फिल्म

जब करीना कपूर के साथ सेल्फी ले रहे थे रमन सिंह तब कहां गए थे संस्कृति के ठेकेदार

रायपुर. मल्टीफ्लैक्स में छत्तीसगढ़ी फिल्म लगाने को लेकर हुए आंदोलन के बाद जमकर राजनीति हो रही है. फिल्म लगाने की मांग को लेकर आंदोलन करने वालों में कई चेहरे ऐसे भी थे जो भाजपा से जुड़े थे. जब ऐसे सभी लोगों ने मीडिया के सामने बार-बार यह दोहराया कि छत्तीसगढ़ का अपमान हो रहा है. छत्तीसगढ़ी संस्कृति खतरे में हैं तब कांग्रेस ने पलटवार किया. कांग्रेस के संचार विभाग के प्रमुख प्रवक्ता शैलेश नितिन त्रिवेदी ने कहा कि संस्कृति के ठेकेदार तब क्यों खामोश थे जब डाक्टर रमन सिंह फिल्म अभिनेत्री करीना कपूर के साथ सेल्फी ले रहे थे. त्रिवेदी ने कहा कि कलाकारों को आंदोलन करने की नौबत इसलिए आई क्योंकि पिछले पन्द्रह सालों में रमन सिंह की सरकार ने कला और संस्कृति के उत्थान के लिए कुछ भी नहीं किया.

त्रिवेदी ने कहा कि भाजपा की सरकार ने छत्तीसगढ़ में होने वाले अमूमन हर आयोजन में सलमान खान, सोनू निगम, सुखविंदर और करीना कपूर को करोड़ों रुपए का खर्च कर आमंत्रित किया. इन बड़े कलाकारों के आगमन से छत्तीसगढ़ की कला संस्कृति और फिल्म निर्माण से जुड़े हजारों कलाकारों का तिरस्कार होता रहा. पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह की करीना कपूर के साथ सेल्फी लेने में मग्न रहे और छत्तीसगढ़ के कलाकार सरकारी आयोजनों में प्रस्तुति देने के बाद भी भुगतान के लिए भटकते रहे. कई कलाकारों को आर्थिक तंगी के चलते अपने वाद्य यंत्रों को भी गिरवी रखना पड़ा. अब जबकि भूपेश बघेल की नेतृत्व वाली सरकार छत्तीसगढ़ी भाषा, संस्कृति और छत्तीसगढ़ कलाकारों की उज्जवल भविष्य बनाने उनके खोए हुए सम्मान को  लौटाने काम कर रही है तो भाजपाइयों को तकलीफ हो रही है. त्रिवेदी ने कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार भी मल्टीप्लैक्स फिल्मों का प्रदर्शन चाहती है. संस्कृति मंत्री ने कहा भी है कि कलाकारों को सुनने-समझने के बाद प्रस्ताव को कैबिनेट में प्रस्तुत कर दिया जाएगा. त्रिवेदी ने कहा कि हर हाल में छत्तीसगढ़ी फिल्मों का प्रदर्शन मल्टीफ्लैक्स में होगा.

 

 

 

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संस्कृति विभाग की लिस्ट से कटा योगेश अग्रवाल, अनुज शर्मा, सुरेंद्र दुबे, प्रकाश राजेश अवस्थी, लखी और मोहन सुंदरानी का नाम

रायपुर. मल्टीफ्लैक्स में छत्तीसगढ़ी सिनेमा के प्रदर्शन की मांग से उपजे विवाद के बाद संस्कृति विभाग ने अपनी सूची से सिने कलाकार योगेश अग्रवाल, पद्मश्री अनुज शर्मा, सुरेंद्र दुबे, प्रकाश अवस्थी,राजेश अवस्थी, लखी सुंदरानी और मोहन सुंदरानी का नाम काट दिया है. इधर फिल्म निर्माता- निर्देशक संतोष जैन की अध्यक्षता में गठित संघ और उससे से जुड़े अधिकांश सदस्यों ने भी इन कलाकारों से भी अपना पल्ला झाड़ लिया है. गौरतलब है कि संस्कृति मंत्री ताम्रध्वज साहू ने गुरुवार 6 जून को प्रदेश के चुनिंदा साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों और कलाकारों की एक बैठक बुलाई है. इस बैठक के पीछे का मकसद यहीं है कि छत्तीसगढ़ में कला और संस्कृति को बढ़ावा देने के नाम पर भाजपा सरकार ने जो भौंडापन परोसा था उससे कैसे निपटा जा सकता है. मंत्री ताम्रध्वज साहू की इसी मंशा के अनुरुप संस्कृति विभाग के जिम्मेदार अधिकारियों ने साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी और सिने कलाकारों की एक सूची बनाई थीं, लेकिन अब इस सूची से सुरेंद्र दुबे, योगेश अग्रवाल सहित अन्य कई का नाम कट गया है. बैठक में मौजूद रहने वालों की अब नई सूची तैयार की जा रही है. कलाकारों में किसे आमंत्रित करना है और किसे नहीं... इसका जिम्मा वरिष्ठ रंगकर्मी डीपी देशमुख, मोना सेन, फिल्म निर्माता संतोष जैन और मनोज वर्मा को सौंपा गया है.

जेल परिसर में विवाद की वजह

यहां यह बताना लाजमी है कि बुधवार पांच जून को छत्तीसगढ़ के फिल्मकारों ने मल्टीफ्लैक्स में छत्तीसगढ़ी फिल्म लगाए जाने की मांग को लेकर धरना-प्रदर्शन किया था. रायपुर के एक मल्टीफ्लैक्स में विवाद की स्थित तब बनी जब छत्तीसगढ़ के एक सिने निर्माता ने एक सामान्य दर्शक से कह दिया कि वह सलमान खान के अभिनय से सजी फिल्म भारत को न देखें. ( पांच जून को सलमान की फिल्म भारत रीलिज हुई है और दर्शक सलमान की फिल्म देखने मॉल गया हुआ था. ) सामान्य दर्शक का कहना था जब छत्तीसगढ़ी फिल्मों का कंटेट ही घटिया और बंडल रहता है तो वह छत्तीसगढ़ी फिल्म क्यों देखेगा. दर्शक और सिने निर्माता के बीच के हुए इस विवाद की जानकारी पुलिस प्रशासन तक पहुंची तो मल्टीफ्लैक्स से आंदोलनकारियों की धर-पकड़ प्रारंभ हुई और देखते ही देखते सभी आंदोलनकारियों को सेंट्रल जेल परिसर पहुंचा दिया गया. यहां पहुंचने के बाद अधिकांश कलाकार सेल्फी और फेसबुक लाइव के जरिए यह बताने लगे कि उन्हें जेल क्यों लाया गया है. एक कलाकार ने तो बकायदा अपने लाइव में यहां तक कह दिया पहली बार सेंट्रल जेल में खूबसूरत-खूबसूरत लड़कियां आई हुई है. (  सिने कलाकार के इस लाइव से यह मैसेज गया कि क्या जेल में किसी मजबूरी में बंद महिलाएं और लड़कियां बदसूरत है. ) जेल परिसर में भी टीवी चैनल वाले उन कलाकारों की बाइट लेते दिखाई दिए जो पूर्ववर्ती भाजपा सरकार में सबसे ज्यादा सक्रिय थे. इस बीच कलाकारों के बीच यह खुसफुसाहट तेज हो गई कि भाजपा के राज में गरीब कलाकारों का हक मारने वाले फिर से खुद को सामने रख रहे हैं और मलाई छानने की जुगत में है.

जब मंत्री ने कहा मिलने आइए तब...

कलाकारों की नारेबाजी के बीच संस्कृति विभाग के अधिकारी जेल परिसर पहुंचे और उन्होंने संघ के अध्यक्ष संतोष जैन को संदेश दिया कि संस्कृति मंत्री मांगों पर विचार करने के लिए प्रतिनिधि मंडल से मिलना चाहते हैं. प्रतिनिधि मंडल से मुलाकात के लिए बकायदा गाड़ी भी भिजवाई गई थी. जब यह तय हुआ कि मंत्री से कौन मुलाकात करेगा और कौन नहीं तब विवाद छिड़ गया. सिने कलाकार योगेश अग्रवाल ने आरोप लगाया कि कुछ लोग उनकी एकता को तोड़ना चाहते हैं. इस बात पर फिल्म निर्देशक सतीश जैन भड़क गए. योगेश अग्रवाल और सतीश जैन के बीच जमकर तू-तू मैं-मै हुई. जैन ने एक कलाकार राजेश अवस्थी को इस बात के लिए फटकारा कि वे केवल चेहरा दिखाने के लिए आंदोलन में शरीक हुआ है. सिने अभिनेता अनुज शर्मा ने भी कहा कि कुछ लोग कलाकारों के बीच ही कांग्रेस-भाजपा कर रहे हैं. जब इस विवाद की भनक संस्कृति विभाग तक पहुंची तो कलाकारों का नाम सूची से काट दिया गया. वैसे कल के आंदोलन में हास्य कवि सुरेंद्र दुबे मौजूद नहीं थे लेकिन सूत्रों का कहना है कि उनका नाम भाजपा में शामिल प्रचार करने की वजह से हटा दिया गया है. सूत्र बताते है कि कतिपय कलाकारों ने छत्तीसगढ़ी सिने इंडस्ट्री से जुड़े सात ऐसे लोगों की जानकारी भी मंत्री को दी है जो भाजपा के शासनकाल में जमकर गुलछर्रे उड़ाते थे. एक कलाकार के बारे में बताया गया है कि उसने नेता के बेटे साथ मिलकर जनसंपर्क विभाग के सारे काम हथिया लिए थे. पत्रकारों को हड्डी का टुकड़ा बांटने वाली कंसोल इंडिया में भी उसकी भागीदारी थी. इस अभिनेता के बारे यह भी कहा गया है कि यह शख्स खुद को पद्मश्री हूं... पद्मश्री हूं कहकर प्रचारित करते रहता है. दो अन्य कलाकारों के बारे में यह बताया गया है कि वे छत्तीसगढ़ी कलाकारों के सबसे बड़े शोषक और छत्तीसगढ़ की संस्कृति को मटियामेट करने के काम में लगे हैं. दो भाइयों के बारे में भी यह जानकारी दी कि वे खुलकर भाजपा के लिए काम करते थे जिसमें से एक ने  महासमुंद लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने की इच्छा भी जाहिर की थी.

 

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मल्टीफलैक्स में छत्तीसगढ़ी फिल्म लगाने की मांग कर रहे सिने कलाकार गिरफ्तार

रायपुर. छत्तीसगढ़ के मल्टीफलैक्स में छत्तीसगढ़ी फिल्म लगाने की मांग कर रहे सिने कलाकार अल-सुबह अंबुजा मॉल से गिरफ्तार कर लिए गए. गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ सिने एंड टेलीविजन एसोसिएशन के सदस्यों ने अभी कुछ दिनों पहले ही मल्टीफलैक्स संचालकों की मनमर्जी के खिलाफ आंदोलन करने का फैसला किया था. एसोसिएशन से जुड़े सदस्यों का आरोप है कि महाराष्ट्र में प्रत्येक सिनेमाघर को साल में दो महीने के लिए मराठी भाषा में बनी फिल्मों का प्रदर्शन अनिवार्य किया गया है, लेकिन छत्तीसगढ़ के एक भी मॉल में छत्तीसगढ़ी सिनेमा का प्रदर्शन नहीं होता है. एसोसिएशन के फैसले के बाद शासन के आबकारी विभाग की ओर से मल्टीफलैक्स को संचालित करने वाले लोगों और छत्तीसगढ़ी फिल्म इंडस्ट्रीज के बीच सुलह के लिए पहल की थीं, लेकिन बात नहीं पाई. सिने कलाकारों ने कुल पांच मल्टीफलैक्स पर प्रदर्शन किया. फिलहाल अंबुजा मॉल में प्रदर्शन कर रहे कलाकारों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया है. सभी सिने कलाकार सेंट्रल जेल रायपुर के प्रांगण में मौजूद है और  नारेबाजी कर रहे हैं. पुलिस के एक वरिष्ठ अफसर ने अपना मोर्चा डॉट कॉम से कहा कि बुधवार को सलमान खान अभिनीत भारत के अलावा एक अन्य फिल्म रीलिज हुई है. पब्लिक ने काफी पहले से इन फिल्मों को देखने के लिए टिकट बुक करवा रखी थीं. प्रदर्शनकारी अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन तो कर सकते हैं लेकिन आम जनता को फिल्म देखने से नहीं रोक सकते. विवाद की स्थिति पैदा न हो इसलिए सभी सिने कलाकारों को ससम्मान जेल परिसर तक लाया गया है.

