विशेष टिप्पणी

गुलाब की पत्तियों के बीच दुबका लोकतंत्र

गुलाब की पत्तियों के बीच दुबका लोकतंत्र

नथमल शर्मा

बिलासपुर। देश में आम चुनाव हो रहे हैं । दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में हम अगले पांच बरस के लिए अपनी सरकार चुन रहे हैं । चार चरण पूरे हो चुके हैं और आधी से ज्यादा (374) लोकसभा क्षेत्रों के जनादेश मुहरबंद हो चुके हैं । इन तीन सौ  चौहत्तर  क्षेत्रों के करोड़ों लोग बाएं हाथ की उंगली पर अमिट स्याही लगाकर खुश हैं  (शायद)। परिणाम आते तक इनकी ऊंगलियों से स्याही के निशान मिट चुके होंगे । वैसे तो इस ये चुनाव कोई निशान ही नहीं छोड़ रहा । देश के आम चुनाव में कोई मुद्दा ही नहीं है । यह सबसे गंभीर और भयावह है । लोगों को किस तरह "चुप समाज" में बदल दिया गया है । 

नोटबंदी की नाकामी ,जीएसटी की उलझनों, पंद्रह लाख रुपये के जुमले (?) से शुरू हुई चर्चा राफेल तक आकर ठहरी और फ़िर कोर्ट-कचहरी में उलझकर रह गई । शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी, महंगाई, रोजगारी, खेती-किसानी, काला धन, विकास, पीने का साफ़ पानी, सफ़ाई के लिए तरसते मोहल्ले और गांव-शहर भी । इन सब मुद्दों पर अभी तक तो कोई चर्चा नहीं हुई । देश के आम चुनाव में सारे बिंदु मोदी - मोदी में आकर समाहित हो गए। सिमट कर रह गए । यहां तक कि शहजादा,नामदार, पप्पू भी चर्चा से गायब । चोर से चौकीदार को अलग करते हुए चौकीदार को प्रचार ले उड़ा । और चोर कह रहे देखते ही रह गए । देख भी रहे हैं । पिछली बार चाय वाला कहा तो वही प्रचार ब्रांड हो गया । इस बार चौकीदार । ये है हमारे देश का आम चुनाव । राजनीतिक दलों ने घोषणा पत्र बनाए । चुनाव के दो - चार दिन पहले जारी किए । लेकिन सिवाय दो चार लोक-लुभावन घोषणाओं के किसी भी मुद्दे पर चर्चा नहीं की गई । यानी कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा,तृणमूल, आदि ने भी अपने-अपने घोषणा पत्रों पर पूरी गंभीरता से चर्चा नहीं की । यहां तक इन दलों के कार्यकर्ताओं को तो छोड़िए नेताओं को भी पूरा घोषणा पत्र पता नहीं होगा । जाहिर है इस पर भाषणों में तो बात होती ही नहीं ।और अपने देश में समाज के बौद्धिक वर्ग , पत्रकारों,  सामाजिक कार्यकर्ताओं किसी को भी ये जरूरी ही नहीं लगता कि राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों पर गंभीरता से चर्चा की जाए । 

 इस चुनाव में चर्चा है मोदी- मोदी । यानी अगले पांच बरस के लिए अपनी सरकार चुनने में हमें व्यक्ति को चुनना है । मज़े की बात यह भी कि इस बार तो भाजपा ने खुद को मोदी से छोटा कर लिया है । भाजपा के विज्ञापनों में यही नारा है "अबकी बार मोदी सरकार " । यह नारा "अबकी बार भाजपा सरकार " भी तो हो सकता था । होना ही था । लेकिन नहीं । अब हम अपने लोकतन्त्र को व्यक्ति की गोद में बैठाने तैयार हैं । दुखद यह कि कांग्रेस और बाकी विरोधी दलों ने इस पर एक शब्द नहीं कहा । शायद इसलिए कि इनका कहा बूमरेंग हो जाता  ।कांग्रेस,सपा,बसपा,तृणमूल,बीजद, जैसे दलों से भी तो आंतरिक लोकतंत्र कब का खत्म हो गया । ये सब दल भी तो एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द ही है । लोकतंत्र का दम भरने वाले हम मतदाताओं, जागरूक नागरिकों ने कहां पहुंचा दिया है लोकतंत्र को । जहां लोक हाशिये पर है और व्यक्ति का तंत्र हावी है । 

