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छत्तीसगढ़ के नकलचोर फिल्मकारों के मुंह पर करारा तमाचा है मंदराजी

छत्तीसगढ़ के नकलचोर फिल्मकारों के मुंह पर करारा तमाचा है मंदराजी

राजकुमार सोनी

आज हरेली तिहार है...और अभी थोड़ी देर पहले ही नाचा के जनक दाऊ मंदराजी के जीवन पर बनी एक बेहतर फिल्म देखकर लौटा हूं. हालांकि यह फिल्म मुझे उसी रोज देख लेनी चाहिए थीं जिस रोज प्रदर्शित हुई थीं, लेकिन तब एक इमरजेंसी ने ऐसा होने नहीं दिया. इस बीच कई पाठकों ने फोन और मैसेज के जरिए यह जानना चाहा कि फिल्म मंदराजी पर समीक्षा कब पढ़ने को मिलेगी ? अपने पाठकों की इस जिज्ञासा के लिए उनका शुक्रिया अदा करता हूं. मेरे पाठक सीमित अवश्य है, लेकिन समझदार है. मैं अपने समझदार पाठकों को भीड़तंत्र का हिस्सा नहीं मानता हूं इसलिए फिल्म के बारे में राय व्यक्त करने में जो देरी हुई है उसके लिए क्षमा मांगता हूं. पाठकों और दर्शकों से एक आग्रह यह भी करना चाहता हूं कि चाहे जो स्थिति बने... यह फिल्म अवश्य देखी जानी चाहिए. एक निवेदन छत्तीसगढ़ की संवेदनशील भूपेश सरकार से भी है. जैसे भी हो... इस फिल्म को टैक्स फ्री कर देना चाहिए क्योंकि यह फिल्म नाचा के पुरोधा और हमारे पुरखा दाऊ मंदराजी को सच्ची श्रद्धाजंलि तो देती ही है, फिल्म छत्तीसगढ़ की माटी और उसकी महक को जिंदा रखने का काम भी करती है. यह छत्तीसगढ़ की पहली बायोपिक फिल्म ही नहीं बल्कि यह छत्तीसगढ़ की पहली असली फिल्म भी है.

मंदराजी... रवेली नाचा पार्टी के संचालक दाऊ मंदराजी के जीवन से प्रेरणा लेकर बनाई गई फिल्म है. छत्तीसगढ़ के नकलचोर फिल्मकार अब तक यह समझ ही नहीं पाए हैं कि प्रेरणा और नकल में फर्क होता है. प्रेरणा आपको देर-सबेर ही सही... इतिहास में आपकी जगह तय करती है. जबकि नकलचोरी केवल आपके मुनाफे में इजाफा करती है और आपको कूड़ेदान का हिस्सा बनाकर छोड़ देती है. यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि छत्तीसगढ़ के सिने इतिहास में जब कभी भी जिन दो-चार फिल्मों का जिक्र होगा उनमें कहि देबें संदेश के बाद मंदराजी का उल्लेख भी अवश्य होगा.

यह सही है कि अभी मंदराजी को वैसा दर्शक वर्ग नहीं मिल पाया है जैसा दर्शक वर्ग एक लंपट फिल्मकार की लंपट फिल्म को मिला है और लगातार मिल रहा है. ( लंपटाई एक प्रवृति भी है जो अंधभक्तों और चमचों में हावी रहती है. ) बावजूद इसके मेरा मानना है कि मंदराजी धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ेंगी. यह फिल्म अपनी बेहतर मौलिक पटकथा ( मुंबईयां चोरी नहीं ) चुस्त संपादन, बेहतर निर्देशन, उत्तम प्रकाश व्यवस्था, लोकधुनों की महक और कलाकारों के सधे हुए अभिनय के लिए हमेशा याद रखी जाएगी.

जब फिल्म देख रहा था तो यह सोचकर ही बैठा था बस पन्द्रह-बीस मिनट में हिंदी की किसी चालू फिल्म का मसाला सामने आ जाएगा और मैं अपना सिर फोड़ने के लिए किसी दीवार की तरफ देखूंगा, लेकिन इस फिल्म में सड़क छाप कोई मसाला देखने को नहीं मिला. न खुली जीप में घूमते हुए गुंडे मिले, न ही गुलाबी टावेल लपेटकर नहाती हुई हिरोइन मिली और न ही छत्तीसगढ़ के सलमान खान-अरबाज खान के दर्शन हुए.यह जानकार भी आश्चर्य हुआ कि फिल्म का निर्माण एवं निर्देशन 27 साल के एक युवक विवेक सार्वा ने किया है. विवेक के बारे में यह जानकारी भी मिली कि उसने फिल्म बनाने के पहले बकायदा मंदराजी के जीवन को लेकर अध्ययन किया और कई-कई रातें रवेली गांव और ग्रामीणों के बीच गुजारी. फिल्म का छायांकन विवेक के दोनों भाई नागेश और रमाकांत सारवा का है. दोनों भाइयों ने खेत- खलिहान के साथ-साथ ग्रामीण जन-जीवन को अपने कैमरे में इतनी खूबसूरती से कैद किया है कि बस...हर दृश्य आंखों में समा जाता है और दिल बाग-बाग हो जाता है.

