संस्कृति

बिटको-बिनाका और...

बिटको-बिनाका और...

अब आपसे कोई नहीं कहता होगा कि बेटा सुबह हो गई है चलो मंजन कर लो, लेकिन किसी वक्त मां चिल्लाती थीं और हाथों में बिटको का काला दंतमंजन थमा देती थी. मंजन काला अवश्य होता था मगर दांत सफेद हो जाते थे. अब बाजार में बिटको पहले आया या बिनाका टूथपेस्ट...इस बारे में कोई पुख्ता जानकारी मेरे पास नहीं है लेकिन दांतों को चमकाने के लिए इन दो ब्रांडों का इस्तेमाल खूब किया है. बीच में थोड़े समय के लिए फोरहेंस टूथपेस्ट भी आया था. यह पेस्ट बाजार से कब गायब हुआ पता ही नहीं चला.

बिनाका के बाद सिबाका ने भी अपनी जगह बनाई थीं. अब मंजन में शायद डाबर का लाल दंतमंजन ज्यादा लोकप्रिय है. इस मंजन को लोकप्रिय बनाने में टीपी जैन नाम के एक कलाकार का भी बड़ा योगदान है. टीपी जैन ब्लैक एंड वाइट टीवी में मंजन का विज्ञापन करते हुए नजर आते थे.उनका एक फेमस विज्ञापन यह भी था- भाड़ा नहीं देना है तो मकान खाली कर दो. मंजनों में बंदर छाप, विठोबा और वज्रदंती का भी बोलबाला रहा. फिल्मी परदे पर एक बूढ़ा अब भी अपने मजबूत दांतों से अखरोट तोड़ते रहता है. हालांकि काला दंतमंजन करने वालों को जब हिकारत की नजर से देखा जाने लगा तब बिनाका मेरी जिंदगी का हिस्सा बना.उन दिनों रेडियो पर अमीन सयानी बिनाका गीत माला प्रस्तुत करते थे. इस पेस्ट की लोकप्रियता शायद इस वजह से भी ज्यादा हो गई थीं. मुझे भी लगता था कि यार जिस पेस्ट को मैं इस्तेमाल करता हूं उस पेस्ट से हेमा मालिनी भी मुंह धोती है.उन दिनों अफवाह फैलाने वाले तंत्र नहीं थे. जैसे-तैसे यह सूचना मिल ही जाती थीं कि कौन हीरो क्या कर रहा है और कौन सी हिरोइन किस गुंताडे में हैं.ज्यादातर सूचनाएं सच के करीब होती थीं.

मुझे याद है कि जब घर में पहली बार बिनाका पेस्ट आया था तब हम पांचों भाई लाइन से अपनी-अपनी उंगली लेकर खड़े हो गए थे. पिता भी नाप-जोखकर सबकी उंगली में पेस्ट लगाया करते थे.पेस्ट को बड़े जतन से किसी ऊंची सी जगह पर संभालकर रख दिया जाता था.एक बड़ा सा बिनाका पेस्ट महीने भर चलता था, लेकिन एक रोज पिता ने जल्दी-जल्दी खत्म हो रहे पेस्ट को लेकर चिंता जताई तो चुगलखोर भाई ने उन्हें बता दिया कि राजू यानी मैं पेस्ट को खाता हूं. बात तो सही थीं. चुगलखोर भाई की वजह से मैं कई बार पीटा गया. हालांकि जब मेरी कुटाई हो जाती थीं तब चुपके से रात में भाई ही रोटी भी खिलाता था. रोटी खिलाने का उसका अंदाज बहुत ही शानदार था. उसे पता होता था कि रसोईघर में रोटी और सब्जी कहां रहती थीं.रात के अंधेरे में रोटी-सब्जी लाकर वह गाता था- जो खाने की चीज है लोग उसे खाते नहीं है...पेस्ट खाकर जूते खाते हैं और जरा भी शर्माते नहीं हैं. रात के अंधेरे में गाना सुनाने के लिए पिताजी उसे भी डांटते थे लेकिन मुझे लगता था कि एक तरह से वह मख्खनबाजी करके पिताजी को खुश कर लेता था और मुझे भूखा सोने भी नहीं देता था. उन दिनों मैं यह भी सोचता था कि यार...कोई ऐसा पेस्ट बनना चाहिए जिसे रोटी पर चुपड़कर खाया जा सकें. रोटी भी खा लेंगे और मुंह भी धुल जाएगा.

राजकुमार सोनी की फेसबुक वॉल से

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