 ऐसे माहौल में हो रहे हैं देश में चुनाव । ध्यान देने लायक बात यह भी है कि लोगों में भी इस पर कोई गंभीर बात नहीं होती । हम भारतीय खूब राजनीतिक चर्चा करते हैं । हर व्यक्ति देश के तमाम राज्यों का विश्लेषण कर देता है । चुनावी मुद्दों की गंभीरता समझनी हो तो चुनाव प्रबंधन सम्हाल रहे नेताओं से बात करिये । लगेगा कि बाकी सब बेकार की बातें हैं । सबसे बड़ी बात है जाति । किस क्षेत्र या गांव में किस जाति के लोग कितने है और वह किसे वोट देंगे । बस सारा गणित इसी पर । अब देश के प्रधानमंत्री छत्तीसगढ आए । चुनावी भाषणों में बताया कि गुजरात में तेली ही मोदी है । जैसे छत्तीसगढ़ में साहू वैसे गुजरात में मोदी । यानी यहाँ के साहू हमारे । किसी चुनाव में देश के प्रधानमंत्री को अपनी जात बताना पड़ जाए । गज़ब है । ये तो एक उदाहरण ही है । हर गांव, शहर में चुनावी आकलन इसी के आस-पास ही तो है । कुर्मी किस तरफ़ ज्यादा वोट करेंगे या कि ठाकुर, ब्राह्मण किसे वोट दे रहे हैं । मुस्लिम किसके वोट बैंक हैं तो अन्य जातियां किस किसको वोट कर रही है । ये तो हालात है । और हम लोकतंत्र के जिम्मेदार नागरिक होने का दंभ पाले उंगलियों में निशान लगवा रहे हैं । 

 जाति के अलावा धर्म भी एक अघोषित तौर पर घोषित मुद्दा ही है । तभी तो एक प्रदेश का मुख्यमंत्री अली बली कहने का साहस (दुस्साहस) करता है तो कोई नेत्री बजरंग बली को दलित जाति की बता देतीं हैं । कोई नेता किसी के अंतर्वस्त्रों की निम्न बात भी करता है तो कोई नेत्री अपने क्षेत्र में जूते बांटती है और उसी की प्रतिद्वंद्वी नेत्री इस जूते बांटने को क्षेत्र की जनता का अपमान बताती हैं । 

और हां राष्ट्रवाद भी अघोषित तौर पर घोषित मुद्दा । सैनिकों के नाम पर वोट मांगे जाएं । फिर चुनाव आयोग की फटकार के बाद थोड़ा चुप हो जाएं । पर बात को तो चर्चा में ला ही दिया जाए । जो ज्यादा विरोध करे वो देशद्रोही । 

इस तरह के माहौल में हो रहे हैं चुनाव ।  बुनियादी सवाल गायब है । सत्ता पक्ष अपनी उपलब्धियां बताए तो बेहतर होता और विरोधी दल सत्ता की नाकामी के साथ ही वो खुद क्या करेंगे ये समझा पाते तो कुछ बात होती । पर ऐसा कुछ है नहीं । विरोधियों के लिए मोदी ख़तरा है तो सत्ता दल के लिए मोदी ही जरूरी है । इस सवाल विहीन, विचार विहीन दौर पर लाकर खड़ा कर दिया गया है समाज को । यहां पूछने वाले चुप हैं । बोलने वाले चिल्ला रहे हैं । इस शोर में आम आदमी की आवाज़ कहीं नहीं और गुलाब की पत्तियों की बौछार के बीच लोकतंत्र दुबक कर रह गया है,  वह उन कांटों की चुभन महसूस कर रहा है जिनसे गुलाब तोड़े गये । दुबके लोकतंत्र और चुप समाज की तस्वीर में आम चुनाव हो रहे हैं । फिर भी लोकतंत्र पर भरोसा रखने वालों की ताकत से डर तो रहें हैं ही नेता । हां, भव्य रैलियों और कड़प लगे कुर्तों के साथ खुद के सबसे ताकतवर होने का भ्रम पाले हुए सरकार बना लेने और बन जाने को आतुर वे हाथ हिलाते बढ़ रहें हैं आगे । हम अब भी नहीं चेते तो लोकतंत्र में तटस्थ होने के अपराधी होंगे और इतिहास माफ़ नहीं करेगा हमें । 