 

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खुरमी-ठेठरी और चीला खाकर आज ताकत दिखाएंगे छत्तीसगढ़ी फिल्म इंडस्ट्री के लोग

रायपुर. पांच जून को विश्व पर्यावरण दिवस और ईद के मुबारक मौके पर शायद यह तय हो जाएगा कि निकट भविष्य में छत्तीसगढ़ में निर्मित होने वाली छत्तीसगढ़ी फिल्में मल्टीफलैक्स में लगेगी या नहीं. छत्तीसगढ़ सिने एंड टेलीविजन एसोसिएशन के सदस्यों ने अभी कुछ दिनों पहले ही मल्टीफलैक्स संचालकों की मनमर्जी के खिलाफ आंदोलन करने का फैसला किया था. एसोसिएशन से जुड़े सदस्यों का आरोप है कि महाराष्ट्र में प्रत्येक सिनेमाघर को साल में दो महीने के लिए मराठी भाषा में बनी फिल्मों का प्रदर्शन अनिवार्य किया गया है, लेकिन छत्तीसगढ़ के एक भी मॉल में छत्तीसगढ़ी सिनेमा का प्रदर्शन नहीं होता है. एसोसिएशन के फैसले के बाद शासन के आबकारी विभाग की ओर से मल्टीफलैक्स को संचालित करने वाले लोगों और छत्तीसगढ़ी फिल्म इंडस्ट्रीज के बीच सुलह के लिए पहल की थीं. शासन ने सीधे तौर पर मल्टीफलैक्स के लोगों को फिल्म लगाने के लिए कहा भी, लेकिन बात नहीं बन पाई.

एसोसिएशन के अध्यक्ष संतोष जैन ने बताया कि छत्तीसगढ़ में हर साल लगभग 20 फिल्में रिलीज हो रही है. फिल्म के निर्माता और निर्देशक अपने घर-बार को बेचकर फिल्में बना रहे हैं, लेकिन सिंगल थियटेर के कम होने की वजह से फिल्म बनाने वालों को नुकसान उठाना पड़ रहा है. सिनेमाघरों के संचालक फिल्मों के प्रदर्शन को लेकर अड़ियल रवैया अख्तियार किए रहते हैं. यदि कोई छत्तीसगढ़ी फिल्म अच्छा बिजनेस कर रही है तब भी बाहर के वितरकों के दबाव में फिल्में उतार दी जाती है और मॉल में तो फिल्में लगाई ही नहीं जाती. जैन ने बताया कि उनका एसोसिएशन अब फिल्म को उद्योग का दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर भी संघर्ष करेगा. उन्होंने कहा कि कई राज्यों में क्षेत्रीय फिल्म बनाने वालों को सरकार शूटिंग के लिए जगह और सब्सिडी भी देती है. छत्तीसगढ़ में फिल्मों के विकास को लेकर बातें तो खूब बड़ी-बड़ी की गई है, लेकिन कोई सार्थक पहल नहीं की गई. जैन ने कहा कि अब एसोसिएशन इस बात के लिए आंदोलन करेगा कि हर मॉल में साल में कम से एक बार छत्तीसगढ़ी अनिवार्य रुप से लगे. उन्होंने बताया कि महाराष्ट्र के लोग सिनेमाघरों में अपना टिफिन, पानी सब लेकर जाते हैं. क्या छत्तीसगढ़ का रहवासी अपनी खुरमी-ठेठरी के साथ फिल्म नहीं देख सकता. जैन ने कहा कि जब तक मॉल के संचालक छत्तीसगढ़ी फिल्मों का प्रदर्शन करने के लिए तैयार नहीं हो जाते तब तक आंदोलन चलते रहेगा. उन्होंने बताया कि बुधवार पांच जून की सुबह से प्रदेश के सभी पांच बड़े मॉल में फिल्म के कलाकार, तकनीशियशन, एकत्रित होंगे और अपना विरोध प्रदर्शन करेंगे.

 

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लेंडगा…भोकवा... तोर अवकात का हे

राजकुमार सोनी

लेंडगा... भोकवा... तोर अवकात का हे... जी हां... यह सब छत्तीसगढ़ी फिल्मों के शीर्षक यानी टाइटल है. इन नामों को सुनकर आपके चेहरे पर एक मुस्कान तैर सकती है और आप सोच सकते हैं कि क्या यह मजाक है, लेकिन यही सच है.छत्तीसगढ़ में हर दूसरे-तीसरे हफ्ते रिलीज होने वाली फिल्मों के नाम कुछ इसी तरह के होते हैं. ( कुछ फिल्में बेहतर बनती है तो उनके नाम भी बेहतर होते हैं.) लेकिन ज्यादातर शीर्षक इसी तरह के रोचक और हैरत में डालने वाले होते हैं. छत्तीसगढ़ के एक बड़े निर्माता-निर्देशक सतीश जैन का कहना है कि वे पापुलर सिनेमा बनाते हैं ताकि दर्शकों का भरपूर मनोरंजन होता रहे. अब छत्तीसगढ़ के दर्शकों का ठीक-ठाक और स्वस्थ मनोरंजन हो रहा है या नहीं यह शोध का विषय है, लेकिन मोटे तौर पर लगता है कि छत्तीसगढ़ में फिल्में स्वस्फूर्त ढंग से नहीं बल्कि निर्माता-निर्देशकों के प्रबंधन से खुद को खींच रही है. फिल्मों के एक जानकार का कहना है कि छत्तीसगढ़ में अब भी बहुत से लोग अपना घर-बार- खेत-खार बेचकर फिल्म बना रहे हैं. एक निर्माता तो इस कदर बरबाद हो गया था कि उसे कर्जदारों से बचने के लिए श्मशानघाट में जाकर सोना पड़ता था. घर-बार और खेत-खार बेचने के बाद भी अगर दो आंखे बारह हाथ... मदर इंडिया, दो बीघा जमीन जैसी फिल्म नहीं बनती है तो क्या फिल्म निर्माण करने वाले के जज्बे को सलाम किया जा है. अभी छत्तीसगढ़ के फिल्मकारों के काम को सैल्यूट करने जैसी स्थिति नहीं बन पाई है. खैर... घर फूंक तमाशा देखने- दिखाने जैसे मुहावरे को चरितार्थ करने वाले निर्माता और निर्देशकों की बात फिर कभी. आज तो आप कुछ मनोरंजक शीर्षक यानी टाइटल से गुजरिए और सोचिए कि इन फिल्मों का टाइटल ऐसा क्यों रखा गया. क्या वजह थी. अगर आपके पास सोचने-समझने का वक्त नहीं है तो एक साहित्यकार का सिर्फ यह कथन याद रखिए- हर राज्य की एक स्थानीयता होती है और स्थानीयता की अपनी एक रंगत होती है... जब रंगत बिगड़ जाती है तो सब कुछ बिगड़ जाता है.

अंग्रेजी प्रेम

छत्तीसगढ़ के हमारे फिल्मकारों को अंग्रेजी से बड़ा प्रेम है. चलिए कुछ मजेदार शीर्षक देखिए- हीरो नंबर वन, मिस्टर टेटकूराम, लैला टिपटॉप- छैला अंगूठाछाप, सोल्जर छत्तीसगढ़िया, छत्तीसगढ़ के हैंडसम, लव दीवाना, हमर फैमली नंबर वन, आईलवयू, बीए फर्स्ट ईयर, बीए सेंकड ईयर, टिकट द छालीवुड ( पता नहीं ये फिल्म है या नहीं ) बालीफूल... वेलकम टू बस्तर, हार्ट बीट. मोर भाई नंबर वन.

मोर-तोर और मया का चक्कर

छत्तीसगढ़ी के फिल्मकार मोर-तोर और मया जैसे शब्दों का खूब इस्तेमाल करते हैं. सतीश जैन की फिल्म मोर छइंया-भुइंया के बाद हर दूसरी फिल्म के आगे या पीछे मोर शब्द चस्पा रहता था. इन शब्दों की महत्ता अब भी बरकरार है. जरा बानगी देखिए- मोर धरती मैया, मोर संग चलव मितवा, मोर संग चलव, मोर सपना के राजा, मोर गंवई गांव, ए मोर बांटा, अब मोर पारी हे, मोर गांव मोर करम, माटी मोर महतारी, मोर सैंया, मोर जोड़ीदार, मोर डउकी के बिहाव, सुंदर मोर छत्तीसगढ़िया. फिल्म निर्माता प्रेम चंद्राकर ने मया बनाई तो मया की बहार आ गई थी. उनकी फिल्म मया देदे- मया लेले के बाद चारों तरफ मया-मया की धूम मच गई थी. तोर मया के मारे, मया, मया टू, मया होगे रे, मया के बरखा, मया म फूल मया म कांटे, तोर मया का जादू हे, मया के चिट्ठी, मया मंजरी, आशिक मयावाले तोर मया के खातिर, दीवाना तोर नाम के, तोर बिना.... मया ब्रांड फिल्में है.

छत्तीसगढ़ी में शोले

अब से कुछ अरसा पहले हिंदी फिल्मों के निर्माता-निर्माता निर्देशक रमेश सिप्पी ने शोले बनाकर इतिहास रच दिया था. हालांकि यह फिल्म भी सेवन समुराई और व्ही शांताराम की फिल्म दो आंखे बारह हाथ का मिश्रण थी, बावजूद इसके दर्शकों ने इस फिल्म को सिर आंखों पर बिठाया. छत्तीसगढ़ में भी छत्तीसगढ़ के शोले नाम से एक फिल्म बनी. यह फिल्म कब आई और कब चली गई इसका पता नहीं चला अन्यथा जो दर्शक डुप्लीकेट अभिनेताओं से सजी रामगढ़ के शोले को देखने गए थे वे छत्तीसगढ़ के शोले को भी देखने जाते. तहलका, गोलमाल और छलिया हिंदी में बनी फिल्में है. छत्तीसगढ़ी में भी तहलका, गोलमाल और छलिया बन चुकी है. रामसे बद्रर्स हॉरर फिल्मों के लिए जाने जाते हैं. उनकी कई फिल्मों का मिक्चर आप छतीसगढ़ की हॉरर फिल्म अंधियार में देख सकते हैं.

