सामाजिक काम किया था जो सबसे अलग था.

 

 

 

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