विशेष टिप्पणी

इन टिप्पणियों को पढ़ लीजिए...साफ हो जाएगा कि कश्मीर फाइल्स देखनी चाहिए या नहीं ?

इन टिप्पणियों को पढ़ लीजिए...साफ हो जाएगा कि कश्मीर फाइल्स देखनी चाहिए या नहीं ?

कोई एक विवेक अग्निहोत्री है.सोशल मीडिया व अन्य माध्यमों से पता चला है कि वे कान्यकुब्ज ब्राम्हण परिवार से हैं और मुंबई में सेटल होने के बाद वे ताशकंद फाइल्स और क्राइम थ्रिलर फिल्म चाकलेट भी बना चुके हैं. सोशल मीडिया बता रहा है कि वे एक खूबसूरत टीवी अभिनेत्री पल्लवी जोशी के हसबैंड भी है. विवेक अग्निहोत्री की हालिया रीलिज फिल्म कश्मीर फाइल्स को लेकर कई तरह की बातें हो रही है. एक वर्ग कह रहा है कि हर सच्चे भारतीय को यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिए तो दूसरे वर्ग का कहना है कि मोहब्बत... इंसानियत और भाई-चारे पर यकीन करने वाले किसी भी शख्स को यह फिल्म नहीं देखनी चाहिए. वैसे अच्छी फिल्मों को देख-समझकर टिप्पणी करने वाले अधिकांश सुधि दर्शक मान रहे हैं कि फिल्म का निर्माण एक समुदाय विशेष के साथ नफरत के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए किया गया है. सोशल मीडिया में बहुत से लोगों ने लिखा है कि कश्मीर फाइल्स से ज्यादा जरूरी गुजरात की फाइल्स है. कश्मीर फाइल्स के साथ गुजरात के दंगों पर बनी फिल्म परजानिया का भी जिक्र हो रहा है. लोग कह रहे हैं कि परजानिया को टैक्स फ्री तो दूर सही ढंग से थियेटरों में रीलिज भी नहीं होने दिया गया था. कश्मीर फाइल्स से पहले शुद्र द राइजिंग जैसी फिल्म बन चुकी है. जो लोग कश्मीर फाइल्स देखकर रो रहे हैं अगर वे शुद्र द राइजिंग देख लेंगे तो शायद उनका कलेजा फट जाएगा. कोई जज लोया फाइल्स बनाने का सुझाव दे रहा है तो कोई नारी उत्पीड़न जैसे विषय पर जशोदा फाइल्स बनाने की बात कर रहा है. कश्मीर फाइल्स पर हम यहां कुछ ऐसी टिप्पणियों को प्रकाशित कर रहे हैं जो हाल के दिनों में लिखी गई है. इन टिप्पणियों के आलोक में यह साफ हो जाएगा कि फिल्म को देखा जाना चाहिए या नहीं ? वैसे आज सुबह से सोशल मीडिया में विवेक रंजन अग्निहोत्री की उस तस्वीर को लेकर बवाल मच गया है जिसमें वे जामा मस्जिद के सामने नमाज अदा करते हुए दिखाई दे रहे हैं. विवेक रंजन अग्निहोत्री ने यह तस्वीर 25 नवंबर 2012 को टिव्हटर पर जारी की थी. तब केंद्र में भाजपा की सरकार नहीं थीं. इस फोटो के वायरल होते ही सवालों का पहाड़ खड़ा हो गया है. लोग कह रहे हैं-क्यों मियां सरकार बदलते ही इरादा बदल गया ? ऊपर दी गई तस्वीर विवेक अग्निहोत्री की है. 