मजेदार... लेकिन सोचनीय टाइटल

पढ़ाई म जीरो-तभो ले हीरो, लेंडगा नंबर वन, भकला, भोकवा- 2, टूरा चायवाला, टूरा रिक्शावाला, तीन ठन भोकवा, सुपर हीरो भैंइसा, अलकरहा टूरा, राधे अंगूठा छाप, प्रेम अमर हे, गदर मताही, दबंग दरोगा, दीवाना छत्तीसगढ़िया, राजू दिलवाला ऐसे टाइटल है जो यह सोचने के लिए मजबूर करते हैं कि आखिर इन फिल्मों में नया क्या हो सकता है. सतीश जैन की एक फिल्म जो आने वाली है का नाम है- हंस झन पगली फंस जबे... ( इस स्लोगन को आपने कई बार ट्रकों के पीछे लिखा हुआ देखा होगा. हंस मत पगली प्यार हो जाएगा. ) महूं कुंआरा... तहूं कुंआरा को देखकर आने वाले बताते हैं कि यह फिल्म एक नाटक मिसेस अहलुवालिया, हिंदी की फिल्म पेइंग गेस्ट और मुझसे शादी करोगी का अच्छा-खासा मिक्चर है. यह सही है कि भोजपुरी फिल्म को मारीशस, नेपाल, दिल्ली-पंजाब, यूपी, बिहार और मुंबई को बड़ा बाजार नसीब है. छत्तीसगढ़ की फिल्में केवल 30 सेंटरों पर हाथ-पांव मारती है. सिनेमा के जानकार मानते हैं कि छत्तीसगढ़ में अच्छा सिनेमा बनेगा तभी उसकी धूम सब जगह मच पाएगी. दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पा रहा है. जानकार इसकी सबसे बड़ी वजह है नकल को मानते हैं. इधर फिल्मकार बड़ी बेशर्मी से यह कहने से नहीं चूकते- हम नकल भी अकल लगाकर मारते हैं.

( मैं छत्तीसगढ़ी बोली-बानी और छत्तीसगढ़ी सिनेमा का विरोधी नहीं हूं. जितना आप छत्तीसगढ़ से प्रेम करते हैं उतना मैं भी करता हूं. यह छत्तीसगढ़ जितना आपका है उतना ही मेरा भी है. जिस तरह से महाराष्ट्र, बंगाल और दक्षिण का सिनेमा विश्व पटल पर अपनी जगह बना लेता है ठीक वैसे ही छत्तीसगढ़ का सिनेमा भी छत्तीसगढ़ का माथा ऊंचा करें यहीं मंशा है.मुझे न तो पापुलर सिनेमा से परहेज हैं और न हीं मनोरंजक सिनेमा से. मेरा मानना है कि सिनेमा दो ही तरह का होता है- या तो अच्छा होता है या खराब. अच्छा सिनेमा बनेगा तो हर किसी को अच्छा लगेगा, सिनेमा में सपना होता है और सपना हर किसी को पसन्द आता है. मुझे उम्मीद का सिनेमा पसन्द है. ) 

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अभी खत्म नहीं हुई है छत्तीसगढ़ी फिल्मों की विकास यात्रा

जाने कब शर्म आएगी छत्तीसगढ़ी फिल्मकारों को... इस लेख पर प्रतिक्रियाओं का क्रम जारी है. नाटकों और फिल्मों में सक्रिय रहने वाले योग मिश्रा ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी है. यहां जस का तस प्रकाशित कर रहे हैं.

 

योग मिश्रा

प्रेमचन्द ने लिखा साहित्य समाज का दर्पण है। उसी तरह सिनेमा समाज का चेहरा है। हर दौर का चेहरा सिनेमा में नज़र आता है। सिनेमा की विषयवस्तु कोई फिल्मकार नहीं असल में समाज गढ़ता रहा है। पहली फिल्म हरिशचंद्र से लेकर हाल में आई फिल्म संजू भी हमारे समाज का ही चेहरा है। फिल्मकार केवल अनुमान लगाता है कि लोग क्या देखना पसंद करेंगे? 

यहाँ से फिल्मकार की अपनी सूझबूझ और अनुमान की जुगत से एक हिट फिल्म का मासविदा तैयार करने कि प्रक्रिया आरम्भ होती है। फिल्मकारों के व्यक्तिगत अलग-अलग अनुभवों से संवरकर बनती बिगड़ती हैं हमारी फिल्में। 

फिल्मकारों ने जब कभी टायलेट में उकेरी गई मनुष्य में दबी छुपी यौनिकता को देखा होगा तभी समझ लिया होगा कि लोग ये-ये भी देखना चाहते हैं। नहीं तो साधु-संन्यासियों के इस अध्यात्मिक देश में अश्लीलता दिखाने का कोई कैसे साहस करता? फिल्मकारों ने रामलीला सूर्पनखा के नाक कटने पर लोगों को ताली बजाता देख कर कुछ प्रेरणा ली। कुछ महाभारत से चीरहरण के दृश्य से प्रेरित होकर स्त्री के बदन कपड़े खींच लिए होंगे। लोगों का रूझान सिनेमा में इन दृश्यों से लौट आया तब फिल्मकारों ने अश्लीलता को हिट फिल्म बनाना का सबसे आसान फार्मूला मान लिया होगा। जनता ने भी उस पर हमेशा अपनी मुहर लगाकर निश्चित किया है कि हम यही देखना चाहते हैं। जब संजू फिल्म में घपा घप्प या खापीचो में सीटी पड़ती है और सिनेमा हिट हो जाती है। दूसरी तरफ माँझी या रंगरसिया जैसी फिल्म दर्शकों का इन्तजार करते थक जाती हैं। ऐसे में कोई फिल्मकार अपने पैसे डुबाकर कितना रिस्क ले सकता है? 

जो भी समानान्तर सिनेमा या कला फिल्में या सरोकार का कोई सिनेमा हमारे सामाने आया है वह ज्यादातर एनएफडीसी के अनुदान पर जनता के पैसे से बनीं फिल्में हैं। इन फिल्मों के निर्माण से एनएफडीसी का भट्टा बैठ गया था। अब एनएफडीसी ने अपने हाथ खींच लिए तो ऐसी फिल्में भी कम नजर आ रही हैं। 

अभी नये सिनेमा का एक नया दौर चला है बहुत अच्छी सार्थक फिल्में नये और महत्वपूर्ण सब्जेक्ट पर बनकर हमारे सामने आई हैं। सब नये और कम उम्र के डायरेक्टर हैं अपने ताजगी भरे बिल्कुल नए विषय और नई सोच के साथ अपनी फिल्में लेकर दर्शकों के सामने आ रहे हैं। तो कब्जियत जैसे मुँहकान सिकोड़ने वाले विषय पर भी रोचक फिल्म संभव हो रही है। बधाई हो बधाई जैसे समाज में व्याप्त बड़ी उम्र की प्राकृतिक समस्या पर बहुत ही बेहतरीन फिल्म फार्मूला फिल्मों के बीच से निकल कर सामने आ रही है तो यह परिणाम है अच्छी बुरी हिन्दी फिल्मों के लंबे संघर्ष का केवल महान फिल्म बनाना है भर सोचते रहने पर केवल आलोचना ही सामने आ सकती है। सिनेमा में सुधार प्रयत्न से आएगा प्रयत्न खराब भी होगा लेकिन समय के साथ उसमें सुधार की संभावना है लेकिन अच्छे विचार आने पर ही सिनेमा बनाऊँगा सोचते रहने वाले सिनेमा नहीं बना सकते पर सिनेमा खराब विषय को भी अच्छे से दिखा सकती है यह प्रयत्न से ही संभव है छत्तीसगढ़ी सिनेमा यह प्रयत्न करता दिखाई दे रहा है। 

अपने हरेक दौर में बदलते समाज के साथ सिनेमा बदलता रहा है। छत्तीसगढ़ी सिनेमा में भी बदलाहट की अंगड़ाई दिखाई दे रही है यहाँ साहित्य पर आधारित फिल्में बनाने के जो प्रयास हुए हैं यह प्रमाणित देते है। लेकिन अच्छी फिल्में बनाने के लिए छत्तीसगढ़ी सिनेमा को भी हिन्दी फिल्मों की तरह अब सरकारी मदद की दरकार है। आप इसे शर्म कहते हैं तो यह आपकी क्षुद्रता है। क्या आप इस पर शर्म कहेंगे कि छत्तीसगढ़ में सिनेमा बनाने के लिए अब हमें केवल सेंन्सर करवाने या युएफओ में फिल्म लोड करने मात्र के लिए छत्तीसगढ़ से बाहर जाना पड़ता है? यह सब छत्तीसगढ़ी फिल्में बनाने वालों ने अपने जुनून में छत्तीसगढ़ में खड़ा किया है। आज भोजपुरी फिल्मों की शूटिंग भी छत्तीसगढ़ में हो रही है। छत्तीसगढ़ी फिल्मों से काफी पुराना इतिहास है भोजपुरी फिल्मों का। भोजपुरी फिल्में दुनिया भर में देखी जाती हैं। पर छत्तीसगढ़ी फिल्मों को छत्तीसगढ़ में ही जगह नहीं मिल पा रही है हम छत्तीसगढ़ी फिल्में मल्टीप्लेक्स में दिखाने जो माँग कर रहे हैं उस पर आपको शर्म आ रही है राजकुमार सोनी

 

मैं आपको बता दूँ क्वालिटी के लिहाज से हमारी छत्तीसगढ़ी फिल्में भोजपुरी फिल्मों से आज काफी बेहतर बन रही हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी फिल्में दिखाने के लिए स्थान बहुत सीमित हैं। हिन्दी फिल्मों की शूटिंग में जितना खर्च पानी की बोतलों का है। उतने पैसे में छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाई जा रही हैं। उसमें जितनी क्वालिटी लाई जा सकती है हम लाने का प्रयास कर रहे हैं। यहाँ लोगों के जुनून में फिल्में बन रही है। अब यह जुनून रायपुर से निकल कर दुर्ग भिलाई राजनाँदगाँव जगदलपुर बिलासपुर कोरबा से होता हुआ जशपुर अम्बिकापुर तक फैल गया है। फिल्में बनाना आसान है पर उसे सिनेमाघरों में लगाना बहुत कठिन है यह आन्दोलन उन नये निर्माताओं की फिल्में आसानी से सिनेमाघर उपलब्ध कराने के लिए है। 

निःसंंदेह छत्तीसगढ़ी फिल्मों में मीनमेख निकालने जाएं तो ढेर निकाली जा सकती है। यह किसी अच्छी से अच्छी फिल्म में भी संभव है। लेकिन छत्तीसगढ़ी फिल्मों का सतत् विकास आप कहि देबे संदेश से तहुँ कुँवारी... तक में जरूर पाएंगे। आपके लेख से एक घटना की याद आती है कि 'एक चित्रकार ने अपनी बनाई एक पेंटिंग शहर के चोहराहे पर लगाई और नीचे लिख दिया इसमें क्या-क्या गलत है बताएं शाम को आया तो लोगों ने इतनी गलतियाँ गिना दी थी कि उसकी पेंन्टिग पूरी नष्ट हो गई थी। उसने फिर एक पेंटिंग बनाई और शहर के उसी चौक में उसी जगह पेंटिग लगाई और नीचे लिख दिया कि यदि इसमें आपको कहीं गलती नज़र आए तो उसे सुधार दें। शाम को वह जब लौटा तो उसे पेंटिंग वैसी ही मिली जैसी उसने बनाई थी और वहाँ लगाकर गया था।'

