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दर्शकों के दिल पर निशाना लगा गई सांड की आंख

दर्शकों के दिल पर निशाना लगा गई सांड की आंख

चंद्रशेखर देवांगन शेखर

दो महिलाएं.... उम्र 60 साल... हाथ में पहली बार पिस्टल... सामने निशानेबाजी का गोल गत्ता.......धांय.......सर्किल के बीचों-बीच..... परफेक्ट निशाना....। आवाज आई-दादी जरा एक बार फिर से’’... ’’तो लो फिर’’...धांय....धांय....धांय।  ’’दादी तूने दे मारा बुल्स आई’’... बुलसाई... ना.. रे... ’’सांड की आंख’’।

    हरियाणा के अति पारंपरिक सामाजिक संरचना वाले छोटे से गांव की विश्व की सबसे बुजुर्ग शार्प शूटर  महिलाओं चंद्रो तोमर और प्रकाशी तोमर के निशानेबाजी की विजय गाथा पर हालिया रिलीज़ फिल्म ’’सांड की आंख’’ बायोपिक श्रेणी में एक अलग तरह की फिल्म है।

गांव में निशानेबाजी का एक ट्रेनिंग सेंटर खुलता है। बेटियों को निशानेबाजी की स्पर्धा जीतने पर सरकारी नौकरी मिल सकती ऐसा पता चलने पर अपने बेटियों को निशानेबाजी सीखाने उनका हौसला हफजाई करने चंद्रो और प्रकाशी हाथ में पिस्टल लेते हैं.... जिंदगी में पहली बार...और निशाना सीधे बुल्स आई में....। ट्रेनर ने कोयले में छुपे हीरों को पहचान लिया। अब शुरू होती है असली जंग–ए  आज़ादी। सख्त पाबंदियों के बीच छुपते–छुपाते साठ साल के  चंद्रो और प्रकाशी कैसे निशानेबाजी की बारीकियां सीखते हैं और परिवारिक दंगल के बीच रोज पटखनी खाते चंद्रो और प्रकाशी बुढ़ापे में अपने निशानेबाजी से  कैसे पूरे देश और दुनिया भर में तीस-तीस मेडल अपने नाम कर लेते हैं। 

दिल्ली में एक शूटिंग स्पर्धा में अनपढ़ प्रकाशी तोमर ने पुलिस के डीआईजी को हराया तो डीआईजी साहब ने यह बोलकर प्रकाशी के साथ फोटो खिंचवाने से इंकार कर दिया कि ’’आज उसे एक औरत ने उन्हें अपमानित कर दिया’’। भारत में स्त्री होना तो किसी गुनाह से कम नहीं है. स्वामी विवेकानन्द जब शिकागो से भारत लौटे तो उन्होंने कहा कि पाश्चात्य मुल्कों में औरतों को पुरुषों के पैर की जूती नहीं समझा जाता। भारत में पुरुषों द्वारा अपनी पूरी क्षमता का प्रदर्शन नहीं कर पाने का बड़ा कारण भी यही रहा कि उन्होंने अपनी क्षमता का आधा हिस्सा तो स्त्रियों को दबाने में लगा दिया। वर्ना हमारा देश आज चंद्रयान क्या, सूर्ययान भेज रहा होता।

           लेखक जगदीप सिद्धू ने बेहतरीन पटकथा लिखी तो तुषार हीरानंदानी का निर्देशन भी कमाल का रहा... हां फिल्म का कलापक्ष थोड़ा कमजोर है। संगीत प्रभावशाली नहीं बन पाया। किसी भी फिल्म का दर्शकों पर  सबसे पहला प्रभाव नाम से पड़ता है, और ’’सांड की आंख" इस मामले में बचकाना प्रभाव डालती है। अन्यथा फिल्म बाक्स आफिस पर थोड़ा और ज्यादा धमाल मचाती. प्रकाश झा अच्छे शोमैन हैं परन्तु अभिनय में कमजोर। तापसी पन्नू और भूमि पेडणेकर इस अति व्यावसायिक दौर में सार्थक कलाकार हैं। तापसी पन्नू तो नए दौर की स्मिता पाटिल है। ओवरआल ’’सांड की आंख" बड़ी ही प्रेरक फिल्म हैं। एक बार अवश्य देखी जानी चाहिए। फिल्म ’’सांड की आंख" कहती हैं, कि ’’जिनकी आंखो में हरदम जुगनू टिमटिमाते हैं, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि दिन का उजाला है या रात का घना अंधेरा’’।

 

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