संस्कृति

विद्या सिन्हा- अमोल पालेकर और... मैं

विद्या सिन्हा- अमोल पालेकर और... मैं

प्रोग्राम कृषि दर्शन के बाद अच्छी-खासी फिल्म चल रही थीं.फीचर फिल्म का शेष भाग प्रस्तुत होने ही वाला था, लेकिन ये क्या साला...तमाशा हो गया. टीवी पर झिलमिल-झिलमिल नजर आने लगा. आवाज सुनाई दे रही है मगर चेहरा नहीं दिख रहा है. थोड़ी देर में फिल्म के सभी पात्र हिलने भी लगे. जिस घर में टीवी देख रहा था वहां रहने वाली महिला ने अपने पति से कहा- सुबह चित्रहार के समय भी ऐसा हो गया था. लगता है फिर से एंटीना हिल गया है.पता नहीं कौन है बार-बार हमारा एंटीना हिला देता है. महिला के पति ने कहा- कोई नहीं हिलाता हैं.आंधी-तूफान से ऐसा हो जाता है.

ब्लैक एंड वाइट टीवी के जमाने में ऐसा हर घर में हुआ है. आज मैं आपको कोई नई कहानी बताने नहीं जा रहा बस...याद दिला रहा हूं. वैसे आप सबको यह किस्सा याद होगा ही.

सेक्टर छह भिलाई में रहने के दौरान हमारे ब्लाक में रहने वाले माथुर साहब पहली बार एक टीवी लेकर आए थे.जाहिर सी बात है माथुर साहब हमारी नजर में तोपचंद थे.वैसे उनके तोपचंद होने की एक वजह यह भी थीं कि उनकी सबसे बड़ी बेटी खूबसूरत थीं और वहीं एक लड़की थीं जो कालेज में पढ़ती थीं.

माथुर साहब की बेटी के साथ सबसे अच्छी बात यह थीं कि वह विद्या सिन्हा जैसी दिखती थीं और अपने बगीचे में घूम-घूमकर पढ़ती थीं.उन्हें इस तरह रटा मारते हुए देखकर हमारी स्ट्रीट का हर लड़का छत पर घूम-घूमकर रटा मारता था. जिस छत पर देखो रटामार लड़के नजर आते थे. कुछ तो ऐसे थे जो रहते दूसरी स्ट्रीट पर थे और रटा हमारे ब्लाक की छत पर आकर मारते थे. सच तो यह है कि साले रटा कम मारते थे और रटा मारने का एक्शन ज्यादा करते थे. हर कोई माथुर साहब की बेटी को इंप्रेस करने में लगे रहता था.

रटामार लड़कों से परेशान होकर माथुर साहब की लड़की ने जब घर से बाहर निकलना बंद कर दिया तब मेरी इंट्री हुई थीं. मैं माथुर साहब की लड़की से बहुत-बहुत छोटा था और राजकपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर का ऋषि कपूर बनना भी नहीं चाहता था. मुझे नहाने का शौक है लेकिन किसी को नहाते हुए देखने का शौक कभी नहीं रहा. मैं तो अब भी कई बार नहाने के दौरान यह सोचने लगता हूं कि क्या मैं सचमुच नहाने के लिए ही इस दुनिया में आया हू. अगर ऐसा है तो मुझे सच में नहा लेना चाहिए.नहाते-नहाते खुद को गुम कर लेता हूं. दूसरों को कहां खोज पाता?

अपनी इंट्री का एक छोटा सा मकसद यही था कि यार किसी तरह रविवार को माथुर साहब के घर पर टीवी देखने का जुगाड़ जम जाए. एक रोज मामला जम गया. मुझे शरीफ समझकर माथुर साहब की लड़की ने बुलवाया. मैं भागते हुए पहुंचा तो खुले बाल वाली बड़ी सी लड़की ने कहा-सुनो...मेरा एक काम कर दोगे. मैंने कहा- सब कर दूंगा... बस आप मुझे टीवी देखने देना. मामला जम गया. अब हर रविवार को मैं माथुर साहब के घर का खास मेहमान होता था. इस खास मेहमान को हर रविवार एक लव लैटर मिलता था. यह लव लैटर जहां पहुंचाना होता था वहां पहुंचा दिया करता था. अब कहां पहुंचाता था यह मत पूछिए. बस...इतना जान लीजिए कि विद्या सिन्हा ने अपना अमोल पालेकर ढूढ़ लिया था. जिस अमोल पालेकर को हमारी विद्या सिन्हा ने पंसद किया था वह भी एक रटामार था, लेकिन जब मोहल्ले के सारे लड़के रटा मारकर निकल जाते थे तब साला अमोल पालेकर रटा मारने छत पर आया करता था. कई बार तो रात-रात भर रटा मारते रहता था. अब कोई दिन-रात मेहनत करेगा तो उसे विद्या नहीं तो क्या ललिता पवार मिलेगी? बंदे को मेहनत का फल मिला और मैं लैटर पहुंचाने की एवज में कुछ अच्छी फिल्में देख पाया. 

अब एक सस्पेंस और खोलता हूं. जब कभी भी माथुर साहब के घर टीवी झिलमिलाता तो एंटीना ठीक करने के लिए अमोल पालेकर ही आया करता था. बाकी जिन घरों में एंटीना हिल जाता था वहां शायद रुड़की विश्वविद्यालय के इंजीनियर आया करते थे. उनके आते ही तीन लोग सक्रिय हो जाते थे. एक घर के अंदर रहता था जो चिल्लाते रहता था- नहीं आया... नहीं आया...। छत के ऊपर कौवों को भगाने वाला- आया क्या... आया क्या...कहते रहता था. और दोनों के काम पर नजर रखने वाला एक तीसरा शख्स मात्र डायरेक्शन देते रहता था. हां इधर....हां उधर....। रुड़की विश्वविद्यालय के ये महान इंजीनियर जंग में फतह हासिल करने के बाद बकायदा चाय- नाश्ता भी करते थे और फिर जानी लीवर की तरह पतली गली पकड़कर निकल जाते थे.

( राजकुमार सोनी की फेसबुक वॉल से )

 

 

 

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