कश्मीर फाइल्स को लेकर देश के एक प्रमुख अखबार देशबन्धु ने अपने संपादकीय में लिखा है-

कश्मीरी पंडितों के विस्थापन पर बनी फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ सिनेमाघरों में रिलीज़ हो चुकी है और उम्मीद से ज्यादा कमाई कर रही है। गौरतलब है कि 90 के दशक में जम्मू-कश्मीर में बड़े पैमाने पर कश्मीरी पंडितों की हत्या हुई थी और बड़ी संख्या में उन्हें अपने घर और ज़मीन से बेदखल होना पड़ा था। इसके पीछे बहुत से राजनैतिक, सामाजिक कारण थे, लेकिन इस मसले की जड़ पर ध्यान देने की जगह इसे सीधे सांप्रदायिक मसला बना दिया गया। इस फ़िल्म में भी समस्या के हर पहलू को परखने की जगह इसे एकतरफा नजरिए से बनाया गया है। शायद फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक की मंशा भी यही हो। वैसे भी फ़िल्म के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की राजनैतिक विचारधारा किसी से छिपी नहीं है। अर्बन नक्सल शब्द भी उन्हीं की देन है।

बहरहाल, कश्मीर हमेशा से भारतीय राजनीति का एक संवेदनशील विषय रहा है। और इस विषय को समझने के लिए व्यापक नज़रिए की ज़रूरत है। इसे काला या सफ़ेद यानी या तो इस पार या उस पार वाले व्यवहार से समझा नहीं जा सकता। यह फिल्म गुजरात और मप्र सहित कई राज्यों में टैक्स फ़्री भी की गई है। इस का प्रचार भी नामी-गिरामी लोग कर रहे हैं और ये बता रहे हैं कि अगर आप भारतीय हैं तो यह फ़िल्म आपको ज़रूर देखनी चाहिए।हालांकि अपनी राष्ट्रीयता और देशप्रेम साबित करने के लिए जनता किसी फिल्म की मोहताज नहीं है।

द कश्मीर फ़ाइल्स 1990 के दौर के उस भयावह समय पर केन्द्रित है, जब आतंकवादियों ने कश्मीरी पंडितों की हत्याएं कीं और उन्हें कश्मीर छोड़ने पर मजबूर किया गया। हज़ारों कश्मीरी पंडित अपने ही देश में शरणार्थी बनकर रहने पर मजबूर हो गए। ‘द कश्मीर फाइल्स’ का मुख्य पात्र कृष्णा पंडित नाम का लड़का है, जो दिल्ली में ईएनयू नाम के मशहूर कॉलेज में पढ़ता है। कृष्णा छात्र राजनीति में भी सक्रिय है। कृष्णा के दादा पुष्कर नाथ को 1990 में कश्मीर छोड़ना पड़ा था। वो खुद आतंकियों के अत्याचार के भुक्तभोगी हैं। उनका सपना है कि वो एक बार वापस अपने घर जा सकें। हालात ऐसे बनते हैं कि कृष्णा खुद कश्मीर जाकर देखता है कि वहां क्या चल रहा है। 

इस दौरान उसके अतीत के राज उसके सामने खुलते हैं, जो कश्मीर और उसके अपने जीवन को लेकर उसका नज़रिया बदल देते हैं। फ़िल्म में आतंकवाद के दृश्यों को काफी विस्तार से फिल्माया गया है, जिस वजह से उसका असर दर्शकों पर गहरा पड़ता है। इस फिल्म में अनुपम खेर, दर्शन कुमार, पल्लवी जोशी और मिथुन चक्रवर्ती मुख्य भूमिकाओं में हैं। सभी मंजे हुए कलाकार हैं, इसलिए उनकी अदाकारी में कोई कमी नहीं है। लेकिन बेहतर होता अगर फिल्म में सभी पहलुओं को बराबरी से उठाया जाता।

कश्मीरी पंडितों का विस्थापन भारत की गंगा-जमुनी सभ्यता के माथे पर एक और दाग था, जिसे जल्द से जल्द मिटाया जाना था। लेकिन एक बार फिर लोगों की जान को राजनैतिक फ़ायदे के लिए भुनाया गया। 90 से लेकर 2022 तक देश में कई सरकारें आईं और गईं। देश में कांग्रेस का भी शासन रहा और भाजपा का भी। मगर ये समस्या पूरी तरह हल नहीं हुई और अब इसे पूरी तरह सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई है। बताया जाता है कि कश्मीरी पंडितों पर जुल्म और दर्द की कहानी को पर्दे पर दिखाने के लिए विवेक अग्निहोत्री ने ख़ूब शोध किया। पीड़ितों के बारे में जानकारी जुटाई। लेकिन यह मेहनत कहीं न कहीं इकतरफा ही रही, क्योंकि इसमें तथ्यों को कसौटी पर नहीं परखा गया। 

