संस्कृति

जय संतोषी मां

जय संतोषी मां

1975 को जय संतोषी मां नाम की एक फिल्म भी रीलिज़ हुई थीं. पिताजी कहते थे संतोषी मां के नाम वाली किसी देवी का पुराण में उल्लेख नहीं है. यह सही भी है क्योंकि फिल्म के प्रारंभ में ही फिल्म बनाने वाले ने यह बता दिया था कि संतोषी मां का शास्त्रों में उल्लेख नहीं है, लेकिन मां यह मानने को तैयार नहीं थीं. इस फिल्म को मां तीन-चार बार देख चुकी थी और उनकी आस्था इतनी ज्यादा गहरी हो गई थीं कि हर शुक्रवार को व्रत रखने लगी थीं. घर के प्रत्येक सदस्य को हिदायत थीं कि शुक्रवार को कोई भी खटाई नहीं खाएगा.  चीनी मिट्टी से निर्मित आचार की बड़ी सी बरनी को छिपा कर रख दिया जाता था.शुक्रवार आने के एक दिन पहले यानी गुरुवार को मां फरमान जारी कर देती- कल शुक्रवार है. मेरा उपवास है. कोई आचार- नींबू नहीं खाएगा.अगर किसी ने खाया तो समझ लेना. मेरा उपवास भरबन्ट ( शायद भरबन्ट का मतलब तहस- नहस होता हो. ) हुआ तो फिर तुम जानो ?

अब घर में कुछ भी ऊपर- नीचे जो कुछ भी होता तो मां आरोप लगाती- जरूर किसी ने आचार खाया है. सिर में दर्द उठा... तूने आचार खाया? भाई को चोट लगी... आचार खाया है? छोटा भाई अर्धवार्षिक परीक्षा में फेल हो गया... उसने भी आचार खाया? ड्यूटी जाने के पहले पिताजी की साइकिल पंचर हो गई.... आचार ?

हर शुक्रवार को मां संतोषी मां की पूजा करती. मैं अपनी मां का स्थायी पंड़ित बेटा था. मतलब जैसे सत्यनारायण की कथा वाली किताब होती थीं ठीक वैसे ही जय संतोषी मां की कथा को पुस्तक से बांचकर सुनाना होता था. पूरी कथा का सार यही था कि एक महिला को उसके परिवार के लोग खूब यातना देते हैं. वह महिला यातना से बचने के लिए संतोषी मां का उपवास प्रारंभ करती है और संतोषी माता प्रकट होकर उसके दुःख दूर कर देती है. महिला के सामने झूठे बर्तनों का अंबार लगाया जाता है. माता प्रकट होती है और सारे बर्तन एकदम चकाचक हो जाते है. इससे पहले कि पीड़ित महिला के चेहरे पर मुस्कान आए... जलनखोर लोग महिला के सामने गंदे कपड़ों का ढ़ेर लगा देते हैं... लेकिन ठहरिए... संतोषी मां यहां भी प्रकट होकर  सारे कपड़ों को साफ कर देती थीं. कपड़े इतने सफेद कि सुपर रिन की चमकार भी फेल. अब जलनखोर लोग परेशान... करें तो क्या करें? 

मुझे कथा बांचने के पहले नहाना होता था. कथा को बांच- बांचकर इतना ज्यादा अभ्यस्त हो चुका था कि उठते- बैठते और  कई बार सोते- सोते भी कथा बांच दिया करता था. मां पूजा में लीन रहती. अंत में आरती होती तो उसी धुन पर होती- मैं तो आरती उतारूं रे संतोषी माता की... जय- जय संतोषी माता जय-जय मां. जय संतोषी मां... जैसी फिल्म क्यों हिट रही इसके कई कारण है. अब जाकर सोचता हूं तो लगता है हिन्दुस्तान की जनता बेहद भावुक है. खासकर जो हिंदी पट्टी है वहां अशिक्षा ने लोगों को चमत्कार पर भरोसा करने के लिए मजबूर कर रखा है. मेहनतकश जनता को भी यह लगता है कि उनके कष्टों का निवारण किसी अदृश्य शक्ति के जरिए ही हो सकता है. जब किसी दुखी आदमी के जीवन में खुशियां आती है तो वह खुशी देने वाले को भी भगवान मानने लगता हैं.  जय संतोषी मां ने उस जमाने में पीड़ित-प्रताड़ित महिलाओं के जीवन में खुशियां लौटाई थीं. जो चमत्कार रुपहले परदे भी होता था उसे महिलाएं अपने जीवन में महसूस करती थीं. सोलह शुक्रवार तक उपवास करती और फिर उध्यापन करके खुश हो जाती थीं कि अब उनके जीवन में सब कुछ बदल जाएगा.