यह विडंबना ही है कि इस चुनाव में कोई नारा तक भी नहीं है। पहले सकारात्मक, नकारात्मक मुद्दे नहीं तो नारे तो चर्चित होते ही थे । "जय जवान जय किसान ",  "हरित क्रांति ", "गरीबी हटाओ ",  "कांग्रेस का हाथ सबके साथ ",  "ठाकुर बामन बनिया चोर बाकी के सब डीएस फोर","तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार ", "बोफोर्स के दलालों को जूते मारो सालों को", "अच्छे दिन आएंगे ", "विकास ", "विकास पागल हो गया है "।  लेकिन इस चुनाव में शुरू में भीड़ कहती रही "चौकीदार चोर है " और फिर सिर्फ "मोदी मोदी " । देश के आम चुनाव का नारा मोदी मोदी ??

इतना ही नहीं आधे ज्यादा हो चुके चुनाव में किसी पत्रकार की कोई रिपोर्ट चर्चित नहीं । किसी संपादक के किसी संपादकीय या लेख की चर्चा तक नहीं । चैनलों की चर्चा तो सिर्फ बिके हुए हैं तक ही होकर रह गई । कहा जाता था कि अखबार जनमानस तैयार करते हैं, पर अब ऐसा कुछ नहीं रहा । अब तो चैनल या अखबार सूचनाएं तक नहीं देते, विश्लेषण की तो बात ही छोड़िए । विज्ञापनों से आटे पड़े अखबारों में खबरों के लिए बची जगह में नेताओं के मुद्दे विहीन भाषणों के अंश ही तो होते हैं । अब गावों में जाकर या शहरों के ही मोहल्लों में जाकर लोगों से बात करने की तकलीफ़ कोई पत्रकार नहीं उठाता । उसे पता है कि उसके कार्पोरेट मीडिया मालिक को इसकी ज़रूरत नहीं, उनके पास तो विज्ञापनों के पैकेज के साथ ही खबरों के पुलिंदे भी आ जाया करते हैं ।

यह इस भयावह समय का आम चुनाव है जिसका नारा मोदी मोदी होकर रह गया है । विवेक हीन और उन्मादी भीड़ मोदी मोदी चिल्लाती सड़कों पर है जिसे देखकर आम आदमी डरा हुआ है । डर रहा है । कुछ सौ लेखक, कलाकार अपील जारी कर रहे हैं । इस खतरे को पहचानिए । मोदी को आने से रोकिए। ये कुछ सौ ही हैं । मुट्ठी भर भी नहीं । विचार वान समाज के विचारहीन में बदलते दौर में आज गांधी या प्रेमचंद सा एक भी लेखक तो नहीं दिखता जिसके आव्हान को लोग पढें, विचार करें । खाया- पीया,अघाया मध्य वर्ग मस्त है और मोदी के बिना उद्धार नहीं कहकर ऑनलाइन पिज़्ज़ा आर्डर कर रहा है । वंदे मातरम् भले ही याद न हो पर स्वैगी,  ज़ोमैटो, अमेज़न जैसे शब्द याद है नन्हे - मुन्नों को भी और विडंबना कि इस याद होने पर फेसबुक पर ऐसी ही किसी पोस्ट को लाइक करते हुए मम्मी पापा गर्वित हैं । देश में  आम चुनाव हो रहे हैं ।

 

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