हाल ही में भारतीय वायु सेना के शहीद ‘रवि खन्ना’ की पत्नी निर्मला ने ‘द कश्मीर फाइल्स’ के खिलाफ अदालत में याचिका दायर की थी। स्क्वाड्रन लीडर रवि खन्ना की पत्नी ने अदालत से अपील की है कि फिल्म में उनके पति को दर्शाने वाले दृश्यों को हटाया जाए। उन्होंने दावा किया कि फिल्म में दिखाए गए तथ्य उनके पति के साथ हुई घटनाओं के विपरीत हैं। गौरतलब है कि स्क्वाड्रन लीडर रवि खन्ना 25 जनवरी, 1990 को श्रीनगर में शहीद हुए चार वायुसेना कर्मियों में से एक थे। इस याचिका पर अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीश दीपक सेठी ने आदेश दिया है कि ‘रवि खन्ना की पत्नी द्वारा बताए गए तथ्यों को देखते हुए, फिल्म में से शहीद स्क्वाड्रन लीडर रवि खन्ना से संबंधित कार्यों को दर्शाने वाले दृश्य दिखाने पर रोक लगाई जाए।’ अदालत का ये आदेश बताता है कि विवेक अग्निहोत्री ने पूरा सच बयां नहीं किया है।

बहरहाल, फिल्म में दिखलाई कहानी पूरा सच नहीं है, क्योंकि इतिहास आधे-अधूरे तथ्यों के साथ पढ़ा नहीं जा सकता। यह याद रखना होगा कि कश्मीर में जिस वक्त नरसंहार और पलायन की घटनाएं हुईं, उस वक्त  केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी, जो भाजपा के समर्थन से बनी थी। वीपी सिंह सरकार दिसंबर 1989 में सत्ता में आई। पंडितों का पलायन उसके ठीक एक महीने बाद से शुरू हो गया। साल 1990 से लेकर 2007 के बीच के 17 सालों में आतंकवादी हमलों में 399 पंडितों की हत्या की गई। इसी दौरान आतंकवादियों ने 15 हजार मुसलमानों की हत्या कर दी। 

और सबसे बड़ी बात ये कि 90 से पहले देश में अधिकांश समय  कांग्रेस का ही शासन रहा। इस दौरान कभी ऐसी नौबत नहीं आई कि कश्मीरी पंडितों को पलायन करना पड़े, लेकिन राम मंदिर के लिए रथयात्रा निकाल कर सत्ता में आने की भाजपा के कोशिशों के बीच यह दुखद अध्याय भी जम्मू-कश्मीर में जुड़ ही गया। आख़िरी बात ये कि इस फिल्म को आपदा की तरह देखना चाहिए, और इस आपदा में अवसर देखने वालों को करारा जवाब जनता को देना चाहिए।

वृषभ दुबे की टिप्पणी है-

 

द कश्मीर फाइल्स को देखते हुए मुझे Mathieu Kassovitz की फ़िल्म La Haine का एक डायलॉग बार बार याद आता रहा - "Hate Breeds Hate"

ख़ैर … 

मैं हर कहानी को पर्दे पर उतारने का समर्थक हूँ। यदि कहानी ब्रूटल है, तो उसे वैसा ही दिखाया जाना चाहिए। 

जब टैरंटीनो और गैस्पर नोए, फ़िक्शन में इतने क्रूर दृश्य दिखा सकते हैं तो रियल स्टोरीज़ पर आधारित फ़िल्मों में ऐसी सिनेमेटोग्राफ़ी से क्या गुरेज़ करना।

और वैसे भी, तमाम क्रूर कहानियाँ, पूरी नग्नता के साथ पहले भी सिनेमा के ज़रिए दुनिया को सुनाई और दिखाई जाती रही हैं। 

रोमन पोलांसकी की "दा पियानिस्ट" ऐसी ही एक फ़िल्म है। .. 

