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लेंडगा…भोकवा... तोर अवकात का हे

लेंडगा…भोकवा... तोर अवकात का हे

राजकुमार सोनी

लेंडगा... भोकवा... तोर अवकात का हे... जी हां... यह सब छत्तीसगढ़ी फिल्मों के शीर्षक यानी टाइटल है. इन नामों को सुनकर आपके चेहरे पर एक मुस्कान तैर सकती है और आप सोच सकते हैं कि क्या यह मजाक है, लेकिन यही सच है.छत्तीसगढ़ में हर दूसरे-तीसरे हफ्ते रिलीज होने वाली फिल्मों के नाम कुछ इसी तरह के होते हैं. ( कुछ फिल्में बेहतर बनती है तो उनके नाम भी बेहतर होते हैं.) लेकिन ज्यादातर शीर्षक इसी तरह के रोचक और हैरत में डालने वाले होते हैं. छत्तीसगढ़ के एक बड़े निर्माता-निर्देशक सतीश जैन का कहना है कि वे पापुलर सिनेमा बनाते हैं ताकि दर्शकों का भरपूर मनोरंजन होता रहे. अब छत्तीसगढ़ के दर्शकों का ठीक-ठाक और स्वस्थ मनोरंजन हो रहा है या नहीं यह शोध का विषय है, लेकिन मोटे तौर पर लगता है कि छत्तीसगढ़ में फिल्में स्वस्फूर्त ढंग से नहीं बल्कि निर्माता-निर्देशकों के प्रबंधन से खुद को खींच रही है. फिल्मों के एक जानकार का कहना है कि छत्तीसगढ़ में अब भी बहुत से लोग अपना घर-बार- खेत-खार बेचकर फिल्म बना रहे हैं. एक निर्माता तो इस कदर बरबाद हो गया था कि उसे कर्जदारों से बचने के लिए श्मशानघाट में जाकर सोना पड़ता था. घर-बार और खेत-खार बेचने के बाद भी अगर दो आंखे बारह हाथ... मदर इंडिया, दो बीघा जमीन जैसी फिल्म नहीं बनती है तो क्या फिल्म निर्माण करने वाले के जज्बे को सलाम किया जा है. अभी छत्तीसगढ़ के फिल्मकारों के काम को सैल्यूट करने जैसी स्थिति नहीं बन पाई है. खैर... घर फूंक तमाशा देखने- दिखाने जैसे मुहावरे को चरितार्थ करने वाले निर्माता और निर्देशकों की बात फिर कभी. आज तो आप कुछ मनोरंजक शीर्षक यानी टाइटल से गुजरिए और सोचिए कि इन फिल्मों का टाइटल ऐसा क्यों रखा गया. क्या वजह थी. अगर आपके पास सोचने-समझने का वक्त नहीं है तो एक साहित्यकार का सिर्फ यह कथन याद रखिए- हर राज्य की एक स्थानीयता होती है और स्थानीयता की अपनी एक रंगत होती है... जब रंगत बिगड़ जाती है तो सब कुछ बिगड़ जाता है.

अंग्रेजी प्रेम

छत्तीसगढ़ के हमारे फिल्मकारों को अंग्रेजी से बड़ा प्रेम है. चलिए कुछ मजेदार शीर्षक देखिए- हीरो नंबर वन, मिस्टर टेटकूराम, लैला टिपटॉप- छैला अंगूठाछाप, सोल्जर छत्तीसगढ़िया, छत्तीसगढ़ के हैंडसम, लव दीवाना, हमर फैमली नंबर वन, आईलवयू, बीए फर्स्ट ईयर, बीए सेंकड ईयर, टिकट द छालीवुड ( पता नहीं ये फिल्म है या नहीं ) बालीफूल... वेलकम टू बस्तर, हार्ट बीट. मोर भाई नंबर वन.

मोर-तोर और मया का चक्कर

छत्तीसगढ़ी के फिल्मकार मोर-तोर और मया जैसे शब्दों का खूब इस्तेमाल करते हैं. सतीश जैन की फिल्म मोर छइंया-भुइंया के बाद हर दूसरी फिल्म के आगे या पीछे मोर शब्द चस्पा रहता था. इन शब्दों की महत्ता अब भी बरकरार है. जरा बानगी देखिए- मोर धरती मैया, मोर संग चलव मितवा, मोर संग चलव, मोर सपना के राजा, मोर गंवई गांव, ए मोर बांटा, अब मोर पारी हे, मोर गांव मोर करम, माटी मोर महतारी, मोर सैंया, मोर जोड़ीदार, मोर डउकी के बिहाव, सुंदर मोर छत्तीसगढ़िया. फिल्म निर्माता प्रेम चंद्राकर ने मया बनाई तो मया की बहार आ गई थी. उनकी फिल्म मया देदे- मया लेले के बाद चारों तरफ मया-मया की धूम मच गई थी. तोर मया के मारे, मया, मया टू, मया होगे रे, मया के बरखा, मया म फूल मया म कांटे, तोर मया का जादू हे, मया के चिट्ठी, मया मंजरी, आशिक मयावाले तोर मया के खातिर, दीवाना तोर नाम के, तोर बिना.... मया ब्रांड फिल्में है.