राजकुमारजी आप खूब त्रुटियाँ निकालें स्वागत है आपका वह हमारे सुधार के लिए आवश्यक भी है। हम सब चाहते हैं छत्तीसगढ़ी फिल्मों का स्तर सुधरे। अच्छे सब्जेक्ट पर अच्छी फिल्में बनें। लोग अच्छा सिनेमा पसंद तो करें पहले। चंद सिनेमा को छोड़ दें तो आम दर्शकों की पसंद ऊ-ला-ला-ऊ-ला-ऊ है। निर्माता जो सिनेमा में पैसा लगाता है उसे सब्जेक्ट आपकी विचारधारा आपके सामाजिक सरोकार से ज्यादा अपने पैसों के लौटने कि ज्यादा चिंता होती है। जो बिजनेस की दृष्टि से नाजायज भी नहीं है।यह धंधे का उसूल है। अब सारा नैतिक दायित्व आता है निर्देशक के ऊपर। वह हिट फिल्म के आजमाए फार्मूले जो निर्माता को फायदा पहुँचाते रहे हैं वैसी फिल्में बनाए या निर्माता उसे टाटा बाय बाय कह दे निर्माता के लिए निर्देशकों की कमी नहीं है। इसलिए आपका छत्तीसगढ़ी सिनेमा के लिए शर्म वाला यह लेख इस व्यवसाय की जमीनी हकीकत को नाम मात्र भी टच नहीं करता है। यह लेख एक थोथा पूर्वाग्रह से भरे ज्ञान का पुलिंदा मात्र है।

आप को विदित ही है कि हिन्दी सिनेमा का कैनवास हमारी हिन्दी भाषा से बहुत बड़ा है। हिन्दी सिनेमा में हिन्दी भाषा का ही प्रयोग नही होता उसमें मराठी, मलयाली, कन्नड़, गुजराती, तमिल, पंजाबी, बंगाली, उर्दू , अंग्रेजी, अवधी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, उड़िया, नेपाली, सिंधी, हल्बी, कश्मीरी, आदि सभी बोली भाषाओं के पुट और लहजे भी मिलते जुड़ते रहते हैं। और इन बोली भाषाओं में डिजिटल क्रान्ति के बाद से खूब फिल्में भी बनने लगी हैं लेकिन इन फिल्मों को प्रदर्शित करने की एक बड़ी समस्या क्षेत्रीय बोली भाषा में फिल्में बनाने वालों के सामने हमेशा बनी रहती है। वैसे भी हमारे यहाँ बहुत थोड़े से सिनेमाघर हैं जो कि हिन्दी सिनेमा को ही कम पड़ते हैं। इसके अलावा जिन बोलियों को अभी भाषा का दर्जा नहीं मिला है उन्हें दूरदर्शन भी अपने यहाँ नहीं दिखाता है। ऐसे में क्षेत्रीय बोली भाषा का फिल्मकार जाए तो कहाँ जाए? कहाँ जाकर अपनी फिल्में दिखाए? बस इस छोटे से प्रयास के लिए है हमारा 5 जून का आन्दोलन है और आप हैं कि छत्तीसगढ़ी फिल्मों को देख शर्म के मारे डूब जा रहे हैं। आपका इसमें कोई दोष नहीं कुछ लोगों की नाक ही ऐसी है जरा जरा सी बात में कट भी जाती है।

क्षेत्रीयता ही भारतीयता की पहचान है यह आप भी समझें और हमारी सरकारें भी समझें। यही प्रयास हम सबका है। आपने पूर्व में हमारा समर्थन किया था। सरकार ने जरा सहजता से क्या हमारी समस्या सुनने हमें बुला लिया आप तो एक दम से असहज ही  हो गये साहब। आपकी नाक कट गई साहब कि कैसे इतनी आसानी से इन छत्तीसगढ़ी फिल्म वालों की समस्याएं सुन रही है छत्तीसगढ़ी सरकार? 

दरअसल कुछ लोगों का हित समस्याएं कायम रखने से सधता है। इसके अनेक उदाहरण इतिहास के आईने में हैं सब को है खबर सबको है पता।

मै पुनः आप को याद दिला दूँ कि सिनेमा का अपने समाज के साथ अन्योन्य संबंध रहा है। जैसा हमारा समाज होगा वैसा ही हमारा सिनेमा होगा। बदलती दुनिया का अब तक का समूचा रंग-ढंग सिनेमा के सौ साल के इतिहास में कैद है। बीते वर्षों के सिनेमा ने हमारी संस्कृति उसके चाल-चलन, फैशन, खान-पान के साथ हम सब कहाँ से चले थे और कहाँ-कहाँ से गुजारते हुए कहाँ आ पहुँचे हैं यह सब सिनेमा के भीतर दर्ज हो चुका है। हम कह सकते हैं कि सिनेमा हमारी पीढ़ी का एक मात्र जीवंत दस्तावेज है।

हरेक दौर के सिनेमा ने अपने दौर के समाज पर गहरा असर छोड़ा है। देश की आजादी के समय जहाँ सिनेमा ने देशभक्ति के गीत गाए थे तो वहीं सिनेमा का एक असर यह भी रहा है कि जब 'शराबी' फिल्म 1984 में आई तो बहुत से युवा यंग्री यंग मेन के राही भी हुए। और यह सिनेमा का ही असर था कि कुंआरा बाप फिल्म आई तो कई गरीब मेहनतकशों ने फिल्म देखकर अपने बच्चों को ऊँची तालीमें भी दिलवाई हैं। फिल्म निर्माण मनोरंजन के साथ एक समाजिक जिम्मेदारी भी है। जिसका उल्लेख आप के लेख में भी मिलता है। जो छत्तीसगढ़ी सिनेमा में भी भरपूर मिलता है। बहुत सी छत्तीसगढ़ी फिल्में बहुत ही अधकचरी सी होती हैं उसका फैसला छत्तीसगढ़ी आर्डीयंस स्वयं कर देती है।

मैं भी मानता हूँ कि हमारी छत्तीसगढ़ी फिल्में स्थानीय मुद्दों और समस्याओं की तरफ लोगों का ध्यानाकर्षण कराती रहें। मैंने 'माटी के लाल' नाम से एक छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाई थी तो इस बात का खूब ख्याल रखा था कि स्थानीय मुद्दे सिनेमा में दिखें और निर्माता की इच्छा के अनुरूप सारे हिट फिल्मों के फार्मूले भी मैंने आजमाए थे। समय निकाल सकेंगे तो निश्चित ही छत्तीसगढ़ी सिनेमा को कहि देबे संदेश के समय से आज के समय के अनुरूप बदालता हुआ पाएंगे। 

विकास के साथ विनाश जुड़ा हुआ है। छत्तीसगढ़ी फिल्मों में भी विकास की कसमसाहाट है। विकास की वहु टूट-फूट कुछ छत्तीसगढ़ी फिल्में देखकर उसे छत्तीसगढ़ी फिल्मों का अन्तिम सत्य आपकी आँखों ने मान लिया है लेकिन छत्तीसगढ़ी फिल्मों की विकास यात्रा अभी समाप्त नहीं हुई और न कभी होगी हर दौर की नजरें अपने दौर का विकास छत्तीसगढ़ी सिनेमा में चाहेंगी और यह सब हमारी नई पीढ़ियां संभव करती रहेंगी यदि छत्तीसगढ़ी फिल्म निर्माण आसान करने में आप जैसे समझदार लोग हमें दुरुस्त करते रहे सकारात्मक हौसला देते रहे। मुझे यह दिखाई देता है। विकास देखने के लिए आलोचक की दृष्टि के साथ अन्वेषक की नजर भी चाहिए जो आपके लेख में नदारद है। 

आपके पूर्वग्रही लेख पर हार्दिक सदभावना सहित मेरी यह टिप्पणी आपको नये नजरिए से छत्तीसगढ़ी सिनेमा की दिक्कतों को समझकर लिखने के लिए प्रेरित करेगी इस आशा के साथ शुभकामनाओं सहित आपके लेख से मेरी असहमति है।

 

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मौलिकता का कोई री-टेक नहीं होता

देश के प्रसिद्ध साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल के पुत्र शाश्वत गोपाल फिल्मों से मौलिकता के क्षरण को लेकर चिंता जता रहे हैं. भले ही उनका यह लेख हिंदी फिल्मों के तथाकथित विकास पर चोट है जहां से  गांव-घर, किसान सब गायब है. इस लेख से छत्तीसगढ़ के उन फिल्मकारों को भी गुजरना चाहिए जो डेविड धवन, प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई की फिल्मों की नकल को ही जिंदगी का सच मान बैठे हैं. यह सही है कि आप में कोई भी सत्यजीत रे नहीं है, लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि कापी पेस्ट से छत्तीसगढ़ का माथा कभी ऊंचा नहीं होगा.

शाश्वत गोपाल

फिल्म, तस्वीरों का समूह है। असंख्य क्षण जो ठहर गये थे तस्वीरों में, उनके क्रमवार मिलने से बने दृश्यों का एक सिलसिला फिल्म है। जीवन भी फिल्म की तरह है। क्षण बीतते जाते हैं और दृश्य बदलते चले जाते हैं। लेकिन, जीवन के दृश्यों में री-टेक नहीं होता। ज्यादातर हम दूसरों की जिंदगी में अपने दृश्य खोजते हैं, और कल्पना में अपनी फिल्म बनाते भी चलते हैं।

अभी हाल ही में सातवीं कक्षा के विद्यार्थी का भारत पर लिखा निबंध पढ़ा। उस बच्चे की पहली ही पंक्ति थी- ‘भारत एक कृषि प्रधान देश है। कृषि की निर्भरता मानसून पर है।’ ये पंक्तियाँ हिंदी माध्यम के विद्यार्थी द्वारा लिखी गई थीं। बच्चे द्वारा यह लिखा जाना गुज़र चुके दृश्य का री-टेक था। लेकिन, गत कुछ दशकों में देश की स्थिति काफी बदल गई है। शिक्षा और सोच दोनों भाषा से विभाजित हो गये से लगते हैं। एक ओर हिंदी और क्षेत्रीय भाषाएँ तो दूसरे छोर अंग्रेजी। इस विभाजन में संवेदना का विभाजन भी है, जो कुछ भयावह सा है। अंग्रेजी भाषा के विद्यार्थी के निबंध में आज किसान नहीं है। जीडीपी, गैजेट्स, पैकेज जैसे शब्दों से बने वाक्य हैं। ये ऐसे वाक्य हैं जिनके अर्थों की पहुँच ग्लोब्लाइजेशन के पंख के सहारे दुनिया के कोने-कोने तक है। लेकिन, गति इतनी तेज है कि अपना देश, आस-पड़ोस इन्हें दिखाई ही नहीं देता। आज का तथाकथित विकास यही है। भारतीय पर्दे पर इन दिनों देखें तो यही विकास नज़र आता है।