जलियांवाला बाग़ हत्याकांड की क्रूरता को पूरी ऑथेंटिसिटी के साथ शूजीत सरकार की "सरदार ऊधम" में फ़िल्माया गया है।

मगर आख़िर ऐसा क्या है कि पोलांसकी की "दा पियानिस्ट" देखने के बाद आप जर्मनी के ग़ैर यहूदियों के प्रति हिंसा के भाव से नहीं भरते? और शूजीत सरकार की "सरदार ऊधम" देखने के बाद आपको हर अंग्रेज़ अपना दुश्मन नज़र नहीं आने लगता. 

पर कश्मीर फ़ाइल्स देखने के बाद मुसलमान आपको बर्बर और आतंकी नज़र आता है. ऐसा क्यों?

मुझे इस "क्यों" का जवाब अनुप्रास अलंकार से सुसज्जित इस पंक्ति में नज़र आता है - "कहानी को कहने का ढंग"

अच्छे फ़िल्ममेकर्स अपनी बात कहने के ढंग पर ध्यान देते हैं. कहानी से पूरी ईमानदारी करते हुए, अपनी ज़िम्मेदारी नहीं भूलते.

चलिए मैं बात साफ़ करता हूँ - जैसे लिंकन ने डेमोक्रेसी की एक यूनिवर्सल डेफ़िनिशन दी है - "औफ़ दा पीपल, बाई दा पीपल एंड फ़ॉर दा पीपल"। वैसी ही कोई परिभाषा विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्मों के लिए भी गढ़ी जा सकती है … मसलन "एक विशेष वर्ग द्वारा, एक विशेष वर्ग के लिए और एक विशेष वर्ग के ख़िलाफ़" ..

आप ख़ुद सोचिए कि पूरी 170 मिनट की फ़िल्म में किसी लिबरल मुस्लिम कैरेक्टर की आधे मिनट की भी स्क्रीन प्रेज़ेन्स नहीं है. लिट्रली निल! 

मुस्लिम औरतों से ले कर, मस्जिद के ईमाम तक सब विलन क़रार दिए गए हैं, मगर उस कम्यूनिटी से एक शख़्स को भी वाइट शेड में दिखाने की कोशिश नहीं की. 

आप कहेंगे कि जब कोई वाइट शेड में था ही नहीं तो दिखा कैसे देते. मैं कहूँगा कि बकवास बंद करिए.

क्यूँकि उसी exodus के वक़्त, कश्मीर के मुस्लिम पोलिटिकल फ़िगर्स से लेकर इस्लामिक धर्मगुरुओं की हत्या इस आरोप का जवाब है कि लोग उन पीड़ित कश्मीरी पंडितों के लिए बोले थे, आतंकवाद के ख़िलाफ़  खड़े हुए थे.

मगर उन्हें स्क्रीन पर दिखा कर शायद आपका नैरेटिव माइल्ड हो जाता. और वही तो नहीं होने देना था …. क्यूँकि ख़ून जितना खौले उतना बेहतर, गाली जितनी भद्दी निकले उतनी अच्छी .. नारा जितना तेज़ गूंजे उतना बढ़िया … वोट जितना पड़ें ….. है ना?

फ़िल्म बढ़ती जाती है और एक के बाद एक प्रॉपगैंडा सामने आता जाता है :

"सेल्यूलर अस्ल में सिकुलर हैं, यानी बीमार हैं"

"संघवाद से आज़ादी, मनुवाद से आज़ादी … जैसे नारे लगाना देश से ग़द्दारी करना है।" 

"कश्मीर में औरतों और लोगों के साथ जो भी ग़लत होता है वो वहाँ के मिलिटेंट्स, फ़ौज की वर्दी पहनकर करते हैं ताकि फ़ौज को निशाना बनाया जा सके।"

"मुसलमान आपका कितना भी ख़ास क्यों ना हो, मगर वक़्त आने पर वो अपना मज़हब ही चुनेगा।" … वग़ैरह वग़ैरह।

मगर इस सब के बावजूद मैं आपसे कहूँगा कि इस फ़िल्म को थिएटर में जा कर देखिए. ताकि आप फ़िल्म के साथ साथ फ़िल्म का असर भी देख सकें.

