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गुजर गया सत्यजीत रे की फिल्म में काम करने वाला छत्तीसगढ़ का बलराज साहनी

गुजर गया सत्यजीत रे की फिल्म में काम करने वाला छत्तीसगढ़ का बलराज साहनी

राजकुमार सोनी

जी... हां... भाइयों और बहनों...लीजिए पेश है आपके सामने भैयालाल हेड़ाऊ.

 मैं बात कर रहा हूं उस भैयालाल की जिन्होंने अपने गाने की प्रैक्टिस बिस्कुट के खाली पीपे और पानी के घड़े में घंटों मुंह डालकर की थीं. भैयालाल बेहद अच्छा गाते थे. वे काफी समय तक शारदा संगीत समिति, मिलन संगीत समिति और राजभारती आर्केस्ट्रा से जुड़े रहे. आर्केस्ट्रा का अमीन सयानी बना उद्घोषक जैसे ही उनके नाम की घोषणा करता था, दर्शक दीर्घा से तेज आवाजें, सीटियां और तालियों का शोर गूंजने लगता था. यह ताली ठीक वैसी ही होती थी जैसे स्काउट एंड गाइड में भाग लेने वाले बच्चे एक-दो-एक-दो यानी लयबद्ध तरीके से बजाते हैं.

भैयालाल जैसे ही गाना शुरू करते- याद किया दिल ने कहां हो तुम... प्यार से पुकार लो जहां हो तुम... एक सन्नाटा छा जाता था. गाने के खत्म होते ही भैयालाल... भैयालाल का शोर सुनाई देने लगता था. लोगों की आत्मा तब तक तृप्त नहीं होती थीं जब तक वे भैयालाल से अपनी पसंद का गाना नहीं सुन लेते थे. युवा दर्शकों की फरमाइश पर भैयालाल रंग बरसे भींगे चुनर वाली की शुरूआत करते तो भूचाल आ जाता था. आर्केस्ट्रा सुनने के लिए आए दर्शकों में से लंबी हाइट के कई अभिताभ बच्चन तुरन्त सामने आ जाते थे. बेलबॉटम पहना हुआ कोई अभिताभ... सोने की ताली में जेवना परोसा... जेवना परोसा कहता हुआ मंच की ओर चढ़ने लगता तो पीछे सैकड़ों अभिताभ... जेवना परोसा... हां जी... जेवना परोसा के कोरस में शामिल हो जाते थे. एक अभिताभ मंच के पास जाकर बाल झटकता तो दूसरा अभिताभ लड़कियों के पास जाकर चिल्लाता- होली है...।  कोई अभद्रता इसलिए भी नहीं होती थीं क्योंकि गीत की दूसरी पंक्ति को ध्यान से सुनने का वक्त आ जाता था

एसएमएस वाले इंडियन आइडिल और माइंड ब्लोइंग के जरिए दिमाग को दही बना देने वाली गदहपचीसी से हर रोज गुजरने वाले दर्शकों को लग सकता है कि एक आर्केस्ट्रा में गाने वाले शख्स में ऐसी क्या बात थीं जो उन्हें अलग करती थीं. आपको बताना चाहूंगा कि उनके पास रजा मुराद, अभिताभ बच्चन और हेमंत कुमार जैसी आवाज थीं. इसके अलावा वे इसलिए भी जुदा थे क्योंकि उन्हें अपनी मिट्टी से प्यार था. उनमें जितनी प्रतिभा थीं उसके मुकाबले चवन्नी छाप टैलेंट लेकर धन्ना सेठों की औलादें मुंबई और छत्तीसगढ़ की फिल्म इंडस्ट्री में कब्जा जमाए बैठी है. नवधनाढ्यों के कला प्रेम के चलते आज हालात यह है कि जिसकी जो समझ में आ रहा है वह परोस रहा है.

जैसे केआसिफ साहब की फिल्म मुगले-आजम को देखने के लिए लोग पंचायतों में योजना बनाते थे. आटा-दाल बांधकर घर से निकल पड़ते थे, ठीक वहीं स्थिति चंदैनी-गौंदा नाम के एक नाटक के प्रदर्शन के दौरान होती थीं. इस नाटक एक मुख्य पात्र भी थे- भैयालाल हेड़ाऊ.

राजनांदगांव के गोलबाजार इलाके में 8 अक्टूबर 1933 को जन्मे भैयालाल को चंदैनी गौंदा में काम करने का अवसर तब ही मिल गया था जब इसकी शुरूआत होने जा रही थीं. वर्ष 1971 में शुरू हुआ यह नाटक वर्ष 1991 के आसपास विसर्जित हुआ. इन वर्षों में इस नाटक के कई हजार शो हुए. एक समय ऐसा भी था जब गांव की चौपाल पर बिसाहू और समारू के बीच इस बात को लेकर झगड़ा हो जाया करता था कि उसने चंदैनी-गौंदा को कितनी बार देखा है. इस नाटक में लंबे समय तक काम करने वाले विजय वर्तमान जो हिंदी के अच्छे कहानीकार भी हैं, कहते हैं-  हर पात्र नाटक की जान था, लेकिन भैयालाल नाटक के दिल थे. नाटक की शुरूआत भी उनसे होती थीं और नाटक का अंत भी उनसे होता था.