फिल्म वाले ने पूजा के लिए बड़ी चालाकी से गुड़ और चने के प्रसाद का प्रावधान तय कर दिया था. यह प्रसाद हर जगह मौजूद था सो संतोषी मां भी हर जगह विद्यमान हो गई. याद रखिए प्रसाद की उपलब्धता जितनी सरल होती है... धर्म उतनी तेजी से हमारे भीतर प्रवेश कर जाता है. टाकीजों में हर शुक्रवार को गुड़ और चने के प्रसाद का वितरण भी इसलिए होता था क्योंकि यह गरीब आदमी की पहुंच में होता था. अगर फिल्म बनाने वाला यह बताता कि संतोषी मां को काजू- कतली पसंद है तो यकीन मानिए फिल्म कभी हिट नहीं होती.

अब यह कितना सच है यह नहीं मालूम लेकिन बताते कि फिल्म देखने के पहले बहुत से दर्शक दरवाजे के बाहर ही जूते-चप्पल भी उतार दिया करते थे. अमूमन लड़के ही फिल्म की स्टोरियां सुनाते रहे हैं, लेकिन जय संतोषी मां की स्टोरी जब लड़कियां सुनाती थीं तो गजब सुनाती थीं. हां रे... ऊं रे...कितनी कमीनी थीं न उसकी सास...देवरानी....वगैरह-वगैरह...। यह संतोषी मां का ही प्रभाव था कि सुभाष घई की एक फिल्म कालीचरण जो वर्ष 1976 में रीलिज हुई थीं उसमें डैनी लंगडा रहता है और जय संतोषी मां,,, बोल-बोलकर ढिशुंम-ढिशुंम करता है.

 

इस फिल्म के साथ कई तरह की खूबसूरत यादें जुड़ी हुई हैं. तर्क और विज्ञान की अवधारणा को खंडित करने वाली यह फिल्म मुझे अब भी पसंद है. इस फिल्म को पसंद करने का यह मतलब नहीं है कि मैं अंधविश्वासी हूं. इस फिल्म को पंसद करने के पीछे मेरी वजह सिर्फ़ मां थीं. मैं लंबे समय तक मां के विश्वास के साथ था. कई शुक्रवार उपवास रहने के बाद भी पिता बेमतलब बरस पड़ते थे. मैं छोटा था तो मां के कष्ट हर नहीं सकता है. बस...इतना चाहता था कि यार... कम से कम संतोषी मां हर लें. भोली मां की बहुत सी दर्दनाक यादें जुड़ी हुई है. मां इस दुनिया न होते भी साथ है तो फिर मां की जो पूजा वाली मां है वह जेहन से कैसे गायब हो सकती है? मैं इस मां के सामने कोई अगरबत्ती नहीं जलाता, लेकिन संतोषी मां के बारेे में सोचता हूं तो गांव-कस्बों की बहुत सी माताएं याद आ जाती है. चमत्कार सी भरी हुई धैर्यवान. उम्मीद से ज्यादा देने वाली लबालब जय संतोषी मां.

मैं अब भी जय संतोषी मां के साथ हूं. 

होने को तो मैं साध्वी प्रज्ञा और राधे मां साथ भी हो सकता था, लेकिन जरा सोचकर बताइए क्या इनके साथ कभी कोई गीतकार प्रदीप हो सकता था? फिल्म जय संतोषी मां के सारे गीत असली राष्ट्रवादी कवि / गीतकार प्रदीप ने लिखे थे. प्रज्ञा ठाकुर और राधे मां की प्रशंसा में गीत लिखने वालों की आज कोई कमी नहीं है, अगर कवि प्रदीप जिंदा होते और वे राधे मां और प्रजा ठाकुर के लिए गीत लिखने से इंकार कर देते तो उन्हें राष्ट्रद्रोही ठहरा दिया जाता? अगर उन्हें गीत लिखने के लिए ज्यादा मजबूर किया जाता तो बहुत संभव है कि वे आत्महत्या भी कर लेते. इस पोस्ट में एक चित्र फिल्म जय संतोषी मां का है दूसरा चित्र उस मंदिर का है जो कोरबा के पाली इलाके में मौजूद है. यह मंदिर मैंने तब देखा जब मैं कोरबा से लौट रहा था.

राजकुमार सोनी के फेसबुक वॉल से

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