विशेष टिप्पणी

आदमी को चाहिए...वक्त से डरकर रहे

आदमी को चाहिए...वक्त से डरकर रहे

छत्तीसगढ़ के निलंबित पुलिस अफसर जीपी सिंह ने अपने जीवन में अगर पैसों के साथ-साथ थोड़े अच्छे लोग और संबंधों को कमा लिया होता तो यह तय था कि उन्हें जेल की हवा नहीं खानी पड़ती. जेल में भी उन्हें कालीचरण महाराज ( वहीं कालीचरण जिन्होंने बापू के हत्यारे गोडसे को रायपुर की धर्म संसद में सलाम ठोंका था ) की बैरक से सटी हुई एक बैरक में रखा गया है. 

अपनी नौकरी के दौरान जीपी सिंह ने ना जाने कितने बेगुनाहों को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाया था.अपने कंधे पर स्टार की संख्या को बढ़ाने के लिए ना जाने कितने बेकसूर ग्रामीणों को नक्सली साबित किया था. लोगों को एक आईपीएस राहुल शर्मा की आत्महत्या के पीछे का घटनाक्रम भी याद है. जीपी सिंह को अब वहीं सब कुछ भुगतना पड़ रहा है जो कभी उन्होंने दूसरों के लिए किया था. राजनीति हो या अफसरशाही...जीवन के हर क्षेत्र में संतुलन को बेहद अहम माना गया है. जीपी सिंह अपने जीवन में संतुलन को कायम नहीं रख पाए. देर से ही सही मगर उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. ( इसे वे कितने दिनों तक भुगतेंगे फिलहाल यह भी साफ नहीं है ) जेल सूत्रों से जो जानकारी मिली है उस पर यकीन करें तो जीपी सिंह को खाने के लिए वहीं भोजन दिया गया है जो जेल मैन्युअल में तय है और सामान्य कैदियों को परोसा जाता है. सूत्र बताते हैं हैं कि जीपी ने जैसे-तैसे एक रोटी खाई है और बाकी भोजन को ग्रहण करने से इंकार कर दिया. चूंकि जेल में अभी जीपी सिंह की हैसियत एक विचाराधीन बंदी के तौर पर है सो वहां सामान्य कैदियों की तरह उनके शरीर में मौजूद प्रत्येक वस्त्र की बारीकी से जांच की गई है. यानी कि उनके शरीर के एक-एक कपड़े को उतारकर यह जांचा-परखा गया है कि कहीं वे ऐसी-वैसी चीज़ को लेकर तो प्रवेश नहीं कर रहे हैं जो घातक हैं या फिर जेल प्रशासन के लिए परेशानी का सबब बन सकती हैं ? 

जो भी पाठक इस टिप्पणी को पढ़ रहे हैं वे यह सोचकर कदापि विचलित ना होंवे कि यह कोई खतरनाक किस्म की आध्यात्मिक टिप्पणी है. देश के प्रसिद्ध शायर साहिर लुधियानवी जो ठेठ वामपंथी मिज़ाज के थे...वे भी अपने एक गीत में यह मानते हैं कि वक्त से बड़ा सिकन्दर कोई नहीं हैं. वे सभी लोग जो शोषित-पीड़ितों का खून चूसकर अकूत धन संपत्ति के मालिक बन बैठे हैं और दर्प से भरे हुए हैं उन्हें साहिर के इस गीत के गहरे अर्थ पर एक बारगी मंथन अवश्य करना चाहिए. साहिर लुधियानवी ने बीआर चोपड़ा की मशहूर फिल्म वक्त के लिए यह गीत लिखा था. इस गीत का एक-एक शब्द आज भी मौजूं और प्रेरणादायक हैं- 

वक़्त से दिन और रात 

वक़्त से कल और आज

वक़्त की हर शह ग़ुलाम 

वक़्त का हर शह पे राज

 

वक़्त की पाबन्द हैं 

आते जाते रौनके

वक़्त है फूलों की सेज

वक़्त है काँटों का ताज

वक़्त से दिन और रात ... 

 

आदमी को चाहिए 

वक़्त से डर कर रहे

कौन जाने किस घड़ी 

वक़्त का बदले मिजाज़

 

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