किसान, फिल्मों के केंद्र में अब नहीं हैं। भारत में तेजी से सिकुड़ते खेत, रोज़ होती किसानों की दुखद मौतें फिल्मों के दृश्य भी नहीं हैं। लेकिन, राजनीति और राजनीतिज्ञ फिल्मों के आज अहम हिस्से हैं। फिल्म ‘सरकार-1,2,3’ बन गई। ‘राजनीति’ और ‘इंदु सरकार’ बन गईं। इन दिनों भी एक फिल्म चर्चा में है ही। दो प्रमुख राजनैतिक पार्टियाँ आम जरूरी मुद्दों के बदले इस फिल्म को लेकर वाक-द्वंद्वरत हैं। फिल्मों पर प्रतिक्रियाएँ देखें तो लगता है कि लोकतंत्र में विरोध का महत्व क्या खत्म हो रहा है या किया जा रहा है? दुखद यह है कि ये प्रतिक्रियाएँ ठेठ दर्शकों की नहीं होतीं। सहनशीलता घट रही है। शायद इसकी वजह भी यह है कि हम आज सामाजिक समाज में नहीं रहते। घर-घर में घर और बाहर की राजनीति हावी है। पंजायतीराज के बाद तो गाँवों से दादा, काका, दाई जैसे संबोधन राजनीतिक पार्टियों के नामों से प्रतिस्थापित हो गये। पहले ऐसा नहीं था। वास्तविक जीवन में री-टेक कभी होता भी नहीं। लेकिन लगता है अच्छाइयों, देशज परंपराओं, संस्कृति का री-टेक जीवन और फिल्मों में बार-बार होते रहना चाहिए। वी. शांताराम, बिमल रॉय, महबूब खान, गुरु दत्त जैसे फिल्मकारों ने सन् साठ के दशक के आस-पास गांवों, किसानों पर आधारित अनेक फिल्में बनाईं। हमारा जो कल था, वह सुनहरा था। उसमें भारतीयता घुली हुई थी। आज की फिल्में पश्चिमी तौर-तरीकों से भरी हुई हैं। एक सी लगती हैं। एक फिल्म किसी दूसरे का री-टेक लगती है। यह संकेत मौलिकता के क्षरण का भी है।

री-टेक से फिल्म पीछे लौट जाती है। वह केवल एक सहारा है, पिछले को भूलने नहीं देने का। इससे आगे केवल बढ़ता है तो वह है ‘समय’। जो गुज़र जाता है। खर्च हो जाता है। हम समय, जीवन, देश, आस-पड़ोस धीरे-धीरे सब कुछ खो रहे हैं। आज मौलिकता का संकट है। फिल्मों में तो यह संकट ज्यादा है। सत्यजीत रे का सिनेमा भारतीयता को उसके तमाम संघर्षों, असीम संवदेनाओं के साथ बार-बार सामने लाने वाला सच था। लेकिन, इनमें संघर्षों के दोहराव नहीं थे। आज की फिल्मों में लहलहाते खेत तो हैं, लेकिन कर्ज़ में डूबे, हर दिन मौत के करीब जाते किसान नहीं हैं। किसानों का वह सत्य नहीं है जो वास्तविक-सच है। सत्यजीत रे के बाद भारतीयता के ऐसे तमाम् सच फिल्मों से छूटते चले गये।

दो वर्ष पूर्व पर्दे पर आई ‘कालीचाट’ फिल्म ने सत्यजीत रे के बाद भारतीय संघर्ष को प्रतिबिंबित न कर पाने के एक लंबे खालीपन को कुछ भरा। कालीचाट एक प्रकार की चट्टान का नाम है। इस तरह की चट्टानें मालवा क्षेत्र में काफी हैं। ये चट्टानें इतनी मजबूत होती हैं कि आधुनिक मशीनों से भी आसानी से नहीं टूटतीं। लेकिन, कहा जाता है कि इसके नीचे जल का अथाह भंडार रहता है। सुनील चतुर्वेदी के उपन्यास पर बनी कालीचाट फिल्म की कथा इसी तरह की मजबूत चट्टान, एक किसान परिवार और आशाओं के अनंत क्षितिज के ईर्द-गिर्द बुनी है। जीवन की संवेदनाओं, वेदनाओं के कटु सत्य को फिल्म के निर्देशक सुनील शर्मा ने इतने करीब ला दिया है कि वह अंतः मन को झकझोर देती है। इस तरह की कुलबुलाहट सत्यजीत रे द्वारा निर्मित फिल्मों से प्रतिबिंबित होती थी। देखें तो आज भी होती है। जीवन की चुनौतियाँ आज भी वही हैं, जो तब थीं। लेकिन, आज हमारी अंतःदृष्टि के बीच आधुनिक फिल्म का बाज़ार रूपी वह पर्दा आ गया है जो हमें बहला कर रखना चाहता है। वह हमें अपने संघर्षों की याद नहीं दिलाना चाहता। भूल जाने का अहसास अधिक उपभोक्ता बनाता है। संघर्ष, चुनौतियाँ हमें ज्यादा उपभोक्ता बनने के लिए कम समय देती हैं, उससे दूर ले जाती हैं। उदारीकरण के शुरुआती दौर के आस-पास सत्यजीत रे पर भारत की चुनौतियों, तकलीफों को बेचने के आरोप काफी लगे कि वे भारतीय संघर्ष, गरीबी जैसे विषय अपनी फिल्मों के माध्यम से बेचते हैं। उनकी और उनकी फिल्मों की आचोलना के लिए ‘गरीबी का सौंदर्यीकरण’ जैसे शब्दों का उपयोग किया गया।

यह आरोप इसलिए हैं क्योंकि सच और वास्तविकता को सामने लाने वाले दृश्य को बे-अर्थ बनाना पूँजीवाद का लक्ष्य है। कला आज बची है तो वह संघर्षों, अभावों के बीच ही बची है। पूँजी, कला को खरीद सकती है, पोस सकती है, लेकिन उसे कभी सृजित नहीं कर सकती। बहुत कुछ भुलाकर-गँवाकर ही कुछ सृजन हो पाता है। उदारीकरण ने दुनिया के उन देशों के परंपरागत आधारों को तेजी से बदला जिनकी सांस्कृतिक नींव कमज़ोर पड़ने लगी थी। सत्यजीत रे ने भारतीयता को हमेशा केंद्र में रखा। रुमानियत से इतर उनकी फिल्मों ने वास्तविक यथार्थ को ज्यादा करीब से दिखाया। सच को देखना हमेशा कठिन होता है। क्योंकि वो हमें हमारे वर्तमान और भविष्य के लक्ष्य के साथ तुलनात्मक दुविधा में डालता है।

फिल्म विधा में पैसा लगाना केवल लाभ की दृष्टि को सामने रखकर ही संभव हो पाता है। प्रयोग,यथार्थपरक, जीवन से सीधे जुड़े मुद्दों पर ज्यादातर फिल्मी कहानियाँ गढ़ी नहीं जातीं। क्योंकि उसमें पैसा लगाने वाला जानता है कि दर्शक उस यथार्थ को देखना पसंद नहीं करता जो वास्तविक है। वह कल्पना में कुछ घंटे जीना चाहता है, जो उसे कुछ घंटों का काल्पनिक सुख दे दे। सत्यजीत रे ने फिल्म पाथेर पांचाली में अपनी पत्नी के गहने बेचकर जीवन के यथार्थ को सामने लाया था। तब के दर्शक वर्ग ने जीवन के उस कटु सत्य को देखा भी। 1955 में बनी पाथेर पांचाली कलकत्ता के सिनेमाघरों में 13सप्ताह तक हाउसफुल रही। फ्रांस के कान फिल्म महोत्सव में इसे ‘बेस्ट ह्यूमन डॉक्यूमेंट’ का सम्मान भी मिला। आज की पीढ़ी शायद इस फिल्म की परिभाषा को समझ भी नहीं पाए। बाज़ार ने संवेदनाओं और अपनी चीजों से होने वाले लगाव को तोड़ दिया है। संवेदन शून्य एवं लगभग भावहीन युवाजन से इस तरह की फिल्में देखने के संदर्भ में कोई आशा नहीं करना ही ठीक होगा। दूसरी ओर लोकतंत्र में राजनीति और संसद चाहती भी यही है कि लोग यथार्थ से दूर अपनी-अपनी कल्पनाओं में खोए रहें, ताकि उनकी रोटी सिकती जाए। कभी जले नहीं।

सत्यजीत रे ने इस राजनैतिक रोटी की कभी चिंता नहीं की। वे यथार्थ के सच को 70 एमएम के सहारे समाज के बड़े कैनवास पर दिखाना चाहते थे। उनकी फिल्मों के फ्रेम छायाचित्र की तरह हैं। वे अपनी फिल्मों के महत्वपूर्ण दृश्यों के रेखाचित्र शूटिंग के पहले ही बना लिया करते थे। यह एक कला का दूसरी कला के साथ संयोजन था। पाथेर पांचाली का संगीत सत्यजीत रे और रविशंकर ने 11 घंटे में ही रचा था। कला का सृजन और उसका प्रस्तुतिकरण समय पर निर्भर नहीं करता। आज की फिल्मों में कथा कई बार एक फ्रेम से दूसरे फ्रेम के बीच खो जाती है। सत्यजीत रे इन्हीं फ्रेमों के बीच के खालीपन को संवेदनाओं से भर देते थे। दरअसल उनकी कथा का आगे बढ़ना छूट चुके दृश्यों के अर्थों की गहराई के साथ-साथ होता था।

सत्यजीत रे के जीवन में कला और सृजन शब्द अपने अर्थों के साथ शुरू से रहे। उनकी शिक्षा का बड़ा हिस्सा विश्व-भारती विश्वविद्यालय में गुज़रा। वे पूर्वी कला से प्रभावित भी थे। शुरूआती दिनों में उन्होंने पेशेवर चित्रकारी की। पुस्तकों के आवरण-चित्र बनाने का काम किया। जिसमें जवाहरलाल नेहरू की डिस्कवरी ऑफ इंडिया भी शामिल थी। बांग्ला उपन्यास पाथेर पांचाली के लघु बाल संस्करण पर भी उन्होंने कार्य किया, जिसका नाम था आम ऑटिर भेंपू (आम की गुठली की सीटी)। अपनी पहली फिल्म उन्होंने इसी कथा पर बनाई। सत्यजीत रे की यह खूबी थी कि वे प्रत्येक कार्य में, हर चीज़ को कला की दृष्टि से तौलते थे। उन्होंने दो फाँट भी बनाए – ‘राज बिज़ार’ और ‘राय रोमन’।

कुछ जीवनानुभव के बाद उनके जीवन-दृश्य चित्रों में बदलते गये और समय के साथ-साथ एक-एक चित्र मिलकर फिल्मों के फ्रेम बनते चले गये। सन् 1950 के करीब वे लंदन गये। लंदन में उन्होंने 99 फिल्में देखीं। करीब-करीब एक फिल्म से कुछ ज्यादा रोज़। वे लंदन में तीन महीने रहे। स्थिर चित्रों से चलचित्रों की ओर उनका जाना साइकिल के सहारे हुआ। लंदन प्रवास में वित्तोरियो दे सीका की इतालवी फिल्म लाद्री दी बिसिक्लेत (बाइसिकल चोर) भी उन्होंने देखी थी। इस फिल्म ने उन्हें बहुत प्रभावित किया और वे चलचित्र की ओर मुड़ गये।

रे ने वृत्तचित्र बनाये, छोटी-छोटी फिल्में बनाईं और लंबी फीचर फिल्में भी। कुल 37 फिल्म कृतियों की रचना उन्होंने की। फिल्मों से जुड़े ज्यादातर कामों से उन्होंने अपने आपको सीधे तौर पर जोड़कर रखा। पटकथा लेखन, कलाकारों का चयन, संगीत, कला निर्देशन, संपादन, फिल्मों के पोस्टर, प्रचार-सामग्री की रचना जैसे तमाम काम वे स्वयं करते या उनके सीधे निर्देशन में ये सब होता। उन्होंने कहानियाँ लिखीं और फिल्म को एक आचोलक दृष्टि से भी देखा। फिल्मों के माध्यम से अद्वितीय योगदान के लिए भारत रत्न, मानद आस्कर सहित 32 राष्ट्रीय फिल्म पुररस्कार उन्हें और उनके कामों को मिले। पुरस्कार किसी को बड़ा नहीं बनाते, काम बड़ा बनाता है।

