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बेगुनाह आदिवासियों को मौत के घाट उतारने वाले कल्लूरी की जेब से पैसा निकालो और मुकदमा दर्ज करो !

बेगुनाह आदिवासियों को मौत के घाट उतारने वाले कल्लूरी की जेब से पैसा निकालो और मुकदमा दर्ज करो !

रायपुर. बस्तर में अपनी पदस्थापना के दौरान फर्जी मुठभेड़ के जरिए आतंक का पर्याय रहे एसआरपी कल्लूरी एक बार फिर सुर्खियों में है. अभी हाल के दिनों में उनके नाम की चर्चा इस बात को लेकर है कि भाजपा के शासनकाल उन्होंने जिन सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हत्या का फर्जी मुकदमा दर्ज करवाया था उन सभी को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने निर्दोष मानते हुए कांग्रेस की मौजूदा सरकार को मुआवजा देने को कहा है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के इस निर्देश के बाद यह सवाल भी उठ रहा है कि क्यों न मुआवजे की रकम कल्लूरी और उनके साथ अपराधिक कृत्य में लिप्त रहे अफसरों से वसूली जाय. सामान्य तौर पर किसी भी घटना के लिए सरकार ही सीधे तौर पर जवाबदेह होती है, लेकिन कई मामलों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर शामिल रहे अंग को भी जवाबदेह माना जाता है. अब से कुछ बरस पहले जब नर्मदा बचाओ आंदोलन में शामिल रहे ग्रामीणों को फर्जी मुकदमों के तहत जेल में ठूंसा गया था तब मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के जस्टिस श्री पटनायक ने उस समय के एसडीएम और लाठी चार्ज में शामिल रहे अफसरों से जुर्माना वसूलने का ऐतिहासिक निर्णय दिया था. कांग्रेस की मौजूदा सरकार भी चाहे तो कल्लूरी और उनके सहयोगी अफसरों की तनख्वाह से कटौती कर पीड़ितों को मुआवजे की राशि प्रदान कर सकती है. अगर ऐसा होता है तो यह उदाहरण झूठे मामले गढ़ने और बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतारने वाले अफसरों के लिए एक सबक होगा.

गौरतलब है कि वर्ष 2016 में दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर नंदिनी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर अर्चना प्रसाद, माकपा के राज्य सचिव संजय पराते, सामाजिक कार्यकर्ता विनीत तिवारी, मंजू कोवासी और मंगल कर्मा आदिवासियों के मौलिक अधिकारों पर हनन और ज्यादतियों की शिकायतों का जायजा लेने के लिए बस्तर दौरे पर थे. दौरे के दौरान पहले तो उन्हें डराया-धमकाया गया, लेकिन जब सामाजिक कार्यकर्ता गांव-गांव घूमकर तथ्य एकत्रित करने लगे तब कुछ ग्रामीणों के जरिए दरभा थाने में इस बात की शिकायत दर्ज करवाई गई कि दिल्ली से आए हुए लोग ग्रामीणों को शासन के खिलाफ भड़काने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि जिन दिनों कार्यकर्ताओं का बस्तर दौरा चल रहा था तब यह चर्चा भी कायम थीं कि कल्लूरी और अग्नि संस्था से जुड़े हुए लोग हत्या जैसी घटना को भी अंजाम दे सकते हैं. यही एक वजह थीं कि टीम के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर को अपनी पहचान और नाम बदलकर रहना पड़ा था. सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ ऐसा कोई वाक्या तो नहीं हुआ, लेकिन पांच नवम्बर 2016 को सभी के खिलाफ सुकमा जिले के नामा गांव के आदिवासी शामनाथ बघेल की हत्या के मामले में एफआईआर दर्ज कर ली गई. हालांकि यह एफआईआर शामनाथ की विधवा विमला बघेल की शिकायत पर दर्ज की गई थीं, लेकिन मामले की हकीकत यह थीं कि विमला ने अपनी रिपोर्ट में किसी भी शख्स का नाम नहीं लिया था.

इस घटना के बाद सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपने बचाव के लिए सुप्रीम कोर्ट की शरण ली. पूरे प्रकरण में जब छत्तीसगढ़ की पुलिस ने भी नए सिरे से पड़ताल की तो यह पाया कि सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हत्या का झूठा मामला दर्ज किया गया है. यही एक वजह थीं कि फरवरी 2019 में सभी के आरोप वापस लेते हुए एफआईआर से नाम हटा लिया गया. इधर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं को मानसिक प्रताड़ना दिए जाने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार को मुआवजा देने को कहा है. आयोग ने यह निर्देश तेलंगाना के अधिवक्ताओं और उस तथ्यान्वेषी दल के लिए भी दिया है जिन्हें माओवादियों की मदद करने के आरोप में सुकमा की जेल में बंद कर दिया गया था. मानवाधिकार आयोग के इस फैसले माकपा सहित अन्य कई संगठनों ने स्वागत किया है. माकपा के सचिव संजय पराते का कहना है कि भाजपा के शासनकाल में आदिवासियों के हितों के लिए काम करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को बर्बर तरीके से कुचला गया था. जो कोई भी बस्तर की हकीकत को सामने लाने का प्रयास करता था उसे संघी गिरोह के लोग अपने राजनीतिक निशाने पर रखते थे और देशद्रोही होने का ठप्पा लगा देते थे. सामाजिक कार्यकर्ता विनीत तिवारी कहते हैं- मानवाधिकार आयोग का फैसला साबित करता है कि सांप्रदायिक ताकतों को बढ़ावा देने वाली भाजपा सरकार पूरी तरह से गलत थीं. उनका कहना है कि वरवर राव, सुधा भारद्वाज जैसे प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी निशाना बनाया गया है. विनीत तिवारी कहते हैं- कल्लूरी के साथ वे सभी अफसर जो फर्जी रिपोर्ट के खेल में शामिल थे उनसे मुआवजा तो वसूलना ही चाहिए...सभी पर मुकदमा भी दर्ज होना चाहिए.

 

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