ताकि आप अपनी रो के पीछे बैठे लोगों से कांग्रेस को माँ बहन की गालियाँ देते सुन पाएँ और ख़ुद ये बताने में डर महसूस करें कि तब केंद्र में कांग्रेस नहीं जनता दल की सरकार थीं. ताकि आप बेमतलब में जय श्री राम के नारे से हॉल गूँजता देखें. ताकि निर्देशक द्वारा एक तस्वीर को एक झूठे और बेहूदे ढंग से पेश होते हुए देखें और बगल वाले शख़्स से उस तस्वीर में मौजूद औरत के लिए "रखैल …" जैसे जुमले सुन सकें। ताकि फ़िल्म ख़त्म होने के बाद बाहर निकलती औरतों को ये कहते पाएँ कि "कुछ बातें ऐसी होती हैं जो खुल के बोल भी नहीं सकते", और मर्दों को ये बड़बड़ाते सुनें कि "हिंदुओं का एक होना बहुत ज़रूरी है वरना ये साले हमें भी काट देंगे।" 

फ़िल्म इन्हीं लोगों के लिए बनाई गयी है और जो लोग न्यूट्रल हैं, उन्हें इन जैसा बनाने के लिए।

बाक़ी, मोहब्बत ज़िंदाबाद! 

 

प्रेमसिंह सियाग ने लिखा है-

 

कश्मीर फाइल्स के नाम पर बनी फिल्म आजकल चर्चाओं में है।

मेरे आज तक यह समझ नहीं आया कि कोई बिना संघर्ष के कैसे  अपनी विरासत छोड़कर भाग सकता है!

किसानों की जमीनों पर आंच आई तो 13 महीने तक सब कुछ त्यागकर दिल्ली के बॉर्डर पर पड़े रहे।

कश्मीर घाटी में आज भी जाट-गुर्जर खेती कर रहे है।पीड़ित होने का रोना-धोना आजतक दिल्ली जंतर/मंतर आकर नहीं किया है. 

1967 के बाद देश के बारह राज्यों में आदिवासियों को चुन-चुनकर मारा जा रहा है और कारण इतना ही बताया जाता है कि विकास के रास्ते में रोड़ा बनने वाले नक्सली लोगों को निपटाया जा रहा है

आदिवासियों का नरसंहार कभी चर्चा का विषय नहीं बनता है. उनके विस्थापन का दर्द,पुनर्वास की योजनाओं पर कोई विमर्श नहीं होता.

सुविधा के लिए बता दूँ कि 1989 तक कश्मीरी पंडित बहुत खुश थे और हर क्षेत्र में महाजन बने हुए थे.

अचानक दिल्ली में बीजेपी समर्थित सरकार आती है और राज्य सरकार को बर्खास्त करके जगमोहन को राज्यपाल बना दिया जाता है.

कश्मीरी पंडितों पर जुल्म हुए और दिल्ली की तरफ प्रस्थान किया गया.

उसके बाद बीजेपी ने कश्मीरी पंडितों का मुद्दा मुसलमानों को विलेन साबित करने के लिए राष्ट्रीय मुद्दा बना लिया.

कांग्रेस सरकार ने जमकर इस मुद्दे को निपटाने के लिए सालाना खरबों के पैकेज दिए और जितने भी कश्मीरी पंडित पलायन करके आये उनको एलीट क्लास में स्थापित कर दिया.

साल में एक बार जंतर-मंतर पर आते,बीजेपी के सहयोग से ब्लैकमेल करते और हफ्ता वसूली लेकर निकल लेते थे.

8 साल से केंद्र में बीजेपी की प्रचंड बहुमत की सरकार है व कश्मीर से धारा 370 हटा चुके है लेकिन कश्मीरी पंडित वापिस कश्मीर में स्थापित नहीं हो पा रहे है.