छत्तीसगढ़ी में शोले

अब से कुछ अरसा पहले हिंदी फिल्मों के निर्माता-निर्माता निर्देशक रमेश सिप्पी ने शोले बनाकर इतिहास रच दिया था. हालांकि यह फिल्म भी सेवन समुराई और व्ही शांताराम की फिल्म दो आंखे बारह हाथ का मिश्रण थी, बावजूद इसके दर्शकों ने इस फिल्म को सिर आंखों पर बिठाया. छत्तीसगढ़ में भी छत्तीसगढ़ के शोले नाम से एक फिल्म बनी. यह फिल्म कब आई और कब चली गई इसका पता नहीं चला अन्यथा जो दर्शक डुप्लीकेट अभिनेताओं से सजी रामगढ़ के शोले को देखने गए थे वे छत्तीसगढ़ के शोले को भी देखने जाते. तहलका, गोलमाल और छलिया हिंदी में बनी फिल्में है. छत्तीसगढ़ी में भी तहलका, गोलमाल और छलिया बन चुकी है. रामसे बद्रर्स हॉरर फिल्मों के लिए जाने जाते हैं. उनकी कई फिल्मों का मिक्चर आप छतीसगढ़ की हॉरर फिल्म अंधियार में देख सकते हैं.

मजेदार... लेकिन सोचनीय टाइटल

पढ़ाई म जीरो-तभो ले हीरो, लेंडगा नंबर वन, भकला, भोकवा- 2, टूरा चायवाला, टूरा रिक्शावाला, तीन ठन भोकवा, सुपर हीरो भैंइसा, अलकरहा टूरा, राधे अंगूठा छाप, प्रेम अमर हे, गदर मताही, दबंग दरोगा, दीवाना छत्तीसगढ़िया, राजू दिलवाला ऐसे टाइटल है जो यह सोचने के लिए मजबूर करते हैं कि आखिर इन फिल्मों में नया क्या हो सकता है. सतीश जैन की एक फिल्म जो आने वाली है का नाम है- हंस झन पगली फंस जबे... ( इस स्लोगन को आपने कई बार ट्रकों के पीछे लिखा हुआ देखा होगा. हंस मत पगली प्यार हो जाएगा. ) महूं कुंआरा... तहूं कुंआरा को देखकर आने वाले बताते हैं कि यह फिल्म एक नाटक मिसेस अहलुवालिया, हिंदी की फिल्म पेइंग गेस्ट और मुझसे शादी करोगी का अच्छा-खासा मिक्चर है. यह सही है कि भोजपुरी फिल्म को मारीशस, नेपाल, दिल्ली-पंजाब, यूपी, बिहार और मुंबई को बड़ा बाजार नसीब है. छत्तीसगढ़ की फिल्में केवल 30 सेंटरों पर हाथ-पांव मारती है. सिनेमा के जानकार मानते हैं कि छत्तीसगढ़ में अच्छा सिनेमा बनेगा तभी उसकी धूम सब जगह मच पाएगी. दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पा रहा है. जानकार इसकी सबसे बड़ी वजह है नकल को मानते हैं. इधर फिल्मकार बड़ी बेशर्मी से यह कहने से नहीं चूकते- हम नकल भी अकल लगाकर मारते हैं.

( मैं छत्तीसगढ़ी बोली-बानी और छत्तीसगढ़ी सिनेमा का विरोधी नहीं हूं. जितना आप छत्तीसगढ़ से प्रेम करते हैं उतना मैं भी करता हूं. यह छत्तीसगढ़ जितना आपका है उतना ही मेरा भी है. जिस तरह से महाराष्ट्र, बंगाल और दक्षिण का सिनेमा विश्व पटल पर अपनी जगह बना लेता है ठीक वैसे ही छत्तीसगढ़ का सिनेमा भी छत्तीसगढ़ का माथा ऊंचा करें यहीं मंशा है.मुझे न तो पापुलर सिनेमा से परहेज हैं और न हीं मनोरंजक सिनेमा से. मेरा मानना है कि सिनेमा दो ही तरह का होता है- या तो अच्छा होता है या खराब. अच्छा सिनेमा बनेगा तो हर किसी को अच्छा लगेगा, सिनेमा में सपना होता है और सपना हर किसी को पसन्द आता है. मुझे उम्मीद का सिनेमा पसन्द है. ) 

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