ऐसा कह सकता हूँ कि रे अपनी फिल्मों के प्रत्येक क्षण से जुड़े रहते थे। वे फिल्म बनने की पूरी प्रक्रिया की गहराई में डूब जाते। फिल्म लिखते भी स्वयं, संवाद को गढ़ते भी खुद। अभिनय की बारीकियों को पहले ही दर्ज कर लेते। उनकी टीप देखें तो उसमें फिल्मांकन के स्थानों का विवरण होता, कभी-कभी इतना ज्यादा कि मानस पटल पर वह दृश्य उभर जाता। इसमें उनके बनाये रेखांकन होते। पर्दे पर दिखने वाले चेहरों के भाव और संपादन की कुछ हिदायतें भी। कल्पनाओं से भरी संगीत की गूँज-अनुगूँज तो जरूर उसमें होती।  

सत्यजीत रे की फिल्मों की पांडुलिपि आज हमें नहीं मिलेंगी, क्योंकि उनकी प्रतिलिपियाँ कभी बनाई ही नहीं गईं। वे जब भी अपनी पांडुलिपि के साथ अभिनेताओं और फिल्मी साथियों के साथ बैठते और चर्चा करते तब उनकी पांडुलिपि उनके हाथों में होती और वे उसे छाती से सटाकर रखते और दर्शक उनकी फिल्मों को ह्रदय से।

जिस तरह उनके स्थिर चित्र बहुत सारा कुछ और कहते थे उसी तरह उनके चलचित्र भी थे। फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के एक महत्वपूर्ण लंबे दृश्य में केवल तीन सौ शब्द ही उच्चरित हुए हैं। उनकी फिल्मों में इतनी सरलता थी कि उसकी गहराई आसानी से समझ में नहीं आती। आलोचकों ने रे की फिल्मों की गति की तुलना ‘राजसी घोंघे’ से भी की है। लेकिन, उन्होंने आलोचनाओं का उत्तर कभी उस तरह पलटकर नहीं दिया। उनकी कृतियाँ ही उत्तर हैं और प्रतिप्रश्न भी।

अकीरा कुरोसावा कहते थे - “राय की फिल्मों को धीमा नहीं कहा जा सकता। वे तो विशाल नदी की तरह शांति से बहती हैं। उनका सिनेमा न देखना इस जगत में सूर्य या चंद्रमा को देखे बिन रहने के समान है।”

फिल्म में प्रत्येक फ्रेम एक जैसा नहीं होता। मौलिकता का कभी कोई री-टेक नहीं हो सकता।

 

पता- शाश्वत गोपाल

सी-217, शैलेन्द्र नगर,

रायपुर-492001, छ्त्तीसगढ़

दूरभाषः (मो.) 9179518866

ई-मेलः [email protected]

 

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बेमतलब की बकवास से बाहर निकलकर जरा इस वीडियो को देखिए... दिल बाग-बाग हो जाएगा. इसे कहते हैं यारबाजी.

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छॉलीवुड निर्माताओं के लिए शर्म शब्द का प्रयोग उचित नहीं

जाने कब शर्म आएगी छत्तीसगढ़ के फिल्मकारों को... शीर्षक से लिखे गए एक लेख के बाद छत्तीसगढ़ के सिने दर्शकों की ओर से अच्छा प्रतिसाद मिला है. ज्यादातर लोगों ने मुझे निजी तौर पर  सूचना भेजकर कहा है कि यहां के निर्माता-निर्देशकों ने छत्तीसगढ़ी सिने दर्शकों की भावनाओं का मुरब्बा बनाकर रख दिया है. बहुत से लोगों को लगता है कि वे पापुलर सिनेमा बना रहे हैं तो किसी महान कार्य में जुटे हुए हैं. नीचे दी गई टिप्पणी छत्तीसगढ़ के एक फिल्मकार योग मिश्रा से प्राप्त हुई है. हालांकि यह अपेक्षित था कि इस मामले में स्वयं योग मिश्रा कोई सार्थक लेख लिखेंगे, लेकिन उन्होंने विजय कुमार शाही नाम के एक फिल्म अभिनेता, लेखक और शिक्षक की यह टिप्पणी भेज दी. छत्तीसगढ़ के एक बड़े निर्माता-निर्देशक सतीश जैन और संतोष जैन ने मेरे फेसबुक वॉल पर कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणी की है जिसमें उनकी असहमति है. सुधि पाठक और दर्शक इन टिप्पणियों को वहां जाकर भी पढ़ सकते हैं. बहरहाल योग मिश्रा द्वारा प्रेषित टिप्पणी को जस का तस यहां प्रस्तुत कर रहा हूं. अपना मोर्चा डॉट कॉम आप सबका है. इसमें आप सबकी सहमति और असहमति का सम्मान है. अपनी टिप्पणी/ सहमति/ असहमति अपनी तस्वीर के साथ आप इस मेल पर भेज सकते हैं- [email protected]  ( राजकुमार सोनी ) 

( विजय कुमार शाही ) अपने लेख में लेखक राजकुमार सोनी ने छॉलीवुड निर्माताओं के लिए अमर्यादित रूप से शर्म आना जैसे वाक्यांश का प्रयोग किया है, यह सर्वथा अनुचित माना जाएगा.लेखक का आरोप है कि यहां की फिल्में बॉलीवुड की फिल्मों की खास कर गोविंदा की फिल्मों की नकल होती हैं, इस संदर्भ मे मैं कहना चाहता हूँ कि इसे नकल नहीं प्रेरणा कहा जाता है क्योंकि बॉलीवुड की भी अधिकतर फिल्में साऊथ की फिल्मों से या हॉलीवुड की फिल्मों से प्रेरित होती हैं या रीमेक होती हैं. ऐसी फिल्मों के नाम सभी को पता ही है.

हॉलीवुड की फिल्में भी फ्रेंच, जर्मन इतालवी अरबी फिल्मों से प्रेरित हैं, अतएव इसमें बुराई नहीं है, हां, यह जरूरी है कि अपनी मौलिकता भी बनाकर रखनी चाहिए और छॉलीवुड ने समयानुसार रखी भी है. हां इतना जरूर है कि कुछेक फिल्में अपने स्तर के अनुरुप नहीं रही हैं, तो यह नौसिखिया लोगों के कारण हो सकता है, इस पर लेखक के द्वारा ऐसी टिप्पणी सही नही है, आखिर काम करते हुए ही काम को भी सीखा जाता है |छॉलीवुड की फिल्में जब मल्टीप्लेक्स सहित सभी सिनेमाघरों में चलेंगी तभी निर्माता भी जोखिम लेकर मौलिक चींजे दे सकते हैं क्योंकि आर्थिक लाभ सर्वोपरि है, केवल कला के लिए फिल्में बनाकर इंडस्ट्री को जीवित नहीं रखा जा सकता,ऐसा मेरा विचार है. फिल्म मंदराजी का हार्दिक स्वागत है, भविष्य में ऐसी और भी फिल्में बनेगी क्योंकि छत्तीसगढ़ी भाषा, परंपरा तथा सामाजिक चेतना को जानने वाले कई सक्षम निर्माता, निर्देशक तथा अभिनेता मौजूद हैं. अभी केवल इंडस्ट्री को आर्थिक रूप से सक्षम बनाना ही सबका लक्ष्य होना चाहिए.

 

 

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जाने कब शर्म आएगी छत्तीसगढ़ के फिल्मकारों को

राजकुमार सोनी

छत्तीसगढ़ी फिल्म के निर्माता- निर्देशक इसी महीने पांच जून को एक बड़ा आंदोलन करने जा रहे हैं. फिल्मकारों की मांग है कि जैसे महाराष्ट्र के मल्टीफ्लैक्स में मराठी सिनेमा का प्रदर्शन अनिवार्य है ठीक वैसे ही छत्तीसगढ़ के मल्टीफ्लैक्स में भी छत्तीसगढ़ी फिल्म प्रदर्शित होनी चाहिए. इसके साथ फिल्मकारों का यह भी कहना है कि छत्तीसगढ़ की बोली-बानी को मानने और जानने वाले दर्शक अपने साथ खुरमी-ठेठरी और चीला साथ ला सकते हैं और जितना चाहे उतना खा सकते हैं. छत्तीसगढ़ के निर्माता-निर्देशक और कलाकारों की यह मांग जायज है और इसका हर स्तर पर स्वागत होना चाहिए, लेकिन इस मांग के साथ फिल्मकारों से यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि भाइयों... आखिरकार कब तक छत्तीसगढ़ का दर्शक आप लोगों की ओर से की जा रही ठगी का शिकार होता रहेगा. कब तक यहां के दर्शक को साजन चले ससुराल, हीरो नंबर वन, स्वर्ग से सुंदर, निरहुवा रिक्शावाला, स्वर्ग, गोलमाल, चोर-सिपाही,पेइंग गेस्ट, मुझसे शादी करोगी, मेरी बीवी की शादी और गोविंदा की सड़क छाप फिल्मों की नकल देखने के लिए मजबूर रहना होगा. आप लोग कब पांथेर पंचाली से भी आगे की फिल्म बनाने के बारे में सोचेंगे. कब महाराष्ट्र की कोर्ट और सैराट से भी बेहतर कोई फिल्म हमें देखने को मिलेगी. 

यह बेहद खुशी की बात है कि पंडवानी की महान गायिका तीजन बाई पर फिल्म अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्धकी की पत्नी आलिया सिद्धकी फिल्म बना रही है, लेकिन क्या यह शर्म का विषय नहीं है कि छत्तीसगढ़ के किसी भी निर्माता और निर्देशक ने तीजन बाई के जीवन पर फिल्म बनाने के बारे में नहीं सोचा. क्या छत्तीसगढ़ का दर्शक लेंडगा नंबर वन, महूं कुंवारा – तहूं कुंवारी, हंस मत रे पगली फंस जाबे जैसी फिल्में देखने के लिए ही अभिशप्त रहेगा. क्या कोई कभी शंकरगुहा नियोगी को याद करेगा. क्या कभी बस्तर के अमर प्रेमी जोड़े झिटकू-मिटकी पर कोई उम्दा फिल्म बनेगी. क्या कोई बस्तर के माओवाद पर ( एक पक्षीय नहीं ) फिल्म बनाने की हिम्मत और ताकत जुटाएगा. भिलाई के एक फिल्मकार ने माओवाद के खात्मे को लेकर एक बचकाना फिल्म बनाई थी. इस फिल्म के सारे कलाकार गिटार बजा-बजाकर माओवाद का खात्मा करना चाहते थे. कुछ लड़के ड्रम और गिटार लेकर बस्तर के जंगल पहुंच जाते हैं और फिर अरजीत सिंग स्टाइल में गाना गाकर माओवादियों को प्रेरित करते हैं कि भाइयों समाज की मुख्यधारा से जुड़ जाओ. इस फिल्म को देखने के बाद लगा था कि एक न एक दिन कोई न कोई फिल्मकार माओवादियों के सिर पर नवरतन तेल चुपड़ने पहुंच जाएगा और एक ही झटके में माओवाद का खात्मा हो जाएगा. पिछले दिनों पहले एक फिल्म संगी रे... आई थीं जो जस का तस मराठी फिल्म सैराट की कापी थीं. निर्माता और निर्देशक ने एक भी सीन को बदलने की जहमत  नहीं उठाई. 

