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झीरम के नक्सली हमले से किसको था फायदा ?

झीरम के नक्सली हमले से किसको था फायदा ?

झीरमघाटी का सच कहीं दम तो नहीं तोड़ देगा !

रायपुर. झीरम घाटी एक बार फिर चर्चा में हैं. बस्तर की इस घाटी में 25 मई 2013 को जो कुछ घटित हुआ वह कलंक के सिवाय कुछ भी नहीं है. एक राजसत्ता प्रमुख के माथे पर जो दाग लगा है वह कभी धुल भी पाएगा इसकी संभावना कम है. इधर इस घटना की जांच के लिए गठित न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट सीधे राज्यपाल को सौंप दिए जाने के बाद कई तरह की बातें होने लगी है. प्रशासन व राजनीति के गलियारों में सवालों का पहाड़ खड़ा हो गया है. सोमवार को एक बयानवीर राजनेता का बयान सामने आया है. राजनेता का कहना है कि इस रिपोर्ट को लेकर किसी भी तरह की राजनीति करना न्यायालय की अवमानना होगी. संभवतः सरकार के किसी मंत्री का जिक्र आने की दशा में अनुच्छेद 164 में परिभाषित सामूहिक जिम्मेदारी के नियम को ध्यान में रखकर ही वरिष्ठ न्यायिकअधिकारी ने महामहिम राज्यपाल को रिपोर्ट सौंपी है. मामले में वरिष्ठ अधिवक्ता सुदीप श्रीवास्तव का कहना है कि कर्नाटक के जिस प्रकरण का उदाहरण देकर राज्यपाल को रिपोर्ट सौंपने की बात कहीं जा रही है दरअसल वह  भ्रष्टाचार से संबंधित थीं जबकि झीरम का मामला सुनियोजित ढंग से किया गया नरसंहार था.

सोशल मीडिया व अन्य माध्यमों में यह बहस इसलिए उठ खड़ी हुई हैं क्योंकि दो दिन पहले एक वरिष्ठ न्यायिक अधिकारी ने झीरम घाटी में घटित घटना की जांच रिपोर्ट सीधे राज्यपाल को सौंपी दी थीं. इस रिपोर्ट को सौंपे जाने के बाद से ही भूचाल आ गया है. छत्तीसगढ़ कांग्रेस के संचार प्रमुख सुशील आनंद शुक्ला का कहना है कि जब रिपोर्ट सार्वजनिक होगी तब उसके बिन्दुओं पर अलग से बात होगी... अभी तो इस बात को लेकर आपत्ति है कि  रिपोर्ट की अनुशंसाओं को जिसे लागू करना है वह रिपोर्ट सरकार को ही नहीं सौंपी गई. शुक्ला का कहना है कि जो आयोग दो महीने पहले सरकार को खत लिखकर कहता है कि अभी थोड़ा और समय चाहिए...वहीं आयोग अचानक रिपोर्ट सौंप देता है. रिपोर्ट में क्या होगा. कांग्रेस के बड़े नेताओं की हत्या के लिए कोई सिस्टम दोषी होगा या कोई व्यक्ति ( राजनेता या अफसर ) फिलहाल इस पर कोई कयास लगाना बेमानी होगी. अभी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई है, फिर भी कई सुगबुगाते सवाल ऐसे हैं जो पूर्वीवर्ती सरकार को शक के दायरे में खड़े करते हैं.

दरअसल वर्ष 2013 में चुनावी बयार के दौरान यह साफ झलक रहा था कि इस बार परिवर्तन लहर का असर होगा और नंदकुमार पटेल की अगुवाई में कांग्रेस सत्ता में आ जाएगी. झीरम की घटना में जब कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं का सफाया हो गया तो यह चर्चा भी तेज हुई कि अब कांग्रेस के पास कोई दमदार नेतृत्व बचा नहीं है. नेता के रुप में अजीत जोगी, चरणदास महंत और भूपेश बघेल का चेहरा ही सामने था. चरणदास महंत बतौर कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अपनी पारी खेल रहे थे, लेकिन वे उस दमदार तरीके से खुद को प्रस्तुत नहीं कर पाए जो दमदारी नंदकुमार पटेल या भूपेश बघेल में थीं. घटना के दिन अजीत जोगी का हेलिकाप्टर से पहले ही रायपुर लौट आना और राजभवन जाकर भाजपा की सरकार को बर्खास्त करने के लिए फरियाद करना भी काम नहीं आया क्योंकि अफवाह तंत्र उनकी भूमिका को लेकर ही प्रचार करने में लगा हुआ था और वह इसमें कामयाब भी रहा. एक बड़ी घटना के बाद भी भाजपा की सरकार सत्ता में लौट आई लेकिन झीरम का मामला अब भी एक सवाल बना हुआ है.