वर्ष 1980 की बात है. जब प्रसिद्ध फिल्म निर्माता-निर्देशक सत्यजीत रे को मुंशी प्रेमचंद की कहानी सद्गगति पर फिल्म बनाने का आइडिया आया तो उन्होंने छत्तीसगढ़ का रुख किया. यहां आकर उन्होंने ढ़ेर सारे स्थानीय कलाकारों के बीच से भैयालाल हेड़ाऊ का चयन किया. ओमपुरी, स्मिता पाटिल और मोहन अगाशे के अभिनय से सजी इस फिल्म में भैयालाल ने एक आदिवासी की भूमिका निभाई थीं. उनके अभिनय को देखकर समानांतर सिनेमा में धूम मचाने वाले कलाकार हक्का-बक्का थे. तब उस फिल्म में काम करने वाले कई कलाकारों ने उनसे कहा था- कहां सड़ रहे हो भैयालाल जी... लेकिन... भैयालाल छत्तीसगढ़ छोड़कर नहीं गए. हिंदी सिनेमा के जानकारों का मानना है कि अगर भैयालाल मुंबई चले गए होते तो शायद काफी हद तक बलराज साहनी की कमी पूरी जाती.

छत्तीसगढ़ के इस बलराज साहनी ने अपने प्रदेश को इसलिए भी नहीं छोड़ा क्योंकि उसे यहां की मिट्टी से प्यार था. इसके अलावा गरीबी भी एक बड़ा कारण थीं. भैयालाल का बचपन बेहद गरीबी में बीता. उनकी मां उमादेवी अक्सर बीमार रहती थीं. मां की बीमारी के चलते उनके पिता की कमाई का एक बड़ा हिस्सा इलाज में ही खर्च हो जाता था. उनका दो मंजिला मकान पहले गिरवी रखा गया और फिर बाद में बिक गया. परिवार का भरण-पोषण करने के लिए भैयालाल को हाट-बाजारों में आलू-प्याज तक बेचना पड़ा. एक मित्र हरिप्रसाद ठाकुर के प्रयास से जब उन्हें शिक्षक की नौकरी मिली तब जाकर दो वक्त का भोजन नसीब हुआ. अन्यथा हालात यह थे कि कभी उन्हें सूखे चने से गुजारा करना पड़ता था कभी सीलन और बदबूदार जमीन पर पानी पीकर ही सोना पड़ता था. भैयालाल के सात बच्चों में से दो का देहांत हो चुका है. अपनी किताब बदनाम गली के लिए जब उन पर केंद्रित एक लेख के सिलसिले में मैंने जब उनसे मुलाकात की थी तब उन्होंने बताया था कि एक लड़का वेल्डिंग का काम जानता है और खाली बैठा है जबकि दूसरा लड़का टेडेसरा की एक प्राइवेट फैक्ट्री में कार्यरत है. यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि उनका गाना- आमार सोनार बंगला देश आकाशवाणी रायपुर से पहली बार तब बजा था जब बंगलादेश आजाद हुआ था.

यहां छत्तीसगढ़ में निर्मित होने वाली फिल्मों में भैयालाल को वह सम्मान नहीं मिल पाया जिसके वे हकदार थे. ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि यहां एक-दो फिल्मों के चल निकलने के बाद ही निर्माता-निर्देशकों और कलाकारों का पारा सातवें आसमान पर आ गया. अधिकांश कलाकार सुपर स्टार हो गए तो निर्माता-निर्देशकों के बीच सुभाष घई और डेविड धवन की आत्मा घुस गई. अब भी कई कलाकार खुद ही अपने नाम के आगे-पीछे सुपर स्टार, लीजेंड स्टार, सुपर विलेन, सुपर शशिकला, सुपर ललिता पवार... अरूणा ईरानी, शो-मैन... राजकपूर, मनमोहन देसाई जैसे तमगे लगाकर घूम रहे हैं. मुंबईयां फिल्मों की एंड-बैंड-मोटर स्टैंड कर देने वाली कहानी को टिपटॉप कर दो कौड़ी की फिल्में बनाना प्रमुख शगल हो गया है.

छत्तीसगढ़ी फिल्मों में ज्यादा काम क्यों नहीं किया पूछने पर भैयालाल ने बताया था- किसी भी निर्माता- निर्देशक ने कभी कोई अच्छा रोल नहीं लिखा. अपनी मुफलिसी के चलते कुछ फिल्मों में काम भी किया तो वह मेहनताना नहीं मिला जो मिलना चाहिए था. उनकी एक आखिरी फिल्म मंदराजी थीं जिसमें उनकी भूमिका छोटी लेकिन दमदार थीं.

भैयालाल से एक रोज उनके पिता ने पूछा था- बताओ युद्ध के दृश्यों से सजी फिल्म सिकन्दर देखोगे या सूरदास. भैयालाल ने तुरन्त कहा- सूरदास देखूंगा क्योंकि मोहल्ले में भी एक सूरदास आता है जो अच्छा गाता है. भैयालाल जी अब इस दुनिया में नहीं है. बताते हैं कि अपने आखिरी दिनों में भी वे याद किया दिल ने कहां हो तुम... प्यार से पुकार लो जहां हो तुम... गुनगुना रहे थे. यहीं गुनगुनाते-गुनगुनाते हुए वे गुजर गए. उनका जाना अखर गया क्योंकि मैंने अपने बचपन में उन्हें बड़ी शालीनता से कठिन से कठिन गाने को धैर्य के साथ गाते हुए देखा और सुना था. उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धाजंलि.

( उन पर लिखा गया यह आर्टिकल बदनाम गली पुस्तक में भी है. यहां थोड़े संशोधन के साथ. )

 

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