फिल्म

अगर- हंस झन पगली फंस जबे के फूहड़पन से दिल भर गया हो तो जाइए देख आइए आर्टिकल-15

अगर- हंस झन पगली फंस जबे के फूहड़पन से दिल भर गया हो तो जाइए देख आइए आर्टिकल-15

क्या आपको पता है कि आपके शहर में एक उम्दा फिल्म लगी है. दिल और दिमाग को झकझोर देने वाली फिल्म, लेकिन माफ करिएगा इस उम्दा फिल्म का नाम हंस झन पगली फंस जबे.... नहीं है. देश और दुनिया का मीडिया जिस फिल्म की बगैर पैसा खाए समीक्षा और तारीफ कर रहा है उस फिल्म का नाम है- आर्टिकल-15 ( अगर आपके भीतर मोदी वाला राष्ट्रवाद मौजूद नहीं है और आप अपने अलावा इस देश के शोषित, पीड़ित और कमजोर लोगों के बारे में थोड़ा-बहुत भी सोचते हैं तो आपको आर्टिकल 15 अवश्य देखनी चाहिए. ) इस फिल्म के बारे देश-दुनिया के तमाम बड़े लेखकों और पत्रकारों ने अपनी सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है और अब भी लगातार लिख रहे हैं. फिल्म की कुछ विशेषताओं के बारे में बेहद सरल ढंग से यहां बता रहे हैं- लेखक अंजन कुमार.

अनुभव सिन्हा द्वारा निर्देशित एवं गौरव सोलंकी द्वारा लिखित फिल्म ‘आर्टिकल 15’ कई अर्थों में एक महत्वपर्ण फिल्म है. इस फिल्म को देखते हुए कहीं नहीं लगता कि आप फिल्म देख रहें हैं. फिल्म प्रारंभ से ही दर्शक को इस कदर जोड़ लेती है कि दर्शक फिल्म का हिस्सा बनकर भीतर और बाहरी दोनों स्तर पर जीने लगता है.  

इस फिल्म के दृश्य, पात्रों के संवाद, गांव का सारा वातावरण जबरदस्त ढंग की प्रकाश व्यवस्था में इतना वास्तविक प्रतीत होता है कि दर्शक यथार्थ के इस धरातल से सहज ढंग से जुड़ जाता है. यह फिल्म दर्शकों से लगातार संवाद करते हुए भारतीय समाज की वर्णवादी संकीर्ण व्यवस्था, मानसिकता और राजनीति के उस क्रूर, अमानवीय और घृणित यथार्थ को उजागर करती है, जो सदियों से इस भारतीय समाज की व्यवस्था और मानसिकता में आज भी कहीं पैबस्त है. इस फिल्म को देखते हुए लगता है कि हम आजाद भारत के अत्याधुनिक समय के डिजिटल इंडिया के स्मार्ट युग में जी रहें हैं या गुलामी के दौर के भी बहुत पीछे किसी सामंती युग में?

फिल्म को देखकर बरबस ही मुझे धूमिल की कविता याद आती है- ‘‘आजादी का मतलब/क्या तीन रंग है/जिसे एक थका हुआ पहिया ढोता है/या इसका कोई खास मतलब है।’’

पूरी फिल्म मनुष्य की आजादी, समानता और अधिकारों की लड़ाई की कहानी है. जिसमें प्रत्येक पात्र किसी न किसी जाति व वर्ग का प्रतिनिधित्व करता हुआ सामाजिक ताने-बाने को खोलता दिखाई देता है. यह फिल्म परोक्ष और अपरोक्ष रूप से भारतीय सामाजिक, प्रशासनिकऔर राजनीतिक व्यवस्था की उन विसंगतियों और जटिलताओं को परत तर परत खोलती है जिससे पूरा का पूरा समाज आज आक्रांत है. पूरी फिल्म दर्शक को कहीं ठहरने नहीं देती बल्कि घटनाक्रम एवं दृश्यों के सूक्ष्म विश्लेश्षण के साथ-साथ चलने को विवश कर देती है. इस फिल्म के कई दृश्य इतने भयावह, त्रासदीपूर्ण और मार्मिक है कि दर्शक उससे अपने आपको अछूता नहीं रख पाता. ऐसे तमाम दृश्य मन के भीतर किसी कील की तरह गढ़ते हैं और फिर टीस बाकी रह जाती है.