धरने-प्रदर्शन से निकलकर हफ्तावसूली की गैंग फिल्में बनाकर पूरे देश को इमोशनल ब्लैकमेल करके वसूली का नया तरीका ईजाद कर चुकी है!

आदिवासी रोज अपनी विरासत को बचाने के लिए चूहों की तरह मारे जा रहे है लेकिन कभी संज्ञान नहीं लिया जाता।आज किसान कौमों को विभिन्न तरीकों से मारा जा रहा है लेकिन कोई चर्चा नहीं होती.

1995 के बाद आज तक तकरीबन 4 लाख किसान व्यवस्था की दरिंदगी से तंग आकर आत्महत्या कर चुके है लेकिन पिछले 25 सालों में एक भी बार जंतर-मंतर पर कोई धरना नहीं हुआ,राष्ट्रीय मीडिया में विमर्श का विषय नहीं बना और केंद्र सरकार की तरफ से चवन्नी भी राहत पैकेज के रूप में नहीं मिली. 

भागलपुर,पूर्णिया,गोधरा के दंगों से भी पलायन हुआ व देश के सैंकड़ों नागरिक मारे गए।मुजफरनगर नगर फाइल्स या हरियाणा जाट आरक्षण पर हरियाणा फाइल्स भी बननी चाहिए. 

हर नागरिक की मौत का संज्ञान लिया जाना चाहिए. एक नागरिक की जान अडानी-अंबानी की संपदा से 100 गुणा कीमती है. हफ्ता-वसूली की यह मंडी अब खत्म होनी चाहिए. भावुक अत्याचारों का धंधा कब तक चलाया जाएगा?

किसान कौम के बच्चे बंदूक लेकर इनके घरों की सुरक्षा के लिए खड़े हो तब ये लोग बंगलों में जाएंगे. क्यों देश इनका नहीं है क्या? ये नागरिक के बजाय राष्ट्रीय दामाद क्यों बनना चाहते है?

भारत सरकार संसाधन दे रही है आर्मी तैनात है तो डर किससे है?जिससे खतरा है उनके खिलाफ लड़ो!जाट-गुज्जर कश्मीर घाटी में आज भी रह-रहे है उन्होंने कभी असुरक्षा को लेकर रोना-धोना नहीं किया है.

 

 रजत कलसन ने लिखा है-

क्यों नहीं बनती दलित फाइल्स

आजकल बॉलीवुड फिल्म कश्मीर फाइल्स की चर्चा हो रही है जिसमें कथित तौर पर कश्मीरी पंडितों के साथ अत्याचार हुआ था जिसके चलते उन्हें वहां से पलायन करना पड़ा था. 

मेरे पास हरियाणा के दलित समाज के पिछले 12 साल में हुए अत्याचार के मामले जिनमे कत्ल, सामूहिक कत्ल, रेप, गैंगरेप, सामाजिक बहिष्कार, जाति के आधार पर किए जाने वाले अपमान की घटनाएं, दलित महिलाओं के साथ छेड़खानी व अन्य दिल दहला देने वाली घटनाओं की फाइल्स है. 

सुना है जब दर्शक कश्मीर फाइल्स देखकर रो कर रहे थे ,अगर कोई फिल्मकार हरियाणा में दलितों पर हुए अत्याचार की घटनाओं पर फिल्म बनाये तो हरियाणा का राजनीतिक परिदृश्य बदल जाएगा।

सिनेमाघरों में तहलका मच जाएगा जब दर्शकों को दिखाया जाएगा कि

कैसे मिर्चपुर में जातिवादी गुंडों की भीड़ ने वाल्मीकि समाज के एक पिता पुत्री को कमरे में बंद कर जिंदा जला दिया था और पूरी दलित बस्ती को आग के हवाले कर दिया था।

जब हिसार के गांव में एक दलित लड़की चीखती चिल्लाती रही तथा जातिवादी गुंडे गैंगरेप कर उसे फिल्माते रहे। पीड़िता के पिता ने इसके बाद आत्महत्या कर ली थी।