सबसे बड़ा सवाल तो यहीं कि क्या कांग्रेस अपने नेताओं को खोना चाहती थीं. कांग्रेस के नेताओं के शहीद हो जाने से किसे फायदा होता ? इस पूरे खेल का असली मास्टर माइंड कौन था. वर्ष 2013 में पूर्व मुख्यमंत्री की विकास यात्रा और कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा साथ-साथ चल रही थीं. छह मई को बस्तर में जब विकास यात्रा निकली तब 1789 सुरक्षाकर्मी तैनात थे. यहां तक पूर्व मुख्यमंत्री की सुरक्षा में 199 सुरक्षाकर्मी स्थाई तौर पर लगे हुए थे. जबकि 23 मई को भैरमगढ़ से बांदापाल सड़क मार्ग पर 20 किलोमीटर की परिवर्तन यात्रा की सुरक्षा के लिए राज्य सरकार ने मात्र 318 सुरक्षाकर्मी ही मुहैया करवाए थे. इसी प्रकार 25 मई को घटना के दिन तोंगपाल से जगदलपुर बार्डर तक मात्र 135 सुरक्षाकर्मी शामिल थे. इनमें से अधिकांश सुरक्षाकर्मी केशलूर की सभा में ही लगे थे. बस्तर के महेंद्र कर्मा, कवासी लखमा और नंदकुमार पटेल को जेड़ प्लस सुरक्षा दी गई थीं, लेकिन यह सुरक्षा भी घटना के दिन अपर्याप्त थीं. यह  अफवाह भी उड़ाई गई थीं कि कांग्रेस ने ऐन मौके पर यात्रा का रुट चेंज किया था जबकि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने अपने बयान में यह साफ तौर पर स्वीकारा है कि कहीं कोई परिवर्तन नहीं किया गया था.

इधर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भी सोमवार को केंद्र और एनआईए की भूमिका को लेकर सवाल उठाए हैं. बघेल ने कहा कि हम जांच करना चाहते हैं, लेकिन हमें रोका जा रहा है. उन्होंने कहा कि न्यायिक जांच आयोग बयानों के आधार पर ही अपना काम करता है वह घटना स्थल पर जाकर जांच नहीं कर सकता. यह काम जांच एजेंसियां करती है. हमने चुनावी घोषणा पत्र में झीरम कांड की जांच कराने का वादा किया था. जब हम सरकार में आए तो हमने एसआईटी का गठन किया. नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी यानि एनआईए ने पहले ही अपनी फायनल रिपोर्ट सौंप दी थीं. जब हमने केस डायरी मांगी तो हमें केस डायरी  नहीं दी गई. कई बार पत्राचार किया गया तब भी केस डायरी नहीं दी गई. आखिर केंद्र सरकार किसको बचाना चाहती है. किस तथ्य को छिपाना चाहती है. बघेल ने कहा कि एनआईए जैसी एजेंसियां कैसे काम करती है इसका उदाहरण यह है कि जो लोग घटना स्थल पर मौजूद थे उनमें से अधिकांश से पूछा ही नहीं गया. एनआईए को आंध्र की  जेल  में बंद नक्सली लीडर गुडसा उसेंडी से भी पूछताछ करनी थीं,लेकिन एनआईए ने उससे भी पूछताछ नहीं की. बघेल ने कहा कि कलक्टर एलेक्स पाल मेमन का नक्सलियों ने अपहरण कर लिया था. पूर्ववर्ती सरकार ने बातचीत करके उन्हें छुड़ाया. क्या बातचीत हुई यह तो पता नहीं लेकिन तमाम बंधक छोड़े गए. जब कांग्रेस के नंदकुमार पटेल और दिनेश पटेल का नक्सलियों ने अपहण कर लिया था तब उन्हें गोली मार दी गई. भाजपा की तत्कालीन सरकार और केंद्र सरकार इस बात को अच्छी तरह से जानती है साजिश किसने रची है. किसको बचाया जा रहा है.

मुख्यमंत्री बघेल ने और भी कई सवाल उठाए हैं, लेकिन उनके सवालों से अलग एक बड़ा सवाल यह भी तैर रहा है कि क्या कभी नक्सलियों ने भाजपा के  पूर्व मुख्यमंत्री पर हमला किया था ? अगर इसका जवाब हां में हैं तो वह तिथि सार्वजनिक होनी चाहिए और अगर जवाब ना में हैं तो नक्सलियों की मेहरबानी की वजह अवश्य तलाशी जानी चाहिए.

 

 

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