फिल्म में टाइटल के प्रारंभ होने के थोड़ी देर बाद से ही सुधि दर्शक इस अहसास से गुजरने लगता है कि वह एक क्लासिक फिल्म का हिस्सा बन गया है. छत्तीसगढ़ के नकलचोर फिल्मकारों ने अपनी फिल्म से जिस गांव को गायब किया है वह गायब गांव इस फिल्म में दिखाई देता है और पूरी शिद्दत के साथ दिखाई देता है. फिल्म में दो-चार मंजे हुए कलाकारों के साथ ग्रामीण चेहरों को देखना सुखद लगता है. फिल्म मंदराजी के बचपन से लेकर जवानी और बुढ़ापे की कथा कहती है. यह बात हम सब जानते हैं कि मंदराजी ने नाचा के लिए अपना सब कुछ त्याग दिया था. फिल्म में मंदराजी के बच्चे की मौत का दृश्य जितना दर्दनाक है उतना ही मंदराजी का इस दुनिया से कूच कर जाना भी आंखों को नम कर देता है. फिल्म में अभिनेता करण खान का अभिनय बेहद उम्दा है. कई बार वे मार्मिक संवाद के जरिए दर्शकों की आंखों को नम कर जाते हैं तो कई बार सिर्फ हाव और भाव से. फिल्म में मंदराजी की पत्नी रमहिन की भूमिका ज्योति पटेल ने भी बड़ी शिद्दत के साथ निभाई है. ज्योति पटेल लोककला मंच से जुड़ी हुई एक बेजोड़ कलाकार भी है. फिल्म में मंदराजी के पिता की भूमिका में अमर सिंह लहरे है. अमर सिंह वही कलाकार है जो लंबे समय तक हबीब तनवीर के नया थियेटर से जुड़े हुए थे. उनका सधा हुआ अभिनय फिल्म को एक ऊंचाई पर ले जाता है. फिल्म में लालूराम की भूमिका में हेमलाल कौशल का अभिनय भी बेजोड़ है. फिल्म में यह दिखाया गया है कि कैसे नाचा पार्टी खड़ी होती है और जब गांव-गांव में पार्टी धूम मचाने लगती है तब अचानक कला के बड़े ठेकेदार पैदा हो जाते हैं और कलाकारों की तोड़फोड़ में लग जाते हैं. पार्टी के बिखरने के साथ ही पार्टी को खड़ा करने वाला दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो जाता है. फिल्म में जब दाऊ रामचंद्र देशमुख और हबीब तनवीर का जिक्र आता है तो यह जानने का मौका मिलता है कि चमक-दमक और पैसों की भूख कैसे गांव के भोले-भाले और कला के प्रति समर्पित कलाकारों का अपहरण कर लेती है.

कुल मिलाकर फिल्म में वह सब कुछ है जो एक अच्छी, उम्दा और प्रेरणादायक फिल्म में होना चाहिए. बस... फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि इसमें लंफगई और टुच्चई नहीं है. फिल्म की इसी कमी को सड़कछाप निर्माता और निर्देशक मनोरंजन कहते हैं. फैमली ड्रामा कहते हैं और जनता के लिए फिल्म बनाना भी कहते हैं.

 

विवेक सार्वा ने भी जनता के लिए ही फिल्म बनाई है, मगर वे जनता की सांस्कृतिक चेतना को समृद्ध करने में ज्यादा प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं. छत्तीसगढ़ में मंदराजी जैसी और भी कई फिल्में बननी चाहिए. छत्तीसगढ़ को ऐसी सशक्त और साफ-सुथरी फिल्म की जरूरत इसलिए भी है क्योंकि यहां पर आंय-बांय-शांय पैसा लगाकर केवल मुनाफे पर जोर देने वाले कुकुरमुत्ते फिल्मकारों की बाढ़ आई हुई है. कुकुरमुत्तों ने इतना ज्यादा कचरा परोस दिया है कि जनता का स्वाद बिगड़ गया है. अब सबले बढ़िया छत्तीसगढ़ियां को भी कटीली कमर का लटका- झटका, गुलाबी टॉवेल, बात-बात पर खून-खच्चर, नंगापन, दादा कोड़के का संवाद और चोरी-चकारी का सामान पसन्द आने लगा है.

बहरहाल विवेक सार्वा और उसकी पूरी टीम को मैं इसलिए बधाई देता हूं क्योंकि उन्होंने अपने मौलिक और साहसिक काम के जरिए नकलचोर फिल्मकारों के मुंह पर जोरदार तमाचा मारा है. फिल्म चलती है या नहीं चलती है... यह उनके लिए महत्वपूर्ण है जो मुनाफे के खेल में लगे हुए हैं, मेरे लिए महत्वपूर्ण यह है कि विवेक ने भीड़तंत्र में शामिल होना जरूरी नहीं समझा. वैसे भी अगर किसी के पास विवेक है तो वह भीड़तंत्र का हिस्सा कभी नहीं बनता है? फिर से बधाई और ढेर सारी शुभकामनाएं......

 

 

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