झज्जर के एक गांव में तथाकथित गोरक्षकों की भीड़ ने मरी गाय की खाल उतारने के आरोप में पांच दलितों की बेहरहमी से पीट पीट कर नृशंस हत्या कर दी थी।

गोहाना में पूरी दलित बस्ती को आग के हवाले कर दिया गया था।

एक दलित युवक ने जब कुरुक्षेत्र के पबनावा गांव में लव मैरिज की तो सवर्ण समुदाय ने गुस्से में पूरी दलित बस्ती में आगजनी और तोड़फोड़ कर दी थी।

रोहतक के गांव मदीना में दलित परिवार खेत से काम करके वापस लौट रहा था तो जातिवादी गुंडों ने फायरिंग कर दो दलितों को मौत के घाट उतार दिया था।

रोहतक के ही मोखरा गांव में दलित समाज के व्यक्ति के शव का जातिवादी गुंडों ने सार्वजनिक श्मशान घाट में संस्कार नहीं होने दिया था।

कैथल में मछली चोरी के आरोप में दो वाल्मीकि युवकों की पीट-पीटकर हत्या कर दी थी न्याय के लिए  कैथल के सरकारी अस्पताल में 11 दिन शवों के साथ समाज ने आंदोलन किया था।

हिसार के मीरकां गांव में जातिवादी गुंडों ने दलित समाज के युवकों को चोरी के शक में भरी पंचायत में पिटवाया था जिसमें एक दलित युवक की मौके पर ही मौत हो गई थी।

हिसार के गांव भाटला में दलित बच्चों के साथ मारपीट के मामले में एफआईआर दर्ज करने की रंजिश में मुनादी करवाकर दलित समाज का सामाजिक बहिष्कार किया गया जिसके चलते गांव के दलित समाज बर्बादी के कगार पर आ गए हैं।

गांव छातर में पहले दलित युवकों को पीटा गया जब एफआईआर दर्ज कराई तो जातिवादी गुंडों ने पंचायत की और दलित समाज का सामाजिक बहिष्कार कर दिया यहां से लोगों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ रहा ।

गांव खापड में दलित समाज के नाबालिग बच्चे को चोरी के शक में जातिवादी गुंडों द्वारा सार्वजनिक जगह पर जगह-जगह पीटा गया जब मुकदमा दर्ज कराया तो इन्होंने भी दलित समाज का समाजिक बहिष्कार कर दिया।

हरियाणा तथा भारत में जितने भी हिरासत में मोतें होती हैं, उनमे 80 फ़ीसदी दलित समाज के लोग होते हैं । इस पर कौन फिल्म बनाएगा?

भारत में महिलाओं के खिलाफ जितने भी रेप व गैंग रेप की घटनाएं होती हैं उनमें से 75 फ़ीसदी दलित महिलाएं होती हैं।

 इस पर कौन डॉक्यूमेंट्री बनाएगा?

खाप पंचायत के गुंडों द्वारा सम्मान के नाम पर जितनी हत्या की जाती हैं उसमें से ज्यादातर दलित युवक और युवतियां इन गुंडों का शिकार बनते हैं इसको कोन नोटिस करेगा?

भारत के दलित राष्ट्रपति, दलित कैबिनेट मंत्री को हिंदू मंदिरों में नहीं घुसने दिया इस पर भी जरूर एक फिल्म बननी चाहिए ।

दलित समाज की छात्राओं के साथ गैंगरेप करने के बाद उन्हें कत्ल कर नहरों के किनारों पर फेंक दिया गया । इस तरह के केस हरियाणा के कई जिलों के गांवों में हुए । अगर इस तरह की घटनाएं इन लोगों के साथ होती तो यह लोग पूरे देश में आंदोलन खड़ा कर देते और अभी तक विशेष कानून और कई फिल्में बन जाती।

दलित अत्याचार के मामलों में समाज की पैरवी करने वाले वकीलों व दलित समाजिक अधिकार कार्यकर्ताओं के ऊपर संगीन धाराओं में मुकदमें दर्ज किए गए तथा उन्हें प्रताड़ित किया गया। उनकी लाइफ स्टोरी पर भी फिल्म बननी चाहिए