जब इस भयावह समय में संवाद को खत्म करने की पुरजोर कवायद चल रही हो, ऐसे समय में यह फिल्म के संवाद की आवश्यकता बताते हुए विमर्श को जन्म देती है. पूरी फिल्म आर्टिकल 15 के माध्यम से भारतीय संविधान के महत्व को स्थापित करने की जबरदस्त कोशिश है. आर्टिकल 15 प्रत्येक भारतीय नागरिक को समानता और आजादी का अधिकार प्रदान करता है. यह आर्टिकल यह बताता है कि भारतीय संविधान किसी भी सामाजिक जातिगत, धर्मगतव्यवस्था से ज्यादा महत्वपूर्ण है, जिसे बनाए और बचाए रखना बेहद जरूरी है.

इस फिल्म में नायक-नायिका के छोटे-छोटे संवाद सामाजिक यथार्थ को बहुत ही  सुंदर ढंग से अभिव्यक्त करते हैं. नायिका संवाद के माध्यम से सामंती व्यवस्था के उस महानायक के मिथक को भी तोड़ती है. पुलिस के रोल में मनोज के संवाद के माध्यम से सोशल मीडिया हमारे गुस्से को सड़कों में आने से पहले ही कैसे पी लेता है उस पर करारा व्यंग्य है. फिल्म के नायक आयुष्मान खुराना के द्वारा कहा जाना-‘‘कौन है वे लोग ?’’ हमें सोचने के लिए बाध्य करता है कि सच में कौन हैं वे लोग जिनके साथ हम पशुओं से भी बुरा व्यवहार करते हैं, और उनकी जगह कुत्तों को बिस्कुट खिलाना ज्यादा बेहतर समझते हैं. क्या वे इंसान नहीं है? ऐसे कई प्रश्न इस फिल्म की कहानी में प्रमुखता से उठाए गए हैं। मजदूरी में मात्र तीन रूपए ज्यादा देने की मांग करने पर छोटी-छोटी लड़कियों की उनकी औकात दिखाने के लिए सामूहिक बलात्कार कर बेरहमी से जिंदा पेड़ पर लटका दिया जाता है, और जिसे हमने उनकी यथास्थिति में मरने के लिए छोड़ दिया है वे यह कहते हुए कि - ‘‘ये तो ऐसे ही है साहब!’’

यह फिल्म बाजार के उपभोक्तावादी संस्कृति के फैशनेबल प्रेम के बरअक्स फिल्म के नायक-नायिका तथा निषाद और गौरा के माध्यम से एक ऐसे प्रेम को भी दिखाती है जो सामाजिक हित में संघर्षरत व्यक्ति के लिए बेहद जरूरी है. यह प्रेम विपरीत परिस्थितियों में मनुष्य को ताकत और सहारा देने का काम करता है. यह प्रेम देह से परे भावनात्मक संबंल का परिचायक बनता है. यह प्रेम अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने की ताकत देता है. जीवन के संघर्ष में प्रेम की कितनी अहम भूमिका होती है इसे भी फिल्म में पूरी संवेदनशीलता के साथ दिखाया गया है.

कुल मिलाकर पूरी फिल्म अपनी कहानी और निर्देशन की वजह से बेहद सशक्त बन गई है. जिसमें हर चीज का इतना बखूबी इस्तेमाल किया गया है कि फिल्म पकड़ बनाए रखती है. निर्देशक अनुभव सिन्हा और लेखक गौरव सोलंकी ने कहीं भी फिल्म को लेकर कोई समझौता नहीं किया है.  सबसे बड़ी बात की ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में ऐसी फिल्म का आना और उसे पूरी सफलता मिलना अपने आपमें महत्वपूर्ण है. यह फिल्म हिन्दी सिनेमा और फिल्म को लेकर गंभीर लोगों के भीतर एक आशा जगाती है और हमसे-आपसे-सबसे संवाद की मांग करती है.  

 

 

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