इस बीच यह खबर मिली है कि नाचा के बेजोड़ कलाकार दाऊ मंदराजी पर एक युवक विवेक सार्वा ने फिल्म बनाई है. शायद यह फिल्म 28 जून को रीलिज होगी. फिल्म अच्छी है या खराब इसका पता तो फिल्म को देखकर ही हो पाएगा, लेकिन हमारी अपनी माटी को गौरान्वित करने वाले मंदराजी के जीवन पर फिल्म बनाने वाले विवेक को इस साहस के लिए बधाई दी जा सकती है. सवाल यह है कि विवेक जैसा साहस किसी और निर्माता और निर्देशक ने अब तक क्यों नहीं जुटाया. यदि कभी छत्तीसगढ़ी फिल्म इंडस्ट्री के लोगों से इन सारी बातों को लेकर चर्चा करो तो वे अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए कुछ इस तरह का तर्क देते हैं- 1- छत्तीसगढ़ी फिल्में विकास की प्रक्रिया में हैं. एकायक कुछ नहीं होगा. भले ही राज्य को बने 18 साल हो गए हैं. राज्य जवान हो गया है... फिर भी हम सीख रहे हैं. 2- क्या करें... फिल्म का अमुक सीन इसलिए अच्छा नहीं बन पाया क्योंकि हिरोइन बीकॉम फाइनल ईयर में है उसे पेपर देने जाना था. 3- हीरों का बाप मर गया तो शूटिंग रुक गई थी. 4- तेज बरसात की वजह से लाइट कम हो गई. 5- और भी कई उदाहरण है जिनका उल्लेख करना ठीक नहीं है. अरे भाइयों आपकी निजी परेशानियों से दर्शक को क्या मतलब. दर्शक को इस बात से मतलब नहीं है कि आपकी फिल्म पांच लाख में बनी है या साठ लाख में. दर्शक आपकी फिल्म के लिए पैसे खर्च करता है और आपसे सिर्फ एक उम्दा फिल्म की अपेक्षा करता है. श्रीमान जी... छत्तीसगढ़ का दर्शक इतना भी गदहा नहीं है कि वह इधर-उधर की चोरी और आपके ट्रीटमेंट का लंबे समय तक सम्मान करता रहेगा.

छत्तीसगढ़ जब अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा था तब से प्रदेश की पहचान धान के कटोरे के तौर पर बनी हुई है. धान का कटोरा बोलते ही अन्न उगाने लाखों किसानों का हंसता-गाता, रोता-मुस्कुराता चेहरा नजर आने लगता है, लेकिन यहां के निर्माताओं ने अन्नदाता की समस्याओं को लेकर कभी कोई फिल्म बनाने के बारे में विचार ही नहीं किया. छत्तीसगढ़ की फिल्मों में किसान तो मौजूद रहता है, लेकिन वह पूरे समय हिंदी फिल्मों के बाप की तरह अपने बेटे के लिए बहू खोजते रहता है. राजश्री प्रोडक्शन की फिल्मों की तरह समधी से लड़ते रहता है. सतीश जैन की फिल्म मोर छइंया-भुइंया में मिट्टी के महत्व और पलायन के मुद्दे को रेखांकित करने की पहल तो की गई, लेकिन मुंबईयां फार्मूलों के आगे पलायन के दर्द को वह उभार नहीं मिल पाया जैसा मिलना चाहिए था. फिल्मकार भूल जाते हैं कि छत्तीसगढ़ में आदिवासी भी है और उनकी अपनी समस्याएं भी है.

छत्तीसगढ़ की फिल्में अब भी अमीर परिवार से तालुकात रखने वाली लड़की, गरीब हीरो, तालाब में गिरने, हीरो के द्वारा बचाने, प्यार के इकरार, फिर दो प्यार करने वालों के बीच छिछोरे किस्म के खलनायक की इंट्री.... बेमतलब की बारिश, लपड़-झपड़ और ढिशुम-ढिशुम के आसपास ही घूम रही है.छत्तीसगढ़ में हर दूसरे पखवाड़े जेमिनी और एवीएम प्रोडक्शन का मसाला दोसा सामने आ जाता है. यहां का निर्माता अब भी गुलशन नंदा के उपन्यास में जिंदा रहने वाले लाचार मां-बाप के आवारा बेटे से रिक्शा ही खींचवा रहा है. अब जमाना बहुत आगे बढ़ गया है. अब जो फिल्म दर्शकों के सपनों में रंग भरने का काम नहीं करती उसका डिब्बा गुल हो जाता है. हिंदी सिनेमा के एक बड़े अभिनेता शाहरूख खान की फिल्में भी महज इसलिए फ्लाप हो रही है क्योंकि वह कुछ-कुछ होता है से आगे ही नहीं बढ़ पा रही है. जबकि इन सालों में बहुत कुछ हो चुका है. इसमें कोई दो मत नहीं कि एक समय छत्तीसगढ़ का सिने दर्शक कोरी भावुकता का शिकार था और वह जय संतोषी मां जैसी फिल्म को भी हिट कर देता था, लेकिन अब उसकी भावुकता में यथार्थ का मिश्रण शामिल है. छत्तीसगढ़ का दर्शक यथार्थ में जीना सीख गया है. छत्तीसगढ़ के निर्माता और निर्देशकों को भी प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई, सुभाष घई और डेविड धवन के  खोल से बाहर निकलकर कठोर यथार्थ में जीना आ जाना चाहिए.

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अब मॉल में छत्तीसगढ़ी फिल्में नहीं लगाई तो खैर नहीं

रायपुर. महाराष्ट्र में प्रत्येक सिनेमाघर को साल में दो महीने के लिए मराठी भाषा में बनी फिल्मों का प्रदर्शन अनिवार्य किया गया है, लेकिन छत्तीसगढ़ में अब तक ऐसी स्थिति नहीं बनी है. यहां छविगृह और मॉल के मालिक अपनी मर्जी के मुताबिक छत्तीसगढ़ी फिल्मों का प्रदर्शन करते हैं और जब मन करता है तब फिल्मों को उतार देते हैं. छत्तीसगढ़ सिने एंड टेलीविजन एसोसिएशन के सदस्यों ने छविगृह संचालकों की इस मनमर्जी के खिलाफ आंदोलन करने का फैसला कर लिया है. पहली शुरूआत पांच जून को सभी मॉल के सामने प्रदर्शन के जरिए की जाएगी. एसोसिएशन के नवनियुक्त अध्यक्ष संतोष जैन ने बताया कि छत्तीसगढ़ में हर साल लगभग 20 फिल्में रिलीज हो रही है. फिल्म के निर्माता और निर्देशक अपने घर-बार को बेचकर फिल्में बना रहे हैं, लेकिन सिंगल थियटेर के कम होने की वजह से फिल्म बनाने वालों को नुकसान उठाना पड़ रहा है. सिनेमाघरों के संचालक फिल्मों के प्रदर्शन को लेकर अड़ियल रवैया अख्तियार किए रहते हैं. यदि कोई छत्तीसगढ़ी फिल्म अच्छा बिजनेस कर रही है तब भी बाहर के वितरकों के दबाव में फिल्में उतार दी जाती है. जैन ने बताया कि उनका एसोसिएशन अब फिल्म को उद्योग का दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर भी संघर्ष करेगा. उन्होंने कहा कि कई राज्यों में क्षेत्रीय फिल्म बनाने वालों को सरकार शूटिंग के लिए जगह और सब्सिडी भी देती है. छत्तीसगढ़ में फिल्मों के विकास को लेकर बातें तो खूब बड़ी-बड़ी की गई है, लेकिन कोई सार्थक पहल नहीं की गई.

एक छत्तीसगढ़ी क्यों नहीं देख सकता मॉल में फिल्में

संतोष जैन ने एक वाक्या बताते हुए कहा कि पिछले दिनों वे एक स्थानीय मॉल में घूमने के लिए गए थे. उनके सामने ही तीन-चार छोटे बच्चे जो छत्तीसगढ़ी में बात कर रहे थे वे भी आए. उनके कपड़े थोड़े गंदे थे इस वजह से मॉल के बाहर खड़े हुए गार्ड ने उन्हें प्रवेश नहीं करने दिया. क्या एक गरीब और छत्तीसगढ़ी आदमी को मॉल में घूमने का कोई अधिकार नहीं है. जैन ने कहा कि अब एसोसिएशन इस बात के लिए आंदोलन करेगा कि हर मॉल में साल में कम से एक बार छत्तीसगढ़ी अनिवार्य रुप से लगे. जैन ने बताया कि महाराष्ट्र के लोग सिनेमाघरों में अपना टिफिन, पानी सब लेकर जाते हैं. क्या छत्तीसगढ़ का रहवासी अपनी खुरमी-ठेठरी के साथ फिल्म नहीं देख सकता. जैन ने कहा कि जब तक मॉल के संचालक छत्तीसगढ़ी फिल्मों का प्रदर्शन करने के लिए तैयार नहीं हो जाते तब तक आंदोलन चलते रहेगा.

हाल ही में अध्यक्ष बने हैं जैन

छत्तीसगढ़ी और भोजपुरी भाषा में फिल्म बनाने वाले संतोष जैन एक रंगकर्मी भी है. उनके निर्देशित कई नाटकों को राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार मिल चुका है. अभी हाल के दिनों में ही उन्हें छत्तीसगढ़ सिने एंड टेलीविजन एसोसिएशन का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है. एसोसिएशन में पहले भी कई नामी फिल्मकार अध्यक्ष और अन्य महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं, लेकिन उन पर पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के साथ मिलकर छत्तीसगढ़ी फिल्मों के कारोबार को मटियामेट करने का आरोप लगता रहा. एक अभिनेता पर एक सांसद के साथ मिलकर जनसंपर्क व अन्य विभागों पर धंधा करने का आरोप लगा. फिलहाल इस मामले की जांच चल रही है. एक फिल्म निर्माता ने पूर्व मुख्यमंत्री के निवास में पदस्थ एक अफसर के उपन्यास पर फिल्म बनाई और साहू वोटरों को साधने के लिए किशोर साहू फिल्म समारोह के लिए एक डाकूमेंट्री भी बनाई. इसमें कोई दो मत नहीं है कि छत्तीसगढ़ में ताबड़तोड़ ढंग से फिल्में बन रही है और कुछ फिल्में अच्छी भी बन रही है, लेकिन साल में एक-दो फिल्मों को छोड़कर अधिकांश फिल्में बंबई की किसी हिट हिंदी फिल्म का रीमेक ही होती है. मुबंई की अधकचरा नकल की वजह से छत्तीसगढ़ी फिल्मों को सिर आंखों पर उठाकर रखने वाले दर्शक नहीं मिल पा रहे है. छत्तीसगढ़ी फिल्मों के अधिकांश फिल्मकार और अभिनेता आत्ममुग्धता के शिकार भी है. यहां हर दो दिन बाद यह खबर आती है कि अमुक अभिनेता भाजपा से चुनाव लड़ने जा रहा है. अभिनताओं के चुनाव लड़ने की खबरों की वजह से सामान्य दर्शक उन्हें स्वाभाविक ढंग से अंगीकार भी नहीं कर पा रहा है. हर कलाकार के पीछे किसी न किसी पार्टी का ठप्पा लगा है. छत्तीसगढ़ का हर दूसरा हीरो सुपर स्टार है और हर दूसरा खलनायक सुपर खलनायक. हद इस बात की भी है कि हर किसी ने अपने आपको हिंदी फिल्मों के सफलतम लोगों के नाम से जोड़ रखा है. कोई कामेडियन है तो जॉनी लीवर... कोई खलनायिका है तो अरूणा ईरानी.अब श्री जैन एसोसिएशन के अध्यक्ष बन गए हैं तो फिल्मों के शौकीन उनसे यह अपेक्षा भी करेंगे कि छत्तीसगढ़ में मौलिक विषयों पर फिल्में भी बने.स्मरण रहे  हर अच्छी फिल्म अपना प्रचार स्वयं कर लेती है. इस प्रचार को सीधी और सरल भाषा में माउथ पब्लिसिटी कहते हैं. 