यह तो कुछ फाइल्स है अगर सारी फाइल्स खोल दें तो फिल्मकारों के कैमरे कम पड़ जाएंगे।

हमारे समाज के लोग जो यूट्यूब पर चैंनल चला रहे हैं, वह तो इस दिशा में पहल कर सकते हैं।

 

रीवा एस सिंग ने लिखा है-

कुछ बातें गाँठ बाँधकर रख लेनी हैं ताकि भारत, भारत ही रहे: 

 

1. सन् 1990 में कश्मीरियों संग जो हुआ उसे बिना लाग-लपेट ग़लत कहें. ब्रह्माण्ड में व्याप्त किसी भी तर्क के आधार पर उसका बचाव करने की चेष्टा न करें.  

2. समूचे भारतवर्ष के मुसलमानों को उस क़त्लेआम पर तर्क-वितर्क करने की ज़रूरत नहीं है. आप वहाँ नहीं थे, न आपसे सफ़ाई माँगी जा सकती है, न आपको सफ़ाई देनी चाहिए. वकालत करने की कोशिश न करें. आप कटघरे में नहीं हैं इसलिए बेकार के तर्क देकर बचाव का प्रयास भी न करें. ऐसी मारकाट का बचाव किसी सूरत में नहीं किया जाना चाहिए. 

3. कश्मीरी पंडितों के साथ जो हुआ वह मुसलमानों ने किया लेकिन भटिंडा, बाराबंकी, बिलासपुर के मुसलमानों ने नहीं किया. कश्मीर के लोगों ने किया इसलिए जब यह विषय उठे तो धर्म के आधार पर चिह्नित कर नफ़रत फैलाने की रवायत न शुरू हो. कश्मीर के कृत्य के लिए समूचे भारत के मुसलमानों को कटघरे में नहीं रखा जा सकता है. 

4. फ़िल्म देखकर आ रहे लोग उन्मादी हो रहे हैं. इस ऊर्जा को सही जगह लगाए. धार्मिक लड़ाई समाधान नहीं हो सकता. उन शरणार्थियों के हित में कदम उठायें, किसी के अहित में नहीं. 

5. देश के वो तमाम कश्मीरी पंडित जो तीन दशक से अपनी ही मिट्टी में शरणार्थी बने हुए हैं, उनके पुनर्वास की बात हो और यह बात बिना किन्तु-परन्तु की जाए. अपना सब कुछ उजड़ते हुए देखना और वहाँ कभी न लौट पाने की पीड़ा आप चाहकर भी नहीं समझ सकते. फ़िल्म देखकर दहाड़ लगाने से बेहतर है उचित कदम उठाना. फ़िल्म देखकर द्वेष न फैलाए. पीड़ितों के हित में कुछ कर सकें तो करें. ज़रूरत उन्हें इसी की है. 

 

आशुतोष कुमार ने लिखा है-

उस कौम के बारे में सोचिए, जिसे रोने और उबलने के लिए भी एक के बाद एक फेंक कहानियों की जरूरत होती. गर्व करने के लिए तो सभी को होती है. जीवन में सब झूठ भी हो, कहीं एक आंसू तो सच्चा होना चाहिए. साफ और तरल.

आरपी सिंह ने लिखा है-

अगर जज लोया फाइल्स फिल्म बनाकर रीलिज कर दी जाय तो क्या भाजपाई उसे टैक्स फ्री करने की मांग करेंगे.

फिल्म को लेकर भाजपा के एक विचारक पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ का एक ट्विवट भी जबरस्त ढंग से वायरल रो रहा है. पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ ने लिखा है- एक बार कश्मीर फाइल्स देखिए... फिर आपके व्यापार, शिक्षा, नौकरी, विकास, बेरोजगारी, मंहगाई, जातिवाद और अपंग धर्मनिरपेक्षता के सारे भूत मात्र दो घंटे पचास मिनट में उतर जाएंगे. द कश्मीर फाइल्स....हर-हर महादेव.

 

 

 

 

 

ये भी पढ़ें...