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रंगोबती को देखते हुए कुमार गौरव और उनकी फ्लाप फिल्मों की याद हो जाती है ताजा

रंगोबती को देखते हुए कुमार गौरव और उनकी फ्लाप फिल्मों की याद हो जाती है ताजा

राजकुमार सोनी

एक निर्माता है अशोक तिवारी. सुना है कि उन्होंने तीन फिल्में बना ली है. पहली फिल्म का तो पता नहीं, लेकिन दूसरी फिल्म रंगरसिया के बारे में यह खबर अवश्य मिली थीं कि उसने बाक्स आफीस पर थोड़ा-बहुत धमाल मचाया था.अब आई है उनकी तीसरी फिल्म-रंगोबती.

रंगोबती ओ रंगोबती... यह ओड़िशा के संबलपुर इलाके के लोक गायक  हरिपाल का बेहद प्रसिद्ध गाना है. यह गाना आज भी इतना ज्यादा पापुलर है कि झुग्गी बस्तियों में होने वाली शादी-ब्याह में अक्सर सुनने को मिल जाता हैं. अब तो इस गाने को पूरे तामझाम के साथ नामचीन कलाकार भी गाते हैं. ( रामसंपत के निर्देशन में इस गाने को सोना महापात्रा की आवाज में यू ट्यूब में सुन सकते हैं. ) ...

...तो फिल्म में इस गाने के नाम ( रंगोबती ) की लोकप्रियता को भुनाने की असफल कोशिश की गई है. लोकगायक हरिपाल की गाने की जो नायिका है वह लाजे.. मोहे लाजे.. लाजे... कहकर शर्माती है. मगर फिल्म वाली रंगोबती... लात-घूंसा चलाती है.

फिल्म के निर्देशक पुष्पेंद्र सिंह रंगमंच से जुड़े हुए एक जानदार अभिनेता है. रंगमंच के अलावा छत्तीसगढ़ की फिल्मों में उनका अभिनय सर चढ़कर बोलता है, मगर एक बासी कहानी और थके हुए कलाकारों के साथ बनाई गई यह फिल्म उनके काम पर सवाल खड़ा करती है. सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या एक अच्छे अभिनेता को सड़ियल और मरियल सी कहानी पर अभिनय के नाम पर खानापूर्ति करने वाले कलाकारों के साथ फिल्म बनाने के बारे में विचार करना चाहिए था ? फिल्म को देखते हुए आपको कमाल हसन की चाची 420, गोविंदा की आंटी नंबर वन और हिंदी की वे सब फिल्में याद आ जाती है जिनमें हीरो ने महिला किरदार निभाया है. अगर यह फिल्म हिंदी की कुछ बेहतरीन फिल्मों का ठीक-ठाक मिश्रण होती तो भी कोई बात बन सकती थीं, लेकिन फिल्म  का हर फ्रेम जाना-पहचाना और बासी है जिसकी वजह से उब होने लगती है. (  मैं इस फिल्म को इंटरवेल के बाद छोड़कर चला गया. )

कल रविवार को जब मैं यह फिल्म देखने गया तब बालकनी में थोड़े-बहुत दर्शक थे. नीचे की अधिकांश सीटें खाली थी. जैसे-तैसे केवल इंटरवेल तक झेल पाया. हाल के बाहर निकला तो निर्देशक पुष्पेंद्र मिल गए. मैंने उन्हें भी बताया कि झेलना थोड़ा कठिन हो रहा है. ( वे मुस्कुराते रहे और फिर उन्होंने कहा- अगर फिल्म खराब है तो खराब लिखिएगा...मैं सुधार करूंगा ताकि अगली बार दर्शकों को निराशा का सामना न करना पड़े. मैं उनकी साफगोई का कायल हूं और इस साफगोई के लिए उन्हें बधाई देता हूं. छत्तीसगढ़ में फिल्म बनाने वाले निर्माता-निर्देशकों, कलाकारों को केवल चमचागिरी पसन्द है, लेकिन पुष्पेंद्र इससे अलग है. वे अपनी आलोचना को भी सीखने का उपक्रम मानते हैं. )

 

फिल्म में इंटरवेल के बाद की क्या कहानी है इसकी जानकारी मेरे पास उपलब्ध नहीं है. ( फिल्म में इंटरवेल के पहले की भी जो कहानी है वह भी ऐसी नहीं है कि उसे स्मृति का हिस्सा बनाकर रखा जाए. )

फिल्म में कुमार गौरव और उनकी फ्लाप फिल्मों की याद दिलाने वाला एक अभिनेता अनुज है जो शहर से गांव आता है. गांव में वह अपनी पुरानी प्रेमिका जो एक अमीर आदमी ( प्रदीप शर्मा ) की बेटी हैं से मिलता है. दोनों के प्रेम में बाधा उत्पन्न होती है तो कुमार गौरव मतलब अनुज शर्मा लड़की का भेष धारण कर अमीर आदमी के घर भोजन पकाने का काम करने लगता है. रंगोबती पर अमीर आदमी का दिल आ जाता है और उसके मुनीम का भी. फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने के लिए एक बंगाली और एक ओड़िशा की महिला पात्र के साथ तीन पुरूष किरदार और है. फिल्म की मरी और लचर कहानी को ये पांच पात्र अपने अभिनय से खींचने का प्रयास करते हैं. हालांकि फिल्म में उनके हास्य प्रधान दृश्यों का कहानी से कोई सीधा रिश्ता नहीं बनता, लेकिन यह भी सच है कि अगर ये पांच पात्र नहीं होते तो मैं पंद्रह मिनट के बाद हॉल छोड़कर चला जाता.

फिल्म में अनुज शर्मा का अभिनय बेहद कमजोर है. महिला के किरदार को जीने के लिए जो मेहनत करनी चाहिए थीं वह  दिखाई नहीं देती. यहां तक आवाज पर भी काम नहीं किया गया. फिल्म के सारे पात्र इंटरवेल तक चीख-चीखकर और खींच-खींचकर संवाद बोलते हैं. अभिनय के नाम पर प्रदीप शर्मा जैसे अभिनेता इन दिनों केवल अपने मुंह को आड़ा-तेड़ा कर रहे हैं. उनकी आड़ी-तेड़ी भाव भंगिमाओं को देखने से बेहतर है कि आप बगल में बैठे हुए दर्शक को देखिए कि वह अंधेरे में क्या कर रहा है. ( दुर्भाग्य से कल कोई आजू-बाजू में भी नहीं था. ) मुनीम बने निशांत उपाध्याय के बारे में यह विख्यात है कि वह छत्तीसगढ़ी फिल्मों का सबसे बेहतरीन कोरियोग्राफर है. लेकिन रंगोबती में न तो ठीक-ठाक कोरियाग्राफी दिखाई दी और न ही मुनीम के रुप में उनका अभिनय. फिल्म की अभिनेत्री को न तो ढंग से हंसने का मौका मिला और न ही ढंग से रोने का.

( नोट- फिल्म पर यह राय केवल इंटरवेल तक है. हो सकता है इंटरवेल के बाद फिल्म अच्छी हो और दर्शकों के लायक हो,लेकिन मेरे लिए यह फिल्म किसी लायक नहीं है. कल इस फिल्म को देखकर मैंने अपना वक्त बरबाद किया. आज लिखकर कर रहा हूं. मुझसे गलती हुई... मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था. )

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