 

 

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आप भी सुनिए इस राष्ट्रभक्त के भयानक बयान को...

फाटा-फाटी ग्रुप के इस लीडर का यह वीडियो जमकर वायरल हो रहा है. बोल रहा है कि अमित शाह की रैली में मोटा वाला डंडा लेकर आना है. आप भी सुनिए इस राष्ट्रभक्त के भयानक बयान को... ( थोड़ा ठहरिए... नीचे वीडियो है... क्लिक करिए ) 

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नारायणन का ‘गाइड’ बनाम देव आनंद का ‘गाइड’

ज्ञानेश उपाध्याय

कुछ विश्लेषक राजू गाइड की आलोचना भी करते हैं, उनके अनुसार, राजू के मन में दुर्भावना थी, वह नायिका का अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करना चाहता था। हालांकि यह बात पचती नहीं है, जिस राजू ने एक उपेक्षित पीडि़त कलाकार महिला की मदद की, जिस राजू ने उस महिला का करियर बनाने के लिए अपना घर-बार छोड़ दिया, जिस राजू ने अपने प्रेम को बचाने की भरपूर कोशिश की, जिस राजू ने ठुकराए जाने के बाद अपना अलग रास्ता चुन लिया, चुपचाप नायिका की जिंदगी से निकल गया गुमनाम जिंदगी जीने के लिए, ऐसे राजू गाइड को शातिर माना जाए, यह मन नहीं मानता। 
भारत के प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक आर. के. नारायणन ने ‘द गाइड’ उपन्यास की रचना 1958 की थी। देव आनंद यदि उपन्यास आधारित फिल्म बनाते, तो वह फिल्म बॉलीवुड के खांचे के हिसाब से सटीक नहीं बैठती। ‘गाइड’ पहले अंग्रेजी में बनी थी और उसके बाद उसे हिन्दी में बनाया गया। हिन्दी संस्करण में भारतीय फिल्मों की मुख्यधारा के दर्शकों के अनुरूप ‘गाइड’ की कहानी में परिवर्तन किए गए। नारायणन का उपन्यास उस दौर में वयस्क किस्म का था, एक शादीशुदा महिला अपने पति से परे जाकर अपने लिए सुख की तलाश कर रही है। इस उपन्यास के लिए नारायणन को साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था। उनके उपन्यास ने साहित्य प्रेमियों को झकझोर कर रख दिया था। देव आनंद पर भी इस उपन्यास का गहरा असर हुआ और उन्होंने नारायणन से इस उपन्यास पर फिल्म बनाने की अनुमति मांगी। बताते हैं कि देव आनंद ने कैलिफोर्निया से ही नारायणन को फोन किया, नारायणन को आश्चर्य हुआ कि देव आनंद जैसा कलाकार उन्हें फोन कर रहा है। नारायणन को सहज विश्वास नहीं हुआ, तो उन्होंने पूछा था, ‘कौन-सा देव आनंद, क्या वह फिल्म स्टार?’ 
बताया जाता है कि सत्यजीत रॉय भी ‘गाइड’ पर फिल्म बनाना चाहते थे। जाहिर है, रॉय अगर ‘गाइड’ बनाते तो कुछ अलग ही कमाल होता। हालांकि इतना तो तय है कि वह फिल्म ‘क्लास’ या विशेष वर्ग के लिए होती, जबकि देव आनंद ने जो ‘गाइड’ बनाई वह ‘मास’ या जन के लिए थी। खैर, यह नारायणन का बड़प्पन था कि उन्होंने अपनी कहानी में कुछ व्यावसायिक परिवर्तनों को मंजूर किया। 
नारायणन का उपन्यास तो स्त्री-पुरुष सम्बंधों को उजागर करने वाली एक अनुपम कृति है। उपन्यास में यह स्पष्ट नहीं होता है या नारायणन ने यह स्पष्ट नहीं होने दिया है कि राजू गाइड सही है या नायिका रोजी-मोहिनी। कभी किसी का पलड़ा भारी होता है, तो कभी किसी का। फिर भी यह बात तय है कि राजू और रोजी, दोनों ने ही एक दूसरे को गढ़ा। जहां रोजी को मुक्त करने या सफल बनाने में राजू का योगदान है, वहीं राजू को मुक्त करने या जीवन में सफल बनाने की ओर ढकेलने में रोजी का योगदान है। एक ओर, राजू दुस्साहस दिखाते हुए रोजी को बड़ी नृत्यांगना के रूप में स्थापित करता है, वहीं रोजी की अनायास चेष्टाएं राजू को एक दुर्घटना-जनित महात्मा के स्वरूप तक पहुंचा देती हैं। यहां यह बात जरूर है कि राजू साधु नहीं बनना चाहता, राजू बलिदान देना नहीं चाहता, वह तो बदनामी से छिप जाना चाहता है, वह अपनी जिंदगी का समाधान तलाशता हुआ या जिंदगी का अगला पड़ाव खोजता हुआ भाग रहा है, लेकिन परिस्थितियां उसे साधु बनाकर एक नई पहचान के जरिए चर्चित कर देती हैं। जबकि रोजी बड़ी नृत्यांगना बनना चाहती है और नृत्यांगना बनने की परिस्थितियां राजू पैदा करता है। कौन सही-कौन गलत का असमंजस नारायणन के पूरे उपन्यास में नजर आता है। कभी लगता है, राजू साजिश कर रहा है, तो कभी लगता है रोजी बेवफाई कर रही है। कभी लगता है रोजी ने राजू को इस्तेमाल कर लिया, तो कभी लगता है, राजू ने रोजी को फंसा लिया। 
इसमें कोई शक नहीं है कि पुरुष प्रधान बॉलीवुड में राजू गाइड को महान बनाने की कोशिश हुई है, जबकि ऐसी कोई कोशिश नारायणन अपने उपन्यास में नहीं करते हैं। उपन्यास में राजू के साधु-अवतार के समय रोजी से उसकी मुलाकात नहीं होती और न मां उससे मिलनी आती है। उपन्यास में राजू मरता भी नहीं है और न अंत में हुई बारिश में लोग भीगते हैं। उपन्यास संपन्न होते हुए बस एक व्यंजना छोड़ जाता है कि हां, बारिश होने वाली है। 
एक और बात ध्यान देने की है कि उपन्यास में राजू को जेल जाने से बचाने के लिए रोजी दिन-रात एक कर देती है। बहुत महंगा वकील करती है, अपने सारे पैसे लुटा देती है, तब जाकर थोड़ी सफलता मिलती है और राजू को ७ साल की बजाय मात्र २ साल की सजा होती है। रोजी ने राजू को बचाने के लिए जो संघर्ष किया है, वह ‘गाइड’ फिल्म से नदारद है। जाहिर है, ‘द गाइड’ का बॉलीवुडीकरण किया गया। बॉलीवुड की फिल्मों में प्रेमिका का न मिल पाना एक बहुत बड़े दुख के रूप में अवतरित होता रहा है और इसी चालू पृष्ठभूमि में ‘गाइड’ फिल्म अपना गहरा दुखांत प्रभाव छोडऩे में कामयाब होती है।

सच्चाई की दुनिया में सपनों का यह कारोबार उतना ही सफल है, जितनी कि ‘गाइड’ फिल्म। अपनी समग्रता में ‘गाइड’ फिल्म संगीत, दुख, विरह, बेवफाई का एक खेल रचती है और इस खेल में देव आनंद सच्चे नायक बनकर उभरते हैं, दर्शकों की गहरी सहानुभूति और प्रेम अर्जित करते हैं।

फिर भी ‘गाइड’ इस मामले में क्रांतिकारी फिल्म है कि उसने नायक-नायिका को ढंग से मिलने नहीं दिया। अंतत: दोनों की मुलाकात हुई, लेकिन कुछ ही पल में हमेशा के लिए बिछड़ गए। इस फिल्म का एक भारतीय फिल्मी खेल बहुत यादगार बना, जब साधु राजू के चरण छूकर रोजी ने अपनी मांग का स्पर्श किया, यानी प्यार और समर्पण का संकेत। यहां यह लगता है कि ‘गाइड’ में कथित प्रचलित भारतीय नारी को उच्चता प्रदान करने की कोशिश की गई है। फिल्म में संदेश यह है कि जहां स्त्री अपने रखवाले पति या प्रेमी के लिए समर्पित रहे, वहीं पुरुष समग्र समाज के लिए कुर्बान हो जाए। ‘गाइड’ में नायक जहां एक ओर नायिका के प्रेम का शिकार होता है, वहीं वह समाज के लिए कुर्बान होने के लिए भी बाध्य हो जाता है। 
इसमें कोई शक नहीं कि नारायणन का गाइड महान नहीं था, लेकिन देव का गाइड महान हुआ और यह महानता दरअसल दुख से उपजी। 
वाकई, दुख से गुजरे बिना सच्ची समझ नहीं आती। ‘देवदास’ देखे बिना दिलीप कुमार को, ‘मेरा नाम जोकर’ देखे बिना राज कपूर को और ‘गाइड’ देखे बिना देव आनंद को नहीं समझा जा सकता। तीनों ही फिल्मों में दुख एक खास अवस्था में है। दुख ही वह निर्णायक तत्व है, जो दिलीप, राज और देव जैसे महानायक गढ़ता है। 
जब गाइड में देव यह संवाद बोलते हैं, तो दर्शकों को झकझोर कर रख देते हैं...
‘बहुत राह देखी, एक ऐसी राह पे
जो तेरी रहगुजर भी नहीं।’
यहां एक साथ, दिलीप कुमार के देवदास और राज कपूर के राजू जोकर की याद हो आती है। तीनों की ओर से यह वाक्य सार्थक व्यंजित होता लगता है। दुनिया से जाते-जाते देवदास ने भी पारो के लिए यही कहा होगा और ‘मेरा नाम जोकर’ में राजू जोकर ने भी मीनू मास्टर उर्फ मीना से बिछड़ते हुए यही कहा होगा और देव तो खैर ‘गाइड’ में कह ही रहे हैं। 
शायद ‘गाइड’ के बाद राज कपूर के लिए ‘मेरा नाम जोकर’ रचना बहुत आसान हो गया होगा। ‘मेरा नाम जोकर’ में नायिका मीना की ओर से दिया गया दुख जोकर राजू के लिए ज्यादा बड़ा है, क्योंकि जब जरूरत थी, तब मीना ने ही पीछे से पुकारा था, मोरे अंग लग जा बालमा... और जब जरूरत पूरी हो गई, तो बड़ी आसानी से किसी और को अपना बालमा बना लिया। दोनों राजुओं में से कोई नीचता पर नहीं उतरा। यहां खास बात यह कि दोनों राजुओं ने अपना चोला तो बदला, एक राजू साधु बन गया, तो एक राजू जोकर बन गया, लेकिन दोनों में से कोई बदला लेने की मानसिकता में नहीं आया। 
तो किसी को भी यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि देव आनंद के हिस्से में केवल प्यार आया था। यहां संदेश बिल्कुल साफ है, प्रेम केवल मस्ती का नाम नहीं है, उसके साथ दुख और दर्द भी पैकेज में शामिल हैं। किसी के जीवन में चुनौती प्रेम की उतनी नहीं है, जितनी प्रेम में उपजे दुख और दर्द की है। 
यहां मशहूर शाइर जिगर मुरादाबादी का शेर याद कीजिए -


ये इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है।

                                     

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